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________________ वग्गण- |१६ ४, २, ४, १८६ ] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया [४७७ माणिय पुणो एदम्मि पढमगुणहाणिअभावदव्वस्सद्धमवणिदे पढमगुणहाणिदव्वस्सद्ध होदि । तं च एटं।८।० |१६|४|९|९|| पुणो अवसेसं पि आणिज्जमाणे तग्गुणहाणिपढम | |६|जीवपदेसपमाणेण कदे सादिरेगगुणहाणितिण्णिचदुब्भागपमाणं होदि । पुणो गुणहाणिफयसलागाहि गुणिदे एत्तियं होदि |८|0|१६|२५|९|| पुणो पणुवीसरूवेसु एगरूवमवणिय पुध ताव ठवेदव्वं । पुणो विसिलेस । ६/२ करिय पुविल्लदब्वेण सह सरिसच्छेदं कादूण मेलाविदे बिदियगुणहाणिसव्वदव्यमेत्तियं होदि |||६|| पुणो तदियगुणहाणिदव्वे आणिज्जमाणे तदियगुणहाणिपढमादिफद्दयाणमुप्पायणटुं पढमगुणहाणिपढमफद्दय च उभागस्स टुविदगुणगारगुणहाणिफद्दयसलागदुगुणरूवाहियादिसु एगादिएगुत्तररूवाणि अवणिय पुणो एदासिं गुणहाणिफद्दयसलागगच्छसंकलणमाणिय पढमगुणहाणिअभावदव्वस्स चउभागमवणिदे अवसेस पढमगुणहाणिदव्वस्स चउब्भागो होदि । तं च एदं | ८| 0 | १६ | ४ |९/९ ।। अवसेसदव्वं पि आणिज्जमाणे तग्गुणहाणिपढम. वग्गण | १२| जीवपदेसपमाणेण उवरिमजीवपदेसेसु कदेसु गुणहाणितिष्णिचदुब्भागसादिरेयपमाणं होदि। पुणो दुगुणफद्दयसलागाहि गुणिदे एत्तिय लाकर फिर इसमें से प्रथम गुणहानि सम्बन्धी अभावद्रव्यके अर्ध भागको घटा देनेपर प्रथम गुणहानिके द्रव्यका अर्ध भाग होता है। वह यह है- (मूलमें देखिये)। फिर शेषको भी निकालते समय उस गुणहानिकी प्रथम वर्गणाके जीवप्रदेशों के माणसे करनेपर वह साधिक एक गुणहानिके तीन चतुर्थ भाग (1) प्रमाण होता है । फिर उसे गुणहानिकी स्पर्धकशलाकाओंसे गुणित करनेपर इतना होता है ( मूलमें देखिये )। पुनः पच्चीस रूपों में से एक रूपको कम करके पृथक् स्थापित करना चाहिये। फिर उसको विश्लेषित करके पहिलेके द्रव्य के साथ समानखण्ड करके मिलानेपर द्वितीय गुणहानिका सब द्रव्य इतना होता है ( मूल में देखिये )। अब तृतीय गुणहानिके द्रव्यको लाते समय तृतीय गुणहानिके प्रथमादिक स्पर्धकोको उत्पन्न करानेके लिये प्रथम गुणहानि सम्बन्धी प्रथम स्पर्धकके चतुर्थ भागके स्थापित गुणकार स्वरूप दूने दूने रूपोंसे अधिक आदि क्रमसे जानेवाली गुणहानिस्पर्घकशलाकाओंमेंसे एकको आदि लेकर एक एक अधिक रूपोंको कम करके फिर इनकी गुणहानिस्पर्धकशलाकाओं सम्बन्धी गच्छसंकलनाको लाकर प्रथम . गुणहानि सम्बन्धी अभावद्रव्यके चतुर्थ भागको कम करनेपर शेष रहा प्रथम गुणहानिके द्रव्यका चतुर्थ भाग होता है । वह यह है (मूलमें देखिये)। शेष द्रव्यको भी निकालते समय उस गुणहानि सम्बन्धी प्रथम वर्गणाके जीवप्रदेशोंके प्रमाणसे उपरिम जीव. प्रदेशोंके करनेपर गुणहानिके तीन चतुर्थ भागसे कुछ अधिक होता है। फिर उसको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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