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________________ ७० ] छक्खंडागमे वैयणाखंड [ ४, २, ४, २८. संपहि रूवाहियभागृहारेण अणंतरावणिधा वुच्चदे—- गुणहाणिणा जहण्णजोगट्ठाण - जीवेसु भागे हिदे पक्खेवो लब्भदि । तं पडिरासिदजहण्णजे गट्टाणजीवेसु पक्खित्ते बिदिय - जीवा होंति । पुणो रूवाहियपुव्वभागहारेण बिदियद्वाणजीवे खंडिय तत्थेगखंडे तं चेव पडिरासिय पत्रिखत्ते तदियट्ठाणजीवपमाणं होदि । पुणो अणंतरहेट्ठिमभागहारेण रूवाहिएण एदं खंडिय लद्धे पडिरासिदजीवेसु पक्खित्ते चउत्थट्ठाणजीवा होंति । एवं दव्वं जाव पढमैंदुगुणवड्ढि त्ति । एवं पत्तेयं पत्तेयं जवमज्झट्ठिमसव्वगुणहाणीणं रूवाहियभागहारो परूवेदव्वो । कुदो सगगुणहाणिणियमा रूवाहियभागहारस्स ? गुणहाणिं पडि पक्खेवाणं तुल्लत्ताभावादो ।. विशेषार्थ - - पहले यवमध्यसे पूर्वकी गुणहानियों में प्रारम्भ से प्रत्येक योगस्थानके जीवोंकी संख्या में प्रक्षेपको जोड़ते हुए यवमध्य तकके जीवों की संख्या उत्पन्न करके बतलाई गई थी और यवमध्यसे आगे सर्वत्र प्रक्षेपको घटानेकी प्रक्रिया के निर्देश द्वारा उत्कृष्ट योगस्थान तकके जीवोंकी संख्या निकाल कर बतलाई गई थी । किन्तु यहां यवमध्य से दोनों ओर प्रक्षेपको घटाते हुए किस प्रकार प्रत्येक योगस्थानके जीवोंकी संख्या आती है, इस विधिका निर्देश किया गया है । प्रारम्भ में यहां दो गुणहानियोंके कालका विरलन करा कर यवमध्य के जीवोंको समविभक्त कर दिया गया है और एक विरलनके प्रति जितनी संख्या प्राप्त हो उतनी संख्या दोनों ओर क्रमशः घटाई गई है । किन्तु यह क्रम आधे विरलनोंके समाप्त होने तक ही चालू रखा गया है । आगे प्रत्येक गुणहानि में प्रक्षेपका प्रमाण आधा आधा होता गया है और इस प्रकार दोनों ओर गुणहानिके अनुसार प्रत्येक योगस्थानके जीवोंकी संख्या लाई गई है । यह सब इसलिये किया गया है, क्योंकि इसमें भागहारका प्रमाण नहीं बदलता है । अब रूपाधिक भागहार के आधार से अनन्तरोपनिधाका कथन करते हैं - गुणहानि के कालका जघन्य योगस्थान के जीवोंमें भाग देनेपर प्रक्षेप प्राप्त होता है । उसे प्रतिराशि रूपसे स्थित जघन्य योगस्थानके जीवों में मिलानेपर द्वितीय स्थानके जीव होते हैं । पुनः एक अधिक पूर्व भागहारसे द्वितीय स्थानके जीवोंको भाजित कर उनमें एक खण्डको उसी दूसरे स्थानकी राशिको ही दूसरी राशि बनाकर उसमें मिला देनेपर तृतीय स्थानके जीवोंका प्रमाण होता है । फिर एक अधिक अनन्तर अधस्तन भागहारसे इस दूसरे स्थानकी राशिको खण्डित कर जो प्राप्त हो उसे प्रतिराशि रूप से स्थापित तीसरे स्थानके जीवों में मिला देने पर चतुर्थ स्थानके जीवोंका प्रमाण होता है । इस प्रकार प्रथम स्थानसे दुगुणी वृद्धि होने तक ले जाना चाहिये । इस प्रकार यवमध्यकी अधस्तन सब गुणहानियोंका अलग अलग एक एक गुणहानिके प्रति एक अधिकके क्रमसे भागहार कहना चाहिये । शंका- रूपाधिक भागहारके लिये अपनी गुणहानिका नियम कैसे है ? समाधान - क्योंकि, प्रत्येक गुणहानिके प्रक्षेप एक समान नहीं हैं, इसलिये रूपाधिक भागहार के लिये अपनी अपनी गुणहानिका नियम बन जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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