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________________ ४, २, ४, १८१.] वेयंणमहाहियारे वैयणदव्वविहाणे चूलिया [४४३ पत्तेयं पमाणपरूवणं कायव्वं, विसेसाभावादो । एवमसंखेज्जाओ वग्गणाओ सेढीए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ॥ जोगाविभागपडिच्छेदेहि सरिससव्वजीवपदेसे सव्वे घेत्तूण एगा वग्गणा होदि । पुण्णो अण्णे वि जीवपदेसे जोगाविभागपडिच्छेदेहि अण्णोणं समाणे पुविल्लवग्गणजीवपदेसजोगाविभागपडिच्छेदेहितो अहिए उवरि वुच्चमाणवग्गणाणमेगजीवपदेसजोगाविभागपडिच्छेदेहितो ऊणे घेतूण विदिया वग्गणा होदि । एवमणेण विहाणेण गहिदसम्ववग्गणाओ सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ । कधमेदं णव्वदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो । ण च पमाणं पमाणंतरेण साहिज्जदि, अणवत्थापसंगादो । असंखेज्जपदरमेत्तजीवपदेसेहिमेगा जोगवग्गणा होदि त्ति कधमेदं णव्वदे १ .सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ एगजोगट्ठाणसव्ववग्गणाओ होति त्ति सुत्तादो णव्वदे । तं जहा- सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तवग्गणसलागासु जदि लोगमेत्तजीवपदेसा लब्भंति तो एगवग्गणाए [केत्तिए ] जीवपदेसे लभामो ति पमाणेण फलगुणिदइच्छाए ओवट्टिदाए असंखेज्जपदरमेत्ता जीवपदेसा एक्केक्किस्से वग्गणाए होति । धर्मणाके प्रमाणकी प्ररूपणा करना चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है। इस प्रकार श्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण असंख्यात वर्गणायें होती हैं ॥१८१॥ योगाविभागप्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा समान सब जीवप्रदेशोंको ग्रहण कर एक वर्गणा होती है। पनः योगाविभागप्रतिच्छेदों की अपेक्षा परस्पर समा व वर्गणा सम्बन्धी जीवप्रदेशों के योगाविभागप्रतिच्छदोंसे अधिक, परन्तु आगे कही जानेवाली वर्गणाओंके एक जीवप्रदेश सम्बन्धी योगाविभागप्रतिच्छेदोंसे हीन, ऐसे दूसरे भी जीवप्रदेशको ग्रहण करके दूसरी वर्गणा होती है। इस प्रकार इस विधानले ग्रहण की गई सब वर्गणायें श्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। शंका- यह कैसे जाना जाता है ? समाधान - वह इसी सूत्रसे जाना जाता है। किसी एक प्रमाण को दूसरे प्रमाणसे सिद्ध नहीं किया जाता, क्योंकि, इस प्रकारसे अनवस्थाका प्रसंग आता है। - शंका- असंख्यात प्रतर मात्र जीवप्रदेशोंकी एक योगवर्गणा होती है, यह कैसे जाना जाता है? समाधान- वह 'एक योगस्थानकी सब वर्गणायें श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र होती हैं। इस सूत्रसे जाना जाता है । वह इस प्रकारसे-श्रेणिके असंख्यातवे भाग मात्र वर्गणाशलाकाओं में यदि लोक प्रमाण जीवप्रदेश पाये जाते हैं तो एक वर्गणामें कितने जीवप्रदेश पाये जावेंगे, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करनेपर भसंण्यात प्रतर प्रमाण जीवप्रदेश एक एक वर्गणामें होते हैं। सब वर्गणा भोकी दीर्घता 20. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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