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१९८] छक्खंडागमे वैयणाखंड
[४, २, ४, ३२ हिदे इच्छिददव्वं होदि । एवं सव्वत्थ अब्वामोहेण चदुहि पयोरेहि भागहारो साहेयव्यो ।
संपधि एगादिएगुत्तरकमेण वड्डमाणा केत्तियमद्धाणं गंतूण रूवाहियगुणहाणिमेत्तगोवुच्छविसेसा होति जेण रूवाहियचडिदद्धाणेणं चरिमणिसेगभागहारस्स ओवट्टणा कीरदे ? कम्मद्विदिपढेमसमयप्पहुडि गुणहाणिअद्धवग्गेमूलगुणे रूवाहिए उवरि चडिदे होदि । तं जहा- तत्थ ताव गुणहाणिपमाणं संदिट्ठीए बारसुत्तर-पंच-सदं । ५१२ ।। गुणहाणिअद्धमेदं | २५६ ।। एदमद्धवग्गमूलं । १६ ।। अद्धपमाणमेदं | ३२ । गुणहाणिअद्धवग्गमूलमणवट्टिदभागहारो णाम, एदस्स अवट्ठाणाभावादो। एसो पढमरूवे उप्पाइज्जमाणे असंखज्जपलिदोवमबिदियवग्गमूलमेत्तो, सव्वकम्मगुणहाणीणं असंखज्जपलिदोवमपढमवग्गमूलपमाणत्तादो। उवरि हायमाणो गच्छदि जाव एगरूवं पत्तो त्ति । एदीए संदिट्ठीए अत्थो साहेदव्वो । तं जहा- अणवहिद
भाग देनेपर इच्छित द्रव्य होता है । इस प्रकार व्यामोहसे रहित होकर सर्वत्र चार प्रकारसे भागहार सिद्ध करना चाहिये।
उदाहरण- अन्तिम निषेकका भागहार ७००, चडित अध्वान ३ । ६३०० ७०० = २७ तीन अन्तिम निषेक। ३ - १ = २, ८+ १ - ९,९४२ = १८, १८ : २ = ९; २७ : ९ ३ चडित अध्वानके संकलन मात्र गोपुच्छविशेष । २७ +३ = ३० इच्छित संचय ।
अब एक आदि उत्तरोत्तर एक अधिक क्रमसे बढ़ते हुए कितने स्थान जाकर एक भधिक गुणहानि मात्र गोपुच्छविशेष होते हैं, जिससे एक अधिक आगेके विवक्षित स्थानोंसे अन्तिम निषेकके भागहारकी अपवर्तना की जाती है ? कर्मस्थितिके प्रथम समयसे लेकर गुणहानिके अर्ध भागके वर्गमूलसे गुणित कर एक अधिक आगे जानेपर उक्त गोपुच्छविशेष एक अधिक गुणहानि मात्र होते हैं । यथा-गुणहानिका प्रमाण संदृष्टिमें पांच सौ बारह ५१२ है। गुणहानिका आधा यह है-२५६ । यह अर्ध भागका वर्गमूल १-१६। अद्धाका प्रमाण यह है-३२ गुणहानिके अर्ध भागका वर्गमल अनवस्थित भागहार है, क्योंकि, यह अवस्थित नहीं पाया जाता । प्रथम रूपके उत्पन्न कराते समय यह असंख्यात पल्योपमके द्वितीय वर्गमूल प्रमाण होता है, क्योंकि, सब गुणहानियां भसंख्यात पल्योपमोंके प्रथम वर्गमूलोंके बराबर हैं । आगे वह एक रूप प्राप्त होने तक हीन होता हुआ चला जाता है।
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१ अप्रतौ ' चडिदहाणीग', आप्रतौ ' चडिदद्धाणाणं', काप्रती ' चडिदद्धाणीण ', मप्रतौ ‘चडिदाणेण'
इति पाठः । २ अप्रतौ ‘गुणवग्ग ' इति पाठः। ३ आप्रती ' एदमेत्य ' कापतो 'एदमत्थ' इति पाठः।
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