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४, २, ४, ७७.} वेयणमहाहियारे वेयणदव्वविहाणे सामित्त [३११
एवं दंसणावरणीय-मोहणीय-अंतराइयाणं । णवीर विसेसो मोहणीयस्स खवणार अब्भुट्ठिदो चरिमसमयसकसाई' जादो । तस्स चरिमसमयसकसाइस्से मोहणीयवेयणा दव्वदो जहण्णा ॥ ७७॥
जधा णाणावरणीयस्स उत्तं तहा मोहणीयस्स वि वत्तव्वं । णवरि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण ऊणियं कम्मद्विदिं सुहुमणिगोदेसु अच्छिय मणुस्सेसु उप्पज्जिय पलिदोवमस्स असंखज्जदिमागमेत्तसम्मत्ताणताणुबंधिविसंजोयण-संजमासंजमकंडयाणि अट्ठ संजमकंडयाणि चदुक्खुत्तो कसायउवसामणं च बहुहि भवग्गहणेहि कादूण पुणो अवसाणे मणुस्सेसु उप्पज्जिय सत्तमासाहियअट्ठवासाणं उवरि सम्मत्तं संजमं च घेत्तूण संजमगुणसेडिणिज्जरं करिय खवगसेडिमभुट्ठिय चरिमसमयसुहुमसांपराइयो जादो । तस्स जहणिया मोहणीयदव्ववेयणा । दसणावरणीय-अंतराइयाणं पुण खीणकसायचरिमसमए जहण्णं जादमिदि णाणावरणभंगो चेव होदि ।
इसी प्रकार दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय कर्मकी जघन्य द्रव्यवेदना होती है । विशेष इतना है कि मोहनीयके क्षयमें उद्यत हुआ जीव सकषाय भावके अन्तिम समयको प्राप्त हुआ। उस अन्तिम समयवती सकषायीक द्रव्यकी अपेक्षा मोहनीयवेदना जघन्य होता है ।। ७७ ।।
जैसे ज्ञानावरणके विषयमै कथन किया है उसी प्रकार मोहनीयके विषयमें भी कहना चाहिये । विशेषता यह है कि पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन कर्मस्थिति तक सूक्ष्म निगोद जीवोंमें रहकर मनुष्यों में उत्पन्न हो पल्योपमके असंख्यातवे भाग मात्र सम्यक्त्व काण्डक, अनन्तानुबन्धिविसंयोजनकाण्डक व संयमासंयमकाण्डक, आठ संयमकाण्डक और चार वार कषायोपशामनाको बहुत भवग्रहणों द्वारा करके फिर अन्तमें मनुष्यों में उत्पन्न होकर सात मास अधिक आठ वर्षोंके ऊपर सम्यक्त्व और संयमको ग्रहण कर संयमगुणश्रेणिनिर्जरा करके क्षपकश्रेणि. पर आरूढ़ हो अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक हुआ। उसके मोहनीयद्रव्यवेदना जघन्य होती है !
परन्तु दर्शनावरण और अन्तरायका द्रव्य क्षीणकषायके अन्तिम समयमें जघन्य होता है, अत एव इनकी प्ररूपणा ज्ञानावरणके ही समान है।
२ आ-काप्रत्योः 'सकसायरस' इति पाठः।
१ प्रतिषु समयकसाई' इति पाठ.। ..वे. ४०.
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