SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 496
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १, २, ४, १८६.] वेयणमहाहियारे वैयणदव्वविहाणे चूलिया [१७५ विरलिदइच्छं विगुणिय अण्णोण्णगुणं पुणो दुपडिरासि । कादूण एक्कासिं उत्तरजुदआदिणा गुणिय ॥ २५ ॥ उत्तरगुणिदं इच्छं उत्तर-आदीय संजुदं' अवणे ।। सेसं हरेज्ज पदिणों आदिगछेदद्धगुणिदेण ॥ २६ ॥) इच्छिदादि उत्तरंसइच्छिदादिदुगुण-दुगुणछेदसरूवेण गदरासीण आणयणे पडिबद्धाओ एदाओ दोसुत्तगाहाओ । ताव एत्थतणसच्छेदरूवाणमाणयणे कीरमाणे ताव गाहाणमत्थो वुच्चदे । तं जहा- 'विरलिदइच्छं विगुणिय अण्णोण्णगुणं' ति वुत्ते सव्वाओ गुणहाणिसलागाओ विरलिय विगं करिय अण्णोण्णब्भत्थं कादणुप्पण्णरासिं ' पुणो दुप्पडिरासिं कादणे' त्ति वुत्ते दोसु ढाणेसु ठविय 'एक्करासिं उत्तरजुदआदिणा गुणिदे' त्ति वुत्ते तत्थ एक्करासिं उत्तरं णव, आदी चत्तारि रूवाणि, ताणि मेलाविय गुणिय 'उत्तरगुणिदं इच्छं' णवहि गुणहाणिसलागाओ गुणिय पुणो तम्मि 'उत्तर-आदीय संजुदं' त्ति वुत्ते उत्तरं आदि च मेलाविय 'अवणे' त्ति वुत्ते पुचिल्लरासिम्हि अवणिय 'सेसं हरेज्जे' ति वुत्ते अवणिदसेसं विरलित इच्छा राशिको दूना करके परस्पर गुणा करने पर जो प्राप्त हो उसकी दो प्रतिराशियां करके उनमें से एक राशिको चय युक्त आदिसे गणित करके उसमेंसे चयगुणित इच्छाको चय युक्त आदिसे संयुक्त करके घटा देना चाहिये। ऐसा करनेपर जो शेष रहे उसमें प्रथम हारके अर्ध भागले गुणित प्रतिराशिका भाग देना चाहिये ॥ २५-२६॥ ये दो सूत्रगाथायें इच्छित आदि उत्तर अंश व इच्छित आदि दूने दूने हार स्वरूपले जाती हुई राशियोको लानेसे सम्बन्ध रखती हैं। अब पहिले यहाके सछेद रूपोंको लाने की क्रिया करते हुए उन गाथाओं का अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है- 'विरलिदइच्छं विगुणिय अण्णोपणगुणं' ऐसा कहनेपर इच्छा रूप सब गुणहानिशलाकाओंका विरलन करके दूना कर परस्पर गुणा करने पर उत्पन्न हुई राशिको 'पुणो दुप्पडिरासिं कादूण' ऐसा कहने पर दो स्थानों में स्थापित करके 'एक्रासिं उत्तरजुदआदिणा गुणिदे' ऐसा कहनेपर उनमें से एक राशिको उत्तर नौ और आदि चार अंक इनको मिलाकर उससे गुणित करके 'उत्तरगुणिदं इच्छं' अर्थात् नौसे गुणहानिशलाकाओंको गुणित कर फिर उसमें 'उत्तरआदीय संजुदं' अर्थात् उत्तर और आदिको मिलाकर 'अवणे' अर्थात् पूर्वकी राशिमेंसे कम करके 'सेसं हरेज्ज' अर्थात् घटानेसे शेष रही राशिको भाजित करे। 'केण' अर्थात् किससे भाजित १ ताप्रतौ 'संजुदे' इति पाठः। २ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-आ-काप्रतिषु पदिणे', ताप्रतौ 'पडिणे' पति पाठः। ३ प्रतिषु 'रासि-' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only hiww.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy