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________________ १, २, ४, १२२. ] वेयणमहादियारे वेयणदव्यविहाणे सामित्तं [३४५ सगलपक्खेवो वविदो होदि । भागहारमेत्ताणि जोगट्ठाणाणि चडिदो होदि । एदेण सरूवेण ताव वड्ढावेदव्वं जाव सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तसगलपक्खेवा वड्विदा ति । ते च केवडिया इदि भणिदे तदणंतरहेछिमगोवुच्छाए जेत्तिया सगलपक्खेवा अस्थि तेत्तियमेत्ता। तेसिं सगलपक्खेवाणं गवेसणा कीरदे । तं जहा -- अंगुलस्स असंखेज्जदिभागं विरलेदण सगलपक्खवं समखंड कादण दिण्णे चरिमणिसेगो आगच्छदि । पुणो इमादो चरिमणिसेयादो पयदणिसेयो रूवाहियदीवसिहामेत्तगोवुच्छविसेसेहि अहिओ होदि त्ति । पुणो तेसिं पि आगमणे इच्छिज्जमाणे रूवाहियदीवसिहाओवट्टिदरूवाहियगुणहाणिं हेट्ठा विरलिय उवरिमेगरूवधरिदं समखंड करिय दिण्णे रूवं पडि इच्छिदविसेसा पावेंति । पुणो ते उवरि दादूण समकरणे कीरमाणे परिहीणरूवाणमागमणं वुच्चदे। तं जहा- रूवाहियहेट्ठिमविरलणमेत्तद्धाणं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणमेत्तद्धाणम्मि किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए परिहीणरूवाणि आगच्छति । ताणि उवरिमविरलणम्मि अवणिय तेण सगलपक्खेवे भागे हिदे पयदगोवुच्छाए विगलपक्खेवो आगच्छदि । पुणो एदेण पमाणेण सेडीए असंखेज्जदिमागमत्तउवरिमविरलणरूवधरिदसगल निषेक आता है विकल प्रक्षेपोंके बढ़ने पर एक सकल प्रक्षेप बढ़ता है। भागहार मात्र योगस्थान ऊपर चढ़ता है। इस रीतिसे श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र सकल प्रक्षेपोंके बढ़ने तक बढ़ाना चाहिये। शंका-वे कितने हैं ? समाधान- ऐसा पूछने पर उत्तर देते हैं कि वे उसके अनन्तर अधस्तन गोपुच्छमें जितने सकल प्रक्षेप हैं उतने मात्र हैं। उन सकल प्रक्षेपोंकी गवेषणा की जाती है । वह इस प्रकारले- अंगुलके असंख्यातवें भागका विरलन करके सकल प्रक्षेपको समखण्ड करके देनेपर अन्तिम आता है। पूनः इस अन्तिम निषेकसे प्रकृत निषेक एक अधिक दीपशिखा मात्र गोपुच्छविशेषोंसे अधिक होता है। पूनः उनके भी लाने की इच्छासे रूप अधिक दीपशिखास अपवर्तित रूपाधिक गुणहानिको नीचे विलित कर ऊपरकी एक रूपधरित राशिको समखण्ड करके देनेपर रूपके प्रति इच्छित विशेष प्राप्त होते हैं । फिर उनको ऊपर देकर समीकरण करते हुए परिहीन रूपोंके लानेकी विधि कहते हैं। वह इस प्रकार है- रूप अधिक अधस्तन विरलन मात्र अध्यान जाकर यदि एक रूपकी हानि पायी जाती है तो उपरिम विरलन मात्र अध्वानमें कितनी हानि पायी जायगी, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित करने पर परिहीन रूप आते हैं। उनको उपरिम विरलनसे कम करके जो शेष रहे उसका सकल प्रक्षेपमें भाग देनेपर प्रकृत गोपुच्छका विकल प्रक्षेप आता है। फिर इस प्रमाणसे श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र छ. वे. ४४, , Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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