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________________ १, २, ४, ३०.] वेयणमहाहियारे वैयणदव्वविहाणे सामित्त [१.७ चरिमगुणहाणीए च अंतोमुहुत्तमावलियाए असंखेज्जदिमागं चेव अच्छदि, जाव संभवो ताव तत्थेव अवठ्ठाणपरूवणादो । दुचरिम-तिचरिमसमए उक्कस्ससंकिलेसं गदो ॥ ३०॥ दुचरिम-तिचरिमसमएसु किमट्ठमुक्कस्ससंकिलेसं णीदो १ बहुदव्वुक्कड्डणटुं । जदि एवं तो दोसमए मोत्तूण बहुसु समएसु णिरंतरमुक्कस्ससंकिलेसं किण्ण णीदों ? ण, एदे समए मोत्तूण णिरंतरमुक्कस्ससंकिलेसेण बहुकालमवट्ठाणाभावादो। ण वत्तव्वमिदं सुतं, संकिलेसावाससुत्तेणेव परविदत्थत्तादो ? ण एस दोसो, संकिलेसावाससुत्तादो मेरइयचरिम भवमें यवमध्यके ऊपर और अन्तिम गुणहानिमें अन्तर्मुहूर्त व आवलीके असंख्यातवें भाग काल तक रहता है सो ऐसा भी नहीं है, क्योंकि, जहां तक सम्भव है वहां तक यहींपर भवस्थान कहा गया है। द्विचरम व त्रिचरम समयमें उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त हुआ ॥ ३० ॥ शंका-द्विचरम व त्रिचरम समयों में उत्कृष्ट संक्लेशको किसलिये प्राप्त कराया ? समाधान-बहुत द्रव्यका उत्कर्षण करानेके लिये उन समयों में उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त कराया गया है। शंका-यदि ऐसा है तो उक्त दो समयोंको छोड़कर बहुत समय तक निरन्तर उस्कृष्ट संक्लेशको क्यों नहीं प्राप्त कराया गया ? समाधान-नहीं, क्योंकि, इन दो समयोंको छोड़कर निरन्तर उत्कृष्ट संक्लेशके साथ बहुत काल तक रहना सम्भव नहीं है। शंका-इस सूत्रको नहीं कहना चाहिये, क्योंकि, इस सूत्रके अर्थकी प्ररूपणा संक्लेशावाससूत्रसे ही हो जाती है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, संक्लेशावाससूत्रसे जो नारक भवके १ प्रतिषु · सकिलेस णीलो' इति पाठः । २ प्रतिषु णीलो ' इति पाठः। ३ प्रतिषु ' एगसमए ', मप्रतौ ‘ए समए ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org www.jaineli
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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