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________________ २८७ छक्खंडागमे वेषणाखंड (४, २, ४, ६.. सुहुमणिगोदेसु उप्पाइदे ण कोच्छेि लाभो अस्थि त्ति भणिदे एत्थ परिहारो उच्चदे .. अस्थि लाभो, अण्णहा सुत्तस्स अणस्थयत्तप्पसंगादो । ण च सुत्तमणत्थयं होदि, वयणविसंवादकारणराग-दास-मोहम्मुक्कजिणवयणस्स अणत्थयत्तविरोहादो। कधमणत्ययं ण होदि ? उच्चदे--- पढमसम्मत्तं संजमं च अक्कमेण गेण्हमाणो मिच्छाइट्ठी अधापवत्तकरण-अपुत्र करण अणियट्टिकरणाणि कादूण चेव गेण्हदि । तत्थ अधापवत्तकरणे णस्थि गुणसडीए कम्मणिज्जरा गुणसंकमो च । किंतु अणंतगुणाए विसोहीए विसुज्झमाणो चेव गच्छदि । तेण तत्थ कम्मसंचओ चेव, ण णिज्जरा । पुणो अपुष्वकरणपढमसमए आउअवज्जाणं सव्वकम्माणं उदयावलियबाहिरे सव्वहिदीसु द्विदपदेसम्गमोकड्डुक्कड्डणभागहारेण जोगगुणगारादो असंखेज्जगुणहीणेण खंडिय तत्थ एगखंडं पुध दृविय पुणो तमसंखेज्जलोगेहि खांडेय तत्थ एगखंड घेतूण उदयावलियाए गोवुच्छागारेण संछुहिय पुणो सेसबहुभागेसु असंखज्जपंचिंदियसमयपबद्धे उदयावलियबाहिरहिदीए णिसिंचदि । पुणो तत्तो असंखेज्जगुणे समयपबद्धे घेत्तण तदुवरिमद्विदीए णिसिंचदि । पुणो तत्तो असंखेज्जगुणे समयपबद्धे तत्व समाधान-ऐसी शंका करनेपर यहां उसका परिहार करते है कि उसमें लभ है, नहीं तो सूत्रके अनर्थक होने का प्रसंग आता है। और सूत्र अनर्थक होता नहीं है, क्योंकि, वचनविसंबाद के कारणभूत राग, द्वेष व मोहसे रहित जिन भगयान के वचन के अनर्थक होने का विरोध है। शंका-- सूत्र कैसे अनर्थक नहीं होता है ? समाधान-इसका उत्तर कहते हैं। प्रथम सम्यक्त्य और संयम को एक साथ ग्रहण करनेवाला मिथ्यादृष्टि अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिभरणको करके ही ग्रहण करता है। उनसे अधःप्रवृत्त करणमें गणश्रेणिकर्मनिजरा और गुणसंक्रमण नहीं है । किन्तु अनन्तगुणी विशुद्धिसे विशुद्ध होता हुआ ही जाता है। इस कारण अधःप्रवृत्तकरणमें कर्मसंचय ही है, निर्जरा नहीं है। पश्चात् अपूर्वकरणके प्रथम समय में आयुको छोड़कर सब कमाके उदयावलिबाह्य सब स्थितियों में स्थित प्रदेशाग्रको योगगुणकारसे असंख्यातगुणे हीन ऐस अपकर्षणउत्कर्षणभागहारसे भाजित कर उसमेंसे एक भागको पृथक् स्थापित कर पश्चात् उसे भसंख्यात लोकोंसे खण्डित कर उसमें एक भागको प्रहण कर उदयावलीमें गोपुच्छाकार अर्थात् चय हीन क्रमसे देकर पश्चात् शेष बहुभागोंमेले पंचेन्द्रिय सम्बन्धी असंख्यात समयप्रबद्धाको उदयावलीके बाहर प्रथम स्थिति देता है। तथा उनसे असंख्यातगुण समयप्रबद्धौंको ग्रहण कर उसले उपरिम स्थिति देता है। तथा उनसे असंख्यातगुणे समयप्रबद्धोंको व से ग्रहण कर उससे उमरिम स्थिति देता है ! इस मप्रतिपाठोऽयम । अ-आ-का-ताप्रति 'कोलि ' इति पाठः । २ लाप्रती लामो अस्थिति पति पाठः। ३ प्रतिषु 'पटमसम्म सम्मतं संजम पति पाठः । ४ तापती 'अपुवकरण 'इत्येतत्पदं लोक्लम्यते । ५-अप्रत्योः 'बाहिर इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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