SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 264
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४, २, ४, ४६.1 वेयणमहाहियारे वेयणदव्यविहाणे सामित्त सुगममेदं । बहुसो बहुसो सादद्धाए जुत्तों ॥४५॥ सादबंधणपाओग्गकालो सादद्धा णाम । असादबंधणपाओग्गसंकिलेसकालो असादद्धा णाम । तत्थ सादद्धाए बहुवार परिणामिदो ओलंघणाकरणेण गलमाणदव्वपडिसेहहूँ । से काले परभवियमाउअं पिल्लेविहिदि त्ति तस्स आउअवेयणा दव्वदो उक्कस्सा ॥४६॥ विगिदिसरूवेण गलमाणदव्वमेगसमयपबद्धादो बहुअं, तेण परभविआउअबंधे अपारद्धे चेव उक्कस्ससामित्तं दादव्वमिदि १ ण, विगिदिगोवुच्छादो समयं पडि दुक्कमाणसमयपबद्धस्स संखेज्जगुणतुवलंभादो । तं कधं णबदे १ सुत्तारंभण्णहाणुववत्तीदो पुरदो भण्णमाणजुत्तीदो च । यह सूत्र सुगम है। बहुत बहुत बार साताकालसे युक्त हुआ ॥ ४५ ॥ सातावेदनीयके बन्धके योग्य कालका नाम साताकाल है । असातावेदनीयके बन्धके योग्य संक्लेशकालका नाम असाताकाल है । उनमेसे अवलम्बन करण द्वारा गलनेवाले द्रव्यका प्रतिषेध करने के लिये साताकालके द्वारा बहुत बार परिणमाया । तदनन्तर समयमें परभव सम्बन्धी आयुकी बन्धव्युच्छित्ति करेगा, अतः उसके आयुवेदना द्रव्यकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है ॥ ४६ ।। __शंका - विकृति स्वरूपसे गलनेवाला द्रव्य एक समयप्रबद्धके द्रव्यसे बहुत होता है, अतः परभविक आयुबन्धके प्रारम्भ होनेके पहले ही उत्कृष्ट स्वामित्व देना चाहिये? समाधान- नहीं, क्योंकि, विकृतिगोपुच्छसे प्रत्येक समय में प्राप्त हुआ समयप्रबद्धका द्रव्य संख्यातगुणा होता है। ' शंका -- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान- क्योंकि ऐसा माने विना सूत्रका प्रारम्भ करना ही नहीं बनता, इससे तथा आगे कही जानेवाली युक्तिसे यह जाना जाता है कि विकृतिगोपुच्छासे प्रत्येक समयमें प्राप्त हुआ समयप्रबद्धका द्रव्य संख्यातगुणा है। , योगश्वरमजीवो बहुशः साताद्धया सहितः । गो. जी. (जी. प्र.) २५८. २ अनन्तरसमधे आयुर्वन्धं निलिम्पति इत्येवं तज्जीवानां आयुर्वेदनाद्रव्यं च उवासंचयं भवति । गो. जी. (जी. प्र.) २५८. १ अप्रतौ — बहुअंतरेण ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy