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५२) छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ ४, २, ४, २१. एवं संसरिदूण अपच्छिमे भवग्गहणे अधो सत्तमाए पुढवीए णेरइएसु उववण्णों ॥ २१ ॥
अपच्छिमे भवे णेरइएसु किम8 उप्पाइदो ? उक्कस्ससंकिलेसेण उक्कस्सद्विदिबंधणट्ठमुक्कस्सुक्कड्डणटुं च । उक्कड्डणा णाम किं ? कम्मपदेसहिदिवड्डावणमुक्कड्डणा । उदयावलियट्टिदिपदेसा ण उक्कड्ज्जिति । कुदो ? साभावियादो। उदयावलियबाहिरहिदीओ सव्वाओ [ण ] उक्कड्डिज्जंति । किंतु चरिमद्विदी आवलियाए असंखेज्जदिभागमइच्छिदूण आवलियाए असंखेज्जदिभागे उक्कड्डिज्जदि', उवरि हिदिबंधाभावादो। एसा जहण्णउक्कड्डणा । पुणो उवरिमट्ठिदिबंधेसु अइच्छावणा वड्ढावेदव्वा जाव आवलियमेत पत्ता त्ति । पुणो उवरि णिक्खेवो चेव वड्ढदि। अइच्छावणा-
णिखेवाभावा णथि उक्कड्डणा
इस प्रकार परिभ्रमण करके अन्तिम भवग्रहणमें नीचे सातवीं पृथिवीके नारकियोंमें उत्पन्न हुआ ॥ २१॥
शंका - अन्तिम भवमें नारकियोंमें किसलिये उत्पन्न कराया है ?
समाधान-उत्कृष्ट संक्लेशसे उत्कृष्ट स्थितिको बांधनेके लिये और उत्कृष्ट उत्कर्षण करानेके लिये वहां उत्पन्न कराया है।
शंका–उत्कर्षण किसे कहते हैं ? समाधान- कर्मप्रदेशोंकी स्थितिको बढ़ाना उत्कर्षण कहलाता है ।
उदयापलिकी स्थितिके प्रदेशोंका उत्कर्षण नहीं किया जाता है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। तथा उदयावालिके बाहिरकी सभी स्थितियोंका उत्कर्षण [नहीं किया जाता है। किन्तु चरम स्थितिका आवलीके असंख्यातवें भागको अतिस्थापना रूपसे स्थापित करके आवलीके असंख्यातवें भागमें उत्कर्षण होता है, क्योंकि, ऊपर स्थितिबन्धका अभाव है। यह जघन्य उत्कर्षण है। पुनः उपरिम स्थितियों में अतिस्थापनाको आवालि मात्र प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिये । फिर ऊपर निक्षेपकी ही वृद्धि होती है। अतिस्थापना और निक्षेपका अभाव होनेसे नीचे उत्कर्षण नहीं होता है । उत्कृष्ट अतिस्थापना एक
१ क. प्र. २-७६.
२ प्रतिषु ' कम्मटुं' इति पाठः । ३ सत्तम्गद्विदिबंधो आदिट्ठिदुक्कट्टणे जहण्णेण । आवलिअसंखभागं तेत्तियमेत्तेव णिक्खियदि ॥ लब्धिसार ६१.
४ प्रतिषु — बंधावेदव्वा' इति पाठः। ५ प्रतिषु 'मेत्तं पच्छा त्ति ' इति पाठः।
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