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________________ १, २, ४, २१.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्त [५३ हेट्ठा। उक्कस्सिया अइच्छावणा रूवाहियावलियूगाबाधता । जण्णिया आवलियपमाणा। पदेसाणं ठिदीणमोवट्टणा ओक्कड्डणा णाम । तिस्से अइच्छाव गा ट्ठिदिखंडयादो अण्णत्थ आवलियमेता। णवीर उदयावलियबाहिरहिदीए समऊगावलियाए बेत्तिभागा अइच्छावणा । रूवाहियतिभागो णिक्खो । उवरिल्लीसु हिदीसु रूवाहियकमेग अइच्छावणा चेव वड्ढावेदव्वा जा उक्कस्सेण आवलियमेतं पत्ता त्ति । ततो उवरि रूवाहियकोग द्विदि पडि णिक्खयो वड्ढावेदवो । जदि एवं तो णेरइएसु चेव बहुवार किण्ण उप्पाइदो ? ण एस दोसो, णेरइएसु चेव बहुवारमुपज्जदि, किंतु तत्थुप्पज्जणसंभवाभावे अण्णत्थुप्पत्तीदो । णेरइएसु उप्पज्जमाणो बहुवारं सत्तमपुढवीणेरइ रसु चेव उपज्जदि, अण्णत्थ तिव्वसंकिलेस-दीहाउवहिदीणमभावादो। ........................................... समय अधिक आवलिसे न्यून आवाधा प्रमाण है और जघन्य अतिस्थापना आवलि प्रमाण है। कर्मप्रदेशोंकी स्थितियों के अपवर्तनका नाम अपकर्षण है । उसकी अतिस्थापना स्थितिकाण्डकको छोड़कर अन्यत्र आवलि प्रमाण है। विशेषता इतनी है कि उदयावलिके बाहिरकी प्रथम स्थितिकी एक समय कम आवलोके दो त्रिभाग प्रमाण अतिस्थापना है और एक समय अधिक विभाग प्रमाण निक्षेप है। इससे उपरिम स्थितियों में एक समय अधिकके कमसे उत्कृष्ट रूपसे आवलि प्रमाण अतिस्थापनाके प्राप्त होने तक अतिस्थापना बढ़ाना चाहिये । उससे आगे एक समय अधिकके क्रमसे प्रत्येक स्थितिके प्रति निक्षेप बढ़ाना चाहिये। शंका-यदि ऐसा है तो नारकियों में ही बहुत बार क्यों नहीं उत्पन्न कराया ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, वह नारकियों में ही बहुत बार उत्पन्न होता है । किन्तु उनमें उत्पत्तिको सम्भावना न होनेपर अन्यत्र उत्पन्न होता है। नारकियों में उत्पन्न होता हुआ बहुत बार सप्तम पृथिवीके नारकियों में ही उत्पन्न होता है, क्योंकि, दूसरी पृथिवियों में तीव्र संक्लेश और दीर्घ आयुस्थितिका अभाव है। १ प्रतिषु · रूवाहियावलियाणआबाधमत्ता' इति पाठः। २ तत्तोदित्थावणगं वझदि जावावली तदुक्कस्सं । उवरीदो णिक्खेवो वरं तु बंधिय विदी जेहें॥ वोलिय बंधावलियं उक्कट्टिय उदयदो दु णिक्विविय । उबरिमसमए बिदियावलिपढमुक्कट्टणे जादे ॥ तक्कालवज्जमाणे वरहिदीए अदित्थियाबाहा । समयजुदावलियाबाहूणो उक्कस्सठिदिबंधो ॥ लब्धिसार ६२-६४. . ३ णिक्खेवमदित्थावणमवरं समऊणआवलितिभागं । तेणूणावलिमत्तं बिदियावलियादिमणिसेगे ॥ एत्तो समऊणावलितिभागमेतो तु तं खु णिक्खेवो । उवरिं आवलिवज्जिय सगहिदी होदि णिक्खेवो । लब्धिसार ५६-५७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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