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४, २, ४, १७३.] वेयणमहाहियारे वेयणव्वविहाणे चूलिया [ १२१ विदस्स अपत्तुववादजोगस्स एयंताणुवड्डिजोगेण परिणामविरोहादो। एयंताणुवाविजोगकालो जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ । पज्जत्तपढमसमयप्पहुडि उवरि सम्वत्थ परिणामजोगो चेत्र । णिव्वत्तिअपज्जत्ताणं णत्थि परिणामजोगो । एवं जोगअप्पाबहुगं समत्तं । संपहि चउण्णमप्पाबहुगाणमेदाओ संदिट्ठीओ
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एदेसु सुहमणिगोदादिसण्णिपंचिंदिया तिं लद्धिअपज्जत्ताणं जहण्णउववादजोगा। सो जहण्णउववादजोगों कस्स होदि ? पढमसमयतब्भवत्थस्स विग्गहगदीए वट्टमाणस्स । सो केवचिरं कालादो होदि ? जहण्गेण उक्कस्सेण य एगसमइओ । बिदियादिसु समएसु एगंताणुवडिजोगपउत्तीदो। सरीरगहिदे जोगो वड्ढदि ति विग्गहगदीए सामित्तं दिण्णं जहण्णयं ।
परिणामके होने में विरोध आता है। एकान्तानुवृद्धियोगका जघन्य व उत्कृष्ट काल एक समय मात्र है। पर्याप्त होनेके प्रथम समयसे लेकर आगे सब जगह परिणामयोग ही होता है । निर्वृत्त्यपर्याप्तकोंके परिणामयोग नहीं होता। इस प्रकार योगअल्पबहुत्व समाप्त हुआ। अब चार अल्पबहुत्वोंकी ये संदृष्टियां हैं- (मूलमें देखिये)।
इनमें सूक्ष्म निगोदको आदि लेकर संशी पंचेन्द्रिय पर्यन्त लब्ध्यपर्याप्तकोंके जघन्य उपपादयोग होते हैं।
शंका- वह जघन्य उपपादयोग किसके होता है ?
समाधान-विग्रहगतिमें वर्तमान जीवके तद्भवस्थ होनेके प्रथम समयमें जघन्य उपपादयोग होता है।
शंका- वह कितने काल होता है ? .
समाधान- वह जघन्य व उत्कर्षसे एक समय रहता है, क्योंकि, द्वितीयादि समयोंमें एकान्तानुवृद्धियोग प्रवृत्त होता है।
शरीर ग्रहण कर लेने पर चूंकि योग वृद्धिको प्राप्त होता है, अत एव विग्रह
परिणामजोगठाणा सरीरपज्जत्तगादु चरिमो त्ति । लद्धिअपज्जत्ताणं चरिमतिभागम्हि बोद्धव्वा ॥ गो. क.१२..
प्रतिष पंचिंदियादि' इति पाठः। ३ अ-आ-काप्रतिषु '-उववादजोगो अजहण्णउववादोगो 'ति पाठः। ४ तापतौ ' उक्कस्सेण एगसमइओ' इति पाठः। ५ प्रतिषु 'गहिदो' इति पाठः।
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