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१, २, ४, ६.) वेयणमहाहियारे दव्वविहाणे सामिक्तं
पदे इदि ण एसा सत्तमी विहत्ती, किंतु पढमा चेव आदिद्वेयारा। पदसद्दो ठाणवाचओ घेत्तव्यो । जहण्णं पदं जस्स सामित्तस्स तं जहण्णपदं । उक्कस्सं पदं जस्स सामित्तस्स तमुक्कस्सपदं । ण च जहण्णुक्कस्ससामित्तहिंतो वदिरित्तमण्णं सामित्तमत्थि, अणुचलंभादो । अजहण्ण-अणुक्करसदव्वाणं सामित्तेण सह चउव्विहं सामित्तं किण्ण वुच्चदे ? ण, अजहण्णअणुक्कस्सदव्वसामित्त भण्णमाणे वि जहण्णुक्करसविहाणं मोत्तूणण्णेण पयारेण सामित्तपरूवणाणुववत्तीदो । तम्हा दुविहं चेव सामित्तमिदि उत्तं । अधवा जहण्णपदे उक्कस्सपदे इदि सत्तमीणिदेसो । तेण जहण्णपदे एग सामित्तं उक्क्क स्सपदे अवरं सामित्त, एवं दुविहं चेव सामित्तमिदि वत्तव्वं ।
सामित्तण उक्कस्सपदे णाणावरणीयवेयणा दबदो उक्कस्सिया कस्स ? ॥६॥
'पदे' यह सप्तमी विभक्ति नहीं है, किन्तु प्रथमा विभाक्ति ही है क्योंकि इसमें एकारका आदेश हो जानेसे 'पदे' यह रूप हो गया है । यहां पद शब्द स्थानका वाचक लेना चाहिये । 'जिस स्वामित्वका' जघन्य पद है वह जघन्यपद कहलाता है, और जिस स्वामित्वका उत्कृष्ट पद है वह उत्कृष्टपद कहलाता है। और जघन्य व उत्कृष्ट स्वामित्वको छोड़कर दूसरा कोई स्वामित्व है नहीं, क्योंकि, वह पाया नहीं जाता।
शंका-अजघन्य और अनुत्कृष्ट द्रव्यके स्वामित्वके साथ चार प्रकारका स्वामित्व क्यों नहीं कहते ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, अजघन्य और अनुत्कृष्ट द्रव्यके स्वामित्वका कथन करनेपर भी जघन्य और उत्कृष्ट विधानको छोड़कर अन्य प्रकारसे स्वामित्वकी प्ररूपणा नहीं बनती। इस कारण सूत्रमें 'दो प्रकारका ही स्वामित्व है ' ऐसा कहा है । अथवा, 'जहण्णपदे उक्कस्सपदे' यह सप्तमी विभक्तिका निर्देश है । इसलिये जघन्य पदमें एक स्वामित्व है और उत्कृष्ट पदमें दूसरा स्वामित्व है, इस तरह दो प्रकारका ही स्वामित्व है; ऐसा सूत्रका व्याख्यान करना चाहिये।
अब स्वामित्वकी अपेक्षा उत्कष्ट पदका प्रकरण है। ज्ञानावरणीयवेदना द्रव्यसे उत्कृष्ट किसके होती है ? ॥६॥
१ अ-आप्रलो. अदिडेयारा' इति पाठः।
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