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________________ १६.] छक्खंडागमे वेयणाखंडं . [४, २, ४, १८५. आदिवग्गणा जायदे । तं जहा- बिदियफद्दयस्स आदिवग्गणा | १६ | दोहि गुणिदा | ३२ | ब्रिदियजुम्मफद्दयस्स आदिवग्गणा होदि । सा चेव तीहि गुणिदा | ४८ | तदियजुम्मफद्दयस्स आदिवग्गणा होदि । एवं जाणिदूण पदव्वं जाव चरिमजुम्मफयो त्ति । दो-दोरूवक्खेवं धुवरूवे' कार्दुमादिमं गुणिदं । पक्खेबसलागसमाणे ओजे आदि धुवं मोत्तुं ॥ २३ ॥ आदिफद्दयस्स आदिवग्गणादो सेसओजफद्दयाणमादिवग्गणाओ जाणावणहमेसा गाहा आगदा । धुवरूवमेगं, तत्थ धुवरूवे दो-दोरूवपक्खेवं काहूँ किच्चा आदिवग्गणाए पढमफद्दयस्स आदिवग्गणं पदुप्पादए इदि वुत्तं होदि । एवं गुणिदे ओजफद्दयस्स आदिवग्गणा होदि । सा वुप्पण्णओजफद्दयस्स आदिवग्गणा कइत्थस्स ओजफद्दयस्सेत्ति वुत्ते युच्चदे- 'पक्खेवसलागसमाणे' पक्खेवसलागसहिदे धुवरूवे आदि हेट्ठिमओजफद्दयपमाणं होती है। यथा- द्वितीय स्पर्धककी प्रथम वर्गणा (१६) को दोसे गुणित करनेपर द्वितीय युग्म स्पर्धककी प्रथम वर्गणा होती है (१६ x २ = ३२)। उसीको तीनसे गुणित करनेपर तृतीय युग्म स्पर्धककी प्रथम वर्गणा होती है (१६४ ३ = ४८)। इस प्रकार जानकर चरम युग्म स्पर्धक तक ले जाना चाहिये। ध्रुव रूपमें दो दो अंकोंका प्रक्षेप करके उससे प्रथम स्पर्धककी प्रथम वर्गणाको गुणित करनेपर जो प्राप्त हो उतना प्रक्षेपशलाकाओंसे युक्त ध्रुव रूप में से पिछले ओज स्पर्धकोंके प्रमाणको नियमसे घटानेपर जो शेष रहे उतनेवें ओज स्पर्धककी प्रथम वर्गणाका प्रमाण होता है ॥ २३ ॥ प्रथम स्पर्धककी प्रथम वर्गणासे शेष ओज स्पर्धकोंकी प्रथम वर्गणाओंके ज्ञापनार्थ यह गाथा आई है। ध्रुव रूपसे अभिप्राय एक अंकका है, उस एक अंकमें दो-दो अंको का प्रक्षेप करके उससे आदि वगेणा अथात् प्रथम स्वघेककी प्रथम वर्गणाको गुणित करे । इस प्रकार गुणा करनेपर ओज स्पर्धककी प्रथम वर्गणा होती है। शंका- वह उत्पन्न हुई ओज स्पर्धककी प्रथम वर्गणा कितनेवे ओज स्पर्धककी होती है ? समाधान-ऐसी शंका करनेपर उत्तर देते हैं कि 'प्रक्षेपशलाका समान अर्थात् प्रक्षेपशलाकाओंसे युक्त ध्रुव अंकमें आदि अर्थात् पिछले ओज स्पर्धकके १ प्रतिषु 'रूवं ' इति पाठः। २ का-तापत्योः 'कादि' इति पाठः। ३ आ-कापत्योः 'गुण', मातोगुणए' इति पाठः। ४ ताप्रती खेव' इति पाठः। ५ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आप्रत्योः 'आदिवग्गणात फायफदयस्स', काप्रतौ ' आदिवग्गणाए फहयं फहयस्स', ताप्रतौ 'आदिवग्गणाए फद्दयस्स' इति पाः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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