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________________ ४, २, ४, १७३. ] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे चूलिया पज्जत्तयस्स जहण्णओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । असण्णिपंचिंदियणिव्वत्चिपज्जत्तयस्स जहण्णओ परिणामजोगो असंखेज्जगुणो । सणिपंचिंदियणिव्वत्तिपज्जत्तयस्स जणओ परिणाम जोगो असंखेज्जगुणो । एवं जहण्णवीणालावो समत्तो । एतो उक्कसवीणालावं वत्तइस्साम । तं जहा सव्वथोत्रों' सुहुमेईदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो | सुहुमेइंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो । बादरेइंदियल द्विअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादज गो असंखेज्जगुणो । बादरेइंदियणिव्वत्ति अपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्ज - गुणो । बेइंदियलद्धिअपज्जतयस्स उक्कस्सओ उववाद जोगो असंखेज्जगुणो । बेइंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो | तेइंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववाद जोगो असंखेज्जगुणो । तेईदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो । चउरिदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो | चउरिंदियणिव्वत्तिअपज्जत्तयस्स उक्कस्सओ उववादजेोगो असंखेज्जगुणो । असण्णिपंचिंदियलद्धिअपज्जत्तयस्स उक्कस्मओ उववादजोगो असंखेज्जगुणो । असण [ ४११ योग असंख्यातगुणा है । उससे असंज्ञी पंचेन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तकका जघन्य परिणामयोग असंख्यातगुणा है । उसले संज्ञी पंचेन्द्रिय निर्वृत्तिपर्याप्तकका जघन्य परिणामयोग असंख्यातगुणा है । इस प्रकार जघन्य वीणालाप समाप्त हुआ । अब यहांसे आगे उत्कृष्ट वीणालापकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है- सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट उपपादयोग सबसे स्तोक है । उससे सूक्ष्म एकेन्द्रिय निर्वृत्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट उपपादयोग असंख्यातगुणा है । उससे बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट उपपादयोग असंख्यातगुणा है। उससे बादर एकेन्द्रिय निर्वृत्त्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट उपपादयोग असंख्यातगुणा है। उससे द्वीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त का उत्कृष्ट उपपादयोग असंख्यातगुणा है । उससे द्वीन्द्रिय निर्वृत्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट उपपादयोग असंख्यातगुणा है । उससे त्रीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट उपपादयोग असंख्यातगुणा है । उससे त्रीन्द्रिय निर्वृत्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट उपपादयोग असंख्यातगुणा है । उससे चतुरिन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट उपपादयोग असंख्यातगुणा है । उससे चतुरिन्द्रिय निर्वृत्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट उपपादयोग असंख्यातगुणा है । उससे असंक्षी पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट उपपादयोग असंख्यातगुणा है। उससे असंज्ञी १ प्रतिषु सव्वत्थोवा ' इति पाठः । २ वाक्यमिदं नोपलभ्यत अ-आ-काप्रतिषु, मप्रतौ तूपलभ्यते तत् साप्रती कोष्ठकान्तर्गतमस्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001404
Book TitleShatkhandagama Pustak 10
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1954
Total Pages552
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size13 MB
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