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________________ ४, २, ४, ७६.] यणमहाहियारे बेयणदव्वविहाणे सामित्तं [ ३०१ उक्कस्स संखेज्जमेत्तरूवाणमुवलंभादो | एवं परमाणुत्तरकमेण वड्डावियं अजहण्णदव्ववियप्पा वक्तव्वा जाव जहण्णदव्वं जहण्णपरित्ताणंतेण खंडिय तत्थ एगखंडमेत्ता परमाणू वडिदा त्ति । तावे वि अणतभागवड्डी चैव, जहण्णपरित्ताणंतेण जहण्णदव्वे खंडिदे तत्थ एगखंडमेत्तउडिदसणाद। । पुणो एदस्सुवरि एग दुपरमाणुम्मि' वडिदे अण्णो वि अजद्दण्णदब्ववियप्पो होदि । एसो वियप्पो अनंतभागवडीए चेव जाद। । कुदो ? उक्कस्सासंखेज्जासंखेज्जादो उवरिमसंखाएँ अनंत संखंतब्भावादो' । एदस्स अजहण्णदव्वस्स भागद्दारपरूवणं कस्सामो तं जहा जहण्णपरित्ताणंत विरलिय जहण्णदव्वं समखंड काढूण दिण्णे रूवं पडि जहण्णपरित्ताणंतेण जहण्णदव्वे खंडिदे तत्थ एगखंडं पावदि । पुणो तत्थ एगरूवधरिदं वड्डिरूवोवट्टिदं हेट्ठा विरलेदूम उवरिमएगरूवधरिदं समखंड काढूण दिण्णे रूवं पडि एगेगपरमाणू पावदि । तं घेतूण उवरिमविरलणरूवधरिंदेसु समयाविरोहेण दादूण समकरणे कीरमाणे परिहीणरूवाणं प्रमाणं उच्चदे । तं जहा - रूवाहियदेट्टिमविरलणमेत्तद्वाणं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लग्भदि जघन्य द्रव्यमें भाग देनेपर उत्कृष्ट संख्यात मात्र अंक लब्ध आते हैं । इस प्रकार एक एक परमाणु अधिकता के क्रमसे बढ़ाकर जघन्य द्रव्यको जघन्य परीतानन्तसे स्खण्डित कर उसमें एक खण्ड मात्र परमाणुओंकी वृद्धि होने तक भजघन्य द्रव्यविकल्पों को कहना चाहिये। तब तक भी अनन्तभागवृद्धि ही है, क्योंकि, जघन्य परीतानन्त से जघन्य द्रव्यको खण्डित करनेपर उनमें से एक खण्ड मात्रकी वृद्धि देखी जाती है । पुनः इसके ऊपर एक दो परमाणुकी वृद्धि होनेपर अन्य भी अजघन्य द्रव्यका विकल्प होता है | यह विकल्प अनन्तभागवृद्धिका ही है, क्योंकि, उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातसे आगेकी संख्या अनन्त संख्या के अन्तर्गत है । अब इस अजघन्य द्रव्यके भागहारकी प्ररूपणा करते हैं। यथा- जघन्य परीक्षानम्तका विरलन कर जघन्य द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर विरलन राशिके प्रत्येक एकके प्रति जघन्य परीतानन्तसे जघन्य द्रव्यको भाजित करनेपर उसमेंसे एक खण्ड पाया जाता है । पश्चात् उनमें से एक अंकके प्रति प्राप्त राशिको वृद्धि रूपोंसे अपवर्तित करनेपर जो लब्ध हो उसका नीचे विरलन कर उपरिम एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको समखण्ड करके देमेपर प्रत्येक एकके प्रति एक एक परमाणु प्राप्त होता है । उसको ग्रहण कर उपरिम विरलन अंकोंके प्रति प्राप्त द्रव्य में समयाविरोधसे देकर समीकरण करते समय परिहीन रूपका प्रमाण कहते हैं। यथा- एक अधिक अधस्तन विरलन मात्र स्थान आकर यदि एक १ अ आ का प्रतिषु दव्वाविय' इति पाठः) २ अ-आप्रत्योः । परिमाणम्मि' इति पाठः । ६ प्रति 'करिमसंकोजाए' इति पाठः । ४ अ-आ-काप्रतिष्ठ 'सक्त भावावो', तामतौ ' संततमानादो' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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