SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 76
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४, २, १, २५.] वैयणमहाहियारे वेयणदत्वविहाणे सामित्तं वडिदसणादो। तत्थ गुणगारो जहण्णुक्कस्स-तव्वदिरित्तभेएण तिविहो । तत्थ सेसदोवड्डीओ परिहरणट्ठमुक्कस्सियाए वड्डीए वड्डिदो त्ति भणिदं, अण्णहा उक्कस्सदव्वसंचयाणुववत्तीदो । अंतोमुहुत्तेण सव्वलहुं सव्वाहि पज्जतीहि पज्जत्तयदो ॥२४॥ पज्जत्तीणं समाणकालो एगसमयादिओ णत्थि त्ति परूवणट्ठमंतोमुहुत्तवयणं । तिस्से अजहण्णकालपडिसेहढे सव्वलहुवयणं । एक्काए वि पज्जत्तीए असमत्ताए पज्जत्तएसु परिणामजोगो ण होदि त्ति जाणावणटुं सबाहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो ति उत्तं । किं फलमिदं सुतं ? अपज्जत्तजोगादो पज्जत्तजोगो असंखेज्जगुणो त्ति जाणावणफलं । तत्थ भवहिदी तेत्तीससागरोवमाणि ॥२५॥ एदेण अद्धावासो' परूविदो । सेस सुगमं । समयमें असंख्यात गुणित श्रेणि रूपसे योगकी वृद्धि देखी जाती है । वहां गुणकार जघन्य, उत्कृष्ट तद्व्यतिरिक्तके भेदसे तीन प्रकारका है। उनमेंसे शेष दो वृद्धियोंका परिहार करनेके लिये 'उत्कृष्ट वृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त हुआ' ऐसा कहा है, अन्यथा उत्कृष्ट द्रव्यका संचय नहीं बन सकता है । अन्तर्मुहूर्त द्वारा अति शीघ्र सभी पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ ॥ २४ ॥ __ पर्याप्तियोंकी पूर्णताका काल एक समय आदिक नहीं है, इस बातका कथन करनेके लिये सूत्र में ' अन्तर्मुहूर्त' पदका ग्रहण किया है । पर्याप्तियोंके अजघन्य कालका निषेध करनेके लिये 'सर्वलघु' पद कहा है। एक भी पर्याप्तिके अपूर्ण रहनेपर पर्याप्तकोंमें परिणाम योग नहीं होता, इस बातके ज्ञापनार्थ 'सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ' ऐसा कहा है। शंका-इस सूत्रका क्या प्रयोजन है। समाधान-अपर्याप्त योगसे पर्याप्त योग असंख्यातगुणा है, यह बतलाना इस सूत्रका प्रयोजन है। वहां भवस्थिति तेतीस सागरोपम प्रमाण है ।। २५ ॥ इस सूत्र द्वारा अद्धावासकी प्ररूपणा की गई है। शेष कथन सुगम है। १ प्रतिषु 'ससव्वाहि' इति पाठः। २ प्रतिषु अस्थावासो' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy