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छक्खंडागमे वेयणाखंड
[ १, २, १, १३. पदेसो बहुगो आगच्छदि त्ति वयणादो। एदं सुत्तं सामण्णविसयत्तेण आउअबंधकालं मोत्तूण अण्णत्थ पयट्टदे।
बहुसो बहुसो बहुसंकिलेसपरिणामो भवदि ॥ १३॥
किमहुँ बहुसो बहुसो बहुसंकिलेसपरिणामाणं णिज्जदे ? बहुदव्वुक्कड्डणमुक्कस्सद्विदिबंधटुं च । उक्कस्सट्टिदी चेव किमर्से बंधाविज्जदे ? हेछिल्लगोउच्छाणं सुहुमत्तविहाणटुं उवरि दूरमुक्खित्ताण कम्मक्खंधाण उवसामणा-णिकाचणाकरणेहि ओकड्डणाणिवारणटुं च ।
एवं संसरिदूण बादरतसपज्जत्तएसुववण्णो' ॥ १४ ॥ एदेण विहाणेण कम्मक्खंधाणं संचयकरणेण एइंदिएसु विगयतसहिदि कम्मट्ठिदि
योगसे बहुत प्रदेश आता है, ऐसा वचन है ।
यह सूत्र सामान्यको विषय करता है अर्थात् उत्सर्गका व्याख्यान करनेवाला है, इसलिये वह आयुके बन्धकालको छोड़कर अन्यत्र प्रवृत्त होता है।
बहुत बहुत बार बहुत संक्लेश रूप परिणामवाला होता है ॥ १३ ॥
शंका -बहुत बहुत बार बहुत संक्लेश रूप परिणामोंको क्यों प्राप्त कराया जाता है ?
समाधान-बहुत द्रव्यका उत्कर्षण करानेके लिये और उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करानेके लिये बहुत बहुत बार संक्लेश रूप परिणामोंको प्राप्त कराया जाता है। __ शंका-उत्कृष्ट स्थिति ही किसलिये बंधायी जाती है ?
समाधान-अधस्तन गोपुच्छोंकी सूक्ष्मताके विधानके लिये और ऊपर दूर उत्क्षिप्त कर्मस्कन्धोंके उपशामना व निकाचना करणों द्वारा अपकर्षणका निवारण करनेके लिये उत्कृष्ट स्थिति बंधायी जाती है।
इस प्रकार परिभ्रमण करके बादर त्रस पर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ ॥ १४ ॥ इस पूर्वोक्त विधिसे कर्मस्कन्धोंका संचय करता हुआ एकेन्द्रियों में प्रसस्थितिसे
१ क. प्र. २-७५,
२ प्रतिषु ' -णिकाचणाकारणेहि ' इति पाठः । ३ पायरतसेसु तक्कालमेवमंते य सत्तमखिईए । सव्वलहुं पज्जतो जोग-कसायाहिओ बहुसो। क. प्र.२-७१.
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