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________________ ४, २४, ९.] वेयणमहाहियारे वेयगदवाविहाणे पदमीमांसा सिद्धीदो । तं पि कुदो ? जोगा पयडि-पदेसा ति सुत्तादो। दीहाओ पज्जत्तद्धाओ रहस्साओ अपज्जत्तद्धाओं ॥९॥ पज्जत्ताणमद्धाओ आउआणि पज्जत्तद्धाओ, ताओ दीहाओ । कत्तो ? खविदकम्मंसियखविद-गुणिद-घोलमाणपज्जत्तद्धाहिंतो । अपज्जत्तद्धाओ रहस्साओ । केहिंतो ? खविदकम्मंसिय-खविद-गुणिद-घोलमाणअपज्जत्तद्धाहिंतो । पज्जत्तेसुप्पज्जमाणो दीहाउएस चेव उप्पज्जदि अपज्जत्तएसु उप्पज्जमाणो अप्पाउएसु चेव उप्पज्जदि त्ति वुत्तं होदि । अपज्जत्तद्धाहिंतो सगपज्जत्तद्धाओ दीहाओ त्ति किण्ण भण्णदे १ न व्यभिचाराभावेन विशेषणस्य शंका-वह भी किस प्रमाणसे सिद्ध है ? ' समाधान- 'योगसे प्रकृति और प्रदेश बन्ध होते हैं ' इस सूत्रसे वह सिद्ध है ? पर्याप्त काल दीर्घ और अपर्याप्त काल थोड़े होते हैं ॥ ९॥? पर्याप्तोंके काल अर्थात् आयु पर्याप्तकाल कहलाते हैं । वे दीर्घ हैं। शंका-किनसे दीर्घ हैं ? समाधान-क्षपितकर्माशिकके क्षपित-गुणित और बोलमान पर्याप्तकालोंसे दधि अपर्याप्तकाल थोड़े हैं । शंका - किनसे थोड़े हैं ? समाधान--क्षपितकर्माशिकके क्षपित-गुणित और घोलमान अपर्याप्तकालोंसे थोड़े हैं। पर्याप्तकोंमें उत्पन्न होता हुआ भी दीर्घ आयुवालोंमें ही उत्पन्न होता है और अपर्याप्तोंमें उत्पन्न होता हुआ अल्प आयुवालोंमें ही उत्पन्न होता है, यह उक्त सूत्रका अभिप्राय है। _ शंका-अपर्याप्तकालोंसे अपना पर्याप्तकाल दीर्घ है, ऐसा क्यों नहीं कहते ? समाधान-नहीं, क्योंकि, इस कथनमें कोई व्यभिचार न होनेसे उक्त विशेषणके १ गो. क २५७. २ क.प्र. २-७४. ३ प्रतिषु ' आउअणि 'इति पाठः। ४ प्रतिषु ' कत्ता' इति पाठः। ५ अ-आ-स प्रतिषु — पजचीस ' इति पाठः; काप्रती त्वत्र त्रुटितः पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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