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४, २, ४, ३३.] वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्तं [२२१ पाओग्गट्ठाणेसु अणता । एत्थ ताव तसजीवपाओग्गहाणाणं जीवसमुदाहारे भण्णमाणे छाणिओगद्दाराणि- परूवणा पमाणं सेडी अवहारो भागाभागं अप्पाबहुगं चेदि । तत्थ परूवणाए अणुक्कस्सजहण्णट्ठाणे जीवा अस्थि । एवं णदव्वं जाव उक्कस्सट्ठाण त्ति । पमाणमुच्चदे । तं जहा- अणुक्कस्सजहण्णए ठाणे एक्को वा दो वा उक्कस्सेण चत्तरि जीवा, खविदकम्मंसियाणं एक्कम्मि काले समाणपरिमाणाणं चदुण्णं चेव उवलंभादो । एदम्हादो उरिमेसु खवगसेडिपाओग्गेसु अणंतेसु हाणेसु सव्वेसु वि वट्टमाणकाले संग्वज्जो चेव, असंखजाणं खवगजीवाणं अणंताणताणं वा वट्टमाणकाले अभावादो । सेसेसु अणुक्कस्सट्टाणेसु जीवा एक्को वा तिणि वा एवं जाव उक्कस्सेण. असंखेज्जा पदरस्स असंखज्जदिमागमेत्ता। उक्कस्सए द्वाणे जीवा एक्को वा दो वा तिण्णि वा एवं जाव उक्कस्सेण आवलियाए असंखज्जदिभागमेता । कुदो ? गुणिदकम्मसियाणं जीवाणं समाणपरिणामाणमक्कम्हि समए आवलियाए असंखज्जदिभागमेताण चेवोवलंभादो। पमाणवरूवणा गदा।
सेडिगरूवणा दुविहा- अगंतरोवणिधा -परंपरोवणिधा चेदि । तत्थ अणंतरोवणिधा ण सक्कदे णादूं, जहण्णट्ठाणजीवहितो बिदियट्ठाणजीवा किं विसेसहीणा किं विसेसाहिया किं संखेज्जगुणा त्ति उवदेसाभावादो । परंपरोवणिधा वि ण सक्कदे णादूं, अणवगयअणंहैं। एकेन्द्रिय जीवोंके योग्य स्थानों में अनन्त जीव हैं। यहां प्रल जीवोंके योग्य स्थानोंके जीवसमुदाहारकी प्ररूपणामें छह अनुयोगद्वार है-प्ररूपणा, प्रमाण, श्रेणि, अवद्दार, भागाभाग और अल्पबहत्व। उनमेंसे प्ररूपणाकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट जघन्य स्थानमें जीव हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थान तक ले जाना चाहिये । प्रमाणका कथन करते हैं। यथा- अनुत्कृष्ट जघन्य स्थानमें एक, दो अथवा उत्कृष्ट रूपसे चार जीव होते हैं, क्योंकि, समान परिणामवाले क्षपितकौशिक जीव एक समयमें चार ही पाये जाते हैं। इससे ऊपरके क्षपकणि योग्य अनन्त स्थानों में से सभीमें वर्तमान कालमें संख्यात जीव ही उपलब्ध होते हैं, क्योंकि, वर्तमान काल में असंख्यात अथवा अनन्तानन्त क्षपक जीवोंका अभाव है। शेष अनुत्कृष्ट स्थानों में एक [दो] अथवा तीन इस प्रकार उत्कृष्ट रूपसे प्रतरके असंख्यातवें भाग प्रमाण असंख्यात जीव पाये जाते है। उत्कृष्ट स्थानमें एक, दो अथवा तीन आदि उत्कृष्ट रूपसे आवसीके असंख्यातवे भाग प्रमाण तक जीव पाये जाते हैं, क्योंकि, एक समयमें समान परिणामवाले गुणितकौशिक जीव आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र ही पाये जाते हैं । प्रमाणप्ररूपणा समाप्त हुई।
श्रेणिप्ररूपणा दो प्रकार की है- अनन्तरोपनिधा और परम्परोपनिधा। उनमें अनन्तरोपनिधा जानने के लिये शक्य नहीं है, क्योंकि, जघन्य स्थानवाले जीवोंसे द्वितीय स्थानवाले जीव क्या विशेष हीन हैं, क्या विशेष अधिक हैं, या क्या संख्यातगुणे है। ऐसा उपदेश नहीं पाया जाता । परम्परोपनिधा भी जानने के लिये
१ प्रतिषु ' वहमाणकाले सेविएण संखेज्जा इति पाठः।
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