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विषय-परिचय उक्त जीवके उतने समयमें कितने द्रव्यका संचय होता है तथा वह संचय भी उत्तरोत्तर किस क्रमसे वृद्धिंगत होता है, इत्यादि अनेक विषयोंका वर्णन श्री वीरसेन स्वामीने गणित प्रक्रियाके अवलम्बनसे अपनी धवला टीकाके अन्तर्गत बहुत विस्तारसे किया है। आगे चलकर आयुको छोड़कर शेष ६ कर्मोंकी उत्कृष्ट वेदनाके स्वामियोंकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके ही समान बतला करके फिर आयु कर्मकी उत्कृष्ट वेदनाके स्वामीकी प्ररूपणा करते हुए बतलाया गया है कि पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाला जो जीव जलचर जीवोंमें पूर्वकोटि मात्र आयुको दीर्घ आयुबन्धकक काल, तत्प्रायोग्य संक्लेश और तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट योगके द्वारा बांधता है; योगयवमध्यके ऊपर अन्तर्मुहूर्त काल रहा है, अन्तिम जीवगुणहानिस्थानान्तरमें आवलीके असंख्यातवें भाग रहा है, तत्पश्चात् क्रमसे मृत्युको प्राप्त होकर पूर्वकोटि आयुवाले जलचर जीवोंमें उत्पन्न हुआ है, वहांपर सर्वलघु अन्तर्मुहूर्तमें सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ है, दीर्घ आयुबन्धक कालमें तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट योगके द्वारा पूर्वकोटि प्रमाण जलचर-आयुको दुवारा बांधता है, योगयवमध्यके ऊपर अन्तर्मुहूर्त काल रहा है, अन्तिम गुणहानिस्थानान्तरमें आवलीके असंख्यातवें भाग रहा है, तथा जो बहुत बहुत वार साता वेदनीयके बन्ध योग्य कालसे सहित हुआ है, ऐसे जीवके अनन्तर समयमें जब परभविक आयुके बन्धकी परिसमाप्ति होती है उसी समय उसके आयु कर्मकी वेदना द्रव्यसे उत्कृष्ट होती है। सभी कर्मोंकी उत्कृष्ट वेदनासे भिन्न अनुत्कृष्ट वेदना कही गई है।
ज्ञानावरणीयकी जघन्य वेदनाके स्वामीकी प्ररूपणा करते हुए कहा गया है कि जो जीव पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन कर्मस्थिति प्रमाण सूक्ष्म निगोद जीवोंमें रहा है, उनमें परिभ्रमण करता हुआ जो अपर्याप्तोंमें बहुत बार और पर्याप्तोंमें थोड़े ही वार उत्पन्न हुआ है, जिसका अपर्याप्तकाल बहुत और पर्याप्तकाल थोड़ा रहा है, जब जब आयुको बांधता है तब तब तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट योगसे बांधता है, जो उपरिम स्थितियों के निषेषके जघन्य पदको और अधस्तन स्थितियोंके निषेकके उत्कृष्ट पदको करता है, जो बहुत बहुत वार जघन्य योगस्थानको प्राप्त होता है, बहुत बहुत बार मन्द संक्लेश रूप परिणामोंसे परिणमता है, इस प्रकारसे निगोद जीवोंमें परिभ्रमण करके पश्चात् जो बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तोंमें उत्पन्न होकर वहां सर्वलघु अन्तर्मुहूर्त कालमें सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ है, तत्पश्चात् अन्तर्मुहूर्तमें मरणको प्राप्त होकर जो पूर्वकोटि आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ है, जिसने वहांपर गर्भसे निकलनेके पश्चात् आठ वर्षका होकर संयमको धारण किया है, कुछ कम पूर्वकोटि काल तक संयमका परिपालन करके जो जीवितके थोड़ेसे शेष रहनेपर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ है, जो मिथ्यात्व सम्बन्धी सबसे स्तोक असंयमकालमें रहा है, तत्पश्चात् मिथ्यात्वके साथ मरणको प्राप्त होकर जो दस हजार वर्षकी आयुवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ है, वहांपर जो सबसे छोटे अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ है, पश्चात् अन्तर्मुहूर्तमें जो सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ है, उक्त देवोंमें रहते हुए जो कुछ कम दस हजार वर्ष तक सम्यक्त्वका परिपालन कर जीवितके थोड़ेसे शेष रहनेपर पुनः मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ है, मिथ्यात्वके साथ मरकर जो फिरसे बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तोंमें उत्पन्न हुआ है, वहांपर जो सबसे छोटे अन्तर्मुहूर्त कालमें सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ है, पश्चात् अन्तर्मुहूर्त में मृत्युको प्राप्त होकर जो सूक्ष्म निगोद पर्याप्त जीवोंमें उत्पन्न हुआ है, फ्ल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र
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