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________________ ३५८ छक्खंडागमे वेयणाखंड [ १, २, ५, १२१. गुणहाणिसलागाओ विरलिय विगुणिय अण्णोण्णभत्थरासिणा रूवणेण दिवगुणहाणि गुणिय अंगुलस्स असंखेज्जदिमागेण भागे हिंदे जं लद्धं जहण्णपरित्तासंखेज्जयस्स सादिरेयमद्धं विगलपक्खेवभागहारो होदि। तक्काले संखेज्जाणि जोगट्ठाणाणि उवरि चडिदण बंधमाणस्स एगो सगलपक्खेवो वड्ढदि । तत्थ अहियारगोवुच्छाभागहारो जहण्णपरित्तासंखेज्जयस्स अद्धेण दिवगुणहाणि गुणिदे होदि । एत्थ सयलपक्खेवबंधणविहाणं जोगट्ठाणद्धाणं च जाणिदूण गहेदव्वं । एदेण कमेण एगगुणहाणिं मोत्तूण सेससव्वगुणहाणीओ ओदिण्णे तदित्थविगलपक्खेवभागहारो दोरूवाणि एगरूवस्स असंखेज्जदिमागो च भागहारो होदि । तक्काले तिणि जोगट्ठाणाणि वि उवरि चडिदण बंधमाणस्स एगसगलपक्खेवो पुणो असंखेज्जदिभागेणूणएगो विगलपक्खेवो च वड्ढदि । पुणो छेदभागहारो होदूण एवं गच्छमाणे कम्मि संपुण्णसगलपक्खेवा होति त्ति भणिदे वुच्चदे-रूवूणपणोण्णब्भत्थरासिमेत्तजोगट्ठाणाणि उवरि चडिदूण बंधमाणस्स दुरूवूणण्णाभत्थरासिस्सद्धमेत्ता सगलपक्खेवा वटुंति । तदित्थअहियारगोवुच्छभागहारो दुगुणिदैदिवगुणहाणिमेतो विरलन कर द्विगुणित करके उनकी रूप कम अन्योन्याभ्यस्त राशिसे डेढ़ गुणहानिको गुणित कर अंगुलके असंख्यातघे भागका भाग देनेपर जघन्य परीतासंख्यातका साधिक अर्ध भाग जो लब्ध होता है वह वहांके विकल प्रक्षेपका भागहार होता है । उस काल में संख्यात योगस्थान आगे जाकर आयुको बांधनेवालेके एक सकल प्रक्षेप बढ़ता है। वहां अधिकारगोपुच्छाका भागहार जघन्य परीतासंख्यातके अर्ध भागसे डेढ़ गुणहानिको गुणित करनेपर होता है। यहां सकल प्रक्षेपके बन्धनविधान और योगस्थानाध्वानको जानकर ग्रहण करना चाहिये । इस क्रमसे एक गुणहानिको छोड़कर शेष सब गुणहानियां उतरनेपर वहांके विकल प्रक्षेपका भागहार दो अंक और एक अंकका भसंख्यातवां भाग भागहार होता है । उस कालमें तीन योगस्थान भी ऊपर चढ़कर भायको बांधनेवाले के एक सकल प्रक्षेप और असंख्यातवें भागसे हीन एक विकल प्रक्षेप बढ़ता है। शंका-फिर छेदभागहार होकर इस प्रकार जानेपर सम्पूर्ण सकल प्रक्षेप कहांपर होते हैं? समाधान-ऐसा पूछने पर उत्तर देते हैं कि एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशि मात्र योगस्थान ऊपर चढ़कर आयुको बांधनेवालेके दो रूप कम अन्योन्याभ्यस्त राशिके भर्ष भाग प्रमाण सकल प्रक्षेप बढ़ते हैं। यहांकी अधिकार गोपुच्छका भागहार द्विगुणित डेढ़ गुणहानि मात्र होता है। भव १ अ-आ-काप्रतिषु. 'मद्धंगल-', ताप्रती 'मद्धं गुण-' इति पाठः। २ अ-काप्रत्योः 'भागहारो गणिव' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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