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१, २, ४, ३३.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं
[ २१९ माणं पदेसट्ठाणाणं खविदगुणिदघोलमाणा सामिणो । तदो जं अणंतरमसंखेज्जगुणवड्डिहाणं तं गुणिदघोलमाणस्स अपुणरुतं भवदि । एवमपुणरुत्तसरूवेण गुणिदघोलमाणअसंखेज्जगुणवड्डिपदेसट्ठाणेसु गच्छमाणेसु दूरं गंतूग गुणिदकम्मंसियजहण्णपदेसट्ठाणं दिस्सदि । तं पुणरुतं होदि । पुणो परमाणुत्तरं वड्डिदे तस्स अणंतभागवड्डिपदेसट्ठाणं होदि । तं पि पुणरुत्तं होदि । एवं पुणरुत्तापुणरुत्तसरूवेण अणंतभागवड्ढि-असंखेज्जगुणवड्ढीणं गच्छमाणाणं दूरं गंतूण गुणिदकम्मंसियस्स अणंतभागवड्डी परिहायदि, असंखेज्जभागवड्डी पारभदि । तं पि पुणरुत्तपदेसट्टाणं होदि । एवं पुणरुत्तापुणरुत्तसरूवेण असंखेज्जभागवडिअसंखेज्जगुणवड्ढीणं गच्छमाणाणं अणंताणि हाणाणि गंतूण गुणिदघोलमाणअसंखेज्जगुणवड्ढीसमप्पदि । एत्तो प्पहुडि हेट्ठिमाणं गुणिदकम्मंसियजहण्णपदेसठ्ठाणपज्जवसाणाणं गुणिदधोलमाणो गुणिदकम्मंसियो च सामी । एत्तो अणंतरमुवरिमपदेसट्ठाणं गुणिदकम्मंसियस्स चेव होदि । तं च अपुणरुतं । एवं णेदव्वं जाव गुणिदकम्मंसियस्स उक्कस्सट्ठाणे त्ति । पुणो एत्थ उक्कस्तपदेसट्ठाणम्मि जहण्णपदेसट्टाणे सोहिदे जेत्तिया परमाणू अवसेसा तेत्तियमताणि णाणावरणस्स अणुक्कस्सपदेसट्ठाणाणि । उक्कस्सपदेससामियस्स लक्खणं पुव्वं परूविदं । जहण्णपदेससामियस्स लक्खणमुवरि भणिहिदि । अवसेसाणमणताणं ठाणाणं जे सामिणो जीवा तेसिं लक्खणं किण्ण परविदं ? ण एस दोसो, जहण्णुक्कस्सपदेसट्ठाणगुणितघोलमान जीव स्वामी हैं । उससे अनन्तर जो असंख्यातगुणवृद्धिका स्थान है वह गणितघोलमानके अपुनरुक्त होता है । इस प्रकार अपुनरुक्त स्वरूपसे गुणितघोलमानके असंख्यात गुणवृद्धिप्रदेशस्थानोंके चालू रहनेपर दूर जाकर गुणितकर्मीशिक.का जघन्य प्रदेशरथान दिखता है। वह पुनरुक्त है । फिर एक आदि परमाणुकी वृद्धि होने पर उसके अनन्तभागवृद्धिप्रदेशस्थान होता है । वह भी पुनरुक्त होता है। इस प्रकार पुनरुक्त और अपुनरुक्त स्वरूपसे अनन्तभागवृद्धि और असंख्यातगुणवृद्धिके चालू रहनेपर दूर जाकर गुणितकर्माशिकके अनन्तभागवृद्धिकी हानि हो जाती है और असंख्यातभागवृद्धिका प्रारम्भ होता है। वह भी पुनरुक्त प्रदेशस्थान है। इस
र पुनरुक्त-अपुनरुक्त स्वरूपसे असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातगुणवृद्धि के चालू रहनेपर अनन्त स्थान जाकर गुणितघोलमानके असंख्यातगुणवृद्धि समाप्त हो जाती है। यहांसे लेकर नीचेके गुणितकर्माशिक सम्बन्धी जघन्य प्रदेशस्थान पर्यन्त स्थानोंका गुणितघोलमान और गुणितकौशिक जीव स्वामी हैं। इससे अनन्तरका उपरिम प्रदेशस्थान गुणितकांशिकके ही होता है। वह अपुनरुक्त है। इस प्रकार गुणितकौशिकके उत्कृष्ट स्थानके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिये । पश्चात् यहां उत्कृष्ट प्रदेशस्थानमैसे जघन्य प्रदेशस्थानको कम करने पर जितने परमाणु शेष रहते हैं उतने मात्र ज्ञानावरणके अनुत्कृष्ट प्रदेशस्थान हैं । उत्कृष्ट प्रदेशस्थानके स्वामीका लक्षण पूर्व में कहा जा चुका है। जघन्य प्रदेशस्थानके स्वामीका लक्षण आगे कहा जायगा ।
शंका-शेष अनन्त स्थानोंके जो जीव स्वामी हैं उनका लक्षण क्यों नहीं कहा? अ-काप्रमोः ' भणिदेहिओ', तापतो ' मणिहीओ', मप्रतौ ' भणिहिविगी' पति पाठ।।
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