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. छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, ४, ८. घोलमाण-अपज्जत्तभवेहिंतो । गुणिदकम्मंसियस्स अपज्जत्तभवेहितो तस्सेव पज्जत्तभवा बहुगा त्ति किण्ण भण्णदे ? ण, बादरपुढवीकाइयअपज्जत्तभवसलागाहिंतो पज्जत्तभवसलागाणं पहुतस्स अणुत्तसिद्धीदो । कुदो बहुत्तं णव्वदे ? बादरणिगोदपज्जत्ताणं भवहिदी संखेज्जवस्ससहस्समेत्ता अपज्जत्ताणमंतोमुहुत्तमेत्ता त्ति कालाणिओगद्दारसुत्तादो। सति संभवे व्यभिचारे च विशेषणमर्थवद् भवति । ण चैतद्विशेषणमत्रार्थवत् व्यभिचाराभावात् । तदो पुचिल्लो चेव अत्थो घेत्तव्यो । किमर्से पज्जत्तेसु चेव बहुसो उप्पादिदो ? अपज्जत्तजोगेहिंतो पज्जत्तजोगाणमसंखेज्जगुणत्तुवलंभादो । किमर्ट जोगबहुत्तमिच्छिज्जदे ? ण, जोगादो पदेसबहुत्त
शंका-गुणितकांशिकके अपर्याप्त भवोंसे उसके ही पर्याप्तभव बहुत हैं, ऐसा क्यों नहीं कहते ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, बादर पृथिवीकायिककी अपर्याप्त-भव-शलाकाओंसे पर्याप्त-भव-शलाकायें बहुत हैं, यह विना कहे भी सिद्ध है।
शंका-उनका बहुत्व किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
सामाधन-'बादर निगोद पर्याप्तोंकी भवस्थिति संख्यात हजार वर्ष प्रमाण है और अपर्याप्तोंकी अन्तर्मुहूर्त मात्र है' इस कालानुयोगद्वारके सूत्रसे जाना जाता है।
व्यभिचारके होनेपर या उसकी सम्भावना होने पर विशेषण प्रयोजनवाला होता है ऐसा नियम है। किन्तु यह विशेषण यहां प्रयोजनवाला नहीं है, क्योंकि, व्यभिचारका अभाव है। इस कारण पूर्वोक्त अर्थ ही ग्रहण करना चाहिये।
शंका-पर्याप्तोंमें ही बहुत बार ख्यों उत्पन्न कराया ?
समाधान- चूंकि अपर्याप्तकोंके योगोंसे पर्याप्तकोंके योग असंख्यातगुणे पाये जाते हैं, अतः उन्हींमें बहुत बार उत्पन्न कराया है ।
शंका-योगोंकी बहुलता क्यों अभीष्ट है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, योगसे प्रदेशोंकी अधिकता सिद्ध होती है।
१ अप्रतौ ' भाणदे ' इति पाठः।
२ कालाणुगम १५६.
३ प्रतिषु · पंडितेसु' इति पाठः ।
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