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________________ ३१८] छक्खंडागमे वेयणाखंडं [४, २, ४, १२२. एत्तियमेत्तं वड्डिदूण द्विदो च, पक्खेवुत्तरजोगेण एगसमयं बंधिदूण आगदो च, सरिसा । एवं विगलपक्खेवभागहारमत्तविगलपक्खेवेसु वडिदेसु पुणो एगो सगलपक्खेवो वड्ढदि । भागहारमेत्तजोगट्ठाणाणि उवरि चडिदूण एगसमएण वंधिय अहियारहिदीए द्विददव्वं सरिसं होदि । एवं रूवाहियकमेण दुगुणदीवसिहाए हेट्ठिमगोवुच्छाए जत्तिया सगलपक्खेवा अस्थि तत्तियमेत्ता सगलपक्खेवा वड्ढावेदव्या।। ___संपहि हेट्ठिमगोवुच्छाए संगलपक्खेवाणं गवसणा कीरदे । तं जहा -- अंगुलस्स असंखेज्जदिभागं विरलिय सगलपक्खेवं समखंडं कादृण दिण्णे रूवं पडि एगेगचरिमणिसेगो पावदि । पुणो एदम्हादो पयदगोवुच्छा दुगुणदीवसिहामेत्तगोवुच्छविससेहि अहिया होदि त्ति रूवाहियगुणहाणि दुगुणदीवसिहाए खंडिय तत्थ एगखंडेण रूवाहिरण उवरिमविरलगमोवट्टिय लद्धं तम्हि चेव सेोहिय सुद्धसेसेण सगलपक्खेवे भागे हिदे विगलपक्खेवो आगच्छदि । पुणो एदेण पमाणेण सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तसगलपक्खेवहितो अवणिय विगलपक्खेवमागहारेण सगलपक्खेवभागहारे भागे हिदे लद्धमत्ता सगलपक्खेवा पयदगोवुच्छाए होति । एत्थ जोगट्ठाणद्धाणं पि जाणिदूण भाणिदव्वं । पुणो सेसअधिकारगोवुच्छाणं पि .................................. योगसे एक समयमै आयुको बांधकर आया हुआ जीव, दोनों समान है। इस प्रकार विकल-प्रक्षेप-भागहार प्रमाण विकल प्रक्षेपोंके बढ़ने पर फिर एक सकल प्रक्षेप बढ़ता है । भागहार प्रमाण योगस्थान ऊपर चढ़कर एक समयमें आयुको बांध करके अधिकार स्थितिमें स्थित द्रव्य सदृश होता है। इस प्रकार रूप अधिक शमसे द्विगुणित दीपशिखाके अधस्तन गोपुच्छमें जितने सकल प्रक्षेप हैं उतने मात्र सकल प्रक्षेप बढ़ाना चाहिये। अब अधस्तन गोपुच्छके सकल प्रक्षेपोंकी गवेषणा की जाती है। वह इस प्रकार है- अंगुलके असंख्यातवें भागका विरलन कर सकल प्रक्षेपको समखण्ड करके देनेपर रूपके प्रति एक एक अन्तिम निषक प्राप्त होता है। इससे प्रकृत गोपुच्छ चूंकि द्विगुणित दीपशिखा मात्र गोपुच्छविशेषोंसे अधिक है, अतः रूप अधिक गुणहानिको द्विगुणित दीपशिखासे खण्डित कर उसमें रूपाधिक एक खण्डसे उपरिम विरलनको अपवर्तित कर जो लब्ध हो उसे उसीमेंसे कम करके शेषका प्रक्षेपमें भाग देनेपर विकल प्रक्षेप आता है। पुनः इस प्रमाणसे श्रोणिके असंख्यातवें भाग मात्र सकल प्रक्षेपोमेंसे कम करके विकल प्रक्षेपके भागहारका सफल प्रक्षपके भागहारमें भाग देनेपर जो लब्ध हो उतने मात्र सकल प्रक्षेप प्रकृत गोपुच्छमें होते हैं । यहां योगस्थानाध्यानको भी जानकर कहना चाहिये। पुनः शेष अधिकार गोपुच्छों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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