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________________ ४, २, ४, ३२. ] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं [ २०१ संकलण संकलणमे तपढमणिसगा पावेंति । पुणो एदेसिं जहासरूवेण आगमणमिच्छामो ति संकलणासंकलणाए रूवूणगच्छुभवाए इमं भागहारं ओवट्टिय विरलेदूण उवरिमए गरू वधरिदं समखंड करिय दिण्णे संकलणा संकलणमेत्तगोवुच्छविसेसा पावेंति । पुणो एदेण पमाणेण उवरिमसव्वरूवधरिदेसु अवणिदे इच्छिददव्वं होदि । पुणो अवणिददव्वे तप्पमाणेण कीरमाणे' उप्पण्णरूपमाणं वुच्चदे । तं जहा - रूवूर्णहट्ठिमविरलणमेत्तगोवच्छविसेसेसु जदि एगरूवपक्खेव लब्भदि तो उवरिमविरलणमेत्तेसु किं लभामो' त्ति पमाणेण फलगुणिदमिच्छमोवट्टिय लद्धमुवरिमविरलणाए पक्खिविय समयपबद्धे भागे हिदे णाणासमयपबद्धणाणासमयओकड्डि दणाणासमयगलिददव्वमागच्छदि । एवं णाणासमयपबद्ध णाणासमयओकडिदणाणासमयगलिददव्वस्स परूवणा गदा । एवं भागहारपमाणाणुगमो समत्ता । -- संधि समयबद्धपमाणाणुगमो वुच्चदे । तं जहा- - रइय चरिमसमए उदयगदगो वुच्छा एगसमयपबद्धमेत्ता, तत्थ पढमणिसे गप्पहुडि जाव चरिमणिसेगो त्ति सव्वणिसेगाणमुवलंभादो । बिदियसमयगोवुच्छा किंचूणसमयपबद्धमेत्ता, तत्थ पढमणिसेगा एक अंकके प्रति संकलनासंकलन प्रमाण प्रथम निषेक प्राप्त होते हैं । फिर चूंकि इनका यथास्वरूपसे लाना अमीष्ट है, अत एव एक कम गच्छसे उत्पन्न संकलनासंकलन से इस भागाहारको अपवर्तित कर लब्धका विरलन करके उपरिम एक अंक के प्रति प्राप्त द्रव्यको समखण्ड करके देनेपर संकलनासंकलन प्रमाण गोपुच्छविशेष प्राप्त होते हैं। फिर इस प्रमाणसे उपरिम सव अंकों के प्रति प्राप्त द्रव्योंमेंसे कम करनेपर इच्छित द्रव्य होता है । पुनः कम किये गये द्रव्यको उसके प्रमाणसे करनेपर उत्पन्न अंकोंका प्रमाण कहते हैं । वह इस प्रकार हैएक कम अघस्तन विरलन प्रमाण गोपुच्छविशेषों में यदि एक अंकका प्रक्षेप पाया जाता है तो उपरिम विरलन प्रमाण गोपुच्छविशेषों में वह कितना पाया जावेगा, इस प्रकार प्रमाणसे फलगुणित इच्छाको अपवर्तित कर लब्धको उपरिम विरलनमें मिलाकर समयप्रबद्ध मैं भाग देनेपर नाना समयप्रबद्धों के नाना समयों में अपकृष्ट द्रव्यमेंसे नाना समयों में नष्ट हुआ द्रव्य आता है । इस प्रकार नाना समयप्रबद्धों के नाना समयों में अपकृष्ट द्रव्यमेंसे नाना समयों में नष्ट द्रव्यकी प्ररूपणा समाप्त हुई । इस प्रकार भागहारप्रमाणानुगम समाप्त हुआ । -- अब समयप्रबद्धप्रमाणानुगमकी प्ररूपणा की जाती है । वह इस प्रकार सेचरमसमयवर्ती नारकीकी उदयगत गोपुच्छा एक समयप्रबद्ध प्रमाण है, क्योंकि, उसमें प्रथम निषेकसे लेकर अन्तिम निषेक तक सब निषेक पाये जाते हैं । द्वितीय समय में स्थित संचय गोपुच्छा कुछ कम एक समयप्रबद्ध प्रमाण है, क्योंकि, उसमें १ प्रतिषु कीरमाणेण ' इति पाठः । छ. वे. २६. Jain Education International " २ प्रतिषु - मेते संकलणं लभामो ' इति पाठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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