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४, २, ४, १७३.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलियां [१०३
सुगमं ।
एवमेक्के कस्स जोगगुणगारो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ॥१७३॥
पुव्वुत्तासेसजोगट्ठाणाणं गुणगारस्स पमाणमेदेण सुत्तेण परूविदं । पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो गुणगारो होदि त्ति कधं णव्वदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो । ण च पमाणतरमवक्खदे, अणवत्थापसंगादो । एसो मूलवीणाए अप्पाबहुगालावो देसामासिओ', सूचिदपरूवणादिअणिओगद्दारत्तादों । तेण एत्थ परूवणा पमाणमप्पाबहुगमिदि तिष्णि अणिओगद्दाराणि परवेदव्वाणि । तत्थ परूवणं वत्तइस्सामो। तं जहा- सत्तण्णं लद्धिअपज्जतजीवसमाणमत्थि उववादजोगट्ठाणाणि एयंताणुवड्डिजोगट्टाणाणि परिणामजोगट्ठाणाणि च । सत्तण्णं णिव्वत्तिअपज्जत्तजीवसमासाणमत्थि उववादजोगट्ठाणाणि एयंताणुवड्डिजोग. हाणाणि चे । सत्तष्णं णिव्वत्तिपज्जत्तयाणमत्थि परिणामजोगट्ठाणाणि पेव । परूवणा समत्ता।
यह सूत्र सुगम है।
इस प्रकार प्रत्येक जीवके योगका गुणकार पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है ॥ १७३॥
इस सूत्र द्वारा पूर्वोक्त समस्त योगस्थानोंके गुणकारका प्रमाण कहा गया है।
शंका - पल्योपमका असंख्यातयां भाग गुणकार होता है, यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान - वह इसी सूत्रसे जाना जाता है । यह सूत्र स्वयं प्रमाणभूत होनेसे किसी अन्य प्रमाणकी अपेक्षा नहीं करता, क्योंकि, ऐसा होनेपर अनवस्था दोषका प्रसंग आता है।
यह मूल वीणाका अल्पबहुत्व-आलाप देशामर्शक है, क्योंकि, वह प्ररूषणा आदि अनुयोगद्वारोंका सूचक है । इसलिये यहां प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व, इन तीन अनुयोगद्वारोंकी प्ररूपणा करना चाहिये। उनमें प्ररूपणाको कहते हैं । वह इस प्रकार है- सात लब्ध्यपर्याप्त जीवसमालोके उपपादयोगस्थान, एकान्तानुवृद्धियोगस्थान और परिणामयोगस्थान होते हैं। सात निवृत्त्य पर्याप्त जीवसमासोंके उपपादयोगस्थान व एकान्तानुवृद्धियोगस्थान होते हैं। सात निसिपर्याप्तकोंके परिणामयोगस्थान ही होते हैं। प्ररूपणा समाप्त हुई।
प्रतीच[माणे ] माणतर-पति पाठः। १ अ-कापत्योः 'देसामासओ'इति पाठ
। आप्रतौ ' आणओगबाराको ' इति पाठः । ४ अ-आ-काप्रतिषु ' सत्तणं अस्थिअपम्जत', तातो लक्षणे अपरमत्त.' इति पाठ।। ५ अ-आकाप्रतिषु चि'इत्येतत्पदं नोपलभ्यते ।
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