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________________ १२] ' छक्खंडागमे वेयणाखंड [१, २, ४, ३२. गुणहाणिश्वमेतं होदि । चरिमगुणहाणिदव्वपक्खेवो किमढ़ कीरदे ? संपुण्णदिवड्डगुणहाणि. उप्पायणढें । तं पि कुदो ? अव्वुप्पण्णसाहुजणवुप्पायणटुं । तस्स संदिट्ठी। ५१२ । ५१२ । ५१२ । ५१२ । ५१२ । ५१२ । १२८ । पढमगुणहाणितिण्णिचउब्भागमेत्तपढमणिसेगेसु बिदियादिगुणहागिसमुप्पण्णगुणहाणितिपिणचदुब्भागमेत्तपढमाणसेगेसु पक्खिनेसु देिवड्डगुणहाणिमेत्तपढमणिसेया होंति, अवणिदपढमणिसेयद्धत्तादो । दिवड्वगुणहाणीए पमाणं संदिट्ठीए पारस १२ । एदेण पढमणिसेगे गुणिदे समयपबद्धपमाणमात्तयं होदि |६१४४ ।। खेत्तदो पढमणिसेगविक्खंभं दिवड्डगुणहाणिआयदखेत्तं होदि ! ।। जेण पढम गुणहानिका द्रव्य । शंका-अन्तिम गुणहानिके द्रव्यका प्रक्षेप किसलिये किया जाता है ? समाधान-सम्पूर्ण डेढ़ गुणहानिको उत्पन्न कराने के लिये उसका प्रक्षेप किया गया है। शंका-वह भी किसलिये ? समाधान-अव्युत्पन्न साधु जनोंको व्युत्पन्न कराने के लिये वैसा किया गया है। उसकी संदृष्टि- ५१२ + ५१२ + ५१२ + ५१२ + ५१२ + ५१२ + १२८ = ३२०० । प्रथम गुणहानिके तीन चतुर्थ भाग मात्र प्रथम निषेकोंमें द्वितीयादि गुणहानियोंके प्रथम गुणहानि रूपसे उत्पन्न हुए तीन चतुर्थ भाग मात्र प्रथम निषेकोंके मिलानेपर डेढ़ गुणहानि प्रमाण प्रथम निषेक होते हैं, क्योंकि, प्रथम निषेकका अर्ध भाग इसमें कम किया गया है। संदृष्टिमें डेढ़ गुणहानिका प्रमाण बारह १२ है। इससे प्रथम निषेकको गुणित करनेपर समयप्रबद्धका प्रमाण इतना होता है- ५१२४ १२ = ६१४४। विशेषार्थ-प्रथम गुणहानिके द्रव्यमें सवा छह प्रथम निषेक प्राप्त होते हैं। द्वितीयादि सब गुणहानियोंके द्रव्यमें अन्तिम गुणहानिका द्रव्य दूसरी बार मिलानेपर भी इतने ही प्रथम निषेक प्राप्त होते हैं। इनको जोड़ने पर साधिक डेढ़ गुणहानि प्रमाण प्रथम निषेक आते हैं। पर यहां आधा निषेक कम कर दिया है, इसलिये सब निषेक डेढ़ गुणहानि प्रमाण बतलाये हैं । इस हिसाबसे समयप्रबद्धका कुल द्रव्य ६१४४ होता है, क्योंकि, ५१२ को १२ से गुणा करनेपर इतना ही द्रव्य प्राप्त होता है। क्षेत्रकी अपेक्षा प्रथम निषेकोंका विस्तार डेढ़ गुणहानि प्रमाण आयत क्षेत्र होता है। १ प्रतिषु 'अणमुप्पायण' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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