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छक्खंडागमे वेयणाखंड
[१, २, ४, १८१. कालेण अवहिरिजंति ? दिवड्डगुणहाणिहाणंतरेण कालेण अवहिरिजंति सेडीए संखेज्जदिभागमेत्तकालेण वा । एत्थ दिवड्ढबंधणविहाणं जाणिदूण वत्तव्वं । बिदियाए वग्गणाए जीवपदेसपमाणेण केवचिरेण कालेण अवहिरिज्जति ? सादिरेयदिवड्वगुणहाणिहाणंतरेण कालेण अवहिरिज्जंति । एवं गंतूण बिदियगुणहाणिपढमवग्गणाए जीवपदेसपमाणेण केवचिरेण कालेण अवहिरिजजंति ? तिणिगुणहाणिहाणंतरपमाणेण अवहिरिज्जंति, एगगुणहाणि चडिदो त्ति एगरूवं विरलिय दुगुणिय दिवड्वगुणहाणीओ गुणिदे तिण्णिगुणहाणिसमुपत्तीदो । एदस्सुवरि सादिरेयतिण्णिगुणहाणिहाणंतरेण कालेण अवहिरिज्जंति । एवं णेयव्वं जाव बिदियगुणहाणिं चडिदो त्ति । तदो तदियगुणहाणिपढमवग्गणजीवपदेसेहि सव्वपदेसा केवचिरेण कालेण अवहिरिज्जति ? छग्गुणहाणिकालेण, दोगुणहाणीयो चडिदो ति दोरूवाणि विरलेदूण विगं करिय अण्णोण्णब्भत्थरासिणा दिवड्ढगुण हाणीए गुणिदाए छगुणहाणिसमुप्पत्तीदो । पुणो एवं णेदव्वं जाव चरिमवग्गणेत्ति । एत्थ वग्गण जीवादेसाणं संदिट्ठी एसा ठवेदव्वा। २५६ | २४० | २२४ | २०८ | १९२ | १७६ | १६ | १४४ ।। एवं उवरिमगुण
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सब जीवप्रदेश कितने कालसे अपहृत होते हैं ? उक्त प्रमाणसे वे डेढ़गुणहानिस्थानान्तरकालसे अथवा श्रेणिके संख्यातवें भाग मात्र काल से अपहृत होते हैं। यहां द्वयर्थबन्धनविधानको जानकर कहना चाहिये। द्वितीय वर्गणा सम्बन्धी जीवप्रदशोके प्रमाणसे सब जीवप्रदेश कितने कालसे अपहृत होते हैं ? उक्त प्रमाणसे वे साधिक डेढ़गुणहानिस्थानान्तरकालसे अपहृत होते हैं। इस प्रकार जाकर द्वितीय गुणहानि सम्बन्धी प्रथम वर्गणाके जीवप्रदेशोंके प्रमाणसे वे कितने कालसे अपहृत होते हैं ? उक्त प्रमाणले वे तीन गुणहानिस्थानान्तर प्रमाण कालसे अपहृत होते हैं, क्योंकि, एक गुणहानि गया है, अतः एक रूपका विरलन करके दुगुणा कर उससे डेढ़ गुणहानियोको गणित करनेपर तीन गुणहानियोकी उत्पत्ति है। इसके आगे वे साधिक तीन गुणहानिस्थानान्तरकालसे अपहृत होते है। इस प्रकार द्वितीय गुणहानि जाने तक ले जाना चाहिये। तत्पश्चात् तृतीय गुणहानिकी प्रथम वर्गणा सम्बन्धी जीवप्रदेशोंसे सब प्रदेशं कितने कालसे अपहृत होते हैं ? उक्त प्रमाणसे वे छह गुणहानिकालसे अपहृत होते हैं, क्योंकि, दो गुणहानियां गया है अतः दो रूपोंका विरलन करके दुगुणा करके उनकी अन्योन्याभ्यस्त राशिसे डेढ़गुणहानियोको गुणित करनेपर छह गुणहानियां उत्पन्न होती हैं। आगे अन्तिम वर्गणा तक इसी प्रकारसे ले जाना चाहिये। यहां वर्गणाओं सम्बन्धी जीवप्रदेशोंकी संदृष्टि इस प्रकार स्थापित करना चाहिये-प्र. व.२५६, दि.व. २४०, तृ. व. २२४, च. व. २०८, पं. व. १९२, ष. व. १७६, स. व. १६०, अ.व. १४४।
.ताप्रती 'त्य (0) गुणहाणि ' इति पाठः ।
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