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________________ २०८ ] अधवा, कम्मडिदिसव्वसमयपबद्धाणं संचियेभावेण भागहारपरूवणाए परुविद - उक्कस्ससंचओ अक्क्रमण ण लब्भदित्ति भणताणमाइरियाणमहिप्पाएण भण्णमाणे पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता समयपबद्धा होंति, ण किंचूणदिवड्डमेत्ता; सव्वसमयपबद्धानमुक्कस्स संचयाणुवलंभादो । एवं समयपबद्धाणुगमो समत्ता । छक्खडागमे वेयणाखंड [ 2, गुणिदकम्मंसियस उवरिल्लीणं [ ठिदीणं ] णिसेयस्स उक्कस्सपदं हेट्ठिल्लीणं ठिदीणं णिसेयस्स जहण्णपदं होदि त्ति कट्टु उवसंहारे भण्णमाणे कम्मट्ठिदिआदि समयपबद्धसंचयस्स भागहारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तो होदि । होंतो वि दिवङगुणहाणिमत्तो, समयपबद्धं चरिमणिसेयपमाणेण कीरमाणे दिवड्ढगुणहाणिमत्तचरिमणिसगुवलं भादो । कम्मट्ठिदिआदिसमयपबद्धसंचओ चरिमणिसेयपमाणमत्तो होदि ति कधं णव्वदे ? सणपंचिंदियपज्जत्तएण उक्कस्सजोगेण उक्कस्ससंकिलिट्टेण उक्कस्सियं द्विदिं बंधमाणेण जेत्तिया परमाणू कम्मडिदिचरिमसमए णिसित्ता तेत्तियमेत्तमग्गट्ठिदिपत्तयं होदि त्ति कसा पाहुडे उवदितादा । पदेसविरइयअप्पाबहुएण कथं ण विरोधो ? [ण, ] गुणिद-घोलमाणादिपदेसरचणमस्सिदूण तपवुत्तदो । Jain Education International २, ४, ३२ अथवा, कर्मस्थितिके सव समयप्रबद्धों की संचित स्वरूपसे भागहारकी प्ररूपण में बतलाया गया उत्कृष्ट संचय युगपत् प्राप्त नहीं होता है, ऐसा कहनेवाले आचार्योंके अभिप्रायसे कथन करनेपर पल्योपमके असख्यातवें भाग मात्र समयप्रबद्ध होते हैं, न कि कुछ कम डेढ़ गुणहानि प्रमाणः क्योंकि, सब समयप्रबद्धों का उत्कृष्ट संचय पाया नहीं जाता। इस प्रकार समयप्रबद्धानुगम समाप्त हुआ । गुणितकर्माशिक जीवके उपरिम स्थितियों के निषेकका उत्कृष्ट पद और अधस्तन स्थितियों के निषेकका जघन्य पर होता है, ऐसा मानकर उपसंहारकी प्ररूपणा में कर्मस्थितिके आदिम समयप्रबद्ध के संचयका भागहार पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र होता है । उतना होकर भी वह डेढ़ गुणहानि प्रमाण है, क्योंकि, समयप्रबद्धको अन्तिम निषेकके प्रमाणसे करनेपर डेढ़ गुणहानि मात्र अन्तिम निषेक पाये जाते हैं । शंका -- कर्मस्थितिके आदिम समयप्रबद्धका संचय अन्तिम निषेक प्रमाण होता है, यह कैसे जाना जाता है ? समाधान - वह " जो संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीव उत्कृष्ट योग से सहित है, उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त है, उत्कृष्ट स्थितिको बांध रहा है; उसके द्वारा जितने परमाणु कर्मस्थितिके अन्तिम समय में निषिक्त किये जाते हैं उतने मात्र अग्रस्थिति प्राप्त होते हैं इस कषायप्राभृतमें प्राप्त उपदेशसे जाना जाता है । "" शंका- ऐसा होने पर प्रदेशविरचित अल्पबहुत्व के साथ विरोध क्यों न होगा ? समाधान - नहीं, क्योंकि, उक्त अल्पबहुत्वकी प्रवृत्ति गुणित- घोलमानादि प्रदेशरचनाका आश्रय करके हुई है । १ तामतिपाठोऽयम् । अ-काप्रत्योः ' सेडिय', मप्रतौ ' सेविय' इति पाठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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