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________________ १, २, १, १२२ ) वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्त होदि । संपहि एत्थ सयलपक्खेवबंधणविहाणं जोगट्ठाणद्धाणं च जाणिदूण वत्तव्यं । ___ संपहि पढमगुणहाणि तिणिखंडाणि काऊण तत्थ हेडिमदोखंडाणि मोत्तूण गुणहाणितिभाग सेसंगुणहाणीओ च हेढदो ओसरिय बंधमाणस्स विगलपक्खेवभागहारो दिवटरूवमेत्तो होदि । एत्थ तिण्णि जोगट्ठाणाणि उवरि चडिदूण बंधमाणस्स दोसगलपक्खेवा वहृति । एत्थ अहियारगोवुच्छभागहारो किंचूणतिण्णिगुणहाणिमेत्तो होदि । तं जहातिण्णिगुणहाणीओ विरलिय एगसगलपक्खेवं समखंड कादूण दिण्णे एक्केक्कस्स रूवस्त बिदियगुणहाणिपढमणिसेगो पावदि । पुणो इमं पेक्खिदूण पयदगोवुच्छा गुणहाणित्तिभागमत्तगोवुच्छविसेसेहि अहियो त्ति कटु तेसिमागमण8 किरिया कीरदे । तं जहा- एगगुणहाणिं विरलेऊण विदियगुण हाणिपढमणिसेयं समखंडं कादण दिण्णे रूवं पडि एगेगविसेसो पावदि । पुणो गुणहाणितिभागमेत्तविससे इच्छामो त्ति गुणहाणि गुणहाणितिभागेगोवष्टिय रूवाहियं कादूण पुणो तेण" उवरिमविरलणमोवट्टिय लद्धे तम्हि चेव सोहिदे सुद्धसेसो अहियारगोवुच्छाए भागहारो होदि । एवं जाणिदण णेदव्वं जाव णारगतदिय .......... यहां सकल प्रक्षेपके बन्धनविधान और योगस्थानाध्वानको जानकर कहना चाहिये। अब प्रथम गुणहानिको तीन खण्डों में विभक्त कर उनमें अधस्तन दो खण्डको छोड़कर एक गुणहानिके त्रिभाग और शेष गुणहानियां नीचे उतर कर आयु बांधनेवाले जीवके विकल-प्रक्षेप-भागहार डेढ अंक प्रमाण होता है। यहां तीन योगस्था कर भायुको बांधनेवालेके दो सकल प्रक्षेप बढ़ते हैं। यहां अधिकारगोपुच्छाका भागहार कुछ कम तीन गुणहानि मात्र होता है। वह इस प्रकार है-तीन गुणहानियोंका विरलन करके एक सकल प्रक्षेपको समखण्ड करके देनेपर एक एक रूपके प्रति द्वितीय गुणहानिका प्रथम निषेक प्राप्त होता है । पुनः इसकी अपेक्षा प्रकृत गोपुच्छा चूंकि गुणहानिके त्रिभाग मात्र गोपुच्छविशेषोंसे अधिक है, अतः उनके लाने के लिये क्रिया की जाती है। वह इस प्रकार है-एक गुणहानिका विरलन करके द्वितीय गुणहानिके प्रथम निषेकको समखण्ड करके देनेपर प्रत्येक अंकके प्रति एक एक विशेष प्राप्त होता है। पुनः गुणहानिके त्रिभाग मात्र विशेषोंकी चूंकि इच्छा है, अतः गुणहानिको गुणहानिक त्रिभागसे अपवर्तित कर एक अंकसे अधिक करके फिर उससे उपरिम विरलनको अपवर्तित कर जो लब्ध हो उसे उसी से घटा देनेपर शेष अधिकारगोपुच्छाका भागहार होता है । इस प्रकार जानकर नारक भवके तृतीय समय १ अ-का-तापतिषु 'तिभागस्सेस', आप्रतो'तिभागसेस' इति पाठः। २ अ-का-ताप्रतिषु 'बडमाणस', आप्रतौ 'वट्टमाणस्स' इति पाठः । ३ अ-आ-काप्रतिषु • मेला' इति पाठः । ४ प्रतिषु 'गोवुकगुण' इति पाठः। ५ अप्रतौ जहिया', काप्रती 'जत्तिया' इति पाठः। ६ ताप्रती 'गुणहाणि गुणहाणि-'इति पाठः।- मप्रता 'इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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