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________________ १, २, ५, १०७.) वैयणमहाहियारे वेयणदव्यविहाणे सामित्त वग्गणाए जीवपदेसा असंखेज्जगुणहीणा' । तत्तो विसेसहीणा । एवमंतामुहुत्तमपुव्वफहयाणि केरेदि असंखेज्जगुणहीणाए सेडीए, जीवपदेसाणं पि असंखज्जगुणाए सेडीएँ । अपुष्वफद्दयाणि सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि । सेडिवग्गमूलस्स वि असंखज्जदिभागों, पुम्बफद्दयाणं पि असंखज्जदिभागो सव्वाणि अपुव्वफद्दयाणि । अपुवफद्दयकरणे समत्ते तदो अंतोमुहुत्तकालं जोगकिट्टीयो करेदि । अपुग्वफद्दयाणमादिवग्गणाए अविभागपलिच्छेदाणमसंखेज्जदिभागमोकड्डिदण पढमकिट्टीए योवा अविभागपडिच्छेदा दिज्जति । बिदियाए किट्टीए असंखेज्जगुणाए, तदियाए किट्टीए असंखेज्जगुणाए, एवमसंखेज्जगुणाए सेडीए दिज्जति जाव चरिमकिट्टि त्ति । तदो उपरिमअपुव्वफयाणमादिवग्गणाए असंखेज्जगुणहीणा दिज्जति । तदुवरि सव्वत्थ विसेसहीणा । आदिम घर्गणा जीवप्रदेश असंख्यातगुणे हीन दिये जाते हैं । उससे आगे विशेष हीन दिये जाते हैं । इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त तक असंख्यातगुणहीन श्रेणि रूपसे अपूर्वस्पर्धकोंको करता है। किन्तु जीवप्रदेशोंका अपकर्षण असंख्यातगुणित श्रेणि रूपसे करता है। अपूर्वस्पर्धक श्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । सब अपूर्वस्पर्धक श्रेणिधर्गमूलके भी असंख्यातवें भाग और पूर्वस्पर्धकोंके भी असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। अपूर्वस्पर्धकक्रियाक समाप्त होनेपर पश्चात् अन्तर्मुहूर्त काल तक योगकरियों को करता है। अपूर्वस्पर्धकोंकी प्रथम वर्गणा जितने अविभागप्रतिच्छेद है उनके असंख्यातवें भागका अपकर्षण करके प्रथम कृष्टि में स्तोक अविभागप्रतिच्छद दिये आते हैं। द्वितीय कृष्टिमें असंख्यातगुणित श्रेणि रूपसे, तृतीय कृष्टिमें असंख्यातगुणित श्रेणि रूपसे, इस प्रकार अन्तिम कृष्टि तक असंख्यातगुणित श्रेणि रूपसे अधिभागप्रतिच्छेद दिये जाते हैं। पश्चात् उपरिम अपूर्वस्पर्धकोंकी प्रथम वर्गणा असंख्यातगुणे हीन दिये जाते हैं। उसके आगे सर्वत्र विशेष हीन दिये जाते हैं। द्वितीय समयमें १ अ-आ-काप्रतिषु '-गुणहीणाए ' इति पाठः। २ आदिवग्गणाए अविभागपडिच्छेदाणमसंखेन्जदिमागमोकशुदि, जीवपदेसाणं च असंखेज्जदिमागमोकादि। पढमसमए जीवपदेसाणमसंखेज्जदिमागमोकहियूण अपुवफद्दयाणमादिवग्गणाए जीवपदेसबहुगे णिसिंचदि। विदियाए । वग्गणाए जीवपदेसे विसेसहीणे णिसिंचदि । जयध. (चू. सू.) अ. प. १२४१-४२. - ३ जयध.(चू. सू.) अ. प. १२४२, तत्र 'पि' इत्येतस्य स्थाने 'च' इति पदमुपलभ्यते । जयध. (चू. सू.) अ. प. १२४२. ४ जयध. अ. प. १२४२. ५ एत्तो अंतोमुहुत्तं किट्टीओ करेदि । पूर्वापूर्वस्पर्द्ध कस्वरूपेणेष्टकापंक्तिसंस्थानसंस्थितं योगमपसंहत्य सूक्ष्म-सूक्ष्माणि खंडानि निवर्तयति, ताओ किट्टीओ णाम वुश्चति । जयध. अ. प. १२४३. ६ अपुव्वफयाणमादिवग्गणाए अविभागपडिच्छदाणमसंखेज्जदिमागमोकर पुस्मुत्ताणमपुवकद्दयाणं जा आदिवग्गणा सव्वमंदसतिसमणिदा तिरसे असंखेजदिभापमोदि । तत्तो असंखेज्जगणहीणाविभागपडिरदसरूवेण जोगसत्तिमोवट्यूग तदसंखेज्जदिमागे ठवेदि तिवृत्त होइ । मयम. म. प. १२४३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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