SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 441
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२.] छक्खंडागमे वेयणाखंड । ४,२, ४, १७३. खेज्जगुणो। असण्णिपंचिंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। सण्णिपंचिंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो। गुणगारो सव्वत्थ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो होतो वि अप्पणो इच्छिदजोगादो हेट्ठिमणाणागुणहाणिसलागाओ विरलेदण विगं करिय अण्णोण्णभत्थरासिमेत्तो होदि । एसो गुणगारो चदुण्णं पि वीणापदाणं वत्तव्यो । एवं जहण्णुक्कस्सा वीणा समत्ता। उववादजोगो णाम कत्थ होदि ? उप्पण्णपढमसमए चर्व । केवडिओ तस्स कालो? जहण्णुक्कस्सेण एगसमओं । उप्पण्णबिदियसमयप्पहुडि जाव सरीरपज्जत्तीए अपज्जत्तयदचरिमसमओ ताव एगताणुवड्डिजोगो होदि । णवरि लद्धिअपज्जत्ताणमाउअबंधपाओग्गकाले सगजीविदतिमागे परिणामजोगो होदि । हेट्ठा एगताणुवड्डिजोगो चेव । लद्धिअपज्जत्ताणमाउअबंधकाले चेव परिणामजोगो होदि त्ति के वि भणंति । तण्ण घडदे, परिणामजोगे निर्वृत्तिपर्याप्तकका उत्कृष्ट परिणामयोग असंख्यातगुणा है। उससे संशी पंचेन्द्रिय निर्वत्तिपर्याप्तकका उत्कृष्ट परिणामयोग असंख्यातगुणा है। गुणकार सब जगह पल्योपमका मसंख्यातवां भाग होकर भी वह अपने इच्छित योगसे नीचेकी नानागुणहानिशलाकाओंका विरलन कर दुगुणा करके उनकी अन्योन्याभ्यस्त राशि प्रमाण होता है । यह गुणकार चारों ही वीणापदोंके कहना चाहिये। इस प्रकार जघन्योत्कृष्ट वीणा समाप्त हुई । शंका-उपपादयोग कहांपर होता है ? समाधान- वह उत्पन्न होनेके प्रथम समय में ही होता है । शंका- उसका काल कितना है ? समाधान-उसका जघन्य व उत्कृष्ट काल एक समय मात्र है। उत्पन्न होनेके द्वितीय समयसे . लेकर शरीरपर्याप्तिसे अपर्याप्त रहने के अन्तिम समय तक एकान्तानुवद्धियोग होता है। विशेष इतना है कि लब्ध्यपर्याप्तकोंके आयुषन्धके योग्य कालमें अपने जीवितके त्रिभागमें परिणामयोग होता है। उससे नीचे एकान्तानुवृद्धियोग ही होता है। लब्ध्यपर्याप्तकोंके आयुबंन्धकालमें ही परिणामयोग होता है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। किन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, इस प्रकारसे जो जीव परिणामयोगमें स्थित है व उपपादयोगको नहीं प्राप्त हुआ है उसके एकान्तानुवृद्धियोगके साथ एदेसिं ठाणाओ पल्लासंखेज्जभागगुणिदकमा । हेछिमगुण हाणिसला अण्णोण्णभत्थमेतं तु । गो. क. २४१. २ प्रतिषु 'पधाणं' इति पाठः। ३ आप्रतौ 'वीणालावा' इति पाठः। ४ उववादजोगठाणा भवादिसमयष्ट्रियस्स अवर-वरा । विग्गह-इजुगइगमणे जीवसमासे मुणेयव्वा ॥ गो. क.२१९. ५ अवरुक्कस्सेण हवे उववादेयतवड्डिठाणाणं । एक्कसमयं हो पुण इदरेसिं जाव अट्ठो ति ॥ गो. क.२४२. ६ एयंतवढिठाणा उभयहाणाणमंतरे होति । अवर-वरद्वाणाओ सगकालादिम्हि अंतम्हि ॥ गो. क. २२२, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy