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१, २, ४, १२६.] वेयणमहाहियारे धेयणदव्वविहाणे अप्पावहुई [१८७ गुरूवदेसादो । संजमादिगुणसेडीहि तण्णट्ठमिदि वोत्तुं ण सक्किजदे, तदसंखेजदिभागस्सेव णहत्तादो । किमर्से णामा-गोदाणं तुल्लतं ?
आउवभागो थोवो णामा-गोदे समो तद। अहिओ। आवरणमंतराए भागो मोहे वि अहिओ दु ॥ १८ ॥ सव्वुवरि वेयणीए भागो अहिओ दु कारणं किंतु ।
सुहु-दुक्खकारणत्ता द्विदिविसेसेण सेसाणं ॥ १९ ॥ इच्चेदेण णाएण तुल्लायव्वयत्तादो ।
णाणावरणीय-दंसणावरणीय-अंतराइयवेयणाओ दव्वदो जहणियाओ तिणि वि तुल्लाओ विसेसाहियाओ ॥ १२६ ॥
एत्थ विसेसाहियपमाणं णामा-गोददव्वमावलियाए असंखेजदिमागेण खोडदेग
शंका-संयमादि गुणश्रेणियों द्वारा उक्त द्रव्य चूंकि नष्ट हो चुका है अत एव उसकी वहां सभावना नहीं है ?
समाधान-ऐसा कहना शक्य नहीं है, क्योंकि, संयमादि गुणश्रेणियों द्वारा उसका असंख्यातवां भाग ही नष्ट हुआ है।
शंका-नाम व गोत्रके द्रव्यकी समानता किसलिये है ?
समाधान-" आयुका भाग सबसे स्तोक है, नाम व गोत्रमें समान होकर वह आयुकी अपेक्षा अधिक है, उससे अधिक भाग आवरण अर्थात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण व अन्तरायका है, इससे अधिक भाग मोहनीयमें है । सबसे अधिक भाग वेदनीयमें है, इसका कारण उसका सुख-दुखमें निमित्त होना है। शेष कौके भागकी अधिकता उनकी अधिक स्थिति होनेके कारण है ॥ १८-१९ ।। इस न्यायसे नाम व गोत्रका द्रव्य तुल्य आय-व्ययके कारण समान है।
द्रव्यसे जघन्य ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय व अन्तरायकी वेदनायें तीनों ही आपसमें तुल्य होकर नाम व गात्रकी वेदनासे विशेष अधिक हैं । १२६ ॥
- यहां विशेष अधिकताका प्रमाण नाम-गोत्रके द्रव्यको आवलीके असंख्यातवें भागसे खण्डित करनेपर उसमें एक खण्ड प्रमाण है, क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। एक
१ अ-आ-काप्रतिषु · सम्मवरि वेयणीए', ताप्रती ' सम्म (ब्बु) वरि वेयणीए ' इति पाठः । २ आउगभागो थोवो णामा-गोदे समो तदो अहियो। घादितिये वि य ततो मोहे तत्तो तदो तदिये । मह-दुक्खणिमित्तादो बहुणिज्जरगो चि वेयणीयस्स । सम्वेहिंतो बहुगं दव्वं होदि चि णिदिदं ॥ गो. क. १९२-१९३. ३ अ-आ-काप्रतिषु 'तुल्लावयत्तादो' इति पाठः।
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