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________________ ४, २, ४, १२८. वेयणमहाहियारे वैयणदव्वविद्दाणे अप्पाबहुअं { ३८९ एत्थ विसेसपमाणं णाणावरणदव्यमावलियाए असंखेज्जदिभागेण खंडिदेगखंडमेत्तं । कुदो ? साभावियादो | हेट्ठिमगुणसेडीहिंतो असंखेज्जगुणाएं खीणकसायगुणसेडीए तिष्णं घादिकम्माणं जादणिज्जरा अप्पहाणा, सग-सगदव्वं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण खंडिदे तत्थ एगखंडस्सेव पत्तादो । वेणीवेयणा दव्वदो जहण्णिया विसेसाहिया ॥ १२८ ॥ केत्तियमेत्तो विसेसेो ? मोहद्रव्यमावलियाए असंखेज्जदिमागेण खंडिदे तत्थ एगखंडमेत्तो | कुदो ? सामावियादो । कसाय - णोकसायदव्वं सव्वं पडिच्छिय दिलोभसंजणदव्वं सुहुमसांपराइयचरिमसमय जेण मोहणीयस्स जहणं जाएं, वेदणीयस्स पुणों अजोगिस्स दुचरिमसमए वोछिण्ण असादावेदणीयसंतस्स चरिगसमए सादावेदणीयदव्वमेक्कं चेव घेत्तृण जहणं जादं, तेण वेयणीयजहण्णदव्वादो मोहणीयजहण्णदव्वेण संखेज्जगुणेण होदव्वमिदि ? ण, असादावेदणीयस्स गुणसेडिचरिमगोवुच्छाए उदयाभावेण थिबुक्कसंकमण यहां विशेषका प्रमाण ज्ञानावरणके द्रव्यको आवलीके असंख्यात भागसे खण्डित करनेपर उसमेंसे वह एक खण्ड मात्र है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है । अधस्तन गुणश्रेणियोंकी अपेक्षा असंख्यातगुणी ऐसी क्षीणकषाय गुणश्रेणिके द्वारा हुई तीन घातिया कर्मोकी निर्जरा गौण है, क्योंकि, अपने अपने द्रव्यको पल्योपमके असंख्यातवें भागसे खण्डित करनेपर उसमेंसे एक खण्ड ही उसके द्वारा नष्ट हुआ है । द्रव्यसे जघन्य वेदनीयकी वेदना विशेष अधिक है ॥ १२८ ॥ विशेषका प्रमाण कितना है ? मोहनीयके द्रव्यको आवलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित करनेपर उसमेंसे वह एक खण्ड मात्र है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है । शंका- कषाय और नोकषाय रूप सव द्रव्यको ग्रहण कर स्थित संज्वलनलोभका द्रव्य चूंकि सूक्ष्मसाम्परायिकके अन्तिम समय में मोहनीयका जघन्य द्रव्य हुआ है, किन्तु वेदनीय कर्मका द्रव्य अयोगीके द्विचरम समय में असातावेदनीयके सत्त्वकी व्युच्छित्ति हो जानेपर उसके चरम समय में केवल एक सातावेदनीयके ही द्रव्यको ग्रहण कर जघन्य हुआ है; इसीलिये वेदनीयके जघन्य द्रव्यकी अपेक्षा मोहनीयका - जघन्य द्रव्य संख्यातगुणा होना चाहिये ? --- समाधान - ऐसा नहीं है, क्योंकि, उदयका अभाव होनेसे स्तिक संक्रमणके द्वारा सातावेदनीय स्वरूपले परिणत हुई असातावेदनीयकी गुणश्रेणि रूप अन्तिम गोपुच्छा के १ अ आ-काप्रतिषु ' विसेसपमाणणाणावरण ' इति पाठः । २ अ आप्रत्याः ' मोहणीयस्स जहणं जाएं वेदणी पुणो', काप्रतौ 'मोहणीयस्स जादं वेदणीयं जद्दण्णं पुणो' इति पाठः । ३ अ-काप्रत्योः ' विउक्करस कमेण', आप्रतौ ' विदुक्कस्सकमेण ताप्रतौ, वि उक्कस्सं ( स्सस्रं ) कमेण ' इति पाठः । Jain Education International 2 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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