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________________ ३८४ ] छक्खंडागमे वेयणाखंड [ १, २, ४, १२२. तिरिक्खदव्वस्स उक्कस्सत्तुवलंभादो । एवं वड्डिदण विदो च, अण्णगो पगदि-विगदिसरूवेण गलिदव्वेणब्भहियकिंचूणपुव्वकोडितिभागमेत्तदव्वं तप्पाओग्गजोगेण उक्कस्सबंधगद्धाए च तिरिक्खाउअंबंधिदण जलचरेसुप्पज्जिय अंतोमुहुत्ते गदे एगसमएण कदलीघादं कादण पुणो उक्कस्सजोगुक्कस्सबंधगद्धादि णिरयाउअं बंधिय विदो च, सरिसा । पुणो एवं जलचरदव्वं जोगोकड्डुक्कड्डणबंधगद्धाओ अस्सिदूण वड्ढावेदव्वं' जाव भुंजमाणाउअदव्वमुक्कस्सं पत्तं ति । अधवा, दीवसिहापढमसमए चेव ओक्कड्डुक्कड्डण-जोग. बंधगद्धाहि दव्यमुक्कस्सं काऊण पुणो गुणिदकम्मंसियणाणावरणीयविहाणेण ओदरेदव्वं जाव तिरिक्खजलचरउक्कस्सदव्वं पत्तं ति । एत्थ एदेसिं पदेसट्ठाणाणं जे सामिणो जीवा तेसिं परूवणा पमाणं अप्पाबहुगेत्ति तीहि अणिओगद्दारेहि पण्णवणा कायव्वा । सा च सुगमा, णाणावरणीयपरूवणाए समाण तादो । णवरि आउअस्स जहण्णए उक्कस्सए वि ट्ठाणे जीवा असंखेज्जा । एवमंतोकदसंखा-हाण-जीवसमुदाहारमजहण्णसामित्तं समत्तं । तिर्यंच द्रव्यके उत्कृष्टता पायी जाती है। इस प्रकार बढ़कर स्थित हुआ, तथा दूसरा एक जीव प्रकृति व विकृति स्वरूपसे निर्जीर्ण द्रव्यसे अधिक कुछ कम पूर्वकोटिके तृतीय भाग प्रभाण द्रव्य युक्त तिर्यंच आयुको तत्प्रायोग्य योग व उत्कृष्ट बन्धककालसे बांधकर जलचरोंमें उत्पन्न हो अन्तर्मुहूर्तके वीतनेपर एक समयमें कदलीघात करके फिर उत्कृष्ट योग और उत्कृष्ट बन्धककालसे नारकायुको बांधकर स्थित हुआ, दोनों सदृश हैं। फिर भुज्यमान आयु द्रव्यके उत्कृष्टताको प्राप्त होने तक इस जलचर द्रव्यको योग, अपकर्षण, उत्कर्षण व बन्धककालका आश्रय करके बढ़ाना चाहिये । अथवा, दीपशिखाके प्रथम समयमें ही अपकर्षण, उत्कर्षण, योग व बन्धककाल द्वारा द्रव्यको उत्कृष्ट करके फिर गुणितकांशिक सम्बन्धी ज्ञानावरणीयके विधानसे तिर्यंच जलचर जीवका उत्कृष्ट द्रव्य प्राप्त होने तक उतारना चाहिये। यहां इन प्रदेशस्थानोंके जो जीव स्वामी हैं उनकी प्ररूपणा, प्रमाण ओर अल्पबहुत्व, इन तीन अनुयोगद्वारोंके द्वारा प्रज्ञापना करना चाहिये । वह सुगम है, क्योंकि, वह ज्ञानावरणीयकी प्ररूपणाके समान है। विशेष केवल इतना है कि आयुके जघन्य व उत्कृष्ट स्थानमें भी जीव असंख्यात है। इस प्रकार संख्या स्थान, व जीवसमुदाहारागर्मित अजघन्य स्वामित्व समाप्त हुआ। , तापतौ 'बंधावेदव्वं ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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