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________________ ४, २, ४, ३६. ] areमाहियारे बेयणदव्वविहाणे सामित्तं [ २३१ उक्कस्सिया विसेसाहिया । पढमीए आगरिसाए आउअं बंधमाणस्स पढमीए आगरिसाए भाउअबंधगद्धा जहणिया संखेज्जगुणा । सा चैव उक्कस्सिया विसेसाहिया । तदो उक्कस्सिया बंधगद्धा पढमागरिसाए चेत्र होदि त्ति घेत्तव्वं । एत्थ संदिट्ठी'जे' सोवक्कम उभा ८८८ | ७७७ | ६६६ | ५५५ .८७७ ७६६ | ६५५ ५४४ ८६६७५५ ६४४ ५३३ ८५५ | ७४४ | ६३३ ५२२ ८४४ | ७३३ | ६२२ ५११ ६११ ८३३ | ७२ - ८२२ | ७११ ८११ ४४४ ४३३ ४२२ ४११ ३३३ | २२२ |१११ ३२२ | २११ सर्ग- सगर्भुजमाणाट्ठिदीए ३११ बेतिभागे अदिक्कते परभवियाउथबंधपाओग्गा होंति जाव असंखेयद्धा त्ति । तत्थ आउ अबंधपाओग्गकालब्भंतरे आउ अबंधपाओग्ग परिणामेहि के वि जीवा अट्ठवारं के वि सत्तवारं के वि छव्वारं के वि पंचवार के विचत्तारिवारं के वि तिण्णिवारं के वि दोवारं के वि एक्कवारं परिणमंति कुदो ? साभावियादो । तत्थ तदियत्तिभागपढमसमए जेहि परभवियाउअबंधो पारद्धो ते अंतोमुहुत्तेण बंधं समाणिय पुणो सथलाउट्ठदीए णवमभागे सेसे पुणो वि बंधपाओग्गा होंति । सयलाउडिदीए सत्तावीसभागावसेसे पुणो वि बंधपाओग्गा होंति । एवं सेसतिभाग-तिभागावसेसे बंधपाओग्गा होंति त्ति दव्वं जाव अडमी आगरिसा त्ति ।ण च तिभागाव है | वही उत्कृष्ट काल अपने जघन्यसे विशेष अधिक है । प्रथम अपकर्ष में आयु बांधनेवाले के प्रथम अपकर्षमें प्राप्त होनेवाला जघन्य आयुबन्धककाल पूर्वोक्तसे संख्यातगुणा है । वही उत्कृष्ट काल अपने जघन्यसे विशेष अधिक है । इसलिये उत्कृष्ट आयुबन्धककाल प्रथम अपकर्ष में ही होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये । यहां संदृष्टि (मूल में देखिये ) । जो जीव सोपक्रमायुक्त हैं वे अपनी अपनी भुज्यमान आयुस्थिति के दो त्रिभाग बीत जानेपर वहांसे लेकर असंक्षेपाद्धा काल तक परभव सम्बन्धी आयुको बांधने के योग्य होते हैं । उनमें आनुबन्धके योग्य कालके भीतर कितने ही जीव आठ वार; कितने ही सात वार, कितने ही छह वार, कितने ही पांच वार, कितने ही चार वार, कितने ही तीन वार, कितने ही दो वार और कितने ही एक वार आयुबन्धके योग्य परिणामोंसे परिणत होते हैं; क्योंकि, ऐसा स्वभाव है । उसमें जिन जीवोंने तृतीय त्रिभाग के प्रथम समयमें परभव सम्बन्धी आयुका बन्ध प्रारम्भ किया है वे अन्तर्मुहूर्त में आयु कर्मके बन्धको समाप्त कर फिर समस्त आयुस्थितिके नौवें भाग के शेष रहनेपर फिरसे भी आयुबन्धके योग्य होते हैं । तथा समस्त आयुस्थितिका सत्ताईसवां भाग शेष रहनेपर पुनरपि बन्धके योग्य होते हैं । इस प्रकार उत्तरोत्तर जो त्रिभाग शेष रहता जाता है उसका त्रिभाग शेष रहनेपर यहां आठवें अपकर्षके प्राप्त Jain Education International १ अ आ-काप्रतिषु 'जो', ताप्रतौ ' जो (जे)' इति पाठः । २ अ भा काप्रतिष्षु ' सोमक्कनाउन सग-', तौ सोववक्रमाउबा सग' इति पाठः । छ. वे. ३०. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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