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________________ [५९ १, २, ४, २८.] वेयणमहाहियारे वेयगदव्वविहाणे सामित्तं तत्थ एदेसिं जोगट्ठाणाणं विसेसणभूदो कालो सगसंखं पडुच्च जवाकारो, मज्झे थूलो होदूण दोसु वि पासेसु कमहाणीए गमणादो । ४।५।६।७।८।७।६।५।४।३।२। एदेहि विसेसिदजोगट्ठाणं पि एक्कारसविहं होदि, अण्णहा विसेसियत्ताणुववत्तीदो पुधभूदकालाणुवलंभादो। जेोगो चेव जवो, तस्स मज्झं जवमझं, अट्ठसमइयजोगट्ठाणाणि त्ति उत्तं होदि । तस्स उवरि उवरिमजोगट्ठाणेसु सव्वजोगट्ठाणाणमसंखेज्जेसु भागेसु अंतोमुहुत्तद्धमच्छिदो । कुदो १ चत्तारिवड्डि-हाणीणं संभवदसणादो । चदुवड्डि-हाणिकालो अंतोमुहुत्तमिदि कधं णव्वदे ? असंखेज्जगुणवड्डि-हाणिकालो अंतोमुहुत्तं, सेसवड्डि-हाणीणं कालो आवलियाए असंखेज्जदिभागो त्ति बंधसुत्तादो । किमर्से तत्थ अंतोमुहुत्तमच्छाविदो ? जवमज्झादो उवरिमजोगाणं हेट्ठिमजोगेहिंतो बहुत्तुवलंभादो । जोगजवमज्झादो एदस्स सुत्तस्स अत्थे भण्णमाणे यहां इन योगस्थानोंका विशेषणभूत काल अपनी संख्याकी अपेक्षा यवाकार हो जाता है, क्योंकि, वह मध्यमें तो स्थूल है और दोनों ही पार्श्वभागोंमें क्रमसे हानि होती गई है। ४।५।६।७।८।७।६।५।४।३।२। इस प्रकार इन चार आदि समयोसे विशेषित योगस्थान भी ग्यारह प्रकारका है, अन्यथा वह कालका विशेष्य नहीं बन सकता, क्योंकि, योगसे पृथग्भूत काल नहीं पाया जाता। यहां योगको ही यव कहा है और उसका मध्य यवमध्य कहलाता है। यवमध्यसे आठ समयवाले योगस्थान लिये जाते हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। उस यवमध्यके ऊपर सब योगोंके असंख्यात बहुभाग प्रमाण योगस्थानों में अन्तर्मुहूर्त काल तक स्थित रहा, क्योंकि, वहां चार वृद्धियों और चार हानियोंकी सम्भावना देखी जाती है । शंका-चार वृद्धियों और चार हानियोंका काल अन्तर्मुहूर्त है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान -' असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानिका काल अन्तर्मुहर्त है तथा शेष वृद्धियों और शेष हानियों का काल आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण है' इस बन्धसूत्रसे यह जाना जाता है कि चार वृद्धियों और चार हानियों का काल अन्तर्मुहूर्त है । शंका-वहां अन्तर्मुहूर्त काल तक किसलिये स्थित कराया ? - समाधान-चूंकि यवमध्यसे आगेके योग पिछले योगोंसे बहुत पाये जाते हैं, अतः वहां अन्तर्मुहूर्त काल तक स्थित कराया है। विशेषार्थ-प्रति समय मन, वचन और कायके निमित्तसे जो आत्मप्रदेशपरिस्पंद होता है उसे योग कहते हैं और इनके स्थानोंको योगस्थान कहते हैं । योगस्थान तीन प्रकारके होते हैं- उपपाद योगस्थान, एकान्तवृद्धि योगस्थान और परिणाम योगस्थान । भवके प्रथम समय में स्थित जीवके उपपाद योगस्थान होते हैं । इसके पश्चात् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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