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३८) छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ १, २, ४, १०. वेफल्यप्रसंगात् ।
एत्थेव सुत्तम्मि णिलीणस्स बिदियसुत्तस्स अत्थो वुच्चदे । तं जहा- पज्जत्तएसु दीहाउएसु उप्पण्णस्स आउअभागा दो हवंति एगो पज्जत्तभागो अवरो अपज्जत्तभागो ति । तत्थ दीहाओ पज्जत्तद्धाओ त्ति उत्ते खविदकम्मंसिय-खविद-गुणिद-घोलमाणपज्जत्तद्धाहितो गुणिदकम्मंसियपज्जत्तद्धाओ दीहाओ, तेसिमपज्जत्तद्धाहिंतो एदस्स अपज्जत्तद्धाओ रहस्साओ त्ति घेत्तव्वं । पज्जत्तएसु दीहाउएसु उप्पण्णो वि सव्वलहुएण कालेण पज्जत्तीयो समाणेदि त्ति वुत्तं होदि । किमढें एंदाणि दो वि सुत्ताणि उच्चंति ? एयंताणुवड्डिजोगे परिहरिय परिणामजोगग्गहणटुं।
जदा जदा आउअंबंधदि तदा तदा तप्पाओग्गेण जहण्णएण जोगेण बंधदि ॥ १०॥
अपज्जत्त-पज्जत्तुववादेयंताणुवड्डिजोगाणं परिहरणट्ठमाउअबंधपाओग्गजहण्णपरिणाम
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निष्फल होनेका प्रसंग आता है।
__ अब इसी सूत्रमें गर्भित द्वितीय सूत्रका अर्थ कहते हैं । वह इस प्रकार है-दीर्घ आयुवाले पर्याप्तकों में उत्पन्न हुए जीवके आयुके दो भाग होते है एक पर्याप्तभाग और दूसरा अपर्याप्त भाग । सो यहां पर्याप्तकाल दीर्घ होते हैं ' ऐसा कहनेपर क्षपितकर्मों. शिक क्षपितगुणित और घोलमान पर्याप्तकालोंसे गुणितकांशिकके पर्याप्तकाल दीर्घ होते हैं और उनके अपर्याप्तकालोंसे इसके अपर्याप्तकाल थोड़े होते हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । दीर्घ आयुवाले पर्याप्तों में उत्पन्न होकर भी सबसे अल्प काल द्वारा पर्याप्तियोंको पूर्ण करता है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
शंका - ये दोनों ही सूत्र किसलिये कहे जाते है ? .
समाधान-एकान्तानुवृद्धियोंको छोड़कर परिणामयोगोंका ग्रहण करनेके लिये उक्त दोनों सूत्र कहे गये हैं।
जब जब आयुको बांधता है तब तब उसके योग्य जघन्य योगसे बांधता है ॥१०॥
अपर्याप्त व पर्याप्त भवसम्बन्धी उपपाद और एकान्तानुवृद्धि योगोंका निषेध करनेके लिये तथा आयुबन्धके योग्य जघन्य परिणाम योगका ग्रहण करनेके लिये उसके
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.प्र.२-७५.
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