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जयधवलासहितं
क सा य पा हु डं
भाग३
(द्विदिविहति )
भारतीय दिगम्बर जैन संघ
For Privale & Personal use only
www.linelibrary.org
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भा० दि० जैनसंघग्रन्थमालायाः प्रथमपुष्पस्य तृतीयो दलः
श्रीयतिवृषभाचायेरचितचूर्णिसूत्रसमन्वितम्
श्रीभगवद्गुणधराचार्यप्रणीतम् क सा य पा हु डं
तयोश्च श्रीवीरसेनाचार्यविरचिता जयधवला टीका
[ तृतीयोऽधिकारः द्विदिविहत्ती]
सम्पादक
फूलचन्द्र
सिद्धान्तशास्त्री सम्पादक महाबन्ध, सहसम्पादक
धवला
कैलाशचन्द्र सिद्धान्तरत्न, सिद्धान्तशास्त्री, न्यायतीर्थ प्रधान अध्यापक स्याद्वाद महाविद्यालय
काशी
प्रकाशक मंत्री साहित्य विभाग भा० दि० जैन संघ, चौरासी मथुरा
.. वि सं० २०२२]
[ई० सं० १९५५
वीरनिर्वाणान्द २४८१ मूल्य रूप्यकद्वादशकम्
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भा० दि० जैनसंघ-ग्रन्थमाला
इस ग्रन्थमाला का उद्देश्य प्राकृत संस्कृत आदि में निबद्ध दि० जैनागम, दर्शन,
साहित्य, पुराण आदिका यथा सम्भव हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशन करना
सञ्चालक
भा० दि. जैनसंघ
ग्रथाङ्क १-३
प्राप्तिस्थान
मैनेजर भा० दि० जैन संघ
चौरासी, मथुरा
मुद्रक-शिवनारायण उपाध्याय, नया संसार प्रेस, काशी।
स्थापनाब्द]
प्रति ८००
[वी०नि० सं० २४६८
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Sri Dig. Jain Sangha Granthmala No. 1-III
KASAYA-PĀHUDAM
(THIDI VIHATTI)
BY GUNABHADRACHARYA
WITH
CHURNI SUTRA OF YATIVRASHABHACHARYA
AND THE JAYADHAVALA COMMENTARY OF
VIRASENACHARYA THERE-UPON
EDITED BY Pandit Phulachandra Siddhantashastri,
EDITEOR MAH ABANDHA
JOINT EDITOR DHAVALA,
Pandit Kailashachandra, Siddhantashastri
Nyayatirtha, Siddhantaratna, Pradhanadhya pak, Syadvada Digambara Jain
Vidyalaya, Banaras.
PUBLISHED BY THE SECRETARY PUBLICATION DEPARTMENT, THE ALL-INDIA DIGMBAR JAIN SANGHA
CHAURASI, MATHURA,
VIRA-SAMVAT 2481)
VIKRAMA S, 2012
[ 1955 A. C.
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Sri Dig. Jain Sangha Granthamala
Foundation year-]
[-Vira Niravan Samvat 2468
Aim of the Series:
Publication of Digambara Jain Siddhanta, Darsana, Purana, Sahitya and other Works in Prakrit, Samskrit etc. Possibly with Hindi Commentary and Translation.
SRI BHARATAVARSIYA DIGAMBARA JAIN SANGHA NO. 1. VOL. III.
To be had from
800Copies,
DIRECTOR:
;
THE MANAGER
SRI DIG. JAIN SANGHA.
CHAURASI, MATHURA, U. P. (INDIA)
Printed by-S. N. UPADHYAYA,
AT THE NAYA SANSAR PRESS, BANARAS.
Price Rs. Twelve only
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प्रकाशककी ओर से आज सात वर्षके पश्चात् कसायपाहुड (जयधवला ) के तीसरे भाग (स्थिति विभक्ति) को प्रकाशित करते हुए हमें जहाँ हर्ष है वहाँ अपने पर खेद भी है। दूसरा भाग प्रकाशित करते समय ही उत्तम कागज दुष्प्राप्य था और प्रेस सम्बन्धी कठिनाइयाँ भी थीं। उसके पश्चात् आर्थिक कठिनाई भी उपस्थित होगई और प्रयत्न करनेपर भी छपाईका कार्य प्रारम्भ न हो सका।
इसी बीचमें संघके प्रधानमंत्री पं० राजेन्द्रकुमारजीने प्रधानमंत्रित्वके कार्य-भारसे मुक्ति ले ली और पं० जगमोहनलालजी शास्त्रीको प्रधानमंत्रित्वका भार सौंपा गया। आपके कार्यकालमें कुण्डलपुर (मध्यप्रदेश) में संघका वार्षिक अधिवेशन हुआ और उसका सभापतिपद डोंगरगढ़ (मध्यप्रदेश) के प्रसिद्ध उदारमना दानवीर सेठ भागचन्द्रजीने सुशोभित किया।
उस अवसर पर आपने कसायपाहुड ( जयधवला) के प्रकाशनको चालू रखनेके लिये ग्यारह हजार रुपयोंके दानकी उदार घोषणा की और यह भी आश्वासन दिया कि द्रव्यकी कमीके कारण यह सत्कार्य बन्द नहीं होगा। इससे सभीको हर्ष हुआ और कागज तथा प्रेसकी व्यवस्था होते ही तीसरा भाग प्रेसमें दे दिया गया जो एक वर्षके पश्चात् प्रकाशित हो रहा है। तथा चौथे भागके भी कुछ फार्म छप चुके हैं और पाँचवाँ भाग भी प्रेसमें दिया जानेवाला है। ___ यह सब दानवीर सेठ भागचन्द्रजीकी उदार दानशीलताका ही सुफल है । उन्होंने अपनी लक्ष्मीका विनियोग ऐसे सत्कार्यमें करके धनिकों और दानियों के सन्मुख एक आदर्श उपस्थित करनेके साथ साथ अक्षय पुण्यलाभ लिया है । क्योंकि शास्त्रकारोंने कहा है
ये यजन्ते श्रुतं भक्त्या ते यजन्तेऽञ्जसा जिनम् ।
न किञ्चिदन्तरं प्राहुराप्ता हि श्रुतदेवयोः ।। 'जो भक्तिपूर्वक श्रुतकी पूजा करते हैं वे यथार्थसे जिनेन्द्रदेवकी ही पूजा करते हैं, क्योंकि सर्वज्ञदेवने श्रुत और जिनदेवमें कुछ भी भेद नहीं बतलाया है।'
अतः कसायपाहुड जैसे ग्रन्थराजके प्रकाशनमें द्रव्यका विनियोग करके सेठ भागचन्द्रजीने प्रकारान्तरसे गजरथ महोत्सवको ही सम्पन्न किया है, क्योंकि जिनबिम्ब प्रतिष्ठासे जिनवाणी प्रतिष्ठा किसी भी अंशमें कम नहीं है।
हम सेठ भागचन्द्रजीको उनकी इस उदारताके लिये शतशः धन्यवाद देते हैं और आशा करते हैं कि अब यह सत्कार्य अवश्य ही निर्विघ्न पूर्ण होगा। ____ इस भागके अनुवादादि समस्त कार्य पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीने निष्पन्न किये हैं। मूल व अनुवाद आदिका संशोधन व पाठ मिलान आदि कायम मैंने भी पंडितजीके साथ सहयोग किया है। पण्डितजी आगेके खण्डोंका भी सब कार्य बड़ी तत्परतासे कर रहे हैं। उक्त दानमें भी उनकी प्रेरणा विशेषतः रही है। इसलिये वे भी धन्यवाद के पात्र हैं। ___ इस भागमें स्थितिविभक्ति नामक अधिकार आया है, जो अपूर्ण है, वह चौथे भागमें पूर्ण होगा। इसलिये उसके सम्बन्धमें सम्पादकीय वक्तव्य वगैरह चौथे अधिकार में दिया जायेगा।
काशीमें गङ्गातट पर स्थित स्व० बाबू छेदीलालजीके जिनमन्दिरके नीचेके भागमें जयधवला कार्यालय अपने जन्मकालसे ही स्थित है। और यह स्व० बाबू सा० के सुपुत्र धर्मप्रेमी बाबू गणेशदासजी और पौत्र या, सालिगरामजी तथा ऋषभचन्दजीके सौजन्य और धर्मप्रेमका परिचायक है, अतः मैं उन सज्जनोंका भी आभारी हूँ ।
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( ६ )
सहारनपुरके स्व० लाला जम्बूप्रसादजीके सुपुत्र रायसाहिब लाला प्रद्युम्नकुमारजीने अपने जिनमन्दिरजीकी श्री जयधवलाजीकी प्रति मिलानके लिये प्रदान की। श्री स्याद्वाद महाविद्यालय काशी
कलङ्क सरस्वती भवन के ग्रन्थों का उपयोग विद्यालयके व्यवस्थापकों के सौजन्य से जयधवला के सम्पादन हो सका है। तथा जैन सिद्धान्त भवन आराके पुस्तकाध्यक्ष श्री पं० नेमिचन्दजी ज्योतिषाचार्य के सौहार्द से भवनसे सिद्धान्त ग्रन्थोंकी प्रतियां आदि प्राप्त होती रहती हैं, अतः उक्त सभी सज्जनों का भी मैं आभारी हूँ ।
नया संसार प्रेसके व्यवस्थापक पं० शिवनारायणजी उपाध्याय तथा उनके कर्मचारी भी धन्यवादके पात्र हैं जिन्होंने इस ग्रंथके मुद्रण में पूर्ण सहयोग दिया ।
जयधवला कार्यालय
भदैनी, काशी
भाद्रपद कृष्णा १ वी० नि० सं० २४८१
}
कैलाशचन्द्र शास्त्री मंत्री साहित्य विभाग भा० दि० जैनसंघ
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कसाय पाहुड
दानवीर सेठ भागचन्द्रजी डोंगरगढ़
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चित्र परिचय देशी बोलीमें 'भाग्य' को 'भाग' कहते हैं और जिनका भाग सराहने योग्य होता है उन्हें भागचन्द्र कहते हैं । डोंगरगढ़निवासी दानवीर सेठ भागचन्द्रजी ऐसे ही व्यक्तियोंमेंसे एक हैं। यह इसलिए नहीं कि वे आधुनिक साजसज्जावाले सुन्दर मकानमें रहते हैं, उनके यहाँ निरंतर दस-पाँच नौकर लगे रहते हैं और वहाँकी परिस्थितिके अनुरूप वे साधनसम्पन्न हैं बल्कि इसलिये कि उन्हें पुराने और नये जो भी साधन मिले हैं, अपनी परिस्थितिके अनुरूप वे उनका उपयोग लोकसेवा व सांस्कृतिक और सामाजिक कार्योंमें करना जानते हैं। . लगभग दस वर्ष पूर्व सेठ सा० से हमारी प्रथम भेट हुई थी। उस समय वे मोटर अपघातसे पीड़ित हो अस्पतालमें पड़े हुए थे। सेठ सा०को छाती व सिरमें मुदी चोट आई थी, इसलिए उनके दाएँ-बाएँ कई परिचारक परिचर्या में लगे हुए थे, डाक्टर कुरसी डालकर सिरहाने बैठा हुआ था और दस-पाँच नाते रिश्तेदार व मित्र दौड़धूप कर रहे थे। किसीको मिलने नहीं दिया जाता था। बातचीत करना तो दूरकी बात थी। हमें केवल दूरसे देखनेभरका अवसर मिला था। हम चाहते मी नहीं थे कि ऐसी परिस्थितिमें उनसे किसी प्रकारकी बातचीत की जाय । किन्तु उनकी सतर्क अांखोंने हमें पहिचान लिया और डाक्टरके लाख मना करनेपर भी वे बोलनेसे अपने आपको न रोक सके। पासमें बुलाकर कहने लगे-'पण्डितजी आप आगये, अच्छा हुआ। हमारी सेवा स्वीकार किये बिना आप जा नहीं सकते। सिर्फ दो दिन रुकें। इतने में ही हम इस लायक हो जायँगे कि आपसे . चन्द मिनट बातचीत कर सकें और आपके मुखसे धर्मके दो शब्द सुन सकें।
सेठ सा० एक भावनाप्रधान उत्साही व्यापारकुशल व्यक्ति हैं। वे किसी विद्वान्, त्यागी या अतिथिको अपने घर आया हुआ देखकर खिल उठते हैं और सपत्नीक हर तरहसे उसका आदर-सत्कार करनेमें जुट जाते हैं । कभी कभी तो ऐसा भी देखा गया है कि वे इस आवभगतमें लगे रहनेके कारण उस दिन करने योग्य अन्य आवश्यक कार्योंको भी भूल जाते हैं। इस कारण उन्हें काफी क्षति भी उठानी पड़ती है।
सेठ सा० की मुख्य रुचिका विषय शिक्षा है। संस्कृत शिक्षा और छात्रवृत्ति पर गुप्त और प्रकाशरूपमें आप निरन्तर खर्च करते रहते हैं । रामटेक गुरुकुलके आप प्रधान आलम्बन हैं । एक मात्र इसीकी सेवाके उपलक्ष्यमें समाज द्वारा आप 'दानवीर' पदसे अलंकृत किये गये हैं। आप अपने गाँवमें एक हाइस्कूल खोलना चाहते थे। किन्तु हमारे यह कहने पर कि इस शिक्षापर खर्च करनेवाले बहुत हैं, आपको सांस्कृतिक और सामाजिक कार्योंकी ओर ही मुख्य रूपसे ध्यान देना चाहिये, सेठ सा० ने यह विचार त्याग दिया है।
इधर आपका ध्यान साहित्यिक सेवाकी ओर भी गया है। श्री ग० वर्णी जैन ग्रंथमालाको आप निरंतर सहायता करते रहते हैं। हम जब भी डोंगरगढ़ जाते हैं, खाली हाथ नहीं लौटते । यह भी नहीं कि हमें माँगना पड़ता हो । चलते समय हजार-पाँचसौ जो भी देना होता है, स्वेच्छासे उपस्थित कर देते हैं। यह पूछने पर कि इसे किस मदमें खर्च किया जाय, एक मात्र यही उत्तर मिलता है कि आपकी इच्छा। __ श्री भारतवर्षीय दिगम्बर जैनसंघ एक पुरानी संस्था है। मुख्यरूपसे इसके सञ्चालक विद्वान् हैं। अब तक इस संस्थाने साहित्यसेवा और धर्मप्रचारके क्षेत्रमें जो सेवा की है और कर रही है वह किसीसे छिपी हुई नहीं है। शास्त्रार्थके वे दिन हमें आज भी याद आते हैं जब आर्यसमाजका
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जोर था और जैनियोंको शास्त्रार्थके लिये सार्वजनिक रूपसे ललकारा जाता था। उस समय यही एक ऐसी संस्था थी जिसने आर्यसमाजियोंसे न केवल टक्कर ली, अपि तु अपने प्रचार और शास्त्रार्थके बलपर उनका सदाके लिये मुँह बन्द कर दिया और बल तोड़ दिया। ऐसी प्रसिद्ध संस्थाके वर्तमान स्थायी अध्यक्ष सेठ सा० ही हैं। आप इस पदका बड़ी सुन्दरतासे निर्वाह कर रहे हैं। इसके साथ आप श्री जयधवलाजीके प्रकाशनका भार भी सम्हाल रहे हैं। उसीके परिणामस्वरूप प्रस्तुत ग्रन्थका प्रकाशन हो रहा है। __ सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्रमें आपकी जो विशेषता है वह राजनैतिक और सार्वजनिक क्षेत्रमें भी देखनेको मिलती है । आप अपने क्षेत्रमें इतने अधिक लोकप्रिय हैं कि गरीब अमीर सभी आपकी सलाह लेने तथा उचित सहायता प्राप्त करनेके लिये आपके पास आते रहते हैं। कई वर्ष पूर्व आपकी इस लोकप्रियता और परोपकारी स्वभावके कारण आप खैरागढ़ राज्य और जनता द्वारा 'राज्यरत्न' जैसी सम्मानित उपाधिसे विभूषित किये गये थे। जनता और सरकारमें आज भी आपका वही सम्मान है। . . संयोगवश आपको जीवनसाथी भी आपके अनुरूप ही मिला है । बहिन नर्मदाबाई अपने ढंगकी एक ही महिलारत्न हैं। इनकी टक्करकी बहुत ही कम महिलाएँ समाजमें देखनेको मिलेंगी। आपके मुखपर प्रसन्नता और बोलीमें मिठास है। समय निकालकर धर्मशास्त्रके स्वाध्यायद्वारा आत्मकल्याणमें लगे रहना आपका दैनंदिनका कार्य है। सेठ सा० जो भी लोकोपकारी कार्य करते हैं उन सबमें आपका पूरा सहयोग रहता है। फिर भी आपकी रुचिका मुख्य विषय आयुर्वेदिक
औषधियोंका संग्रह कर और जो सम्भव हैं उन्हें स्वयं तैयार कर गरीब अमीर सबको समान भावसे वितरित करना है। चिकित्साशास्त्रका आपने सविधि अध्ययन किया है, अतएव आप स्वयं रोगियोंको देखने जाती हैं और आवश्यकता पड़ने पर दूसरे वैद्य वा डाक्टरकी भी सहायता लेती हैं। इनके इस कार्यमें सेठ सा० भी बड़ी रुचि रखते हैं और बहिन नर्मदाबाईको उत्साहित करते रहते हैं । तथा कभी कभी स्वयं भी इस कार्यमें जुट जाते हैं।
वर्तमान देश और समाजके लिये ऐसे सेवाभावी महानुभावोंकी बड़ी आवश्यकता है। हमारी मङ्गलकामना है कि यह दम्पति युगल चिरंजीवी हो और परोपकार जैसे महान् लोकोपकारी कार्यको करते हुए पुण्य और यशके भागी बने ।
फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री
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विषय-सूची स्थितिविभक्ति पु० १
पृष्ठ | विषय
کہ
اس
اس
१६-२५ १६-२० २०-२५ २५-४७ २५-३६ ३७-४७
४७-५३ ४७-५० ५१-५३
५-६
विषय मंगलाचरण
स्वामित्व स्थितिविभक्ति के दो भेद
उत्कृष्ट स्वामित्व स्थितिविभक्ति की सार्थकता
जघन्य स्वामित्व स्थितिविभक्तिके दो भेदों का
काल __ सयुक्तिक निर्देश
२-३
उत्कृष्ट काल मूल प्रकृतिस्थितिका विशेष
जघन्य काल ' ऊहापोह
मूलोच्चारणा पाठका निर्देश स्थितिविभक्तिका अर्थपद
अन्तरानुगम मूल प्रकृतिस्थितिमें विभक्ति
उत्कृष्ट अन्तरानुगम * पदकी सार्थकता
जघन्य अन्तरानुगम उत्तर प्रकृतिस्थितिमें विभक्ति
नाना जीवोंकी अपेक्षा पदकी सार्थकता
____ भङ्गविचय
उत्कृष्ट भङ्गविचय मूल प्रकृतिस्थितिविभक्तिके
जघन्य भङ्गविचय अनुयोगद्वार
भागाभागानुगम यही अनुयोगद्वार उत्तर प्रकृतिस्थिति
उत्कृष्ट भागाभागानुगम विभक्तिमें भी लागू होते हैं
जघन्य भागाभागानुगम मलप्रकृतिस्थितिविभक्ति ८-१६०
परिमाणानुगम २४ अनुयोगद्वार
८-६५ उत्कृष्ट परिमाणानुगम अद्धाच्छेद
-१४ जघन्य परिमाणानुगम उत्कृष्ट अद्धाच्छेद
ह-११ क्षेत्रानुगम जघन्य अद्धाच्छेद
१६-१४ उत्कृष्ट क्षेत्रानुगम सर्व-नोसर्वविभक्ति
जघन्य क्षेत्रानुगम उत्कृष्ट-अनुत्कृष्टवि०
स्पर्शनानुगम जघन्य-अजघन्यवि०
उत्कृष्ट स्पर्शनानुगम सर्वस्थिति और श्रद्धाच्छेदकी
जघन्य स्पर्शनानुगम उत्कृष्ट स्थितिमें अन्तर कथन १४-१५ कालानुगम उत्कृष्ट विभक्ति और उत्कृष्ट
उत्कृष्ट कालानुगम अद्धाच्छेदमें अन्तर कथन
जघन्य कालानुगम सर्वविभक्ति और उत्कृष्ट
अन्तरानुगम विभक्तिमें अन्तर कथन
उत्कृष्ट अन्तरानुगम सादि-अनादि ध्रुव-अध्रुववि० १५-१६ | जघन्य अन्तरानुगम
५४-५७ ५४-५५ ५६-५७ ५०-६० પ-પૂe ५६-६० ६१-६३ ६१-६२ ६२-६३ ६४-६७ ६४-६५ ६६-६७ ६८-८० ६८-७७ ७७-८० ८०-८६ ८०-२ ८३-८६ ८८-६२ ८८-६ १०-१२
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विषय
भावानुगम अल्पबहुत्वानुगम
उत्कृष्ट अल्पबहुत्वानुगम
जघन्य अल्पबहुत्वानुगम भुजगार के १३ अनुयोगद्वार
समुत्कीर्तनानुगम स्वामित्वानुगम
कालानुगम
अन्तरानुगम
६८ - १०८
१०८-१११
नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्ग विचय १११ - ११३
भागाभागानुगम
परिमाणानुगम
क्षेत्रानुगम
स्पर्शनानुगम
कालानुगम
अन्तरानुगम
भावानुगम
अल्पबहुत्वानुगम
पदविक्षेपके ३ अनुयोगद्वार समुत्कीर्तना
• उत्कृष्ट समुत्कीर्तना' जघन्य समुत्कीर्तना स्वामित्वानुगम
उत्कृष्ट स्वामित्वानुगम जघन्य स्वामित्वानुगम
अल्पबहुत्व
उत्कृष्ट अल्पबहुत्व
जघन्य अल्पबहुत्व वृद्धिके १३ अनुयोगद्वार समुत्कीर्तना
स्वामित्वानुगम
कालानुगम
अन्तरानुगम
नाना जीवों की अपेक्षा भङ्गविचय
भागाभागानुगम
परिमाणानुगम क्षेत्रानुगम
स्पर्शनानुगम
( १० )
पृष्ठ
६३
कालानुगम
६३-६५ अन्तरानुगम
६३-६४ भावानुगम ६४-६५ अल्पबहुत्वानुगम स्थानप्ररूपणा
६५- १२७
६५-६६ ६६-६७
१२= १२६
विषय
१२६-१३३ १३३-१३४
१३४ - १३५ १३४-१३५
उत्तरप्रकृतिस्थितिविभक्ति अर्थपद और उसकी व्याख्या स्थिति पदकी व्याख्या
|
११३ - ११४ १९४ - ११५ ११६-११७ ११७- १२० | अद्धाच्छेद
१२१-१२२ | उत्कृष्ट स्थिति श्रद्धाच्छेद १२३ - १२५ | मिध्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति
१२६ १२६-१२७
१२७ १३५ | सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति १२७- १२= | नौ नोकपायोंकी उत्कृष्ट स्थिति १२७-१२= चारों गतियों में सब कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति १४ मार्गणाओं में उच्चारणा के अनुसार उत्कृष्ट स्थिति
उत्तरप्रकृति पदकी व्याख्या
चौबीस अनुयोग द्वार अनुयोगद्वारोंका नाम निर्देश भुजगार आदि अनुयोगद्वारोंका २४
अनुयोगद्वारों में अन्तर्भाव
जघन्य स्थिति अद्धाच्छेद मिध्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और
32
""
""
१८५-१८६
१८६ - १६०
१६१-५४४
१६१-१६२
""
पृष्ठ
१७५-१८० १८० - १८५
१८५
बारह कषायोंकी जघन्य स्थिति २०३ - २०५
"
१३५ | सम्यक्त्व, लोभसंज्वलन, स्त्रीवे
१३६-१८६ और नपुंसकवेदकी जघन्य स्थिति २०५ - २०७ १३६-१३७ | क्रोधसंज्वलनकी जघन्य स्थिति
२०७-२०८
२०८-२०६
२०६
१३८ - १४९ मानसंज्वलनकी १४१-१४६ | मायासंज्वलनकी १४६ - २६० पुरुषवेदकी १६० - १६४ छह नोकषायों की १६४ - १६६ |गतियों में जघन्य स्थिति जानने १६६ - १६८ की सूचना
"
""
१६८ - १६६ १६६ - १७५
१४ मार्गणाओं में उच्चारणा के अनुसार जघन्य स्थिति
""
१६२
१६२
१६३-५४४
१६३
१६३
१६४-२१४
१६४ - २०२ १६४-१६५
१६५-१६६ १६७
१६७-१६८
१६६
१६६-२०२ २०२-२१४
२०६-२१०
२१०
२११
२११-२२५
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विषय
पृष्ठ
. ( ११ ) विषय उच्चारणाके अनुसार नोकषायोंके
और जुगुप्सा
२६६ बन्धक कालका अल्पबहुत्व २१३ | सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व
२७० इस विषयमें व्याख्यानाचार्यका
स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य और रति २७०-२७१ अभिप्राय २१३-२१४ चार गतियों में
२७२ सर्व-नोसर्वस्थितिविभक्ति २२६ | उच्चारणाके अनुसार काल
२७२-२६० उत्कृष्ट-अनुत्कृष्टस्थिति० २२६ जघन्य स्थितिका काल
२६०-३१५ जघन्थ-अजघन्यस्थिति
२२६-२२७ | मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिसादि-अनादि-ध्र व-अध्रुवस्थि० २२७-२२८ थ्यात्व, सोलह कषाय और एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व २२६-२६६
तीन वेद
२६०-२६१ उत्कृष्ट स्थितिका स्वामित्व २२६-२४१
छह नोकषाय
२६१-२६२ मिथ्यात्व
२२६-२३० जघन्य स्थिति और जघन्य अद्धासोलह कषाय
२३० च्छेद तथा उत्कृष्ट स्थिति और सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व २३१-२३२
___ उत्कृष्ट अद्धाच्छेदका विचार २६१-२६२ नौ नोकषाय
२३३-२३४ | उच्चारणाके अनुसार जघन्य १४ मार्गणाओंमें उच्चारणाके
स्थितिका काल
२६२-३१५ अनुसार स्वामित्व २३४-२४१ अन्तर
३१६-३४५ जघन्य स्थितिका स्वामित्व २४१-२६६ | उत्कृष्ट स्थितिका अन्तर
३१६-३३० मिथ्यात्व
२४१-२४२ मिथ्यात्व और १६ कषाय ३१६-३१७ सम्यक्त्व
नौ नोकषाय
३१७-३१८ सम्यग्मिथ्यात्व
२४४ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ३१८-३१६ अनन्तानुबन्धी चार
२४५-२४७ उच्चारणाके अनुसार उत्कृष्ट स्थितिमध्यकी आठ कषाय २४०-२४६ का अन्तर
३१६-३३० क्रोधसंज्वलन २४१-२५० जघन्य स्थितिका अन्तर
३३२-३४५ मान और माया संज्वलन
२५० मिथ्यात्व,सम्यक्त्व, बारह कषाय लोभ संज्वलन २५१ . और नौ नोकषाय
३३१ स्त्रीवेद
२५१-२५२ | सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुपुरुषवेद २५२-२५३ बन्धी चार
३३१-३३२ नपुंसकवेद
२५३ उच्चारणाके अनुसार जघन्य स्थितिछह नोकषाय
२५३-२५४ का अन्तर
३३२-३४५ नारकियोंमें जघन्य स्वामित्व २५४-२५८
नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय ३४५-३५३ शेष गतियोंमें ,, ,
२५८ अर्थपद
३४५-३४६ शेष मार्गणाओंमें उच्चारणाके अनु
उत्कृष्ट स्थितिका भङ्गविचय ३४६-३४६ - सार जघन्य स्वामित्व २५८-२६६ | मिथ्यात्वकी अपेक्षा भङ्गविचय ३४६-३४८ काल
२६६-३१५
शेष प्रकृतियोंकी अपेक्षा भङ्गविचय ३४८ उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका काल २६७-२६० | उच्चारणाके अनुसार भङ्गविचय ३४८-३४६ मिथ्यात्व
२६७-२६८ | जघन्य स्थितिका भङ्गविचय ३४६-३५३ सोलह कषाय २६८-२६६ | अर्थपद
३५० पुनसकवेद, अरति, शोक, भय
मिथ्यात्वकी अपेक्षा भङ्गविचय ३५०-३५१
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विषय
( १२ )
विषय शेष प्रकृतियों की अपेक्षा भङ्गविचय ३५१ मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, आठ कषाय उच्चारणाके अनुसार भङ्गविचय ३५१-३५३ | और छह नोकषाय ४१०-४११ भागाभागानुगम
३५४-३५७ सम्यग्मिध्यात्व और अनन्ताउत्कृष्ट भागाभागानुगम ३५४-३५५ नुबन्धी चार
४११ जघन्य भागाभागानुगम
३५६-३५७ तीन संज्वलन और पुरुषवेद ४१२-४१३ परिमाणानुगम ३५८-३६३ लोभसंज्वलन
४१३ उत्कृष्ट परिमाणानुगम ક-રૂપ स्त्रीवेद और नपुंसकवेद
४१३-४१४ जघन्य परिमाणानुगम
३६०-३६३ नरकगतिमें सब प्रकृतियोंके अन्तर क्षेत्रानुगम ३६४-३६७ __ का विचार
४१५ उत्कृष्ट क्षेत्रानुगम
३६४ उच्चारणाके अनुसार जघन्य अन्तर ४१५-४२४ जघन्य क्षेत्रानुगम ३६५-३६७ भावानुगम
४२४-४२५ स्पर्शनानुगम ३६८-३८७ उत्कृष्ट भावानुगम
४२४ उत्कृष्ट स्पर्शनानुगम
३६८-३७८ उपशान्तकषाय गुणस्थानमें सब अोषसे स्त्रीवेद और पुरुषवेदमें ।
प्रकृतियोंका औदयिक भाव स्पर्शनके मतभेदका निर्देश ३६८ कैसे बनता है इस शंकाका जघन्य स्पर्शनानुगम ३७६-३८७ परिहार
४२४ तिर्यञ्चोंमें कुछ प्रकृतियोंकी अपेक्षा
जघन्य भावानुगम
४२४-४२५ __ स्पर्शनमें पाठभेद
३८० सन्निकर्ष
४२५-५२४ नाना जीवों की अपेक्षा काल ३८७-४०६ उत्कृष्ट सन्निकर्ष
४२५-४६४ उत्कृष्ट काल
३८७-३६४ | मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका आल- . सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके
___ म्बन लेकर सन्निकर्ष विचार ४२५-४५४ उत्कृष्ट कालका स्वतन्त्र निर्देश ३८३-३८६ | सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिका आलउच्चारणाके अनुसार उत्कृष्ट काल । ३८६-३६४ म्बन लेकर सन्निकर्ष विचार ४५५-४५८ जघन्यकाल
३६४-४०६ सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, बारह कषाय
अवलम्बन लेकर सन्निकर्ष विचार ४५८-४५६ और तीन वेद
३६४-३६५ | सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्ता
___आलम्बन लेकर सन्निकर्ष विचार ४५६ नुबन्धी चार
३६५-३६६ / स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिका आलम्बन छह नोकषाय
३६६ | लेकर सन्निकर्ष विचार ४५६-४७२ उच्चारणाके अनुसार जघन्य काल ३६६ | शेष प्रकृतियोंकी अर्थात् हास्य, रति,
चूर्णिसूत्र, वप्पदेवकी उच्चारणा ___ और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिका और वीरसेन द्वारा लिखित
आलम्बन लेकर सन्निकर्ष विचार ४७२-४७५ - उच्चारणामें पाठभेदका निर्देश ३६८-४०६ | मतभेदका उल्लेख ।
४७४ नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर ४०६-४२४ | नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट स्थितिका आलउत्कृष्ट अन्तर
४०६-४१० म्बन लेकर सन्निकर्षका निर्देश ४७६-४८२ सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अन्तर ४०६-४०७ अरति, शोक, भय और जुगुप्साकी उच्चारणाके अनुसार उत्कृष्ट अन्तर ४०६-४१० उत्कृष्ट स्थितिका आलम्बन लेकर जघन्य अन्तर
४१०-४२४ । सन्निकर्षका निर्देश . ४८२-४८५
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विषय
पृष्ठ
४६४-५२४
उच्चारणाके अनुसार उत्कृष्ट सन्निकर्ष ४८५ - ४६४ जघन्य सन्निकर्ष मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका आलम्बन लेकर सन्निकर्ष विचार शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका लम्बन लेकर सन्निकर्ष विचार उच्चारणा के अनुसार जघन्य सन्निकर्ष ४६५ - ५२४
૪૫
५२४-५४४
५२४-५४२
५२४-५२५
પૂ૫
५२४ -५३० | चिरन्तन व्याख्यानाचार्य के द्वारा निर्दिष्ट अल्पबहुत्व ५.२५. दोनों अल्पबहुत्वों में मतभेदका उल्लेख ५२५-५२६ |तिर्यञ्चगतिमें उक्त दोनों अल्पबहुत्वों की अपेक्षा पुनः विचार ५३५ जीव अल्पबहुत्व उत्कृष्ट जीव अल्पबहुत्व जवन्य जीव अल्पबहुत्व
अल्पबहुत्व
स्थिति अल्पबहुत्व
उत्कृष्ट स्थिति अल्पबहुत्व नौ नोकषाय
सोलह कषाय सम्यग्मिथ्यात्व
सम्यक्त्व
चूणसूत्र और उच्चारणाका आलम्बन लेकर कालप्रधान और निषेकप्रधान स्थितिका उदाहरण सहित निर्देश मिथ्यात्व
( १३ )
४६४
विषय
नरकगतिमें सब प्रकृतियों के अल्पबहुत्व का विचार उच्चारणा के अनुसार उत्कृष्ट स्थिति
५२५-५२६
५२६
अल्पबहुत्व उच्चारणा के अनुसार जघन्य स्थिति
अल्पबहुत्व उच्चारणा के अनुसार बन्धक कालकी अपेक्षा संदृष्टि सहित सब
शुद्धि
पृष्ठ २२७ के मूलकी ७ वीं पंक्ति इस पृष्ठकी प्रथम पंक्ति है ।
8GHCB+
पृष्ठ
५२६-५२७
प्रकृतियोंके अल्पबहुत्वका निर्देश ५३१-५३२
५३२-५३३
५२८-५३०
५३० - ५४२
५.३३
५४२-५४४
५४२-५४३
५४३-५४४
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कसायपाहुडस्स ट्रि दि विह त्ती
तदियो अत्याहियारो
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(सिरि-जइवसहाइरियविरइय-चुरिणसुत्तसमरिणदं
सिरि-भगवंतगुणहरभडारावइ8
कसा य पाहु डं
तस्स
सिरि-बरिसेणाइरियविरइया टीका जयधवला
तत्थ हिदिविहत्ती णाम विदिओ अत्थाहियारो)
- -- (अंताइ-मज्झरहिया जाइ-जरा-मरणणंतपोरड्डा ।
संसारलया तमहं जेण च्छिण्णा जिणं वंदे ॥) जिन्होंने आदि, मध्य और अन्तसे रहित तथा जाति, जरा और मरणरूपी अनन्त पोरोंसे व्याप्त संसाररूपी बेलको छेद दिया है उन जिनदेवको मैं ( वीरसेन स्वामी) नमस्कार करता हूँ।
विशेषार्थ-यहां संसारको बेलकी उपमा दी है । बेलका आदि भी है, मध्य भी है और
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।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे. [हिदिविहत्ती ३ * द्विदिविहत्ती दुविहा, मूलपयडि हिदिविहत्ती चेव उत्तरपयडिद्विदिविहत्ती चेव ।
१. हिदिविहत्ति त्ति अहियारो किमहमागओ ? पुव्वं पयडिविहत्तीए जाणाविदअहावीसमोहकम्मसहावस्स सिस्सस्स तेसिं चेव अट्ठावीसमोहकम्माणं पवाहसरूवेण आदिविवज्जियाणमेगेगसमयपबद्धविसेसप्पणाए सादिसपज्जवसाणाणं जहण्णुकस्सहिदीओ चोदस-मग्गण-हाणाणि अस्सिदण परूवण हिदिविहत्ती आगया । सा दुविहा मूलपयडिहिदिविहत्तीउत्तरपयडिहिदिविहत्तीभेदेण । तिविहा किण्ण होदि ? ण, मूलुत्तरपयडिहिदिवदिरित्ताए अण्णिस्से पयडिहिदीए अभावादो । णोकम्मपयडिरूव-रसादीणं हिदीणं हिदीओ अत्थि, ताओ एत्थ किण्ण उच्चंति ? अन्त भी है तथा उसकी पोरें भी स्वल्प होती हैं, पर यह संसार ऐसी बेल है जो सन्तानक्रमसे अनादि कालसे चला आ रहा है और अनन्त काल तक चलता रहेगा, अतः उसके आदि, मध्य और अन्तका निर्णय नहीं किया जा सकता है। तथा उसमें अनन्त जन्म, जरा और मरण होते रहते हैं । ऐसी संसाररूपी बेलको जिन जिनेन्द्रदेवने छेद दिया उन्हें मैं ( वीरसेन स्वामी) नमस्कार करता हूँ। यहां प्रश्न होता है कि जिसके आदि, मध्य और अन्तका पता नहीं उसका छेद कैसे किया जा सकता है। समाधान यह है कि यद्यपि नाना जीवोंकी सन्तानकी अपेक्षा संसार आदि, मध्य और अन्तसे रहित है फिर भी कोई एक भव्य जीव उसका अन्त कर सकता है । इस प्रकार उक्त मंगल गाथामें वीरसेन स्वामीने दोनों प्रकारके संसारके स्वरूपका निर्देश कर दिया है।
* स्थितिविभक्ति दो प्रकारकी है-मूलप्रकृति स्थितिविभक्ति और उत्तरप्रकृति स्थितिविभक्ति ।
६१ शंका-स्थितिविभक्ति यह अधिकार किसलिये आया है ?
समाधान-पहले जिस शिष्यको प्रकृतिविभक्ति नामक अधिकारके द्वारा मोहनीयकी अट्ठाईस प्रकृतियोंके स्वभावका ज्ञान करा दिया है उसे प्रवाहकी अपेक्षा आदिरहित और प्रत्येक समयमें बंधनेवाले एक एक समयप्रबद्धविशेषकी अपेक्षा सादि तथा सान्त उन्हीं मोहनीयकी अट्ठाईस कर्मप्रकृतियोंकी चौदह मार्गणाओंके आश्रयसे जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिका कथन करनेके लिये यह स्थितिविभक्ति नामक अधिकार आया है ।
- वह स्थितिविभक्ति मूलप्रकृतिस्थितिविभक्ति और उत्तरप्रकृतिस्थितिविभक्तिके भेदसे दो प्रकारकी है।
शंका-वह तीन प्रकारकी क्यों नहीं होती ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, मूलप्रकृतिस्थितिविभक्ति और उत्तरप्रकृतिस्थितिविभक्तिको छोड़कर प्रकृतियोंकी अन्य स्थिति नहीं पाई जाती है, अतः स्थितिविभक्ति तीन प्रकारकी नहीं होती।
शंका-नोकर्म प्रकृतियों के रूप और रसादिककी स्थितियाँ पाई जाती हैं, उनका यहाँ
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गा० २२ ]
द्विदिविहती भेदणिद्देसो
ण, कम्मपयडिद्विदिपरूवणाए पंक्कताए णोकम्मडिदिपरूवणाए असंभवादो |
$ २. का मूलपयडिीि णाम ? अट्ठावीसपयडीणं पयडिसमाणत्तणेण एयत्तमुवगयाणं द्विदिविसेसा मूलपयडिहिदी । कथं पुधभूद्विदीणमेयतं ? सरिसत्तणेण पयडीए । ण च पयडिसरिसत्तमसिद्धं, उप्पण्णमोहपयडीए पढमसमय पहुड अविणासादो मोहपयडीसरूवेणेव अवहाणुवलंभादो । मोहपयडिद्विदीए सामण्णाए आदिविवज्जिया कथं परूवणा कीरदे ? ण, पवाहसरूवेण अणादिमोहपयडिडिदि मोत्तूण एगसमयम्म दुकमोहा से सपयडीणं मोहपयडित्तणेण एयत्तमुवगयाणं हिदीए परूवणा कीरदित्ति दोसाभावादो । एवं संते मूलपयडिडिदि ति कथं जुज्जदे ? ण, सव्वेसिं समयपवद्धाणं पयडिसमूहस्स मूलपयडित्तन्भुवगमाभावादो का पुण
कथन क्यों नहीं किया ?
समाधान- नहीं, क्योंकि कर्मप्रकृतियोंकी स्थितिकी प्ररूपणा करते समय नोकर्मकी स्थितिकी प्ररूपणा करना असंभव है, अतः यहाँ नोकर्मप्रकृतियोंकी स्थितियोंका ग्रहण नहीं किया है ।
१२. शंका - मूलप्रकृतिस्थिति किसे कहते हैं ?
समाधान - प्रकृति सामान्यकी अपेक्षा एकत्वको प्राप्त हुईं अट्ठाईस प्रकृतियोंकी जो स्थिति - विशेष है उसे मूलप्रकृतिस्थिति कहते हैं ।
शंका- जब कि सब प्रकृतियों की स्थितियाँ अलग अलग हैं, तब उनमें एकत्व कैसे हो सकता है ?
समाधान - प्रकृतिसामान्यकी अपेक्षा सभी प्रकृतियाँ एक हैं, अतः उनकी स्थितियों में एकत्व मानने में कोई बाधा नहीं आती ।
यदि कहा जाय कि प्रकृतियोंकी सदृशता असिद्ध है सो भी बात नहीं है, क्योंकि मोहप्रकृतिके उत्पन्न होने के पहले समय से लेकर जब तक उसका विनाश नहीं होता तब तक उसका मोहप्रकृतिरूपसे ही अवस्थान पाया जाता है, इसलिये उनमें सदृशता माननेमें कोई बाधा नहीं आती है ।
शंका- मोहकर्म की सामान्य स्थिति आदिरहित अर्थात् अनादि है, अतः उसकी प्ररूपण कैसे की जा सकती है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि प्रवाहरूपसे अनादिकालीन मोहकर्मकी स्थितिको छोड़कर एक समयमें जो मोहनीय कर्मकी समस्त प्रकृतियां बन्धको प्राप्त होती हैं जो कि मोहप्रकृति सामान्यकी अपेक्षा एक हैं, उनकी स्थितिकी यहाँ प्ररूपणा की गई है, इसलिये कोई दोष नहीं है । . शंका- यदि ऐसा है तो मूलप्रकृतिस्थिति कैसे बन सकती है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि संपूर्ण समयप्रबद्धों का जो प्रकृतिसमूह है उसे यहां मूलप्रकृति - रूपसे स्वीकार नहीं किया है ।
शंका- तो फिर यहां मूलप्रकृति पदसे किसका ग्रहण किया है ?
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [द्विदिविहत्ती ३ एत्थ मूलपयडी ? एगसमयम्मि बद्धासेसमोहकम्मक्खंधाणं पयडिसमूहो मूलपयडी णाम । तिस्से हिदी मूलपयडिहिदी । पुध पुध अठ्ठावीसमोहपयडीणं हिदीओ उत्तरपयडिहिदी णाम । एवं हिदिविहत्ती दुविहा चेव होदि ।
३. उत्तरपयडिहिदिविहत्तीए परूविदाए मूलपयडिहिदिविहत्ती णियमेणेव जाणिजदि तेण उत्तरपयडिहिदिविहत्ती चेव वत्तव्वा ण मूलपयडिहिदिविहत्ती, तत्थ फलाभावादो। ण, दवष्टियपज्जवहियणयाणुग्गहटुं तप्परूवणादो । एत्थतण वे वि 'च' सदा समुच्चए दहव्वा । एगेणेव 'च' सद्देण समुच्चयहावगमादो विदिय 'च' सदो अणत्थओ ति णावणेदु सकिज्जदे । अप्पिदेगणयं पडुच्च परूवणाए कीरमाणोए मूलपयडिहिदिविहत्ती उत्तरपयडिहिदिविहत्ती च उत्तरपयडिहिदिविहत्ती मूलपयडिडिदिविहत्ती चेदि एग'च'सद्दुच्चारणं मोत्तूण विदिय (च) सदुच्चारणाए अभावेण पुणरुत्तदोसाभावादो । 'एव'सदो इदिसहत्थे दहव्वो; अवहारणत्थस्स एत्थासंभवादो।
समाधान-एक समयमें बंधे हुए संपूर्ण मोहनीय कर्मके स्कन्धोंके प्रकृतिसमूहका यहां मूलप्रकृतिरूपसे ग्रहण किया है। उस मूलप्रकृतिकी स्थितिको मूल प्रकृतिस्थिति कहते हैं। तथा मोहनीयकी पृथक पृथक अट्ठाईस प्रकृतियोंकी स्थितियोंको उत्तरप्रकृतिस्थिति कहते हैं। इस प्रकार स्थितिविभक्ति दो प्रकारकी ही होती है ।
३. शंका–उत्तर प्रकृतिस्थितिविभक्तिका कथन करनेपर मूलप्रकृतिस्थितिविभक्तिका नियमसे ज्ञान हो जाता है, अतः उत्तरप्रकृतिस्थितिविभक्तिका ही कथन करना चाहिये, मूलप्रकृतिस्थितिविभक्तिका नहीं, क्योंकि मूलप्रकृतिस्थितिविभक्तिका कथन करनेमें कोई फल नहीं है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनयका अर्थात् द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयवाले शिष्योंका अनुग्रह करनेके लिये दोनों स्थितियोंका कथन किया है।
उपर्युक्त सूत्रमें आये हुए दोनों ही 'च' शब्द समुच्चयरूप अर्थमें जानना चाहिये । एक ही 'च' शब्दसे समुच्चयरूप अर्थका ज्ञान हो जाता है, अतः दूसरा 'च' शब्द अनर्थक है इसलिये उसे निकाला नहीं जा सकता है क्योंकि अर्पित एक नयकी अपेक्षा कथन करनेपर द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा 'मूलपयडिहिदिविहत्ती उत्तरपयडिहिदिविहत्ती च' इस प्रकार और पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षा 'उत्तरपयडिहिदिविहत्ती मूलपयडिहिदिविहत्ती च' इस प्रकार प्राप्त होता है अतः एक 'च' शब्द के उच्चारणके सिवाय दूसरे 'च' शब्दका उच्चारण नहीं रहता, अतः पुनरुक्त दोष नहीं प्राप्त होता है। सूत्र में जो 'एव' शब्द आया है वह 'इति' शब्दके अर्थमें जानना चाहिये, क्योंकि यहां उसका अवधारणरूप अथें नहीं हो सकता है।
विशेषार्थ-यहां स्थितिविभक्तिके दो भेद किये गये हैं-मूलप्रकृतिस्थितिविभक्ति और उत्तरप्रकृतिस्थितिविभक्ति । 'मूलप्रकृति' पदसे अवान्तर भेदोंकी गणना न कर सामान्य मोहनीय कर्मका ग्रहण किया है और 'उत्तरप्रकृति' पदसे मोहनीयके प्रत्येक भेदका पृथक् पृथक्
.
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गा २२.]
हिदिविहती सरूवणिदेसो
* तत्थ पदं एगा हिंदी हिदिविहत्ती, अरोगाओ हिदीओ हिदिविहत्ती |
तं जहा,
४. तत्थ दोहं पि हिदिविहत्तीणं पुव्युत्ताणमेदमपदं उच्चदे | एगा हिंदी हिदिविहत्ती । विहत्ती भेदो पुषभावो ति एयहो । हिदीए वित्ती द्विदिविहत्ती जेणेवं द्विदिविहत्ती सदो हिदिभेदपरूवओ, तेण मूलपयडिट्ठिदीए विहत्तित्तं णत्थि, एक्किस्से भेदाभावादो । भावे वाण सा मूलपयडिद्विदी, एकिस्से पडीए हिदिबहुत्तविरोहादो त्ति उत्ते एगा हिंदी हिदिविहत्ति त्ति परिहारो vafaat | aaiकिस्से द्विदीए णाणतं ? ण, एकिस्से वि हिदीए पदेसभेदेण पयडिभेदेण च णाणतुवलंभादो । ण च पथडिपदेसभेदो हिदिभेदस्स कारणं ण होदि; भिण्ण
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ग्रहण किया है । यद्यपि प्रवाह रूपसे मोहनीय कर्म अनादि है पर यहां प्रत्येक समय में जो समयबद्ध प्राप्त होता है उसकी स्थिति ली गई है इसलिए स्थितिविभक्तिकी अवधि बन जाती है । उसमें जो प्रत्येक भेदको विवक्षा किये बिना सामान्य रूपसे मोहनीयको स्थिति प्राप्त होती है वह मूलप्रकृतिस्थितिविभक्ति है और प्रत्येक भेदकी जो स्थिति प्राप्त होती है वह उत्तरप्रकृतिस्थितिविभक्ति है । यहां सामान्य और विशेषरूपसे मोहनीयकी स्थितिका ही ग्रहण किया है इसलिए वह दो प्रकार की बतलाई है । नोकर्मका प्रकरण न होनेसे वहां उसकी स्थितिका ग्रहण नहीं किया है । सूत्रमें दो 'च' शब्द आये हैं सो वे दोनों ही समुच्चयार्थं जानने चाहिए । प्रथम 'च' शब्द द्वारा मुख्यरूपसे मूलप्रकृति स्थितिविभक्तिका और गौरूप से उत्तरप्रकृतिस्थितिविभक्तिका समुच्चय होता है । तथा दूसरे 'च' शब्द द्वारा मुख्यरूपसे उत्तरप्रकृतिस्थितिविभक्तिका और गौणरूपसे मूलप्रकृतिस्थितिविभक्तिका समुच्चय होता है । शेष विवेचन स्पष्ट ही है ।
* अब उन दोनों स्थितिविभक्तियोंके अर्थपदको कहते हैं-- एक स्थिति स्थितिविभक्ति है और अनेक स्थितियां स्थितिविभक्ति हैं ।
४. अब पूर्वोक्त दोनों ही स्थितिविभक्तियोंके इस अर्थपदका खुलासा करते हैं । जो इस प्रकार है - एक स्थिति स्थितिविभक्ति है । विभक्ति, भेद और पृथग्भाव ये तीनों एकार्थवाची शब्द हैं । और स्थितिकी विभक्ति स्थितिविभक्ति कही जाती है । यतः स्थितिविभक्ति शब्द स्थितिभेदका कथन करता है, और इसलिये मूलप्रकृति की स्थितिमें विभक्तियां नहीं बनती है, क्योंकि एक में भेद नहीं हो सकता । यदि एकमें भेद माना जाय तो वह मूलप्रकृतिस्थिति नहीं ठहरती, क्योंकि एक प्रकृतिकी अनेक स्थितियां माननेमें विरोध आता है इसे प्रकार आक्षेप करने पर 'एगा हिदी द्विदिविहत्ती' इस प्रकार कहकर उस आक्षेपका परिहार किया है ।
शंका- एक स्थितिमें नानात्व कैसे हो सकता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि एक स्थिति में भी प्रदेशभेद और प्रकृतिभेदकी अपेक्षा नानात्व पाया जाता है ।
यदि कहा जाय कि प्रकृतिभेद और प्रदेशभेद स्थितिभेदका कारण नहीं है' सो भी बात नहीं है, क्योंकि भिन्न भिन्न प्रकृति और प्रदेशों में पाई जानेवाली स्थितिको एक माननेमें विरोध
१ चे
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ पयडिपदेसहिदहिदीणमेयत्तविरोहादो । ण च मूलपयडिहिदीए पयडिभेदो असिद्धो, सगंतोलीणसयलुत्तरपयडि भेदाए तिस्से तदविरोहादो विवक्खियमोह० मूलपयडिहिदीए सेसणाणावरणादिमूलपयडिहिदीहिंतो भेदोववत्तीदो वा पयदत्थसमत्थणा कायव्वा ।
५. अधवा ण एत्थ मूलपयडिहिदीए एयत्तमत्थि, जहण्णहिदिप्पहुडि जाव उक्कस्सहिदि त्ति सव्वासि हिदीणं मूलपयडि हिदि त्ति गहणादो । एवं घेप्पदि त्ति कथं णव्वदे ? उवरि उक्कस्साणुक्कस्संजहण्णाजहण्णहिदीणं सामित्तपरूवणादो मूलपयडिहिदिहाणपरूवणादो च । तेण पयडि सरूवेण एगा हिदी सगहिदीभेदं पडुच्च हिदिविहत्ती होदि त्ति सिद्ध । जदि मूलपयडीए द्विदिविहत्ती अस्थि तो उत्तरपयडिहिदीणं णत्थि विहत्ती मूलुत्तरपयडीणं परोप्परविरोहादी त्ति वुत्ते अणेगाओ हिदीओ हिदिविहत्ती इदि परिहारो वुत्तो । जदि एकिस्से पयडीए हिदीणं सगहिदिविसेसं पडुच्च भेदो होदि तो उत्तरपयडिहिदीणं सगपरपयडीहिदिभेदं पडुच्च हिदिभेदो किण्ण जायदे विरोहादो। आता है । यदि कहा जाय कि मूलप्रकृतिस्थितिमें प्रकृतिभेद असिद्ध है, सो भी बात नहीं है,क्योंकि मूलप्रकृतिस्थितिके भीतर सब उत्तर प्रकृतियोंके भेद गर्भित हैं, अतः उसमें प्रकृतिभेदके माननेमें कोई विरोध नहीं आता । अथवा विवक्षित मोहनीयकी मलप्रकृतिस्थितिका शेष ज्ञानावरणादि मलप्रकृतिस्थितियोंसे भेद पाया जाता है, इसलिये इस दृष्टि से भी प्रकृत अर्थका समर्थन कर लेना चाहिये।
६५. अथवा प्रकृतमें मूलप्रकृतिस्थितिका एकत्व नहीं लिया है, क्योंकि जघन्य स्थितिसे लेकर उत्कृष्ट स्थिति तक सभी स्थितियोंका 'मलप्रकृतिस्थिति' पदके द्वारा ग्रहण किया है इसलिये मलप्रकृतिके साथ विभक्ति शब्दका प्रयोग बन जाता है।
शंका-मूलप्रकृतिस्थितिविभक्ति पदके द्वारा जघन्य स्थितिसे लेकर उत्कृष्ट स्थिति तक सभी स्थितियोंका ग्रहण किया है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-आगे उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य स्थितियोंके स्वामीका कथन किया है और मूलप्रकृतिके स्थितिस्थानोंका भी कथन किया है, इससे जाना जाता है कि यहां मूलप्रकृतिस्थितिविभक्ति पदके द्वारा जघन्य स्थितिसे लेकर उत्कृष्ट स्थिति तक सभी स्थितियोंका ग्रहण किया है।
इसलिये प्रकृतिरूपसे एक स्थिति अपने स्थितिभेदोंकी अपेक्षा स्थितिविभक्ति होती है यह सिद्ध होता है।
__ यदि मूलप्रकृतिमें स्थितिविभक्ति है तो उत्तर प्रकृतियोंकी स्थितियोंमें भेद नहीं रह सकता है क्योंकि मूलप्रकृति और उत्तरप्रकृतियोंमें परस्पर विरोध है इस प्रकारका आक्षेप करने पर 'अणेगाओ हिदिओ हिदिविहत्ती' इस प्रकार परिहार कहा है।
यदि एक प्रकृतिकी स्थितियोंमें अपने स्थितिविशेषकी अपेक्षा भेद हो सकता है तो उत्तर प्रकृतियोंकी स्थितियोंमें अपने स्थितिभेदकी अपेक्षा और अपनेसे भिन्न अन्य प्रकृतियोंकी
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गा० २२ ]
हिदिविहत्तीए अणिोगद्दाराणि तत्थ अणियोगद्दाराणि ।
६ तत्थ मूलपयडिहिदिविहत्तीए अणियोगद्दाराणि वत्तव्वाणि अण्णहा परूवणाणुववत्तीदो । किमणिओगद्दारं णाम ? अहियारो भण्णमाणत्थस्स अवगमोवाओ ।
* सव्वविहत्ती पोसव्वविहत्ती उक्कस्सविहत्ती अणुक्कस्सविहत्ती जहएणविहत्ती अजहण्णविहत्ती सादियविहत्ती प्रणादियविहत्ती धुवविहत्ती अधुवविहत्ती एयजीवेण सामित्तं कालो अंतरं गाणाजीवेहि भंगस्थितियोंके भेदकी अपेक्षा स्थितिभेद क्यों नही हो सकता है अर्थात् हो सकता है क्योंकि एक प्रकृतिमें अपने स्थितिविशेषकी अपेक्षा भेद मानते हुए उत्तर प्रकृतियोंकी स्थितियोंमें अपने स्थिति भेदकी अपेक्षा और अपनेसे भिन्न अन्य प्रकृतियोंकी स्थितियोंके भेदकी अपेक्षा यदि स्थिति भेद न माना जाय तो विरोध आता है।
विशेषार्थ प्रश्न यह है कि एक स्थितिको स्थितिविभक्ति पदके द्वारा कैसे सम्बोधित कर सकते हैं, क्योंकि जो स्थिति स्वरूपतः एक है उसमें भेदकी कल्पना नहीं की जा सकती है। इसका कई प्रकारसे समाधान किया है। प्रथम तो यह बतलाया है कि स्थिति एक हो कर भी उसमें प्रकृति और प्रदेशोंकी अपेक्षा भेद सम्भव है, इसलिए एक स्थितिको भी स्थितिविभक्ति कहा है। फिर भी यह समाधान स्थितिकी मुख्यतासे नहीं हुआ इसलिए अन्य प्रकारसे इस प्रश्नका समाधान किया गया है । इसमें बतलाया है कि कर्म आठ हैं और उनमेंसे यहां मोहनीयकी मूलप्रकृतिस्थिति विवक्षित है। यतः वह अन्य ज्ञानावरणादिकी मूलप्रकृतिस्थितिसे भिन्न है इसलिए यहां मूलप्रकृतिस्थितिके साथ विभक्ति पद जोड़ा गया है । इस प्रकार यह शंकाका उत्तर तो हो जाता है पर इससे एक स्थितिका स्वरूपगत भेद समझमें नहीं आता । इसलिए आगे इसे प्रकट करनेके लिए चौथे प्रकारसे समाधान किया गया है। इसमें बतलाया है कि जब मूलप्रकृतिस्थितिमें उत्कृष्ट आदि भेद सम्भव हैं तब उसके साथ विभक्ति पर जोड़नेमें क्या बाधा है। इस प्रकार एक स्थिति स्थितिविभक्ति है और अनेक स्थिति स्थितिविभक्ति है यह सिद्ध होता है।
ॐ अब मूलप्रकृतिस्थितिविभक्तिके विषयमें अनुयोगद्वार कहते हैं ।
६६. मूलप्रकृतिस्थितिविभक्तिके विषयमें अनुयोगद्वार कहना चाहिये, अन्यथा उसकी प्ररूपणा नहीं हो सकती है।
शंका-अनुयोगद्वार किसे कहते हैं ?
समाधान-कहे जानेवाले अर्थके जाननेके उपायभूत अधिकारको अनुयोगद्वार कहते हैं।
* यथा-सर्वविभक्ति, नोसर्वविभक्ति, उत्कृष्टविभक्ति, अनुत्कृष्टविभक्ति, जघन्यविभक्ति, अजघन्यविभक्ति, सादिविभक्ति, अनादिविभक्ति, ध्रु वविभक्ति, अध्रु वविभक्ति, एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल, और अन्तर तथा नाना जीवों
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ विचो परिमाणं खेत्त पोसणं कालो अंतरं सरिणयासो अप्पाबहुअं च भुजगारो पदणिक्खेवो वढी च । ___७. एदाणि मूलपयडिहिदिविहत्तीए अणियोगद्दाराणि । एत्थ अंतिल्लो 'च'सद्दो उत्तसमुच्चयहो। अप्पाबहुअअंते हिदो ‘च सद्दो अवुत्तसमुच्चयहो । तेण एदेसु अणियोगद्दारेसु अवुत्तस्स अद्धाछेदाणिओगद्दारस्स भागाभागभावाणिओगद्दाराणं च गहणं कदं । एत्थ मूलपयडि हिदिविहत्तीए जदि वि सण्णियासो ण संभवइ तो वि उत्तो; उत्तरपयडीसु तस्स संभवदंसणादो । एत्थ मोत्त ण तत्थेव किण्ण वुच्चदे ? सच्चं, तत्थ चेव वुत्तो ण एत्य । जदि एवं, तो किण्णावणिज्जदे ? ण, मूलुत्तरपयडिहिदिविहत्तीणं साहारणभावेण परूविदाणिओगद्दारेसु हिदसण्णियासस्स अवणयणुवायाभावादो।
8 एदाणि चेव उत्तरपयडिहिदिविहत्तीए कादवाणि ।
६८. सुगममेदं;अणूणाहियाणमेदेसि तत्थ संभवादो ? संपहि एदेसिमणियोगदारेहि मूलपयडिहिदिविहत्ती वुच्चदे । तं जहा,अद्धाच्छेदो दुविहो-जहण्णओ उक्स्सओ की अपेक्षा भंगविचय, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, सन्निकर्ष और अल्पबहुत्व तथा भुजगार, पदनिक्षेप और वृद्धि ।
७. ये मूलप्रकृति स्थिति विभक्तिके विषयमें अनुयोगद्वार होते हैं। इस सूत्रमें जो अन्तमें 'च' शब्द आया है वह उक्त अर्थ के समुच्चयके लिए आया है। तथा अल्पबहुत्व पदके अन्तमें जो 'च' शब्द स्थित है वह अनुक्त अर्थके समुच्चयके लिए आया है, इसलिए इस 'च' शब्दके द्वारा इन उपर्युक्त अनुयोगद्वारोंमें अनुक्त अद्धाच्छेद अनुयोगद्वार तथा भागाभाग और भाव अनुयोग द्वारोंका ग्रहण किया गया है।
यद्यपि यहाँ मूलप्रकृतिस्थितिविभक्तिमें सन्निकर्ष अनुयोगद्वार सम्भव नहीं है तो भी वह यहाँ पर कहा गया है, क्योंकि उत्तर प्रकृतियोंमें उसकी सम्भावना देखी जाती है।
शंका-सन्निकर्ष अनुयोगद्वारको यहाँ न कह कर वहीं उत्तर प्रकृतियों के प्रकरणमें क्यों नहीं कहा है ?
समाधान यह ठीक है, क्योंकि सन्निकर्ष अनुयोगद्वारको वहीं उत्तर प्रकृतियों के प्रकरणमें ही कहा है यहाँ मूल प्रकृति के प्रकरणमें नहीं।
शंका-यदि ऐसा है तो यहाँ से उसे क्यों नहीं अलग कर दिया जाता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि मूलप्रकृतिस्थितिविभक्ति और उत्तरप्रकृतिस्थितिविभक्ति इन दोनोंके विषयमें साधारणरूपसे ये अनुयोगद्वार कहे गये हैं, इसलिये इनमें स्थित सन्निकर्षको अलग करनेका कोई कारण नहीं है।
* उत्तरप्रकृतिस्थितिविभक्तिके विषयमें ये ही अनुयोगद्वार कहने चाहिये ।
८. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि न्यूनता और अधिकतासे रहित ये सभी अनुयोगद्वार उत्तर प्रकृतिस्थितिविभक्तिके विषयमें संभव हैं।
अब इन अनुयोगद्वारोंके द्वारा मूलप्रकृतिस्थितिविभक्तिका कथन करते हैं । यथा-जघन्य और उत्कृष्टके भेदसे अद्धाच्छेद दो प्रकारका है।
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गा० २२ ]
हिदिविहत्तीए श्रद्धाछेदो च। बहुसु अणिओगद्दारेसु संतेसु अद्धाछेदो चेव पढमं किमटै वुच्चदे ? ण, अद्धाछेदे अणवगए संते उवरिमअहियारपरूविज्जमाणत्थाणमवगमावणुवत्तीदो ।
६. उक्कस्से पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोहणीयउक्कस्सहिदिविहत्ती केत्तिया ? सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीओ पडि वुण्णाओ । कुदो ? अकम्मसरूवेण हिदा कम्मइयवग्गणक्वंधा मिच्छत्तादिपच्चएण मिच्छत्तकम्मसरूवेण परिणदसमए चेव जीवेण सह बंधमागदा सत्तवाससहस्साबाधं मोत्तण सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीमु जहाकमेण णिसित्ता सत्तरिसागरोवमकोडाकोडिमेत्तकालं कम्मभावेणच्छिय पुणो तेसिमकम्मभावेण गमणुवलंभादो । एवं सव्वणिरय-तिरिक्खपंचिंदियतिरिक्वतिय-मणुस्सतिय-देव-भवणादि जाव सहस्सार-पंचिंदिय-पंचिंपज्जातस-तसपज्ज-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि-ओरालिय-वेउनिय-तिण्णिवेद-चत्तारिकसाय-मदिसुदअण्णाण-विहंग -असंजद०-चक्खु०-अचक्खु०-पंचलेस्सा०-भवसिद्धिअब्भव-मिच्छाइहि०-सण्णि-आहारि त्ति ।
शंका-बहुतसे अनुयोगद्वारोंके रहते हुए सबसे पहले अद्धाच्छेदका ही कथन क्यों किया ?
समाधान-नहीं, क्योंकि अद्धाच्छेदके अज्ञात रहनेपर आगेके अधिकारोंके द्वारा कहे जानेवाले अर्थका ज्ञान नहीं हो सकता है। अतः सबसे पहले श्रद्धाच्छेदका कथन किया जा रहा है।
६. उत्कृष्ट अद्धाच्छेदका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-अोघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति कितनी है ? पूरी सत्तर कोटाकोडी सागर है; क्योंकि जो कार्मणवर्गणाओंके स्कन्ध अकर्मरूपसे स्थित हैं वे मिथ्यात्व आदिके निमित्तसे मिथ्यात्व कर्मरूपसे परिणत होनेके समयमें ही जीवके साथ बन्धको प्राप्त होकर सात हजार वर्षप्रमाण आबाधा कालसे कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरोंके समयो में यथाक्रमसे निषेकभावको प्राप्त हो जाते हैं और सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर कालतक कर्मरूपसे रहकर पुनः वे अकर्म भावको प्राप्त होते हैं । इसी प्रकार सभी नारकी, सामान्य तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंच, योनिमती तिथंच, सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य, मनुष्यिणी, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रस पर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षदर्शनी, कृष्ण आदि पाँच लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-बन्धकालमें मिथ्यात्वकी उकृष्ट स्थिति सत्तरकोडाकोडी सागर प्रमाण प्राप्त होती है, अतः ओघसे मिथ्यात्वकी स्थितिका उत्कृष्ट अद्धाच्छेद सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर कहा है। आगे और जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं वे सब संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त अवस्थाके रहते हुए सम्भव हैं और उनके मिथ्यात्व गुणस्थानके सद्भावमें मिथ्यात्वका यह उत्कृष्ट स्थितिबन्ध सम्भव है इसीलिये इनके कथनको ओघके समान कहा है। शुक्ललेश्यामें संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त अवस्था और मिथ्यात्व गुणस्थान भी होता है परन्तु शुक्ललेश्यामें अन्तःकोटाकोटीसे अधिक
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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ द्विदिविहती ३
$ १० पंचिदियतिरिक्ख अपज्ज० मोह० उक्क० सत्तरिसागरोव मकोडाकोडीओ अंतमुतणा । एवं मणुस पज्ज० - बादरेइंदियापज्जत - मुहमें इंदियपज्जत्तापज्जत्त - सव्वविगलिंदिय - पंचि ० पज्ज० - बादर पुढवि ० अपज्ज० - बादरआउ० अपज्ज० बादरवणप्फदि ० पत्तेयअपज्ज० - तेड - वाउ ० - बादर- मुहुम- पज्जत्तापज्जत्त - मुहुमवणफदि ०पज्जत्तापज्जत्त - सव्वणिगोद-तस पज्ज० - आभिणि० - सुद०- - ओहि ० - ओहिदंस०-- स्रुक्क - सम्मादिहि-वेदग०- सम्मामिच्छादिट्टि ति ।
$ ११ दादि जाव सव्वह त्ति मोह० उक्क० श्रद्धच्छेदो अंतोकोडाकोडीए । एवमाहार० - आहारमिस्स ० - अव गद० - अकसा० - मणपज्ज० - संजद ० - सामाइयच्छेदो०
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स्थिति नहीं बंधती अतः उसको यहाँपर नहीं ग्रहण किया है और इसी कारण आनतादि उपरम विमानों को भी छोड़ दिया है ।
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१०. पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकों के मोहनीय कर्मकी स्थितिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्तकम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, बादर पृथ्वीकायिक अपर्याप्त बाद र जलकालिक अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त.
कायिक, वायुकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अमिकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक अपर्याप्त, बादर वायुकायिक, बाद वायुकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकाकि पर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, सब निगोद, त्रस अपर्याप्त, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों के जानना चाहिए ।
विशेषार्थ -- जिस मनुष्य या तिर्यंचने सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितिका बन्ध किया वह यदि मरकर पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकों में उत्पन्न होता है तो अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् ही उत्पन्न हो सकता है इसके पहले नहीं, अतः पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त मोहनीयकी स्थितिका उत्कृष्ट श्रद्धाच्छेद अन्तर्मुहूर्तकम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर ही प्राप्त होता है अधिक नहीं। इसके सिवा और जितनी मागणाएँ गिनाई हैं उनमें भी मोहनीयका उत्कृष्ट श्रद्धाच्छेद इसी प्रकार जानना चाहिए, क्योंकि मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव अन्तर्मुहूर्त के पहले उस उस मार्गणास्थानको नहीं प्राप्त होता है । सादि मिध्यादृष्टि सात प्रकृतिकी सत्तावाले जिसने मोहनीयका उत्कृष्ट बंध किया है वह स्थिति कांडक घात किये बिना वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त कर लेता है अतः उस सम्यग्दृष्टि या वेदक सम्यग्दृष्टि के मोहनीयका उत्कृष्ट अद्धाच्छेद अन्तर्मुहूर्त कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर पाया जाता है। इसी प्रकार मिश्र गुणस्थानमें भी जानना चाहिए ।
११. नत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक्के देवोंके मोहनीयकी स्थितिका उत्कृष्ट अद्धाच्छेद अन्तः कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है । इसी प्रकार आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिक संयत, छेदोपस्थापना संयत, परिहार
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गा० २२.]
द्विदिविहत्तीए श्रद्धाछेदो परिहार-मुहुम-जहाक्खाद-संजदासंजद-खइय०-उवसम०-सासणसम्मादिहि त्ति । ___१२ एइंदिएसु मोह० उक्क० अद्धच्छेदो० सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीअो समयूणाश्रो । एवं बादरेइंदिय-बादरेइंदियपज०-बादरपुढवि ०-बादरपुढविपज्ज०वादरआउ० ---बादराउपज्ज०--बादरवणप्फदिपत्तेय० --बादरवणप्फदिपत्रेयपज्ज०-- ओरालियमिस्स०-वेउवियभिस्स-कम्मइय-असण्णि-अणाहारि त्ति ।
एवमुक्कस्सो अद्धाच्छेदो समत्तो । विशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत, यथाख्यातसयत, संयतासंयत, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए।
विशेषार्थ--नौ अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमानोंमें तो सकलसंयमी सम्यग्दृष्टि ही पैदा होता है। किन्तु आनतादि चार कल्पोंमें और नौ ग्रैवयकमें मिथ्यादृष्टि जीव भी उत्पन्न हो सकता है । पर ऐसा जीव द्रव्यलिंगी मुनि संयतासंयत अवश्य होगा और ऐसे जीवके कर्मोंकी स्थिति अन्तः कोडीकोडी सागरसे अधिक नहीं पाई जाती है। तथा आनतादिकमें उत्पन्न होनेके पश्चात भी इसके स्थितिसत्त्वसे कम स्थितिवाले कर्मका ही बन्ध होता है, अतः आनतादिकमें मोहनी यकी उत्कृष्ट स्थितिका अद्धाच्छेद अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर कहा है। इनके सिवा और जितनी मार्गणाएँ 'गिनाई हैं उनमें भी इसी प्रकार मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका अद्धाच्छेद अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर घटित कर लेना चाहिए। यद्यपि इनमें कई ऐसी मार्गणाएँ हैं जिनमें अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थितिबन्ध नहीं होता पर प्राक्तन सत्त्वकी अपेक्षा वहां भी यह अद्धाच्छेद उपलब्ध हो जाता है।
६१२. एकेन्द्रियोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका अद्धाच्छेद एक समय कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर है । इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर पृथ्वी कायिक, बादर पृथिवी कायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिका यिक प्रत्येकशरीर, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त, औदारिक मिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कामणकाययोगी. असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-जो देव मोहनीयकी सत्तर कोड़ाकोड़ी प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके और दूसरे समयमें मरकर एकेन्द्रियादिकमें उत्पन्न होते हैं उन एकेन्द्रियादिकके मोहनीयकी स्थितिका उत्कृष्ट अद्धाच्छेद एक समय कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर पाया जाता है । इसी प्रकार इस अपेक्षासे असंज्ञियोंके मोहनीयकी स्थितिका एक समय कम सत्तर कोड़ाकोड़ी प्रमाण अद्धाच्छेद कहना चाहिये । किन्तु औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें उत्कृष्ट अद्धाच्छेदका कथन करते समय देव
और नरक पर्यायसे तिर्यंचोंमें उत्पन्न कराकर कहना चाहिये । वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें उत्कृष्ट अद्धाच्छेदका कथन करते समय मनुष्य और तियेच पर्यायसे नारकियोंमें उत्पन्न कराकर कहना चाहिये । कार्मणकाययोगी और अनाहारकोंमें उत्कृष्ट अद्धाच्छेदका कथन करते समय चारों गतिके जीवोंकी अपेक्षा कहना चाहिये, क्योंकि जब विवक्षित गतिके जीव भवके अन्त में मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करके और मरकर औदारिकमिश्रकाययोगी आदि होते हैं तव उनके मोहनीयकी स्थितिका उत्कृष्ट अद्धाच्छेद एक समय कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर देखा जाता है।
इस प्रकार उत्कृष्ट अद्धाच्छेद समाप्त हुआ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[द्विदिवत्ती ३
$ १३ जहण्णाद्धादागमेण दुविहो णिद्देसो श्रघेण आदेसेण य । तत्थ घेण मोह • जहणिया अद्धा केतिया ? एगा हिंदी एगसमइया । एवं मणुसतियपंचिंदिय० - पंचि ० पज्ज० - तस-तसपज्ज० - पंचमण० -- पंचवचि ० -- कायजोगि--ओरालि०अवगद० - लोभक०-आभिणि० - सुद० - ओहि ० -मणपज्ज० - सुहुमसांपरा ० - संजद - चक्खु ०अचक्खु०-ओहिदंस०-सुक्क० भवसिद्धि० - सम्मादि ० खइय० - सण्णि ० - आहारि त्ति ।
१३
$ १४ आदेसेण णेरइएसु मोह० सागरोवमसहस्सस्स सत्तसत्तभागा पलिदो - मस्स संखेज्जदिभागेण ऊणया । एवं पढमाए पुढवीए पंचिंदियतिरिक्ख० - पंचिं०तिरि० पज्ज० - पंचिं० तिरि० जोणिणी-पंचिं० तिरि० अपज्ज - मणुस पज्ज० [देव - ] भवण०वाण० - पंचिंदियपज्ज० वत्तव्वं ।
१५. विदियादि जाव
सत्तमित्ति मोह० अंतोकोडाकोडीए । एवं
१३. जघन्य अद्धाच्छेदानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ निर्देश और आदेशनिर्देश | उनमेंसे श्रधनिर्देशकी अपेक्षा मोहनीयका जघन्यकाल कितना है ? एक समयवाली एक स्थितिप्रमाण जघन्यकाल है । इसी प्रकार सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य, मनुष्यनी, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, स, स पर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, अपगतवेदी, लोभकषायी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी सूक्ष्मसोपरायिक संयत, संयत, चतुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यदृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवों के जानना चाहिये ।
विशेषार्थ - जो जीव क्षपकश्रेणीपर आरोहणकर सूक्ष्मसांपराय के अन्तिम समय में स्थित रहता है उसके मोहनीयका एक समयवाला एक स्थितिप्रमारण श्रद्धाच्छेद उपलब्ध होता है यहां अन्य जितनी मार्गणाऐं गिनाई हैं उनमें क्षपकश्रेणीकी प्राप्ति सम्भव है इसलिये इनमें मोहनीयका श्रद्धाच्छेद उक्त प्रमाण कहा है।
१४. आदेशनिर्देशकी अपेक्षा नारकियों में मोहनीयकी जघन्य स्थिति हजार सागरके सात भागों में से पल्योपमके संख्तातवें भाग कम सात भागप्रमारण होती है । इसी प्रकार पहली पृथ्वी के जीवोंके तथा पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती, पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्त, मनुष्य लब्ध्यपर्यात, देव, भवनवासी व्यन्तर और पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त जीवों के जानना चाहिये ।
विशेषार्थ – असंज्ञी पंचेन्द्रिय के मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पल्यके संख्यातवें भाग कम हजार सागर प्रमाण होता है और यह जीव सामान्यसे नारकियोंमें, प्रथम पृथ्वीके नारकियोंमें, देवोंमें, भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें तथा मनुष्य अपर्याप्तकों में मरकर उत्पन्न हो सकता है इसलिए तो इन मार्गणाओं में मोहनीयका जघन्य श्रद्धाच्छेद उक्त प्रमाण कहा है। मात्र ऐसे असंज्ञी जीवको इनमें उत्पन्न कराने के पहले प्राक्तन सत्व इससे अधिक नहीं रखना चाहिए | तथा पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च आदि चार अवस्थावाला असंज्ञी पंचेन्द्रिय भी होता है इसलिए इनमें भी मोहनीयका जघन्य श्रद्धाच्छेद उक्त प्रमाण कहा है।
S९५. दूसरी पृथ्वी से लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंके मोहनीयकी जघन्य स्थिति
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गा • २२]
हिदिविहत्तीए श्रद्धाछेदो जोदिसियादि जाव सव्वह० वेउव्विय-वेउब्वियमिस्स-आहार-आहारमिस्स०अकसाय-विहंग०--परिहार० -जहाक्खाद०--संजदासंजद-तेउ०--पम्म०-वेदय-उवसम०-सासण-सम्मामि० वक्तव्वं ।
१६. तिरिक्ख० मोह० जह० सागरोवम सत्तसत्तभागा पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण ऊणया । एवं सव्वएइंदिय-पंचकाय०-ओरालियमिस्स-कम्मइय०मदि-सुदअण्णाण०-असंजद-तिण्णिले०-अभव०-मिच्छा०-असण्णि०-अणाहारि त्ति । सव्वविगलिंदिय० मोह० जह० सागरोवमपणुवीसाए सागरोवमपण्णासाए सागरोवमसदस्स सत्त सत्तभागा पलिदोवमस्स संखेज्जदिभागेण ऊणया । तसअपज्ज. बेइंदियअपज्जत्तभंगो।
$ १७. वेदाणुवादेण इत्थि०-णस० मोह० संखेजाणि वस्ससहस्साणि ।
अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर होती है। इसी प्रकार ज्योतिषी देवोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देव, वैक्रियिककाययोगी,वैक्रियिकमिश्रकाययोगी,आहारककाययोगी आहारकमिश्र काययोगी अकषायी,विभंगज्ञानी,परिहारविशुद्धिसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले,वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके कहना चाहिए ।
विशेषार्थ-यहाँ जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें स्थितिबन्ध और प्राक्तन सत्त्व अन्तः कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण भी सम्भव होनेसे इनमें मोहनीयका जघन्य अद्धाच्छेद उक्त प्रमाण
१६. तिर्यञ्चोंके मोहनीयकी जघन्य स्थिति एक सागरके सात भागोंमेंसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग कम सात भागप्रमाण है। इसी प्रकार सभी एकेन्द्रिय, पाँचों स्थावरकाय, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, कृष्ण आदि तीन लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्याष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिए। सभी विकलेन्द्रिय जीवोंके मोहनीयकी जघन्य स्थिति क्रमसे पच्चीस, पचास और सौ सागरके सात भागोंमेंसे पल्योपमके संख्यातवें भाग कम सात भाग प्रमाण है। त्रस लब्ध्यपर्याप्तकोंके द्वीन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकोंके समान जघन्य स्थिति जाननी चाहिए ।
विशेषार्थ-एकेन्द्रियोंमें मोहनीयका अघन्य स्थितिसत्त्व पल्यका असंख्यातवां भाग कम एक सागर प्रमाण प्राप्त होता है और एकेन्द्रिय तियञ्च ही होते हैं, इसलिए इनमें मोहनीयका जघन्य अद्धाच्छेद उक्त प्रमाण कहा है। यहाँ अन्य एकेन्द्रिय आदि जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उन मार्गणावाले जीव भी एकेन्द्रिय हो सकते हैं इसलिए उनका कथन उक्त प्रमाण कहा है। इसी प्रकार द्वीन्द्रिय आदिकके जघन्य स्थितिसत्त्वको ध्यानमें रखकर उनमें मोहनीयका जघन्य अद्धाच्छेद पल्यका संख्यातवाँ भाग कम क्रमसे पच्चीस, पचास और सौ सागर कहा है।
६१७. वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदी और नपुंसकवेदी जीवोंके मोहनीय कर्मकी जघन्य स्थिति संख्यात हजार वर्ष है । पुरुषवेदी जीवोंके मोहनीयकी जघन्य स्थिति संख्यात
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ पुरिस० मोह० जह० संखेजाणि। कोह-माण-माय० मोह० जह० चत्तारि-बे-एक्कवस्साणि पडिवुण्णाणि । सामाइय-छेदो० मोह० जह० अंतोमु० ।
एवमद्धाछेदो समत्तो । $ १८. सव्वविहत्ती-णोसव्वविहत्तीअणुगमेण दुविहो णिदिसो--अोघेण आदेसेण य। तत्थ अोघेण सव्वायो हिदीओ सव्वविहत्ती, तदणं णोसव्वविहत्ती। एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
१९. उक्कस्स-अणुक्कस्स० दुविहो णिद्द सो-अोघेण अादसेण य । तत्थ ओघेण सव्वुक्कस्सिया हिदी उक्कस्सविहत्ती । तदूणा अणुक्कस्सविहती। एवं णेदव्वं जाव अणाहारए त्ति ।
२० जहण्णाजहण्ण • दुविहो णिद्देसो--ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सवजहण्णहिदी जहण्ण हिदिविहत्ती । तदुवरिमाओ अजहण्णहिदिविहत्ती । एवं णेदव्वं जाव अणाहारए त्ति । सव्वहिदीए अद्धाछेदम्मि भणिदउक्कस्सहिदीए च को
वर्ष है। तथा क्रोधी, मानी और माया कषायवाले जीवोंके मोहनीयकी जघन्य स्थिति क्रमसे परिपूर्ण चार, दो और एक वर्ष है । सामायिक संयत और छेदोपस्थापना संयत जीवोंके मोहनीय कमकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है।
विशेषार्थ-उक्त तीन वेदवाले और क्रोधादि तीन कषायवाले जीवोंके मोहनीयकी यह स्थिति क्षपकश्रेणिमें अपने अपने उदयके अन्तिम समयमें प्राप्त होती है, इसलिए इन मार्गणाओंमें मोहनीयका जघन्य अद्धाच्छेद उक्त प्रमाण कहा है।
इस प्रकार अद्धाच्छेद समाप्त हुआ । १८. सर्वविभक्ति और नोसर्वविभक्ति अनुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा सर्व स्थितियाँ सर्वविभक्ति है और उससे न्यून नोसर्वविभक्ति है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणतक जानकर कथन करना चाहिये।
१६. उत्कृष्टविभक्ति और अनुत्कृष्टविभक्ति अनुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकार हैओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा सबसे उत्कृष्ट स्थिति उत्कृष्टविभक्ति है और उससे न्यून स्थिति अनुत्कृष्टविभक्ति है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक कथन करना चाहिए।
२०. जघन्यविभक्ति और अजघन्यविभक्ति अनुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा सबसे जघन्य स्थिति जघन्यस्थिति विभक्ति है और उससे ऊपरकी सब स्थितियाँ अजघन्य स्थितिविभक्ति है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गण तक ले जाना चाहिए।
शंका_सर्वस्थिति और अद्धाच्छेदमें कही गई उत्कृष्ट स्थितिमें क्या भेद है ?
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गा० २२]
द्विदिविहत्तीए सादि-अर्धवाणुगमो भेदो ? वुच्चदे--चरिमणिसेयस्स जो कालो सो उकस्सश्रद्धाछेदम्मि भणिदउक्कस्सहिदी णाम । तत्थतणसव्वणिमेयाणं समूहो सवहिदी णाम । तेण दोहमत्थि भेदो । उक्कस्सविहत्तीए उक्कस्सअद्धाछेदस्स च को भेदो ? बुच्चदे--चरिमणिसेयस्स कालो उक्कस्सश्रद्धाछेदो णाम। उक्कस्सहिदिविहत्ती पुण सव्वणिसेयाणं सव्वणिसेयपदेसाणं वा कालो । तेण एदेसि पि अत्थि भेदो। एवं संते सव्वुक्कस्सविहत्तीणं णत्थि भेदो त्ति णासंकणिज्जं । ताणं पि णयविसेसवसेण कथंचि भेदुवलभादो । तं जहा--समुदायपहाणा उक्कस्सविहत्ती । अवयवपहाणा सव्वविहत्ति त्ति ।
$ २१. सादि०४ दुविहो णिद्देसो--ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोह. उक्क० अणुक्क० जह० किं सादि०४ ? सादि० अर्धव० । अजह • किं सादि०४ ?
समाधान - अन्तिम निषेकका जो काल है वह उत्कृष्ट अद्धाच्छेदमें कही गई उत्कृष्ट स्थिति है । तथा वहाँ पर रहनेवाले सम्पूर्ण निषेकोंका जो समूह है वह सर्वस्थिति है, इसलिए इन दोनोंमें भेद है।
शंका-उत्कृष्ट विभक्ति और उत्कृष्ट अद्धाच्छेदमें क्या भेद है ?
समाधान-अन्तिम निषेकके कालको उत्कृष्ट अद्धाच्छेद कहते हैं और समस्त निषेकों के या समस्त निषेकोंके प्रदेशोंके कालको उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति कहते हैं,इसलिए इन दोनोंमें भी भेद है।
ऐसा होते हुए सर्वविभक्ति और उत्कृष्टविभक्ति इन दोनों में भेद नहीं है ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि नय विशेषकी अपेक्षा उन दोनों में भी कथंचित् भेद पाया जाता है। वह इस प्रकार है-उत्कृष्ट विभक्ति समुदायप्रधान होती है और सर्वविभक्ति अवयवप्रधान होती है।
विशेषार्थ- उत्कृष्ट अद्धाच्छेद, सर्वस्थितिविभक्ति और उत्कृष्टस्थितिविभक्ति ये शब्द प्रयोगमें आते हैं, इतना ही नहीं, इन नामवाले स्वतन्त्र अधिकार भी हैं, इसलिए इनमें क्या भेद है यही यहां बतलाया गया है। खुलासा इस प्रकार है- मान लो किसी जीवने मिथ्यात्वका सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबन्ध किया। ऐसी अवस्थामें सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरके अन्तिम समयमें स्थित जो निषेक है उसका उत्कृष्ट अद्धाच्छेद सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण हुआ , क्योंकि इतने काल तक इसके सत्तामें रहनेकी योग्यता है । यह तो उत्कृष्ट अद्धाच्छेदका उदाहरण है। तथा इस उत्कृष्ट स्थितिबन्धके होने पर जो प्रथम निषेकसे लेकर अन्तिम निषेक तक निषेक रचना होती है वह सर्वस्थितिविभक्ति है, क्योंकि यहां सर्व पद द्वारा सब निषेक लिए गए हैं। अब रही उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति सो इसमें उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होने पर प्रथम निषेकसे लेकर अन्तिम निषेक तककी सब स्थितियोंका ग्रहण किया है। यहां सत्ताका प्रकरण होनेसे सत्ताकी अपेक्षा इस अन्तरको घटित कर लेना चाहिए। इतना विशेष जानना चाहिए कि यह सब जहां ओघ उत्कृष्ट सम्भव हो वहां ओघ उत्कृष्ट कहना चाहिए और जहां ओघ . उत्कृष्ट सम्भव न हो वहां आदेश उत्कृष्ट प्राप्त कर लेना चाहिए।
२१. सादि, अनादि, ध्र व और अध्र व अनुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघकी अपेक्षा मोहनीयकी उत्कृष्टविभक्ति, अनुत्कृष्टविभक्ति
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जयधवलासहिदे कसायनहुडे [द्विदिविहत्ती ३ अण्णादिय० धुवा वा अद्भुवा वा । एवमचक्खु०-भवसिद्धि० । णवरि भवसि० धुवं पत्थि । सेसासु मग्गणासु उक्क० अणुक्क० जह० अजह० सादि-अधुवायो ।
___ एवं सादि-अर्धवाणुगमो समत्तो। ___$ २२. सामि दुविधं-जहण्णं उक्कस्सं च । तत्थ उक्कस्से पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण उक्कस्सहिदी कस्स ? अण्णदरस्स, जो चउहाणियजवमज्झस्स उवरि अंतोकोडाकोडिं बंधतो अच्छिदो उक्कस्ससंकिलेसं गदो । तदो उक्कस्सहिदी पबद्धा तस्स उक्कस्सयं होदि।
एवमोघपरूवणा गदा। और जघन्यविभक्ति क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है या क्या अध्रुव है ? सादि और अध्रुव है। अजघन्य विभक्ति क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है या क्या अध्रुव है ? अनादि ध्रुव और अर्द्ध व है। इसी प्रकार अचक्षुदर्शनी और भव्य जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि भव्यजीवोंके ध्रुव यह विकल्प नहीं है। शेष मार्गणाओंमें उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य ये चारों सादि और अध्रुव हैं।
विशेषार्थ-मोहनीयकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्ति कादाचित्क है और जघन्य स्थितिविभक्ति क्षपकणिके सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके अन्तिम समयमें होती है इसलिए ये तीनों सादि और अध्रुव कही हैं। किन्तु अजघन्य स्थितिविभक्तिका विचार इससे कुछ भिन्न है । बात यह है कि जघन्य स्थितिविभक्तिके प्राप्त होनेके पूर्व तक अनादि कालसे अजघन्य स्थितिविभक्ति होती है इसलिए तो वह अनादि कही है और भव्योंकी अपेक्षा अध्रुव तथा अभव्योंकी अपेक्षा ध्रुव कही है । इसमें सादि विकल्प सम्भव नहीं है, क्योंकि एक बार इसका अन्त होने पर पुनः इसकी उत्पत्ति नहीं होती। अचक्षुदर्शन और भव्य ये दो मार्गणाऐं क्रमसे क्षीणमोह गुणस्थानके अन्त तक और अयोगिकेवली गुणस्थान तक निरन्तर बनी रहती हैं इसलिए इनमें ओघप्ररूपणा अविकल घटित होनेके कारण वह उक्त प्रकार कही है । मात्र भव्य मार्गणामें अजवन्य स्थितिविभक्तिका ध्र वपना सम्भव न होनेसे उसका निषेध किया है। शेष मार्गणाऐं कादाचित्क हैं इसलिए उनमें चारों स्थितिविभक्तियोंके सादि और अध्र व ये दो विकल्प कहे हैं। केवल अभव्य मार्गणा रह जाती है क्योंकि यह कादाचित्क नहीं है पर इसमें ओघके अनुसार जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्ति सम्भव नहीं है इसलिए इसमें भी चारों स्थितिविभक्तियां सादि और अध्र व कही हैं।
इस प्रकार सादि-अध्रु वानुगम समाप्त हुआ। $२२. स्वामित्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उनमेंसे पहले उत्कृष्ट स्वामित्वका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे
ओघनिर्देशकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्थिति किसके होती है ? जो चतुःस्थानीय यवमध्यके ऊपर अन्तः कोडाकोड़ीप्रमाण स्थितिको बांधता हुआ स्थित है और अनन्तर उत्कृष्ट सक्लेशको प्राप्त होकर जिसने उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया है ऐसे किसी भी जीवके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति होती है ।
इस प्रकार ओघप्ररूपणा समाप्त हुई।
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गा० २२.]
हिदिविहत्तीए सामित्त $ २३. एवं सत्तपुढविणेरइय-तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खतिय-मणुसतिय-देवभवणादि जाव सहस्सार०-पंचिंदिय०-पंचिं०पज्ज-तस-तसपज्ज०-पंचमण-पंचवचि०कायजोगि०-ओरालि०--वेउविय-तिण्णिवेद-चत्तारिकसाय-मदिसुदअण्णाण-विहंग०असंजद०-अचक्खु०-चक्खुदं०-पंचले०-भवसिद्धि -अभवसिद्धि-मिच्छादि०-सण्णि०आहारि त्ति ।
२४. पंचिंदियतिरिक्वअपज्ज. मोह० उक्क. कस्स ? अण्णदरस्स सण्णिपंचिंतिरिक्खो वा मणुस्सो वा उकस्सहिदि बंधिय पडिभग्गो होदूण हिदिघादमकाऊण पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तएसु उववण्णो तस्स पढमसमयउववण्णल्लयस्स उक्कस्सिया हिदी । एवं मणुस्सअपज्जा बादरेइंदियअपज्ज-मुहुमेइंदियपज्जत्तापज्जत्तसव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज्ज०-बादरपुढवीअपज्ज०-बादरआउ०अपज्ज०-बादरवणप्फदिअपज्ज०-सुहुमपुढविपज्जत्तापज्जत्त-मुहुमआउ०पज्जत्तापज्जत्त-मुहुमवणप्फदिपज्ज तापज्जत्त-सव्वणिगोद०-सव्ववाउ०-सव्वतेउ०-तसअपज्जत्ते त्ति ।
$ २५. आणदादि जाव उवरिमगेवज्ज. उक० कस्स ? जो दव्वलिंगी उक्कस्सहिदिसंतकम्मिओ पढमसमयउववण्णो तस्स । अणुद्दिसादि जाव सवढे त्ति मोह.
२३. इसी प्रकार अर्थात् ओघप्ररूपणाके समान सातों पृथिवियोंके नारकी, सामान्य तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त, योनिमती तिर्यंच, सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य, मनुष्यनी ,सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी,तीनों प्रकारके वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभङ्गज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, चतुदर्शनी, कृष्ण आदि पांच लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए ।
$२४. पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति किसके होती है ? जो संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च या मनुष्य उत्कृष्ट स्थितिका बंध करके और वहांसे च्युत होकर स्थितिका घात न करके पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च लब्ध्यपर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ है, उसके उत्पन्न होनेके पहले समयमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति होती है । इसी प्रकार लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य, बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय तथा उसके पर्याप्त और अपर्याप्त, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक तथा उसके पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक व उसके पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक और उसके पर्याप्त और अपर्याप्त, सभी निगोद, सभी वायुकायिक, सभी अग्निकायिक और त्रस लब्ध्यपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये।
२५. आनत स्वर्गसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देवोंमें उत्कृष्ट स्थिति किसके होती है ? जिसके मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट स्थितिकी सत्ता है ऐसा जो द्रव्यलिंगी जीव आनतादि स्वर्गों में उत्पन्न हुआ उसके उत्पन्न होनेके पहले समयमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति होती है । अनुदिशसे
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [हिदिबिहत्ती ३ उक्क० कस्स० ? अण्णदास्स जो वेदयसम्माइट्टी तप्पाओग्गुकस्सहिदिसंतकम्मिओ पढमसमए उववण्णो तस्स ।
२६. एइंदिय-बादरेइंदियपज्ज. मोह० उक्क. कस्स ? अण्णदरस्स जो देवो उक्कस्सहिदि बंधमाणो मदो पढम् समए जादो तस्स उकस्सहिदी। एवं पुढवि०--आउ०-वणप्फदि०-बादरपुढवि.--बादरपुढविपज्ज --बादरआउ० बादरआउपज्ज०-बादरवणप्फदि.-बादरवणप्फदिपज्जते त्ति वत्तव्यं ।।
$ २७. ओरालियमिस्स० मोह० उक्क० कस्स ? अण्णद. देवो णेरइओ वा उक्कस्सहिदिबंधमाणो मदो तिरिक्खेसु उववष्णो पढमसमयओरालियपिस्सो जादो तस्स उक्कस्सिया हिदी। वेउव्वियमिस्स० मोह० उक्क० कस्स ? अण्णद० तिरिक्खो मणुस्सो वा उक्कस्सहिदि बंधमाणो मदो रइएसु उववण्णो पढमसमए वेउव्वियमिस्सो जादो तस्स उक्कस्सिया हिदी । आहार० मोह० उक्क० कस्स ? अण्णद० वेदयसम्मादिट्टी तप्पाओग्गुकस्सहिदिसंतकम्मिओ पढमसमए आहारो जादो तस्स उक्कस्सियो हिदी । आहारमिस्स० मोह० उक्क० कस्स ? वेदग. उक्क० पढमसमयजादस्स । कम्मइय० उक्क० कस्स ? अण्णद० चउगइओ उक्कस्सहिदि बंधिदूण मदो तिरिक्वेसु लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति किसके होती है ? मोहनीयकी तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट स्थितिकी सत्तावाला जो वेदकसम्यग्दृष्टि जीव अनुदिश आदिमें उत्पन्न हुआ उसके उत्पन्न होनेके पहले समयमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति होती है ।
२६. एकेन्द्रिय और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति किसके होती है ? जो देव मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर मरा और उक्त जीवोंमें उत्पन्न हुआ उसके एकेन्द्रिय और बादर एकेन्द्रियमें उत्पन्न होनेके पहले समयमे मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति होती है । इसी प्रकार पृथिवीकायिक, जल कायिक, वनस्पतिकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक और बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये ।
२७. औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति किसके होती है ? जो कोई.एक देव या नारकी जीव मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति बांधकर मरा और तियचोंमें उत्पन्न होकर पहले समयमें औदारिकमिश्रकाययोगी हो गया उसके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति होती है ? वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवों में मोहनीयकी उत्कृष्ट किसके होती है ? जो कोई एक मनुष्य या तिर्यंच मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति बांध कर मरा और नारकियोंमें उत्पन्न होनेके पहले समयमें वैक्रियिकमिश्रकाययोगी होगया उसके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति होती है। आहारकाययोगी जीवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति किसके होती है ? जिसके तत्प्रायोग्य मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति विद्यमान है ऐसा कोई एक वेदकसम्यग्दृष्टि जीव आहारकाययोगी होगया उसके पहले समयमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति होती है। आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति किसके होती है ? मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिकी सत्तावाला जो वेदकसम्यग्दृष्टि जीव आहारक
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गा • २२ ]
द्विदिविहत्तौए सामित्त णेरइएसु वा उबवण्णो तस्स पढमसमयउववण्णल्लयस्स उक्कस्सिया हिदी।
$ २८. अवगद० मोह • उक्क० कस्स ? जो चउच्चीसविहत्तिओ तप्पाओग्गुक्कस्सहिदिसंतकम्मेण पढमसमयअवगदवेदो जादो तस्स उक्कस्सिया हिदी । एवमकसा०-सुहुम०-जहाक्खाद० वत्तव्वं ।
२६. आभिणि-सुद०-ओहि मोह उक्क० कस्स ? अण्णद० उक्कस्सहिदिसंतकम्मेण तप्पाओग्गेण हिदिघादमकाऊण सम्म पडिवण्णो तस्स पढमसमयवेदयसम्माइडिस्स उक्कस्सयहिदिसंतकम्मं । एवमोहिदंस-सम्मादि०-वेदय० वत्तव्वं । मणपज्ज० उक्क कस्स ? अण्णद० वेदयसम्मादिही संजदो तप्पाओग्गुक्कस्सहिदिसंतकम्मो पढमसमयमणपज्जवणाणी जादो तस्स उक्कस्सहिदिसंतकम्मं । एवं संजद०-सामाय-छेदो०-परिहार०-संजदासंजद० वत्तव्वं ।
३०. सुक्क० मोह, उक्क. कस्स ? अण्णद. उक्कस्सहिदिसंतकम्मिओ हिदिघादमकदवेलाए चेव परावत्तिदपढमसमयसुक्कलेस्सा तस्स उक्कस्सिया हिदी।
मिश्रकाययोगी हो गया उसके पहले समयमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति होती है । कार्मणकाययोगी जीवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति किसके होती है ? कोई एक चारों गतिका जीव मोहनीयकी स्थिति बांधकर मरा और तिर्यंच या नारकियोंमें उत्पन्न हुआ उसके उत्पन्न होनेके पहले समयमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति होती है।
२८. अपगतवेदी जीवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति किसके होती है ? अनन्तानुबन्धी चतुष्कके बिना जो चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जीव अपगतवेदी जीवोंके योग्य उत्कृष्ट स्थितिकी सत्ताके साथ अपगतवेदी हुआ उसके पहले समयमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति होती है। इसी प्रकार अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिक संयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके कहना चाहिये ।
__$ २६. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति किसके होती है ? जिसके तत्प्रायोग्य मोहनीयको उत्कृष्ट स्थिति विद्यमान है और जो स्थितिघात न करके सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ है उस मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी वेदकसम्यग्दृष्टि जीवके पहले समयमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति होती है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति कहनी चाहिये । मनःपर्ययज्ञानी जीवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति किसके होती है ? मनःपर्ययज्ञानके योग्य उत्कृष्ट स्थितिकी सत्तावाला जो कोई एक संयत वेदकसम्यग्दृष्टि जीव मनःपर्ययज्ञानी हुआ उसके पहले समयमें मोहनीयका उत्कृष्ट स्थिति सत्त्व पाया जाता है । इसी प्रकार संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवोंके कहना चाहिये ।।
३०. शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति किसके होती है ? जिसके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति विद्यमान है और जिसने स्थिति घात करके उसी समय शुक्ललेश्याको प्राप्त कर लिया है ऐसे किसी भी शुक्ललेश्यावाले जीवके पहले समयमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति होती है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [द्विदिविहत्ती ३ ३१. खइय० उक्क. कस्स ? अण्णद० पढमसमयखइयसम्मादिहिस्स तस्स उक्कस्सिया हिदी । उवसम० मोह० उक्क० कस्स ? अण्णद० पढमसमयउवसामिददंसणमोहस्स उवसमसम्मादिहिस्स तस्स उक्कस्सिया हिदी। सासण. मोह० उक्क. कस्स ? अण्णद० पढमसमयसासणसम्मादिहिस्स । सम्मामि० मोह० उक्क० कस्स ? हिदिसंतकम्मघादमकाऊण पढयसमयसम्मामिच्छाइट्टी जादो तस्स । असण्णि. एइंदियभंगो। अणाहारि० कम्मइयभंगो।
एवमुक्कस्ससामित्तं समत्तं । $ ३२. जहण्णए पयदं । दुविहो गिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोह० जह० हिदी कस्स ? अण्णद० खवगस्स चरिमसमयसकसायस्स जहण्णहिदी । एवं मणुसतिय-पंचिंदिय-पंचिं०पज्ज-तस-तसपज०-पंचमण-पंचवचि-कायजोगि०
मयमें
३१. क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति किसके होती है ? किसी भी क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवके पहले समयमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति होती है। उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति किसके होती है ? जिसने दर्शनमोहनीय कर्मकी उपशामना की है ऐसे किसी भी उपशमसम्यग्दृष्टि जीवके पहले समय में मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति होती है। सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति किसके होती है ? किसी भी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवके पहले समयमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति होती है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति किसके होती है ? जो कोई एक जीव स्थितिसत्त्वका घात न करके सम्यग्मिथ्यादृष्टि हो गया है उसके पहले समयमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति होती है। असंज्ञी जीवोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति एकेन्द्रियों के समान जानना चाहिये। तथा अनाहारक जीवोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति कार्मणकाययोगी जीवोंके समान जानना चाहिये ।
विशेषार्थ यहां पर क्षायिकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवके क्रमसे क्षायिकसम्यक्त्व, उपशमसम्यक्त्व और सासादन उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व कहा गया है । सो इसका कारण यह है कि एक तो इन मार्गणाओंमें पूर्व मार्गणासे आनेपर जितना अधिक स्थितिसत्त्व सम्भव है उतना स्थितिबन्ध नहीं होता। दूसरे प्रथम समयके बाद उत्तरोत्तर स्थितिसत्त्व हीन होता जाता है, अतएव इन मार्गणाओंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका स्वामी प्रथम समयवाले जीवको कहा है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें मिथ्यादृष्टि जीवका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करके तथा उसका घात न करके आना सम्भव है और ऐसे सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवके सबसे अधिक स्थितिसत्त्व सम्भव है, इसलिए इसके भी उक्त प्रकारसे आनेपर उत्कृष्ट स्थिति कही है।
इस प्रकार उत्कृष्ट स्वामित्व समाप्त हुआ। $ ३२. अब जघन्य स्वामित्व प्रकृत है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-आंघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा मोहनीयकी जघन्यस्थिति किसके होती है ? किसी भी क्षपक जीवके सकषाय अवस्थाके अन्तिम समयमें अर्थात् क्षपक सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके अन्तिम समयमें मोहनीयकी जघन्य स्थिति होती है। इसी प्रकार सामान्य मनुष्य,
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गा० २२ ]
हिदिविहत्तीए सामित्त ओरालि०-अवगद०--लोभक०-आभिणि-सुद०-ओहि०-मणपज्ज०-संजद०--सुहुम०चक्खु०-अचक्खु०-ओहिदंस०-सुक्क०-भवसि०-सम्मादि०-खइय०-सण्णि-आहारि त्ति ।
- ३३. आदेसेण णेरइएसु मोह जह• कस्स ? अण्णद० असण्णिपच्छायदस्स विदियसमयविग्गहे वट्टमाणस्स तस्स जहणिया हिदी । एवं पढमपुढवि०-देवभवण-वाण० वत्तव्वं । विदियादि जाव छहि त्ति मोह० जह• कस्स ? अण्णद० जो उक्क० आउअहिदीए उववण्णो अप्पिदपुढ विसु अंतोमुहुरेण पढमसमत्तं पडिवज्जिय पुणो अंतोमुहुत्तेण अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोइय चरिमसमयणिप्पिदमागो तस्स जहणिया हिदी । एवं जोइसि० ।
३४. सत्तमाए पुढवीए मोह. जह० कस्स ? अण्णद. जो उक्क० आउहिदीए उववण्णो अंतोमुहुत्तेण पढ मसम्मत्त पडिवण्णो पुणो अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोइय पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनी इन तीन प्रकारके मनुष्योंके तथा पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रस पर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, अपगतवेदी, लोभकषायी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपयेंयज्ञानी, संयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्पदृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, संज्ञी, और आहारक जीवोंके जानना चाहिये।
६३३. आदेशकी अपेक्षा नरकियोंमें मोहनीय की जघन्य स्थिति किसके होती है ? जो असंज्ञियोंमेंसे नरकमें आया है और जो विग्रहगतिके दूसरे समयमें विद्यमान है ऐसे नारकीके मोहनीयकी जघन्य स्थिति होती है। इसी प्रकार पहली पृथिवीके नारकी जीवोंके तथा सामान्य देव, भवनवासी और व्यन्तर देवोंके कहना चाहिये ।
विशेषार्थ-असंज्ञी जीव नरकमें उत्पन्न हो सकता है और उसके विग्रहगतिमें असंज्ञीके योग्य स्थितिवन्ध होता है इसलिए यहां असंज्ञियोंमेंसे आए हुए नारकी जीवके द्वितीय विग्रहमें जघन्य स्थिति कही है। मात्र ऐसे असंज्ञी जीवके प्राक्तन सत्त्व तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिबन्धसे अधिक नहीं होना चाहिए। यह असंज्ञी प्रथम नरकके समान भवनवासी और व्यन्तर देवों में भी उत्पन्न होता है इसलिए प्रथम नरक. सामान्य देव, भवनवासी देव और व्यन्तर देवोंमें यह स्वामित्व इसी प्रकार दिया है।
दूसरी पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तकके नारकियोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थिति किसके होती है। जो कोई एक जीव दूसरी पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तक अपनी अपनी पृथिवीके अनुसार उत्कृष्ट आयुको लेकर उत्पन्न हुआ है, तथा जिसने उत्पन्न होनेके अन्तर्महूर्त कालके बाद प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करके अनन्तर अन्तमुहुर्त कालके द्वारा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना की है उस जीवके नरकसे निकलनेके अन्तिम समयमें मोहनीयकी जघन्य स्थिति होती है। इसी प्रकार ज्योतिषी देवोंके मोहनीयकी जघन्य स्थिति जाननी चाहिये ।
६ ३४. सातवीं पृथिवीमें मोहनीयकी जघन्य स्थिति किसके होती है ? जो उत्कृष्ट आयुको लेकर सातवें नरकमें उत्पन्न हुआ तथा अन्तर्मुहूर्त कालके पश्चात् जिसने प्रथमोपशम सम्यक्त्व
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जयधबलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहती ३ अंतोमुहुत्त जीवियमत्थि त्ति मिच्छत्तं गदो जावदि सका ताव संतकम्मस्स हेट्टा बंधिय से काले समद्विदि बंधिय बोलेहदि त्ति तस्स जहण्णयं टिदिसंतकम्मं ।
३५. तिरिक्खगइ० मोह० जह• कस्स ? अण्णदरस्स जो एइंदिओ हदसमुपत्तियं काऊण जाव सक्का ताव संतकम्मस्स हेहा बंधिय से काले समहिदि बोलेहदि त्ति तस्स जहण्णयं हिदिसंतकम्मं । एवं सव्वएइंदिय-पंचकाय०-ओरालियमिस्सकम्मइय-मदिसुदअण्णाण-असंजद-तिष्णि लेस्सा-अभव्य-मिच्छादि०-असप्णिअणाहारि त्ति ।
३६. पंचिंदियतिरिक्खतियम्मि मोह० जह० कस्स ? जो एइंदियपच्छायदो हिदीए कयहदसमुप्पत्तिो पढमविदियविग्गहे वट्टमाणो तस्स जहण्णयं हिदिसंतकम्मं । एवं पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज०-मणुसअपज्ज०-सव्वविगलिंदिय-पंचिं०अपज-तस अपज्जते त्ति वत्तव्वं । णवरि विगलिंदिएमु सत्थाणे वि सामित्तमविरुद्धं दहव्वं ।
$ ३७. सोहम्मीसाणादि जाव सव्वह० मोह० जह• ? अण्णद० दो बारे प्राप्त किया है, पुनः अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करके वहां रहा और जब जीवनमें अन्तमुहूर्त काल शेष रह जाय तब मिथ्यात्वको प्राप्त होकर जहां तक शक्य हो वहां तक सत्तामें स्थित मोहनीय कर्मकी स्थितिसे कम स्थितिवाले कर्मका बन्ध करके तदनन्तर कालमें जो सत्तामें स्थित मोहनीय कर्मकी स्थितिके समान स्थितिवाले कर्मका बन्ध करेगा उसके मोहनीयका जघन्य स्थितिसत्त्व होता है।
६३५. तिथंचगतिमें मोहनीयकी जघन्य स्थिति किसके होती है ? जो कोई एकेन्द्रिय जीव हतसमुत्पतिकको करके जब तक शक्य हो तब तक सत्तामें स्थित मोहनीयकी स्थितिसे कम स्थितिवाले कमेंका बन्ध करके तदनन्तर कालमें सत्तामें स्थित मोहनीयकी स्थितिके समान स्थि स्थतिवाले कर्मका बन्ध करेगा उसके मोहनीयका जघन्य स्थितिसत्त्व होता है। इसी प्रकार सभी एकेन्द्रिय, पांचों स्थावरकाय, औदारिकमिश्र काययोगी, कार्मण काययोगी.मत्यज्ञानी. ताज्ञानी. असंयत. कृष्ण आदि तीन
लेश्यावाले. अभव्य, मिथ्याष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये। $ ३६. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त और योनिनी इन तीन प्रकारके तिर्यंचोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थिति किसके होती है ? जो एकेन्द्रियोंमेंसे लौटकर आया है, जिसने स्थितिका हतसमुत्पत्तिक किया है और जो पहले या दूसरे विग्रहमें स्थित है उस पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त या योनिनी तिर्यंचके मोहनीयका जघन्य स्थितिसत्त्व होता है। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तक, मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तक, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्भ्यपर्याप्तक और त्रसं लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि विकलेन्द्रिय जीवोंमें स्वस्थानकी अपेक्षा भी स्वामित्वके कथन करनेमें कोई विरोध नहीं आता। अर्थात् जो विकलेन्द्रियोंमेंसे भी विकलेन्द्रियोंमें लौटकर आया है उसके भी जघन्य स्थितिसत्त्व हो सकता है।
३७. सौधर्म और ऐशान स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मोहनीयकी जघन्य
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गा० २२ ] हिदिविहत्तीए सामित्त .
२३ उवसमसेढिमारूढो पच्छा दसणमोहं खविय अप्पप्पणो उक्कस्साउहिदीए उववण्णो तस्स चरिमसमयणिप्फिदमाणयस्स जहण्णयं हिदिसंतकम्मं । .
३८ वेउव्विय० मोह० जह• कस्स ? अण्णद. सव्वह० देवस्स खइयसम्मादिहिस्स उपसंतकसायपच्छायदस्स सगसगुक्कस्साउद्विदिचरिमसमए वेउव्वियकायजोगे वट्टयाणस्स तस्स जहण्णयं हिदिसंतकम । वेउव्वियमिस्स० मोह. जह कस्स ? अण्ण. खइयसम्मा० उवसंत० पच्छायदस्स चरिमसमयवेव्वियमिस्सकायजोगिस्स जहण्णयं हिदिसंतकम्म। आहार० मोह. जह० कस्स ? अण्ण० खइयसम्माइडिस्स से काले मूलसरीरं पविसंतस्स जह• हिदिसंतकम्मं । आहारमिस्स मोह. जह• कस्स ? अण्ण. खइयसम्मा० से काले सरीरपज्जत्तिं कोहदि (काहदि) त्ति तस्स जह० हिदिसंतकम्मं ।
३६. वेदाणुवादेण इत्थिवेद० मोह० जह० कस्स ? अण्णद० अणियट्टिखवओ चरिमसमए इत्थिवेदो तस्स जह० हिदिसंतकम्मं । एवं पुरिस०-णवंस. वत्तव्वं ।
४०. कोह-माण-माय० जह० कस्स ? अण्णद० अणियट्टिखवओ स्थिति किसके होती है ? जो कोई एक जीव उपशमश्रेणी पर दो बार चढ़ा है अनन्तर दर्शनमोहनीयका क्षय करके आयुकर्मकी अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिको लेकर सौधर्मादिमें उत्पन्न हुआ है उसके वहांसे निकलनेके अन्तिम समयमें मोहनीयका जघन्य स्थितिसत्त्व होता है।
३८. वैक्रियिककाययोगी जीवोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थिति किसके होती है ? जो क्षायिकसम्यग्दृष्टि उपशान्तकषाय गुणस्थानसे सर्वार्थसिद्धिमें उत्पन्न हुआ तथा जो अपनी अपनी उत्कृष्ट आयुके अन्तिम समयमें वैक्रियिककाययोगमें विद्यमान है उस सर्वार्थसिद्धिमें रहनेवाले वैक्रियिककाययोगी जीवके मोह नीयका जघन्य स्थितिसत्त्व होता है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थिति किसके होती है ? जो क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव उपशान्तकषाय गुणस्थानसे आकर देवोंमें उत्पन्न हुआ है उसके वैक्रियिकमिश्रकाययोगके अन्तिम समयमें जघन्य स्थितसत्त्व होता है । आहारककाययोगी जीवोंमें मोहनीयका जघन्य स्थितिसत्त्व किसके होता है ? जो क्षायिकसम्यग्दृष्टि आहारक काययोगी जीव तदनन्तर समयमें मूल शरीरमें प्रवेश करेगा उसके अन्तिम समयमें मोहनीयका जघन्य स्थितिसत्त्व होता है। आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें मोहनीयका जघन्य स्थितिसत्त्व किसके होता है ? जो क्षायिकसम्यग्दृष्टि आहारकमिश्रकाययोगी जीव तदनन्तर समयमें शरीरपर्याप्तिको प्राप्त करेगा उसके मोहनीयका जघन्य स्थितिसत्त्व होता है।
३६. वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदी जीवोंमें मोहनीयका जघन्य स्थितिसत्त्व किसके होता है ? जो स्त्रीवेदी अनिवृत्तिक्षपक जीव है उसके स्त्रीवेदके अन्तिम समयमें मोहनीयका जघन्य स्थितिसत्त्व होता है। इसी प्रकार पुरुषवेदी और नपुंसकवेदी जीवोंके मोहनीयका जघन्य स्थितिसत्त्व कहना चाहिये।
४०. क्रोध, मान और मायाकपायवाले जीवोंमें मोहनीयका. जघन्य स्थितिसत्त्व किसके
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• जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ अप्पप्पणो चरिमसमए वट्टमाणो तस्स जह० हिदिसंतकम्मं । अकसा० मोह० जह० क० ? अण्ण० खइयसम्मा० चरिमसमयअकसायस्स जहण्णयं हिदिसंतकम्मं । विहंग. मोह० जह. क. ? अण्ण० जो उवरिमगेवज्जदेवो चउबीससंतकम्मित्रो अवसाणे मिच्छत्तं गंतूण चरिमसमयविहंगणाणी जादो तस्स० जह० हिदिसंतकम्मं ।
४१. सामाइय-छेदो० जह० कस्स ? अण्ण. अणियट्टिखवो चरिमसमयसापाइय-छेदोवडावण. संजमो तस्स जह• हिदिसंतकम्मं । परिहार० मोह० जह० क० १ अण्ण. खइयसम्मा० जो दो वारे उवसमसेढिं चढिय पच्छा खविददसणमोहणीओ देवेसु तेत्तीससागरोवममेत्ताउहिदिमणुपालिय मणुस्सेसुववज्जिय समयाविरोहेण पडिवण्णपरिहारसुद्धिसंजमो तस्स चरिमसमयपरिहारसुद्धिसंजदस्स जह० हिदिसंतकम्मं । संजदासंजद० मोह • जह• कस्स ? अण्णद. जो खइयसम्मा० परिहारस्स भणिदविहाणेणागंतूण चरिमसमयसंजदासंजदो जादो तस्स जह० हिदिसंतकम्मं ।
४२. तेउ०-पम्म० परिहार भंगो। णवरि चरिमसमयतेउपम्मलेस्सालावो कायव्वो।
होता है ? जो अनिवृत्तिक्षपक क्रोध, मान और मायाकषायके अन्तिम समयमें विद्यमान है उसके मोहनीयका जघन्य स्थितिसत्त्व होता है। अकषायी जीवों में मोहनीयका जघन्य स्थितिसत्त्व किसके होता है ? जो क्षायिकसम्यग्दृष्टि अकषायी जीव है उसके अन्तिम समयमें मोहनीयका जघन्य स्थितिसत्त्व होता है। विभंगज्ञानी जीवोंमें मोहनीयका जघन्य स्थितिसत्त्व किसके होता है ? चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जो उपरिम अवेयकका देव आयुके अन्तमें मिथ्यात्वको प्राप्त होकर विभंगज्ञानी हो गया है उसके अन्तिम समयमें मोहनीयका जघन्य स्थितिसत्त्व होता है।
४१. सामायिक और छेदोपस्थापना संयत जीवोंमें मोहनीयका जघन्य स्थितिसत्त्व किसके होता है ? जो अन्तिम समयवर्ती अनिवृत्ति क्षपक है उस सामायिकसंयत और छेदोपस्थापना संयत जीवके मोहनीयका जघन्य स्थितिसत्त्व होता है। परिहारविशुद्धि संयत जीवोंमें मोहनीयका जघन्य स्थितिसत्त्व किसके होता है ? दो बार उपशमश्रेणीपर चढ़कर अनन्तर जिसने दर्शनमोहनीयका क्षय किया है ऐसा जो क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव देवोंमें उत्पन्न हो कर और वहां तेतीस सागर प्रमाण आयुको समाप्त करके अनन्तर मनुष्योंमें उत्पन्न होकर जिस प्रकार आगममें बताया है उसके अनुसार परिहारविशुद्धि संयमको प्राप्त हुआ है उस परिहारविशुद्धि संयतके अन्तिम समयमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिसत्त्व होता है। संयतासंयत जीवोंमें मोहनीयका जघन्य स्थितिसत्त्व किसके होता है ? जो क्षायिकसम्यग्दृष्टि परिहारविशुद्धि संयत जीव आगममें जिस प्रकार विधि बताई है उसके अनुसार परिहारविशुद्धि संयमको त्यागकर संयतासंयत हो गया है उस संयतासंयतके अन्तिम समयमें मोहनीयका जघन्य स्थितिसत्त्व होता है ।
४२. पीतलेश्या और पद्मलेश्यावाले जीवोंके मोहनीयका जघन्य स्थितिसत्त्व परिहार
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गा• २२ ]
हिदिविहत्तीए कालो ४३. वेदग० मोह० जह० क० ? अण्णद० चरिमसमयअक्खीणदंसणमोहणीयस्स जह• हिदिसंतकम्मं । उवसम० मोह० जह० क. ? अण्ण उवसमसेढीए हिदिघादं कादूण अधहिदिगलणाए च गालिय से काले वेदयसम्मादिट्टी होहिदि त्ति जो हिदो तस्स जह. हिदिसंतकम्मं । सासण• मोह० ज० कस्स ? अण्णद० चरिमसमय. सासण. तस्स जह० हिदिसंतकम्मं । सम्मामि० मोह० ज० क० १ अण्णद० चउवीससंतकम्मिश्रो जो चरिमसमयसम्मामिच्छादिट्टी तस्स जह० द्विदिसंतकम्मं ।
एवं सामित्त समत्त। ___४४. कालो दुविहो-जहण्णो उक्स्सो चेदि । तत्थ उक्कस्सए पयदं । दुविहो णिद्देसो-अोघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोह० उक्कस्सहिदी केवचिरं कालादो होदि ? जह० एगसमो , उक्क० अंतोमुहुत्तं । अणुक्क० केवचिरं ? जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा। एवं मदि-मुदअण्णाण०.असंजद०-अचक्खु०भव०-अभव-मिच्छादि० त्ति वत्तव्यं ।
विशुद्धिसंयत जीवोंके समान जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि पीतलेश्या और पद्मलेश्यावाले जीवके मोहनीयका जघन्य स्थितिसत्त्व कहते समय अन्तिम समयमें पीतलेश्या और पद्मलेश्या प्राप्त कराके उसका कथन करना चाहिये।
६४३. वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें मोहनीयका जघन्य स्थितिसत्त्व किसके होता है ? जिसके दर्शनमोहनीयका क्षय नहीं हुआ है ऐसे वेदकसम्यग्दृष्टि जीवके अन्तिम समयमें मोहनीयका जघन्य स्थितिसत्त्व होता है। उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंमें मोहनीयका जघन्य स्थितिसत्त्व किसके होता है ? जो उपशमसम्यग्दृष्टि जीव उपशमश्रेणीमें स्थितिघात करके और अधस्तनस्थिति गलनाके द्वारा स्थितिको गला कर तदनन्तर समयमें वेदकसम्यग्दृष्टि होगा उसके मोहनीयका जघन्य स्थितिसत्त्व होता है। सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें मोहनीयका जघन्य स्थितिसत्त्व किसके होता है ? जो सासादनसम्यग्दृष्टि हुआ है उसके अन्तिम समयमें मोहनीयका जघन्य स्थितिसत्त्व होता है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें मोहनीयका जघन्य स्थितिसत्त्व किसके होता है। चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जो जीव सम्यग्मिथ्यादृष्टि हुआ है उसके अन्तिम समयमें मोहनीयका जघन्य स्थितिसत्त्व होता है।
इस प्रकार स्वामित्वानुयोगद्वार समाप्त हुआ। ४४. काल दो प्रकारका है-जघन्यकाल और उत्कृष्ट काल । उनमेंसे पहले उत्कृष्ट कालका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उसमें से ओघकी अपेक्षा मोहनीयके उत्कृष्ट स्थितिसत्त्वका काल कितना है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। मोहनीयकी अनुत्कृष्ट स्थिति सत्त्वका काल कितना है ? जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है जिसका प्रमाण अनन्तकाल है। इसी प्रकार मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, भव्य, अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवोंके कहना चाहिये।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ हिदिबिहत्ती ३
* ४५. देसेण निरयगईए णेरइएस मोह० उक्क० केवचि ० १ जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । अणुक० केवचिरं० ? जह० एगसमझो, उक्क० तेत्तीस सागरोवमाणि । पढमादि जाव सत्तमित्ति मोह० उक्क० केवचिरं० ? जह० एयसमत्रो, उक्क० अंतोमुहुत्तं । अणुक० जह० एयसमत्रो, उक्क० एक्क० तिष्णि० सत्त० दस० सत्तारस० बावीस ० तेत्तीस सागरोवमाणि ।
२६
०
$ ४६. तिरिक्ख • मोह ० उक्क० केव० १ जह० एगसमओ, उक्क० अंतो मुहुत्तं । अणुक्क ० के ० ६० १ जह० एगसमग्र, उक्क० अनंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । एवं काय जोगि०-णर्बुस ० वत्तव्वं ।
विशेषार्थ_मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य बन्धकाल एक समय और उत्कृष्ट बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त होनेसे उत्कृष्ट स्थिति सत्त्वका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तमुहूर्त कहा है । उत्कृष्ट स्थिति बन्धकी व्युच्छित्ति होने पर पुनः उसका बन्ध कमसे कम अन्त मुहूर्त काल के बाद ही होता है । इस बीच अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध होने लगता है और सत्त्व भी अधःस्तन स्थिति गलना के द्वारा उत्तरोत्तर न्यून होता जाता है इसलिए अनुत्कृष्ट स्थितिसत्त्वका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है । तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त पर्यायका उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल होनेसे इस काल में अनुत्कृष्ट स्थितिसत्त्व रहता है, इसलिए अनुत्कृष्ट स्थितिसत्त्वका उत्कृष्ट काल अनन्तकाल कहा है। यहाँ अन्य जितनी मार्गणाऐं गिनाई हैं उनमें ओघ प्ररूपणा अविकल घटित हो जाती है, इसलिए इनकी प्ररूपणा ओघके समान कही है ।
$ ४५. आदेशकी अपेक्षा नरकगति में नारकियों में मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अन्तर्मुहूर्त है । मोहनीय की अनुत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल तेतीस सागर है । पहली पृथिवी से लेकर सातवीं पृथिवी तकके प्रत्येक नरक में मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अन्तर्मुहूर्त है । अनुत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल क्रमशः एक, तीन, सात, दस, सत्रह, बाईस और तेतीस सागर है ।
--
विशेषार्थ – यहां सर्वत्र मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्टकाल क्रमशः एक समय और अन्तर्मुहूर्त ओघके समान घटित कर लेना चाहिए। नरकमें अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय निम्न प्रकार होता है - जिस नारकीने भवके उपान्त्य समय में उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर अन्तिम समय में अनुत्कृष्ट स्थितिको बांधा है और तीसरे समय में मरकर जो अन्य पर्यायको प्राप्त हो गया उसके अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है । शेष कथन स्पष्ट ही है ।
$ ४६. तिर्यंचों में मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य सवकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अन्तर्मुहूर्त है। मोहनीयकी अनुत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट अनन्तकाल है जो असंख्यात् पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । इसी प्रकार काययोगी और नपुंसकवेदी जीवोंके कहना चाहिये ।
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गा ०
२२ ]
ganate कालो
$ ४७. पंचिंदियतिरिक्खतियम्मि मोह० उक्क० केव० ? जह० एगसमत्रों, उक्क० अंतोमुहुत्तं । अणुक्क० केव० ? जह० एगसमओ, उक्क० सगसगुक्कसहिदी। एवं मणुसतियस्स ।
$ ४८. पंचिं ० तिरिक्ख पज्ज० मोह० उक्क० केव० ? जहण्णुक्क० एगसम । अणुक्क० केव० ? जह० खुद्दाभवग्गहणं समऊणं, उक्क० अंतोमुहुत्तं । एवं मणुस - अपज्ज० ।
२७
विशेषार्थ - तिर्यंचों में अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्यकाल एक समय नारकियोंके समान घटित कर लेना चाहिए | तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल ओघ के समान घटित कर लेना चाहिये । जब कोई जीव असंख्यात पुद्गल परिवर्तनकाल तक एकेन्द्रिय पर्यायमें निरन्तर रहता है तब उसके काययोग और नपुंसकवेद ही होता है अतः काययोग और नपुंसकवेद में भी मोहनी की उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका काल तिर्यंचोंके समान बन जाता है । शेष कथन सुगम है।
४७. पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त और योनिमती तिर्यंचों में मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । मोहनीयकी अनुत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । इसी प्रकार सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनी इन तीन प्रकारके
मनुष्यों के जानना चाहिये ।
विशेषार्थ- उक्त तीन प्रकारके तिर्यंचोंमें उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल ओघके समान तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एकसमय नारकियोंके समान घटित कर लेना चाहिये । इनका खुलासा हम पहले कर ही आये हैं । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण प्राप्त होता है, क्योंकि किसी भी तिर्यंचके अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति के भीतर मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध न हो यह सम्भव है । यहां स्थिति से कार्यस्थिति का ग्रहण करना चाहिये । इसी प्रकार अन्यत्र भी जहां भवस्थितिसे काय स्थिति अधिक हो वहां भी स्थिति पद कार्यस्थितिका ही ग्रहण करना चाहिये । उक्त तीन प्रकारके तिर्यंचोंकी कार्यस्थिति क्रमसे पंचानवे पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य, संतालीस पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य और पन्द्रह पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य होती है । सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनीके भी इसी प्रकार जानना चाहिए | इनकी काय स्थिति क्रमशः सैंतालीस पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य, तेईस पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य और सात पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य होती है ।
४८. पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च लब्ध्यपर्याप्तकों में मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य और उत्कृष्ट दोनों एक समय है । मोहनीयकी अनुत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य एक समय कम खुद्दाभवग्रहण प्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य के जानना चाहिए ।
विशेषार्थ – पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च लब्ध्यपर्याप्तकों के बन्धसे मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती नहीं । हां जिसने संज्ञी पर्याप्त अवस्थामं मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया और वह स्थितिघात न करके अन्तमुहूर्त कालके होनेपर मरकर उक्त जात्रोंमें उत्पन्न हो गया तो उसके
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२८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ ४६. देवाणं णारगभंगो। भवणादि जाव सहस्सार त्ति उक्क० अोधभंगो । अणुक्क० केव० ? जह० एगसमो, उक्क० अप्पप्पणो उक्कस्सहिदी । आणदादि जाव सव्वह० मोह० उक्क० केव० ? जहण्णुक्क० एगसमत्रो । अणुक्क० जह० जहण्णहिदी. समऊणा, उक्क० उक्कस्सहिदी संपुण्णा ।
$ ५० एइंदिएसु मोह० उक्क० जह० एगसमो, उक्क० एगस० । अणुक्क० जह० खुद्दाभवग्गहणं, उक्क० अणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा। एवं बादरेइंदिय० । णवरि अणुक्कस्सहिदीए उक्कस्सकालो बादरहिदी । बादरेइंदियपज्ज० उक्कस्सहिदीए एइंदियभंगो । अणुक्क० केव० ? जह० अंतोमुहुत्तं (एगसमयूणं), उक्क० संखेज्जाणि वाससहस्साणि।
उत्पन्न होनेके पहले समयमें अपनी पर्यायमें सम्भव स्थितिकी अपेक्षा मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति पाई जाती है अतः इनके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा। तथा इस एक समयको कम कर देनेपर अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्यकाल एक समय कम खुद्दाभवग्रहण प्रमाण प्राप्त होता है। तथा पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त बतलाया है, अतः अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अन्तमहर्त प्राप्त होता है। मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तकोंके भी इसी प्रकार उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका काल घटित कर लेना चाहिए ।
४६. देवोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका काल नारकियों के समान जानना चाहिये। भवनवासियोंसे लेकर सहस्रारस्वर्ग तकके देवोंके उत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्टकाल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है। आनतसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य और उत्कृष्ट दोनों सत्त्वकाल एक समय है। अनुत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य एक समय कम अपनी अपनी जघन्य स्थिति प्रमाण है और उत्कृष्ट अपनी अपनी सम्पूर्ण उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है ।
विशेषार्थ-आनतसे सर्वार्थसिद्धितकके देवोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति भवके पहले । समयमें ही सम्भव है, अतः इनके उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय कहा। तथा इस एक समयको कम कर देनेपर अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्यकाल एक समय कम अपनी जघन्य स्थिति प्रमाण प्राप्त होता है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है यह स्पष्ट ही है। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि सर्वार्थसिद्धिमें जघन्य और उत्कृष्ट आयु नहीं होती अतः वहाँ अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्यकाल एक समय कम तेतीस सागर और उत्कृष्ट काल पूरा तेतीस सागर होगा। शेष कथन सुगम है ।
५०. एकेन्द्रियोंमें मोहनीयको उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय जीवोंके कहना चाहिये । पर इतनी विशेषता है कि इनके अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट सत्त्वकाल बादर स्थिति प्रमाण है। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंके उत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल एकेन्द्रियोंके समान है। तथा इनके
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गा० २२] हिदिविहत्तीए कालो
२६ $ ५१. बादरेइंदियअपज्ज०-सुहुमेइंदियअपज्ज-विगलिंदियअपज्ज०-पंचिंदियअपज्ज -पंचकाय०बादरअपज्ज-तेसिं सुहमअपज्ज०-तसअपज्ज. पंचिंदियतिरिक्ख अपज्जत्तभंगो।
$ ५२. सुहमेइंदिय० उक्क० केव० ? जहण्णुक्कस्सेण एयसमो । अणुक्क० जह० खुद्दाभवग्गणं समजणं, उक्क० असंखेजा लोगा। एवं पंचकायसुहमाणं पज्जत्ताणं ।
$ ५३. सुहमइंदियपज्ज० केव० ? जहण्णुक्कस्सेणेगसमओ। अणुक्क० जह० अंतोमुहत्तं समयूणं, उक्क० अंतीमुहुत्तं । एवं पंचकायसुहम० । अनुकृत्ष्ट स्थितिका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्ष है।
विशेषार्थ-एकेन्द्रियोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति भवके पहले समयमें ही प्राप्त होती है अतः इनके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय कहा। साथ ही यह उत्कृष्ट स्थिति लब्ध्यपर्याप्तक एकेन्द्रिय और सक्ष्म जीवोंके नहीं प्राप्त होती. अतः अनकट स्थितिका जघन्यकाल पूरा खुद्दाभवग्रहण प्रमाण कहा। एकेन्द्रियोंकी कायस्थिति असंख्यात पदगल परिवर्तन प्रमाण होनेसे इनके अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्टकाल उक्त प्रमाण कहा । बादर एकेन्द्रिय और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंकी कायस्थिति क्रमशः अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण अर्थात् असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्गिणी काल प्रमाण व संख्यात हजार वर्ष काल प्रमाण होनेसे इनके केवल अनुत्कृष्ट स्थितिके उत्कृष्ट कालमें एकेन्द्रियोंसे अन्तर है। बाकी सब एकेन्द्रियोंके समान है । सो इसका उल्लेख पहले किया ही है।
५१. बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक, सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक, विकलेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक, पांचों स्थावर काय बादर लब्ध्यपर्याप्तक, पांचों स्थावर काय सूक्ष्म लब्ध्यपर्याप्तक और त्रस लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके पंचेन्द्रिय तिर्यश्च लब्ध्यपर्याप्तकों के समान जानना चाहिये । तात्पर्य यह है कि सभी लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समान होता है, अतः उक्त सब लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका काल पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च लब्ध्यपर्याप्तकोंके समान जानना चाहिये ।
५२. सूक्ष्म एकेन्द्रियों के मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य और उत्कृष्ट दोनों एक समय है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय कम खुद्दाभवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट सत्त्वकाल असंख्यात लोक प्रमाण है । इसी प्रकार पांचों सूक्ष्म स्थावरकायिक जीवोंके कहना चाहिये ।
५३. सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य और उत्कृष्ट दोनों एक समय है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय कम अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अन्तमुहूर्त है । इसी प्रकार पांचों सूक्ष्म स्थावरकायिक पर्याप्तकोंके जानना चाहिये।
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[ द्विदिविहती ३
५४. विगलिंदिय० मोह० उक्क० केव० ? जहराणुक्क० एयसमओ । अणुक्क० जह० खुद्दाभवग्गहणं समऊणं, उक्क० संखेज्जाणि वाससहस्साणि । एवं विगलिंदियपज्जत्ताणं पि । णवरि अणुक्कस्सजहरणकालो अंतोमुहुत्तं समऊणं ।
३०
५५. पंचिदिय - पंचिं ० पज्ज० - तस तसपज्ज० मोह० उक्क० श्रोघभगो । अणुक्क० जह० एगसमश्र, उक्क० सगसगुक्कस्स हिदी |
५६. पुढवि०- बादरपुढ वि०[०- आउ०- बादरआउ० उक्क० के० १ जह० एगसमओ, उक्क० एगसमय । अणुक्क० जह० खुद्दाभवग्गहणं, उक्क० सगसगुक्कहिदी । बादरपुढ विपज्ज० - बादरआउ०पज्ज० उक्क० के० ? जह० एगसमओ,
५४. विकलेन्द्रिय जीवोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य और उत्कृष्ट दोनों एक समय है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जवन्य सत्त्वकाल एक समय कम खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्ष है । इसी प्रकार विकलेन्द्रिय पर्याप्तकों के भी जानना चाहिये । पर इतनी विशेषता है कि इनके अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय मुहूर्त है।
विशेषार्थ - सूक्ष्म एकेन्द्रियसे लेकर आगे जितनी मार्गणाओं में काल कहा है उन सबके मोहन उत्कृष्ट स्थिति भवके पहले समय में ही प्राप्त हो सकती है, अतः सबके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । पर अनुत्कृष्ट स्थितिके जघन्य कालका कथन करते समय जहां खुदाभत्रग्रहण प्रमाण जघन्य स्थिति सम्भव है वहां एक समय कम खुद्दा भवग्रहण प्रमाण जघन्य काल कहा और जहां अन्तर्मुहूर्त प्रमाण जघन्य स्थिति सम्भव है वहां एक समय कम अन्तर्मुहूर्त प्रमाण जघन्य काल कहा । तथा जहां जो उत्कृष्ट काल सम्भव है वहां अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल तत्प्रमाण कहा ।
$ ५५. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त त्रस और सपर्याप्त जीवोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल के समान है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है ।
विशेषार्थ-पंचेन्द्रियोंकी उत्कृष्ट स्थिति पूर्वं कोटि पृथक्त्वसे अधिक एक हजार सागर, पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों की उत्कृष्ट स्थिति सौ सागरपृथक्त्व, त्रसकाथिकोंकी उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि पृथक्त्व से अधिक दो हजार सागर और त्रसकायिक, पर्याप्तकोंकी उत्कृष्ट स्थिति दो हजार सागर
लाई है अतः इनके अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल उक्त स्थिति प्रमाण जानना चाहिये । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय जिस प्रकार नारकियोंके घटित करके लिख आये हैं उसी प्रकार यहां भी घटित कर लेना चाहिये । शेष कथन सुगम है ।
९ ५६. पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, जलकायिक और बादर जलकायिक जीवों के मोहनीकी उत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है । तथा अनुकृष्ट स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल खुदाभवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त और बादर जलकायिक पर्याप्त
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गा०२२] द्विदिविहत्तीए कालो
- ३१ उक्क० एगसमत्रो। अणुक्क० जह० अंतोमुहुत्तमेगसमऊणं, उक्क० संखेज्जाणि वाससहस्साणि ।
$ ५७ तेउ०--बादरतेउ० --बादरतेउपज्ज--वाउ०-बादरवाउ०--बादरवाउपज्ज. उक्क० जहण्णुकस्सेण एगसमओ, अणुक० जह० खुद्दाभवग्गहणं समऊणं । णवरि पज्जत्ताणमंतोमुहुत्तं समऊणं । सव्वेसिमणुकस्सुकस्सं सगसगुक्कस्सहिदी ।
$ ५८. वणप्फदिकाइयाणमेइ दियभंगो। बादरवणप्फदिकाइयाणं बादरेइ दियजीवोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय कम अन्तर्मुहूर्त है। और उत्कृष्ट सत्त्वकाल सख्यात हजार वर्ष है।
विशेषार्थ एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके जिस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल घटित करके लिख आये हैं उसी प्रकार यहां पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक और बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त आदि जीवोंके जानना चाहिये। किन्तु इनके अनुत्कृष्ट स्थितिके उत्कृष्ट कालमें कुछ विशेषता है जिसका निर्देश मूलमें किया ही है । पृथिवीकायिक और जलकायिक जीवोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति असंख्यात लोक प्रमाण कही है। बादर पृथिवीकायिक और बादर जलकायिक जीवोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति उत्कृष्ट कर्मस्थिति प्रमाण कही है । तथा बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त और बादर जलकायिक पर्याप्त जीवोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति संख्यात हजार वर्ष प्रमाण कही है सो इस क्रमसे उक्त जीवोंके अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल जानना चाहिये।
५७. अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक और बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय कम खुद्दाभवग्रहण प्रमाण है। इतनी विशेषता है कि पर्याप्तकोंके अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय कम अन्तर्मुहूर्त है। तथा उपर्युक्त सभी जीवोंके अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट सत्त्वकाल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है।
विशेषार्थ-उक्त कायवाले जीवोंके भवके पहले समयमें उत्कृष्ट स्थितिका प्राप्त होना सम्भव है अतः इनके उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । पर्याप्त जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और शेवका खुद्दाभवग्रहण प्रमाण है अतः इस जघन्य काल में से उत्कृष्ट स्थितिके कालके एक समय घटा देने पर जो एक समय कम खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और एक समय कम अन्तर्मुहूर्त काल बचता है वह इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल है। इनमेंसे कौन किसका काल है यह खुलासा मूलमें ही किया है। तथा अग्निकायिक और वायुकायिकका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक प्रमाण है। बादर अग्निकायिक और बादर वायकायिकका कर्मस्थितिप्रमाण है और बादर अग्निकायिक पर्याप्त तथा बादर वायुकायिक पर्याप्तका उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है । इस प्रकार इनके अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल ऊपर कही गई अपनी अपनी कास्थिति प्रमाण जानना ।
६५८. वनस्पतिकायिक जीवोंके एकेन्द्रियोंके समान, बादर वनस्पतिकायिक जीवोंके बादर
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[हिदिविहत्ती ३
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भंगो। बादरवणप्फदिकाइयपज्जत्ताणं बादरेइंदियपज्जत्तभंगो।
५६. पंचमण-पंचवचि० मोह० उक्क० अणुक्क० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्त। एवं वेउव्वियकाय० वत्तव्वं । ओरालि० मोह० उक्क० ओघभंगो। अणुक्क० के० ? जह० एगसमयो, उक्क० बावीसवाससहस्साणि देसूणाणि । ओरालियमिस्स० मोह० उक्क० के० ? जहण्णुक्क० एगसमओ । अणुक्क० ज. खुद्दाभवग्गहणं तिसमऊणं, उक्क० अंतोमु०।।
६०. वेउव्वियमिस्स० मोह. उक्क० जहण्णुक्क० एगसमओ, अणुक्क० जह अंतोमहत्तं समऊणं, उक्क० अंतोमु० । एवमाहारमिस्स०-उवसम०-सम्मामि० वत्तव्वं । आहार० मोह० उक्क० जहण्णुक्क० एगसमओ । (अणुक्क०) ज० एगस०, उक्क० अंतोमु । एवमवगद-अकसा०-सुहुमसांप०-जहाक्वाद. वत्तव्वं । कम्मइय० मोह० उक्का जहण्णुक्क० एगस०, अणुक्क० जह० एगसमत्रो, उक्क तिणि समया। एकेन्द्रिय जीवोंके समान और बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त जीवोंके बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके समान काल जानना चाहिये। तात्पर्य यह है कि इनके सब प्रकारसे एकेन्द्रिय और उनके भेदप्रभेदोंके समान उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका काल बन जाता है।
५६. पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय है तथा उत्कृष्ट सत्त्वकाल अन्तर्महूर्त है। इसी प्रकार वैक्रियिककाययोगी जीवोंके कहना चाहिये । औदारिककाययोगी जीवोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वका ओघके समान है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल कुछ कम बाईस हजार वर्ष है। औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य और उत्कृष्ट दोनों एक समय हैं। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल तीन समय कम खुद्दाभवग्रहण प्रमाण और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अन्तमुहूर्त है।
६०. वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय कम अन्तर्महूर्त और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अन्तमुहूर्त है । इसी प्रकार आहारकमिश्रकाययोगी, उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके कहना चाहिये। आहारककाययोगी जीवोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार अपगतवेदी, अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिये । कामणकाययोगी जीवोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल तीन समय है।
विशेषार्थ-पांचों मनोयोग और पांचों वचनयोगोंका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है अतः इनके मोहनीयकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्यकाल एक
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गा० २२.]
हिदिविहत्तीए कालो ६१. इत्थि० मोह० उक्क० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । अणुक्क० जह० एगसमो, उक्क. सगहिदी । एवं पुरिस ।
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समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बन जाता है । यही बात वैक्रियिक काययोगमें जानना चाहिये। औदारिक काययोगमें अनुत्कुष्ट स्थितिके उत्कृष्टकालमें कुछ विशेषता है । बातयह है कि औदारिककाययोगका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कम बाईस हजार वर्षप्रमाण है और इतने काल तक जीवके इसमें मोहनीयकी अनुत्कृष्ट स्थिति पाई जाती है, अतः औदारिककाययोगमें अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा। औदारिक मिश्रकाययोगके पहले समयमें ही उत्कृष्ट स्थिति हो सकती है अतः औदारिकमिश्रकाययोगमें उत्कृष्ट स्थिति का जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय कहा । पर ऐसा जीव निवृत्यपर्याप्त होगा। इससे सिद्ध हुआ कि लब्ध्यपर्याप्तक औदारिक मिश्रकाययोगीके अनुत्कृष्ट स्थिति ही होती है। अब यदि कोई जीव तीन मोड़ा लेकर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकोंमें उत्पन्न हो तो उसके खुद्दभिवग्रहणप्रमाण कालमें से तीन समय और कम हो जायेंगे अतः औदा. रिकमिश्रकाययोगमें अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्यकाल तीन समय कम खुद्दाभवग्रहणप्रमाण कहा। तथा इसके अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्टकाल अन्तर्महूर्त होता है यह स्पष्ट ही है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगके पहले समयमें ही उत्कृष्ट स्थिति हो सकती है,अतः इसके उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा। तथा उत्कृष्ट स्थितिके इस एक समयको कम कर देने पर जो वैक्रियिकमिश्रका एक समय कम अन्तर्महूर्त काल शेष रहता है वह अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त होता है यह स्पष्ट ही है । आहारकमिश्रकाययोगी, उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके भी इसी प्रकार कथन करना चाहिये क्योंकि इनके भी पहले समयमें ही उत्कृष्ट स्थिति सम्भव है, अतः इनके उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय बन जाता है। तथा इस एक समयको कम कर देने पर उक्त मार्गणाओंका जो एक समय कम अन्तर्मुहूर्त प्रमाण काल शेष बचता है वह उनकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल है और उत्कृष्टकाल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण अन्तर्महूर्त होता है यह स्पष्ट ही है। आहारककाययोगके पहले समयमें ही उत्कृष्ट स्थिति सम्भव है अतः इसमें उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा। जो जीव एक समय तक आहारक काययोगके साथ रहकर दूसरे समयमें मरणादि निमित्तोंसे अन्य योगको प्राप्त हो जाते हैं उनके अनुत्कष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है अतः आहारक काययोगमें अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय कहा। तथा उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त आहारक काययोगके उत्कृष्ट कालकी अपेक्षासे कहा । अपगतवेदी, अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिक संयत और यथाख्यातसंयत इन मार्गणाओंकी स्थिति आहारक काययोगके समान . है अतः इनमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका काल आहारककाय योगके समान कहा । कार्मणकाय योगके पहले समयमें उत्कृष्ट स्थिति सम्भव है अतः इसमें भी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । तथा कार्मणकाययोगका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्टकाल तीन समय है अतः इसमें अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय कहा है।
६१. स्त्रीवेदी जीवोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अन्तमहूर्त है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अपनी स्थितिप्रमाण है। इसी प्रकार पुरुषवेदी जीवोंके कहना चाहिये।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ ६२. चत्तारिकसाय० मोह० उक्क० अणुक्क० जह० एगसमो, उक्क० अंतोमुः।
६३. विहंग० सत्तमपुढविभंगो। णवरि अणुक्क० उक्क० तेत्तीस सागरो० अंतोमुहुत्तूणाणि । आभिणि-सुद०-ओहि० मोह० उक्क० केव०' ? जहण्णुक्क० एगसमो। अणुक्क जह• अंतोम०, उक्क० छावहिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । एवमोहिदंस-सम्मादि-वेदयसम्मादि० । णवरि वेदयसम्मत्तम्मि अणुक्क छावहिसागरोवमाणि । मणपज० मोह० उक्क० जहण्णुक्क० एगसमो, अणुक्क० जह. अंतोमुहुत्, उक्क० पुव्वकोडी देसूणा। एवं संजद-परिहार०-संजदासंजद० । सामाइय-छेदो० एवं चेव । णवरि अणुक्क० जह० एगसमओ । चक्खु० तसपज्जत्तभंगो।
विशेयार्थ-स्त्रीवेद और पुरुषवेदमें उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय और अन्तर्मुहूर्त ओघके समान घटित कर लेना चाहिये। जो स्त्रीवेदसे अपगतवेदको प्राप्त हुआ जीव उपशमश्रेणीसे उतरते हुए एक समयके लिये स्त्रीवेदी हुआ और दूसरे समयमें मरकर अन्यवेदी हो गया उस स्त्रीवेदीके अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। या जिस स्त्रीवेदी या पुरुषवेदी जीवने उत्कृष्ट स्थितिके पश्चात् एक समयके लिये अनुत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त किया और दूसरे समयमें वह मर कर अन्यवेदी हो गया उस स्त्रीवेदी या पुरुषवेदीके अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। तथा इनके अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी पल्योपमशतपृथक्त्व व सागरोपमशतपृथक्त्व स्थितिप्रमाण है यह स्पष्ट ही है।
६२. चारों कषायवाले जीवोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अन्तर्महूर्त है। तात्पर्य यह है कि चारों कषायोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है अतः इनमें उक्त प्रमाण काल बन जाता है ।
६३. विभंगज्ञानी जीवोंके सातवीं पृथिवीके समान जानना चाहिये । पर इतनी विशेषता है कि इनके अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट सत्त्वकाल अन्तमुहूर्त कम तेतीस सागर है । आभिनिबोधिकज्ञानी श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट सत्त्वकाल साधिक छयासठ सागर है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि वेदकसम्यक्त्वमें अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट सत्त्वकाल पूरा छयासठ सागर है । मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट सत्त्वकाल कुछ कम एक पूर्वकोटि है । इसी प्रकार संयत, परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवोंके जानना चाहिये । तथा सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंके भी इसी प्रकार जानना चाहिए। पर
१. केव० जह० उक्क० केव० जहण्णु० इति पाठः।
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गा० २२ ]
हिदिविहत्ती कालो
३५
मोह० उक्क०
घभगो ।
६४. किण्ह० -- णील० काउ० ते ० पम्म० अणुक्क० जह० अंतोमु० एगेसमओ, उक्क० सगुक्कसहिदी | मुक्क० मोह० उक्क० जहण्णुक्क० एगसमय । अणुक्क० जह० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीस सागरोवइतनी विशेषता है कि इनके अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय होता है । चक्षुदर्शनी जीवोंमें सपर्याप्तकों के समान जानना चाहिये !
विशेषार्थ - विभंगज्ञान पर्याप्त अवस्थामें ही होता है अतः इसके अनुत्कृष्ट स्थिति के उत्कृष्ट कालको अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागर कहा। शेष कथन सुगम है। आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतिज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों के उत्कृष्ट स्थितिका प्राप्त होना पहले समय में ही सम्भव है, अतः इनके उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय कहा । जो जीव अन्तर्मुहूर्त तक सम्यग्दृष्टि रहा पश्चात् सम्यक्त्वसे च्युत हो गया या सम्यक्त्व प्राप्तिके बाद जिसने अन्तर्मुहूर्त में केवलज्ञान प्राप्त कर लिया उसके उक्त तीन ज्ञानोंके रहते हुए अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है । तथा आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञानका उत्कृष्टकाल चार पूर्वकोटि अधिक छ्यासठ सागर है अतः इनके अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल साधिक छ्यासठ सागर कहा । यहाँ पर अधिक चार पूर्वकोटियों का ग्रहण करना चाहिये । अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीव भी इसी प्रकार उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका काल कहना चाहिये । किन्तु वेदकसम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल पूरा छयासठ सागर है, अतः इसके अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल पूरा ध्यासठ सागर होगा । जो जीव मन:पर्ययज्ञानको प्राप्त होता है उसके प्रथम समयमें ही उत्कृष्ट स्थिति सम्भव है अतः मन:पर्ययज्ञानीके उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । तथा मनःपयर्यंज्ञानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण है, अतः इसके अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटिप्रमाण कहा । यहां कुछ कमसे आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त लिया है । पूर्वकोटिमेंसे इतना काल कम कर देना चाहिये । संयत, परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयतकी स्थिति मन:पर्ययज्ञानके समान है अतः इनमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके कालको मन:पर्ययज्ञानके समान कहा । परन्तु इतनी विशेषता है कि परिहारविशुद्धिसंयतका उत्कृष्ट काल ३८ वर्ष कम एक पूर्वकोटि वर्ष है और संयतासंयतका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कम एक पूर्व कोटि वर्षं है । जो जीव उपशमश्रेणी से उतर कर और एक समय तक नौवें गुणस्थान में रह कर मर जाता है उसके सामायिक और छेदोपस्थापना संयतका जघन्य काल एक समय पाया जाता है, अतः इनके अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय बन जाता है । शेष कथन मन:पर्ययज्ञानके समान है । त्रसपर्याप्त से चक्षुदर्शनीकी स्थिति में अन्तर नहीं है अतः चक्षुदर्शनी के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका काल त्रस - पर्याप्त के समान कहा ।
$ ६४. कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोत लेश्यावाले, पीतलेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले जीवोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल ओघ के समान है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल प्रारंभकी तीन लेश्यावालोंके अन्तर्मुहूर्त और पीत तथा पद्मलेश्यावालोंके एक समय है । तथा उत्कृष्ट सत्त्वकाल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । शुक्ल लेश्यावाले जीवोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ माणि सादिरेयाणि । एवं खइय० वत्तव्वं ।
६५. सासण. मोह० उक्क. जहण्णुक्क० एगसमओ । अणुक्क० जह० एगसमो, उक्क छ आवलियाओ। सण्णि० पुरिसभंगो। असण्णि० एइंदियभंगो । आहारि० मोह० उक्क० ओघभंगो। अणुक्क० जह• एगसमओ, उक्क० सगहिदी । अणाहारि० कम्मइयभंगो।
एवमुक्कस्सकालाणुगमो समत्तो । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट सत्त्वकाल साधिक तेतीस सागर है। इसी प्रकार क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवोंके कहना चाहिये ।
विशेषार्थ-मरते समय यदि अशुभ लेश्या हो तो दूसरी पर्यायमें उत्पन्न होने पर अन्तर्मुहूर्त काल तक वही लेश्या बनी रहती है पर पीत और पद्म लेश्याकी यह बात नहीं, क्योंकि उक्त लेश्यावाला यदि कोई देव तिर्यंचोंमें उत्पन्न होता है तो उसके तिर्यंच पर्यायमें कापोत लेश्या हो जाती है, अतः तीन अशुभ लेश्याओंमें अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त ही प्राप्त होता है। तथा पीत और पद्म लेश्यामें अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय भी प्राप्त हो जाता है। जैसे किसी पीत या पद्म लेश्यावाले देवने आयुके उपान्त्य समयमें मोहनीयका उत्कृष्ट बंध किया और अन्तके एक समय में पीत तथा पद्म लेश्याके साथ अनुत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाला हो गया। फिर मरकर तिर्यंचोंमें उत्पन्न होनेसे लेश्या पलट गई । इस प्रकार पीत व पद्मलेश्यामें अनुत्कृष्ट स्थिति विभक्तिका जघन्य काल एक समय होता है। शुक्ल लेश्याके तो पहले समयमें ही उत्कृष्ट स्थिति सम्भव है अतः इसके उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । लेश्याओंमें शेष कथन सुगम है। क्षायिकसम्यक्त्व की स्थिति शुक्ल लेश्याके समान है, अतः इसके कथनको शुक्ल लेश्याके समान कहा। इतनी विशेषता है कि शुक्ल लेश्याका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त अधिक तेतीस सागर है और क्षायिक सम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल आठ वर्ष अन्तमुहूर्त कम दो पूर्वकोटि अधिक तेतीस सागर है। अतः इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल कहते समय अपना अपना काल कहना चाहिये।
६५. सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल छह आवली है। संज्ञी जीवोंके पुरुषवेदी जीवोंके समान जानना चाहिये। असंज्ञी जीवोंके एकेन्द्रियों के समान जानना चाहिए। आहारक जीवोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल ओघके समान है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अपनी स्थितिप्रमाण है। अनाहारक जीवोंके कार्मण काययोगियोंके समान जानना चाहिये ।
. विशेषार्थ सासादनका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल छह श्रावलि है, अतः इसके अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल' छह आवलिप्रमाण प्राप्त होता है। किन्तु सासादनसम्यग्दृष्टिके उत्कृष्ट स्थिति पहले समयमें ही प्राप्त हो सकती है। अतः इसके उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा। जो आहारक उपान्त्य समयमें उत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त करके अन्त समयमें अनुत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त करता है और तीसरे
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गा ० २२ ]
हिदिविहत्तीए कालो ६६. जहण्णए पयदं दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोह० जह० के० ? जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ। अजहण्ण० अणादिओ अपज्जवसिदो अणादियो सपज्जवसिदो वा । एवमचक्खु०-भवसि० । सादिसपज्जवसिदभंगो अजहण्णस्स णत्थि; जहण्णहिदीदो चरिमसमयमुहुमसांपराइयखवयस्स अजहण्णहिदीए णिवायाभावादो। उवसंतकसाए मोहोदयवज्जिदे हेहा णिवदिदे अजहण्ण हिदीए सादित्तं किण्ण घेप्पदे ? ण, उवसंतकसाए वि मोह. अजहण्ण हिंदीए सब्भावुवलंभादो ।
६७. आदेसेण णिरय. मोह. जह० जहएणुक्क० एगसमओ । अजहएण समयमें मरकर अनाहारक हो जाता है उसके आहारकके अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है और उत्कृष्टकाल अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी उत्सर्पिणी प्रमाण है। शेष कथन सुगम है ।
इस प्रकार उत्कृष्ट कालानुगम समाप्त हुआ। ६६. अब जघन्य कालानुगम प्रकरण प्राप्त है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मोहनीयकी जघन्य स्थितिका कितना सत्त्वकाल है ? जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है। तथा अजघन्य स्थितिका सत्त्वकाल अनादि अनन्त और अनादि-सान्त है। इसी प्रकार अचक्षुदर्शनी और भव्य जीवोंके जानना चाहिये। अजघन्य स्थितिका सादि-सान्त भंग नहीं है, क्योंकि क्षपक सूक्ष्मसांपरायिक जीवके अन्तिम समयमें मोहनीयकी जघन्य स्थिति होती है और उससे जीवका अजघन्य स्थितिमें पतन नहीं होता। अर्थात् सामान्यसे मोहनीयकी जघन्य स्थिति क्षपक सूक्ष्मसांपरायिक जीवके अन्तिम समयमें होती है और वह जीव तदनन्तर क्षीणमोह हो जाता है पुनः वह अजघन्य स्थितिमें लौटकर नहीं जाता है, अतः अजघन्य स्थितिका सादि-सान्त भंग नहीं है।
शंका-मोहनीय कर्मके उदयसे रहित उपशान्तकषाय जीव जब नीचे दसवें गुणस्थानमें आता है तब उसके अजघन्य स्थितिका सादिपना क्यों नहीं लिया जाता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि उपशान्तकषायमें भी मोहनीयकी अजघन्य स्थितिका सद्भाव पाया जाता है, अतः सामान्यकी अपेक्षा मोहनीयकी अजघन्य स्थितिमें सादि-सान्त भंग नहीं बनता।
विशेषार्थ-क्षपक सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके अन्तिम समयमें सूक्ष्म लोभका उदयरूप निषेक शेष रहता है जो उसी समय फल देकर निर्जीर्ण हो जाता है, अतः ओघसे मोहकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा। तथा पूरे मोहनीयका अभाव होकर पुनः उसका सद्भाव नहीं होता, अतः ओघसे मोहकी अजघन्य स्थितिका काल अनादि-अनन्त और अनादि-सान्त ही होता है, सादि-सान्त नहीं। इनमें से अनादि-अनन्त काल अभव्योंकी अपेक्षा कहा और अनादि-सान्त काल भव्योंकी अपेक्षा कहा। यह अोघप्ररूपणा अचक्षदर्शनवाले और भव्योंके अविकल बन जाती है, अतः इनकी प्ररूपणाको ओघके समान कहा। यहां इतना विशेष जानना चाहिये कि भव्योंके मोहकी अजघन्य स्थितिका अनादि-अनन्त विकल्प नहीं बनता। अथवा जो भव्य अभव्योंके समान हैं उनकी अपेक्षा यह विकल्प भव्योंके भी बन जाता है।
६७. आदेशसे नरकगतिमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे. [द्विदिविहत्ती ३ . जह• एगसमो, उक्क० सगुक्कस्सहिदी । पढमाए ज० जहण्णुक्क० एगसमओ। अज. जह० एयसमओ, उक्क० सागरोवमं । विदियादि जाव छहि ति मोह० ज० जहण्णुक० एगसमओ । अजहण्ण० जहण्णेण जहण्णहिदी, उक्कस्सेण उक्स्सहिदी। सत्तमाए पुढवीए मोह० जहण्णहिदी जह० एगसमओ, उक्क, अंतोमु० । अजहण्ण० ज० अंतोसु०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि ।
सत्त्वकाल एक समय है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। पहले नरकमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक सागर है। दसरे नरकसे लेकर छठे नरक तक प्रत्येक नरकमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल अपनी अपनी जघन्य स्थितिप्रमाण है और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। सातवें नरकमें मोहनं यकी जघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अन्तर्मुहूर्त है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट सत्त्वकाल तेतीस सागर है ।
विशेषार्थ-जो असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव हजार सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबंधमेंसे पल्योपमके संख्यातवें भाग प्रमाण कम जघन्य स्थिति सत्कर्मको प्राप्त करके पुनः जघन्य स्थिति सत्त्व होनेके समय ही जघन्य स्थिति सत्त्वके समान स्थितिको बांधकर दो समय विग्रह करके नरकगति में उत्पन्न होता है और विग्रहमें असंज्ञी पंचेन्द्रियके जघन्य स्थिति सत्त्वसे हीन स्थितिका बंध करता है उसके दूसरे विग्रहके समय मोहनीयकी जघन्य स्थिति प्राप्त होती है,अतः नरकमें जघन्यस्थितिका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय कहा। तथा ऐसे नारकीके पहले समयमें अजघन्य स्थिति रहती है अतः नरकमें अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय कहा। तथा नरकमें अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल नरककी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण होता है यह स्पष्ट ही है। सामान्य नारकियोंके समान पहले नरकमें भी मोहकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय घटित कर लेना चाहिये। पहले नरककी उत्कृष्ट स्थिति एक सागरं है अतः यहां अजघन्य स्थितिका उत्कृष्टकाल एक सागर कहा । दूसरे नरकसे लेकर छठे नरक तकके नारकियोंके मोहकी जघन्य स्थितिका प्राप्त होना भवके अन्तिम समयमें ही सम्भव है अतः इनके जघन्य स्थिति का जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । किन्तु यह जघन्य स्थिति अपने अपने नरककी उत्कृष्ट स्थितिवाले जीवके ही प्राप्त हो सकती है सो भी सबके नहीं, अतः अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अपने अपने नरककी जघन्य स्थितिप्रमाण और उत्कृष्टकाल अपने अपने नरककी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहा। सातवें नरकमें उत्कृष्ट आयुवाला जो नारकी पर्याप्ति पूर्ण करके अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा सम्यक्त्वको प्राप्त होकर दूसरे अन्तमुहूर्तके द्वारा अनन्तानुबन्धी स्थितिसत्कर्मकी विसंयोजना कर जीवन भर सम्यक्त्वके साथ रहा और अन्तर्मुहूर्त आयु शेष रहने पर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ पुनः मिथ्यात्वमें जितने काल तक शक्य हो उतने काल तक स्थिति सत्कर्मसे हीन बंध करके अगले समयमें सत्त्व स्थितिसे अधिक स्थिति बंध करेगा, उस जीवके जघन्य स्थितिका जघन्यकाल एक समय प्राप्त होता है और जो सत्तामें स्थित स्थितिके समान स्थितिवाले कर्मका बंध करता रहता है उसके जघन्य स्थितिका उत्कृष्टकाल अन्त
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हिदिविहत्तीए कालो ६८. तिरिक्ख० मोह० जहण्णहिदी ज० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । अजहण्ण० ज० एगसमओ, उक्क० असंखेज्जा लोगा। एवं मदि-सुदअण्णाण-असंजद०अभव०-मिच्छादि०-असण्णि त्ति वत्तव्वं । णवरि असण्णिवजिएसु अज · ज० अंतोमु ।
$ ६६. पंचिंदियतिरिक्रवचउक्कम्मि मोह० जहण्णहिदी जह० एगसमो, उक्क० बे समया। अजहण्ण. जह• खुद्दाभवग्गहणं विसमऊणं, अंतोमुहु विसमऊणं (एत्थ
मुहूर्त होता है। तथा जघन्य स्थितिके बाद जो अन्तर्मुहूर्त काल शेष रह जाता है वह अजघन्य स्थितिका जघन्यकाल है। तथा अजघन्य स्थितिका उत्कृष्टकाल सातवें नरककी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण होता है, यह स्पष्ट ही है।
६८. तिथंच गतिमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अन्त मुहूर्त है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल असंख्यात लोकप्रमाण है। इसी प्रकार मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि असंज्ञियोंको छोड़कर शेष मत्यज्ञानी आदि जीवोंके अजघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल अन्तर्मुहूर्त है ।
विशेषार्थ-तिर्यंचोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थिति एकेन्द्रियोंके प्राप्त होती है और वह कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक रहती है, क्योंकि प्रत्येक स्थितिका जघन्य बन्धकाल एक समय और उत्कृष्ट बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त है। अतः इनके मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा। तथा जो तियंच जघन्य स्थितिके बाद एक समय तक अजघन्य स्थितिके साथ रहा और मरकर दूसरे समयमें अन्य गतिको प्राप्त हो गया उसके अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है । तथा तिर्यंच पर्यायमें मोहनीयकी अजघन्य स्थितिके साथ रहनेका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण है, अतः इनके अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक प्रमाण कहा । यह जो ऊपर सामान्य तिर्यंचोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल कहा वह एकेन्द्रियोंकी प्रधानतासे
और एकेन्द्रिय पर्यायके रहते हए मत्यज्ञान. ताज्ञान. असंयम. अभव्य, मिथ्याष्टि और असंज्ञी ये मार्गणाएँ सम्भव हैं ही अतः इनका कथन तिर्यंचोंके समान जानना। किंतु ऊपर अजघन्य स्थितिका जघन्यकाल जो एक समय कहा है वह असंज्ञी अवस्थामें ही प्राप्त होता है शेष मार्गणाओंमें नहीं, क्योंकि जो जीव जघन्य स्थितिके बाद एक समय तक अजघन्य स्थितिको प्राप्त हुआ और तदनन्तर मरकर अन्य गतिको प्राप्त हो जाता है इसके असंज्ञी मार्गणा तो बदल जाती है पर ऊपर कहीं हुई मार्गणाएँ नहीं बदलती अतः मत्यज्ञानी आदि उपर्युक्त शेष मार्गणाओंमें अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त जानना चाहिये ।
६६. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, योनिमती और लब्ध्यपर्याप्त इन चार प्रकारके तिर्यंचोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय है और उत्कृष्ट सत्त्वकाल दो समय है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल पंचेन्द्रिय तियच और लब्ध्यपर्याप्त पंचेन्द्रियतिथंचोंमें दो समय कम खुद्दाभवग्रहण प्रमाण और शेष दो प्रकारके तिर्यंचोंमें दो समय कम अन्तमुहूर्त है। यहां मूलोच्चारणाका पाठ है कि उक्त चारों प्रकारके तिर्यंचोंके अजघन्य
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [द्विदिविहत्ती ३ मूलुच्चारणापाठों जह० एयसमओ त्ति । तत्थायमहिप्पाओ एइंदिएमु समयुत्तरमसण्णिहिदि सण्णिहिदिघादवसेण कादूण गदस्स पढमविग्गहे तदुवलंभसंभवो त्ति । उक्कस्सेण सगहिदी ।
६७० मणुसतिय० मोह. जहण्णहिदी जहण्णुक्क० एगसमओ । अजह० जह.
स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय है। इसका यह अभिप्राय है कि जो संज्ञी एकेन्द्रियों में उत्पन्न हुआ और वहाँ उसने संज्ञीकी स्थितिका घात किया। अनंतर वह मरकर एक समय अधिक असंज्ञीके योग्य स्थितिके साथ उक्त चार प्रकारके तिर्यंचोंमें उत्पन्न हुआ तो उसके पहले विग्रहमें अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। तथा उक्त चारों प्रकारके तिर्यंचोंके अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट सत्त्वकाल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है।
विशेषार्थ-जो एकेन्द्रिय दो मोड़ा लेकर पंचेन्द्रिय तियेचचतुष्कमें उत्पन्न होते हैं उनके पहले और दूसरे समयमें मोहनीयकी जघन्य स्थिति सम्भव है अतः इनके मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय कहा। तथा इन दो समयोंको खुद्दाभवग्रहणप्रमाण अन्तर्मुहूर्त कालमें घटा देने पर जो दो समय कम खुद्दाभवग्रहणप्रमाण काल शेष रहता है वह पंचेन्द्रिय तिर्यंच और पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक तिर्यंचोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल होता है। तथा जो दो समय कम अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहता है वह पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती जीवोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल होता है। इन 'चार प्रकारके तियचोंके अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय होता है ऐसा मूलोच्चारणामें पाठ पाया जाता है सो उसका यह तात्पर्य है कि पहले कोई एक संज्ञी जीव एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ। अनन्तर उस एकेन्द्रियने संज्ञीकी स्थितिका घात किया और ऐसा करते हुए जब उसके असंज्ञीकी जघन्य स्थितिसे एक समय अधिक स्थिति शेष रह गई तब वह मरकर उक्त चार प्रकारके तियेंचोंमें उत्पन्न हो गया, इस प्रकार इन चारों प्रकारके तियचोंके पहले मोड़ेके समय अजघन्य स्थिति प्राप्त हो गई और स प्रकार अजघन्य स्थितिका भी एक समय काल बन जाता है। बात यह है कि एकेन्द्रियोंसे लेकर असंज्ञी तक जो जीव मर कर संज्ञियोंमें उत्पन्न होते हैं उनके अनाहारक अवस्थामें असंज्ञीके योग्य स्थितिका ही बन्ध होता है । हाँ ऐसे जीवोंके शरीर ग्रहण करनेके समयसे लेकर संज्ञियोंके योग्य स्थितिका बन्ध होने लगता है। अतः ऐसे संज्ञी जीवोंके पहले और दूसरे मोड़ेमें असंज्ञियोंकी जघन्य स्थिति भी पाई जाती है और यही इनकी जघन्य स्थिति हो जाती है । अब यदि कोई जीव एक समय अधिक असंज्ञियोंकी जघन्य स्थितिके साथ संज्ञियोंमें उत्पन्न हुआ तो उसके पहले मोड़ेमें अजघन्य स्थिति ही कही जायगी। यही सबब है कि मूलोच्चारणामें उक्त चार प्रकारके तिर्यंचोंके अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय भी माना है। तथा उक्त चार प्रकारके तिर्यंचोंमें जिसके जितनी कायस्थिति हो उतनी उनके अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल जानना चाहिये। किसके कितनी कायस्थिति है यह अन्यत्रसे जान लेना चाहिये।
७०. सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनी इन तीन प्रकारके मनुष्योंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है। तथा अजघन्य
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गा • २२]
. द्विदिविहत्तीए कालो खुद्दाभवग्गृहणं अंतोमुहु, उक्क० सगहिदी । मणुसअपज्ज. पंचिंदियतिरिक्खअपजत्तभंगो।
७१. देव० मोह० जहण्णहिदी जहएणुक० एगसमओ । अजह० जह• एगसमओ, उक्क० सगहिदी । भवण-वाण० मोह० जहण्णहिदी जहण्णुक्क० एयसमओ । अजह० जह• एयसमओ, उक्क. सगसगुक्कस्सहिदी। जोदिसियादि जाव सव्वह० त्ति जह हिदि० जहएणुक० एगसमओ। अजहण्ण० जहएणुक० जहएणुकस्सहिदी। स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल सामान्य मनुष्योंके खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और शेष दोके अन्तर्मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट सत्त्वकाल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है । लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंके जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल पंचेन्द्रियतिर्यञ्च लब्ध्यपर्याप्तकोंके समान जानना।
विशेषार्थ-सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनी इन तीन प्रकारके मनुष्यों के मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल जो एक समय बतलाया है सो इसका खुलासा जिस प्रकार ओथप्ररूपणाके समय कर आये हैं उस प्रकार कर लेना चाहिये । तथा सामान्य मनुष्यका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और शेष दो प्रकारके मनुष्योंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है, अतः इनके अजघन्य स्थितिका जघन्य काल उक्त प्रमाण कहा। तथा अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट कायस्थितिप्रमाण होता है यह स्पष्ट ही है। इस विषयमें लब्ध्यपर्याप्त मनुष्यकी स्थिति लब्ध्यपर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंचके समान है, अतः इसके जघन्य और अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल लब्ध्यपर्याप्त पंचेन्द्रिय तिचके समान कहा।
___७१. देवोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अपनी स्थितिप्रमाण है। भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। ज्योतिषियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंके जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल क्रमसे अपनी अपनी जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है।
विशेषार्थ-जिस प्रकार सामान्य नारकियोंके मोहनीयकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल घटित करके लिख आये हैं उसी प्रकार सामान्य देवोंके घटित कर लेना चाहिए। तथा भवनवासी और व्यन्तर देवोंके भी इसी प्रकार जानना । विशेष बात इतनी है कि इनके अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण होता है, क्योंकि इतने काल तक उनके मोहकी अजघन्य स्थिति पाई जा सकती है। ज्योतिषियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंके मोहनीयकी जघन्य स्थिति भवके अन्तिम समयमें ही सम्भव है, अतः इनके जघन्य स्थितिका अघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा। पर यह जघन्य स्थिति उत्कृष्ट आयुवालेके होती है और वह भी सबके नहीं अतः अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अपनी अपनी जघन्य स्थितिप्रमाण और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहा ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ द्विदिविहती ३
९ ७२. एइ दिय० मोह० जह० के० ? जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्त । अज० के० ? जह० एगसमओ, उक्क० असंखेज्जा लोगा । एवं सुहुमेइ दिय० । बादरेइ दिय० - बादरेइंदियपज्ज० मोह० जहण्णहिदि० के० ? ज० एगसमओ, उक्क ० अंतोमु० । अजहण्ण० के० ? ज० एगसमय, उक्क० सगहिदी । बादरेइंदिय अपज्ज० जहण्णा जहण्णहिदी ज० एगसमत्रो, उक्क० पंचकायाणं बादर पज्ज - सुहुमपज्जत्तापज्जत्त
०
सुहुमपज्ज • सुहुमापज्ज० मोह अंतोमु० । एवं विगलिंदियअपज्ज० ओरालियमिस्स ० वत्तव्वं ।
४२
९ ७३. विगलिंदिय - विगलिंदियपज्ज० मोह० जहण्णहिदी जह० एयसमत्रो, उक्क० बे समया; परत्थाणसामित्तावलंबणादो । अजहण्ण० जह० खुदाभवग्गहणं विसमऊणं अंतोमुहुत्तं विसमऊणं एगसमओ वा, उक्क० संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि ।
९ ७२. एकेन्द्रिय जीवों में मोहनीयकी जघन्य स्थितिका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अन्तर्मुहूर्त है । तथा अजघन्य स्थितिका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल असंख्यात लोकप्रमाण है । इसी प्रकार सूक्ष्म एकेन्द्रिय, जीवोंके जानना चाहिए । बादरएकेन्द्रिय और बादरएकेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अन्तमुहूर्त है। तथा अजघन्य स्थितिका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमारण है । बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक और सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीवों में मोहनीयकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय है । तथा उत्कृष्ट सत्त्वकाल अन्तर्मुहूर्तं है । इसी प्रकार विकलेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक, पांचों स्थावर काय बादर लब्ध्यपर्याप्तक, पांचों स्थावर काय सूक्ष्मपर्याप्तक और लब्ध्यपर्याप्तक तथा औदारिक मिश्रकाययोगी जीवों के कहना चाहिये ।
विशेषार्थ — सामान्य एकेन्द्रिय और उनके जितने भेद प्रभेद हैं उनमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल सामान्य तिर्यंचों के समान घटित कर लेना चाहिये । किन्तु अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण जानना चाहिये, क्योंकि जिसकी जितनी काय स्थिति बतलाई है उसके उतने काल तक मोहनीयकी अजवन्य स्थिति पाई जा सकती है । किन्तु एकेन्द्रिय जीवोंके अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण ही होता है । तथा विकलत्रय अपर्याप्त, पांचों स्थावर काय बादर अपर्याप्त, पांचों स्थावर काय सूक्ष्म पर्याप्त और अपर्याप्त तथा औदारिक मिश्र - काययोगी जीवों भी इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिये । किन्तु इनके अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होता है, क्योंकि इनका उत्कृष्ट काल इससे अधिक नहीं है ।
९ ७३. विकलेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय पर्याप्तक जीवों में मोनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल दो समय है । यह काल परस्थान स्वामित्वका अवलम्बन करने से प्राप्त होता है । तथा मोहनीयकी अजघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल
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गा० २२]
द्विदिविहत्तीए कालो ७४ पंचिंदिय-पंचिं०पज्ज०-तस-तसपज्ज० मोह • जहण्णहिदी जहएणुक्क० एगसमओ । अजहण्ण० ज० खुद्दाभवग्गहणं अंतोमु०, उक्क० सगसगुक्कस्सहिदी ।
७५. पंचकायमुहुमाणं सुहुमेइंदियभंगो। बादरपुढवि०-बादरआउ०-बादरतेउ०-बादरवाउ०-बादरवणप्फदिपत्रेय० तेसिं पज्जत्त० जहण्णहिदी ज० एयसमी, उक्क० अंतोमु०। अजहण्ण० जह० एगसमत्रो, उक्क० सगहिदी । वणप्फदि०-णिगोद.
क्रमसे दो समय कम खुद्दाभवग्रहण प्रमाण और दो समय कम अन्तमुहूर्त है या एक समय है और उत्कृष्ट सत्त्वकाल संख्यात हजार वर्ष है।
विशेषार्थ-जिस एकेन्द्रियने हतसमुत्पत्ति क्रमसे विकलत्रयके योग्य जघन्य स्थिति प्राप्त की अनन्तर वह मरा और दो मोड़ोंके साथ विकलत्रयोंमें उत्पन्न हुआ तो उसके पहले और दूसरे मोड़ेमें जघन्य स्थिति पाई जाती है, अतः विकलत्रयके मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय कहा। यहां यह जो जघन्य स्थितिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय बतलाया है सो जो जीव एकेन्द्रियोंमेंसे 'आकर विकल
कलत्रयों में उत्पन्न होता है उसकी अपेक्षासे बतलाया है यही यहां परस्थान स्वामित्वका अवलम्बन है। तथा इन दो समयोंको खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और अन्तमुहूर्त कालमेंसे घटा देने पर जो दो समय कम खुद्दाभवग्रहणप्रमाण काल शेष रहता है वह सामान्य विकलत्रयों के मोहनीयकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल होता है। तथा जो दो समय कम अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहता है वह पर्याप्त विकलत्रयोंके मोहनीयकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल होता है। तथा इन दोनों प्रकारके विकलत्रयोंके अजघन्य स्थितिका जो जघन्यकाल एक समय बतलाया है सो यह मूलोच्चारणाके पाठके अनुसार बतलाया है और इसका खुलासा जिस प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यंच चतुष्कके कर आये हैं उसी प्रकार यहां भी कर लेना चाहिये । उक्त दोनों प्रकारके विकलत्रयोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति संख्यात हजार वर्ष है और इतने कालतक इनके मोहनीयकी अजघन्य स्थिति प्राप्त होनेमें बाधा नहीं आती है, अतः इनके अजघन्य स्थितिका उत्कृष्टकाल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण कहा है ।
७४. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस और त्रसपर्याप्तक जीवोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है । तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल खुद्दाभवग्रहण प्रमाण और अन्तमुहूर्त है । तथा उत्कृष्ट सत्त्वकाल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है।
विशेषार्थ-पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस और त्रस पर्याप्त जीवोंके मोहनीयकी जघन्य स्थिति दशवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें प्राप्त होती है, अतः इनके जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा। शेष कथन सुगम है।
७५. पाँचों स्थावरकाय तथा उनके सूक्ष्म जीवोंके सूक्ष्म एकेन्द्रियोंके समान है। बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर वायुकायिक और बादर वनस्पति प्रत्येक शरीर जीवोंके तथा इन सब पर्याप्त जीवोंके जघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्वकाल अन्तमुहूर्त है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ठ सत्त्वकाल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। वनस्पतिकायिक और
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [द्विदिविहत्ती ३ एइंदियभंगो । पंचिंदियअप०-तस अप० पंचिंतिरिक्खअपजत्तभंगो ।
७६. पंचमण-पंचवचि० मोह० जहण्णहिदी जहएणुक्क० एयसमश्रो । अजहण्ण० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । एवमवगद० -अकसा-मुहुमसांपरांय-जहाक्खाद० वत्तव्वं ।
७७. ओरालिय० मोह० जहण्णहिदी जहण्णुक्क० एगसमओ। अजहण्ण० ज० एगसमओ, उक्क० वावीस वाससहस्साणि देसूणाणि । वेउव्विय० मणजोगिभंगो । वेउव्वियमिस्स० मोह० जहण्णहिदी जहण्णुक्क० एगसमओ । अजहण्ण० जहएणुक्क० अंतोमुहत्तं । कायजोगि० मोह० जहण्णहिदी० जहएणुक्क० एगसमओ । अजहण्ण० जह० एगसमत्रो, जहण्णविहत्तियदुचरिमसमए कायजोगेण परिणदम्मि तदुवलंभादो । उक्क० अणंतकोलमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । एवं णवुस० वत्तव्यं । आहार०मणजोगिभंगो। आहारमिस्स० वेउव्वियमिस्सभंगो। कम्मइय० मोह० जहण्णहिदी जहण्णुक्क० एगसमओ । अज० जह० एनसमो, उक्क० तिण्णि समया। निगोद जीवोंके एकेन्द्रियोंके समान है। पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक और त्रस लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके पंचेन्द्रियतियश्च लब्ध्यपर्याप्तकोंके समान है।
६ ७६. पाँचों मनोयोगी और पाँचों वचनयोगी जीवों के मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अन्मुहूर्त है। इसी प्रकार अपगतवेदी, अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके कहना चाहिए
७७. औदारिक काययोगी जीवोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल कुछ कम बाइस हजार वर्ष है। क्रियिककाययोगी जीवोंके मनोयोगी जीवोंके समान जानना चाहिये। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है । तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अन्तर्मुहूर्त है। काययोगी जीवोंके मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय है। जो जघन्य स्थिति विभक्तिके द्विचरम समयमें काययोगके होनेपर पाया जाता है। तथा उत्कृष्ट सत्त्वकाल अनन्त कालप्रमाण है जिसका प्रमाण असंख्यात पुगदल परिवर्तन है। इसी प्रकार नपुंसकवेदी जीवोंके कहना चाहिये । आहारक काययोगी जीवोंके मनोयोगी जीवोंके समान जानना चाहिये । आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके वैक्रियिकमिश्र काययोगी जीवोंके समान जानना चाहिये। तथा कार्मणकाययोगी जीवोंके मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल तीन समय है।
विशेषार्थ-पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवोंके दशवें गुणस्थानके अन्त में जघन्य स्थिति प्राप्त होती है, अतः इनके जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय
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गा० २२ ]
द्विदिविहत्तीए कालो ७८. वेदाणुवादेण इत्थिवेदे० मोह० जह० जहण्णुक्क० एगसमयो । अज० ज० एगसमओ, उक्क० सगहिदी। पुरिस० मोह० जहण्णहिदी जहण्णुक्क० एगसमत्रो । अज० ज० अंतोमु०, उक्क० सगढिदी।
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कहा । तथा पांचों मनोयोग और पांचों वचनयोगोंका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है, अतः इनके अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त बन जाता है। औदारिककाययोगमें अजघन्य स्थितिके उत्कृष्टकाल में विशेषता है। बात यह है कि औदारिककाययोगका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त कम बाईस हजार वर्ष है अतः इसमें अजघन्य स्थितिका उत्कृष्टकाल उक्त प्रमाण प्राप्त होता है। शेष कथन मनोयोगियों के समान है। वैक्रियिककाययोगमें भी जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल मनोयोगके समान जानना। किन्तु जो क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव उपशमश्रेणीसे सर्वार्थसिद्धिमें जाता है उसके भवके अन्तिम समयमें यदि वैक्रियिककाययोग हो तो वैक्रियिककाययोगमें मोहनीयकी जघन्य स्थिति प्राप्त होती है, अतः वैक्रियिककाययोगमें इस प्रकार जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय घटित करके कहना चाहिये । वैक्रियिकमिश्रकाययोगके अन्तिम समयमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिका प्राप्त होना सम्भव है, अतः इसमें जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय कहा। तथा वैक्रियिकमिश्रकाययोगका जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है, अतः इसमें अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्टकाल अन्तमुहूर्त कहा । काययोगमें जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल मनोयोगके समान घटित कर लेना चाहिये । काययोगमें अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय होता है। इसका कारण यह बतलाया है कि जिस समय जवन्य स्थिति हुई उसके उपान्त्य समयमें यदि काययोग हो तो काययोगमें अजघन्य स्थितिका जघन्यकाल एक समय पाया जाता है। उदाहरणार्थ दशवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें जघन्य स्थिति होती है । वह यदि अन्तिम दो समयके लिये काययोगी हो जाय तो काययोगमें अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय प्राप्त हो जाता है। काययोगका उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है, अतः इसमें अजघन्य स्थितिका उत्कृष्टकाल उक्त प्रमाण कहा। काययोगियोंके समान नपुंसकोंके कथन करना चाहिये। किन्तु क्षपक नपुंसकके अन्तिम समयमें मोहनीयकी जघन्य स्थिति होती है इतना विशेष जानना। आहारक काययोगमें मनोयोगीके समान जघन्य और अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्टकाल पाया जाता है । किन्तु इतना विशेष है कि आहारक काययोगके अन्तिम समयमें मोहनीयकी जघन्य स्थिति होती है। शेष कथन सुगम है।
७८. वेदमार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदी जीवोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । पुरुषवेदी जीवोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है । तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है।
विशेषार्थ-क्षपकके स्त्रीवेदके उदयके अन्तिम समयमें मोहनीयकी जघन्य स्थिति होती है। इसी प्रकार पुरुषवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए, अतः इनके जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । उपशम श्रेणीसे उतर कर जो जीव एक समयके लिये स्त्रीवेदी हुआ और दूसरे समयमें मरकर देव हो गया उसके अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ ७६. चत्तारिकसाय० मोह० जहण्णहिदी जहएणुक्क० एगसमओ। अजह० ज० एगसमओ, उक्क० अंतोमु०।
८०. आभिणि-सुद०-ओहि० मोह० जहण्णहिदी जहएणुक्क० एगसमओ । अजह० जहण्णुक्कस्सेण जहण्णुक्कस्सहिदी। एवं मणपज्जव०-संजद-सामाइय-छेदो०परिहार०--संजदासंजद०--ओहिदंस०-सुक्कले०-सम्मादि-खइय०-वेदग० वसव्वं । विहंग जह० जहएणुक्क० एयसमओ। अजह० जह० एगसमो, उक्क० सगहिदी । चक्ख० तसपज्जत्तभंगो।
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है। तथा पुरुषवेदका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है,अतः पुरुषवेदमें अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त कहा । शेष कथन सुगम है । ---- ७६. चारों कषायवाले जीवोंके मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है । तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अन्तर्मुहूर्त है।
विशेषार्थ-क्षपक जीवके अपनी अपनी कषायके अन्तिम समयमें मोहनीयकी जघन्य स्थिति प्राप्त होती है, अतः इनके जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । तथा प्रत्येक कषायका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, अतः इनमें अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा।
८०. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंके मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय और अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल क्रमसे अपनी अपनी जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । इसी प्रकार मनःपयर्यज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके कहना चाहिये । विभंगज्ञानी जीवोंके जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । चक्षुदर्शनी जीवोंके सपर्याप्तकोंके समान जानना चाहिये। . विशेषार्थ-श्राभिनिबोधिकज्ञानी,श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी क्षपक जीवके दसवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें मोहनीयकी जघन्य स्थिति प्राप्त होती है, अतः इनके जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है । शेष कथन सुगम है । मूल में और जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें भी जघन्य स्थितिके स्वामित्वका विचार करके जघन्य स्थितिके जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समयका कथन करना चाहिये । जो चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला उपरिम अवेयकवासो देव आयुके अन्तिम अन्तमहूर्तमें मिथ्यात्वको प्राप्त हो गया उसके अन्तिम समयमें विभंगज्ञानमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय पाया जाता है। तथा जो अवधिज्ञानी शेष देव या नारकी अन्तिम समयमें मिथ्यादृष्टि हो जाता है उसके विभंगज्ञानमें अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है। तथा अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल विभंगज्ञानके उत्कृष्ट काल
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गा० २२ ]
हिदिविहत्तीए अंतरं ८१. किण्ह०-णील०-काउ० मोह० जहण्णहिदी ज० एगसमो, उक्क० अंतीमु० । अज० जह• एगसमो, उक्क० सगहिदी । तेउ० सोहम्मभंगो। पम्म० सहस्सारभंगो।
१८२. उवसम०-सम्मामि० आहारमिस्सभगो। सासण. मोह० जहण्णहिदी जहएणुक्क० एगसमओ। अजह० जह० एगसमो, उक्क० छ प्रावलियाओ। सण्णि. पुरिसभंगो । आहार० मोह. जहण्णहिदी जहष्णुक० एगसमओ। अज० ज० खुद्दाभवग्गहणं तिसमऊणं । उक्क० सगहिदी । अणाहार० कम्मइयभंगो।
व एवं कालाणुगमो समत्तो । ___ ८३. अंतराणुगमो दुविहो- जहण्णमुक्कस्सं चेदि । उक्कस्से पयदं । प्रमाण है यह स्पष्ट ही है । चक्षुदर्शनवालोंमें त्रस पर्याप्त मुख्य हैं, अतः चक्षुदर्शनके कथनको त्रसपर्याप्तकोंके समान कहा।
८१. कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले जीवोंके मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अन्तमुहूर्त है । तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। पीतलेश्यावाले जीवोंके सौधर्मस्वर्गके समान जानना चाहिए। पद्मलेश्यावाले जीवोंके सहस्रारस्वर्गके समान जानना चाहिये।
९८२. उपशस सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके समान जानना चाहिए । सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल एक समय है। तथा अजंघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और काल छह आवली है। संज्ञी जीवोंके पुरुषवेदियोंके समान जानना चाहिये। आहारक जीवोंके मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल तीन समय कम क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। अनाहारक जीवोंके कार्मणकाययोगी जीवोंके समान जानना चाहिये।
विशेषार्थ-कृष्णादि तीन लेश्याओंमें मोहनीयकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल सामान्य तिर्यंचोंके समान घटित कर लेना चाहिये। किन्तु इनके अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण जानना चाहिये, क्योंकि अपने अपने उत्कृष्ट काल तक अजघन्य स्थितिके निरन्तर रहने में कोई बाधा नहीं आती है। आहारकके दसवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें मोहनीयकी जघन्य स्थिति होती है अतः इनके जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा। तथा जो तीन मोड़ेसे लब्ध्यपर्याप्तकोंमें उत्पन्न होता है उसके आहारककाल तीन समयकम खुद्दाभवग्रहणप्रमाण पाया जाता है, अतः आहारकके अजघन्य स्थितिका जघन्य काल तीन समय कम खुद्दाभवग्रहण प्रमाण कहा । अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है यह स्पष्ट ही है । शेष कथन सुगम है।
६८३. अन्तरानुगम दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उनमें से उत्कृष्ट अन्तरानुगमका १. प्रतौ ज० एगसमझो खुद्दा-ईति पाठः। ...
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___ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ दुविहो णिद्देसो-अोघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण उक्कस्सहिदीअंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जह• अंतोमुहु, उक्क० अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अणुक्क० अंतरं के० ? जह० एगसमो, उक्क. अंतोमुहुत्तं । एवं तिरिक्ख०कायजोगि० .णवंस-मदि-सुदअण्णाण-असंजद०-अचक्खु०-भवसिद्धि-अभवसिद्धि-- मिच्छादिहि त्ति वत्तव्यं ।
____६८४. आदेसेण गेरइएसु मोह० उक्क० अंतरं जह• अंतोमु, उक्क० तेत्तीस सागरो० देसूणाणि । अणुकस्स० ओघमंगो। पढमादि जाव सत्तमि त्ति मोह० उक्क० अंतरं केवचिरं० ? ज० अंतोमुहुर्ता, उक्क० सगसगुक्कस्सहिदी देसूणा । अणुक० श्रोघभंगो।
प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेश निर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्थितिका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अंतरकाल अनंतकाल प्रमाण है। जिसका प्रमाण असंख्यात पुद्गल परिवर्तन है। अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अंतरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अंतर्मुहूर्त है । इसी प्रकार तिर्यंच, काययोगी, नपुंसकवेदी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अञ्चक्षुदर्शनी, भव्य, अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवोंके कहना चाहिये।
विशेषार्थ ऐसा नियम है कि जिसने कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया है वह यदि अनुकृष्ट स्थितिका बन्ध करने लगे तो कमसे कम अन्तमुहूर्त कालके पहले उस जीवमें उत्कृष्ट स्थितिके बन्ध करनेकी योग्यता नहीं आ सकती अतः मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा। तथा किसी संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तने मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति बांधी अनन्तर वह अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करने लगा और मर कर एकेन्द्रियादिमें उत्पन्न होकर अनन्त काल तक वहां घूमता रहा। पुनः एकेन्द्रियोंमें अनन्त कालके पूरे हो जाने पर वह संज्ञी पंचेन्द्रिय हुआ और पर्याप्त होनेके पश्चात् उसने मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया। इस प्रकार इस जीवके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका अन्तरकाल असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण प्राप्त होता है अतः ओघसे उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त प्रमाण कहा। ऐसा नियम है कि उत्कृष्ट स्थितिका बंध एक समय तक भी होता है, अतः अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अंतर एक समय प्राप्त हो जाता है । तथा उत्कृष्ट स्थितिका निरन्तर बन्ध अंतमुहूर्त काल तक होता है अतः अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त प्राप्त हो जाता है । मूलमें सामान्य तियेच आदि और जितनी मार्गणाए गिनाई हैं उनमें ही यह ओघ प्ररूपणा घटित होती है, अतः इनके कथनको अोधके समान कहा।
८४. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अंतरकाल अंतर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागर है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका अंतरकाल ओघके समान है। पहले नरकसे लेकर सातवें नरक तक प्रत्येक नरकमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका अंतर काल कितना है ? जघन्य अंतरकाल अंतर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अंतरकाल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तरकाल ओघके समान है।
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गा० २२]
हिदिविहत्तीए अंतरं ८५. पंचिंदियतिरिक्खतिय० मोह० उक्क० अंतरं ज० अंतोमु०,उक्क० पुव्वकोडिपुधत्तं । अणुक्क० ओघभंगो । एवं मणुसतिय० । पंचिंतिरि०अपज्ज. मोह० उक्क० अणुक्क० णत्थि अंतरं । एवं मणुसअपज्ज०-आणदादि जाव सव्वदृ०-सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज-पंचकाय-तसअपज्ज०-ओरालियमिस्स०-वेउवियमिस्स-आहार-आहारमिस्स०--कम्मइय०-अवगद०-अकसाय-आभिणि-सुद०ओहिल-मणपज्ज०-संजद०-सामाइयछेदो०-परिहा०-मुहुम०-जहाक्खाद-संजदासंजदअोहिदंस-मुक्कलेस्स०-सम्मादि०-खइय-वेदय०-उवसम०-सासण-सम्मामि०असण्णि०-अणाहारि त्ति वत्तव्वं ।।
८६. देव० मोह० उक्क० अंतरंज अंतोम०, उक्क० अहारस सागरोवमाणि सादिरेयाणि । अणुक्क० ओघभंगो । भवणादि जाव सहस्सारे ति उक्क० अंतरं केव० १ ज. अंतोमु०, उक्क० सगहिदी देसूणा । अणुक्क० ओघभंगो।
८७.पंचिंदिय-पंचिं०पज्ज-तस-तसपज मोह उक्क० अंतरं जह० अंतोम०, उक्क० सगहिदी देसूणा । अणुक्क अोघं । एवमिथिल-पुरिस०-चक्खु०-पंचलेस्सा..
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६८५. पंचेन्द्रियतिथंच,पंचेन्द्रियतियच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती जीवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अंतरकाल अंतर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अंतरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्व है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तरकाल ओघके समान है । इसी प्रकार सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनी इन तीन प्रकारके मनुष्योंके जानना चाहिये । पंचेन्द्रिय तियेच लब्ध्यपर्याप्तक जीवों में मोहनीयकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तरकाल नहीं है । इसी प्रकार लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य, आनत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव, सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक, पांचों स्थावरकाय, त्रस लब्ध्यपर्याप्तक, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, आभिनिबोधिकज्ञानी श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी,मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले,सम्यग्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि,वेदकसम्यग्दृष्टि,उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्याष्टि. असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिये।
८६. देवगतिमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक अठारह सागर है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तरकाल ओघके समान है। भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंके उत्कृष्ट स्थितिका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरलाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तरकाल अोधके समान है।
८७. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्तक, त्रस और त्रस पर्याप्तक जीवोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तरकाल ओघके समान है। इसी प्रकार
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ हिदिविहत्ती ३
सण्णि-आहारित्ति।
__$८८. पंचमण०-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालि०-वेउव्विय०-चत्तारिक० मोह० उक्क०णत्थि अंतरं । अणुक्क० ओघं । विहंग०सत्तमपुढविभंगो । एवमुक्कस्सद्विदिअंतराणुगमो समत्तो। स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, चक्षुदर्शनी, कृष्ण आदि पांच लेश्यावाले, संज्ञी और आहारक जीवोंके कहना चाहिये।
८. पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी और क्रोधादि चारों कषायवाले जीवोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका अन्तरकाल नहीं है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तरकाल ओघके समान है । विभंगज्ञानी जीवोंके अन्तरकाल सातवीं पृथिवीमें कहे गये अन्तरकालके समान है।
विशेषार्थ-आदेशसे अन्तरकालका खुलासा करते समय जहां जो विशेषता होगी उसीका स्पष्टीकरण करेंगे शेषका खुलासा ओघके समान जानना । सामान्यसे नारकियोंकी उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागर है, अतः यहां उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर प्राप्त होगा। इसी प्रकार प्रथमादि नरकोंमें भी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण घटित कर लेना चाहिये । सामान्य पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंकी उत्कृष्ट स्थिति सत्तानवे पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्तकोंकी उत्कृष्ट स्थिति सेतालिस पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य है और योनिमती तिर्यंचोंकी उत्कृष्ट स्थिति पन्द्रह पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य है। किन्तु भोगभूमिमें उत्कृष्ट स्थिति नहीं प्राप्त होती अतः प्रत्येकके कालमेंसे तीन पल्य कम कर देना चाहिये और इस प्रकार जो प्रत्येकका पूर्वकोटिपृथक्त्व प्रमाण काल शेष रहता है वही उनके उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल जानना चाहिये। इसमें भी प्रारम्भका पर्याप्त होने तकका काल
और कम कर देना चाहिये। जिसका मूलमें निर्देश नहीं किया। इसी प्रकार मनुष्य त्रिकके उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्व प्रमाण लेना चाहिये। यहाँ सामान्य मनुष्यकी सेंतालिस, पर्याप्त मनुष्यकी तेईस और मनुष्यनीकी सात पूर्वकोटियाँ लेनी चाहिये। पंचेन्द्रिय तियञ्च लब्धपर्याप्तकोंके उत्कृष्ट स्थिति उत्पन्न होनेके प्रथम समय में ही होती है जो संज्ञी पंचेन्द्रिय से मरकर उत्पन्न हुआ है। इनके बन्धकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्थिति नहीं होती अतः इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट इनमें से किसी भी स्थितिका अन्तरकाल नहीं होता ऐसा कहा है। मूलमें लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंसे लेकर अनाहारक तक और भी जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनके भी इसी प्रकार समझना चाहिए। देवोंमें बारहवें स्वर्गतक ही मोहनीयका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है और बारहवें स्वर्गकी उत्कृष्ट स्थिति साधिक अठारह सागर है, अतः सामान्यसे देवोंके उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक अठारह सागर कहा। इसी प्रकार भवनवासियोंसे लेकर सहस्त्रार स्वर्गतकके देवोंमें जिसकी जितनी उत्कृष्ट स्थिति हो उसमेंसे कुछ कम प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिका उकृष्ट अन्तर काल जानना चाहिये। आगे और जितनी मार्गणाएं बतलाई हैं उनमें भी इसी प्रकार विचारकर खुलासा कर लेना चाहिए। हां पांचों मनोयोग, पांचों वचनयोग, काययोग, औदारिककाययोग, वैक्रियिककाययोग और चारों कषायोंमें उत्कृष्ट स्थितिका अन्तरकाल नहीं होता, क्योंकि इनका काल इतना कम है जिससे इनके कालके भीतर दोबार उत्कृष्ट स्थिति नहीं प्राप्त होती। किन्तु जिसने अनुत्कृष्ट स्थितिके साथ इन मार्गणाओंको प्राप्त किया और मध्यमें एक समय
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गा० २२.]
द्विदिविहत्तीए अंतरं ८६. जहण्णए पयदं । दुविहो णिदेसो-ओघेण-ओदेसेण य । तत्थ ओघेण मोह. जहण्णाजहण्णहिदीणं णत्थि अंतरं । एवं विदियादि जाव छट्ठी पुढवी० सव्व पंचिंदियतिरिक्ख-सव्वमणुस्स-जोदिसियादि जाव सव्वह-सव्वविगलिंदिय-सव्वपंचिंदिय-सव्वतस-पंचमण०-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालि०-वेउव्विय-वेउव्वियमिस्स
आहार-आहारमिस्स-इत्थि०-पुरिस०-णवंसय-अवगद०-चत्तारिकसाय-अकसाय-विहंग-आभिणि-सुद०-ओहि०-गणपज्जव०-संजद०-सामाइय०-छेदो०-परिहार-मुहुम० जहाक्खाद०-संजदासंजद-चक्षु०-अचक्खु०-ओहिदंसण-तिण्णिले-भवसि-सम्मादि०खइय०-वेदग०-उवसम-सासण-सम्मामि०-सण्णि-आहारि त्ति ।
तक या अन्तमुहूर्त कालतक उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध हुआ तो उसके अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त प्रमाण बन जाता है। अतः उक्त मार्गणाओंमें अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तरकाल ओघके समान कहा। यद्यपि काययोग और औदारिक काययोगका काल बहुत अधिक है पर यह काल एकेन्द्रिय और पृथिवीकायिक जीवोंके ही प्राप्त होता है अतः इनमें भी उत्कृष्ट स्थितिका अन्तरकाल सम्भव नहीं।
इस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति अन्तरानुगम समाप्त हुआ। ___८६. अब जघन्य स्थिति अन्तरानुगम प्रकृत है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मोहनीयकी जघन्य और अजघन्य स्थितियोंका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार दूसरी पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तकके नारकी, सभी पंचेन्द्रिय तिर्यंच, सभी मनुष्य, ज्योतिषी देवोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव, सभी विकलेन्द्रिय, सभी पंचेन्द्रिय, सभी त्रस, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारक काययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, अपगतवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, अकषायी, विभंगज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, चक्षुदर्शनवाले, अचतुदर्शनवाले, अवधिदर्शनवाले, तीन लेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंके कहना चाहिये।
विशेषार्थ–ोधसे मोहनीयकी जघन्य स्थिति क्षपक जीवके दसवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें होती है अतः ओघसे जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर काल नहीं बनता । इसी प्रकार मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रस पर्याप्त, पांचों मनोयोगी,पांचों वचनयोगी,काययोगी,औदारिककाययोगी,अपगतवेदी,लोभकषायी,आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ल लेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, संज्ञी और आहारकके जानना चाहिये, क्योंकि इनमें भी क्षपकका दसवाँ गुणस्थान पाया जाता है। दूसरे नरकसे छठे नरक तक नारकी, ज्योतिषी देवोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव, वैक्रियिक काययोगी, वैक्रियिक मिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी अकषायी, परिहारविशुद्धि
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ द्विदिविहत्ती ३
६०.
देसेण णिरयगईए मोह जहण्ण० णत्थि अंतरं । अज० जहण्णुक्क ० एगसमओ । एवं पढमपुढवि-देव-भवण० वाण०-कम्मइय- अणाहारिति । सत्तमा मोह० इ० जह० णत्थि अंतरं । अज० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं ।
પૂર
$६१. तिरिक्ख० मोह० जह०ज० अंतोमुहुत्तं, उक्क० असंखेज्जा लोगा । अज० ज० एगसमश्र, उक्क ० अंतोमुहुतं । एवं मदि - सुदअण्णाण - असंजद ० - अभवसि ०
संयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टिके अपने अपने उत्कृष्ट युके अन्तिम समयमें ही मोहनीयकी जघन्य स्थिति होती है अतः इनके जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर नहीं होता। सभी पंचेद्रियतिर्यंच, लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, और त्रस अपर्याप्तकोंके उत्पन्न होते समय ही जघन्य स्थिति होती है अतः इनके भी अन्तर नहीं होता । स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, क्रोध, मान और माया कषायवाले जीवोंके नौवें गुणस्थान में अपने अपने क्षयके अन्तिम समय में और सामायिक संयत व छेदोपस्थापनावाले जीवों के क्षपणाके नौवें गुणस्थानके अन्तिम समय में ही मोहनीयकी जघन्य स्थिति होती है अतः इनके भी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर नहीं होता । विभंगज्ञानमें उपरिम ग्रैवेयक के देवके आयुके अन्तिम समय में मोहनीयकी जघन्य स्थिति होती है, अतः अन्तर नहीं होता । पीत लेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले परिहारविशुद्धि संयत के समान
जानना ।
६०. आदेशकी अपेक्षा नरकगतिमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिका अन्तरकाल नहीं है । जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है । इसी प्रकार पहली पृथिवीके नारकी, सामान्य देव, भवनवासी देव, व्यन्तर देव, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिये । सातवीं पृथिवीमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिका अन्तरकाल नहीं है । तथा अज'घन्य स्थितिका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है ।
विशेषार्थ जो असंज्ञी जीव नरकमें दो विग्रह से उत्पन्न होता है उसके दूसरे विग्रहके समय जघन्य स्थिति सम्भव है अतः सामान्यसे नारकियों के अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय कहा । क्योंकि ऐसे नारकीके प्रथम और तृतीयादि समयोंमें अजवन्य स्थिति हुई और दूसरे समय में जघन्य स्थिति रही, अतः अजघन्य स्थितिका अन्तरकाल एक समय प्राप्त हो गया । इसी प्रकार पहली पृथिवीके नारकी, सामान्य देव, भवनवासी, व्यन्तर, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंके अजघन्य स्थितिके जघन्य अन्तरकाल एक समयको घटित कर लेना चाहिये। सातवें नरकमें जब आयुमें अन्तर्मुहूर्तकाल शेष रह जाता है तब कमसे कम एक समय तक और अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक जघन्य स्थितिका प्राप्त होना सम्भव 1 तथा इस नारकी इस जघन्य स्थिति के पश्चात् पुनः अजघन्य स्थिति हो जाती है, अतः यहां अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त बन जाता है । तथा जघन्य स्थिति दो बार नहीं प्राप्त होती इसलिये उसका अन्तरकाल नहीं बनता ।
६१. तिर्यंचगति में मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोक है । तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अभव्य,
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गा० २२ ]
हिदिविहत्तीए अंतरं
मिच्छादिट्ठी० - असण्णि त्ति । एइंदिय० तिरिक्खभंगो । बादरेइंदिय - बादरेइंदियपज्ज०बादरेइंदियपज्ज० - सुहुमेइंदिय- सुहुमेइंदियपज्ज० - सुहुमेइंदियअपज्ज० मोह० जह० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी देसूणा । ज० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुतं । एवं चत्तारि काय० । णवरि सगसगुक्कसहिदी देसूणा । वणफदि० एइंदियभंगो ।
$ ६२. ओरालियमिस्स० मोह० जह० ज० अंतोमु०, उक्क. अंतोमु० । अज० ज० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । किण्णह-णील- काउ० सत्तमपुढविभंगो |
एवमंतराणुगमो समत्तो
५३
मिध्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके कहना चाहिये । एकेन्द्रियों के तिर्यंचों के समान जानना चाहिये । बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रियपयाप्तक, बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक और सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । तथा अजवन्य स्थितिका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार पृथिवीकायिक आदि चार स्थावरकायिक जीवोंके जानना चाहिये । पर इतनी विशेषता है कि इनके मोहनीयकी जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहना चाहिये । वनस्पतिकायिक जीवों के एकेन्द्रियोंके समान जानना चाहिये ।
$ ६२. औदारिक मिश्रकाययोगी जीवों के मोहनीयकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । कृष्ण, नील और कापोतलेश्यावाले जीवोंके सातवीं पृथिवीके समान है ।
विशेषार्थ - उत्कृष्ट स्थिति के समान आदेशसे जघन्य स्थिति के सम्बन्धमें भी यह नियम समझना चाहिये कि जिसके जघन्य स्थितिके पश्चात् अजघन्य स्थिति हो जाती है उसे पुनः जघन्य स्थितिको प्राप्त करने में कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल अवश्य लगता है तथा जिसने तियँच पर्यायमें जघन्य स्थितिको प्राप्त किया पुनः वह अजवन्य स्थितिको प्राप्त करके यदि निरन्तर उसीके साथ रहे तो उसे पुनः जघन्य स्थितिके प्राप्त करनेमें अधिक से अधिक असंख्यात लोकप्रमाण काल लगता है अतः तिर्यंचों में जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण प्राप्त होता है यह सिद्ध हुआ । तथा जघन्य स्थितिका जघन्यकाल एक . समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त होता है अतः तिर्यंचों में अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा । मूलमें गिनाई गई मत्यज्ञानी आदि मार्गणाओं में अन्तरकाल प्राप्त करनेकी यही विधि जानना, अत: इनमें जघन्य और अजघन्य स्थिति के अन्तर कालको सामान्य तिर्यंचों के समान कहा । तथा आगे जो बादर एकेन्द्रियादिकोंके जघन्य और जघन्य स्थितिका अन्तरकाल कहा उसमें केवल जघन्य स्थितिके उत्कृष्ट अन्तरकालमें ही विशेता है। शेष सब कथन सामान्य तिर्यंचोंके समान है । बात यह है कि इन बादर एकेन्द्रियादिककी उत्कृष्ट काय स्थिति भिन्न भिन्न है अतः इनमें जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी अपनी कार्यस्थितिप्रमाण ही कहना चाहिये । औदारिक मिश्रकाययोगका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है अतः इसमें जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा । कृष्ण, नील व कापोतलेश्या
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ ६३. णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमेण भण्णमाणे तत्थ णाणाजीवेहि उक्कस्सभंगविचए इदमहपदं-जे उक्कस्सस्स विहत्तिया ते अणुक्कस्सस्स अविहत्तिया । जे अणुक्कस्सस्स विहत्तिया ते उक्कस्सस्स अविहत्तिया । एदेण अहपदेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोह० उक्कस्सहिदीए सिया सव्वे जीवा अविहत्तिया, सिया अविहत्तिया च विहत्तिओ च, सिया अविहत्तिया च विहत्तिया च । एवं तिण्णि भंगा ३ । अणुक्क० हिदीए सिया सव्वे विहत्तिया, सिया विहत्तिया च अविहत्तिो च,सिया विहत्तिया च अविहत्तिया च । एवं सव्वणिरय-सव्वतिरिक्ख-मणुसतिय-देव-भवणादि जाव सव्वह-सव्वएइंदिय-सव्व विगलिंदिय-सव्वपंचिंदिय-छक्कायपंचमण-पंचवचि --कायजोगि०-ओरालिय--वेउविय०-ओरालियमिस्स०-कम्मइय-तिण्णिवेद-चत्तारिकसाय-मदि-सुदअण्णाण-विहंग-आभिणि-सुद०-ओहि०-मण
वाले एकेन्द्रिय जीवोंके मोहनीयकी जघन्य स्थिति होती है। एकेन्द्रियोंमें उक्त लेश्याओंका काल अन्तमुहूर्त है जो अजघन्य स्थितिके जघन्यकालसे छोटा है अतः जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है परन्तु उक्त लेश्याओंका काल जघन्य स्थितिके कालसे बड़ा है अतः अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त घटित हो जाता है जो सातवीं पृथिवीके समान है । शेष कथन सुगम है।
इस प्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ। ६६३. अब नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगमका कथन करते हैं। उसमें भी नाना जीवोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट भंगविचयके कथनमें यह अर्थपद है-जो उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले हैं वे अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले नहीं हैं। जो अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले हैं वे उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले नहीं हैं। इस अर्थपदके अनुसार निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और देशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा कदाचित् सभी जीव मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिसे रहित हैं। कदाचित् बहुतसे जीव मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिसे रहित हैं और एक जीव मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाला है । कदाचित् बहुतसे जीव मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिसे रहित हैं और बहुतसे जीव मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिकी अपेक्षा तीन भंग होते हैं। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिकी अपेक्षा कदाचित् सभी जीव मोहनीयकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले हैं। कदाचित् बहुतसे जोव मोहनीयकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले हैं और एक जीव मोहनीयकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिसे रहित है, कदाचित् बहुतसे जीव मोहनीयकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले हैं
और बहुतसे जीव मोहनीयकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिसे रहित हैं ये तीन भंग होते हैं । इसी प्रकार सभी नार की, सभी तियेंच, सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनी ये तीन प्रकारके मनुष्य, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सर्वार्थ सिद्धि तकके देव, सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, सभी पंचेन्द्रिय, छहों कायवाले, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, वैक्रियिककाययोगी, औदारिकमिप्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रतज्ञानी, विभंगज्ञानी,आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी,
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गा ० २२]
हिदिविहत्तीए भंगविचओ पज०-संजद०-सामाइय-छेदो०-परिहार०-संजदासंजद०-असंजद०-चक्खु०--अचक्खु०अोहि०-छलेस्सा०-भव० -अभव-सम्मादि०-खइय०-वेदय० -मिच्छा०-सण्णि-असण्णि० आहारि०-अणाहारि त्ति।
६४. मणुसअपज्ज -उक्कस्सविहत्तिपुव्वा अहभंगा। अणुक्कस्सविहत्तिपुव्वा वि अहभंगा । एवं वेउव्वियमिस्स० -आहार-आहारमिस्स-अवगद०-अकसा०सुहुमसांप०-जहारवाद०-उवसम०-सासण-सम्मामि० ।
___ एवमुक्कस्सभंगविचो समत्तो । मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहार विशुद्धिसंयत, संयतासंयत, असंयत, चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, अवधिदर्शनवाले, छहों लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, सज्ञी, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिये।
६४. लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंमें उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति पूर्वक आठ भंग होते हैं और अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिपूर्वक भी आठ भंग होते हैं। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-निश्चित सिद्धान्तके अनुसार व्यवस्थाके द्योतक वाक्यको अर्थपद कहते हैं। यहाँ निश्चित सिद्धान्त यह है कि जो उत्कृष्ट स्थितिवाले होते हैं वे अनुत्कृष्ट स्थितिवाले नहीं होते और जो अनुत्कृष्ट स्थितिवाले होते हैं वे उत्कृष्ट स्थितिवाले नहीं होते। इससे यह व्यवस्था फलित हुई कि उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवालोंसे अनुत्कृष्ट स्थितिअविभक्तिवाले जीव भिन्न नहीं और अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवालोंसे उत्कृष्ट स्थिति अविभक्तिवाले जीव भिन्न नहीं । फिर भी एकबार उत्कृष्ट स्थितिवालोंको और दूसरी बार अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंको मुख्य करके भंगोंका संग्रह किया जाय तो प्रत्येककी अपेक्षा तीन तीन भङ्ग प्राप्त होते हैं। जो मूल में गिनाये ही हैं। बात यह है कि उत्कृष्ट स्थितिवाला जीव कदाचित् एक भी नहीं रहता, तथा कदाचित् एक होता है और कदाचित् अनेक होते हैं। अब यदि इन तीन विकल्पोंको मुख्य करके भंग कहे जाते हैं तो उनकी सूरत निम्न होती है-(१) कदाचित् सब जीव उत्कृष्ट स्थितिअविभक्तिवाले होते हैं। (२) बहुत जीव उत्कृष्ट स्थितिअविभक्तिवाले होते हैं और एक जीव उत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाला होता है। (३) कदाचित् बहुत जीव उत्कृष्ट स्थिति. अविभक्तिवाले होते हैं और बहुत जीव उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले होते हैं। यह तो उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा कथन हआ। अब यदि इसके स्थानमें अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंको
मुख्य कर देते हैं और उत्कृष्ट स्थितिवालोंको गौण तो उन्हीं भंगोंकी शकल निम्न हो जाती है-(१) कदाचित् सब जीव अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले होते हैं । (२) कदाचित् बहुत जीव अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले होते हैं और एक जीव अनुत्कृष्ट स्थिति अविभक्तिवाला होता है । (३) कदाचित् बहुत जीव अनुत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले और बहुत जीव अनुत्कृष्ट स्थितिअविभक्तिवाले होते हैं। सब नारकियोंसे लेकर अनाहारकों तक मूलमें जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं। उनमें यह ओघप्ररूपणा बन जाती है अर्थात् उन मार्गणाओंमें भी इसी प्रकार उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंकी अपेक्षा तीन तीन भंग बन जाते हैं, अतः इनकी प्ररूपणाको ओघके
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ ६५. जहण्णयम्मि अपदं। तं जहा—जे जहण्णस्स विहत्तिया ते अजहण्णस्स अविहत्तिया, जे अजहण्णस्स विहत्तिया ते जहण्णस्स अविहत्तिया । एदेण अहपदेण दुविहो णि सो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोह-जहण्णहिदीए सिया सव्वे जीवा अविहत्तिया, सिया अविहत्तिया च विहत्तिओ च, सिया अविहत्तिया च विहत्तिया च, एवं तिण्णि भंगा । एवमजह ० । णवरि विहत्तिया पुव्वं भाणियव्वं । एवं सत्तसु पुढवीसु सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुसतिय-सव्वदेवसव्वविगलिंदिय-सव्वपंचिंदिय-बादरपुढवि०पज्ज-बादराउ० पज्जत्त०-बादरतेउ०पज्ज०-बादरवाउ०पज्ज-बादरवणप्फदि०पत्तेय०पज्ज-सव्वतस-पंचमण-पंचवचि०
समान कहा। किन्तु लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य यह सान्तर मार्गणा है अतः इसकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्थिति और अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंमेंसे प्रत्येकके आठ आठ भंग हो जाते हैं। इसी प्रकार और जितनी सान्तर मार्गणाएँ हैं उनमें तथा अपगतवेदी, अकषाथी और यथाख्यातसंयत इन तीन मार्गणाओंमें भी आठ आठ भंग प्राप्त होते हैं।
____ वह आठ भंग इस प्रकार हैं:-एक जीव उत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाला (१), अनेक जीव उत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले (२), एक जीव अनुत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाला (३), अनेक जीव अनुत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले (४),एक जीव उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाला और एक जीव अनुत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाला (५), एक जीव उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाला और अनेक जीव अनुत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले (६), अनेक जीव उत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले और एक जीघ अनुत्कृष्ट स्थिति बिभक्तिवाला (७), अनेक जीव उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले और अनेक जीव अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले (८)।
इस प्रकार उत्कृष्ट भंगविचय समाप्त हुआ। SE५. नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य भंगविचयके कथनमें जो अर्थपद है वह इस प्रकार है- जो जघन्य स्थिति विभक्तिवाले हैं वे अजघन्य स्थिति विभक्तिवाले नहीं हैं। जो अजघन्य स्थिति विभक्तिवाले हैं वे जघन्य स्थितिविभक्तिवाले नहीं हैं। इस अर्थपदके अनुसार निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे अोधकी अपेक्षा कदाचित् सभी जीव मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले नहीं हैं। कदाचिद् बहुतसे जीव मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाने नहीं हैं और एक जीव मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाला है । कदाचित् बहुतसे जीव मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले नहीं हैं और बहुतसे जीव मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले हैं इस प्रकार जघन्य स्थितिविभक्तिकी अपेक्षा तीन भंग होते हैं । इसी प्रकार मोहनीयकी अजघन्य स्थितिविभक्तिकी अपेक्षासे भी तीन भंग होते हैं। इतनी विशेषता है कि अजघन्य स्थितिविभक्तिकी अपेक्षा कथन करते समय 'विहत्तिया' का पहले कथन करना चाहिये । अर्थात् जिस प्रकार जघन्य स्थितिकी अपेक्षा कथन करते समय तीन भंगोंमें अविभक्तिवालोंका पहले कथन किया है उसी प्रकार अजघन्य स्थितिकी अपेक्षा कथन करते समय तीन भंगोंमें पहले विभक्तिवालोंका कथन करना चाहिये । इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, सभी पंचेन्द्रिय तियेच, सामान्य मनुष्य,पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनी ये तीन प्रकारके मनुष्य,सभी देव, सभी विकलेन्द्रिय, सभी पंचेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादरजलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादरवायुकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त, सभी त्रस, पांचों मनोयोगी,
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५७
गा• २२ ]
हिदिविहत्तीए भंगविचओ काययोगि०-ओरालि-वेउव्विय-तिण्णिवेद०-चत्तारिकसाय-विहंग०-आभिणि-सुद०ओहि०-मणपज्जव०-संजद-सामाइय-छेदो०-परिहार०-संजदासंजद०-चक्खु०-अचक्खु०ओहिदंस-तिण्णिलेस्सा०-भवसिद्धि-सम्मादि-खइय०-वेदय-सण्णि-आहारित्ति।
९६. तिरिक्व० मोह० ज० अज० णियमा अस्थि । एवं सव्वएइंदियपुढवि०-बादरपुढवि०-बादरपुढविअपज्ज-मुहुमपुढवि०-पज्जत्तापज्जत्त-आउ०-बादरपाउ०-बादरआउअपज्ज-मुहुमाउ०-पज्जत्तापज्जत्त-तेउ०-बादरतेउ.-बादरतेउअपज्ज०मुहुमतेउ०—पज्जत्तापजत्त-वाउ०-बादरवाउ०-बादरवाउअपज्ज-सुहमवाउ०-पज्जत्ता पज्जत्त-बादरवणप्फदिपत्तेय०अपज्ज-वणप्फदि-णिगोद०-ओरालियमिस्स-कम्मइय-मदि-सुदअण्णाण-असंजद-तिण्णिले०-अभव०-मिच्छादि०-असण्णिअणाहारि त्त ।
६७. मणुसअपज्ज• उक्कस्सभंगो। एवं वेउव्वियमिस्स०-आहार०-आहारमिस्स-( अवगद-) अकसाय-सुहुम०-जहक्खाद-उवसम०-सासण-सम्मामि० ।
एवं णाणाजीवेहि भंगविचओ समत्तो। पांचों वचनयोग,काययोगी, औदारिककाययोगो,वैक्रियिककाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले,विभंगज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी,अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी,संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थानासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले अवधिदर्शनवाले, पीत आदि तीन लेश्यावाले, भव्य. सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिये ।
६६. तिथंचोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थिति विभक्तिवाले और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं। इसी प्रकार सभी एकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त.जलकायिक,बादर जलकायिक,बादरजलकायिक अपर्याप्त,सूक्ष्म जलकायिक,सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त,सूक्ष्म अग्निकायिक,सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त,सूक्ष्म अग्निकायिक अपर्याप्त,वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादरवायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्मवायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक, निगोद, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, कृष्ण आदि तीन लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और आहारक जीवोंके कहना चाहिये।
६७. लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंके उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके समान यहां भी आठ आठ भंग हैं। इसी प्रकार वैक्रियकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये ।
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पू८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ ६८. भागाभागाणुगमो दुविहो-जहण्णो उक्कस्सो चेदि। तत्थ उक्कस्से पयदं। दुविहो णिसो-अोघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोह० उक्कस्सहिदिविहत्तिया जीवा सव्वजीवाणं केवडियो भागो ? अणंतिमभागो । अणुक्क० सव्वजी० के० भागो ? अणंता भागा। एवं तिरिक्ख०-सव्वएइंदिय-वणप्फदि०-णिगोद०काययोगि०-ओरालि०-ओरालियमिस्स-कम्मइय-णवुस०--चत्तारिकसाय-मदि-सुदअण्णाण-असंजद०-अचक्खु०-तिण्णिलेस्सा-भवसिद्धि०-अभव-मिच्छा०-असण्णिआहारि०-अणाहारि त्ति ।
हह आदेसेण णेरइएस मोह० उक० सव्वजी० के० भागो ? असंखे० भागो। अणुक्क० सव्वजी० केवडिओ भागो ? असंखेज्जा भागा। एवं सव्वपुढवि०सव्वपंचिं०तिरिक्ख-मणुस-मणुसअपज्ज०-देव-भवणादि जाव अवराइद०-सव्वविगलिंदिय-सव्वपंचिंदिय-सव्वपुढवि०-सव्वाउ०-सव्वतेउ०-सव्ववाउ०-बादरवणप्फदि०
विशेषार्थ उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा भंगविचयका कथन करते समय ओघ और आदेशसे जिन भंगोंको पहले बतला आये हैं वे भंग यहां जघन्य और अजघन्य स्थितिकी अपेक्षा भी उसी प्रकार बन जाते हैं। किन्तु सामान्यतिर्यंच और एकेन्द्रियोंसे लेकर अनाहारक तक मूलमें गिनाई हुई कुछ मार्गणाएं ऐसी हैं जिनमें जघन्य स्थितिवाले बहुत जीव और अजघन्य स्थितिवाले बहुत जीव नियमसे पाये जाते हैं, अतः यहां (१) मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले और अविभक्तिवाले नाना जीव नियमसे हैं। (२) मोहनीयकी अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले और अविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं ये दो भंग ही प्राप्त होते हैं।
इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगम समाप्त हुआ। SE८. भागाभागानुगम दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उनमें से उत्कृष्ट भागाभागानुगमका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं। इसी प्रकार तिर्यंच, सभी एकेन्द्रिय, वनस्पतिकायिक, निगोद जीव, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनवाले, कृष्ण आदि तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये ।
६६. आदेशनिर्देशकी अपेक्षा नारकियोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं। अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, सभी पंचेन्द्रियतिर्यंच, सामान्य मनुष्य, लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर अपराजित तकके देव, सभी विकलेन्द्रिय, सभी पंचेन्द्रिय, सभी पृथिवीकायिक, सभी जलकायिक, सभी अग्निकायिक, सभी वायुकायिक, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर,
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गा • २२]
द्विदिविहत्तीए भागाभागो पत्तेय-पजतापज्जत्त—सव्वतस-पंचमण-पंचवचि०-वेउव्विय०-वेउव्वियमिस्स०इत्थि०-पुरिस०-विहंग-आभिणि-सुद०-ओहि०-संजदासंजद-चक्खु०-ओहिदंस०तिण्णिले०-सम्मादि०-खइय०-वेदय०-उवसम०-सासण-सम्मामि०-सण्णि त्ति ।
१००. मणुसपज्ज-मणुसि० मोह० उक्क० सव्वजी० के० भागो ? संखे०भागो । अणुक० सव्वजी० के० ? संखेज्जा भागा। एवं सव्वह०-आहार-आहारमिस्स०-अवगद-अकसाय-मणपज्ज०-संजद०-सामाइय-छेदो०-परिहार०-मुहमसांप०जहाक्खाद०।
एवमुक्कस्सभागाभागो समत्तो । १०१. जहण्णए पयदं । दुविहो णिद्देसो-अोघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त,बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर अपर्याप्त,सभी त्रस, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी,वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभंगज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, संयतासंयत, चक्षुदर्शनवाले, अवधि दर्शनवाले, पीत आदि तीन लेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संज्ञी जीवोंके कहना चाहिये ।
१००. मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव सब जीवों के कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं । अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिके देव, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदवाले, अकषायी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ भागाभागमें कौन किसके कितने भागप्रमाण हैं इसका विचार किया जाता है । प्रकृतमें सामान्यरूपसे और विशेषरूपसे उत्कृष्ट स्थिति और अनुत्कृष्ट स्थितिवाले जीब किसके कितने भाग हैं यह बतलाया गया है। लोकमें जितने उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिवाले जीव हैं उनमें अनन्तवें भागप्रमाण उत्कृष्ट स्थितिवाले हैं और अनन्त बहुभाग अनुत्कृष्ट स्थितिवाले हैं । मार्गणाओंकी अपेक्षा उनकी नरूपणा तीन प्रकारसे हो जाती है। कुछ मार्गणाओंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंकी प्ररूपणा ओघके समान है। कुछ मार्गणाओंमें असंख्यातवें भागप्रमाण उत्कृष्ट स्थितिवाले और असंख्यात बहुभाग अनुत्कृष्ट स्थितिवाले हैं। तथा कुछ मार्गणाओंमें संख्यातवें भागप्रमाण जीव उत्कृष्ट स्थितिवाले ओर संख्यात बहुभागप्रमाण जीव अनुत्कृष्ट स्थितिवाले हैं। इन सब मार्गणाआके नाम मूलमं गिनाये ही है। इसी प्रकार जघन्य और अजघन्य स्थितिवाले जीवोंके भागाभागका खुलासा समझना चाहिये।
इस प्रकार उत्कृष्ट भागाभाग समाप्त हुआ। $ १०१. अब जघन्य भागाभागका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओघनिर्देश और और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा मोहनीयकी जघन्य स्थिति.
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६० .
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [द्विदिविहत्ती ३ मोह० ज० सव्वजीवा० केवडि• ? अणंतिमभागो। अज० सव्वजी० के० १ अणंता भागा। एवं कायजोगि०-ओरालि०-णवूस०-चत्तारिक०-अचक्खु०-भवसिद्धिय-आहारि त्ति।
६१०२. आदेसेण णेरइएमु मोह० ज० सव्वजी० के० ? असंखे०भागो । अज० सव्वजी० के० ? असंखेज्जा भागा। एवं सत्तसु पुढवीसु सव्वतिरिक्खमणुस- मणुसअपज्ज.-देव०-भवणादि जाव अवराइद०-सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदियसव्वपंचिंदिय-छकाय-पंचमण०-पंचवचि०-ओरालियमिस्स-वेउविय०-वेउ०मिस्स०कम्मइय०-इत्थिल-पुरिस-मदि-सुदअण्णाण-विहंग०-आभिणि-सुद०-ओहि०-संजदा०संजद०-असंजद०-चक्षु०-ओहिदंस०-छलेस्सा-अभव-सम्मादि०-खाय०-वेदय०उवसम०-सासण-सम्मामि०-मिच्छादि०-सण्णि-असण्णि:-अणाहारि त्ति ।
१०३. मणुसपज०-मणुसिणी० मोह० जह० सव्वजी० के० ? संखे भागो। अज. सव्वजी० के० ? संखेज्जा भागा। एवं सव्वह० आहार-आहारमिस्स०अवगद०-अकसा०-मणपज्ज०-संजद-सामाइय-छेदो०-परिहार०-सुहुमसांप०-जहाक्रवाद।
एवं भागाभागाणुगमो समत्तो । विभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। मोहनीयकी अजघन्य स्थितिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं। इसी प्रकार काययोगी, औदारिक काययोगी, नपुंसकवेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, अचक्षुदर्शनवाले, भव्य और आहारक जीवों के कहना चाहिये।
६ १०२. आदेशनिर्देशकी अपेक्षा नारकियोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव विवक्षित जघन्य और अजघन्य स्थितिवाले नारकी जीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले नारकी जीव कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, सभी तियेंच, सामान्य मनुष्य, लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर अपराजित तकके देव, सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, सभी पंचेन्द्रिय, छहों कायवाले, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, औदारिक मिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी,वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, मत्यज्ञानी,श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी,आभिनिबोधिकज्ञानी,श्रुतज्ञानी,अवधिज्ञानी,संयतासंयत,असंयत, चक्षुदर्शनवाले, अवधिदर्शनवाले, छहों लेश्यावाले, अभव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि,वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि,सम्यग्मिथ्यादृष्टि, मिथ्यादृष्टि,संज्ञी, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये।
६ १०३. मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थिति भक्तिवाले जीव जघन्य और अजघन्य स्थितिवाले पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनियोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिके देव, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदवाले. अकषायी,
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गा० २२ ]
हिदिविहत्तीए परिमाण १०४. परिमाणाणुगमो दुविहो ... जहण्णो उक्कस्सओ चेदि। उक्कस्से पयदं। दुविहो णिद्देसो--ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोह० उक्कस्सहिदि. विहत्तिया जीवा केत्तिया ? असंखेज्जा । अणुक्क० केत्तिया ? अणंता । एवं तिरिक्खसव्वएइंदिय-वणप्फदि०-णिगोद०-कायजोगि०-ओरालि–ओरालियमिस्स-कम्मइय-- णवुस०-चत्तारिकसाय०-मदि-सुदअण्णाण -असंजद०-अचक्खु०-तिण्णिले०-भवसि०अभवसि०-मिच्छा०-असण्णि०-आहारि०-अणाहारि त्ति ।
१०५. आदेसेण रइएसु मोह० उक्क० अणुक्क० केत्तिया ? असंखेज्जा । एवं सत्तपुढवि०-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुसअपज्ज०-देव०-भवणादि जाव सहस्सार०सव्वविगलिंदिय-सव्वपंचिंदिय-चत्तारिकाय-सव्वतस-पंचमण-पंचवचि०--वेउव्विय०वेउव्वियमिस्स०-इत्थि०-पुरिस०-विहंग०-आभिणि०-सुद०-अोहि०-संजदासंजद-चक्खु० ओहिदंस-तिण्णिले०-सम्मादि०-वेदय०-उवसम०-सासण-सम्मामि०-सण्णि त्ति ।
$१०६. मणुस. मोह. उक्क. के. ? संखेजा। अणुक्क. असंखेज्जा । मनःपर्यययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके कहना चाहिये ।
इस प्रकार भागाभागानुगम समाप्त हुआ। ६१०४ परिमाणानुगम दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उनमेंसे उत्कृष्ट परिमाणानुगमका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। इसी प्रकार तिर्यंच, सभी एकेन्द्रिय, वनस्पतिकायिक, निगोद, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, कृष्ण आदि तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये।
$ १०५. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मोहनीयको उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, सभी पंचेन्द्रियतिर्यंच, लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार तकके देव, सभी विकलेन्द्रिय, सभी पंचेन्द्रिय, पृथिवीकायिक आदि चार कायवाले, सभी त्रस, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभंगज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, संयतासंयत, चक्षदर्शनवाले, अवधिदर्शनवाले, पीत आदि तीन लेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये।
६१०६. मनुष्योंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार आनतसे लेकर अपराजित
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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ द्विदिविहत्ती ३
एवमादादि जाव अवराइद० खइय० दिट्ठि ति । मणुसपज्ज० - मपुसिणी० उक्क० अणुक्क ० केत्ति ०१ संखेज्जा । एवं सव्वहः- आहार० - आहारमिस्स ० - अवगद ० - अकसा - मणपज्ज० - संजद० - समाइय-छेदो०- परिहार० - सुहुम ० - जहाक्खादः ।
६२
एवमुक्कस्सओ परिमाणाणुगमो समत्तो ।
$ १०७. जहणए पदं । दुविहो णिद्देसो — घेण आदेसेण य । तत्थ श्रघेण मोह ० ज के ० १ संखेज्जा । अज० के० ? अांता । एवं कायजोगि०ओरालि०-णवुं स०- चत्तारिकसाय- अचक्खु ० - भवसि० - आहारि त्ति
·
।
$ १०८. आदेसेण रइएस मोह० ज० अज० केत्तिया ? असंखेज्जा । एवं पढमपुढवि० - सव्वपंचिंदिय – तिरिक्ख - मणुसअपज्ज० - देव० - भवण० - वाण० - सव्वविगलिंदिय - पंचिंदियअपज्ज० - चत्तारिकाय - तस अपज्जतेति ।
तकके देव और क्षायिक सम्यग्दृष्टि जोवों के जानना चाहिये । मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि देव, हारक काययोगी, आहारकमिश्र काययोगी, अपगतवेदवाले, अकषायी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापना संयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्म सांपरायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके कहना चाहिये ।
विशेषार्थ - इसमें ओघ और आदेशसे उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिवाले जीवोंकी संख्या बतलाई गई है । घसे उत्कृष्ट स्थितिवाले जीव असंख्यात और अनुत्कृट स्थितिवाले जीव अनन्त हैं । तथा देशसे संख्याकी प्ररूपणा चार भागों में बट जाती है । कुछ मार्गणाएं अनन्त संख्यावाली हैं जिनमें प्ररूपणा घटित हो जाती है । कुछ मार्गणाएं असंख्यात संख्यावाली हैं। जिनमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट दानों स्थितिवाले असंख्यात हैं । कुछ मार्गणाएं असंख्यात संख्यावाली हैं परन्तु उनमें उत्कृष्ट स्थितिवाले जीव संख्यात हैं और अनुत्कृष्ट स्थितिवाले जीव असंख्यात हैं । तथा कुछ मार्गणाएं संख्यात संख्यावाली हैं जिनमें उत्कृष्ट स्थितिवाले और अनुत्कृष्ट स्थितिवाले दोनों संख्यात हैं । मार्गणाओंके नाम मूलमें गिनाये हैं ।
इस प्रकार उत्कृष्ट परिमाणानुगम समाप्त हुआ ।
१०७. अब जघन्य परिमाणानुगमका प्रकरण है ? उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मोहनीयको जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं । इसी प्रकार काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, अचतुदर्शनवाले, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिये ।
१०८. आदेशकी अपेक्षा नारकियों में मोहनीयकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । इसी प्रकार पहली पृथिवीके नारकी, सभी पंचेन्द्रिय तिर्यंच, लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य, सामान्य देव, भवनवासी, व्यन्तर, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक, पृथि'बीकायिक आदि चार स्थावर काय, और नस लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंका परिमाण जानना चाहिये ।
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गा० २२]
द्विदिविहत्तीए परिमाणं १०६. विदियादि जाव छहि तिमणुस-जोदिसियादि जाव अवराइद-पंचिं०पंचिं०पज्ज०-तस-तसपज्ज-पंचमण०-पंचवचि०-वेउव्वि०-वेउव्वियमिस्स-इत्थिः -- पुरिस-विहंग०-आभिणि-सुद०-ओहि-संजदासंजद०-चक्रव०-ओहिदंस-तिण्णिले०सम्मादि०-खइय--वेदय-उवसथ-सासण-सम्मामि०-सण्णि० मोह हिदि० के. ? संखेज्जा। अज० के० ? असंखेज्जा ।
११०. सत्तमाइए मोह० ज० अज० केत्ति ? असंखेज्जा । तिरिक्ख० मोह. ज० अज० के० ? अणंता । एवं सव्वएइंदिय-सव्ववणप्फदि०-सव्वणिगोद०ओरालियमिस्स-कम्मइय-मदि-सुदअण्णाण-असंजद-तिण्णिले०-अभव०-मिच्छादिहि-असण्णि-अणाहारि त्ति ।
___१११. मणुसपज्ज०-मणुसिणी० मोह० ज० अज ० केत्तिया ? संखेज्जा । एवं सव्वह०-आहार-आहारमिस्स०-अवगद०-अकसा०-मणपज्ज -संजद०-सामाइयछेदो०-परिहार०-सुहुभसापराय-जहाक्वादसंजदा त्ति ।
एवं परिमाणाणुगमो समत्तो।
PurrPAPrammar
६१०६. दूसरी पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तकके नारकी,सामान्य मनुष्य,ज्योतिषियोंसे लेकर अपराजित तकके देव,पंचेन्द्रिय,पंचेन्द्रिय पर्याप्त,त्रस,त्रसपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, वैक्रियिकका ययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी,विभंगज्ञानी,आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, संयतासंयत, चक्षुदर्शनवाले, अवधिदर्शनवाले, पीत आदि तीन लेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संज्ञी जीवोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं।
६ ११०. सातवीं पृथिवीमें मोहनीयकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। तिर्यंचोंमें मोहनीयकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। इसी प्रकार सभी एकेन्द्रिय, सभी वनस्पतिकायिक, सभी निगोद, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, कृष्ण आदि तीन लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिये।
- $ १११. मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें मोहनीयकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिके देव, आहारककाययोगी, अहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदवाले, अकषायी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत. छंदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-ओघसे जघन्य स्थिति क्षपक जीवके दश गुणस्थानके अन्तिम समयमें प्राप्त होती है । अतः ओघकी अपेक्षा जघन्य स्थितिवाले जीव संख्यात हैं। तथा इनके अतिरिक्त
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहती ३ ११२. खेताणुगमो दुविहो जहण्णओ उक्कस्सओ चेदि । उक्कस्से पगदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोह० उक्क० केवडि खेते ? लोगस्स असंखे भागे । अणुक्क० के० खेचे ? सव्वलोए । एवं तिरिक्ख-सव्वएइंदिय०पुढवि०-बादरपुढवि०-बादरषढविअपज्ज-मुहमपुढविपज्जत्तापज्जत्त-आउ०. बादराउअपज्ज-सुहुमआउ०-पज्जत्तापज्जत्त-तेउ०-बादरतेउ०-बादरतेउअपज्ज-सहमतेउ-पज्जत्तापज्जत्त-बाउ०-बादरवाउ.-बादरवाउअपज्ज०-सुहुमवाउ-पज्जत्तापज्जत्तबादरवणप्फदिपत्तेयअपज्ज-सव्ववणप्फदि०-सव्वणिगोद०-कायजोगि०-ओरालियाओरालियमिस्स०-कम्मइय-णस०-चत्तारिकसाय-मदि-सुदअण्णाण-असंजदअचक्खु०-तिण्णिले भवसि०-अभवसि०-मिच्छा-असण्णि-आहारि०-अणाहारि त्ति।
मोहनीयकर्मकी सत्तावाले शेष सब जीव अजघन्य स्थितिवाले हुए और उनका प्रमाण अनन्त है अतः ओघसे अजघन्य स्थितिवाले जीव अनन्त कहे। तथा मार्गणाओंकी अपेक्षा विचार करने पर कहीं ओघ जघन्य स्थिति सम्भव है और कहीं आदेश जघन्य स्थिति सम्भव है। इसीप्रकार कहीं जघन्य स्थितिका काल एक समय है और कहीं अन्तमुहूर्त, अतः जहां जिस प्रकारसे जघन्य स्थितिवाले जीवोंका कम या अधिक संचय होता है वहां उसके अनुसार उनकी संख्या कही। किन्तु अजघन्य स्थितिबालोंकी संख्या सर्वत्र अपनी अपनी मार्गणाकी संख्याके अनुसार जानना चाहिये । अर्थात् जिस मार्गणामें अनन्त जीव हैं उस मार्गणामें अजघन्य स्थितिवाले जीवोंकी संख्या अनन्त जानना। तथा जिस मार्गणामें जीव असंख्यात या संख्यात हैं उसमें अजघन्य स्थितिवाले जीवोंकी संख्या असंख्यात या संख्यात जानना ।
इस प्रकार परिमाणानुगम समाप्त हुआ। $ ११२. क्षेत्रानुगम दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उनमें से उत्कृष्ट क्षेत्रानुगमका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से
ओघनिर्देशकी अपेक्षा मोहनीयकी उत्कृष्ट विभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं। अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सब लोकमें रहते हैं। इसी प्रकार तिर्यञ्च, सभी एकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त, जलकायिक. बादर जलकायिक. बादर जलकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त,सभी वनस्पतिकायिक, सभी निगोद, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, कृष्ण आदि तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके कहना चाहिये ।
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गा • २२]
. हिदिविहत्तीए खेत्त ___११३. आदेसेण णेरइएसु मोह० उक्क० अणुक्क० के० खेत्ते ? लोग असंखे०भागे । एवं सत्तपुढवि--णेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्व०-सव्वमणुस्ससव्वदेव-सव्वविगलिंदिय-सव्वपंचिंदिय-बादरपुढविपज्ज०-बादरआउपज्ज०-बादरतेउपज०-बादरवणप्फदिपत्रेय पज्ज-सव्वतस-पंचमण-पंचवचि०-वेउव्विय-उ०मिस्स[आहार-आहारमिस्स०-इत्थि० -पुरिस-अवगद०-अकसाय-विहंग-आभिणि-सुद०अोहि०-मणपज्ज--संजद-सामाइय-छेदो०-परिहार०-सुहम -जहाक्खाद०-संजदासंजदचक्खु०-ओहिदसण-तिण्णिलेस्सा-सम्मादि०-खइय०-वेदय-उवसम०-सासण०सम्मामि०-सण्णि त्ति । ___ ११४. बादरवाउपज्ज० उक्क० के० खेत ? लोग असंखे०भागे । अणुक्क० लोग. संखे०भागे।
एवमुक्कस्सखेत्ताणुगमो समत्ती ।
६ ११३. आदेशनिर्देशकी अपेक्षा नारकियोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, सभी पंचेन्द्रिय तिर्यंच, सभी मनुष्य, सभी देव, सभी विकलेन्द्रिय, सभी पंचेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रेत्येक शरीर पर्याप्त, सभी त्रस,पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी,वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, अपगतवेदवाले,अकषायी,विभंगज्ञानी,आभिनिबोधिकज्ञानी,श्रुतज्ञानी,अवधिज्ञानी,मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्म सांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, पीत आदि तीन लेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदगसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये।
६ ११४. बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंमें उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं। अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके संख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं।
विशेषार्थ-अोघसे उत्कृष्ट स्थितिवाले जीव असंख्यात हैं और मार्गणाओंमेंसे किसीमें असंख्यात हैं और किसीमें संख्यात । अतः उत्कृष्ट स्थितिवालोंका क्षेत्र सर्वत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण कहा । किन्तु अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंमें ओघ या आदेशसे जिनका प्रमाण अनन्त है उनका क्षेत्र सब लोक कहा और जिनका प्रमाण असंख्यात है उनका क्षेत्र तीन प्रकारका है। किन्हीं मार्गणाओंका सब लोक क्षेत्र है,किन्हींका लोकका संख्यातवांभाग क्षेत्र है और किन्हींका लोक का असंख्यातवां भाग क्षेत्र है । तथा जिन मार्गणावालोंका प्रमाण संख्यात है उनका क्षेत्र लोकका असंख्यातवां भाग ही है। जिन मार्गणावालोंका जितना क्षेत्र है उनके नाम मूलमें गिनाये ही हैं।
इस प्रकार उत्कृष्ट क्षेत्रानुगम समाप्त हुआ।
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__जयधवलासहिदे कसायपाहुड़े [हिदिविहत्ती ३ ११५. जहण्णए पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य। तत्थ ओघेण मोह० जह० अजह० उक्कस्सभंगो। एवं कायजोगि० ओरालि०-णवूस०-चत्तारिकअचक्खु०-भवसि०-आहारि त्ति। .
६ ११६. आदेसेण णिरयगदीए मोह० जह० अजह० उक्कस्सभंगो । एवं सत्तपुढवीसव्वपंचिंदियतिरिक्ख-सव्वमणुस-सव्वदेव-सव्वविगलिंदिय-सव्वपंचिंदिय-सव्वतस०बादरपुढविपज्ज०-बादराउपज्ज०-बादरतेउपज बादरवाउपज्ज०-बादरवणप्फदिपत्त यपज्ज-पंचमण०-पंचवचि० --वेउव्विय०-वेउ०मिस्स०-आहार०-आहारमिस्स०-इत्थि०पुरिस०-अवगद०-अकसा०-विहंग-आभिणि-सुद०-ओहिल-मणपज्ज०-संजद०सामाइय०-छेदो०-परिहार०-मुहुम-जहाक्खाद-संजदासंजद०-चक्खु०-ओहिदसतिण्णले०-सम्मादि०-खइय०-वेदय०-उवसम-सासण-सम्मामि०-सण्णि त्ति । णवरि वादरवाउपज्ज० जह० अजह० लोगस्स संखे० भागे ।
६११७. तिरिक्व० मोह० जह० अजह ० के० खेत्त ? सव्वलोए । एवं सव्वएइंदिय-पुढवि०-बादरपुढवि०-बादरपुढविअपज्ज०-सुहुमपुढविपजत्तापज्जत्त-आउ०-बादर
६११५. अब जघन्य स्थितिविभक्ति क्षेत्रानुगमका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा मोहनीयकी जघन्य
और अजघन्य स्थितिविभक्तिकी अपेक्षा क्षेत्रका कथन उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके समान है। इसी प्रकार काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवों के जानना चाहिये ।
$ ११६. आदेशनिर्देशकी अपेक्षा नरकगतिमें मोहनीयकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिकी अपेक्षा क्षेत्र उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके समान है। इसी प्रकार सातों पृथिवियों के नारकी, सभी पंचेन्द्रिय तिर्यंच, सभी मनुष्य, सभी देव, सभी विकलेन्द्रिय, सभी पंचेन्द्रिय, सभी स, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिकपर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त,बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त,पांचों मनोयोगी,पांचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी,वैक्रियिकमिश्रकाययोगी,आहारककाययोगी,आहारकमिश्रकाययोगी,स्त्रीवेदी पुरुषवेदी, अपगतवेदी, अकषायी,विभंगज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी,श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत,सामायिक संयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यर्थाख्यातसंयत,संयतासंयत, चक्षुदर्शनी,अवधिदर्शनी, पीत आदि तीन लेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि बादर वायुकायिक पर्याप्तक जीवोंमें जघन्य स्थिति विभक्तिवाले और अजघन्य स्थितिविभक्ति वाले जीव लोकके संख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं।
___ ११७. तिर्यंचोंमें मोहनीयकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं । सब लोकमें रहते हैं । इसी प्रकार सभी एकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, बादरपृथिवीकायिक, बादरपृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्मपृथिवीकायिक, सूक्ष्मपृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्मपृथिवीकायिक
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गा• २२]
द्विदिविहत्तीए खेत्त आउ०-बादरआउअपज्ज०-सुहुमआउ-पज्जत्तापज्जत्त-तेउ०-[बादरतेउ०-]बादरतेउअपज्ज०सुहुमतेउ०-पज्जत्तापज्जत्त-वाउ०-बादरवाउ०-बादरवाउअपज्ज-सुहुभवाउ०--पज्जत्ता पज्जत्त-बादरवणप्फदि० पत्तेय-तेसिमपज्ज०-सव्ववणप्फदि०-सव्वणिगोद० ओरालियमिस्स-कम्मइय-मदि-सुदअण्णाण-असंजद०-तिण्णिलेस्सा-अभवसि०-मिच्छादि०असण्णि-अणाहारि त्ति ।
११८ एत्थ मूलुचारणापाढो-तिरिक्व० मोह० जह० लोग० संखे०भागे। अज सव्वलोगे । एदस्साहिप्पाओ सत्थाणविसुद्धबादरेइंदियपज्जत्तएसु चेव जहण्णसामित्तं जावमिदि । एवमेइंदिय-बादरेइंदियपजत्तापजत्त-वाउ-बादरवाउ०-तदपज्जत्ताणं च वत्तव्वं । एदम्मि अहिप्पाए चत्तारिकाय-तेसिं बादर-तदपज्जत्ताणं जह० लोग० असंखे० भागे । अज० सव्वलोगे। मदि-सुदअण्णाण०-असंजद० -तिष्णिले०-अभव० - मिच्छादिहि-असण्णीणं बादरवाउभंगो । एतदणुसारेण च पोसणं णेदव्वमिदि एदमेत्थ पहाणं ।
एवं खेत्ताणुगमो समत्तो।। अपर्याप्त,जलकायिक,बादरजलकायिक बादरजलकायिक अपर्याप्त सूक्ष्म जलकायिक,सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्त सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक,बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादरवायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, सभी वनस्पतिकायिक, सभी निगोद, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, कृष्ण आदि तीन लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये ।
११८ यहां पर मूलोचारणाका पाठ है कि तिर्यंचोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव लोकके संख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव सब लोकमें रहते हैं। इसका यह अभिप्राय है कि स्वस्थान विशुद्ध बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें ही जहां तक जघन्य स्वामित्व है वहां तक उक्त क्षेत्र प्राप्त होता है । तात्पर्य यह है कि तिर्यंचोंमें जघन्य स्थिति बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त कोंके ही प्राप्त होती है और उनका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागसे अधिक नहीं, इसलिये सामान्य तिर्यंचोंमें जघन्य स्थितिवाले जीवोंका क्षेत्र उक्त प्रमाण बतलाया है । इसी प्रकार एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक और बादर वायुकायिक अपर्याप्त जीवोंके कहना चाहिये । तथा इस अभिप्रायानुसार पृथिवीकायिक आदि चार स्थावरकाय, उनके बादर और उनके बादर अपर्याप्त जीवोंमें जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं, तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव सब लोकमें रहते हैं। मत्यज्ञानी, ताज्ञानी, असंयत, कृष्ण आदि तीन लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके बादर वायुकायिक जीवोंके समान क्षेत्र है। तथा इसीके अनुसार स्पर्शनका कथन करना चाहिये । इस प्रकार यही विवक्षा यहाँ पर प्रधान है।
विशेषार्थ ओबसे जघन्य स्थितियाले जीव संख्यात हैं और मार्गणाओंकी अपेक्षा
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ द्विदिविहत्ती ३
११६. पोसणाणुगमो दुविहो – जहण्णओ उक्कस्सओ च । उक्कस्से पयदं ।
दुविहो
सो - ओघेण आदेसेण य । तत्थ घेण मोह० उक्क० के० खेचं पोसिदं ? लोग० असंखे ० भागो अह-तेरहचोदस भागा वा देसूणा । अणुक० खेत्तभंगो | एवं कायजोगि० चत्तारिकसाय-मदिअण्णाण-सुदअण्णाण असंजद ० - अचक्खु०भव० - अभव०-मिच्छादि ० - हारिति ।
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किसी में अनन्त हैं, किसीमें असंख्यात और किसीमें संख्यात हैं । इनमें से जिन मार्गणाओंमें जघन्य स्थितिवाले संख्यात जीव हैं उनका वर्तमान क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है । जिन मार्गाओं में असंख्यात हैं उनमें से कुछ मार्गणाएं तो ऐसी हैं जिनका वर्तमान क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही है । जैसे सातों नरकोंके नारकी आदि । तथा बादरवायुकायिक पर्याप्त यह मार्गणा ऐसी है जिसकी अपेक्षा जघन्य स्थितिवाले जीवों का क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण है । इनके अतिरिक्त जो अनन्त संख्यावाली और असंख्यात संख्यावाली मार्गणाएं शेष रहती हैं उनकी अपेक्षा जघन्य स्थितिवाले जीवों का वर्तमान क्षेत्र सब लोक प्राप्त होता है । जैसे सामान्य तिर्यंच, एकेन्द्रिय और पृथिवीकायिक आदि । पर इस विषय में मूलोच्चारणा में जो पाठ पाया जाता है उसका यह अभिप्राय है कि मूलमें असंख्यात संख्यावाली और अनन्त संख्यावाली जिन मार्गणाओंकी जघन्य स्थितिवाले जीवोंका क्षेत्र सब लोक कहा है उनमें से पृथिवीकायिक आदि चार स्थावर काय, उनके बादर तथा बादर अपर्याप्त जघन्य स्थितिवाले जीवों का क्षेत्र तो लोक असंख्यातवें भागप्रमाण ही है और इन्हें छोड़कर शेष सब जघन्य स्थितिवाले जीवोंका क्षेत्र लोक संख्यातवें भागप्रमाण है । सो वीरसेन स्वामीने इस मतभेदका यह कारण बतलाया है कि ऊपर जो सब लोक क्षेत्र कहा है वह मारणान्तिकसमुद्धात आदिकी अपेक्षासे कहा है और मूलोच्चारण में जो कुछका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और कुछका लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र कहा है वह स्वस्थानस्वस्थानकी अपेक्षासे कहा है, अतः दोनों कथनों में कोई विरोध नहीं है । फिर भी वीरसेन स्वामी इन दोनोंमेंसे मूलोच्चारणा के अभिप्रायको प्रधान मानते हैं और उसके अनुसार स्पर्शनके कथन करने की सूचना भी करते हैं । अब रहा ओघ और आदेश से जघन्य स्थितिवाले जीवोंका क्षेत्र सो ओघ या आदेशसे जिसका जितना क्षेत्र बतलाया है, अजघन्य स्थितिकी अपेक्षा भी उसका उतना ही क्षेत्र जानना चाहिये। क्योंकि सर्वत्र यद्यपि जघन्य स्थितिवाले जीव कम हो जाते हैं फिर भी इससे अजघन्य स्थितिकी अपेक्षा उनके क्षेत्र में न्यूनता नहीं आती ।
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इस प्रकार क्षेत्रानुगम समाप्त हुआ ।
$ ११६. स्पर्शानुगम दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । उनमेंसे उत्कृष्ट स्पर्शनानुगमका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघनिर्देश और आदेश निर्देश । उनमें से ओघ निर्देशकी अपेक्षा मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका तथा त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम तेरह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है । इसी प्रकार काययोगी, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचतुदर्शनी, भव्य, अभव्य, मिध्यादृष्टि और आहारक जीवोंके कहना चाहिये ।
विशेषार्थ - यहां मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका जो लोकके असंख्यात वें भाग प्रमाण
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गा० २२ ] हिदिविहत्तीए फोसणे
६६ $ १२०. आदेसेण णिरय• मोह० उक्क० अणुक्क० के० खेचं पोसिद ? लोगस्स असंखे भागो छचोद्दस भागा वा देसूणा । पढमाए खेतभंगो । विदियादि जाव सत्तमि त्ति मोह० उक्क० अणुक्क० के० खेनं पोसिदं ? लोग० असंखे भागो एक्क-बे-तिण्णि-चत्तारि-पंच-छचोद्दस भागा देसूणा ।
६१२१. तिरिक्ख० मोह० उक० के० खे० पो० ? लोग. असंखे०भागो छ चोदसभागा वा देसूणा । अणुक्क० के० खेचं पोसिदं ? सव्वलोगो । एवमोरालि०णवूस० वत्तव्यं । स्पर्श बतलाया है वह वर्तमान कालकी मुख्यतासे बतलाया है, क्योंकि मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति सातों नरकोंके नारकी, संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंच, पर्याप्त मनुष्य व बारहवें स्वर्ग तकके देवों के ही सम्भव है । पर इन सबका वर्तमान क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही है । वसनालीके चौदह भागोंमेंसे जो कुछ कम आठ और कुछ कम तेरह भाग प्रमाण स्पर्श बतलाया है वह अतीत कालकी अपेक्षासे बतलाया है क्योंकि विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिक पदसे परिणत हुए मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिवाले जीवोंने कुछ कम आठ भाग स्पर्श किया है और मारणान्तिक समुद्धातसे परिणत हुए मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिवाले जीवोंने कुछ कम तेरह भाग स्पर्श किया है । मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिके रहते हुए तैजस, आहारक और उपपाद ये तीन पद सम्भव नहीं। हां स्वस्थानस्वस्थानपद अवश्य होता है सो इसकी अपेक्षा स्पर्श लोके असंख्यातवें भागप्रमाण जानना चाहिये । तथा मोहनीयकी अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका क्षेत्र जब कि सब लोक है तब स्पर्श तो सब लोक होगा ही। कुछ मार्गणाएं भी ऐसी हैं जिनमें यह ओघ प्ररूपणा अविकल बन जाती है अतः उनके कथनको ओघके समान कहा । जैसे काययोगी आदि ।
$ १२०. आदेशनिर्देशकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकियोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। पहली पृथिवीमें स्पर्श क्षेत्रके समान है। तथा दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक प्रत्येक पृथिवीमें मोहनीय की उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका तथा त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम एक, दो, तीन, चार, पांच और छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है।
विशेषार्थ-सामान्यसे नारकियोंका वर्तमान कालीन स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है और अतीत कालीन स्पर्श त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भाग प्रमाण बतलाया है। इसीसे यहां पर मोहनीयकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिवाले नारकियोंके दोनों प्रकारका स्पर्श उक्तप्रमाण कहा । विशेषकी अपेक्षा जिस नरकका अतीत कालीन जितना स्पर्श बतलाया है उतना ही जान लेना चाहिये जो मूल में बतलाया ही है। यहां हमने पदविशेषोंका उल्लेख नहीं किया है सो यह सब विशेषता जीवट्ठाणसे जान लेनी चाहिये ।
१२१. तिथंच गतिमें तिर्यंचोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [द्विदिविहत्ती ३ १२२. पंचिंदियतिरिक्वतियम्मि उक्क तिरिक्खोघं । अणुक्क० के० खे० पो० ? लोग० असंखेभागो सव्वलोगो वा । पंचिंदियतिरिक्खअपज मोह उक्क० लोगों असंखे भागो। अणुक्क० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । एवं मणुसअपज्ज० । क्षेत्रका स्पर्श किया है ? सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार औदारिककाययोगी और नपुंसकवेदी जीवोंके कहना चाहिये।
विशेषार्थ–तियंचोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंचोंके ही सम्भव है और इनका वर्तमान निवास लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है, अतः तियचोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिवाले जीवोंका वर्तमान स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है । तथा मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिवाले तिर्यंचोंका अतीत कालीन स्पर्श कुछ कम छह बटे चौदह भागप्रमाण बतलानेका कारण यह है कि ऐसे तियचोंने मारणान्तिक समुद्घात द्वारा नीचे कुछ कम छह राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। क्योंकि जिन तिर्यंचोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध हो रहा है उनका संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त तियंच, मनुष्य और नारकियोंमें ही मारणान्तिक समुद्धात करना सम्भव है । तथा मोहनीयकी अनुत्कृष्ट स्थिति सब जातिके तिर्यंचोंके सम्भव है और वे सब लोकमें पाये जाते हैं अतः मोहनीयकी अनुत्कृष्ट स्थितिवाले तिर्यंचोंका सब लोक स्पर्श बतलाया है । औदारिककाययोग और नपुंसकवेदमें भी यह व्यवस्था बन जाती है, अतः इनके स्पर्शको सामान्य तिर्यंचोंके समान बतलाया है।
१२२. पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिमती इन तीन प्रकारके तिर्यञ्चोंमें उत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले जीवोंका स्पर्शन सामान्य तिर्यंचोंके समान है। तथा उक्त तीन प्रकारके तिर्यंचोंमें अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और सब लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। पंचेन्द्रियतियच लब्ब्यपर्याप्तकोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और सर्व लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है । इसी प्रकार लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यों के जानना चाहिये।
विशेषार्थ-सामान्य तिर्यंचोंमें जो उत्कृष्ट स्थितिवाले जीवों का स्पर्श कहा है वह पंचेन्द्रिय तिर्यंचत्रिक की मुख्यतासे ही कहा है अतः इन तीन प्रकारके तिर्यंचोंमें उत्कृष्ट स्थितिवाले जीवोंका स्पर्श सामान्य तियचोंके समान बतलाया है। किन्तु उक्त तीन प्रकारके तियचोंमें अनुत्कृष्ट स्थितिवाले जीवोंके स्पर्शमें कुछ विशेषता है। बात यह है कि इन तीन प्रकारके तिर्यंचोंका वर्तमान स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है और अतीतकालीन स्पर्श सब लोक है अतः इनमें अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श उक्त प्रमाण बतलाया है। जो तिथंच या मनुष्य मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके और स्थितिघात किये बिना पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें उत्पन्न होते हैं उन्हींके पहले समयमें मोहनीयकी आदेश उत्कृष्ट स्थिति पाई जाती है। किन्तु इनके अतीतकालीन और वर्तमानकालीन क्षेत्रका विचार करते हैं तो वह लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है, अतः यहां मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिवाले लब्ध्यपर्याप्तक तिर्यंचों का दोनों प्रकारका स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। वैसे पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक तिर्यंचोंका वर्तमानकालीन स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत कालीन स्पश सब लोक बतलाया है जो इनके अनुत्कृष्ट स्थितिके रहते हुए सम्भव है, अतः मोहनीयकी अनुत्कृष्ट स्थितिवाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्त कोंके दोनों प्रकारका स्पर्श
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गा०२२]
द्विदिविहत्तीए फोसणं ___१२३. मणु०-मणुसपज०-मणुसिणीसु उक्क० के० खे० पो० १ लोग० असंखे० भागो । अणुक्क० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा।
$ १२४. देवेसु मोह० उक्क० अणुक्क० के० खेत्त० पो० ? लोग० असंखे भागो अह-णव चोदसभागा वा देसूणा । एवं सोहम्मीसाण० वत्तव्वं । भवण०-वाण-जोदिसि० मोह० उक्क, अणक० के० खे० पो. ? लोग० असंखे भागो अधु-अहणव चोदसभागा वा देमणा । सणक्कुमारादि जाव सहस्सारे त्ति मोह० उक्क० अणुक्क० के० ख० पो. ? लोग० असंखे भागो अट्ठचौदस भागा वा देसूणा । आणद-पाणदआरणच्चुद० मोह० उक्क खेत्तभंगो । अणक्क० के० खे० पो० १ लोग० असंखे भागो उक्त प्रमाण बतलाया है । इस विषयमें मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तकोंकी स्थिति पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक तिर्यंचोंके समान है अतः मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तकोंका स्पर्श पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकोंके समान वतलाया है।
- १२३. सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है।
विशेषार्थ सामान्य आदि तीन प्रकारके मनुष्योंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिवाले जीवोंका स्पर्श लोकके असंख्यातवें भाग कहनेका कारण यह है कि ऐसे मनुष्य संख्यात ही होते हैं और इनका उत्कृष्ट स्थितिके साथ सर्वत्र मारणान्तिक समुद्घात करना सम्भव नहीं, अतः इनका दोनों प्रकारका स्पर्श इससे अधिक नहीं प्राप्त होता । किन्तु उक्त तीन प्रकारके मनुष्योंका वर्तमान स्पर्श . लोकके असंख्यातवें भाग और अतीतकालीन स्पर्श सब लोक बतलाया है जो मोहनीयकी अनुत्कृष्ट स्थितिके साथ सम्भव है अत: अनुत्कृष्ट स्थिति वाले उक्त तीन प्रकारके मनुष्योंका स्पर्श उक्त प्रमाण कहा।
६१२४. देवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका तथा त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार सौधर्म और ऐशान स्वर्गके देवोंके कहना चाहिये । भवनवासी,व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका तथा
सनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम साढ़े तीन, पाठ और नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। सानत्कुमारसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है । अानत, प्राणत, अारण और अच्युत कल्पके देवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श उनके क्षेत्र के समान है । तथा उक्त देवोंमें मोहनीयकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और बसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भाग क्षेत्रका स्पर्श किया
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ विदिविहत्ती ३
छचोहस भागा वा देभ्रूणा । उवरि खेत्तभंगो । एवं ओरालियमिस्स - वेडव्वियमिस्स - आहार - आहारमिस्स अवगद ० - अकसा०-मणपज्ज० - संजद ० - सामाइय-छेदो०- परिहार०सुहुम० - जहाक्खाद० - संजदे त्ति ।
१२५. एइंदिय० मोह० उक० के० खे० पो० ? लोग० असंखे० भागो णव चोदभागा वा देणो । अणुक० सव्वलोगो । एवं बादरेइंदिय - बादरेइंदियपज्ज० । मुहुमेइंदियपज्जत्तापज्जत्त- - बादरे इंदियअपज्ज० मोह० उक्क० के० खे० पो० १ लोगस्स असंखे०भागो सव्वलोगो वा । अणुक्क० सव्वलोगो । एवं पंचकाय मुहुम-पज्जत्तापज्जताणं ।
है | अच्युत स्वर्गके ऊपर देवोंके स्पर्श उनके क्षेत्र के समान है । इसी प्रकार अर्थात् नौग्रेयक आदिके देवोंके समान औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापना संयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसां परायिकसंयत और यथाख्यात संयत जीवोंके जानना चाहिये । विशेषार्थ - जीवट्ठाण आदिमें सामान्य देवोंका व भवनवासी आदि देवोंका जो वर्तमानकालीन व अतीतकालीन स्पर्श बतलाया है वही यहां उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट स्थितिवाले उक्त देवोंका स्पर्श जानना चाहिये जो मूलमें बतलाया ही है । अन्तर केवल आनतादिक चार कल्पोंके देवों में उत्कृष्ट स्थितिवालों के स्पर्श में है । बात यह है कि आनतादिक चार कल्पों में जो द्रव्यलिंगी मुनि उत्पन्न होते हैं उन्हींके पहले समय में मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति होती है और इनके अतीतकालीन स्पर्श कुछ कम छह बड़े चौदह राजु विहार आदिके समय प्राप्त होता है । इस प्रकार आनतादिकमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका वर्तमान व अतीत स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है । मूलमें औदारिकमिश्र आदि मार्गणाओं में इसी प्रकार है यह बतलाया है सो इसका भाव यह है कि इन मागंणाओं में भी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श अपने अपने क्षेत्र के समान जानना चाहिये । उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है ।
$ १२५. एकेन्द्रियों में मोहनीयको उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम नौ भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये । सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त और बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवों में मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । इसी प्रकार पांचों स्थावरकाय, पांचों स्थावरकाय सूक्ष्म, पांचों स्थावरकाय सूक्ष्म पर्याप्त और पांचों स्थावर काय सूक्ष्म अपर्याप्त जीवों के जानना चाहिये ।
विशेषार्थ - जिन देवोंने मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके अनन्तर समय में मरकर एकेन्द्रिय पर्यायको प्राप्त किया उन्हीं एकेन्द्रियोंके पहले समय में मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति होती है, अतः इनका वर्तमानकालीन स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीतकालीन स्पर्श
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गा० २२ ]
हिदिविहत्तीए फोस
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$ १२६. सव्वविगलिंदिय० मोह० उक्क० लोग० असंखे० भागो । अक ० लोग० असंखे० भागो सव्वलोगो वा । एवं पंचिदियअपज्ज० तसअपज्ज० वत्तव्वं । $ १२७. पंचिंदिय - पंचिदियपज्ज० - तस तसपज्ज० मोह० उक्क० ओघं । ऋणुक ० लोग० असंखे० भागो अचोदस भागा वा देसूणा सव्वलोगो वा । एवं पंचमण०पंचवचि ० - इत्थि० - पुरिस० - विहंग० - चक्खु - सण्णिति ।
कुछ कम नौ बटे चौदह राजु बतलाया है। यहां तीसरी पृथिवीतक दो राजु और ऊपर सात राजु इस प्रकार नौ राजु लेना चाहिये । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिवाले एकेन्द्रिय जीव सब लोकमें पाये जाते हैं, अतः इनका दोनों प्रकारका स्पर्श सब लोक कहा । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकों में यह व्यवस्था अविकल घटित हो जाती है इसलिये इनके स्पर्शको एकेन्द्रियों के समान कहा । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनका सब लोक स्पर्श मारणान्तिक और उपपादपदकी अपेक्षा ही जानना चाहिये। जो संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच और मनुष्य मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त तथा बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंमें उत्पन्न होते हैं उन्हीं के पहले समय में मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति होती है । अब यदि इनके वर्तमान स्पर्शका विचार किया जाता है तो वह लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है और अतीत कालीन स्पर्शका विचार किया जाता है तो वह सब लोक प्राप्त होता है । यही सबब है कि यहां उक्त मार्गणा में उत्कृष्ट स्थितिवालोंका वर्तमान स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रभाग और अतीत कालीन स्पर्श सब लोक प्रमाण बतलाया जाना सम्भव है अतः उक्त मार्गणाओं में अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श सब लोक कहा। यहां बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंका सब लोक स्पर्श उपपाद और मारणान्तिक पदकी अपेक्षा ही जानना चाहिये । पांचों सूक्ष्म स्थावर काय आदि कुछ ऐसी मार्गणाएं हैं जिनमें यह व्यवस्था बन जाती है, अतः उनके कथनको उक्त प्रमाण कहा ।
$ १२६. सभी विकलेन्द्रिय जीवों में मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है । इसी प्रकार पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक और स लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके कहना चाहिये ।
विशेषार्थ - स - सब विकलेन्द्रियों में उत्कृष्ट स्थिति उन्हीं के होती है जो संज्ञी तिर्यंच और मनुष्यों में से कर यहाँ उत्पन्न होते हैं । अतः इनमें उत्कृष्ट स्थितिवालोंका दोनों प्रकारका स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा । तथा सब विकलेन्द्रियोंका वर्तमान स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है और अतीतकालीन स्पर्श सब लोक है अतः इनमें अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका दोनों प्रकारका स्पर्श उक्तप्रमाण कहा है। यही व्यवस्था पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और त्रस अपर्याप्तकों में बन जाती है अतः इनके कथनको सब विकलेन्द्रियोंके समान कहा ।
१२७. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस और त्रस पर्याप्त जीवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श ओघके समान है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श लोकका असंख्यातवां भाग, त्रसनालोके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण और सब लोक है। इसी प्रकार पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभंगज्ञानी, चक्षुदर्शनी और संज्ञी जीवों के जानना चाहिये ।
विशेषार्थ-पंचेन्द्रियादि चार मार्गणाओंमें अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श तीन प्रकारका बतलाया है । लोक असंख्यातवें भागप्रमाण स्पर्श वर्तमानकालकी अपेक्षासे बतलाया है, क्योंकि
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [हिदिविहत्ती ३ $ १२८. कायाणुवादेण पुढवि-बादरपुढवि०-बादरपुढविपज्ज-आउ०-बादरआउ०—बादरआउपज०-वणप्फदि-बादरवणप्फदि०-बादरवणप्फदिपत्रेय. तस्सेव पज्ज. मोह० उक्क० एइंदियभंगो। अणुक्क० सव्वलोगो । णवरि तिण्हं पज्जत्ताणं मोह० अणुक्क० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । बादरपुढविअपज्ज०-बादर आउअपज्ज-तेउ०-बादरतेउ०-बादरतेउअपज्जा-वाउ०- बादरवाउ०-बादरवाउअपज्जा-बादरवणप्फदिपत्तेयअपज्ज. मोह० उक्क० लोग० असंखे० भागो सव्वलोगो वा । णवरि बादरपुढविअपज्ज० [-बादराउ अपज्ज०-] बादरतेउ अपज्जा[बादरवाउअपज्ज०- ] बादरवणप्फदिपत्रेयअपज्जत्ताणं सव्वलोगफोसणं णत्थि । अणुक्क० सव्वलोगो । बादरवाउ०पज्ज० मोह० उक्क० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । अणुक० लोग० संखे भागो सव्वलोगो वा। बादरतेउ०पज्ज. मोह० उक्क० के० खे० पो ? लोग० असंखे०भागो । अणुक्क० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । जितने क्षेत्रमें उक्त मार्गणावाले जीव निवास करते हैं। उनके वर्तमान क्षेत्रका प्रमाण लोकके असंख्यातवें भागसे अधिक प्राप्त नहीं होता। कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्श विहारवत् स्वस्थान आदिकी अपेक्षासे कहा है, क्योंकि इन जीवोंके ये पद दो राजु नीचे और छह राजु ऊपर इस प्रकार आठ राजु क्षेत्रमें ही पाये जाते हैं। तथा सब लोक प्रमाण स्पर्श मारणान्तिक और उपपाद पदकी अपेक्षासे कहा है । कुछ और मार्गणाएं हैं जिनमें उक्त व्यवस्था ही प्राप्त होती है । जैसे पांचों मनोयोगी आदि। ____ १२८. कायमार्गणाके अनुवादसे पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त,जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिकपर्याप्त, वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पयाप्त जीवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले जीवोंका स्पर्शन एकेन्द्रियों के समान है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्शन सब लोक है। इतनी विशेषता है कि उक्त तीन प्रकारके पर्याप्त जीवोंमें अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्शन लोकका असंख्यातवां भाग
और सब लोक है। बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त, अग्निकायिकं, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त जीवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। इतनी विशेषता है कि बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त,बादर जलकायिक अपर्याप्त,वादर अग्निकायिक अपर्याप्त, बादर वायुकायिक अपर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त जीवोंके सर्वलोक स्पर्शन नहीं है। तथा अनुत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले उक्त जीवोंका स्पर्शन सब लोक है । बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोकका स्पर्शन किया है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके संख्यातवें भाग और सब लोकका स्पर्शन किया है। बादर अग्निकायिक पर्याप्त जीवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
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गा ० २२ ]
हिदिविहत्तीए फोसणं ___ १२६. वेउव्विय० उक्क० अणुक्क० के० खे० पो० ? लोग० असंखे भागो अह-तेरह चोदस भागा वा देसूणा० । कम्मइय० मोह० उक्क लो० असं०भागो तेरहचोदसभागावा देसूणा । [अणुक्क० सव्वलोगो।] आभिणि०-सुद०-ओहि० मोह ० उक्क० अणुक्क० लो० असं०भागो अहचोदस भागा वा देमूणा । एवमोहिदंस०सम्मादि०वेदय०-उवसम०-सम्मामि ।
विशेषार्थ-यहां पृथिवीकायिक आदिमें उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श एकेन्द्रियोंके समान बतलाकर भी अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श अलगसे बतलाया है। उसका कारण यह है कि उपर्युक्त मार्गणाओंमेंसे कुछमें तो अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका दोनों प्रकारका स्पर्श सब लोक बन जाता है पर उनके पर्याप्तकोंमें वर्तमानकालीन स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है क्योंकि बादरपृथिवीकायिक पर्याप्तक आदि जीवोंने वर्तमानमें लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका ही स्पर्श किया है। बस इतनी विशेषताके लिये ही उक्त मार्गणाओंमें अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श अलगसे कहा है । बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त आदि जीवोंमें मोहनीयको उत्कृष्ट स्थिति उन्हीं जीवोंमें प्राप्त होती है जो संज्ञी तिर्यंच या मनुष्य उत्कृष्ट स्थिति बांधकर पश्चात् इनमें उत्पन्न होते हैं। अब यदि इनके वर्तमान और अतीत स्पर्शका विचार करते हैं तो वह लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है अतः यहां उक्त मार्गणाओंमें सब लोक प्रमाण स्पर्शका निषेध किया है । यद्यपि बादर वायुकायिक पर्याप्त जीव लोकके संख्यातवें भागका और सब लोकका स्पर्श करते है किन्तु मोहनीयको उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा जब विचार करते हैं तब उनका लोकके संख्यातवें भागके स्थानमें लोकका असंख्यातवां भागप्रमाण ही स्पर्श प्राप्त होता है, क्योंकि जो संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंच या मनुष्य मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके पश्चात् बादर पर्याप्त वायुकायिकोंमें उत्पन्न होते हैं। उनके वर्तमान कालीन स्पर्शका योग लोकका असंख्यातवां भाग प्रमाण ही होता है । हां यदि अतीत कालीन उपपादकी अपेक्षा इसका विचार करते हैं तो वह सब लोक बन जाता है ।
8 १२६. वैक्रियिक काययोगी जीवोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका तथा त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग ओर कुछ कम तेरह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। कार्मणकाययोगियोंमें माहनीय की उत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम तेरह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने सर्वलोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। आभिनिबोधिकज्ञानी,श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लाकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। .
विशेषार्थ-वैक्रियिक काययोगमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श तीन प्रकार का बतलाया है। लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण स्पर्श वर्तमानकालकी अपेक्षा बतलाया है, क्योंकि वैक्रियिककाययोगवालोंका वर्तमानकालीन स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही है। अतीतकालीन स्पर्श पदविशेषोंकी अपेक्षा दो प्रकारका है, कुछ कम आठ बटे चौदह राजु और कुछ कम तेरह बटे चौदह राजु । इनमेंसे पहला विहारवत् स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिक
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [द्विदिविहत्ती ३ १३०. संजदासजद-संजद० उक्क० खेत्तभंगो । अणुक्क० लोग० असंखे०भागो छचोइस भागा वा देमूणा । एवं सुक्कले। तेउले. सोहम्मभंगो। पम्म० सहस्सारभंगो।
१३१. किण्ह०-णील०-काउ० उक्क० के० खे० पो० १ लोग० असंखे० भागो छ-चदु-बे-चोदसभागा देसूणा । अणु० सव्वलो० ।
१३२ खइय० मोह. उक्क० खेत्तभंगो। अणुक्क० के० खे० पो ? लोग असंखे भागो अहचोइस भागा वा देसूणा।
$ १३३. सासण० मोह० उक्क लोग० असंखे भागो अहचोइस भागा वा देसूणा। अणुक्क० अह-बारहचोदस भागा वा देसूणा । असण्णि. एइंदियभंगो । पदोंकी अपेक्षा कहा है और दूसरा मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा कहा है। कार्मणकाययोगियोंका स्पर्श यद्यपि सब लोक है किन्तु यहां उत्कृष्ट स्थितिवालोंका वर्तमानकालीन स्पर्श लोकके असंख्यातवें भाग है और अतीतकालीन स्पर्श कुछ कम तेरह बटे चौदह राजु है, क्योंकि मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति संज्ञी पर्याप्तके ही होती है। अब यदि ऐसे जीव दूसरे समयमें मरकर कार्मणकाययोगी होते हैं तो उनका वर्तमान स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागसे अधिक नहीं प्राप्त होता, इसलिये यहां वर्तमान स्पर्श लोकके असंख्यातवें भाग कहा। तथा उत्कृष्ट स्थितिवाले कार्मणकाययोगियोंने अतीत कालमें नीचे कुछ कम छह राजु और ऊपर कुछ कम सात राजु क्षेत्रका स्पर्श किया है अतः इनका अतीतकालीन स्पर्श कुछ कम तेरह बटे चौदह राज कहा। आभिनिबोधिकज्ञानादि मार्गणाओंमें उस मार्गणाका जो स्पर्श है वही यहां उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा जानना चाहिये।
१३०. संयतासंयत जीवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार शुक्ललेश्यावाले जीवोंका स्पर्श है। पीतलेश्यावाले जीवोंका स्पर्श सौधर्मके देवोंके समान है। तथा पद्मलेश्यावाले जीवोंका स्पर्श सहस्रार स्वर्गके देवोंके समान है।
8 १३१. कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावालोंमें उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका तथा त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह, चार और दा भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने सवलोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है।
१३२, क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जावोंने कितने क्षेत्र का स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और बसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है।
६१३३. सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें मोहनी यकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ
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गा० २२]
हिदिविहत्तीए फोसण अणाहारि• कम्मइयभंगो ।
एवं उक्कस्सपोसणाणुगमो समत्तो । १३४. जहण्णए पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोह० जह० के० खे० पो० ? लोग० असंखे० भागो। अज० सव्वलोगो । एवं काययोगि-ओरालि०-णवुस०-चत्तारिक -अचक्खु०-भवसि०-ाहारि त्ति ।
१३५. आदेसेण णेरइय० मोह जह• खेत्तभंगो । अज० अणुक्कस्सभंगो । पढमाए खेत्तभंगो । विदियादि जाव सत्तमि त्ति मोह० जह० खेत्तभगो । अज० अणुक्कस्स भंगो। और कुछ कम बारह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। असंज्ञी जीवोंका स्पर्श एकेन्द्रियोंके समान है । तथा अनाहारी जीवोंका स्पर्श कार्मणकाययोगियोंके समान है।
विशेषार्थ-संयतासंयतके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति इन गुणास्थानोंको प्राप्त होनेके पहले समयमें होती है पर उस समय मारणान्तिक समुद्घात सम्भव नहीं, अतः इन दोनों मार्गणाओंमें उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श लोकके असंख्यातवें भाग कहा है और अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श इन मार्गणाओंके स्पर्शके समान ही कहा है। कृष्ण लेश्यामें उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श सातवें नरककी मुख्यतासे, नील लेश्यामें उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श पांचवें नरककी मुख्यतासे और कापोत लेश्यामें उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श तीसरे नरककी मुख्यतासे कहा है । सासादनोंमें उत्कृष्ट स्थितिवालोंका जो कुछ कम आठ वटे चौदह राजु स्पर्श बतलाया है वह देवोंकी प्रधानतासे कहा है।
इस प्रकार उत्कृष्ट स्पर्शनानुगम समाप्त हुआ। ६ १३४. अब जघन्य स्पर्शनानुगमका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघ निर्देशकी अपेक्षा मोहनीयकी जघन्य स्थिति. विभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवेंभाग क्षेत्रका स्पर्श किया है । तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने सर्वलोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार काययोगी
औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंके कहना चाहिये।
विशेषार्थ-अोघसे मोहनीयकी जघन्य स्थिति क्षपकश्रेणिमें प्राप्त होती है और क्षपकोंका स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है अतः यहाँ ओघसे जघन्य स्थितिवालोंका स्पर्शलोकके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है। तथा अजघन्य स्थितिवालोंका स्पर्श सब लोक है यह स्पष्ट ही है। मूलमें गिनाई गई काययोगी आदि कुछ ऐसी मार्गणाएँ हैं जिनमें ओघके समान स्पर्श बन जाता है अतः उनके कथनको ओघके समान कहा।
६१३५. आदेशनिर्देशकी अपेक्षा नारकियोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवों का स्पर्श क्षेत्रके समान है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंके समान है। पहली पृथिवीमें स्पर्श क्षेत्र के समान है । तथा दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवों के स्पर्शके समान है।
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जयघवलासहिदे कसायपाहुडे. [द्विदिविहत्ती ३ १३६. तिरिक्ख० मोह० जह• अजह० के० खे० पोसिदं ? सव्वलोगो । एवं सव्वेइंदिय-पुढवि० बादरपुढवि०-बादरपुढविअपज्ज-सुहुमपुढवि०-पज्जत्तापज्जत्तआउ०-बादरआउ०-बादरआउअपज - सुहुमआउ०-पज्जत्तापज्जत्त - तेउ०-बादरतेउ०वादरतेउअपज्ज०-सुहुमतेउ०-पज्जत्तापज्जत्त-वाउ.-बादरवाउ०-बादरवाउअपज्ज -मुहुमवाउ०-पज्जत्तापज्जत्त-बादरवणप्फदिपत्तेय०-तस्सेव अपज्ज-सव्ववणप्फदि०-सव्वणिगोद०-ओरालियमिस्स-कम्मइय-मदिअण्णाण-सुदअण्णाण-असंजद-तिण्णिले०-अभव०मिच्छा०-असण्णि०-अणाहारि ति (एत्थ खेत्तम्मि भणिदविहाणेण मूलुच्चारणाए पाठभेदो अणुगंतव्यो तदहिप्पारण तिरिक्खोसुलोगस्स असंखो भागमेत्तपोसणुवलंभादो।
विशेषार्थ--नारकियोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिवालोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है। स्पर्श भी उतना ही प्राप्त होता है, क्योंकि जो असंज्ञी नरकमें उत्पन्न होते हैं उन्हीं नारकियोंके विग्रहके दसरे समयमें जघन्य स्थिति होती है। किन्त असंज्ञी जीव पहले नरकमें ही उत्पन्न होते हैं और पहले नरकका स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागसे अधिक नहीं है अतः सामान्यसे नारकियोंमें जघन्य स्थितिवालोंका स्पर्श क्षेत्रके समान बतलाया है। अजघन्य स्थितिवालोंमें जघन्य स्थितिवालोंको छोड़कर शेष सबका समावेश हो जाता है अतः सामान्यसे अजघन्य स्थितिवालोंका स्पर्श अनुत्कृष्टके समान बतलाया है। पहली पृथिवीके नारक्यिोंका स्पर्श उनके क्षेत्रके समान ही है अतः यहां पहली पृथिवीके जघन्य और अजघन्य स्थितिवाले नारकियोंका स्पर्श क्षेत्रके समान कहा है। दूसरेसे लेकर छठे नरक तक जघन्य स्थिति उन सम्यग्दृष्टि नारकियोंके अन्तिम समयमें होती है. जिन्होंने नरकमें उत्पन्न होनेके अन्तर्मुहूर्त बाद सम्यक्त्वको प्राप्त कर लिया है और अनन्तानुवन्धीकी विसंयोजना कर ली है। तथा सातवें नरकमें उन मिथ्यादृष्टि नारकियोंके होती है जो जीवन भर सम्यग्दृष्टि रहे हैं पर अन्तमें मिथ्यादृष्टि हो गये हैं। अब यदि इन जीवोंके स्पर्शका विचार किया जाता है तो वह लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है और इन द्वितीयादि नरकोंके नारकियोंका क्षेत्र भी इतना ही है अतः उक्त नरकोंमें जघन्य स्थितिवालोंका स्पर्श क्षेत्रके समान बतलाया है। तथा अजघन्य स्थितिवालोंके स्पर्शका खुलासा जैसा ऊपर कर आये हैं उसी प्रकार यहां भी कर लेना चाहिये।।
१३६. तिथंचगतिमें मोहनीयकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार सभी एकेन्द्रिय,पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्न, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पयाप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपयाप्त, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिकअपयाप्त, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म जल कायिक पर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक पयाप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक
यिक अपयोप्त, वायुकायिक, बादरवायुकायिक, बादर वायुकायिक अपयाप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्मवायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्मवायुकायिक अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरार, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, सभी वनस्पतिकायिक, सभी निगोद, औदारिक, मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, कृष्ण आदि तीन लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये । यहां पर क्षेत्रानुगममें कही
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गा० २२.]
द्विदिविहत्तीए फोसणं ६ १३७. सव्वपंचिंदियतिरिक्खाणं जह० खेत्तभंगो । अज० अणुक्कस्सभंगो । एवं सव्वमणुस०।
६१३८. देव० मोह० ज० खेत्तभंगो । अज० अणुक्कस्सभंगो । भवणादि जाव भारणच्चुदे त्ति जह० खेत्तभंगो। अज. अणुक्कस्सभंगो । उवरि खेत्तभंगो। एवं वेउव्वियमिस्स०-आहार-आहारमिस्स०-अवगद०-अकसा०-मणपज्ज०-संजद०-सामाहय छेदो०-परिहार०-सुहुम०-जहाक्खादसंजदे त्ति । गई विधिसे मूलोच्चारणाके अनुसार पाठभेद जान लेना चाहिये । उसके अभिप्रायानुसार तिर्यंचोंमें लोकका असंख्यातवां भागमात्र स्पर्शन पाया जाता है ।
. विशेषार्थ-तियचोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थिति एकेन्द्रियोंके होती है तथा अजघन्य स्थितिवालोंमें भी एकेन्द्रिय ही मुख्य हैं और वे सब लोकमें पाये जाते हैं अतः तिर्यंचोंमें जघन्य और अजघन्य स्थितिवालोंका स्पर्श सब लोक बतलाया है । इसी प्रकार मूलमें जो सब एकेन्द्रिय आदि मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें भी तियचोंके समान जानना चाहिये। किन्तु मूल उच्चारणामें इन सबका जघन्य स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है। सो वह स्वस्थानस्वस्थान पदकी अपेक्षा जानना चाहिये।
१३७. सभी पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्शक्षेत्रके समान है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंके समान है। इसी प्रकार सभी मनुष्योंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-पंचेन्द्रिय अादि तिर्यंचोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थिति उन्हीं तिथंचोंके पहले और दूसरे विग्रहमें होती है जो एकेन्द्रिय पर्यायसे आकर उक्त तिर्यंच हुए हैं । अब यदि इनके क्षेत्रका विचार किया जाता है तो वह लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है। स्पर्शनमें भी इससे विशेष अन्तर नहीं पड़ता, अतः सब प्रकारके पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंमें जघन्य स्थितिवालोंका स्पर्श क्षेत्रके समान बतलाया है। तथा अजघन्य स्थितिवालोंका भंग अनुत्कृष्टके समान बतलानेका कारण यह है कि अजघन्य स्थितिमें जघन्य स्थितिको छोड़कर शेष सब स्थितियोंका ग्रहण हो जाता है और इसलिये इनका स्पर्श अनुत्कृष्टके समान बन जाता है। सब मनुष्योंके भी इसी क्रमसे स्पर्शनका कथन करना चाहिये। इसका यह तात्पर्य है कि सब प्रकारके मनुष्योंमें जघन्य स्थितिवालोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है और अजघन्य स्थितिवालोंका स्पर्श अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंके स्पर्शके समान है।
६१३८. देवोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले देवोंके स्पर्शके समान है। भवनवासियोंसे लेकर पारण अच्युत.स्वर्ग तकके देवोंमें जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श क्षेत्र के समान है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले उक्त देवोंका स्पर्श अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले उक्त देवोंके स्पर्शके समान है। अच्युत स्वर्गके ऊपर स्पर्श क्षेत्रके समान है। इस प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अतपायी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थानासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिये।
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नि।
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिनिहत्ती ३ १३६. सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज्ज-०तसअपज्ज० पंचिंदियतिरिक्खअपजत्तभंगो। पंचिं- [पंचि०-] पज्ज०-तस-तसपज्ज. मोह० जह• खेत्तभंगो । अज. अणुक्कस्सभंगो । एवं पंचमण-पंचवचि०--इत्थि०--पुरिस०-विहंग-चक्खु०सण्णि त्ति । ___१४०. बादरपुढविपज्ज० बादराउपज्ज.-बादरतेउपज्ज०-बादरवणप्फदिपत्तय पज्ज० मोह० ज० अज० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । 'बादरवाउपज. मोह० ज० अज० लोग० संखेजदिभागो सव्वलोगो वा ।
६१४१. वेउव्विय० मोह० जह० खेत्तभंगो। अज० अणुक्कस्सभंगो। एवमाभिणि-सुद०-प्रोहि०-संजदासंजद०-ओहिदंस-तिण्णिले०-सम्मादि०-खइय०-वेदय०उवसम०-सासण-सम्मामि० ।
. एवं पोसणाणुगमो समत्तो। $ १४२ कालाणुगमो दुविहो-जहण्णओ उक्कस्सओ चेदि । तत्थ उक्कस्सए पयदं । दुविहो णिद्द सो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोह० उक्क० केवचिरं कालादो ?
६ १३६. सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और सअपर्याप्त जीवोंमें स्पर्श पंचे. न्द्रिय तिथंच अपर्याप्तकोंके समान है। पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस और बस पर्याप्त जीवों में मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले उक्त जीवोंका स्पर्श उन्हींके अनुत्कृष्टके समान है। इसी प्रकार पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभंगज्ञानी, चक्षुदर्शनी और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये ।
६१४०. बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवोंमें मोहनीयकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंमें मोहनीयकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके संख्यातवें भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है।
६ १४१. वैक्रियिककाययोगी जीवोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श उनके क्षेत्रके समान है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले उक्त जीवोंका स्पर्श उनके अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंके स्पर्शके समान है। इसी प्रकार आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, पीत आदि तीन लेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदगसम्यग्दृष्टि,उपशमसम्यग्दृष्टि सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये ।
- इस प्रकार स्पर्शनानुगम समाप्त हुआ। ६१४२. कालानुगम दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट। उनमेंसे उत्कृष्ट कालानुगमका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी
१-प्रतौ अज० लोग० असंखे० भागो सव्वलोगो वा । बादरवाउपज. अणुक्कस्सभंगो इति पाठः।
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गा• २२]
हिदिविहत्तीए कालो जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । अणुक्क० के० १ सव्वद्धा । एवं सव्वणिरय-तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्वतिय-देव-भवणादि जाव सहस्सार०-पंचिंदियपंचि०पज्जा-तस-तसपज्जा-पंचमण०-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालिय०-वउव्विय०तिण्णिवेद०-चत्तारिक०-मदि-सुदअण्णाण-विहंग०-असंजद०-चक्षु०-अचक्खु०-पंचले०-भवसि०-अभवसि०-मिच्छाइहि-सण्णि-आहारि त्ति ?
१४३. पंचिंदियतिरि अपज० मोह. उक्क० केव• ? जह० एगसमओ,उक्क० आवलि. असंखे०भागो। अणुक्क० सबदा। एवं सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज्ज०-पंचकाय-तसअपज०-ओरालियमिस्स०-कम्मइय-आभिणि०-सुद०ओहि०-संजदासंजद-ओहिदंस०-मुक्क०-सम्मादि०-चेदय-असण्णि-अणाहारि त्ति ।
१४४. मणुसतिय० मोह० उक्क० के० ? जह० एगसमो , उक्क० अंतोमुहुत्तं । अणुक्क० सव्वद्धा । मणुसअपज्ज० मोह० उक्क० के० ? जह० एगसमओ, उक्क० आवलि. असंखे०भागो। अणुक्क० के०? जह. खुद्दाभवग्गहणं समऊणं । उक्क० पलिदो० असंखे भागो। आणदादि जाव सव्वह० मोह० उक्क० केव० ? ज० एग
अपेक्षा मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले जीवोंका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभिक्तिवाले जीवोंका सत्त्वकाल कितना है ? सर्वकाल है। इसी प्रकार सभी नारकी, सामान्य तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तियंच,पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंच, पंचेन्द्रिय योनिमती तिर्यंच, सामान्य देव,भवनवासियोंसे लेकर सहस्त्रार स्वर्ग तकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, स, त्रसपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, कृष्ण आदि पांच लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंके कहना चाहिये।
६१४३. पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट विभक्तिवाले जीवोंका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका सत्त्वकाल सर्वदा है। इसी प्रकार सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, पांचों स्थावरकाय, त्रस अपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी,कामणकाययोगी,आभिनिवोधिकज्ञानी,श्रतज्ञानी,अवधिज्ञानी, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए ।
१४४. सामन्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनी इन तीन प्रकारके मनुष्यों में मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका सत्त्वकाल सर्वदा है। लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंमें मोहनी की उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य एक समय और उत्कृष्ट आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका सत्त्वकाल कितना है। जघन्य एक समय कम खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट पल्योपमके असंख्यातवें
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जयधवलासहिदे कसा पाहुडे
[ द्विदिविहत्ती ३
समो, उक्क० संखेज्जा समया । अणुक्क० सव्वद्धा । एवं मणपज्ज० - संजद ० सामाइय-छेदो०- परिहार० -खइयसम्माइट्ठित्ति ।
९ १४५. वेडव्वियमिस्स० मोह० उक्क० के० ? जह० एगसमओ, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । अणुक्क० जह० अंतो०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । एवमुवसम० - सम्मामि० वत्तव्वं ।
$ १४६. अवगद ० मोह० उक्क० जह० एगसमझो, उक्क० संखेज्जा समया । अणुक्क० ज० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । एवमकसा० - मुहुमसांपरा ० - जहक्खादेति । [ एवं आहार - आहारमि० । णवरि आहारमि० अणुक्क० जह० अंतोसु० । ] १४७. सासण० मोह० उक्क० जह० एगसमझो, उक्क० आवलि० असंखे ० - भागो । अणुक्क० जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो ।
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0
एवमुक्कस्सकालाणुगमो समत्तो ।
भागप्रमाण है । नत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवों में मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका सत्त्वकाल कितना है ? जवन्य एक समय और उत्कृष्ट संख्यात समय है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका सत्त्वकाल सर्वदा है । इसी प्रकार मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापना संयत, परिहार विशुद्धिसंयत और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवों के जानना चाहिये |
$ २४५. वैक्रियिकमि श्रकाययोगी जीवों में मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका सत्त्वकाल कितना है ? जवन्य एक समय और उत्कृष्ट आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य सत्त्वकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट सत्त्वकाल पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । इसी प्रकार उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवों के कहना चाहिये ।
$ १४६. अपगतवेदियों में मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल संख्यात समय है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवों का जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार अकषायी, सूक्ष्म सांप रायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवों के जानना चाहिए। इसी प्रकार आहारक व Maratगयोंके जानना चाहिए । परन्तु आहारकमिश्र काययोगमें अनुत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवालोंका जघन्य सत्त्वकाल अन्तर्मुहूर्त है ।
९ १४७. सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें मोहनीयको उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल आवली के असंख्यातवें भागप्रमाण है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है ।
विशेषार्थ -- नाना जीवोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कमसे कम एक समय तक और अधिक से अधिक पल्यके असंख्यातवें भाग कालतक होता है । इसके पश्चात् एक भी जीव मोहनी की उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला नहीं रहता, इसलिए नाना जीवोंकी अपेक्षा मोहनीयकी
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गा० २२]
द्विदिविहत्तीए कालो
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उत्कृष्ट स्थितिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा । सामान्य नारकी आदि कुछ ऐसी मार्गणाएँ हैं जिनमें यह ओघप्ररूपणा अविकल घटित होती है, अतः उनकी प्ररूपणाको ओघके समान कहा । उन मार्गणाओंके 'नाम मूलमें गिनाये ही हैं। इनके अतिरिक्त और जितनी मागणाएँ हैं उनमेंसे आठ सान्तर मार्गणाओंको तथा अपगतवेद, अकषाय और यथाख्यातसंयत इन तीन मार्गणाओंको छोड़कर शेष सब मार्गणाओंमें अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल सर्वदा है, क्योंकि इनमें अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तरकाल नहीं पाया जाता। तथा उत्कृष्ट स्थितिका जघन्यकाल एक समय है, क्योंकि इन मार्गणाओंमें एक समयतक उत्कृष्टस्थिति प्राप्त होकर दूसरे समयमें उसका विरह सम्भव है। हां इनमें उत्कृष्टकाल भिन्न भिन्न प्रकार पाया जाता है जिसका निर्देश मूलमें किया ही हैं। फिर भी यहाँ उसके कारणका संक्षेपमें विचार कर लेते हैं। पंचेन्द्रिय तियश्च लब्ध्यपर्याप्तकोंमें एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट काल एक समय बतलाया है। अब यदि नाना जीव निरन्तर उत्कृष्ट स्थितिके धारक हों तो वे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक ही होंगे उसके बाद इनमें उत्कृष्ट स्थितिका नियमसे अन्तरकाल आ जाता है, अतः इनमें उत्कृष्टस्थितिका उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा । मूलमें निर्दिष्ट सब एकेन्द्रिय आदि कुछ मार्गणाओंकी स्थिति इसी प्रकारकी है अतः इनमें भी उत्कष्टस्थितिका उत्कृष्ट काल उक्तप्रमाण कहा। सामान्य आदि तीन प्रकारके मनुष्योंमें एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। परन्तु इनका प्रमाण संख्यात है अतः लगातार संख्यात नाना जीव भी क्रमशः यदि उत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त हों तो भी उस सब कालका जोड़ अन्तमुहूर्तसे अधिक नहीं होगा। यही कारण है कि इनमें उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा। यद्यपि सामान्य मनुष्योंकी संख्या असंख्यात है फिर भी यहाँ उत्कृष्ट स्थितिके प्रकरणमें सामान्य मनुष्योंमें लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य प्रधान नहीं हैं। आनतादि कल्पोंमें उत्पन्न होनेके पहले समयमें ही उत्कृष्ट स्थिति सम्भव है जिसका काल एक समय है और यहां मनुष्य जीव ही मरकर उत्पन्न होते हैं। अब यदि आनतादि कल्पोंमें उत्कृष्ट स्थितिवाले जीव लगातार उत्पन्न हों तो संख्यात समय तक ही उत्पन्न हो सकते हैं, क्योंकि उनमें उत्पन्न होनेवाले मनुष्य ही संख्यात हैं। अतः इनमें उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा। यही बात मनःपयेयज्ञान आदि मूलमें गिनाई गईं शेष मार्गणाओंमें जानना चाहिए। अब रही सान्तरमार्गणाओं और अपगतवेद आदि तीन मार्गणाओंकी बात । सो इनमें कालका खुलासा निम्न प्रकार है-लब्ध्यपर्याप्त मनुष्योंमें एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय बतलाया है। अब यदि अन्तरके बाद नाना जोव एक साथ उत्कृष्ट स्थितिके धारक हुए तो दूसरे समयमें उनकी नियमसे अनुत्कृष्ट स्थिति हो जायगी अतः लब्ध्यपर्याप्त मनुष्योंमें नाना जीवोंकी अपेक्षा भी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्यकाल एक समय प्राप्त होता है । यही बात शेष मार्गणाओंमें जान लेना चाहिए। लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य यदि निरन्तर उत्कृष्ट स्थितिके धारक होते रहें तो आवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण काल तक ही होंगे, अतः इनमें उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्टकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा। यही बात वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, उपशमसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि मार्गणाओंके विषयमें जानना चाहिये। तथा उत्कृष्ट स्थितिके धारक लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य एक साथ उत्पन्न हुए और दूसरे समयसे उनका उत्पन्न होना ही बन्द हो गया तो लब्ध्यपर्याप्तक मनष्योंमें अनुत्कृष्ट स्थितिका जवन्यकाल एक समय कम खुदाभवग्रहण प्रमाण प्राप्त होगा। तथा लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंका उत्कृष्टकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है अतः इनमें अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्टकाल भी इतना ही प्राप्त होता है । इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, उपशमसम्यग्दृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टियों के अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[हिदिविहत्ती ३ ६१४८. जहण्णए पयदं । दुविहो जिद्द सो—ओघेण आदेसेण य । ओघेण० मोह० जह० ज० एगसमओ, उक्क संखेज्जा सामया । अज० सवद्धा । एवं विदियादि जाव छहि त्ति मणुसतिय-जोदिसियादि जाव सव्वह०-पंचिंदिय-पंचिं०पज्ज०तस-तसपज्ज०-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालि०-वेउव्विय०--तिण्णिवेद०चत्तारिक०-आभिणि-सुद०-ओहि०--मणपज्ज-विहंग०-संजद०-सामाइय-छेदो०-परिहार०-संजदासंजद०-चक्खु०-ओहिदंसण-तिण्णिले०-भवसि०-सम्मादि०-वेदय०खइय०-सण्णि०-आहारि• त्ति ।
१४६. आदेसेण णेरइयेसु मोह० जह० ज० एगस०,उक्क० आवलि० असंखे०भागो । अज० केव० ? सव्वद्धा । एवं पढमाए। एवं सव्वचिंदियतिरिक्ख-देव०भवण०-वाण०-सव्वविगलिंदिय-पंचिं०अपज्ज०-तसअपज्ज० वत्तव्वं । सत्तमाए० मोह.
काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण जानना। नाना जीवोंकी अपेक्षा भी वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है अतः इनमें अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त कहा। यदि मनुष्य उपशमश्रेणी पर निरन्तर चढ़े तो संख्यात समय तक ही चढ़ेंगे और उन सबके कालका जोड़ अन्तर्मुहूर्त हो होगा अतः अपगतवेद, अकषाय, सूक्ष्मसम्परायसंयम और यथाख्यातसंयममें उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल संख्यात समय और अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा । सासादनसम्यक्त्वका जघन्यकाल एक समय है अतः इसमें अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्यकाल एक समय कहा । शेष कथन सुगम है ।
इस प्रकार उत्कृष्ट कालानुगम समाप्त हुआ। ६१४८. अब जघन्य कालानुगमका प्रकरण है। उसकी उपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल संख्यात समय है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका सत्त्वकाल सर्वदा है। इसी प्रकार दूसरी पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तकके नारकी, सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनी ये तीन प्रकारके मनुष्य, ज्योतिषियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रस पर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, वैक्रियिक काययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, विभंगज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, चक्षदर्शनी, अवधिदर्शनी, पीत आदि तीन लेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिये ।
१४६. आदेश निर्देशकी अपेक्षा नारकियोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका सत्त्वकाल कितना है ? सर्वदा है । इसी प्रकार पहली पृथिवीके नारकी, सभी पंचेन्द्रिय तियेंच, सामान्य देव, भवनवासी, व्यन्तर, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और त्रस अपर्याप्त जीवोंके कहना चाहिये । सातवीं पृथिवीमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्ति
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गा० २२ ]
वित्तीकाल
जह० ज० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । अज० सव्वद्धा ।
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१५०. तिरिक्ख० मोह० जह० अज० सव्वद्धा । एवं सव्वएइंदिय- पुढवि०बादरपुढवि० - बादरपुढवित्रपज्ज० - सुहुमपुढवि० पञ्जत्तापज्जत्त आउ०- बादरआउ०- बादरआउअपज्ज०-सुहुमआउ०- पज्जत्तापज्जत्त - ते ० [ बादरतेउ०- ] बाद रतेउपज ० - सुहुमतेउ०पञ्जत्तापञ्जत्त-वाउ०- बादरवाउ ० - बादरवाउअपज्ज० मुहुमवाउ ० - पज्जत्तापज्जत्त - बादरवणफदिपतेय तस्सेव अपज्ज० - सव्ववणष्पदि सव्वणिगोद-ओरालियमिस्स ० -कम्मइय०मदि- सुदअण्णाण -संजद - तिण्णिले० - अभवसि० -मिच्छादि० श्रसण्णि० - अणाहारिति ।
0
$ १५१. मणुस पज्ज० मोह० जह० ज० एगसमओ, उक्क० आवलि० असंखे भागो । अज० के० ? जह० खुद्दाभवग्गहणं विसमरणं एगसमओवा, उक्क ० पलिदो० असंखे० भागो ।
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$ १५२. चत्तारिकायबादरपज्ज० - बादरवणप्फदिपत्त यपज० जह० ज० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । अज० सव्वद्धा ।
वाले जीवों का जन्य सत्त्वकाल एक समय है और उत्कृष्ट सत्त्वकाल पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका सत्त्वकाल सर्वदा है ।
$ १५० तिर्यंचों में मीहनीयकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवों का सत्त्वकाल सर्वदा है । इसी प्रकार सभी एकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त सभी वनस्पतिकायिक, सभी निगोद, श्रदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मंणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, कृष्ण आदि तीन लेश्यावाले, अभव्य, मिध्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये ।
$ १५१. मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य सत्त्वकाल एक समय है और उत्कृष्ट सत्त्वकाल आवलीका असंख्यातवाँ भाग है । तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका सत्त्वकाल कितना है ? जघन्य दो समय कम खुद्दाभवग्रहण प्रमाण या एक समय है और उत्कृष्ट पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है ।
९१५२. पृथिवीकायिक आदि चार स्थावरकाय बादर पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रेत्येक शरीर पर्याप्त जीवोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य सत्त्वकाल एक समय है और उत्कृष्ट सत्त्वकाल पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवों का सत्त्वकाल सर्वदा है ।
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जयंधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिषिहत्ती ३ १५३. वेउव्वियमिस्स० मोह० जह० केव० १ ज० एयसमो, उक्क० संखेजा समया। अज० ज० अंतोमुहुत्त, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। एवमुवसम०सम्मामि० वत्तव्वं । आहार० मोह० जह० ज० एगसमो, उक्क० संखेज्जा समया । अज० ज० एयसमओ, उक्क० अंतोमु० । एवमवगद० अकसा०-सुहुम०-जहाक्वाद०. संजदे त्ति । आहारमिस्स० मोह० जह० [ज०] एगसमओ, उक्क० संखेजा समया । अज० ज० अंतोमु०, उक्क० अंतोमु० ।
१५४. सासण. मो० जह० ज० एगसमओ, उक्क० संखज्जा समया। अज० ज. एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो।
एवं कालाणुगमो समत्तो। १५३. वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका कितना सत्त्वकाल है ? जघन्य एक समय और उत्कृष्ट संख्यात समय है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। इसी प्रकार उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके कहना चाहिये । आहारककाययोगी जीवोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिविक्तिवाले जीवोंका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट संख्यात समय है । तथा अघन्य स्थिति विभक्तिवाले जीवोंका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तमुहूते है ! इसी प्रकार अपगतवेदी, अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके कहना चाहिये। आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट संख्यात समय है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट सत्त्वकाल अन्तमुहूर्त है।
१५४. सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट सत्त्वकाल संख्यात समय है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य सत्त्वकाल एक समय और उत्कृष्ट पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है।
विशेषार्थ-मोहनीयकी जघन्य सत्त्वस्थिति क्षपक सूक्ष्मसांपरायिक जीवके अन्तिम समयमें प्राप्त होती है। तथा क्षपकश्रेणी पर चढ़नेका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल संख्यात समय है, अतः ओबसे जघन्य स्थितिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल संख्यात समय कहा । ओघसे अजघन्य स्थितिका काल सर्वदा है यह स्पष्ट ही है। मूलमें दूसरीसे लेकर छठवीं पृथिवी तकके नारकी, मनुष्यत्रिक आदि कुछ ऐसी मागणाएं गिनाई हैं जिनमें जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल ओघके समान बन जाता है । इसके कारण भिन्न भिन्न हैं। दूसरी पृथिवीसे लेकर नारकियोंमें और ज्योतिषियोंमें तो यह कारण है कि जो उत्कृष्ट आयुके साथ उत्पन्न हों और उत्पन्न होनेके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त कालमें सम्यग्दृष्टि होकर अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना कर लें, उनके अन्तिम समयमें जघन्य स्थिति होती है। ऐसे जीव मरकर मनुष्योंमें ही उत्पन्न होंगे अतः उनका प्रमाण संख्यात ही होगा। यही कारण है कि इन मार्गणाओंमें जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्टकाल संख्यात समय कहा । सर्वाथसिद्धि और वैक्रियिककाययोगमें भी करीब इसी प्रकारका कारण जानना चाहिये। विभंगज्ञानमें यह कारण है कि चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला उपरिम अवेयकका देव यदि अन्तिम अन्तर्मुहूर्तमें मिथ्यात्वको प्राप्त होता है तो उस
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गा• २२]
हिदिविहत्तीए कालो
विभंगज्ञानीके अन्तिम समयमें जघन्य स्थिति पाई जाती है। ये मरकर मनुष्योंमें ही उत्पन्न होते हैं, अतः इनके भी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्टकाल उक्त प्रमाण प्राप्त होता है। इनके अतिरिक्त जो शेष मार्गणाएं गिनाई हैं उनकी जघन्य स्थिति मनुष्य पर्यायमें ही प्राप्त होती है अतः उनमें भी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्टकाल उक्त प्रमाण कहा । तथा इन सब मार्गणाओंमें अजघन्य स्थितिका काल सर्वदा है यह स्पष्ट ही है। नारकियोंमें एक जीव की अपेक्षा जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है। अब यदि इनमें नाना जीव जघन्य स्थितिवाले हों तो कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक आवलिके असं. ख्यातवें भागप्रमाण काल तक ही होंगे अतः इनमें जघन्य स्थितिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा। इसी प्रकार पहली पृथिवीके नारकी आदि मार्गणाओंमें जानना चाहिये जिनका निर्देश मूलमें किया ही है। सातवीं पृथिवीमें एक जीवको अपेक्षा जघन्य स्थितिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है, अतः यहां नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य स्थितिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण बन जाता है । तियंचोंमें जघन्य स्थितिवाले जीवोंका प्रमाण भी अनन्त है, अतः यहां जघन्य स्थितिका काल सर्वदा कहा। मूलमें सब एकेन्द्रिय आदि और जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें भी इसी प्रकार समझना चाहिये । यद्यपि उनमें बहुतसी मार्गणओंमें जीवोंका प्रमाण असंख्यात है फिर भी वह संख्या बहुत बड़ी है अतः उनमें अजघन्य स्थितिवालोंका काल सर्वदा मान लेनेमें कोई आपत्ति नहीं आती। लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंमें मोहनीयकी जघन्य स्थिति विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक जीवकी अपेक्षासे एक समय है। यदि इनमें नानाजीव जघन्य स्थितिवाले हों तो कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक प्रावलिके असंख्यातवें भाग कालतक ही होंगे। अतः इनमें जघन्य स्थितिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट आवलिके असंख्यातवें भाग कहा । जो एकेन्द्रिय जीव दो विग्रहके साथ लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंमें उत्पन्न हो रहा है उसके प्रथम विग्रहमें अजघन्य स्थिति होकर दूसरे समयमें जघन्य स्थिति होगी और विग्रहके दो समय खुदाभवग्रहण प्रमाण आयुमेंसे कम कर देने पर शेष आयुका काल भी अजघन्य स्थिति का है अतः अजघन्य स्थितिका जघन्यकाल एक समय या दो समय कम खुद्दाभवग्रहण प्रमाण कहा है। लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य सान्तर मार्गरणा है जिसका उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भाग मात्र है अतः अजघन्य स्थितिका उत्कृष्टकाल पल्पोपमका असंख्यातवाँ भाग कहा। बादर पृथिवीकायिक आदि पर्याप्तकोंमें एक जीवकी अपेक्षा जघन्य स्थितिका जघन्यकाल एक समय है और उत्कृष्टकाल अन्तमुहूर्त है । यदि इनमें नाना जीव जघन्य स्थितिवाले हों तो कमसे कम एक समय और अधिकसे अधिक पल्योपमके असंख्यातवें भाग काल तक होंगे अतः इनकी जयन्य स्थितिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग कहा है । वैक्रियिकमिश्र काययोगयोंमें जघन्य स्थिति क्षायिक सम्यग्दृष्टि उपशांतमोहसे मरकर सर्वार्थसिद्धिमें उत्पन्न होनेवाले जीवके वैक्रियिकमिश्रकाययोगके अन्तिम समयमें होती है । यतः इसका जघन्यकाल एक समय है अतः इसका जघन्यकाल एक समय कहा। पर्याप्त मनुष्योंका प्रमाण संख्यात है अतः इनमें निरन्तर संख्यातसे अधिक काल तक उत्पन्न नहीं हो सकते अतः इनका उत्कृष्टकाल संख्यात समय कहा। इसी प्रकार उपशम सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, सूक्ष्मसांपरारायिक संयत, यथाख्यातसंयत और सासादनकी प्ररूपणा घटित कर लेनी चाहिये, क्योंकि इन मार्गणाओंमें अन्तिम समयमें ही जघन्य स्थिति विभक्ति होती है। अजघन्य स्थितिके विषयमें हर एक मार्गणाकी जो विशेषता है वह मूलमें दी ही है।
इस प्रकार कालानुगम समाप्त हुआ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे .. [हिदिविहत्ती ३ १५५. अंतराणुगमो दुविहो-जहण्णो उक्सओ चेदि । उक्कसए पयदं । दुविहो णिद्द सो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोह० उक्कस्सहिदिविहत्तियाणमंतरं के० १ जह० एगसमो, उक० अंगुलस्स असंखे० भागो। अणुक० पत्थि अंतरं। एवं सत्तपुढवि०-सव्वतिरिक्ख०-मणुसतिय-देव-भवणादि जाव सबढ०-सव्वएइंदियसव्वपिगलिंदिय-सव्वपंचिंदिय-सव्वपंचकाय-सव्वतस-पंचमण०-पंचवचि०-कायजोगि०ओरालि०-ओरालियमिस्स०-वेउब्विय०-कम्मइय-तिण्णिवेद०-चत्तारिक०-मदि-सुदभण्णाण०-विहंग०-प्राभिणि-सुद०-ओहिल-मणपज्ज०-संजद०-समाइय-छेदो०-परिहार०असंजद०-संजदासंजद०-चक्खु०-अचक्खु०-ओहिदसण०-छलेस्सा-भवसिद्धि०-[अभव०-] सम्मादि०-खइय०-वेदय०-मिच्छादि०-सण्णि-असण्णि-आहारि-अणाहारि त्ति ।
६१५६. मणुसअपज्ज. मोह० उक्क० ओघभंगो । अणक्क० [ जह० एगसमओ, उक्क०] पलिदो० असंखेभागो । एवं सासण-सम्मामि०दिहि त्ति ।वेउव्वियमिस्स० मोह० उक० ओघं । अणुक्क० जह• एगसमो, उक्क० बारस मुहुत्ता। आहार-आहोर
६१५५. अन्तरानुगम दो प्रकारका है-जवन्य और उत्कृष्ट । उनमें से उत्कृष्ट अन्तरानुगमका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमें से ओघनिर्देशकी अपेक्षा मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है । तथा मोहनीयकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, सभी तियेच, सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनी ये तीन प्रकारके मनुष्य, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देव, सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, सभी पंचेन्द्रिय, सभी पांचों स्थावरकाय, सभी त्रस, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, कार्मणकाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशद्धिसंयत, असंयत, संयतासंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, छहों लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, मिथ्य दृष्टि, संज्ञी, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये ।
१५६. मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल ओघके समान है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये। वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल ओघके समान है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल बारह मुहूर्त है। आहारककाययोगी,
१ मूलप्रतौ विगलिंदियपज्जपंचिं इति पाठः ।
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गा० २२.]
द्विदिविहत्तीए अंतर
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मिस्स० मोह० उक्क० ओघं । अणुक्कं० ज० एगसमओ, उक्क० वासपुधत्तं । एवमकसा० - जहाक्खादसंजदे त्ति ।
$ १५७. अवगद ० मोह० उक्क० ओघं । अणुक्क० जह० एगसमत्रो, उक्क ० छम्मासा । एवं मुहुमसंपराय० वत्तव्वं । उवसम० उक्क० ओघं । अणुक्क० जह० समओ, उक्क० चडवीसमहोरते । अथवा अकसा० - जहाक्खांद० - अवगद ०सुहुम० मोह० उक्क० वासपुधत्त । उवसम० चउवीसमहोरत े ० सादि० । सासण० पलिदो० असंखे० भागो । खइय० छम्मासा ।
एवमुक्कस्सओ अंतराणुगमो समत्तो ।
और आहारकमिश्र काययोगी जीवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल ओघ के समान है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्ष पृथक्त्व है । इसी प्रकार अकषायी और यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिये ।
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$ १५७. अपगतवेदियोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल ओघ के समान है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है । इसी प्रकार सूक्ष्मसां परायिक संयत जीवोंके कहना चाहिये । उपशमसम्यग्दृष्टियों में उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल श्रोघके समान है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल चौबीस दिन रात है । अथवा, अकषायी, यथाख्यातसंयत, अपगतवेदी और सूक्ष्मसांपरायिकसंयत जीवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिराले जीवोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है, उपशमसम्यग्दृष्टियों में साधिक चौबीस दिनरात है । सासादन सम्यग्दृष्टियों में पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है और क्षायिक सम्यग्दृष्टियों में छह महीना है ।
विशेषार्थ — उत्कृष्ट स्थितिवाले जीत्र यदि संसार में न हों तो कमसे कम एक समय तक और अधिक से अधिक अंगुल असंख्यातवें भागप्रमाण कालतक नहीं होते हैं अतः यहाँ उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भाग प्रमाण कहा । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिवाले जीव सर्वदा पाये जाते हैं अतः इनका अन्तरकाल नहीं कहा। मूल सातों पृथिवियोंके नारकी आदि और जितनी मार्गेणाएँ गिनाई हैं उनमें यह व्यवस्था बन जाती है अतः उनकी प्ररूपणाको ओघ के समान कहा । तथा इनके अतिरिक्त और जितनी मार्गणाएँ हैं उनमें भी उत्कृष्ट स्थिति का जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर ओधके समान है अतः उन सबमें उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा । हाँ इन मार्गणाओं में अनुत्कृष्ट स्थितिका भी अन्तरकाल पाया जाता है जिसका खुलासा निम्न प्रकार है - लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य, सासादन सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। वैक्रियिक मिश्रकाययोगका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर बारह मुहूर्त है । आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोगका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्व है । उपशमश्रेणीका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है । क्षपक श्रपगतवेद और सूक्ष्मसंपरायसंयमका जघन्य
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [द्विदिविहत्ती ३ $ १५८. जहण्णए पयदं । दुविहो जिद्द सो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोह० जह० ज० एगसमओ, उक्क० छमासा । अज० पत्थि अंतरं । एवं मणुस०मणुसपज्जा-पंचिंदिय-पंचिं०पज्ज-तस-तसपज्ज-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि०
ओरालि०-लोभकसाय-आभिणि -सुद०-अोहि०-संजद-सामाइय-छेदो०-चक्खु०-अचक्ख-सुक्कले०-भवसि०-सम्मादि०-खइय-सण्णि-आहारि ति । णवरि ओहिणाण. वासपुधत्त।
$ १५६. आदेसेण णेरइएसु जह० अज० उक्कस्साणुक्कस्सभंगो। एवं सत्तपुढवि०-सव्वांचिंदियतिरिक्ख-देव-भवणादि जाव सव्वह०-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदिय
अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है, उपशम सम्यक्त्वका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर चौबीस दिनरात है, अतः इन मार्गणाओंमें अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तरकाल उक्तरमाण प्राप्त होता है। यहाँ पहले जो उपशमश्रेणीका अन्तरकाल कहा उससे मोहसत्कर्मवाले अकषायी और यथाख्यातसंयतोंका अन्तरकाल लेना चाहिए। यहाँ अथवा कहकर कुछ मार्गणाओंके अन्तरकालमें कुछ फरक बतलाया है जो मूल में ही दर्ज है। अकषायी, यथाख्यातसंयत, अपगतवेदी और सूक्ष्मसांपरायिक संयतमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले जीव उपशमश्रेणीमें ही होते हैं और उपशमश्रेणीका उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्व है अतः अथवा कहकर इनका उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्व कहा गया है। परन्तु कुछ आचार्यो का मत यह भी रहा है कि सभी उपशम श्रेणीवालोंके मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थिति नहीं होती बहुत कम जीवोंके होती है। अतः उनके मतानुसार अकषायी आदि में उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर ओघके समान अंगुलका असंख्यातवां भाग भी कहा है जो संभवतः वीरसेन स्वामीको भी इष्ट था। तथा उन्होंने अथवा कहकर दूसरे मतका भी उल्लेखकर दिया है। इसी प्रकार उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें भी मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिके उत्कृष्ट अन्तरके विषयमें मतभेद जान लेना चाहिये। यह अन्तर मूलमें दिया ही है ।
इस प्रकार उत्कृष्ट अन्तरानुगम समाप्त हुआ। ६१५८. अब जघन्य अन्तरानुगमका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, लोभकषायी, आभिनिबाधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी,संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, चतुदर्शनी, अचक्षुदशनी, शक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, संज्ञो और आहारकोंके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि अवधिज्ञानी जीवोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है।
६ १५६. आदेशनिर्देशकी अपेक्षा नारकियोंमें जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंके अन्तरकालके समान है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, सभी पंचेन्द्रिय तियंच, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर
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गा० २२ ].
हिदिविहत्तीए अंतरं अपज्ज०-तसअपज्ज०-चत्तारिकायबादरपज्जत्त-[ बादरवणप्फ०पत्तेयपज०-वेउव्वियकायजोगि-]विहंग०- परिहार०-संजदासंजद-तेउ०--पम्म०-वेदयसम्मादिहि त्ति ।
$ १६०. तिरिक्व०मोह० जह० अजह० णत्थि अंतरं । एवं सव्वएइंदिय-चत्तारिकाय-तेसिं बादरअपज्ज०-सुहुम०-पज्जत्तापज्जत्त-बादरवणप्फदिपत्त य०-अपज्ज०-वणप्फदि-णिगोद०-बादर-सुहुम-पज्जत्तापज्जत्त-ओरालियमिम्स-कम्मइय-मदि-सुदअण्णाण-असंजद०-तिण्णिलेस्सि०-अभव०-मिच्छादि०-असण्णि०-अणाहारि त्ति । .
$ १६१. मणुसिणीसु मोह० ज० ज० एगसमओ, उक्क० वासपुधत्त । अज० पत्थि अंतरं । एवं मणपज्ज। ओहिदंस० ओहिणाणिभंगो । मणुसअपज्ज० उक्कस्सभंगो। वेउव्वियमिस्स० उक्कस्सभंगो । आहार-आहारमिस्स० उक्कस्सभंगो।
१६२. इत्थि०-णवंस० ज० ज० एगस०, उक्क० वासधत् । परिस० जह० जह० एगसमओ, उक्क. वासं सादिरेयं । अज० तिण्हं पि पत्थि अंतरं । सर्वार्थसिद्धितकके देव, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, बस अपर्याप्त, पृथिवीकायिक आदि चार स्थावरकाय बादर पर्याप्त, बादर वनस्पति प्रत्येकशरीर पर्याप्त, वैक्रियिककाययोगी, विभंगज्ञानी, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके कहना चाहिये। ' ६१६०. तिथंचोंमें मोहनीयकी जघन्य और अजघन्य स्थिति विभक्तिकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार सभी एकेन्द्रिय, चारों स्थावरकाय, चारों स्थावरकाय बादर, चारों स्थावरकाय बादर अपर्याप्त, चारों स्थावरकाय सूक्ष्म, चारों स्थावरकाय सूक्ष्म पर्याप्त, चारों स्थावरकाय सूक्ष्म अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर, बादर वनस्पतिकाय प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, सामान्य वनस्पति, निगोद, वनस्पतिकायिक बादर, वनस्पतिकायि बादर पर्याप्त, वनस्पतिकायिक बादर अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक सूक्ष्म, वनस्पतिकायिक सूक्ष्म पर्याप्त, वनस्पतिकायिक सूक्ष्म अपर्याप्त, बादर निगोद, बादर निगोद पर्याप्त, बादर निगोद अपर्याप्त, सूक्ष्म निगोद, सूक्ष्म निगोद पर्याप्त, सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, कृष्ण आदि तीन लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये।
६१६१ मनुष्यिनयोंमें मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके जानना चाहिये। अवधिदर्शनवाले जीवोंके अवधिज्ञानवाले जीवों के समान अन्तरकाल है। लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंमें इनके उत्कष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंके समान अन्तरकाल है । वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंमें इनके उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंके समान अन्तरकाल है। तथा आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें इनके उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंके समान अन्तरकाल है ।
१६२. स्त्रीवेदी और नपुंसकवेदी जीवोंमें जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है। पुरुषवेदी जीवोंमें जघन्य स्थिति
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ द्विदिविहत्ती ३
अवगद ० मोह० ज० ज० एगसमयो, उक्क० मासा । एवमजहणहिदी वि वत्तव्वं । एवं सुहुमसंप० । कोह० - माण ० - माय० पुरिस० भंगो । अकसाय ० उक्कस्सभंगो | एवं जहाक्खाद० वत्तव्वं । ज्वसम० - [सासण •] सम्मामि० उक्कस्सभंगो । एवमंतराणुगमो समत्तो ।
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विभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक एक वर्ष है । तथा तीनों ही वेदवाले जीवों में अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं है। अपगतवेदियों में मोहनीयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है । तथा इनके अजघन्य स्थितिविभक्तिकी अपेक्षा भी इसी प्रकार कथन करना चाहिये । इसी प्रकार सूक्ष्मसां परायिकसंयत जीवोंके कहना चाहिये । क्रोध, मान और माया कषायवाले जीवोंके पुरुषवेदियोंके समान कहना चाहिये । अकषायी जीवोंके इनके उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंके समान अन्तरकाल है । इसी प्रकार यथाख्यातसंयत जीवोंके कहना चाहिये । तथा उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके इनके उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंके समान अन्तरकाल है ।
विशेषार्थ - जब एक समय के अन्तरसे जीव क्षपकश्रेणीपर चढ़ते हैं तब जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तरकाल एक समय पाया जाता है और जब छह महीना के अन्तरसे जीव क्षपकश्रेणीपर चढ़ते हैं तब जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर छह महीना पाया जाता है । ओघसे अजघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है यह तो स्पष्ट ही है । सामान्य मनुष्य आदि और जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें भी इसी प्रकार अन्तर समझना चाहिये, क्योंकि क्षपकश्रेणी में वे सब मार्गणाएं सम्भव हैं अतः उनमें जघन्य स्थितिका अन्तर ओघ के समान बन जाता है । और वे मार्गणाएं निरन्तर हैं अतः उनमें अजघन्य स्थितिका अन्तर नहीं पाया जाता । किन्तु अवधिज्ञानी जीव यदि क्षपकश्रेणी पर न चढ़ें तो वर्षपृथक्त्व काल तक नहीं चढ़ते हैं अतः इनमें जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व कहा है । सामान्य नारकी आदि कुछ ऐसी मार्गणाएं हैं जिनमें जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके समान है । सामान्य तिर्यंच आदि कुछ ऐसी मार्गणाएं हैं जिनमें जघन्य और अजघन्य स्थितिवाले जीव सर्वदा पाये जाते हैं, अतः इनमें उनका अन्तरकाल सम्भव नहीं । मनुष्यिनी, मन:पर्ययज्ञानी, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद इन मार्गणाओं में क्षपकश्रेणीका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्व है, अतः इनमें जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्व कहा। यही बात अवधिदर्शनकी है । पर इनमें अजघन्य स्थितिका अन्तरवाल नहीं पाया जाता । लब्ध्यपर्याप्तकमनुष्य, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी इनकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति के अन्तर के समान है उससे इसमें कोई विशेषता नहीं हैं । पुरुषवेद में कमसे कम एक समय तक और अधिक से अधिक साधिक एक वर्ष तक क्षपकश्रेणी नहीं प्राप्त होती, अतः इसमें जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक वर्ष कहा है । किन्तु इसमें जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है क्योंकि यह निरन्तर मार्गणा है । मोह सत्कर्मवाले क्षपक अपगतवेद और क्षपक सूक्ष्म सम्पराय संयम की प्राप्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है अतः इनमें जघन्य और अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना कहा । क्रोध, मान और माया कषायका कथन पुरुषवेदके समान है, क्योंकि इन तीनों कषायों का क्षपकश्रेणी में जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक वर्ष पाया जाता है। मोहनीयसत्कर्मवाले अकषायी और यथाख्यातसंयत उपशम श्रेणी में
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गा• २२ ] .
हिदिविहत्तीए अप्पाबहुगं ६ १६३. भावाणुगमेण सव्वत्थ ओदइओ भावो।
एवं भावाणुगमो समत्तो। $ १६४. अप्पाबहुआणुगमो दुविहो—जहण्णओ उक्कस्सो चेदि । उक्कस्से पयदं । दुविधो णिसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सव्वत्थोवा मोह० उक्कस्सहिदिविहत्तिया जीवा । अणुक्क. अणंतगुणा । एवं तिरिक्ख-सव्वएइंदियसव्ववणप्फदि०-सव्वणिोद० कायजोगि०-ओरालिय० ओरालियमिस्स-कम्मइय०णस०-चत्तारिकसाय-मदि-सुदअण्णाण--असंजद-अचाखु०-तिण्णिले०-भवसि०अभवसि०-मिच्छादि०-असण्णि-श्राहारि०-अणाहारि त्ति ।।
१६५. आदेसेण णेरइएमु मोह० सव्वत्थोवा उक्क । अणुक्क० असंखेजगुणा । एवं सत्तसु पुढवीसु सव्वपंचिंदियतिरिक्व-मणुस-मणुसअपज्ज-देव-भवणादि जाव अवराइद०-सव्वविगलिंदिय-सव्वपंचिंदिय-चत्तारिकाय-सव्वतस-पंचमण०-पंचवचि०-वेउव्विय-वेउव्यियमिस्स०-इत्थि०-पुरिस-विहंग०-आभिणि-सुद०-ओहि०
ही होते हैं अतः इनमें जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके समान बन जाता है। इसी प्रकार उपशम सम्यक्त्व, सासादन और सम्यग्मिथ्यात्वमें उत्कृष्ट स्थितिके समान अन्तर जानना, क्योंकि ये तीनों सान्तर मार्गणाएँ हैं अतः इनके जघन्य स्थितिके अन्तरमें उत्कृष्ट स्थितिके अन्तरसे कोई विशेषता नहीं आती।
__ इस प्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ। भावानुगमकी अपेक्षा सर्वत्र औदायिक भाव है ।
__ इस प्रकार भावानुगम समाप्त हुआ। $१६४. अल्पबहुत्वानुगम दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उनमेंसे उत्कृष्ट अल्पबहुत्वानुगमका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओपनिर्देश और
आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मोहनीयकी उत्कृष्टस्थितिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्च, सभी एकेन्द्रिय, सभी वनस्पतिकायिक, सभी निगोद, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कामणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, ताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, कृष्ण आदि तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनारहक जीवोंके जानना चाहिए।
६ १६५. आदेशनिर्देशकी अपेक्षा नारकियोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, सभी पंचेन्द्रिय तियेच, सामान्य मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर अपराजित स्वर्ग तक देव,सभी विकलेन्द्रिय, सभी पंचेन्द्रिय, पृथिवीकायिक आदि चार स्थावरकाय, सभी त्रस, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी,
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [द्विदिविहत्ती ३. .... संजदासंजद-चक्खु०-ओहिदंस०-तिण्णिले०-सम्मादि-खइय०-वेदय-उवसम०-सासण. सम्मामि०-सण्णि त्ति । मणुसपज्ज०-मणुसिणी०सव्वत्थोवा उक्क । अणुक्क० संखेजगुणा । एवं सव्वह-आहार-आहारमिस्स०-अवगद०-अकसाय०--मणपज्जासंजद-सामाइय-छेदो०-परिहार०-मुहुमसांपरा-जहाक्खादसंजदे त्ति ।
एवमुक्कस्सअप्पाबहुगाणुगमो समत्तो । १६६. जहण्णए पयदं । दुविहो जिद्द सो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण जह• अजह० उक्कस्स०भंगो । एवं कायजोगि-ओरालि०-णवंसु०-चत्तारिकसा०अचक्खु०-भवसि०-अाहारि त्ति ।
१६७. आदेसेण रइएसु मोह० जह• अज० उक्कस्साणुक्कस्सभंगो। एवं सत्तसु पुढवीसु सव्वतिरिक्ख-मणुस-मणुसअपज०-देव-भवणादि जाव अवराइद-सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-सव्यपंचिंदिय-छकाय०-पंचमण-पंचवचि०-ओरालियमिस्स०वेउव्विय०-वेउव्वियमिस्स -कम्मइय--इत्थि०-पुरिस-मदि-सुदअण्णाण-विहंगआभिणि-सुद--ओहि०--संजदासंजद-असंजद--चक्खु०--ओहिदंस--पंचले०--सुक्क०-- वैक्रियिकमिश्रकाययोगी,स्त्रीवेदी,पुरुषवेदी,विभंगज्ञानी, आभिनियोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी,अवधिज्ञानी, संयतासंयत, चक्षुदर्शनी,अवधिदर्शनी,पीत आदि तीन लेश्यावाले,सम्यग्दृष्टि,क्षायिकसन्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये। मनुष्यपर्याप्त ओर मनुष्यनियों में उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिके देव, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, मनःपयेयज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिए।
- इस प्रकार उत्कृष्ट अल्पबहुत्वानुगम समाप्त हुआ। ६१६६. अब जघन्य अल्पबहुत्वानुगमका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका अल्पबहुत्व उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंके अल्पबहुत्वके समान है। इसी प्रकार काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिये ।
६ १६७. आदेशनिर्देशकी अपेक्षा नारकियोंमें मोहनीयकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका अल्पबहुत्व उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंके अल्पबहुत्वके समान है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, सभी तिथंच, मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर अपराजित स्वर्ग तकके देव, सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, सभी पंचेन्द्रिय, छहों कायवाले, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी,औदारिक मिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मण काययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी,अवधिज्ञानी, संयतासंयत,असंयत,चक्षुदर्शनी, अवधि
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गा० २२ ]
हिदिविहत्तीए भुजगारे समुक्कित्तण। अभव०-सम्मादि०-खइय०-वेदय०-उवसम०-सासण-सम्मामि मिच्छादि-सण्णिअसण्णि-अणाहारि ति।
१६८. मणुसपज्ज०-मणुसिणी. सव्वत्थोवा जह० । अजह० संखेज्जगुणा । एवं सबढ०-आहार-आहारमिस्स०-अवगद०-अकसा०-मणपज्ज-संजद-सामाइयछेदो०-परिहार०-मुहुमसांपराय०-जहाक्खादसंजदे त्ति ।
__एवमप्पाबहुगाणुगमो समत्तो।
एवं चउवीस-अणियोगद्दाराणि समत्ताणि । ६१६६. भुजगारे तत्थ इमाणि तेरस अणियोगद्दाराणि-समुक्कित्तणादि जाव अप्पाबहुए त्ति । समुक्त्तिणाणुगमेण दुविहो णिसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोह० अत्थि भुज-अप्पद०-अवहिदविहत्तिया जीवा । एवं सत्तसु पुढवीसु सव्वतिरिक्ख-सव्वमणुस्स-देव-भवणादि जाव सहस्सार०-सव्वएइदिय-सव्वविगलिंदियसव्वपंचिंदिय-पंचकाय-सव्वतस-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि-अोरालि०-ओरालियमिस्स-वेउव्विय०-वेउव्वियमिस्स-कम्मइय-तिण्णिवेद-चत्तारिकसा०-मदि-सुदअण्णाणविहंग०-असंजद०-चक्खु-अचक्ख०-पंचलेस्सा०-भवसिद्धि०-अभवसिद्धि-मिच्छादि०दर्शनी,कृष्ण आदि पांच लेश्यावाले, शुक्ललेश्यावाले, अभव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये।
६१६८. मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिके देव, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिये।
इस प्रकार अल्पबहुत्वानुगम समाप्त हुआ।
इस प्रकार चौबीस अनुयोगद्वार समाप्त हुए। ६ १६६. भुजगार स्थितिविभक्तिके कथनमें समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्वतक तेरह अनुयोगद्वार हैं। उनमें से समुत्कीर्तनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मोहनीयकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव हैं। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, सभी तिर्यंच, सभी मनुष्य, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देव, सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, सभी पंचेन्द्रिय, पांचों स्थावरकाय, सभी त्रस, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, कृष्णादि पांच लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी, असंज्ञी,
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ सण्णि-असण्णि-आहारि-अणाहारि त्ति ।
$ १७०. आणदादि जाव सव्वढ० मोह० अत्थि अप्पदरविहत्तिया। एवमाहारआहारमिस्स-अवगद०-अकसा०-आभिणि-सुद०-ओहि०-मणपज्ज०-संजद०-सामाइयछेदो-परिहार०-सुहुमसांपरायः-जहाक्खाद०-संजदासंजद-ओहिदंस-मुक्क०सम्मादि०-खइय-वेदय-उवसम०-सासण-सम्मामि ।
___ एवं समुक्कित्तणाणुगमो समत्तो। ३१७१. सामित्ताणुगमेण दुविहो गिद्द सो–ोघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोह. भुज० अवहि कस्स ? अण्णद मिच्छादिहिस्स । अप्पदर० कस्स ? अण्ण० आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये।
१७०. आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मोहनीयकी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीव हैं। इसी प्रकार आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारावशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मियादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-भुजगार अनुयोगद्वार में भुजगार, अल्पतर और अवस्थित इन तीनोंका विचार किया जाता है । इसके अवान्तर अधिकार तेरह हैं। जो निम्न हैं-समुत्कीर्तना, स्वामित्व, एक जीवकी अपेक्षा काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व । इनमें से पहले यहां ससुत्कीर्तनाका विचार करते हैं-ओघसे भुजगारस्थितिवाले, अल्पतर स्थितिवाले और अवस्थित स्थितिवाले जीव पाये जाते हैं। जो कर्म स्थितिसे अधिक स्थितिको प्राप्त हो उसे भुजगारस्थितिवाला कहते हैं। जो अधिक स्थितिसे कम स्थितिको प्राप्त हो उसे अल्पतरस्थितिवाला कहते हैं और जिसकी पहले समयके समान दूसरे समयमें स्थिति रहे उसे अवस्थित स्थितिवाला कहते हैं। इस प्रकार ओघकी अपेक्षा इन तीनों प्रकारके जीवोंका पाया जाना सम्भव है। सातों पृथिवीके नारकी आदि प्रायः बहुत सी मार्गणाओंमें इसी प्रकारकी स्थिति है अतः वहां भी ओघके समान तीनों प्रकारकी स्थितिवाले जीव जानना चाहिये, क्योंकि जिन मार्गणाओंमें मिथ्यादर्शन सम्भव है वहां तीनों विभक्तियां बन सकती हैं। केवल आनतसे लेकर नौ ग्रैवयक तकके देव तथा शुक्ललेश्यावाले इसके अपवाद हैं। किन्तु आनतादि कल्पोंमें, शुक्ललेश्यामें और सम्यग्दर्शनसे सम्बन्ध रखनेवाली शेष मार्गणाओंमें पहले समयमें प्राप्त हुई स्थितिसे द्वितीयादि समयोंमें स्थिति उत्तरोत्तर घटती जाती है, अतः इनमें केवल एक अल्पतर स्थिति ही जाननी चाहिये।
इस प्रकार समुत्कीर्तनानुगम समाप्त हुआ। ६१७१. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेश. निर्देश । उनमें से ओघकी अपेक्षा मोहनीयकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्ति किसके होती है ? किसी भी मिथ्यादष्टि जीवके होती है । अल्पतर स्थितिविभक्ति किसके होती है ? किसी भी
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गा० २२]
हिदिविहत्तीए भुजगारे सामित्त सम्मादिहिस्स मिच्छाइहिस्स वा । एवं सत्तसु पुढवीसु तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्वतियमणुसतिय-देव-भवणादि जाव सहस्सार-पंचिदिय-पंचिं०पज-तस-तसपज्जापंचमण-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालि०-ओरालियमिस्स०-उब्विय०-वेउन्वियमिस्स०-कम्मइय०--तिण्णिवेद-चत्तारिकसा०-असंजद-चक्खु०-अचक्खु०-पंचलेस्साभवसिद्धि०-सण्णि-आहारि०-अणाहारि त्ति ।
१७२. पंचिंदियतिरि०अपज्ज. मोह. भुज. अप्पद० अवहि० कस्स ? अण्णदरस्स | एवं मणुसअपज्ज०-सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज्जापंचकाय-तसअपज्ज०-मदि-सुदअण्णाण-विहंग०-अभव०-मिच्छादि-असण्णि त्ति।
६ १७३. आणदादि जाव उवरिमगेवज्जे त्ति अप्पदर० कस्स ? अण्ण० सम्मादिहिस्स मिच्छादिहिस्स वा। [एवं सुक्क ।]णवाणुद्दिसादि जाव सव्वोत्ति अप्पदर कस्स? अण्णदरस्स सम्माइहिस्स। एवमाहार-आहारमिस्स०-अवगद-अकसा०-आभिणि०सुद-अोहि-मणपज्ज०-संजद०-सामाइय०-छेदो०-परिहार०-सुहुमसापराय०जहाक्खाद०संजद-संजदासंजद-ओहिदंस-सम्मादि०-खइय०-वेदग०-उवसम०सासण-सम्मामिच्छादिहि त्ति ।
एवं सामित्ताणुगमी समत्तो।
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सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि जीवके होती है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, सामान्य तिर्यंच, पंचेन्द्रियतिर्यंचत्रिक, मनुष्यत्रिक, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्त्रार स्वर्गतकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, बस, बस पर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी,
औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, असंयत, चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, कृष्णादि पांच लेश्यावाले, भव्य, संज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये।
६ १७२. पंचेन्द्रिय तियेच अपर्याप्तकोंमें मोहनीयकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्ति किसके होती है ? किसी भी जीवके होती है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, पांचों स्थावरकाय, बस अपर्याप्त, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके जानना चाये।
६ १७३. आनत कल्पसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देवोंमें अल्पतर स्थितिविभक्ति किसके होती है ? किसी भी सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि जीवके होती है। इसी प्रकार शुक्ल लेश्यावालोंके कहना चाहिये। नौ अनुदिशिसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें अल्पतर स्थितिविभक्ति किसके होती है ? किसी भी सम्यग्दृष्टि जीवके होती है। इसी प्रकार आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी,अपगतवेदी,अकषायी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी,मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत,छेदोपस्थापनासंयत,परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनवाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-इस बातका उल्लेख हम पहले कर आये हैं कि मिथ्याद्दष्टिके भुजगार आदि तीनों
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिपिहत्ती-३ १७४. कालाणुगमेण दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण भुज० जह• एगसमो, उक्क चत्तारि समया। अप्पद० जह एगसमो, उक० तेवहिसागरोवमसदं तीहि पलिदोवमेहि अंतोमुहुत्तब्भहिएहि सादिरेयं । अवहिद० जह० एगसमओ, उक० अंतोमु० । एवमचक्खु०-भवसिद्धि । स्थिति विभक्तियां सम्भव हैं और सम्यग्दृष्टिके केवल एक अल्पतर स्थितिविभक्ति ही सम्भव है। इस अनुयोगद्वारमें इसी दृष्टिसे विचार किया गया है। पूर्वोक्त सूचनानुसार सामान्य सिद्धान्त यह निष्पन्न हुआ कि सामान्यसे मिथ्यादृष्टि जीव तीनों स्थिति विभक्तियोंके स्वामी हैं और सम्यग्दृष्टि जीव केवल एक अल्पतर स्थितिविभक्तिके ही स्वामी हैं। आदेशकी अपेक्षा भी विचार करनेका मूल यही है ।आनतसे लेकर नौ गवेयक तकके देवोंको व शुक्ललेश्यावालोंको छोड़कर शेष जिन मार्गणाओंमें मिथ्यादर्शन और सम्यग्दर्शन सम्भव है वहां मिथ्यादृष्टियोंको तीनों स्थितिविभक्तियों के स्वामी जानना चाहिये और सम्यग्दृष्टियोंको केवल एक अल्पतर स्थितिविभक्तिका ही स्वामी जानना चाहिये। ऐसी मार्गणाओंके नाम मूलमें गिनाये ही हैं। इतना विशेष जानना कि यहां सम्यग्दृष्टि पदसे सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टियोंका भी ग्रहण कर लेना चाहिये, क्योंकि इनके भी एक अल्पतर स्थितिविभक्ति ही होती है। मनुष्य अपर्याप्त आदि कुछ मार्गणाएं ऐसी हैं जिनमें एक मिथ्यादर्शन ही सम्भव है अतः यहां तीनों स्थितिविभक्तियोंका स्वामी मिथ्यादृष्टि जीव होता है । यद्यपि इस कसायपाहुडके अनुसार इनमें कुछ मार्गणाएं ऐसी हैं जिनमें सासादनसम्यक्त्व भी पाया जाता है पर उसकी अपेक्षासे यहां पृथक् कथन नहीं किया । फिर भी उसकी अपेक्षा विचार करने पर एक अल्पतर स्थितिविभक्ति ही प्राप्त होती है। अर्थात् ऐसे एकेन्द्रियादि जीव जो सासादनसम्यग्दृष्टि होंगे वे सासादनसम्यक्त्वके काल तक एक अल्पतर स्थितिविभक्तिके ही स्वामी होंगे। आनत कल्पसे लेकर नौ वेयक तकके देवोंके तथा शुक्ललेश्यावालोंके मिथ्यादर्शन और सम्यग्दर्शन दोनों सम्भव हैं फिर भी यहां एक अल्पतर स्थिति ही होती है, अतः उक्त स्थानोंमें मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि जीवको अल्पतर स्थितिविभक्तिका ही स्वामी बतलाया है । शेष मार्गणाओंमें अल्पतर स्थितिविभक्तिका स्वामी सम्यग्दृष्टि ही होता है, क्योंकि उनमें मिथ्यादर्शन सम्भव ही नहीं है।
• इस प्रकार स्वामित्वानुगम समाप्त हुआ। ६ १७४. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है--ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल चार समय है। अल्पतर स्थिति विभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल तीन पल्य और अन्तर्मुहूर्त अधिक एकसौ त्रेसठ सागर है । अवस्थितस्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तमुहूर्त है । इसी प्रकार अचक्षुदर्शनी और भव्य जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-किसी जीवने एक समय तक भुजगार स्थितिका बन्ध किया और दूसरे समयमें वह अल्पतर या अवस्थित स्थितिका बन्ध करने लगा तो भुजगारका जघन्यकाल एक समय प्राप्त होता है। तथा जब कोई एक एकेन्द्रिय जीव पहले समयमें अद्धाक्षयसे स्थितिको बढ़ाकर बाँधता है, दूसरे समयमें संलशक्षयसे स्थितिको बढ़ाकर बाँधता है, तीसरे समयमें मरकर और एक विग्रहसे संज्ञियोंमें उत्पन्न होकर असंज्ञियों के योग्य स्थितिको बढ़ाकर बाँधता है और चौथे समयमें शरीरको ग्रहण करके संज्ञीके योग्य स्थितिको बढ़ाकर बाँधता है तब उस जीवके भुजगार स्थितिका उत्कृष्टकाल चार समय प्राप्त होता है, इस प्रकार भुजगार स्थितिका जघन्यकाल
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गा० २२]
हिदिविहत्तीए भुजगारे कालो
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एक समय और उत्कृष्ट काल चार समय समझना चाहिये। इसका विशेष खुलासा इस प्रकार हैयहाँ एक स्थितिके बन्धके योग्य कालको अद्धा कहा है। जो कमसे कम एक समयतक और अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्ते तक होता है। तात्पर्य यह है कि किसी जीवके विवक्षित एक स्थितिका बन्ध हो रहा है तो वह बन्ध कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक अन्तमुहूर्त काल तक होगा। इसके पश्चात् वह बदल जायगा और तब उससे न्यून या अधिक स्थितिका बन्ध होने लगेगा। पर यहाँ भुजगारकी स्थिति विवक्षित है अत्तः अधिकका बन्ध कराना चाहिए। पर इस प्रकार अद्धाक्षयसे बंधनेवाली स्थितिमें फरक पड़ जानेपर भी स्थितिबन्धके कारणभूत संलशरूप परिणामोंमें नियमसे बदल होगा ही यह नहीं कहा जा सकता। किसी जीवके श्रद्धाक्षयके साथ संक्लेशक्षय हो जाता है और किसी जीवके श्रद्धाक्षयके पश्चात् भी संक्लेशक्षय होता है। केवल अद्धाक्षयके होने पर स्थितिमें अधिकसे अधिक वृद्धि पल्यके । असंख्यातवें भागप्रेमाण ही हो सकती है अधिक नहीं, क्योंकि एक एक क्रोधादि कषायरूप परिणामखण्ड उक्त प्रमाण स्थितिबन्धका ही कारण होता है। पर संक्लेश क्षयके होने पर अधिकसे अधिक संख्यात सागर स्थिति बढ़ सकती है और घट भी सकती है। किन्तु यहाँ भुजगारकी विवक्षा है, इसलिये वृद्धि ही लेनी चाहिये। इस प्रकार जब किसी एकेन्द्रिय जीवके पहले समयमें श्रद्धाक्षयसे स्थितिमें वृद्धि होती है, दूसरे समयमें संक्लेशक्षयसे स्थितिमें वृद्धि होती है। तब उसके भुजगारके दो समय तो एकेन्द्रिय पर्यायमें प्राप्त हो जाते हैं। तथा वह जीव यदि तीस रेसमयमें मरा और एक मोडेके साथ संनियोंमें उत्पन्न हा तो उसके तीसरे समयमें असंज्ञीके योग्य स्थितिका बन्ध होने लगेगा और चौथे समयमें शरारको ग्रहण कर लेनेके कारण संज्ञीके योग्य स्थितिका वन्ध होने लगेगा। इस प्रकार उसी जीवके भुजगारके दो समय संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यायमें प्राप्त हुए। इस तरह भुजगारके कुल समय चार हुए। अतः भुजगार स्थितिका उत्कृष्ट काल चार समय कहा। जो जाव एक समय तक अल्पतर स्थितिका बन्ध करके दूसरे समयमें भुजगार या अवस्थित स्थितिका बन्ध करने लगता है उसके अल्पतरका जघन्यकाल एक समयका पाया जाता है। तथा जिस जीवने अन्तमु हूर्त काल तक अल्पतर स्थितिका बन्ध किया। अनन्तर वह तीन पल्यकी आयु लेकर भोगभूमिमें उत्पन्न हुआ और वहां आयुमें अन्तर्मुहूर्त कालके शेष रहने पर उसने सम्यक्त्वको ग्रहण किया। अनन्तर वह छयासठ सागर तक सम्यक्त्वके साथ परिभ्रमण करता रहा । तत्पश्चात् अन्तमुहूर्त काल तक सम्यग्मिथ्यात्वमें रहा
और वहाँ से पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त करके दूसरी बार छयासठ सागर तक सम्यक्त्वके साथ परिभ्रमण करता रहा। तत्पश्चात् मिथ्यात्वमें गया और इकतीस सागरकी आयुवाले देवोंमें उत्पन्न हो गया और वहांसे च्युत होकर और मनुष्योंमें उत्पन्न होकर अन्तमुहूर्त काल तक उसने अल्पतर स्थितिबन्ध किया पश्चात् वह भुजगार स्थितिबन्ध करने लगा। इस प्रकार अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल अन्तमुहूर्त और तीन पल्य अधिक एक सौ त्रेसठ सागर प्राप्त होता है। एक स्थितिबन्धका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अब यदि कोई जीव स्थितिसत्त्वके समान स्थितिका बन्ध करता है तो वह कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक अन्तमुहूर्त काल तक ही ऐसा कर सकेगा इसके पश्चात् उसके नियमसे अल्पतर या भुजगार स्थितिका बन्ध होने लगेगा, अतः अवस्थित स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। अचक्षुदर्शन और भव्य 'ये दो मार्गणाएं छद्मस्थ जीवके सम्यक्त्व और मिथ्यात्व दोनों दशाओं में सर्वदा रहती हैं अतः इनमें ओघ प्ररूपणा बन जाती है, और इसीलिए इनके कथनको ओघके समान कहा।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ हिदिविहत्ती ३
$ १७५. आदेसेण रइय० मोह० भुज० ज० एगसमओ, उक्क० बे समया । • अप्पद ० जह० एगसमझो, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि देणाणि । अहि० ओघ - भंगो । पढमादि जाव सत्तमिति भुज० - वडि० णिर०ओघं । अप्प० जह० एगसमयो, उक्क० सगसगुक्कसहिदी देणा ।
१००
$ १७६. तिरिक्ख० मोह० भुज० अ० श्रघं । अप्पद० जह० एगसमझो, उक्क० तिष्णि पलिदोवमाणि सादिरेयाणि अंतोमुहुत्तेण । पंचिदियतिरिक्ख ० - पंचिंतिरिक्खपज्ज०-पंचिं०तिरिक्खजोणिणीसु भुज० जह० एगसमओ, उक्क० तिण्णि समया । अप्पद० - अवहि० तिरिक्खोघं । पंचिं० तिरि० अपज्ज० भुज० ज० एगसमओ, उक्क० तिण्णि समया । अप्पद ० - वडि० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । एवं
९ १७५. आदेशकी अपेक्षा नारकियों में मोहनीयकी भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है । अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है । तथा अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल ओघके समान है । पहली पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक प्रत्येक नरक में भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल सामान्य नारकियोंके समान है । तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है ।
विशेषार्थ - नरक में श्रद्धाक्षय और संक्लेशक्षयसे दो भुजगार समय प्राप्त होते हैं अतः यहाँ भुजगार स्थितिका उत्कृष्ट काल दो समय कहा । कोई एक असंज्ञी दो विग्रहसे नरक में उत्पन्न हुआ और उसके यदि दूसरे विग्रह में अद्धाक्षयसे तीसरे समय में शरीर को ग्रहण करनेसे तथा चौथे समय में संक्लेशक्षय से भुजगार स्थितिबन्ध हुआ तो इस प्रकार नरकमें भुजगार स्थितिके तीन समय भी प्राप्त हो सकते हैं पर यहाँ पहले कथनकी ही मुख्यता है अतः उच्चारणावृत्ति में उसीका उल्लेख किया है । जिस जीवने नरकमें उत्पन्न होनेके पश्चात् अन्तर्मुहूर्त कालमें सम्यक्त्वका ग्रहण कर लिया है और जो अन्तर्मुहूर्तं कालके शेष रहने पर मिध्यात्व में गया उसके नरकमें अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल कुछ कम तेतीस सागर पाया जाता है । शेष कथन ओघ के समान घटित कर लेना चाहिए । इसी प्रकार प्रथमादि नरकोंमें भी कथन करना चाहिये । किन्तु वहां अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण जानना चाहिये । यद्यपि पहले नरक में सम्यग्दृष्टि जीव भी उत्पन्न होता है और उसके अल्पतर स्थिति हो पाई जाती है । किन्तु ऐसा जीव पहले नरककी उत्कृष्ट स्थिति के साथ नहीं उत्पन्न होता अतः पहले नरक में भी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल कुछ कम एक सागरप्रमाण प्राप्त होता है ।
९ १७६. तिर्यश्नोंमें मोहनीयकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल घ समान हैं । तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त अधिक तीन पल्य है । पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चपर्याप्तक और पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिमती जीवों में भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्टकाल तीन समय है । तथा अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है । पंचेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तकोंमें भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय है । तथा अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट
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गा २२]
हिदिविहत्तीए भुजगारे कालो पंचिं०अपज्ज।
६ १७७. मणुसतिय० भुज०-अवहि० णिरओघं । अप्पद० जह० एगसमो, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि पुव्वकोडितिभागेण सादिरेयाणि । मणुसिणीसु अंतोमुहुत्तेण सादिरेयाणि । मणुसअपज० भुज० जह० एयसमो, उक्क० बे समया । अप्पद०-अवहि० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमहत्तं ।
१७८. देवेसु भुज०-अवहि० गिरोघं । अप्पद० जह० एगसमो, उक्क० काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक जीवों के जानना चाहिए ।
विशेषार्थ-जिस तिर्यंचने पूर्व पर्यायमें अन्तर्मुहूर्त तक अल्पतर स्थितिका बन्ध किया। पश्चात् मरकर तीन पल्यकी आयुके साथ उत्तम भोगभूमिमें उत्पन्न हो गया उसके अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल अन्तमुहूर्त अधिक तीन पल्य पाया जाता है। सामान्य तिर्यंचोंमें शेष कथन
ओघके समान है। यदि कोई अन्य इन्द्रियवाला जीव पंचेन्द्रिय तिर्यंचत्रिकमें उत्पन्न हुआ तो उसके पहला समय अद्धाक्षयसे,दूसरा समय शरीरको ग्रहण करनेसे और तीसरा समय संक्लेशक्षयसे भुजगार स्थितिका प्राप्त होता है, अतः इनमें भुजगार स्थितिका उत्कृष्टकाल तीन समय कहा ।
शेष कथन सुगम है । पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तक और पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तकका उत्कृष्टकाल • अन्तर्मुहूर्त है अतः इनके अल्पतर और अवस्थित स्थितिका उस्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त कहा। शेष' कथन सुगम है।
६१७७. सामान्य मनुष्य,पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनी इन तीन प्रकारके मनुष्योंमें भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल सामान्य नारकियोंके समान है। अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिके त्रिभागसे अधिक तीन पल्य है । मनुष्यिनियोंमें अल्पतर स्थितिविभक्तिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त अधिक तीन पल्य है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है । तथा अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्ति का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है।
विशेषार्थ-सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यिनियोंमेंसे एक पूर्वकोटिकी आयुवाले जिस मनुष्यने त्रिभागके शेष रहनेपर मनुष्यायुका बन्ध करके पश्चात् क्षायिकसम्यग्दर्शनको प्राप्त कर लिया है वह मरकर उत्तम भोगभूमिमें तीन पल्यकी आयुके साथ उत्पन्न होता है। इसके त्रिभागसे लेकर अन्त तक निरन्तर स्थितिसत्त्वसे कम स्थितिका ही बन्ध होता रहता है अतः अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल पूर्वकोटिका त्रिभाग अधिक तीन पल्य प्राप्त होता है। किन्तु सम्यग्दृष्टि जीव मरकर स्त्रीवेदी नहीं होता अतः मनुष्यिनियोंके अल्पतर स्थितिका काल अन्तमुहूर्त अधिक तीन पल्य ही प्राप्त होगा। यहां अन्तर्मुहूतसे पूर्व पर्यायके और तीन पल्यसे उत्तम भोगभूमिके अल्पतर स्थितिके कालका ग्रहण करना चाहिये । लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है, अतः इसके अल्पतर और अवस्थितस्थितिका उत्कृष्टकाल अन्तमुहूर्त कहा। शेष कथन सुगम है।
१७८. देवोंमें भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल सामान्य नारकियों के
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१०२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ तेत्तीस सागरोवमाणि । भवणादि जाय सहस्सारे त्ति एवं चेव । णवरि अप्पद० जह० एगसमओ, उक्क० सगुक्कस्सद्विदी । भवण-वाण-जोदिसि० सगहिदी अंतोमुहुत्तूणा । प्राणदादि जाव सबसिद्धि त्ति अप्पदर० जह० जहण्ण हिदी, उक्क० उक्कस्सहिदी।
१७६. एइंदिय०भुज०-अवहि० मणुसभंगो। अप्पद० जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो असंखे०भागो । एवं बादरेई दिय-मुहुमेइंदिय-चत्तारिकाय तेसिं बादर-सुहुमवणप्फदि-बादरवणप्फदि-सुहुमवणप्फदि-णिगोद-बादरणिगोद-सुहमणिगोदे त्ति। एदेसिं पज्जत्ताणमपज्जत्ताणं च एवं चेव । णवरि अप्पद० जह० एगसमो , उक्क० सगसगुकस्सहिदी ।
१८०.विगलिंदिय-विगलिंदियपज्जत्ताणं भुज०-अवहि० एइंदियभंगो। अप्पद० जह० एगसमओ, उक्क० सगसगुकस्सहिदी। विगलिंदियअपज्ज. भुज०-अवहि० समान है । तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्पतक इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है। उसमें भी भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति अन्तमुहूर्त कम कहना चाहिए। आनतसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल अपनी अपनी जघन्य स्थितिप्रमाण और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है।
विशेषार्थ-भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार तकके देवोंके तीनों प्रकारकी स्थितियोंका बन्ध होता है । अतः सहस्रार स्वर्गतक अल्पतर स्थितिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण प्राप्त हो जाता है। पर इतनी विशेषता है कि भवनत्रिकोंमें सम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होता अतः वहां अल्पतरका उत्कृष्टकाल अन्तमुहूतकम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण ही प्राप्त होगा। किन्तु आनतसे सर्वार्थसिद्धितक अल्पतर स्थितिका जघन्य काल जघन्य स्थितिप्रमाण और उत्कृष्टकाल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण ही प्राप्त होगा, क्योंकि वहां एक अल्पतर स्थितिका ही बन्ध होता है । शेष कथन सुगम है।
१७६. एकेन्द्रियोंमें भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल मनुष्यों के समान है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रेमाण है। इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय, सूक्ष्मएकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक आदि चार स्थावरकाय, उनके बादर और सूक्ष्म, वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, निगोद, बादर निगोद और सूक्ष्म निगोद जीवोंके जानना चाहिये । इन बादर एकेन्द्रिय आदिके जो पर्याप्तक और अपर्याप्तक भेद हैं उनके भी इसी प्रकार जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि इनमें अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है।
६१८०. विकलेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके भुजगार और अवस्थित स्थिति विभक्तिका काल एकेन्द्रियों के समान है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय
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गा.२२] . द्विदिविहत्तीए भुजगारे कालो
१०३ विगलिंदियभंगो । अप्पद० मणुसअपज्जत्तभंगो ।
१८१. पंचिं०-पंचिं०पज० भुज०-अवहि. पंचिं०तिरिक्वभंगो। अप्पद० मूलोघं । तस-तसपज्ज० भुज०-अवहि-अप्पद० मूलोघं । तसअपज्ज० भुज० ओघं । अप्पद०-अवहि० जह० एगसमो, उक्क० अंतोमु० । एवमोरालियमिस्स० वत्तव्वं । णवरि भुज० उक्क० तिण्णि समया। और उत्कृष्टकाल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। विकलेन्द्रिय अपर्याप्तक जीवोंके भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल विकलेन्द्रियोंके समान है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका काल मनुष्य अपर्याप्तकोंके समान है।
विशेषार्थ-एकेन्द्रियोंमें भी अद्धाक्षय और संलशक्षयसे भुजगारके दो समय प्राप्त होते हैं अतः इनमें भुजगार स्थितिका उत्कृष्ट काल भी मनुष्योंके समान कहा। तथा एकेन्द्रियके निरन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालतक अल्पतर स्थितिका होना सम्भव है, क्योंकि जिस एकेन्द्रियके संज्ञी पंचेन्द्रियकी स्थितिका सत्त्व है वह उसे पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक घटाता रहता है । अतः एकेन्द्रियोंमें अल्पतर स्थितिका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा। बादरएकेन्द्रिय, सूक्ष्मएकेन्द्रिय तथा पाँचों स्थावरकाय और उनके बादर और सूक्ष्म जीवोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति पल्यके असंख्यातवें भागसे अधिक है, अतः इनमें भी एकेन्द्रियोंके समान काल बन जाता है। किन्तु इन सबके पर्याप्त और अपर्याप्त भेदोंका काल कम है अतः इनमें अल्पतर स्थितिका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहा। इसी प्रकार विकलत्रय पर्याप्त और विकलत्रय अपर्याप्त जीवोंके उत्कृष्ट काल का विचार करके अल्पतर स्थितिका उत्कृष्ट काल जानना । शेष कथन सुगम है।
६१८१. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्तक जीवोंके भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका काल मूलोघके समान है। त्रस और त्रस पर्याप्तक जीवोंके भुजगार, अवस्थित और अल्पतर स्थितिविभक्तिका काल मूलोघके समान है। बस अपर्याप्तकोंके भजगार स्थितिविभक्तिका काल ओघके समान है। तथा अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके कहना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके भुजगार स्थितिविभक्तिका उत्कृष्टकाल तीन समय है ।
विशेषार्थ-पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें सब पंचेन्द्रिय जीव आ जाते हैं। उनमें पंचेन्द्रिय तिर्यश्च भी सम्मिलित हैं अतः पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके जिस प्रकार भुजगार स्थितिका उत्कृष्ट काल तीन समय घटित करके बतला आये हैं उसी प्रकार इनके भी जानना चाहिए। तथा ओघसे अल्पतर स्थितिका जो उत्कृष्ट काल बतलाया है वह पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंके ही प्राप्त होता है अन्यके नहीं, अतः इनके अल्पतर स्थितिका काल ओघके समान कहा । ओघसे भुजगार आदि तीनों विभक्तियोंका जो काल कहा है वह त्रस और त्रस पर्याप्त जीवोंके अविकल बन जाता है, अतः इनकी प्ररूपणाको श्रोधके समान कहा । त्रस अपर्याप्तकोंका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है, अतः इनके अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त कहा। जो एकेन्द्रिय या विकलत्रय पंचेन्द्रिय त्रसोंमें उत्पन्न होता है उसके भुजगार स्थितिके चार समय प्राप्त होते हैं। किन्तु इनमें भुजगारका पहला समय विग्रह गतिमें हो जाता है और
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जयधवलास हिदे कसा पाहुडे
[ द्विदिविहत्ती ३
I
$ १८२. पंचमण० - पंचवचि ० – वेड व्विय ० -- वेडव्वियमिस्स० मणुसअपज्जत्तभंगो । कायजोगि० भुज० अवद्वि० ओघं । अप्पद० ज० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । ओरालि० भुज० - अवट्ठि ० मणुसअपजतभंगो | अप्पद० जह० एगसमओ, उक्क० वावीसवस्ससहस्साणि देणाणि । आहार० अप्पद० जह० एसमत्रो, उक्क० अंतोमु० । आहारमिस्स० अप्पद० जहण्णुक्क • अंतोमु० । कम्मइय० भुज० ज० एगसमओ, उक्क० वे समया । एवमष्पद० । अवडि० जह० एगसमओ, उक्क० तिण्णि
समया ।
२०४
विग्रहति में औदारिकमिश्रकाययोग पाया नहीं जाता, अतः इस योगमें भुजगार स्थितिका उत्कृष्ट काल तीन समय कहा जो भव ग्रहण अद्धाक्षय और संक्लेशक्षयके कारण प्राप्त होता है ।
१८२. पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी और वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके मनुष्य अपर्याप्तकोंके समान जानना चाहिये । काययोगी जीवोंके भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल ओघके समान है । तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । औदारिक काय - योगी जीवोंके भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल मनुष्य अपर्याप्तकों के समान है । तथा अल्पतर स्थितिविभक्तका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल कुछ कम बाईस हजार वर्ष है । आहारक काययोगी जीवोंके अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । आहारक मिश्रकाययोगी जीवोंके अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । कार्मणकाययोगी जीवोंके भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है । इसी प्रकार अल्पतर स्थितिविभक्तिका काल जानना चाहिये। तथा अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन
समय 1
विशेषार्थ-पांचों मनोयोग, पांचों वचनयोग, वैक्रियिककाययोग और वैक्रियिकमिश्रकाययोग में भुजगार स्थितिविभक्तिका श्रद्धाक्षय और संक्लेशक्षयसे दो समय ही उत्कृष्टकाल प्राप्त होता है तथा अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त ही प्राप्त होता है, क्योंकि इन योगों का इससे अधिक उत्कृष्टकाल नहीं पाया जाता, अतः इनमें भुजगार आदि स्थितियोंके कालको लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंके समान कहा । काययोगमें सब काययोगों का अन्तर्भाव हो जाता है और भुजगार स्थितिका उत्कृष्टकाल चार समय काययोग में ही बनता है अतः इसमें भुजगार और अवस्थित स्थिति कालको ओघके समान कहा । तथा सामान्य काययोगका उत्कृष्टकाल तो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । पर वह एकेन्द्रियके ही पाया जाता है और एकेन्द्रियके अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा, अतः काययोगमें भी अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल उक्त प्रमाण जानना । औदारिककाययोगका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त कम बाईस हजार वर्ष है, अतः इसमें अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल उक्त प्रमाण कहा । आहारककाययोग और आहारक मिश्रकाययोग में अल्पतर स्थितिविभक्ति ही होती है अतः इनका जो जघन्य और उत्कृष्टकाल है तत्प्रमाण ही इनमें अल्पतर स्थितिका जघन्य और उत्कृष्टकाल जानना चाहिये । कार्मणकाययोगका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल तीन समय है, अतः इसमें अवस्थिति स्थितिविभक्तिका तो जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल तीन समय बन जाता
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गा० २२.]
हत्ती भुजगारे कालो
१०५
६१८३. इत्थि० भुज० - अवहि० पंचिंदियतिरिक्खभंगो । अप्पद ० जह० एगसम, उक्क० पणवण्णपलिदोवमाणि देसूणाणि । एवं पुरिस० । णवरि अप्पद० जह० एगसमओ, उक्क० सागरोवमसदं तीहि पलिदोवमेहि अंतोमुहुत्तन्भहिएहि सादिरेयं । णवुंस० भुज० - वहि० ओघं । अप्पद० ज० एगसमश्र, उक्क० तेत्तीस सागरोमाणि देणाणि । अवगद ० अप्पद० जह० एगसमओ, उक्क० तोहुतं । एवं अकसाय०-मुहुमसांपरा ० - जहाक्खाद० वत्तव्वं ।
$ १८४. चत्तारिकसाय० ओरालियमिस्सभंगो | णवरि भुज० ओघं ।
है, क्योंकि एक स्थितिका तीन समय तक बन्ध होना असंभव नहीं है, क्योंकि एक स्थितिका उत्कृष्ट बन्धकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण पाया जाता है । परन्तु इसमें भुजगार और अल्पतर स्थितिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल दो समय ही प्राप्त होता है, क्योंकि इसमें श्रद्धाक्षय और संक्लेशक्षय ये दो अवस्थाएं ही सम्भव हैं । अतएव इनमें भुजगार और अल्पतरका अधिक अधिक दो समय काल ही प्राप्त होगा । शेष कथन सुगम है ।
९१८३. स्त्रीवेद में भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम पचवन पल्य है । इसी प्रकार पुरुषवेद में जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त और तीन पल्य अधिक एकसौ त्रेसठ सागर है । नपुंसकवेदमें भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल ओघ के समान है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एकसमय और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है। अपगतवेदी जीवोंके अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवों के कहना चाहिए ।
विशेषार्थ-देवीकी उत्कृष्ट स्थिति पचवन पल्य है । अब यदि कोई जीव इस आसा देवी हुआ और उसने अन्तर्मुहूर्त के बाद सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया और जीवन भर सम्यग्दृष्टि रहा तो उसके अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल कुछ कम पचवन पल्यप्रमाण प्राप्त होता है । ओघसे अल्पतर स्थितिका जो उत्कृष्टकाल कहा वह पुरुषवेदकी अपेक्षा ही घटित होता है, अतः पुरुषवेदमें अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त और तीन पल्य अधिक एकसौ त्रेसठसागर कहा । नपुंसक वेद में अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल सातवें नरककी अपेक्षा प्राप्त होगा, अतः इसमें अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल कुछ कम तेतीस सागर कहा । अपगतवेद में अल्पतर स्थिति ही पाई जाती
और मोहनीय सत्कर्मवाले अपगतवेदका जघन्यकाल एक समय तथा उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है, अतः इसमें अल्पतर स्थितिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त कहा । अकायी, सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवों की स्थिति अपगतवेदी जीवोंके समान है अतः इनके भी अल्पतर स्थितिका जघन्य और उत्कृष्टकाल उक्त प्रमाण जानना । शेष कथन सुगम है।
१८४. क्रोधादि चार कषायवाले जीवोंके औदारिक मिश्रकाययोगी जीवोंके समान जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके भुजगार स्थितिविभक्तिका काल ओघ के समान है । विशेषार्थ - भुजगार स्थितिके चार समय अपर्याप्त अवस्था में प्राप्त होते हैं और उस
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे - [हिदिविहत्ती ३ १८५. मदि०सुदअण्णाण० भुज-अवढि० ओघं । अप्पद० जह० एगसमआ, उक्क० एक्कत्तीसं सागरो० सादिरेयाणि। विभंग० भुज०-अप्पद०-अवहि० सत्तमपुढविभंगो । णवरि अप्पद० एकत्तीससागरो० अंतोमुहुत्तूणाणि । आभिणि ०-सुद०-ओहि० अप्पद० जह• अंतोमु०, उक्क० छावहिसागरो० सादिरेयाणि । एवमोहिदंस०-सम्मामि०-वेदयसम्मादिहि त्ति । णवरि वेदयसम्मादिहीसु छावहिसागरोवमाणि संपुण्णाणि । मणपज० अप्पद० ज० अंतोमुहुचं, उक्क० पुव्वकोडी देसूणा । एवं संजदपरिहार०-संजदासजदा त्ति । समय कोई भी एक कषाय पाई जा सकती है अतः चारों कषायोंमें भुजगार स्थितिका काल ओघके समान कहा। एक कषायका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है अतः शेष कालकी औदारिक मिश्रकाययोगके साथ समानता घटित हो जाती है। शेष कथन सुगम है।
$ १८५. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंके भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल ओघके समान है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक इकतीस सागर है। विभंगज्ञानी जीवोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल सातवीं पृथिवीके नारकियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि इनके अल्पतर स्थितिविभक्तिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहुर्त कम इकतीस सागर है। आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंके अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें पूरे छयासठ सागर होते हैं। मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त
और उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण है। इसी प्रकार संयत, परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवोंके जानना चाहिये ।
विशेषार्थ प्रारम्भके दो अज्ञानोंके रहते हुए अधिकसे अधिक अल्पतर स्थितिविभक्ति नौवें ग्रैवेयकमें पाई जाती है, अतः मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें अल्पतर स्थितिविभक्तिका उत्कृष्टकाल साधिक इकतीस सागर कहा। यहां साधिकसे नौवें ग्रैवेयकके पिछले भवके अन्तका अन्तर्मुहूर्तकाल और अगले भवके प्रारम्भका अन्तर्मुहूर्तकाल लेना चाहिये, क्योंकि इन कालोंमें भी इस जीवके अल्पतर स्थितिका पाया जाना सम्भव है। किन्तु विभंगज्ञानमें अल्पतर स्थितिविभक्तिका काल अन्तमुहूर्त कम इकतीस सागर ही प्राप्त होता है जो कि उपरिम नौवें अवेयकमें अपर्याप्त अवस्थाके अन्तर्मुहूर्त कालको कम कर देनेसे प्राप्त होता है। अभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, अवधिदर्शन और सामान्य सम्यग्दृष्टिका उत्कृष्टकाल साधिक छयासठ सागर और वेदक सन्यक्त्वका उत्कृष्टकाल पूरा:छयासठ सागर है और इनके एक अल्पतर स्थिति ही सम्भव है अतः इनके अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल उक्त प्रमाण कहा। तथा इन सबका जघन्यकाल अन्तमुहूर्त है, अत: इनमें अल्पतर स्थितिका जघन्यकाल अन्तमुहूर्त कहा। मनःपर्ययज्ञानका जघन्यकाल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटि है अतः इसमें अल्पतर स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा । संयत, परिहारविशद्धिसंयत और संयतासंयत जीवोंके भी अल्पतर स्थितिका जघन्य और उत्कृष्टकाल उक्त प्रमाण जान लेना चाहिये।
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गा० २२ ]
हिदिविहत्ती भुजगारे कालो
१०७
$ १८६. सामाइय-च्छेदो० अप्पद० जह० एगसमओ, उक० goaकोडी देसूणा | असंजद ० णवंसभंगो | णवरि अप्पद० जक्क० तेत्तीसं सागरो० सादिरेयाणि । चक्खु० तसपज्जत्तभंगो । किण्ह० - णील० काउ० भुज० - अवहि० ओघं । अप्पद० जह० एगम, उक्क० सगहिदी देसूणा । तेउ० पम्म० भुज० - वहि० सोहम्मभंगो । अप्पद० ज० एगसमझो, उक्क० सगहिदी । सुक्क० अप्प० ज० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीस साग० सादिरेयाणि । एवं खइय० वत्तव्वं ।
९ १८७. अभव००-मिच्छादि० मदिअण्णाणिभंगो । उवसम० सम्मामि० आहारमिस्सभंगो | सासण० अप्पद० ज० एगसमओ, उक्क० छावलियाओ । सण्णि० भुज० ज० एगसमओ उक्क० वेसमया । अप्पद ० - वडि० श्रघं । असण्णि० भुज० पंचिदियतिरिक्खभंगो । अप्पद ० - श्रवद्वि० भिंगो | श्राहारि० भुज०
१८६. सामायिकसंयत और छेदोपस्थानासंयत जीवोंके अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल कुछ कम एक पूर्वकोटि है। असंयत जीवोंके नपुंसक - वेदी जीवोंके समान जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके अल्पतर स्थितिविभक्तिका उत्कृष्टकाल साधिक तेतीस सागर है । चतुदर्शनी जीवोंके त्रस पर्याप्तकों के समान जानना चाहिए । कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले जीवोंके भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल
के समान है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । पीत और पद्मलेश्यावाले जीवोंके भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल सौधर्म कल्पके समान है । तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्टकाल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । शुक्ललेश्यावाले जीवों के अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल साधिक तेतीस सागर है । इसी प्रकार क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए ।
विशेषार्थ - जो अनुत्तर विमानवासी एक समय कम तेतीस सागरकी आयुवाला देव च्युत होकर एक कोटि पूर्वकी आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ और आयुके अन्तमें संयमको प्राप्त हो सिद्ध हो गया उसके नौ अन्तर्मुहूर्त कम पूर्व कोटिकालसे अधिक तेतीस सागर असंयतका उत्कृष्टकाल होता है | अतः संयत के अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल साधिक तेतीस सागर कहा । शुक्ल श्यामें दो अन्तर्मुहूर्त अधिक ३३ सागर जानना चाहिये किन्तु शुक्ललेश्या के काल में सर्वार्थसिद्धिसे पूर्व और पश्चात् भवके अन्तका और प्रथम अन्तर्मुहूर्तकाल सम्मिलित करना चाहिये । संज्ञीके भुजगारका उत्कृष्टकाल दो समय श्रद्धाक्षय और संक्लेशक्षय से प्राप्त होता है । शेष कथन सुगम है ।
$ १८७. अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवोंके मत्यज्ञानी जीवोंके समान जानना चाहिये । उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके आहारक मिश्रकाययोगी जीवोंके समान जानना चाहिए। सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल छह आवलीप्रमाण है । संज्ञी जीवोंके भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल दो समय है । तथा अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल ओधके समान है । असंज्ञी जीवोंके भुजगार स्थितित्रिभक्तिका काल पंचेन्द्रिय तिर्यों के समान
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auravsanawaranwar
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [द्विदिविहत्ती ३ अवहि. मोरालियमिस्सभंगो । अप्पदर० ज० एयसमओ, उक्क० ओघभंगो । अणाहार० कम्मइयभंगो।
एवं कालाणुगमो समत्तो । १८८. अंतराणुगमेण दुविहो णि सो-प्रोघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोह. भुज-अवढि० अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जह० एगसमओ, उक्क० तेवहिसागरोवमसदं तीहि पलिदोवमेहि अंतीमुहुत्तब्भहिएहि सादिरेयं । अप्पद० जह० एगसमओ, उक्क० अतोमुहु । एवं पंचिंदिय-पंचि०पज्ज०-तस-तसपज्ज०पुरिस०-चक्खु०-अचक्खु०-भवसि.-सण्णि०-आहारि त्ति।
१८६. आदेसेण णेरइएसु भुज० अवहि० ज० एगसमओ, उक्क० तेत्तीस सागरोवमाणि देसूणाणि । अप्पद० ओघं । पढमादि जाव सत्तमि त्ति भुज०-अवहि० अंतरं ज० एगसमो, उक्क० सगहिदी देसूणा । अप्पद० ओघं। है। तथा अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल एकेन्द्रियोंके समान है। आहारक जीवोंके भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके समान है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल ओघके समान है। अनाहारक जीवोंके कार्मणकाययोगी जीवोंके समान है।
इस प्रकार कालानुगम समाप्त हुआ। ६१८८.अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मोहनीयकी भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य एक समय और उत्कृष्ट तीन पल्य और अन्तर्मुहूर्त अधिक एकसौ वेसठ सागर है । अल्पतर स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रस पर्याप्त, पुरुषवेदी, चक्षदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषाथे--एक कालमें एक जीवके भुजगार आदि स्थितियोंमेंसे कोई एक ही स्थिति होगी और इन तीनोंका जघन्यकाल एक समय है अतः जघन्य अन्तर भी इतना ही प्राप्त होता है। तथा अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल अन्तमुहर्त और तीन पल्य अधिक एकसौ त्रेसठ सागर है और उस समय अन्य दो स्थितियोंका पाया जाना सम्भव नहीं, अतः भुजगार और अवस्थित स्थितिका अन्तरकाल अल्पतरस्थितिके उत्कृष्टकाल प्रमाण कहा। तथा अवस्थितका उत्कृष्टकाल अन्तमुहर्त है, अतः अल्पतरका उत्कृष्ट अन्तर अन्तमहतं कहा। पंचेन्द्रिय आदि कुछ छ मार्गणाओंमें यह अन्तरकाल बन जाता है अतः उनके कथनको ओधके समान कहा।
१८६. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागर है । तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल ओघके समान है। पहली पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक प्रत्येक नरकमें भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल ओघके समान है।
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गा० २२ ] हिदिविहत्तीए भुजगारे अंतरं
१०६ $ १६०. तिरिक्व० भुज-अवट्टि ० जह० एगसमो, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । अप्प० ओघं । पंचिंतिरिक्ख-पंचिंतिरि०पज्ज-पंचिं०तिरि० जोणिणी० भुज०-अवहि० ज० एगसमो, उक्क० पुव्वकोडिपुधनं । अप्पद० अोघं । पंचिंतिरि०अपज्ज० भज-अप्प -अवहि० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । एवं मणुसअपज्ज० । मणुसतिय० भुज०-अवहि० ज० एगसमो, उक्क० पुव्वकोडी देमणा । अप्पद० ओघं ।
___$ १६१. देवेसु भुज०-अवहि० ज० एगसमओ, उक्क० अहारस सागरो० सादिरेयाणि । अप्प० ओघ । भवणादि जाव सहस्सार त्ति भुज०-अवहि० ज० एगसमओ, उक्क० सगहिदी देसूणा । अप्प० अोघं० । आणदादि जाव सव्वहेत्ति अप्प० णत्थि अंतरं ।
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१६०. तिथंचोंमें भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल ओघके समान है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती जीवोंके भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्व है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल ओघके समान है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंके भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तक जीवोंके जानना चाहिये । सामान्य मनुष्य,पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यिनियोंमें भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पूर्वकोटिप्रमाण है। तथा अल्पतर स्थितिविमक्तिका अन्तरकाल अोधके समान है।
१६१. देवोंमें भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक अठारह सागर है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल अोधके समान है। भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देवोंके भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल अोधके समान है। आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंके अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है।
विशेषार्थ--सामान्य तिर्यञ्च के अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल साधिक तीन पल्य बतला आये हैं। पर जिस तिर्यश्चके यह काल प्राप्त होता है उसके तियंञ्च पर्यायके रहते हुए पुनः भुजगार और अवस्थित स्थिति नहीं प्राप्त होती, क्योंकि वह जीव तियंञ्चसम्बन्धी अल्पतर स्थितिके कालको समाप्त करके देवपर्यायमें चला जाता है, अतः एकेन्द्रियोंमें जो अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल बतलाया है वह सामान्य तिर्यञ्चके भुजगार और अवस्थितस्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल जानना चाहिये । तिर्यश्च त्रिकके अल्पतर स्थितिका जो साधिक तीन पल्य उत्कृष्टकाल बतलाया है उसे इनके भुजगार और अवस्थित स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल माननेपर वही आपत्ति खड़ी होती है जो सामान्य तिर्यश्चोंके उक्त स्थितियोंके अन्तरकालका स्पष्टीकरण करते समय बतला
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [द्विदिविहत्ती ३ १६२. सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज्ज. पंचिं०तिरिक्खअपजत्तभंगो। पंचकाय०-तसअपज ०-पंचमण०-पंचवचि०-ओरालि-वेउन्चिय० पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो। एवमोरालियमिस्स-वेउव्वियमिस्स० वत्तव्यं । कायजोगि० भज०-अवहि० ज० एयसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे भागो। अप्पद० ज० एगसमो, उक्क० अंतोमुहु। आहार-आहारमिस्स० अप्पद० ण त्थि अंतरं । एवमवगद०-अकसा०-आभिणि सुद०-ओहि-मणपज्ज०-संजद०-सामाइय-छेदो०परिहार०-सुहुम०-जहाक्खाद-संजदासंजद०--मोहिदंस०-सुक्क०सम्मादि-खइय०वेदय०-उवसम-सम्मामि०-सासण दिहि त्ति । कम्मइय० भज०-अप्पद० णत्थि आये हैं अतः इनके भुजगार और अवस्थित स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकाटि पृथक्त्वप्रमाण कहा है। कोई संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च उत्कृष्ट स्थिति बाँधकर मरा और असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चोंमें उत्पन्न हुआ और सेंतालीस पूर्वकोटि तक पंचेन्द्रिय असंज्ञियोंमें भ्रमणकर फिर संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च हो गया। इस प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें भुजगार और अवस्थितका उत्कृष्ट अन्तर सैंतालीस पूर्वकोटि होता है। क्योंकि जिस असंज्ञी जीवके संज्ञी पंचेन्द्रियकी स्थितिका सत्त्व होता है उसको घटानेके लिए संतालीस पूर्वकोटिसे भी अधिक काल चाहिये परन्तु असंज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च में भ्रमण करनेका उत्कृष्टकाल सेतालीस पूर्वकोटि है अतः उक्त काल कहा। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यश्च पर्याप्तकोंमें पन्द्रह पूर्वकोटि और योनिमतिमें सात पूर्वकोटि कहना चाहिए । मनुष्यमें असंज्ञी नहीं होते अतः उनमें सम्यक्त्वकी अपेक्षा कुछ कम पूर्वकोटि काल कहा है मनुष्य त्रिकके यद्यपि अल्पतरका उत्कृष्टकाल साधिक तीन पल्य बतलाया है पर वह इनके भुजगार और अवस्थितका उत्कृष्ट अन्तर नहीं हो सकता। आपत्ति वही आती है जिसका पहले उल्लेख कर आये हैं। अतः इनके भुजगार और अवस्थितका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण जानना चाहिये । कुछ कमसे यहाँ प्रारम्भके आठ वर्पका और अन्तके अन्तमुहूर्त कालका ग्रहण किया है। देवोंमें यद्यपि अल्पतर स्थितिका उत्कृष्टकाल तेतीस सागर बतलाया है। पर भुजगार और अवस्थित स्थितियाँ सहस्रार स्वर्गतक ही होती हैं और सहस्रार कल्पकी उत्कृष्ट स्थिति साधिक अठारह सागर है, अतः इनके भजगार और अवस्थित का उत्कृष्ट अन्तरं साधिक अठारह सागर कहा । शेष कथन सुगम है।
१६२. सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक जीवोंके पंचेन्द्रिय तिर्यश्च अपयोतकोंके समान जानना चाहिये। पाँचों स्थावरकाय, त्रसअपर्याप्तक, पाँचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी,औदारिककाययोगी और वैक्रियिककाययोगी जीवोंके पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान जानना चाहिये। इसी प्रकार औदारिकमिश्रकाययोगी और वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके कहना चाहिये । काययोगी जीवोंके भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रेमाण है। तथा अल्पतर स्थिति
न्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तम हर्त है। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार अपगतवेदी, अकपायी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत.सामायिकसंयत छेदोपस्थापनासंयत.परिहारविशद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यात संयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवों के जानना चाहिये। कार्मण
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गा० २२ ] हिदिविहत्तीए भुजगारे भंगविचओ
१११ अंतरं। अवहि० जहण्णुक्क० एगसमओ । एवमणाहारि० ।
___ १६३. वेदाणुवादेण इत्थि० भुज०-अवडि० जह० एगसमो, उक्क० पणवण्ण पलिदोवमाणि देमणाणि । अप्प० ओघं । णस० भज०-अवहि० जह• एगसमो, उक्क० तेत्तीस सागरोवमाणि देसूणाणि । अप्पद० ओघं । एवमसंजद० ।
___$ १६४. चत्तारिकसाय० मणजोगिभंगो । मदिअण्णाण-सुदअण्णाण भुज-अवहि ० ज० एगसमओ, उक्क. एक्कत्तीस सागरोवमाणि सादिरेयाणि । अप्पद० ओघं । विहंग० भज०-अहि० ज० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । अप्पद० ओघं । पंचले० भुज०-अवहि० ज० एगसमो, उक्क० सगहिदी देमूणा । अप्पद० अोघं । अभव-मिच्छादि० मदिअण्णाणिभंगो। असण्णि ० कायजोगिभंगो ।
एवमंतराणुगमो समत्तो । $ १६५. णाणाजीवहिं भंगविचयाणुगमेण दुविहो णि सो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण भुज० अप्प० अवहिणियमा अत्थि । एवं तिरिक्व-सव्वएइंदिय-पुढवि०काययोगी जीवोंके भुजगार और अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। तथा अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है। इसी प्रकार अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये।
१६३. वेद मार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदी जीवोंके भुजगार और अवस्थित स्थिति विभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पचवन पल्य है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल अोधके समान है। नपुंसकवेदी जीवोंके भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागर है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल अोधके समान है। इसी प्रकार असंयत जीवोंके जानना चाहिये।
६१६४. चारों कषायवाले जीवोंके मनोयोगी जीवोंके समान जानना चाहिये। मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंके भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक इकतीस सागर है । तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल ओघके समान है। विभंगज्ञानी जीवोंके भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्महूर्त है । तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल ओघके समान है। कृष्ण आदि पाँच लेश्यावाले जीवोंके भुजगार और अवस्थित स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल अओघके समान है। अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवोंके मत्यज्ञानी जीवोंके समान जानना चाहिए। तथा असंज्ञी जीबोंके काययोगी जीवोंके समान जानना चाहिये।
इस प्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ। $ १६५. नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिबिहत्ती३ वादरपुढवि०-बादरपुढवि०अपज ०-सुहुमपुढवि०-सुहुमपुढविपञ्जत्तापज्जत्त-आउ०-बोदर
आउ०-बादरभाउअपज्ज०-सुहुमाउ०-मुहुमाउपजत्तापज्जत्त--तेउ०-बादरतेउ० [-बादरतेउ०] अपज्ज-सुहुमतेउ०-सुहुमतेउपज्जत्तापज्जत्त-वाउ०-बादरवाउ०-बादरवाउअपज्ज०-सहुमवाउ०-सहुमवाउ०पज्जत्तापज्जत्त-बादरवणप्फदिपत्तेय०तस्सेव अप्पज्ज०सबवणप्फदि०-सव्याणिगोद०-कायजोगि-ओरालिय० -ओरालियमिस्स०-कम्मइय०णवंस०-चत्तारिक०-मदि-सदारणाण-असंजद०--अचक्खु०-तिएणलेस्सिय-भव०अभव० - मिच्छादि०-असण्णि०-आहारि-अणाहारि त्ति ।।
६ १६६. श्रादेसेण णेरइएसु अप्पद० अवहिणियमा अत्थि । भुज० भजियव्वं सिया एदे च भुजगारविहत्तिश्रो च । सिया एदे च भुजगारविहत्तिया च २ । धुवे पक्खित्वं तिण्णि भंगा । एवं सत्तमु पुढवीसु सव्वपंचिंतिरि०-मणुसतिय०-देव०-भवगादि-जाव सहस्सार०-सव्वविगलिंदिय-सव्वपंचिंदिय-बादरपुढवीपज्ज-बादराउपज्ज०-बादरतेउपज०-बादरवाउपज्ज-बादरवणप्फदिपत्त यपज्जा-सव्वतस०-पंचमण०पंचवचि०-वउव्विय-इत्थि०-पुरिस-विहंग०-चक्खु०-तेउ०-पम्म०-सण्णि त्ति । जीव नियमसे हैं। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्च, सभी एकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक. बादर प्रथिवीकायिक अपर्याप्त. सक्षम प्रथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादरजलकायिंक अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त, बादरवनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, सभी वनस्पतिकायिक, सभी निगोद, काययोगी,
औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, कृष्णादि तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये।
8 १६६. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं। तथा भुजगार स्थितिविभक्तिवाले जीव भजनीय हैं। (१) कदाचित् बहुत अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव होते हैं और एक भुजगार स्थितिविभक्तिवाला जीव होता है। (२) कदाचित् बहुत अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव होते हैं
और बहुत भुजगार स्थितिविभक्तिवाले जीवं होते हैं। इन दोनों भंगोंको ध्र व भंगमें मिला देनेपर तीन भंग होते हैं। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, सभी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, सामान्य, पर्याप्त
और मनुष्यनी ये तीन प्रकारके मनुष्य, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देव, सभी विकलेन्द्रिय, सभी पंचेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादरजलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पति प्रत्येक शरीर पर्याप्त, सभी त्रस, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभंगज्ञानी, चक्षुदर्शनी, पतिलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये ।
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गा० २२]
हिदिविहत्तीए भुजगारे भागाभागागमो
११३
$ १६७. मणुस पज्ज० सव्वपदा भयणिज्जा । एवं वेचव्वियमिस्स० । आणदादि जाव सव्वत्ति अप्पद ० णियमा अत्थि । एवमाभिणि० - मुद० - ओहि ० - मणपज्ज०संजद० - सामाइयच्छेदो ० - परिहार० - संजदासंजद ० - ओहिदंस ० - सुक्क ० - सम्मादि ०खइय०-वेदएत्ति । आहार० - आहारमिस्स ० सिया अप्पदरविहत्तिओ च सिया अप्पदरविहत्तिया च । एवमवगद ० - अकसो०- सुहुम ० - जहाक्खाद ० उवसम० - सम्मामि० - सासणसम्मादिति ।
एवं णाणाजीवेहि भंगविचओ समत्तो ।
$ १६८. भागाभागानुगमेण दुविहो लिसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण भुज० सव्बजीव० के० भागो ? असंखे० भागो । अवद्वि० सव्वजी० के० १ संखे० भागो | पद० सव्वजीव० के० भागो ९ संखेज्जा भागा । एवं सत्तर पुढवीसु सव्वतिरिक्ख- मणुस - मणुसअपज्ज० देव भवणादि जाव सहस्सार- सव्व एइंदिय- सव्वविगलिं
१७. मनुष्य अपर्याप्तकों में सभी पद भजनीय हैं। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवों के जानना चाहिये । आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं । इसी प्रकार मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत सामायिक संयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, शुक्लश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये। आहारककाययोगी और आहारक मिश्रकाययोगी जीवोंमें कदाचित् अल्पतर स्थितिविभक्तिवाला एक जीव होता है, कदाचित् अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले अनेक जीव होते हैं। इसी प्रकार अपगतवेदी, अकषायी, सूक्ष्म सांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, उपशमसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवों के जानना चाहिये ।
विशेषार्थ से भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले नाना जीव सर्वदा पाये जाते हैं । पर मार्गणाओं में विचार करनेपर कुछ मार्गणाएं ऐसी हैं जिनमें घ प्ररूपणा बन जाती है । कुछ मार्गणाएं ऐसी हैं जिनमें अल्पतर और अवस्थित स्थितिवाले नाना जीव तो नियमसे हैं तथा भुजगार स्थितिवाला कदाचित् एक जीव होता है और कदाचित् अनेक जीव होते हैं । इस प्रकार इन दो अध्रुव भंगों में पहला ध्रुवभंग मिला देनेपर तीन भंग हो जाते हैं । कुछ मार्गणाएं ऐसी हैं जिनमें तीनों पद भजनीय हैं। जैसे लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य आदि । अतः यहां २६ भंग होंगे। कुछ मार्गणाएं ऐसी हैं जिनमें एक अल्पतर स्थितिवाले ही जीव होते हैं। और कुछ मार्गणाएं ऐसी हैं जिनमें अल्पतर स्थितिवाला कदाचित् एक जीव होता है और कदाचित् नाना जीव होते हैं। जैसे आहारक काययोगी आदि । अतः यहां दो भंग होंगे ।
इस प्रकार नानाजीवों की अपेक्षा भंगविचयानुगम समाप्त हुआ ।
$ १६८. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— प्रोघनिर्देश और आदेशनिर्देश | उनमें से की अपेक्षा भुजगार स्थितिविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं । अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं । अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ हिदिविहत्ती ३
02
दिय - सव्वपंचिंदिय-पंचकाय ० - सव्वतस-पंचमण० - पंचवचि ० - काय जोगि० - ओरालिय०ओरालियमिस्स - वेडव्विय ० - वेड० मिस्स ० - कम्मइय - तिण्णिवेद – चत्तारिकसाय-मदिसुदअण्णाण - विहंग० - संजद ० - चक्खु ० - अचक्खु ० - पंचले ० - भवसि ० - अभवसि ० मिच्छादि०-सण्णि० - असण्णि० - आहारि - अणाहारि त्ति ।
$ १६६. मणुसपज्जत्तमणुसिणीसु भुज ० सव्वजी० के० भागो ? संखे० भागो । एवमवद्विदि० । अप्पदर • संखेज्जा भागा। आणदादि जाव सव्वा त्ति णत्थि भागाभागं । एवमाहार० - आहारमिस्स ० - अवगद ० - अकसा० आभिणि० - सुद० - ओहि ० मणपज्ज० - संजद ० - सामाइयछेदो ० - परिहार० - सुहुम ० - जहाक्खाद ० -संजदासंजद० -ओहिदस०- सुक्क०- सम्मादि - - खइय० - वेदय ० -उवसम० -स् - सासण० - सम्मामि० । एवं भागाभागागमो समत्तो ।
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२००. परिमाणागमेण दुविहो णिद्द सो श्रघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण भुज० अप्पद० अवद्वि० केत्ति ० १ अनंता । एवं तिरिक्ख सव्वएइंदिय - सव्ववणफदिसव्वणिगोद ० - काय जोगि० - ओरालि ० - ओरालिय मिस्स-कम्मइय-णवंस ० - चत्तारिकसाय
इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, सभी तिर्यंच, मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देव, सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, सभी पंचेन्द्रिय, पांचों स्थावरकाय, सभी त्रसकाय, पांचों मनोयोगी, पांचों बचनयोगी, काययोगी, श्रदारिककाययोगी, दारिकमिश्र काययोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिक मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदशैनी, कृष्णादि पांच लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवों के जानना चाहिये ।
१६. मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में भुजगार स्थितिविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। इसी प्रकार अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले संख्यातवें भाग हैं। तथा अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले संख्यात बहुभाग हैं । नत कल्पसे लेकर सवार्थसिद्धि पर्यन्त जीवोंके भागाभाग नहीं हैं; क्योंकि वहां एक अल्पतर पद ही पाया जाता है । इसी प्रकार आहारककाययोगी, आहारक मिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापना संयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्म सांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों के जानना चाहिये ।
इस प्रकार भागाभागानुगम समाप्त हुआ ।
६ २००. परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से शोधकी अपेक्षा भुजगार, अल्पतर और अवस्थितस्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं । इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्च, सभी एकेन्द्रिय, सभी वनस्पतिकायिक,
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गा० २२] हिदिविहत्तीए भुजगारे परिमाणाणुगमो
११५ मदिसुदअण्णाण-असंजद-अचक्खु-तिण्णिले०-भवसि०-अभवसि०-मिच्छादि०असण्णि०-आहारि-अणाहारि त्ति ।
. २०१. आदेसेण णेरइएसु भुज० अप्पद० अवहि० केत्ति० १ असंखेजा । एवं सत्तसु पुढवीसु सव्वपंचिंतिरिक्ख-मणुस-मणुसअपज्ज०-देव--भवणादि जाव सहस्सार-सव्वविगलिंदिय-सव्वपंचिं०-चत्तारिकाय-बादरवणप्फदिपत्तेय०-पज्जत्तापज्जत्तसव्वतस०-पंचमण०-पंचवचि०-वेउव्विय०-वेउवियमिस्स-इत्थि -पुरिस०-विहंग०चक्खु०-तेउ०- पम्म०-सण्णित्ति ।।
२०२. मणुसपज-पणुसिणी. भुज० अप्पद० अवहि० केत्ति ? संखेजा । , आणदादि जाव अवराइदत्ति अप्पदर० केत्ति० १ असंखेजा । एवमाभिणि०-सुद०-ओहि०-संजदासंजद०-ओहिदंस०-सम्मादि०-खइय०-वेदयउवसम०-सासण-सम्मामिच्छादिहि त्ति । सव्व० अप्पद० केत्तिया ? संखेजा। एवमाहार-आहारमिस्स०-अवगद०-अकसा०-प्रणपज्ज०-संजद०-सामाइयछेदो० परिहार०-सुहु०-जहाक्खादसंजदेत्ति । सुस्क० आभिणि भंगो। सभी निगोद, काययोगो, औदारिककाययोगी, औदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी नपुंसकवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचतुदर्शनी, कृष्णादि तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए।
___२०१. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, सभी पंचेन्द्रिय तिर्थञ्च सामान्य मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्यदेव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देव, सभी विकलेन्द्रिय, सभी पंचेन्द्रिय, पृथिवीकायिक आदि चार स्थावरकाय, बादर बनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर, बादर बनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त, बादर बनस्पतिका यिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, सभी त्रस, पांचों मनोयोगी, पांचों बचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, स्त्रोवेदी, पुरुषवेदी, विभंगज्ञानी, चक्षुदर्शनी, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले और संज्ञी जोवोंके जानना चाहिये।
६२०२. मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्ति वाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। आनत कल्पसे लेकर अपराजित कल्पतकके देवोंमें अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसन्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । सर्वार्थसिद्धिमें अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले देव कितने हैं ? संख्यात हैं। इसी प्रकार आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिक संयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, और यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिये । शुक्ललेश्यावाले जीवोंका कथन मतिज्ञानी जीवोंके समान है
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, जयधवलास हिदे कसायपाहुडे एवं परिमाणागमो समत्तो ।
२०३. खेत्तागमेण दुविहो णिद्द े सो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण भुज ० अप्पद० श्रवद्वि० केवडि खेत्त े ? सव्वलोए । एवं तिरिक्ख ०-सव्वएइंदियसव्ववणफदि-सव्वणिगोद - काय जोगि - ओरालि० - ओरालियमिस्स - कम्मइय० - णवुंस०चत्तारिकसाय-मदिमुदअण्णाण - अचक्खु ० - तिण्णिले ० - भवसि० - अभवसि० - मिच्छा सण्णि० - आहारि० - अणाहारिति ।
[ द्विदिविहत्ती ३
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$ २०४. आदेसेण णेरइएस भुज० अप्पद० अवधि के ० खे०? लोग० असंखे ० - भागे । एवं सत्तसु पुढवीसु सव्वपंचिंदियतिरिक्ख सव्वमणुस - सव्वदेव- सव्व विगलिंदिय - सव्वपंचिंदिय- बादरपुढवि० पज्ज० - बादरआउ० पज्ज० - बादरतेड ० पज्ज० - - बादरवाउ० पज्ज०- बादरवणप्फदिपत्तेयसरीरपज्ज ० - सव्वतस - पंचमण० - पंचवचि ० - वेडव्विय ०वेव्वयमिस्स ० - आहार० - आहार मिस्स० - इत्थि० - पुरिस० - अवगढ़ ० - अकसा०० - विहंग० आभिणि०- मुद० - ओहि० - मणपज्ज - ० संजद ० - सामाइयछेदो ० - परिहार० - मुहुमसांपराय ०जहाक्खाद ० - संजदासंजद ० - चक्खु ० - ओहिदंस० - तिण्णिले० सम्मादिट्ठी - खइय० - वेदय०
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विशेषार्थ - ओघ से तीनों स्थितिविभक्तिवाले अनन्त हैं यह तो स्पष्ट है पर मार्गणाओं में जिस मार्गणाका जितना प्रमाण है उसमें सम्भव स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका सामान्यरूप से उतना ही प्रमाण जानना चाहिये । अर्थात् जिस मार्गणाका प्रमाण अनन्त है उसमें भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिवाले जीवोंका प्रमाण भी अनन्त ही है । इसी प्रकार सर्वत्र जानना । किन्तु जहां एक ही स्थिति हो वहां एक की अपेक्षा ही कथन करना ।
इस प्रकार परिमाणानुगम समाप्त हुआ ।
$ २०३ क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघनिर्देश और प्रदेशनिर्देश । उनमें से आकी अपेक्षा भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? सत्र लोकमें रहते हैं । इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्च, सभी एकेन्द्रिय, सभी बनस्पतिकायिक, सभी निगोद, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्र काययोगी, कार्म काययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचतुदर्शनी, कृष्णादि तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिध्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जोवों के जानना चाहिये ।
२०४. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले प्रत्येक जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्र में रहते हैं । इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, सभी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च, सभी मनुष्य, सभी देव, सभी विकलेन्द्रिय, सभी पंचेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त, बादर बनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त, सभी त्रस, पांचों मनोयोगी, पांचों बचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्र काययोगी, आहारककाययोगी, आहार मिश्र काययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, अपगतवेदी, अकषायी, विभंगज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्यययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापना संयत, परिहार
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हिादावह
गा. २२) द्विदिविहत्तीए भुजगारे पोसणाणुगमो
११७ उवसम०-सासण-सम्मामि०-सण्णि त्ति । णवरि बादरवाउ०पज्ज० लोग० संखे०भागो।
$ २०५. पुढवि०-बादरपुढवि०-बादरपुढविअपज्ज-मुहुमपुढवि०-सुहुमपुढवि०पज्जत्तापज्जत्त-आउ०-बादरा उ०-बादराउ अपज्जा-सुहमआउ०-सुहुमाउ०पज्जत्तापज्जत्त-तेउ०-बादरतेउ०-बादरतेउ० अपज्ज०-सहुमतेउ०-सुहुमतेउ०पज्जत्तापज्जत्त-वाउ० बादरवाउअपज्ज-सुहुमवाउ०-सुहुमवाउपज्जत्तापज्जत्त-बादरवणप्फदिपचेयअपज्ज०भुज० अप्पद० अवहि० के० खेचे ? सव्वलोगे।.
एवं खेत्ताणुगमो समत्तो। २०६. पोसणाणुणमेण दुविहो णिद्दे सो ओघेण आदेसेण य । तत्थ अोघेण विशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, चक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, पीत आदि तीन लेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंका वर्तमान क्षेत्र लोकका संख्यातवाँ भाग है।
२०. पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म प्रथिवीकायिक पर्याप्त, सक्ष्म प्रथिवीकायिक अपर्याप्त. जलकायिक, वादर जलकायिक, बादर जलकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्मजलकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादरअग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्मअग्निकायिकपर्याप्त, सूक्ष्मअग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्मवायुकायिक, सूक्ष्मवायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्मवायुकायिक अपर्याप्त, बादरबनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्तकोंमें भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं। सर्व लोकमें रहते हैं।
विशेषार्थ-अोघसे तीनों स्थितिवाले जीव अनन्त हैं अतः उनका क्षेत्र सब लोक बन जाता है । पर मार्गणाओंकी अपेक्षा क्षेत्रका विचार करनेपर दो विकल्प प्राप्त होते हैं। जिन मार्गणाओंमें तीनों स्थितिवालोंका प्रमाण अनन्त है उनका तो सब लोक क्षेत्र है ही। साथ ही पृथिवीकायिक आदि असंख्यात संख्यावाली कुछ ऐसी मार्गणाएं है जिनमें भी तीनों स्थितिवालोंका क्षेत्र सब लोक है। तथा इनके अतिरिक्त शेष जितनी मागणाएं हैं उनमें अपनी अपनी सम्भव भुजगार आदि स्थितियोंकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही क्षेत्र जानना चाहिये। किन्तु वायुकायिक पर्याप्त जीव इसके अपवाद हैं क्योंकि उनके तीनों स्थितियोंकी अपेक्षा लोकके संख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्र पाया जाता है। तात्पर्य यह है कि मार्गणाओंकी अपेक्षा जिस मार्गणाका जो क्षेत्र हैं वही यहां अपनी अपनी सम्भव स्थितिविभक्तिकी अपेक्षा प्राप्त होता है।
इस प्रकार क्षेत्रानुगम समाप्त हुआ। ६ २०६. स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [द्विदिविहत्ती ३ भुज० अप्पद अवहि० खेत्तभंगो। एवं तिरिक्ख०–णवगेवज्जादि जाव सबढ०सव्वएइंदिय-पुढवि -[ बादरपुढवि० ] बादरपुढवि० अपज्ज०-सुहुमपुढवि०-सुहुमपुढवि०पज्जत्तापज्जत्त-आउ०-बादराउ०-बादरआउअपज्ज०-सुहुमआउ०-सुहुमआउपज्जत्तापज्जत्त-तेउ०-बादरतेउ०-बादरतेउअपज्ज०-सुहुमतेउ०-सुहमतेउपज्जत्तापज्जत्त-चाउ०-बादरवाउ०-बादरवाउअपज्ज ०-सुहुमवाउ०-सुहुमवाउपज्जत्तापज्जत्तबादरवणप्फदिपत्रेय० - बादरवणप्फदिपत्रेयअपज्ज० -- कायजोगि० - ओरालि. - ओरालियमिस्स०-वेउत्रियमिस्स -आहार-आहारमिस्स-कम्मइय-णवंस०-अवगद०चत्तारिकसाय-अकसा-मदिसुदअण्णाण-मणपज - संजद-समाइयच्छेदो०-परिहार०सुहुम०-जहाक्खाद०-असंजद०-अचक्खु०-तिण्णिले०-भवसि०-अभवसि०-मिच्छादि०असण्णि०-आहारि०-अणाहारि ति ।।
२०७. आदेसेण णिरय० भुज० अप्पद० अवहि० केव० खे० पो० ? लोग० असंखे०भागो छ चोदसभागा वा देसूणा । पढमपुढवि० खेत्तभंगो । विदियादि जाव सत्तमि त्ति भुज० अप्पद० अवहि० के० खेनं पोसिदं ? लोग० असंखे० मागो एक्क बे तिण्णि चत्तारि पंच छ चोदस भागा वा देसूणा । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इसी प्रकार सामान्य तियंच, नौ ग्रैवेयकसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देव, सभी एकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादरपृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्मपृथिवीकायिक, . सूक्ष्मपृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त, जलकायिक, बादरजलकायिक, बादरजलकायिक अपर्याप्त,सूक्ष्म जलकायिक,सूक्ष्मजलकायिक पर्याप्त, सूक्ष्मजलकायिक अपर्याप्त,अग्निकायिक, बादरअग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्मअग्निकायिक, सूक्ष्मअग्निकायिक पर्याप्त, सूक्ष्मअग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादरवायुकायिक, बादरवायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्मवायुकायिक, सूक्ष्मवायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्मवायुकायिक अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर अपर्याप्त,काययोगी,औदारिककाययोगी,औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककायोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी,अपगतवेदी, क्रोधादि चारो कषायवाले,अकषायी, मत्यज्ञानी,श्रुताज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी,संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत,परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत,यथाख्यातसंयत, असंयत, अचक्षदशेनी, कृष्णादि तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये। तात्पर्य यह है कि उक्त मार्गणाओंमें जिसका जितना क्षेत्र बतला आये हैं उसका उतना स्पर्शन भी जानना चाहिये ।
२०७. आदेशकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकियोंमें भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। पहली पृथिवीमें स्पर्शन क्षेत्र के समान है। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक प्रत्येक नरकमें भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें
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गा० २२] द्विदिविहत्तीए भुजगारे पोसणाणुगमो
११६ ६ २०८. सव्वपंचिं० तिरिक्ख० भुज० अप्पद० अवहि० के० खे० पो० ? लोग० असंखे० भागो सव्वलोगो वा । एवं मणुस्स-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदिय अपजबादरपुढवि० (पज्ज०)-बादराउ०पज्जा-बादरतेउ०पज्ज०-बादरवाउ०पज्ज०-बादरवणप्फदिपचेय०पज्ज०-तसअपज्ज० । णवरि बादरवाउपज्ज. लोग० संखे० भागो सव्वलोगो वा।
$ २०६. देव० भुज० अप्प० अवहि० लोग० असंखे० भागो अहणव चोदसभागा वा देसूणा । एवं सोहम्मीसाणेसु । भवण० वाण. जोदिसि० एवं चेव । णवरि अद्ध ह अह णव चोदसभागा वा देसणा । सणक्कुमारादि जाव सहस्सारेत्ति के. खे० पो ? लोग० असंखे०भागो अहचोदस भागा वा देणा । आणदादि जाप अच्चुदेत्ति के० खेत्तं पा० ? लोग० असंखे०भागो छ चोदसभागा देसूणा ।।
२१०. पंचिंदिय-पंचिं०पज-तस-तसपज्ज. भुज० अप्पद० अवहि के. खे० पो० ? लोग असंखे० भागो अह चोदसभागा देसणा सबलोगो वा । एवं पंच भाग क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे क्रमसे कुछ कम एक, कुछ कम दो, कुछ कम तीन, कुछ कम चार, कुछ कम पाँच और कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है ।
६२०८. सभी पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंमें भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थिति विभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और सर्वलोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार सभी मनुष्य, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक
वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त और उस अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंने लोकके संख्यातवें भाग और सर्वलोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है।
२०६. देवोंमें भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका तथा वसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार सौधर्म और ऐशान स्वर्गके देवोंके जानना चाहिये। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके भी इसी प्रकार जानना चाहिये। तनी विशेषता है कि इनके अतीतकालीन स्पर्श त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम साढ़े तीन, कुछ कम आठ और कुछ कम नौ भागप्रमाण होता है । सानत्कुमारसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंने कितने क्षेत्रका मर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है ? अानतकल्पसे लेकर अच्युतकल्प तकके देवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है।
२१०. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस और त्रस पर्याप्त जीवोंमें भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका, बसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग क्षेत्रका और सर्व लोक क्षेत्रका स्पर्श
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती मण-पंचवचि०-इत्थि०-पुरिस०-विहंग०-चक्खु०-सण्णि त्ति । वेउब्बिय० भुज० अप्प अवहि० के० खे० पो० ? लोग० असंखे० भागो अह तेरह चोदस भागा वा देसूणा।
$ २११. आभिणी० सुद० अोहि० अप्पद० के० खे० पो० ? लोग० असंखे० भागो अह चोदस० देसूणा । एवमोहिदंस०-पम्मले०-सम्मादि०-खइय-वेदय-उवसम०-सम्मामिच्छादिहि त्ति ।'
२१२. संजदासंजद० अप्पद० के० खेत्तं पो० ? लोग० असंखे०भागो छ चोद्दस० देसणा। एवं सुक्क० लेस्सा। तेउ० सोहम्मभंगो । सासण. अप्पद० के० खे० पो० ? लोग० असंखे० भागो अट्ट बारह चोदस० देसणा ।
एवं पोसणाणुगमो समत्तो। किया है। इसी प्रकार पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभंगज्ञानी, चक्षदर्शनी और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये। वैक्रियिककाययोगी जीवोंमें भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यतातवें भाग क्षेत्रका तथा त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम तेरह भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है।
६२११. मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें अल्पतर स्थिति विभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे झुछ कम आठ भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, पद्मलेश्यावाले सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये।
९२१२. संयतासंयतोंमें अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्र का और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार शुक्ललेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिये। पीतलेश्यावाले जीवोंके सौधर्मस्वर्गके समान स्पर्श है। सासादनसम्यग्दृष्टि अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंमें कुछ कम आठ तथा कुछ कम बारह भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है।
विशेषाथे-प्रोबसे भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिवालोंका क्षेत्र सब लोक बतलाया है स्पर्शन भी इतना ही है अतः इनके स्पर्शको क्षेत्रके समान कहा। इसी प्रकार तिर्यंच आदिकमें स्पर्श जाननेकी सूचना की है। इसका यह अभिप्राय है कि उन मार्गणाओंमे, जिनका जितना क्षेत्र है स्पर्श भी उतना ही है। हां, सामान्य नारकी आदि कुछ ऐसी मार्गणाएँ हैं जिनका स्पर्श क्षेत्र से भिन्न है। अतः उनका पृथक् कथन किया। फिर भी जीवट्ठाणके स्पर्शन अनुयोग द्वारमें उन मार्गणाओंमेंसे जिसका जितना स्पर्श बतलाया है वही यहाँ उस उस मार्गणामें भुजगार
आदि सम्भव पदोंकी अपेक्षा प्राप्त होता है। जो मूलमें बतलाया ही है। अब अमुक मागणामें अमुक स्पर्श क्यों प्राप्त होता है इसका विशेष खुलासा सर्शन अनुयोगद्वारसे जान लेना चाहिये ।
इस प्रकार स्पर्शनानुगम समाप्त हुआ।
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गा० २२.] द्विदिविहत्तीए भुजगारे कालो
१२१ ६२१३. कालाणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघेण श्रादेसेण य । तत्थ ओघेण भुज०-अप्पद०-अवढि० केवचिरं कालादो होति ? सव्वद्धा । एवं तिरिक्ख-सव्वएइंदिय-पुढवि०-बादरपुढवि०-बादरपुढविअपज्जक-सुहुमपुढवि०-सुहुमपुढविपज्जत्तापज्जत्त-आउ०-बादराउ०-बादरआउअपज्ज०-सुहुमाउ.--सुहुमआउपज्जत्तापज्जत्ततेउ०-बादरतेउ०-बादरतेउअपजत्त--सुहुमतेउ०--सुहुमतेउपज्जत्तापज्ज०-वाउ०-बादरवाउ-बादरवाउअपज्जा-सुहुमवाउ०-सुहुभवाउपज्जत्तापज्जत्त-बादरवणप्फदिपचेय०बादरवणप्फदिपतेयअपज्ज०--सव्ववणप्फदि- सव्वणिगोद०---कायजोगि--ओरालिय०ओरालियमिस्स-कम्मइय०-णवूस-चत्तारिक०-मदि-सुदअण्णा०-असंजद०-अचक्खु०तिण्णिले०-भवसि०-अभवसि०-मिच्छादिही-असण्णि०-आहारि०-अणाहारि त्ति ।
$ २१४. आदेसेण णेरइएसु भुज० के० ? जह० एयसमओ, उक्क० श्रावलि. असंखे०भागो। अप्पद०-अवहि० के०? सव्वद्धा । एवं सत्तसु पुढवीसु सव्वपंचिंदियतिरिक्व०-देव-भवणादि जाव सहस्सारे त्ति सव्वविगलिंदिय-सव्वपंचिंदिय-बादरपुढविपज्ज०-बादराउपज्ज०- बादरतेउपज्ज० - बादरवाउपज्ज - बादरवणप्फदिपत्रेयपज्ज०सव्वतस-पंचमण-पंचवचि०-वेउव्विय -इत्थि०-परिस-विहंग०-चक्खु०- तेउ०-पम्म०सण्णि त्ति ।
६२१३. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिका कितना काल है ? सब काल है। इसी प्रकार सामान्य तियच, सभी एकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त,सूक्ष्मपृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, सभी वनस्पतिकायिक, सभी निगोद, काययोगी, औदारिक काययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, कृष्णादि तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये।
६२१४. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें भुजगार स्थितिविभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। तथा अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिका कितना काल है ? सर्व काल है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, सभी पंचेन्द्रिय तिथंच, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देव, सभी विकलेन्द्रिय, सभी पंचेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त, सभी त्रस, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, वैक्रियिक काययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभंगज्ञानी, चक्षुदर्शनी, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्वावाले और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये।
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जयrवलास हिदे कसा पाहुडे
[ द्विदिविहती ३ $ २१५. मस० भुज० जह० एयसमत्रो, उक्क० आवलि० प्रसंखे ० भागो । मणुसपज्ज० - मणुसिणी० भुज० के० ज० एगसमओ उक्क० संखेज्जा समया । मणुसतिएसु अप्पद० अवट्ठि सव्वद्धा । मणुसअपज्ज० भुज० के० १ जह० एगसमओ, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । अप्प० - अवहि ० के० ०१ जह० एस० उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । एवं वेडव्वियमिस्स० ।
९ २१६. दादि जाव सव्वहसिद्ध त्ति अप्पदर० के० १ सव्वद्धा । एवमाभिणि० - सुद० - ओहि ० - मणपज्ज० - संजद ० - सामाइय - छेदो ० - परिहार० - संजदासंजद०ओहिंदंसण०-सुक्कले०-सम्मादि० - खइय० - वेदय० दिट्ठित्ति ।
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$ २१७. आहार०-आहारमिस्स ० अप्पदर० के० ? जह० एगसमओ, उक्क० अंतमुत्तं । णवर आहारमिस्स० जहण्णु० अंतोमु० अवगद ० अप्प० के० ? ज० एगस०, उक्क० अंतोमुहुत्तो । एवमकसा० - सुहुम ० जहाक्खाद० संजदे त्ति । उवसम० अप्पद० के० ? जह० अंतोमु०, उक्क० पलिदो • असंखे ० भागो । एवं सम्मामि ०सासण० । णवरि सासण० जह० एयसमत्रो ।
एवं कालागमो समत्तो ।
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$ २१५. मनुष्यों में भुजगार स्थितिविभक्तिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल आवली असंख्यातवें भागप्रमाण है । मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें भुजगार स्थितिविभक्ति कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । तथा उक्त तीन प्रकारके मनुष्यों में अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिका काल सर्वदा है । लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यों में भुजगार स्थितिविभक्तिका काल कितना है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है । तथा अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्ति का कितना काल है ? जघन्य एक समय और उत्कृष्ट पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके जानना चाहिये ।
$ २१६. नत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक देवोंमें अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले का कितना काल है ? सर्वकाल है । इसी प्रकार अभिनिवोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापना संयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवों के जानना चाहिये |
§ २१७. आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवों में अल्पतर स्थितिविभक्ति वाले जीवों का कितना काल है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । इतनी विशेषता है कि आहारकमिश्रकाययोगी जीवों के जघन्य और उत्कृष्ट दोनों काल अन्तर्मुहूर्त हैं । अपगतवेदी जीवोंमें अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवों के जानना चाहिये । उपशमसम्यग्दृष्टियों में अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोंके जघन्यकाल एक समय है ।
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गा० २२ ]
हिदिविहत्तीए भुजगारे अंतरं
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$ २१८. अंतराणुगमेण दुविहो णिद्द े सो - श्रघेण देण य । तत्थ श्रघेण भुज ० - अप्पद ० - अव०ि अंतरं केवचिरं० ? णत्थि अंतरं । एवं तिरिक्ख० - सव्वएदिय - पुढवि० - बादरपुढवि० - चादर पुढविअपज्ज० मुहुमपुढवि० मुहुम पुढविपज्जत्तापज्जत्त आउ०- बादरआउ०- बादरआउअपज्ज० - मुहुमआउ० - सुहुम उपजत्तापज्जत्तविशेषार्थ-न - नाना जीवोंकी अपेक्षा कालका विचार करनेपर से तीनों स्थितियां निरन्तर हैं, अतः उनका काल सर्वदा कहा । मार्गणाओं में कुछ ऐसी मार्गणाएं हैं जिनमें ये सर्वदा पाई जाती हैं। जैसे सामान्य तिर्यंच आदि । कुछ ऐसी मार्गणाएं हैं जिनमें अल्पतर और अवस्थित स्थितियां तो सर्वदा पाई जाती हैं पर भुजगार स्थिति सान्तर है, कभी होती और कभी नहीं भी होती। यदि होती है तो कमसे कम एक समय तक और अधिक से अधिक आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक होती है। जैसे सामान्य नारकी आदि । किन्तु मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनी ये दो मार्गणाएं ऐसी हैं जिनमें भुजगार स्थितिका उत्कृष्ट काल संख्यात समय है, क्योंकि ये दोनों मार्गणाएं ही संख्यातसंख्यावाली हैं । कुछ ऐसी मार्गणाएं हैं जिनमें तीनों स्थितियां सान्तर हैं क्योंकि वे मार्गणाएं स्वयं सान्तर हैं, अतः उनमें भुजगारका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रेमाण है । तथा अल्पतर और अवस्थितका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्के संख्यातवें भागप्रमाण है । यहां यह शंका होती है कि ऐसी मार्गणाओंका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है और भंगविचय अनुयोगद्वार में तीनों को भजनीय बतलाया है अतः उनमें अल्पतर और अवस्थित का उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण नहीं बनना चाहिये । सो इसका यह समाधान है कि जब उक्त मार्गणावाले जीव निरन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक होते रहते हैं तब इनमें कदाचित् अल्पतर और अवस्थित स्थितियां नाना जीवों की अपेक्षा उक्त काल तक सर्वदा पाई जा सकती हैं अतः इनका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण बन जाता है । कुछ ऐसी मार्गणाएं हैं जिनमें निरन्तर अल्पतर स्थिति ही पाई जाती है। अत: उनमें अल्पतर स्थितिका काल सर्वदा है । यथा-आनत कल्प आदिके देव आदि । कुछ ऐसी मार्गाए हैं जिनका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । तथा जिनमें एक अल्पतर स्थिति ही पाई जाती है, अतः उनमें अल्पतर स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण जानना । यथा - आहारकाययोग आदि । किन्तु आहारकमिश्रकाययोगका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है अतः इसमें अल्पतर स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण ही प्राप्त होता है । तथा कुछ ऐसी मार्गणाएं हैं जिनका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है और इनमें एक अल्पतर स्थिति ही सम्भव है, अतः इनमें अल्पतर स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा । किन्तु इन मार्गणाओं में सासादन सम्यग्दृष्टि मार्गणा ऐसी है जिसका जघन्य काल एक समय ही है, अतः इसमें अल्पतर स्थितिका जघन्य काल एक समय जानना चाहिये ।
इस प्रकार कालानुगम समाप्त हुआ ।
$ २१८. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघनिर्देश और आदेश निर्देश | उनमें से ओघ की अपेक्षा भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थिति विभक्तिवाले जीवों का अन्तरकाल कितना है ? इनका अन्तरकाल नहीं है । इसी प्रकार सामान्य तिर्यंच, सभी एकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जल
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [द्विदिविहत्ती ३ तेउ०-बादरतेउ०-बादरतेउअपज०-सुहुमतेउ०-मुहुमतेउपजत्तापज्जत्त-वाउ०-बादरवाउबादरवाउअपज्ज०-सुहुगवाउ०-सुहुमवाउपज्जत्तापज्जत्त-बादरवणप्फदिपचेय-बादरवणप्फदिपत्तेयअपज्ज०-वणप्फदि-णिगोद-कायजोगि०-ओरालि०-ओरालियमिस्सकम्मइय०-णवुस०-चत्तारिकसाय०-मदि-सुदअण्णाण०-असंजद०-अचक्खु०-तिण्णिले०भवसि०-अभवसि०-मिच्छादि०-असएिण-आहारि०-अणाहारि० ति ।
२१६. आदेसेण णेरइएस भुज. अंतरं के ? जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । अप्प०-अवहि० णत्थि अंतरं । एवं सत्तस पुढवीस सव्वपंचिंदियतिरिक्वमणुसतिय०-देव०-भवणादि जाव सहस्सार०-सव्वविगलिंदिय-सव्वपंचिंदिय०बादरपुढविपज्ज-बादरभाउपज्ज०-बादरतेउपज्ज - बादरवाउपज्ज० - बादरवणप्फदिपत्यपज्ज०-सव्वतस-पंचमण-पंचवचि०-वेउब्धिय०-इत्थि०- पुरिस०-विहंगचक्खु०-तेउ०-पम्म०-सण्णि त्ति ।
६२२०. मणुसअपज्ज- भुज-अप्प०-अवहि० अंतरं के० ? जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो. असंखे० भागो । एवं वेउव्वियभिस्स० । णवरि उक्क० बारस मुहुत्ता। कायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, वनस्पति, निगोद, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चारों कषायकाले, मत्यज्ञानी, श्रृंताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, कृष्णादि तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवों के जानना चाहिये।
२१६. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें भुजगार स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त है। तथा अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, सभी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च, सामान्य, पर्याप्त और मनुष्यनी ये तीन प्रकारके मनुष्य, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देव, सभी विकलेन्द्रिय, सभी पंचेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, वादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निका यिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त, सभी त्रस, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभंगज्ञानी, चक्षुदर्शनी, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये।
६२२०. मनुष्य अपर्याप्तकोंमें भुजगार, अल्पतर और अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके उत्कृष्ट अन्तरकाल बारह मुहूर्त है।
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गा० २२ ] हिदिविहत्तीए भुजगारे अंतर
१२५ २२१. आणदादि जाव सव्वदृसिद्धि त्ति अप्पद० णत्थि अतरं । एवमाभिणि-सुद०-ओहि०--मणपज०-संजद०--सामाइय-छेदो०--परिहार० - संजदासंजद०ओहिदंस०-मुक्कले०-सम्मादि०-खइय०-वेदय०दिहि त्ति ।
$ २२२. आहार०-आहारमिस्स० अप्पद० अंतरं के० ? जह० एगसमो , उक्क. वासपुधत्तं । एवमकसाय-जहाक्खादसंजदे त्ति । अगद० अप्पद० जह० एगसमो, उक्क छम्मासा । एवं सुहुसांपरायसंजदे त्ति । उवसम० अप्पद० के० ? जह० एगसमओ, उक्क० चउवीस अहोरत्ताणि । सासण-सम्मामि० अप्पद० जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो ।
एवमंतराणुगमो समत्तो। ६ २२५. आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये ।
६२२२. आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल कितना है जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षप्रथक्त्व है। इसी प्रकार अकषायी और यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिये । अपगतवेदी अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकालं एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है। इसी प्रकार सूक्ष्मसांपरायिकसंयत जीवोंके जानना चाहिये। उपशमसम्यग्दृष्टि अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल चौबीस दिनरात है। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है।
विशेषार्थ-तीनों स्थितिवाले नाना जीव सर्वदा पाये जाते हैं, अतः ओघसे इनका अन्तर काल नहीं बनता। मार्गणाओं में कुछ ऐसी मार्गणाएं हैं जिनमें तीनों स्थितिवाले जीव सर्वदा पाये जाते हैं, अतः उनके कथनको ओघके समान कहा। कुछ ऐसी मार्गणाएं हैं जिनमें भुजगारका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है तथा अल्पतर और अवस्थित स्थितिका अन्तरकाल नहीं है । यथा सामान्य नारकी आदि । इसका कारण यह है कि इनमें केवल भुजगार स्थिति ही सान्तर है फिर भी नाना जीवोंकी अपेक्षा उसका अन्तरकाल अन्तमुहूर्तसे अधिक नहीं प्राप्त होता। आगे मनुष्य अपर्याप्त आदि जितनी मार्गणाओंमें भुजगार आदि स्थितियोंके अन्तरकालका कथन किया है उनमें जिस मार्गणाका जितना अन्तर काल है उसमें सम्भव स्थितियोंका उतना अन्तरकाल जानना चाहिये। उदाहरण के लिये लब्ध्यपर्याप्त मनुष्योंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है अतः इसमें भुजगार आदि तीनों स्थितियोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा। इसी प्रकार अन्य मार्गणाओंमें भी जानना चाहिए ।
इस प्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ $ २२३. भावाणुगमेण सव्वत्थ ओदइयो भावो ।
एवं भावाणुगमो समत्तो। २२४. अप्पाबहुगाणुगमेण दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ श्रोघेण सव्वत्थोवा भुज विहत्तिया। अवहि० असंखे०गुणो । अप्पद० संखे०गुणा । एवं सत्तसु पुढवीसु सव्वतिरिक्ख०-मणुस०-मणुसअपज्ज०-देव-भवणादि जाच सहस्सार०--सव्वएइंदिय--सव्व विगलिंदिय--सव्वपंचि०--पंचकाय--सव्वतस--पंचमणपंचवचि०-कायजोगि०-ओरालिय०-ओरालियमिस्स०-वेउव्विय०-वेउ०मिस्स०-कम्मइय०तिण्णिवेद०-चत्तारिकसाय-मदि-सुदणाण-विहंग०-असंजद०-चक्खु०-अचक्खु०-- पंचले०-भवसि०-अभवसि०-मिच्छादि०-सण्णि०-असण्णि-श्राहारि-अणाहारि ति ।
६ २२५. मणुसपज०-मणुसिणीसु सव्वत्थोवा भुज० । अवहि० संखे गुणा । अप्पद० संखे०गुणा। आणदादि जाव सबसिद्धि त्ति अप्पद. णत्थि अप्पाबहुगं। एममाहार०-आहारमिस्स०-अवगद०--अकसा०--आभिणि०--सद--श्रोहि-मणपज्ज०संजद०-समाइय-छेदो०-परिहार०-सुहमसांपराय०-जहाक्खाद०-संजदासंजद-ओहिदंस०६२२३. भावानुगम की अपेक्षा सवत्र औदयिक भाव है।
इस प्रकार भावानुगम समाप्त हुआ। ६२२४. अल्पबहुत्वानुगम की अपेक्षा निर्देश दो प्रकार का है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमें से ओघ की अपेक्षा भुजगारस्थितिविभक्तिवाले जीव सबसे थोडे हैं। इनसे स्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अल्पतर स्थितिविभक्ति वाले जीव संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार सातों पृथिवियों के नारकी, सभी तिर्यंच, सामान्य मनुष्य, लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य, सामान्य देव, भवनवासियों से लेकर सहस्त्रार स्वर्ग तक के देव, सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, सभी पंचेन्द्रिय, पांचों स्थावर काय, सभी त्रस, पांचों मनोयोगी, पांचों वचन योगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, औदारिकमिश्र काययोगी, वैक्रियिक काययोगी, वैक्रियिक मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, असंयत, चक्षदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, कृष्णादि पांच लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादिष्टि, संज्ञी, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवों के जानना चाहिये । तात्पर्य यह है कि उक्त मार्गणाएं अनन्त और असंख्यात संख्यावाली हैं अतः इनमें उक्त क्रम बन जाता है।
.६२२५. मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें भुजगार स्थितिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अवस्थित स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। तात्पर्य यह है कि ये मार्गणाएँ संख्यात संख्यावाली है :सलिये इनमें उक्त क्रम ही घटित होता है । आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके अल्पतर स्थितिविभक्तिवाले देवोंका अल्पबहुत्व नहीं है। इसी प्रकार आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी अकषायी, आभिनियोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंबत, संयतासंयत,
अव
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गा• २२ ] हिदिविहत्तीए पदणिक्खेवे समुक्कित्तणा सुक्क०-सम्मादिट्टी-खइय०-वेदय०-उवसम०-सासण-सम्मामिच्छादिहि त्ति ।
एवमप्पाबहुगाणुगमो समत्तो । एवं भुजगारविहत्ती समत्ता। .
$ २२६. पदणिक्खेवे तत्थ इमाणि तिण्णि अणिोगद्दाराणि-समुकित्तणा सामित्त अप्पाबहुअं चेदि । समुक्कित्तणं दुविहं-जहण्णयं उक्कस्सयं चेदि । तत्थ उक्कस्से पयदं । दुविहो णि सो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोह० अत्थि उक्कस्सिया वड्ढी उक्क. हाणी उक्कस्समरहाणं च । एवं सत्तसु पुडवीसु सबतिरिक्ख-सव्वमणुस-देव-भवणादि जाव सहस्सार०-सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-सव्वपंचिंदिय-पंचकाय-सव्वतस-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि-ओरालिय०-ओरालियमिस्स-वेउब्धिय-वेउ०मिस्स-कम्मइय-तिण्णिवेद-चत्तारिकसाय-मदि-सुदअण्णाणविहंग०-असंजद०-चक्खु०-अचक्खु-पंचले०-भवसि० -अभवसि० --मिच्छादि०सण्णि-असण्णि-आहारि०-अणाहारि त्ति ।
२२७. आणदादि जाव सव्वहसिद्धि त्ति अत्थि उक्कस्सिया हाणि । एवमाहार-[आहार मिस्स०-अवगद०-अकसा०-आभिणि-मुद०-ओहि०-मणपज्जव.. अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये। तात्पर्य यह है कि इन मार्गणाओंमें एक अल्पतर स्थिति पाई जाती है इसलिये इनमें अल्पबहुत्व नहीं पाया जाता।
इस प्रकार अल्पबहुत्वानुगम समाप्त हुआ। इस प्रकार भुजगार विभक्ति समाप्त हुई ।
६२२६. अब पदनिक्षेपका कथन अवसर प्राप्त है। उसके विषयमें ये तीन अनुयोगद्वार होते हैं-समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । समुत्कीर्तना दो प्रकार की है-जघन्य और उत्कृष्ट । उनमें से उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मोहनीय स्थितिविभक्तिकी उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि
और उत्कृष्ट अवस्थान है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, सभी तिर्यंच, सभी मनुष्य, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देव, सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, सभी पंचेन्द्रिय, सभी पांचों स्थावरकाय, सभी त्रस, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी
औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, असंयत, चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, कृष्णादि पांच लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये।
६२२७. आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मोहनीय स्थितिविभक्तिकी उत्कृष्ट हानि है । इसी प्रकार आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, आभिनिबोधकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत,
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती संजद०- सामाइय-छेदो०-परिहार०-सुहुम०-जहाक्खाद०-संजदासंजद-ओहिदंससुक्कले०-सम्मादि०-खइय०-वेदय-उवसम०-सासण-सम्मामि० ।
एवमुक्कस्ससमुक्कित्तणाणुगमो समत्तो। ६ २२८. जहण्णए पयदं। दुविहो णि सो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ अोघेण मोह० अत्थि जहण्णवड्ढी जहण्णहाणी जहण्णमवहाणं च । एवं सव्वणिरयसव्यतिरिक्व-सव्वमणुस-देव-भवणादि जाव सहस्सार०-सव्यएइंदिय-सव्वविगलिंदियसव्वपंचिंदिय-पंचकाय-सव्वतस०-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगी-ओरालिय०-औरालियमिस्स-वेउव्विय-वेउ०मिस्स-कम्मइय-तिण्णिवेद-चत्तारिकसाय-मदि-सुदअण्णाण-विहंगअसंजद०-चक्खु०-अचक्खु०-पंचले०-भवसि०-अभवसि०-मिच्छादि०-सण्णि- असण्णिश्राहारि०-अणाहारि त्ति ।
२२६. आणदादि जाव सव्वदृसिद्धि त्ति अत्थि जह० हाणी । एवमाहार०. आहारमिस्स-अवगद०-अकसा०-आभिणि-सुद०-ओहि०-मणपज्ज -संजद०-सामाइयछेदो०-परिहार०-मुहुमसांप०-जहाक्खाद-संजदासंजद०-ओहिदंस०-सुक्क०-सम्मादिही-खइय०-वेदय०-उवसम०-सासण-सम्मामि० । छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये।
इस प्रकार उत्कृष्ट समुत्कीर्तनानुगम समाप्त हुआ। ६२२८. अब जघन्य समुत्कीर्तनानुगमका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकार का है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमें से ओघकी अपेक्षा मोहनीय स्थितिविभक्तिकी जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान है। इसी प्रकार सभी नारकी, सभी तियच, सभी मनुष्य, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देव, सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, सभी पंचेन्द्रिय, सभी पांचों स्थावरकाय, सभी त्रस, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी असंयत चक्षदर्शनवाले अचक्षदर्शनवाले, कृष्णादि पांच लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये।
६२२६. आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें मोहनीय स्थितिविभक्तिकी जघन्य हानि है । इसी प्रकार आहारककाययोगी. आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्याहाष्ट जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-जहाँ स्थितिकी वृद्धि और हानिके अनेक विकल्प सम्भव हैं वहाँ जब बन्ध या सक्रिय द्वारा सबसे अधिक बढ़ाकर स्थिति प्राप्त होती है तब उत्कृष्ट वृद्धि कहलाती है । तथा
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गा० २२]
द्विदिविहत्तीए पदसिक्लेवे सामित्त
एवं समुक्त्तिणाणुगमो समत्तो । १६ २३०. सामित्ताणुगमो दुविहो-जहण्णओ उक्कस्सो च । उक्कस्सए पयदं। दुविहो णिसो—ोघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० उक्कस्सिया वड्ढी कस्स ? अण्णदरस्स जो चदुढाणियजवमज्झस्स उवरि अंतोकोडाकोडिहिदि बंधंतो अच्छिदो हिदिवंधद्धाए पुण्णाए जेण उक्कस्सहिदिसंकिलेसं गदेण उक्कस्सहिदी पवद्धा तस्स उक्कस्सिया वड्ढी । तस्सेव से काले उक्कस्समवहोर्ण। उक्कस्सिया हाणी कस्स ? अण्णदरो जो उक्कस्सहिदिसंतकम्मिओ तेण उक्कस्सडिदिखंडए हदे तस्स उक्क० हाणी । एवं सत्तसु पुढवीसु तिरिक्ख०-पंचिंदियतिरिक्ख-पंचि०तिरि०पज्ज०पंचिंतिरि जोणिणी-मणुसतिय-देव-भवणादि जाव सहस्सार०-पंचिंदिय-पंचि०पज्ज०तस-तसपज्ज०-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालिय० - वेउविय-तिण्णिवेदस्थितिकाण्डकघात आदिके द्वारा जब सबसे अधिक स्थिति घटाई जाती है तब उस्कृष्ट हानि कहलाती है। तथा उत्कृष्ट वृद्धिके बाद जो अवस्थान होता है उसे उत्कृष्ट अवस्थान कहते हैं। ओघसे मोहनीय कर्मकी स्थितिमें ये तीनों पद सम्भव हैं अतः 'ओघसे मोहनीय कर्मकी स्थितिकी उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान होता है। यह कहा है। इसी प्रकार जिस जिस मार्गणामें अपने अपने योग्य हानि, वृद्धि और अवस्थान सम्भव हैं उस उस मार्गणामें उसके अनुसार उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान जानना चाहिये। किन्तु कुछ ऐसी मार्गणाएँ हैं जिनमें हानि ही होती है। जैसे आनत आदिक। फिर भी वहाँ स्थितिकी हानि एक समय प्रमाण भी होती है और अधिक भी होती है। अतः वहाँ उत्कृष्टपदकी अपेक्षा केवल उत्कृष्ट हानि बतलाई है, उत्कृष्ट वृद्धि और उत्कृष्ट अवस्थान ये दो पद नहीं बतलाये । जघन्य वृद्धि आदिका भी इसी प्रकार कथन करना चाहिये। तात्पर्य यह है कि जहाँ उत्कृष्ट वृद्धि आदि सम्भव हैं वहाँ जघन्य वृद्धि आदि भी सम्भव हैं। किन्तु जहाँ उत्कृष्टकी अपेक्षा केवल उत्कृष्ट हानि है वहाँ जघन्यकी अपेक्षा केवल जघन्य हानि है। कारण स्पष्ट है।
इस प्रकार जघन्य समुत्कीर्तनानुगम समाप्त हुआ। ६२३०. स्वामित्वानुगम दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उनमेंसे पहले उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-अोघनिर्देश और आदेशनिर्देश। ओघकी अपेक्षा मोहनीय स्थितिविभक्तिकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो चतुःस्थानिक यवमध्यके ऊपर अन्तःकोड़ाकोड़ी स्थितिको बांधकर स्थित है और स्थितिबन्धके कालके पूर्ण होनेपर उत्कृष्ट स्थितिके योग्य संक्लेशसे जिसने उत्कृष्ट स्थिति बांधी है ऐसे किसी एक जीवके उत्कृष्ट वृद्धि होती है । तथा उसीके तदनन्तर कालमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो कोई एक जीव मोह कर्मकी उत्कृष्ट स्थितिकी सत्तावाला है वह जब उत्कृष्ट स्थितिकाण्डकका घात करता है तब उसके उत्कृष्ट हानि होती है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, सामान्य तियंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिथंच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती, सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनी, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रस पर्याप्त, पांचों मनोयोगी. पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी
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१३०
जयधवलासहिद कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ चत्तारिकसाय-मदि-सुदअण्णाण-विहंग०-असंजद०-चक्खु०.अचक्खु०-पंचले०-भवसि०अभवसि०-मिच्छादि०-सण्णि-आहारि त्ति ।
२३१. पंचिंतिरि०अपज्ज० उक्क० वड़ढी कस्स ? जेण तप्पाअोग्गजहण्णहिदि बंधमाणेण उक्कस्सिया हिदी पबद्धा तस्स उकस्सिया वड्ढी । तस्सेव से काले उक्कस्समवहाणं । उक्कस्सिया हाणी कस्स ? अण्णदरस्स जो तिरिक्खो मणुस्सो वा उक्कस्सहिदिसंतकम्मिओ हिदिघादं करमाणो पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तएसु उववण्णो तेण उक्कस्सहिदिखंडगे हदे तस्स उक्कस्सिया हाणी | एवं मणुसअपज०पादरेइंदियअपज्ज०-मुहुमेइंदियपज्जत्तापज्जत्त-सव्वविगलिंदिय -पंचिंदियअपज्ज० - पंचकायाणं बादरअपज्ज०-सुहुमपज्जत्तापज्जत्त-[ तेउ०-] बादरतेउ०-बादरतेउपज्ज- वाउ०] बादरवाउ०-बादरवाउपज्ज-तसअपज्जचे त्ति ।
२३२. आणदादि जाव उवरिमगेवज्जो त्ति उक्कस्सिया हाणी कस्स ? अण्णदरो जो उक्कस्सहिदिसंतकम्मिश्रो तेण.पढमसम्म पडिवज्जमाणेण पढमहिदिखंडए पादिदे तस्स उक्क. हाणी । अणुद्दिसादि जाव सव्वदृसिद्धि ति उक्क० हाणी कस्स ? अण्णदरो जो अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोएमाणो तेण पढमहिदिखंडए पादिदे तस्स उक्क० हाणी। श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, असंयत, चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, कृष्णादि पांच लेश्यावाले, भव्य अभव्य, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिये।
.६२३१. पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंमें उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? तत्प्रायोग्य जघन्य स्थितिको बांधनेवाले जिस जीवने उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया है उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है । तथा उसीके तदनन्तर कालमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है । उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट स्थितिकी सत्तावाला जो तिर्यंच या मनुष्य स्थितिघातको करता हुआ पंचेन्द्रिय तियेच अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ। फिर वहाँ उसके उत्कृष्ट स्थितिकाण्डकका घात करने पर उत्कृष्ट हानि होती है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तक, बादर एकेन्द्रिय अपयाप्तक, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तक, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक, पांचों स्थाबरकाय बादर अपर्याप्तक, पाँचों स्थावरकाय सूक्ष्म, पांचों स्थावरकाय सूक्ष्म पर्याप्तक, पाँचों स्थावरकाय सूक्ष्म अपर्याप्तक, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक पर्याप्तक, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक पर्याप्तक और बस अपर्याप्तक जीवोंके जानना चाहिये।
६२३२. आनत कल्पसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देवोंमें उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट स्थितिकी सत्तावाला प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करते समय जब प्रथम स्थितिकाण्डकका घात करता है तब उसके उत्कृष्ट हानि होती है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करनेवाला जो कोई एक जीव जब प्रथम स्थितिकाण्डकका घात करता है तब उसके उत्कृष्ट हानि होती है।
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गा० २२] हिदिविहत्तीए पदणिक्खेवे सामित्त
१३१ २३३. एइदिय० उक्कस्सवढि-उक्कस्सअवहाणाणं पंचिंदियतिरिक्वअपज्जत्तभंगो । उक्क० हाणी कस्स ? अण्णदरो जो पंचिंदिरो उक्कस्सहिदिघादमकाऊण एइदिएसु उववण्णो तेण पढमहिदिखंडए पादिदे तस्स उक्कस्सिया हाणी । एवं बादरेइंदिय-बादरेइंदियपज्ज०-पुढवि० बादरपुढवि-बादरपुढविपज -आउ०-बादरआउ०-बादराउपज्ज-वणप्फदि-बादरवणप्फदि -बादरवणप्फदिपचेयसरीरपज्जतअसण्णि त्ति ।
६ २३४. ओरालियमिस्स उक्क वढि-अवहा० पंचिंतिरि०अपज्जत्तभंगो । उक्क० हाणी कस्स ? अण्णदरो जो देवो रइरो वा उक्कस्सहिदिसंतकम्मिओ हिदिघादमकाऊण ओरालियमिस्सजोगेसु उववण्णो तेण उक्कस्सहिदिखंडए घादिदे तस्स उक्क हाणी।
.... $ २३५. वेउव्वियमिस्स० उक्क वढि-अवट्ठाणाणं पंचिं तिरि अपज्जत्त-. भंगो। उक्क० हाणी कस्स ? अण्णदरो जो तिरिक्खो मणुस्सो वा उक्कस्सहिदिसंतकम्मिश्रो हिदिघादमकादूण वेउव्वियमिस्स० उववण्णो तेण उक्कस्सए हिदिखंडए पादिदे तस्स उक्क० हाणी । आहार०-आहारमिस्स० उक० हाणी कस्स ? अण्णदरस्स अद्धहिदि गलेमाणसंतस्स उक्क० हाणी। एवमकसाय-जहाक्खाद०-सासण दिहि त्ति।
६२३३. एकेन्द्रियों में उत्कृष्ट वृद्धि और उत्कृष्ट अवस्थानके स्वामित्वका कथन पंचेन्द्रिय तिथंच अपर्याप्तकोंके समान जानना चाहिये । एकेन्द्रियोंमें उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो कोई एक पंचेन्द्रिय तिथंच उत्कृष्ट स्थितिका घात न करके एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर वहाँ प्रथम स्थिति काण्डकका घात करता है उसके उत्कृष्ट हानि होती है। इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय, बादर . एकेन्द्रिय पर्याप्तक, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तक, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक पर्याप्तक, वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त और असंज्ञा जीवोंके जानना चाहिये।
२३४. औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें उत्कृष्ट वृद्धि और उत्कृष्ट अवस्थानके स्वामित्वका कथन पंचेन्द्रिय तियेच अपर्याप्तकोंके समान जानना चाहिये । औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? मोहनोय कर्मकी उत्कृष्ट स्थितिकी सत्तावाला जो कोई एक देव या नारकी स्थितिघात न करके औदारिकमिश्रकाययागियोंमें उत्पन्न होकर वहाँ उत्कृष्ट स्थितिकाण्डकका घात करता है उसके उत्कृष्ट हानि होती है।
२३५ वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें उत्कृष्ट वृद्धि और उत्कृष्ट अवस्थानके स्वामित्वका कथन पंचेन्द्रिय तिथंच अपर्याप्तकों के समान जानना चाहिये । वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट स्थितिकी सत्तावाला जो कोई एक तियेच या मनुष्य स्थितिघात न करके वैक्रियिकमिश्र काययोगियोंमें उत्पन्न होकर वहाँ उत्कृष्ट स्थितिखण्डका घात करता है उसके उत्कृष्ट हानि होती है। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगियोंमें उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो अद्धा स्थितिकी निर्जरा करता हुआ विद्यमान है उसके उत्कृष्ट हानि होती है। इसी प्रकार अकषायी, यथाख्यातसंयत और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये।
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जयघवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ ६२३६. कम्मइय० उक्क० वड्ढी कस्स ? अण्णद० जेण पंचिंदियसण्णिणा विग्गहगदीए वट्टमाणेण तप्पाअोग्गहिदिसंतकम्मादो तप्पाओग्गउक्कस्सहिदिबंधी पबद्धो तस्स उक्क० वड्ढी । उक्क० हाणी कस्स ? अण्णदरो जो चदुगदिओ उक० डिदिसंतकम्मिओ हिदिकंदयघादमाढविय विदियविग्गहे हिदिसंतकम्मस्स हिदिखंडए पादिदे तस्स उक्क० हाणी । उक्क० अवहाणं कस्स ? अण्ण. जो एइदियो तप्पाओग्गहिदि तकम्मादो वढिदण अवहिदो तस्स उक्क० अवहाणं । एवमणाहारीणं । ___२३७. अवगद० उक्क० हाणी कस्स ? अण्ण० इत्थि-णवूस वेदखवगस्स पढमे हिदिखंडए हदे तस्स उक्कस्सिया हाणी । मदि०-सुद०-ओहि० उक्क० हाणी कस्स ? अण्णदरो उक्कस्सहिदिसंतकम्मिश्रो तेण उक्कस्सए हिदिखंडए पादिदे तस्स उक्क हाणी । एवं ओहिदस०-सुक्क०-सम्मादि०-वेदय दिहि त्ति । मणपज्ज. उक्क० हाणी कस्स ? अण्णदरस्स जेण सागरोवमपुधत्तमेत्तमुक्कस्सहिदिखंडयं पादिदं तस्स उक० हाणी । एवं संजद-सामाइय-छेदो०-खइय०दिहि-परिहार-संजदासंजद०। सुहुमसांप० उक्क० हाणी कस्स ? अण्ण० खवगस्स चरिमडिदिरखंडए पादिदे तस्स उक्क हाणी।
२३८ उवसम० उक्क. हाणी कस्स ? अण्ण. अणंताणु विसंजोयणापढम
२३६. कार्मणकाययोगिया में उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? विग्रहगतिमें विद्यमान जो पंचेन्द्रिय संज्ञी जीव तद्योग्य स्थितिसत्त्ववाले कमके साथ तद्योग्य उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है उस कार्मणकाययोगीके उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उत्कृष्ट हानि किसके होती है? जिसके मोहनीयकर्मका उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व है ऐसा चारों गतिका जीव स्थितिकाण्डकघातको आरम्भ करके दूसरे विग्रह में जब स्थितिसत्तावाले कर्मके स्थितिखण्डका घात करता है तब उस कार्मणकाययोगी जीवके उत्कृष्ट हानि होती है। उत्कृष्ट अवस्थान 'किसके होता है ? जो एकेन्द्रिय तद्योग्य स्थितिसत्त्व से बढ़ाकर अवस्थित है उसके उत्कृष्ट अवस्थान होता है। इसी प्रकार अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये ।
६२३७ अपगतवेदियोंमें उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका क्षपक जो कोई एक जीव प्रथम स्थितिखण्डका घात करता है उसके उत्कृष्ट हानि होती है। आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट स्थितिकी सत्तावाला जो कोई एक जीव उत्कृष्ट स्थितिकाण्डकका घात करता है उसके उत्कृष्ट हानि होती है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । मनःपर्ययज्ञानियोंमें उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जिसने सागरपृथक्त्व प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिकाण्डकका घात किया है उसके उत्कृष्ट हानि होती है। इसी प्रकार संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवोंके जानना चाहिये । सूक्ष्मसांपरायिक संयतोंमें उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो कोई एक क्षपक अन्तिम स्थितिकाण्डकका घात करता है उसके उत्कृष्ट हानि होती है।
६२३८ उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो कोई एक जीव अनन्तानु
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गा० २२. ]
हिदिविहत्तीए पदणिक्खेवे सामित्तं
हिदिखंड पादिदे तस्स उक्क० हाणी अथवा कसायउवसामगस्स पढमडिदिखंडए पदिदे एवं सामित्तं वत्तव्वं, उवसमसम्मत्तकालब्भंतरे अनंतापु० विसंजोयणपक्खाणभुवगमादो | अथवा एदं पि जाणिय वत्तव्वं, उवसम सेढीए दंसणतियस्स डिदिघादसंभवावलंभादो | सम्मामि० उक्क० हाणी कस्स ? अण्ण० उक्कस हिदिसंतकम्मम्मि उक्कस्सडिदिखंडए पदिदे तस्स उक्कस्सिया हाणी |
एवमुकस्ससामित्तं समत्तं ।
९ २३६, जहण्णए पदं । दुविहो गिद्द सो- ओघेण आदेसेण य । तत्थ घेण जह० वड्ढी कस्स ? अण्ण० जो समऊण उकस्सहिदिं बंधमाणो उक्कस्ससंकिले सं गंतूण उकस्सहिदि पबद्धो तस्स जह० वड्ढी । जह० हाणी कस्स ? अण्ण • अधहिiraण । एगदरत्थ वद्वाणं । एवं सत्तसु पुढवीसु सव्वतिरिक्ख- सव्वमणुसदेव० भवणादि जाव सहस्सार० - सव्व एइंदिय० सव्वविगलिंदिय- सव्व पंचिंदिय-छकायपंचमण ० - पंचवचि०- कायजोगि - ओरालि० - ओरालिय मिस्स - वेउव्विय० - वेउ० मिस्स ०. कम्मइय-तिण्णिवेद ० चत्तारिकसाय - तिण्णि अण्णाण - असंजद ० - चक्खु०-अचक्खु०- पंचले०भवसि ० - अभवसि ०-मिच्छादि ० - सण्णि ० - असण्णि ० - हारिणाहारिति ।
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बन्धीकी विसंयोजनाके समय प्रथम स्थितिकाण्डकका घात करता है उसके उत्कृष्ट हानि होती है । अथवा कषायकी उपशमना करनेवाले उपशमसम्यग्दृष्टि जीवके प्रथम स्थितिखण्डका घात करने पर उत्कृष्ट हानिके स्वामित्वका कथन करना चाहिये, क्योंकि उपशमसम्यक्त्वके कालके भीतर अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाका पक्ष स्वीकर नहीं किया है । अथवा इसका भी जान कर ही कथन करना चाहिये, क्योंकि उपशमश्रेणी में दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोंके स्थितिघातकी संभावना नहीं पाई जाती है । सम्यग्मिथ्यादृष्टियों में उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट स्थितिकी सत्तावाला जो कोई एक जीव उत्कृष्ट स्थितिखण्डका घात करता है उसके उत्कृष्ट हानि होती है।
इस प्रकार उत्कृष्ट स्वामित्व समाप्त हुआ ।
२३. अब जघन्य स्वामित्वका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैनिर्देश और देशनिर्देश । उनमें से ओघकी अपेक्षा जघन्य वृद्धि किसके होती है ? जो एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिको बांधता हुआ उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है ऐसे किसी एक जीवके जघन्य वृद्धि होती है । जघन्य हानि किसके होती है ? अधःस्थिति यसे किसी एक जीवके जघन्य हानि होती है। तथा इनमें से किसी एकमें अवस्थान होता है । इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, सभी तिर्यंच, सभी मनुष्य, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तक के देव, सभी एकेन्द्रिय, सभी विकलेन्द्रिय, सभी पंचेन्द्रिय, छहों कायवाले, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिक मिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मरणकाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, तीनों अज्ञानी, असंयत, चतुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, कृष्णादि पांच लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिध्यादृष्टि, संज्ञी, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिषिहची ३ २४०. आणदादि जाव सव्वहसिद्धि त्ति जह० हाणी कस्स ? अण्ण. अधहिदिक्खएण। एवमाहार०-आहारमिस्स-अवगद०-अकसा०-आभिणि-सुद०
ओहि-मणपज्ज०-संजद०-सामाइय-छेदो०-परिहार०-सुहम०-जहाक्रवाद०-संजदासंजद०-ओहिदंस०-सुक्क०-सम्माइहि-खइय०-वेदय०-उवसम०-सासण-सम्मामिच्छादिहि त्ति ।
एवं सामित्ताणुगमो समत्तो । ___$ १४१. अप्पाबहुअं दुविहं-जहण्णमुक्कस्सं च । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि सो-अोघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सव्वत्थोवा उक्कस्सिया हाणी । वडी अवहाणं च दो वि तुल्लाणि विसेसाहियाणि । एवं सत्तसु पुढवीसु तिरिक्खपंचितिरिक्वतिय-मणुसतिय-देव०-भवणादि जाव सहस्सार०-पंचि०-पंचि०पज्ज०तस-तसपज्ज-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि-पोरालिय०-वेउब्बिय०-तिण्णिवेदचत्तारिक०-तिण्णिअण्णाण-असंजद०-चक्खु०-अचक्खु०-पंचले०-भवसि०-अभवसि०मिच्छादि०-सण्णि०-आहारि त्ति ।
२४२. पंचि०तिरिक्खअपज्ज० सव्वत्थोवा उक्क० वड्ढी अवहाणं च । हाणी संखेज्जगुणा। एवं मणुसअपज्ज०-सव्वविगलिंदिय-पंचिदियअपज-तसअपज्ज०-ओरालि
६२४०, आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें जघन्य हानि किसके होती है ? अधःस्थितिके क्षयसे किसी एकके होती है। इसी प्रकार आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनवाले, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये ।
इस प्रकार स्वामित्वानुगम समाप्त हुआ। ६२४१. अल्पबहुत्व दो प्रकारका है--जघन्य और उत्कृष्ट । उनमेंसे उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। इनमेंसे ओघकी अपेक्षा उत्कृष्ट हानिवाले जीव सबसे स्तोक हैं। वृद्धि और अवस्थान इन दोनोंवाले जीव समान होते हुए भी उत्कृष्ट हानिवाले जीवोंसे विशेष अधिक हैं। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, सामान्य तिर्यञ्च, पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिक, मनुष्यत्रिक, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, सपर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, तीनों अज्ञानी, असंयत, चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, कृष्णादि पाँच लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिये ।
६२४२. पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थानवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे उत्कृष्ट हानिवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तक, सभी विकलेन्द्रिय,
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برای مرد فر فرع فرد ہے میں عر عر معي بمرم فرور ی
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गा• २२]
द्विदिविहत्तीए पदणिक्खेवे अप्पाबहुलं यमिस्स-वेउव्विय मिस्स-असण्णि ति ।
२४३ आणदादि जाव सबढ० पत्थि अप्पाबहुगं । एवमाहार०-आहारमिस्स०-अवगद०-अकसा०-आभिणि-सुद--ओहि०-मणपज्ज०-संजद०-सामाइयछेदो०-परिहार-मुहुम० - जहाक्खाद०-संजदासंजद०-ओहिदंस०-मुक्क०-सम्मादि०खड्य०-चेदय०-उवसम०-सासण-सम्मामिच्छादिहि त्ति ।
२४४. एइंदिएसु सव्वत्थोवा वड्ढी अवडाणं च । हाणी असंखेजगुणा । एवं पंचकाय० । कम्मइय० सव्वत्थोवमवहाणं । वड्डी असंखेज्जगुणा । हाणी असंखेज्जगुणा । एवमणाहार० ।
एवमुक्कस्सप्पाबहुअं सम । $ २४५. जहण्णए पयदं । दुविहो णिद्द सो–ोघेण आदेसेण य । तत्य ओघेण जहणिया वड्डी हाणी अवहाणं च तिण्णि वि तुल्लाणि । एवं णेदव्वं जाव अणाहारए त्ति । आणदादिसु णत्थि अप्पाबहुअं, एगपदत्तादो ।
.. एवं पदणिक्खेवो समत्तो ।
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पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक, बस अपर्याप्तक, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी और असंज्ञी जीवोंके जानना चाहिये ।
२४३. अानत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंके अल्पबहुत्व नहीं है। इसी प्रकार आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी. अवधिज्ञानी, मनःपर्थयज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत. सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनवाले, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये।
२४४. सभी एकेन्द्रियोंमें उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थानवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे उत्कृष्ट हानिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार सभी पाँचों स्थावरकाय जीवोंके जानना चाहिये। कार्मणकाययोगियोंमें अवस्थानवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे वृद्धिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे हानिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये।
इस प्रकार उत्कृष्ट अल्पबहुत्व समाप्त हुआ।
६२४५. अब जघन्य अल्पबहुत्वका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और अवस्थान इन तीनोंवाले जीव समान हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये। किन्तु आनतादिकमें अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि वहाँ एक हानिपद ही पाया जाता है।
इस प्रकार पदनिक्षेप समाप्त हुआ।
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जयघवलासहिदे कसायपाहुडे द्विदिविहत्ती ३ २४६. वडि ति तत्थ इमाणि तेरस प्राणियोगदराणि-समुकित्तणादि जाव अप्पाब हुए त्ति । समुक्कित्तणाणु० दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ अोघेण तिण्णि वड्डी तिणि हाणी असंखेज्जगुणहाणी अवहाणं च अत्थि । एवं मणुसतियपंचिंदिय-पंचिं०पज्ज०-तस-तसपज्ज-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालि०तिण्णिवेद-चत्तारिकसाय-चक्खु०-अचक्खु०-भवसि०-सण्णि-आहारए त्ति ।
२४७ आदेसण गेरइएस मोह० अत्थि तिणि वड्डी तिण्णि हाणी अवहाणं च । एवं सत्तसु पुढवीसु सव्वतिरिक्ख-मणुमअपज्ज-देव-भवणादि जाव सहस्सार०पंचिं अपज्ज०-तसअपज्ज०-ओरालियमिस्स-वेरबिय०-वेउ०मिस्स-कम्मइय-तिण्णिअण्णाण-असंजद०-पंचले०-अभव०-मिच्छादि०-असण्णि०-अणाहारए त्ति ।
२४८. आणदादि जाव सव्वदृ० मोह० अत्थि असंखेजभागहाणी संखेज्जभागहाणी । एवं परिहार०-संजदासंजद०-उवसमसम्माइहि त्ति । एइंदिएसु अत्थि असंखेजभागवडी तिण्णि हाणी अवहाणं च । एवं पंचकाय० । विगलिंदिएसु अस्थि दो वड्डी तिण्णि हाणी अवहाणं च । आहार०-आहारमिस्स० अत्थि असंखे०भागहाणी । एवमकसा०-जहाक्रवाद०-सासण० । अवगद० अत्थि असंखेजभागहाणी [संखेज्जभागहाणी ] संखे०गुणहाणी। एवं सुहुमसांप०-वेदय-सम्मामि०दिहीणं ।
६२४६. अब वृद्धि अनुयोगद्वारका प्रकरण है। उसके कथनमें समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व तक ये तेरह अनुयोगद्वार हैं। उनमेंसे समुत्कीर्तनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा तीन वृद्धि, तीन हानि, असंख्यातगुणहानि और अवस्थान हैं। इसी प्रकार मनुष्यत्रिक, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिये।
६२४७. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मोहनीय कर्मकी तीन वृद्धियाँ, तीन हानियाँ और अवस्थान हैं। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, सभी तिर्यश्च, मनुष्यअपर्याप्त, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देव, पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक, बस अपर्याप्तक, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रिीयककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कामणकाययोगी, तीनों अज्ञानी, असंयत, कृष्णादि पाँच लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्याददृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये। ..
६२४८. आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें मोहनीय कर्मकी असंख्यात भागहानि और संख्यातभागहानि है। इसी प्रकार परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये। एकेन्द्रियोंमें असंख्यातभागवृद्धि, तीन हानियाँ और अवस्थान हैं। इसी प्रकार पाँचों स्थावरकायिक जीवोंके जानना चाहिये। सभी विकलेन्द्रियों में दो वृद्धियाँ, तीन हानियाँ और अवस्थान हैं। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें असंख्यातभागहानि है। इसी प्रकार अकषायी, यथाख्यातसंयत और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये। अपगतवेदी जीवोंमें असंख्यातभागहानि, संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि
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गा. २२ ] द्विदिविहत्तीए वड्ढीए समुक्कित्तणा
१३७ आभिणि-सुद०-ओहि० अत्थि चत्तारि हाणीओ। एवं मणपज०-संजद०-सामाइयछेदो०-ओहिदंस०-सुक्कलेस्सि०-सम्मादिट्टी०-खइय० ।
एवं समुक्कित्तणा समत्ता। है। इसी प्रकार सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, वेदकसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये। आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें चार हानियाँ हैं । इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, अवधिदर्शनवाले, शुक्ललेश्यावाले, सन्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये ।
विशेषार्थ—पदनिक्षेपमें उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि, उत्कृष्ट अवस्थान, जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थानका कथन किया जाता है। किन्तु वे उत्कृष्ट वृद्धि आदि एक रूप न होकर अनेकरूप होते हैं । इसका ज्ञान पदनिक्षेपसे न होकर वृद्धि अनुयोगद्वारसे होता है, अतः पदनिक्षेप विशेषको वृद्धि कहते हैं - समुत्कीर्तना, स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व इसके ये तेरह अनुयोगद्वार हैं। इनमेंसे पहले समुत्कीर्तनाका विचार किया गया है। इसकी अपेक्षा ओघसे असंख्यात भागवृद्धि, संख्यात भागवृद्धि, संख्यात गुणवृद्धि ये तीन वृद्धियां; असंख्यात भागहानि, संख्यात भागहानि, संख्यात गुणहानि ये तीन हानियां और असंख्यात गुणहानि तथा इनके अवस्थान होते हैं । विवक्षित स्थितिमें जो वृद्धि या हानि होती है वह जब तक उसके असंख्यातवें भाग प्रमाण रहती है तब तक उसे असंख्यात भागवृद्धि या असंख्यात भागहानि कहते हैं। जब वह वृद्धि या हानि विवक्षित स्थितिके संख्यातवें भागप्रमाण हो जाती है तब उसे संख्यात भागवृद्धि और संख्यात भागहानि कहते हैं। तथा जब वह वृद्धि या हानि विवक्षित स्थितिसे संख्यातगुणी वृद्धि या हानिरूप हो जाती है तब उसे संख्यात गुणवृद्धि या संख्यात गुणहानि कहते हैं। इसी प्रकार असंख्यात गुणहानिके सम्बन्धमें भी जानना चाहिये। यह असंख्यात गणहानि केवल अनिवृत्तिक्षपकके ही होती है, अन्यत्र नहीं । अवस्थान सुगम है । यदि वृद्धियोंके बाद अवस्थान हुआ तो वह वृद्धि सम्बन्धी अवस्थान कहलाता है और हानियोंके बाद अवत्थान हुआ तो वह हानि सम्बन्धी अवस्थान कहा जाता है। मनुष्य त्रिक आदि कुछ ऐसी मागणाएं हैं जिनमें यह ओघप्ररूपणा अविकल घटित हो जाती है अतः उनके कथनको ओघके समान कहा । नारकियोंमें केवल असंख्यात गुणहानि सम्भव नहीं, क्योंकि वहाँ अनिवृत्ति क्षपक जीव नहीं पाये जाते । शेष सब सम्भव हैं, इसी प्रकार सातों नरकके नारकी आदि मूलमें गिनाई हुई और भी मार्गणाएं हैं जिनमें यह व्यवस्था बन जाती है, अतः उनके कथनको सामान्य नारकियोंके समान कहा । अानतकल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें उत्कृष्ट स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण ही होती है और वह वहाँ उत्पन्न होनेके पहले समयसे लेकर उत्तरोत्तर घटती ही जाती है, जो प्रकृतियोंकी अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजनाके समय संख्यातवें भागप्रमाण घटती है और शेष समयमें असंख्यातवें भागप्रमाण ही घटती है । अतः यहां दो हानियां ही कहीं। परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत और उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके इसी प्रकार जानना । एकेन्द्रियोंमें जघन्य स्थितिबन्ध पल्यका असंख्यातवाँ भाग कम एक सागरप्रमाण और उत्कृष्ट स्थितिबन्ध एक सागर प्रमाण होता है, अतः यहां वृद्धिरूपसे असंख्यात भागवृद्धि ही सम्भव है, क्योंकि किसी जीवने यदि जघन्य स्थिति से उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्ध किया तो भी जघन्य स्थितिके असंख्यातवें भाग की ही वृद्धि हुई। पर इनके असंख्यात गुणहानिको छोड़ कर शेष तीनों हानियां सम्भव हैं, क्योंकि जो संज्ञी
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nawwarwwwrarwal
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [विदिबिहती ३ २४६. सामित्ताणुगमेण दुविहो णिसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण तिएिण वड्डी अवहाणाणि कस्स ? मिच्छादिहिस्स । तिण्णि हाणीअो कस्स ? सम्मादिहिस्स मिच्छादिहिस्स वा । असखे गुणहाणी कस्स ? आणियट्टिखवयस्स। एवं मणुसतिय-पंचिंदिय-पंचिं०पज्ज०-तस-तसपज्ज-पंचमण-पंचवचि -[ काय.-] ओरालिय०-तिण्णिवेद-चत्तारिकसाय-चक्खु०-अचक्खु०-भवसि०-सण्णि-आहारित्ति।
६ २५० आदेसेण णेरहएसु तिएिण वड्डी अवहा. कस्स ? मिच्छादिहिस्स । तिणि हाणी कस्स ? सम्मादिहि० मिच्छादिहिस्स वा। एवं सव्वणिरय-तिरिक्खपंचिंदियतिरिक्खतिय-देव-भवणादि जाव सहस्सार०-वेउव्विय-असंजद-पंचलेस्सा त्ति । पंचेन्द्रिय जीव एकेन्द्रियों में उत्पन्न होता है उसके तीनों हानियां बन जाती हैं। पांचों स्थावरकायिक जीवोंमें भी इसी प्रकार जानना। विकलत्रयोंमें जघन्य स्थितिबन्धसे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध पल्यके संख्यातवें भागप्रमाण अधिक है अतः यहाँ वृद्धिरूपसे संख्यात भागवृद्धि और असंख्यातभागवृद्धि ये दो वृद्धियां ही सम्भव हैं, क्योंकि जब कोई विकलत्रय अपनी पूर्व समयमें बंधनेवाली स्थितिसे असंख्यातवें भाग अधिक स्थितिको बांधता है तब उसके असंख्यात भागवृद्धि होती है और जब वह अपनी पूर्व समयमें बंधनेवाली स्थितिसे संख्यातवें भाग अधिक स्थितिको बांधता है तब उसके संख्यातभागवृद्धि होती है । तथा इनके तीन हानियोंका खुलासा एकेन्द्रियोंके समान कर लेना चाहिये। आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोगमें मोहनीयकी स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण है और यहाँ स्थितिकाण्डकघात न होकर अधःस्थितिगलनाके द्वारा एक एक निषेकका ही गलन होता है अतः यहां एक असंख्यात भागहानि ही सम्भव है । इसी प्रकार अकषायी, यथाख्यातसंयत और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । अपगतवेदमें असंख्यात भागहानि उपशमक और क्षपक किसी भी जीवके बन जाती है पर संख्यात भागहानि
और संख्यात गुणहानि क्षपकके ही बनती है। इसी प्रकार सूक्ष्मसाम्परायिक संयत और वेदक सम्यग्दृष्टि जीवों के जानना । आभिनिबोधिकज्ञानी आदि जीवोंके चारों हानियां सम्भव हैं यह स्पष्ट ही है।
इस प्रकार समुत्कीर्तनानुयोगद्वार समाप्त हुआ। ६२४६. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैं-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा तीन वृद्धियाँ और अवस्थान किसके होते हैं? मिथ्याष्टिके होते हैं। तीन हानियाँ किसके होती हैं ? सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि जीवके होती हैं। असंख्यातगुणहानि किसके होती है ? अनिवृत्तिकरणक्षपकके होती है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिक, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्तक, बस, बस पर्याप्तक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिये ।।
६ २५.०. आदेशकी अपेक्षा नारकियों में तीन वृद्धियां और अवस्थान किसके होते हैं ? मिथ्यादृष्टिके होते हैं । तीन हानियाँ किसके होती हैं ? सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टिके होती हैं। इसी प्रकार सभी नारकी, सामान्य तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तियंचत्रिक, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देव, वैक्रियिककाययोगी, असंयत और कृष्णादि पाँच लेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिये।
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गा• २२ ] हिदिविहत्तीए वड्ढीए सामित्त
१३६ २५१. पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज० तिण्णि वड्डी अवहाणाणि तिण्णि हाणीओ कस्स ? अण्णदरस्स । एवं मणुसअपज्ज०-पंचिंदियअपज ०-तसअपज ०-तिण्णि अण्णाण-अभव-मिच्छादि०-असण्णि त्ति ।
२५२. आणदादि जाव उवरिमगेवज्ज असंखेजभागहाणी कस्स ? अण्णदरस्स सम्मादिहि० मिच्छादिहिस्स वा। संखे भागहाणी कस्स ? अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोए तस्स पढमसम्म पडिवज्जमाणस्स वा । अणुदिसादि जाव सबदृसिद्धि ति असंखे भागहाणी कस्स ? अण्णदरस्स । संखे०भागहाणी कस्स ? अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोए तस्स ।
$ २५३. एइंदिएसु असंखेजभागवड्डी तिण्णिहाणी अवाणाणि कस्स ? अण्णद० । एवं पंचण्डं कायाणं । विगलिंदिएमु दो वड्डी तिण्णि हाणी अवहाणाणि कस्स ? अण्णद०।
६२५४. ओरालियमिस्स० तिण्णिवडि-अवहाणाणि कस्स ? मिच्छादिहिस्स। दोहाणिो कस्स १ मिच्छादिहिस्स। असंखे भागहाणी कस्स ? सम्मादिहि० मिच्छादिहिस्स वा । एवं वेउवियमिस्स०-कम्मइय०-अणाहारि त्ति । आहार०-आहारमिस्स० असंखे०भागहाणी कस्स ? अधहिदि गालयमाणस्स । एवमकसा०-जहाक्खाद०-सासण०दिहि त्ति।
६२५१. पंचेन्द्रिय तिथंच अपर्याप्तकोंमें तीन वृद्धियां, अवस्थान और तीन हानियाँ किसके होती हैं ? किसी एक जीवके होती हैं। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तक, पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक, त्रस अपर्याप्तक, तीनों अज्ञानी, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके जानना चाहिये।
२५२. आनत कल्पसे लेकर उपरिम ग्रैवेयक तकके देवोंमें असंख्यात भागहानि किसके होती है ? किसी एक सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टिके होती है। संख्यातभागहानि किसके होती है ? अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करनेवाले जीवके या प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवके होती है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें असंख्यातभागहानि किसके होती है ? किसी एकके होती है। संख्यातभागहानि किसके होती है ? अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करनेवाले जीवके होती है।
६२५३. एकेन्द्रियोंमें असंख्यातभागवृद्धि, तीन हानियां और अवस्थान किसके होते हैं ? किसी भी जीवके होते हैं। इसी प्रकार पांचों स्थावरकायिक जीवोंके जानना चाहिये । विकलेन्द्रियोंमें दो वृद्धियां, तीन हानियाँ और अवस्थान किसके होते हैं ? किसी भी जीवके होते हैं।
२५४. औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें तीन वृद्धियाँ और अवस्थान किसके होते हैं ? मिथ्यादृष्टिके होते हैं। दो हानियाँ किसके होती हैं ? मिथ्यादृष्टिके होती हैं। असंख्यात भागहानि किसके होती है ? सम्यग्दृष्टि या मिथ्याष्टिके होती है। इसी प्रकार क्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये । आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगियोंमें असंख्यात भागहानि किसके होती है ? अधःस्थिति गलनाके द्वारा निर्जरा करनेवाले जीवके होती है। इसी प्रकार अकषायी, यथाख्यातसंयत और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [विदिविहत्ती २५५. अवगद० असंखे०भागहाणी कस्स ? अण्णदरस्स उवसामयस्स खवयस्स वा । संखे भागहाणी संखे०गुणहाणी खवगस्स । आभिणि-सुद०ओहि० तिण्णि हाणीओ कस्स ? अण्णद० सम्मादिहिस्स । असंखे०गुणहाणी कस्स ? अणियट्टिक्खवयस्स । एवं मणपज०-[ संजद-] समाइय-च्छेदो-ओहिदंस०सम्माइहि त्ति ।
२५६. परिहार० असंखेज्जभागहाणि-संखेज्जभागहाणीओ कस्स ? अण्ण। णवरि संखेज्जभागहाणी अणंताणुबंधिविसंजोए तस्स दंसणतियक्रववेतस्स वा । एवं संजदासंजद० । सुहुमसांपरा० असंखेज भागहाणी संखेभागहाणी संखेगुणहाणी कस्स ? अण्णदरस्स ।
$ २५७. सुक्कले० तिणि हाणीओ कस्स ? सम्मादिहि मिच्छादिहिस्स वो । असंखे०गुणहाणी कस्स ? अणियट्टिखवयस्स । खइय० असंखेजभागहाणी कस्स ? अण्णद० । संखे०भागहाणी कस्स ? उवसामयस्स खवयस्स वा । संखेज्जगुणहाणी कस्स ? खवयस्स । असंखेज्जगुणहाणी कस्स ? ओघं ।
२५८. उपसम० असंखेज्जभागहाणी कस्स ? अण्णद। संखेज्जभागहाणी कस्स ? अण्णद अणंताणुबंधि० विसंजोएंतस्स कसायोवसामगस्स वा ।
६२५५. अपातवेदियोंमें असंख्यात भागहानि किसके होती है ? किसी भी उपशामक या क्षपक जीवके होती है। तथा संख्यात भागहानि और संख्यातगुणहानि क्षपक जीवके होती है। आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें तीन हानियाँ किसके होती हैं ? किसी भी सम्यग्दृष्टि जीवके होती हैं। असंख्यात गुणहानि किसके होती है ? अनिवृत्तिकरण क्षपकके होती है । इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानी, संयत सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, अवधिदर्शनवाले और सम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये।
-२५६. परिहारविशुद्धिसंयतोंमें असंख्यात भागहानि और संख्यात भागहानि किसके होती है। किसी भी जीवके होती है । परन्तु इतनी विशेषता है कि संख्यात भागहानि अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करनेवाले जीवके या तीन दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले जीवके होती है। इसी प्रकार संयतासंयत जीवोंके जानना चाहिये । सूक्ष्मसांपरायिक संयतोंमें असंख्यात भागहानि, संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि किसके होती है ? किसी भी जीवके होती है।
२५७. शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें तीन हानियां किसके होती हैं ? सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि जीवके होती हैं। असंख्यात गुणहानि किसके होती है ? अनिवृत्तिकरण क्षपकके होती है। क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें असंख्यातभागहानि किसके होती है ? किसी भी जीवके होती है । संख्यात भागहानि किसके होती है ? उपशामक या क्षपक जीवके होती है। संख्यात गुणहानि किसके होती है ? क्षपकके होती है। असंख्यातगुणहानि किसके होती है ? इसका कथन ओघके समान है ? अर्थात् असंख्यातगुणहानि अनिवृत्तिकरण क्षपकके होती है।
६२५८. उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें असंख्यातभागहानि किसके होती है ? किसी भी जीवके होती है। संख्यातभागहानि किसके होती है ? अनन्तानुबन्धीको विसंयोजना करनेवाले या
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गा० २२.] द्विदिविहत्तीए घड्ढीए कालो
१४१ वेदय० असंखेज्जभागहाणी संखेज्जगुणहाणी कस्स ? अण्णदरस्स । संखेज्जभागहाणी कस्स ? अणंताणुबंधि० विसंजोएतस्स दंसणतियं खवेंतस्स वा । सम्मावि० तिण्णिहाणीयो कस्स ? अण्णद० ।
एवं सामित्ताणुगगो सभत्तो। $ २५६. कालाणुगमेण दुविहो गिद्द सो-अोघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण तिणि वडी केवचिरं कालादो होंति ? जह० एगसमयो, उस्क, वे समया । असंखे० भागहाणी केवचि० ? जह० एयसपओ, उक्क० तेवहिसागरोमसदं अंतोमुहुत्तब्भहियं पलिदो० असंखे०भागे० सादिरेगं । संखे० भागहाणी केव• ? जह० एगसमओ, उक्क० उक्कस्ससंखेज्जं दुरूवूणं । दो हाणी केव० ? जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ । अवहि० ज० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । एवमचक्खु०-भवसि०-तस-तसपज्ज० । कषायोंका उपशम करनेवाले किसी भी जीवके होती है। वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें असंख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानि किसके होती है ? किसी भी जोबके होती है। संख्यात भागहानि किसके होती है ? अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करनेवाले जीवके या तीन दर्शनमोहनीयका क्षय करनेवाले जीवके होती है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें तीनों हानियां किसके होती हैं ? किसी भी जीवके होती हैं।
इस प्रकार स्वामित्वानुगम समाह हुआ। ६२५६. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है—ोधनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा तीन वृद्धियोंका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है। असंख्यात भागहानिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तुमुहूर्त और पल्यका असंख्यातवां भाग अधिक एक सौ त्रेसठ सागर है। संख्यात भागहानिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो कम उत्कृष्ट संख्यात समय प्रमाण है। संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानि इन दो हानियोंका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थितका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । इसी प्रकार अचक्षुदर्शनवाले, भव्य, त्रस और त्रस पर्याप्तक जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-जब कोई जीव अद्धाक्षय या संक्लेशक्षयसे सत्कर्म के ऊपर एक समय तक असंख्यातवें भाग, संख्यातवें भाग या संख्यातगुणी स्थितिको बढ़ाकर बांधता है और दूसरे समयमें अल्पतर या अवस्थित स्थितिको प्राप्त करता है तब उसके असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है। जब कोई एक जीव पहले समयमें अद्धाक्षयसे और दूसरे समयमें संक्लेशक्षयसे असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिको बढ़ाकर बांधता है तथा तीसरे समयमें अल्पतर या अवस्थित स्थितिवन्ध करने लगता है तब उसके असंख्यातभागवृद्धिका उत्कृष्ट काल दो समय प्राप्त होता है। जब कोई एक द्वीन्द्रिय जीव संक्लेशक्षयसे एक समय तक संख्यातवें भागप्रमाण स्थितिको बढ़ाकर बांधता है और दूसरे समयमें मरकर तथा त्रीन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर पूर्व स्थितिसे संख्यातवें भाग अधिक तेइन्द्रियोंके योग्य जघन्य स्थितिको बांधता है
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ २६० आदेसेण णेरइएसु असंखेज्जभागवड्डी केव• ? जह० एगसमओ, तब संख्यात भागवृद्धिका उत्कृष्ट काल दो समय प्राप्त हाता है । अथवा जो तेइन्द्रिय जीव स्वस्थानमें संक्लेशक्षयसे एक समय तक संख्यात भागवृद्धि करके और दूसरे समयमें मरकर तथा चौइन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर चौइन्द्रियोंके योग्य जघन्य स्थितिबन्ध करता है उसके संख्यात भागवृद्धिका उत्कृष्ट काल दो समय पाया जाता है । तथा जो एकेन्द्रिय एक मोड़ा लेकर संज्ञियोंमें उत्पन्न होता है उसके पहले समयमें श्रसंज्ञीके योग्य स्थिति बन्ध होता है जो कि एकेन्द्रियके स्थितिसत्त्वसे संख्यातगुणा है और दूसरे समयमें शरीरको ग्रहण करके संज्ञीके योग्य स्थितिबन्ध होता है जो कि असंज्ञीके योग्य स्थितिबन्धसे संख्यातगुणा है अतः संख्यात गुणवृद्धिका उत्कृष्ट काल दो समय कहा है। असंख्यात भागहानिका जघन्य काल एक समय है क्योंकि समान स्थितिको बांधनेवाले जिस जीवने एक समय तक पूर्व स्थितिसे असंख्यातवें भाग कम स्थितिका बन्ध किया और दूसरे समयमें पुनः सत्त्वके समान स्थितिका बन्ध करने लगा उसके असंख्यात भागहानिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। तथा असंख्यात भागहानिका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त और पल्यके असंख्तातवें भाग अधिक एक सौ त्रेसठ सागर है। उसका खुलासा इस प्रकार है-कोई मिथ्यादृष्टि भोगममियां, आयुमें पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग शेष रहने पर उपशम सम्यक्त्व क कर संख्यात भागहानि कर, मिथ्यात्वको प्राप्त हो गया । उस समयसे असंख्यात भागहानि प्रारंभ हो गई। आयुके अन्तमें वह वेदक सम्यग्दृष्टि हो गया और छयासठ सागर तक वेदक सम्यक्त्वके साथ रहा । पुनः अन्तमुहूर्त काल तक सम्यग्मिथ्यात्वके साथ रहा और तदनन्तर वह पुनः वेदक सम्यग्दृष्टि हो गया और छयासठ सागर तक वेदक सम्यक्त्वके साथ रहा तथा अन्तमें इकतीस सागर की आयुवाले देवोंमें उत्पन्न होकर मिथ्यादृष्टि हो गया। तदनन्तर वहांसे च्युत होकर मनुष्योंमें उपन्न हुआ और एक अन्तमुहूर्तके बाद भुजगार स्थितिको प्राप्त हो गया। इस प्रकार इस जीवके असंख्यात भागहानिका उत्कृष्टकाल अन्तमुहूर्त और पल्योपमके असंख्यालवें भागसे अधिक एक सौ त्रेसठ सागर पाया जाता है। संख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो कम उत्कृष्ट संख्यात समय प्रमाण है। इसका खुलासा इस प्रकार है-दर्शनमोहनीयकी क्षपणामें या अन्यन्त्र जब पल्यके संख्यातवें भागप्रमाण स्थितिकाण्डकका घात होता है तब संख्यात भागहानिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। तथा सूक्ष्मसांपरायिक क्षपकके अन्तिम दो समय कम उत्कृष्ट संख्यात समय प्रमाण काल तक संख्यात भागहानिका उत्कृष्ट काल जानना चाहिये। जो जीव सत्तर कोडाकोड़ी प्रमाण स्थितिके संख्यात बहुभागका घात करता है उसके तथा अन्यत्र अन्तिम काण्डककी अन्तिम फालिके पतनके समय संख्यात गुणहानि पाई जाती है अतः संख्यात गुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा। तथा अनिवृत्ति करणक्षपक अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके सवेद भागमें स्थितिकांडक की अंतिम फालिके पतनके समय असंख्यात गुणहानि होती है, अतः असंख्यात गुणहानिका भी जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । तथा अवस्थित स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है, क्योंकि, जो जीव एक समय तक अवस्थित स्थितिको प्राप्त होकर दूसरे समयमें भुजगार या अल्पतर स्थितिको प्राप्त हो जाता है उसके अवस्थित स्थिति एक समय तक ही पाई जाती है तथा जो लगातार अन्तमुहूर्त काल तक अवस्थित स्थितिके साथ रहकर भुजगार या अल्पतर स्थितिको प्राप्त होता है उसके अवस्थित स्थितिका अन्तमुहूर्त काल पाया जाता है । अचक्षदर्शनी, भव्य, त्रस और जसपर्याप्तक जीवों के यह ओघ प्ररूपणा अविकल बन जाती है, अतः उनके कथनको ओघके समान कहा।
६२६०. प्रादेशकी अपेक्षा नारकियोंमें असंख्यातभागवृद्धिका कितना काल है ? जघन्य
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मा० २२ ]
stefanite as te कालो
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उक्क० वे समया । दो बड्डी० दो हाणी० केव० १ जहण्णुक्क० एगसमश्र । असंखे ० भागहाणी के० ? ज० एगसमओ, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमारिण देसूणाणि । वडि० के० १ जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुद्दत्तं । एवं सव्वणेरइ० णवरि असंखेज्जभागहाणीए उक्कस्स० सगसगुक्कसहिदी देसूणा ।
$ २६१. तिरिक्खेतिण्णि वड्डी संखेज्जगुणहाणी अहि० ओघं । श्रसंखे ० भागहाणी ज० एगसमओ, उक्क० तिष्णि पलिदोवमाण सादिरेयाणि । संखेज्जभागहाणी जहरणुक्क एगसमओ । एवं पंचिदियतिरिक्खतियस्स । णवरि संखेज्ज - भागवड्ढि - संखेज्जगुणबड्डीणं जहण्णुक्क० एगसमओ । पंचिदियतिरिक्खापज्ज० तिण्णिवड्डि- दोहाणि श्रवद्विदाणं णिरोघभंगो । श्रसंखेज्जभागहाणी के० १ जह० एगसमओ, उक्क अंतोमुहुत्तं । एवं मरणुस पज्ज० । मणुसतिय० पंचिंदियतिरिक्खतियभंगो | णवरि संखेज्जभागहाणी असंखे० गुणहाणी श्रघं ।
०
काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है । दो वृद्धियों और दो हानियोंका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । असंख्यात भागहानिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है । अवस्थितविभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार सभी नारकियों के जानना चाहिये | इतनी विशेषता है कि सर्वत्र असंख्यात भागद्दानिका उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण होता है ।
$ २६१. तिर्यों में तीन वृद्धियों संख्यातगुणहानि और अवस्थितविभक्तिका काल श्रधके समान है । असंख्यात भागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य है । तथा संख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । इसी प्रकार पचेन्द्रियतियंच त्रिकके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके संख्यात भागवृद्धि और संख्यात गुणवृद्धि का जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तिकों में तीन वृद्धियों, दो हानियों और अस्थितविभक्तिका काल सामान्य नारकियोंके समान है । तथा असंख्यात भागहानिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकों के जानना चाहिये । तथा मनुष्य त्रिकके पंचेन्द्रिय तिर्यंच त्रिक के समान काल है । इतनी विशेषता है कि इनके संख्यात भागहानि और असंख्यातगुणद्दानिका काल ओघ समान है ।
विशेषार्थ - असंख्यात भागवृद्धि अद्धाक्षय और संक्लेशक्षय दोनों से प्राप्त हो सकती है किन्तु संख्यात भागवृद्धि और संख्यात गुणवृद्धि केवल संक्लेशज्ञयसे ही प्राप्त होती है अतः नारकियों में असंख्यात भागवृद्धिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय तथा शेष दो वृद्धियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय बन जाता है । इसी प्रकार संख्यात भागद्दानि और संख्यातगुणहानि अन्तिम काण्डककी अन्तिम फालिके पतन के समय ही होती है अतः इनका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । नरकमें असंख्यात भागद्दानिका जघन्य काल एक समय ओघ के समान घटित कर लेना चाहिये। जिस नारकीने नरकमें उत्पन्न होने के अन्तर्मुहूर्त काल बाद वेदक सम्यक्त्व को प्राप्त कर लिया है और जब में अन्तर्मुहूर्त काल
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [द्विदिविहत्ती ३ २६२. देव० तिण्णि वड्डी दो हाणी अवहि० णिरोघं । असंखे०भागहाणी के ? ज० एगसमो, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि । भवण-वाण-जोइसि०. एवं चेव । णवरि असंखे भागहाणी के० ? ज० एगसमओ, उक्क० सगुक्कस्सहिदी देसूणा । सोहम्मादि जाव सहस्सार त्ति एवं चेव । णवरि असंखे०भागहाणी के० ? जह• एगसमओ, उक्क० सग०हिदी। आणदादि जाव उवरिमगेवज्ज त्ति असंखेज्जभागहाणी के० ? ज० अंतोमु०, उक्क० समक्कस्सहिदी । संखेज्जभागहाणी के० ? जहण्णुक्क० एगसमओ। अणुदिसादि जाव सव्वदृसिद्धि त्ति एवं चेव ।
२६३. इंदियाणुवादेण एइंदिएमु असंखे भागवड्डी के० ? जह० एगसमओ, उक्क० वे समया। असंखेज्जभागहाणी के० ? जह एगसमओ, उक्क०
शेष रह गया तब उसका त्याग किया है उसके असंख्यात भागहानिका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर पाया जाता है। शेष कथन सुगम है। प्रथमादि नरकोंमें असंख्यातभागहानिके उत्कृष्ट कालको छोड़कर शेष कथन इसी प्रकार जानना। किन्तु असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण जानना। यहां कुछ कमसे भव अन्तम हत काल लेना चाहिये। जो तियच तीन पल्यकी आयुके साथ उत्तम भोगभूमिमें उत्पन्न होता है उसके असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य प्राप्त होता है। पंचेन्द्रिय तिथंच त्रिकके संख्यात भागवृद्धि और संख्यात गुणवृद्धि संक्लेशक्षयसे ही प्राप्त होगी अतः यहां इनका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । लब्ध्यपर्याप्त पंचेद्रिय तियेचका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा । श्रोघसे संख्यात भागहानि और असंख्यात गुणहानिका जो उत्कृष्ट काल कहा है वह मनुष्य पर्याय में ही बनता है अतः मनुष्यत्रिक के उक्त दो हानियोंका काल ओघके समान कहा । इस प्रकार अोघप्ररूपणाका और नरकादि तीन गतियोंका जो खुलासा किया है उसीसे आगेकी मार्गणाओं में जहाँ जितनी हानि और वृद्धियाँ सम्भव हों उनके कालका खुलासा हो जाता है अत: आगे नहीं लिखा जाता है । हाँ जहाँ कुछ विशेषता होगी वहाँ अवश्य निर्देश कर देंगे।
२६२. देवोंमें तीन वृद्धियों, दो हानियों और अवस्थितविभक्तिका काल सामान्य नारकियों के समान है। तथा असंख्यातभागहानिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय
और उत्कृष्ट काल तेसीस सागर है। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंके भी इसी प्रकार जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनके असंख्यातभागहानिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । सौधर्म कल्पसे लेकर सहस्रार कल्पतक भी इसी प्रकार जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके असंख्यात भागहानिका कितना काल है ? जवन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । आनत कल्पसे लेकर उपरिम प्रैवेयक तक के देवोंमें असंख्यात भागहानि का कितना काल है ? जघन्य काल अन्तर्महूर्त और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। संख्यातभागहानिका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंके इसी प्रकार जानना चाहिये।
६२६३. इन्द्रिय मार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियोंमें असंख्यात भागवृद्धिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है। असंख्यात भागहानिका कितना
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गा० २२] द्विदिविहत्तीए वड ढीए कालो
१४५ पलिदो० असंखे०भागो। दो हाणी केव० ? जहएणुक्क० एगसमओ। अवहि० ओघं । एवं बादरेइंदिय-बादरइदियपज्जत्तापज्जत्त-मुहमेई दिय-महुमेइदियपज्जत्तापज्जत्ताणं । णवरि असंखे०भागहाणी के• ? जह० एगसमो, उक्क० बादरेइंदिय-मुहुमेइ दिएसु पलिदो० असंखे०भागो। बादरेइ दियपज्जरोसु संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । अण्णत्थ अंतोमुहु ।
$ २६४. विगलिंदिएसु असंखेज्जभागवडी अोघं । संखे भागवडी दो हाणी० अवहिदाणं णिरोघभंगो। असंखेज्जभागहाणी केव० ? जह० एगसमओ, उक्क० सगहिदी । पंचिदिय०-पर्चि०पज्ज. मणसभंगो। णवरि असंखे०भागहाणी० ओघं। पंचिंदियअपज्ज०-तसअपज्ज. पंचिंदियतिरिक्ख अपज्जत्तभंगो । णवरि तसअपज्ज० संखे०भागवडी संखे०गुणवडी० मोघं ।
२६५. पंचकाय-बादर-सुहुमाणमेइदियभंगो । तेसिं पज्जत्तापज्जत्ताणमेवं चेव । वरि असंख०भागहाणी० के० ? ज० एगसमओ, उक्क० सगहिदी।
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काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। दो हानियोंका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है। तथा अवस्थितविभक्तिका काल ओघके समान है। इसी प्रकार बाहर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके असंख्यातभागहानिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल बादर एकेन्द्रिय और सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें संख्यात हजार वर्ष है तथा इनके अतिरिक्त शेष बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंमें अन्तमुहूर्त काल है।
___$ २६४. विकलेन्द्रियोंमें असंख्यात भागवृद्धिका काल ओघके समान है । संख्यात भागवृद्धि, दो हानि और अवस्थितविभक्तिका काल सामान्य नारकियों के समान है। तथा असंख्यातभागहानिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है । पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों के मनुष्योंके समान जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनके असंख्यातभागहानिका काल ओघके समान है । पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक और त्रस अपर्याप्तकों के पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि बस अपर्याप्तकोंके संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धि का काल ओके समान है।
$ २६५ पांचों स्थावरकाय, पाँचों स्थावरकाय बादर और पाँचों स्थावरकाय सूक्ष्म जीवोंके एकेन्द्रियोंके समान जानना चाहिये। तथा पाँचों स्थावरकाय बादर और सूक्ष्मोंके जो पर्याप्त
और अपर्याप्त भेद हैं उनके भी इसी प्रकार जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके असंख्यात भागहानिका काल कितना है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है।
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अपधवलासहिदे कसायपाहुडे
[द्विदिविहत्ती ३ २६६. पंचमण०-पंचवचि० असंखेजभागहाणी० अवहि० के० ? जह० एगसमो, उक्क अंतोमु० । संखे० भागहाणी० ओघं । सेसा० मणुसभंगो। कायजोगि० तिण्णि वडी० तिणि हाणी. अवहि० ओघं। असंखे०भागहाणी एइंदियभंगो । ओरालि० मणजोगिभंगो। गवरि असंखे०भागहाणी० के० ? जह. एगसमओ, उक्क० बावीसवस्ससहस्साणि देसणाणि । ओरालियमिस्स० संखे० भागवडी असंखे भागवड्डी अवडि० अोघं । संखे गुणवड्डी तिण्णि हाणी पंचिंदियअपज्जत्तभंगो। वेउव्वियकायजोगि० तिण्णि वड्डी तिण्णि हाणी अवहि० णिरश्रोधं । णवरि असंखेजभागहाणी जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । एवं वेउव्वियमिस्स० । आहार० असंखे भागहाणी के० १ जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । एवमकसाय० - जहाक्खाद० । आहारमि० असंखे०भागहाणी के० ? जहएणुक्क० अंतोमु० । एवमुवसम० । णवरि संखेजभागहाणी जहएणुक० एगस० । कम्मइय० दो वड्डी दो हाणी के० १ जहण्णुक० एगसमओ । असंखे०भागवड्डी हाणी ज० एगसमओ, उक्क० वे समया। अवडि० ज० एगसमो, उक्क तिण्णि समया ।
६२६६. पाँचों मनोयोगी और पाँचों वचनयोगी जीवोंमें असंख्यातभागहानि और अवस्थितका काल कितना है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा संख्यातभागहानिका काल ओवके समान है। तथा शेषका काल मनुष्यों के समान है। काययोगी जीवोंमें तीन वृद्धियों, तीन हानियों और अवस्थितविभक्ति का काल ओघके समान है। तथा असंख्यातभागहानिका काल एकेन्द्रियों के समान है। औदारिककाययोगियोंके मनोयोगियों के समान जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके असंख्यातभागहानिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम बाईस हजार वर्ष है। औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें संख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितविभक्तिका काल ओघके समान है। तथा संख्यातगुणवृद्धि और तीन हानियोंका काल पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके समान है। वैक्रियिककाययोगियोंमें तीन वृद्धियों, तीन हानियों और अबस्थितविभक्तिका काल सामान्यनारकियोंके समान है। इतनी विशेषता है कि इनके असंख्यात भागहानिका जवन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंके जानना चाहिये। आहारककाययोगियोंमें असंख्यातभागहानिका कितना काल है। जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार अकषायी और यथाख्यातसंयत जीवों के जानना चाहिये । आहारकमिश्रकाययोगियोंमें असंख्यातभागहानिका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार उपशमसम्यग्दृष्टियोंके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनके संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। कार्मणकाययोगियोंमें दो वृद्धियों और दो हानियोंका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। तथा असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है । तथा अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय है ।
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गा• २२ ]
safety asढी कालो
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§ २६७. वेदारणुवादेण इत्थि० तिण्णि बड्डी० दो हाणी० अवद्वि० णिरघं । असंखे ० भागहाणी के ० १ ज० एगसमत्रो, उक्क० पणवण्णपलिदोवमाणि देणाणि । असंखे० गुणहाणी के ० १ जहण्णुक्क० एगसमओ । एवं पुरिस० । णवरि असंखे ० भागहाणी ओघं । णव स० तिण्णि वड्ढी संखेज्जगुणहाणी असंखे० गुणहाणी अवडा० घं । संखे० भागहाणी जहरणुक० एगसमो 1 असंखे० भागहाणी० जह० एगसमओ, उक्क० तेत्तीस सागरोवमाणि देणाणि । अवगद ० असंखे० भागहाणी के ० १ जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । संखे० भागहाणी संखे० गुणहाणी श्रघं । $ २६८. चत्तारिकसा० तिष्णि वड्ढी तिण्णि [ हाणी ] असंखेज्जगुणहाणी वाणं सगभंगो। णवर असंखे० भागहाणी के० १ जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । लोभकसाय० असंखे० भागहाणी श्रघं ।
$ २६६. मदि - सुदाण्णारण० तिण्णि वड्ढी तिष्णि हाणी अवद्वा० तिरिक्खोघं । वर असंखे० भागहाणी जह० एयसमत्रो, उक्क० एक्कत्तीस सागरोमाणि सादिरेयाणि । [ एवं मिच्छाइद्वीणं ।] विहंग० सत्तमपुढविभंगो । वरि असंखे ० भागहाणी जह० एगसमओ, उक्क० एक्कत्तीस सागरोवमाणि देणाणि ।
$ २६७. वेदमार्गंणाके अनुवाद से स्त्रीवेदियों में तीन वृद्धियों, दो हानियों और अवस्थित विभक्ति काल सामान्य नारकियों के समान है । तथा असंख्यात भागहानिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम पचवन पल्य है । तथा असंख्यातगुणहानिका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है । 'इसी प्रकार पुरुषवेदियोंके जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि इनके असंख्यात भागहानिका काल ओघके समान है । नपुंसकवेदियों में तीन वृद्धियों, संख्यातगुणहानि, असंख्यातगुणहानि और अवस्थितविभक्तिका काल ओघ के समान है । तथा संख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । तथा असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्टकाल कुछ कम तेतीस सागर है । अपगतवेदियों में असंख्यात भागहानिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा संख्यातभागहानि और संख्यातगुणहानिका का घ समान है ।
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$ २६८. क्रोधादि चारों कषायवाले जीवों में तीन वृद्धियों, तीन हानियों, असंख्यात हान और अवस्थितविभक्तिका काल नपुंसकवेदियों के समान है । इतनी विशेषता है कि इनके असंख्यात भागहानिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा लोभकषायवाले जीवोंके असंख्यात भागहानिका काल ओघ के समान है । $ २६६. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंके तीन वृद्धियों, तीन हानियों और अवस्थितविभक्तिका काल सामान्य तिर्यञ्चों के समान है । इतनी विशेषता है कि इनके असंख्यात भागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक इकतीस सागर है । इसी प्रकार मिध्यादृष्टियों के जानना चाहिये । विभंगज्ञानियोंके सातवीं पृथिवीके समान जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके असंख्यात भागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम इकतीस सागर है।
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१४८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[हिदिविहत्ती ३ २७०. आभिणि०-सुद०-श्रोहि० असंखे भागहाणी के० १ ज. अंतोमुहत्त, उक्क० छावहिसागरो० देसूणाणि । तिण्णि हाणी अोघं । एवमोहिदंससम्मादि० । मणपज्ज० असंखे०भागहाणी जह० एयसमो, उक्क. पुव्वकोडी देमूणा । तिण्णि हाणी ओघं । एवं संजद० । सामाइय-छेदो०संजदाणमेवं चेव । णवरि संखेजभागहाणीए कालो जहण्णुक्क० एगसमत्रो । परिहार-संजदासंजद० असंखे०भागहाणी जह० अंतोमुहुर्त, उक्क० सगहिदी । संखे०भागहाणी० जहण्णुक० एगसमओ। सुहुम० अवगदवेदभंगो । असंजद० णवुसयभंगो। णवरि असंखेजभागहाणीए कालो जह० एगसमो, उक्क० तेत्तीसं सागरो० सादिरेयाणि । असंख०गुणहाणीवि० रात्थि । चक्खु० तसपज्जत्तभंगो। णवरि संखे०भागवड्ढी जहण्णुक्क० एगसमो।
२७१. किण्ह-णील-काउले० असंजदभंगो। णवरि असंखे० भागहाणीए जह० एगसमो, उक्क० सग हिदी देसूणा । तेउ० सोहम्मभंगो। पम्म० सणक्कुमारभंगो । सुक्क० असंखे०भागहाणीए जह० एगसमओ, उक्क० तेत्तीसं सागरो० सादिरेयाणि । तिण्णि हाणी ओघं । एवं खइय० । णवरि असंखे० भागहाणी ज०
२७०. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंके असंख्यात भागहानिका कितना काल है ? जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम छयासठ सागर है। तथा तीन हानियोंका काल ओघके समान है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी और सम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए । मनःपर्ययज्ञानी जीवोंके असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय
और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है। तथा तीन हानियोंका काल ओघके समान है। इसी प्रकार संयत जीवोंके जानना चाहिये। सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंके भी इसी प्रकार जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवोंके असंख्यातभागहानिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। तथा संख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। सूक्ष्मसांपरायिकसंयत जीवोंके अपगतवेदियोंके समान जानना चाहिये। असंयतोंके नपुंसकवेदियोंके समान जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनके असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। असंयतोंके असंख्यातगुणहानि नहीं पाई जाती है। चक्षदर्शनवाले जीवोंके सपर्याप्तकोंके समान जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनके संख्यातभागवृद्धिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है।
६ २७१. कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले जीवोंके असंयतोंके समान जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। पीतलेश्यावाले जीवोंके सौधर्म कल्पके समान जानना चाहिये । पद्मलेश्यावाले जीवोंके सानत्कुमार कल्पके समान जानना चाहिये । शुक्ल लेश्यावाले जीवों के असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। तथा तीन हानियोंका काल अोधके समान है। इसी प्रकार क्षायिकसम्यग्दृष्टि
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गा० २२ ]
हिदिविहत्तीए वड ढीए अंतरं
१४६
अंतोमुहुत्तं, उक्क० तेत्तीसं साग० सादिरेयाणि । वेदय० असंखे ० भागहाणी ० आभिणि०भंगो । संखे० भागहाणी संखेज्जगुणहाणी जहराणुक० एगसमओ ।
९ २७२ सासण० असंखे ० भागहाणी ० जह० एगसमओ, उक्क० छ आवलियाओ । सम्मामि० असंखे ० भागहाणी जह० एयसमत्रो, उक्क० अंतमहुतं । वे हाणी ० वेदयभंगो । सण्णि० पंचिदियभंगो । असण्णि० दो बड्ढी संखे० गुणहाणी ० वडि० श्रघं । संखे० गुणवड्ढी संखे० भागहाणी जहरणुक्क० एगसमओ | असंखे० भागहाणी एइंदियभंगो | अभव० मदि० भंगो । आहारि ० दो वड्डी चत्तारि हाणी अव०ि ओघभंगो । संखे० गुणवड्ढी जहरपुक्क० एस० । अणाहारि० कम्मइय० भंगो |
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एवं कालानुगमो समत्तो ।
$ २७३. अंतरागमेण दुविहो णिद्द ेसो- ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण असंखेज्जभागवड्डी॰ अवहि० अंतरं केव० १ ज० एगसमओ, उक्क० तेवहिसागरोवमसदं अंतोमुहुत्तब्भहियतीहि पलिदोवमेहि सादिरेयं । दो वड्ढी० दो हाणी ० जह० एयसमओ अंतोमु०, उक्क० अनंतकालमसंखेज्जा पोरगलपरियट्टा । असंखे० भाग
जीवों जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि असंख्यात भागहानिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है । वेदकसम्यग्दृष्टि जीवों के असंख्यात भागहानिका काल आभिनिबोधिकज्ञानियोंके समान है । तथा संख्यात भागहानि और संख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है ।
९ २७२. सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके असंख्यात भागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल छह आवली है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके असंख्यात भागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । तथा दो हानियोंका काल वेदकसम्यग्दृष्टियोंके समान है। संज्ञी जीवों के पंचेन्द्रियोंके समान जानना चाहिये । असंज्ञी जीवोंके दो वृद्धियों, संख्यात
हा और अवस्थितविभक्तिका काल ओघ के समान है । तथा संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है और असंख्यात भागहानिका काल एकेन्द्रियों के समान है । अभव्य जीवोंके मत्यज्ञानियोंके समान जानना चाहिये । आहारक जीवोंके दो वृद्धियों, चार हानियों और अवस्थितविभक्तिका काल के समान है तथा संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनाहारक जीवों के कार्मण काययोगियों के समान जानना चाहिये ।
इस प्रकार कालानुगम समाप्त हुआ ।
$ २७३. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ निर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघकी अपेक्षा असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थितविभक्तिका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तर काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त और तीन पल्योंसे अधिक एक सौ त्रेसठ सागर है । तथा दो वृद्धियों और दो हानियोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्त काल है जो असंख्तात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण
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हाणी ० जह० एयसमओ, उक्क० मुहुतं । एवमचक्खु ० - भवसि० ।
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ द्विदिहिती ३
अंतोमु० । सं० गुणहाणी० जहण्णुक्क० अंतो
है । तथा असंख्यात भागहानिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । तथा असंख्यात गुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार अचतुदर्शनवाले और भव्य जीवोंके जानना चाहिये ।
विशेषार्थ - जब असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थित स्थितिके मध्य में एक समय तक अन्य स्थितिविभक्ति प्राप्त हो जाती है तब इनका जघन्य अन्तरकाल एक समय प्राप्त होता है । तथा असंख्यात भागहानि और संख्यातभागहानिका मिला कर उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त और तीन पल्य अधिक एक सौ त्रेसठ सागर हैं, अतः असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थितका उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त प्रमाण प्राप्त होता है। जब कोई दो इन्द्रिय जीव पहले समय में संख्यात भागवृद्धि करता है, दूसरे समय में अवस्थित स्थितिको प्राप्त होता है और तीसरे समय में मरकर तथा तेइन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर पुनः संख्यात भागवृद्धि करता है तब संख्यातभागवृद्धिका जघन्य अन्तर काल एक समय प्राप्त होता है, अतः संख्यात भागवृद्धिका जघन्य अन्तरकाल एक समय कहा । जो एकेन्द्रिय जीव दो मोड़ा लेकर संज्ञी पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न होता है उसके पहले मोड़े के समय संख्यातगुणवृद्धि होती है। दूसरे मोड़ेके समय अन्य स्थिति होती है और तीसरे समय में पुनः संख्यातगुणवृद्धि होती है अतः संख्यातगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर काल एक समय कहा । जिस जीवके स्थिति काण्डककी चरम फालिके पतनके समय संख्यातभागहानि हुई पुनः अन्तर्मुहूर्तं कालके बाद अन्तिम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके पतन के समय संख्यातभागहानि होती है अतः संख्यात भागहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्तं कहा । तथा उसी जीवके दूरापकृष्टि प्रमाण स्थिति के उपरिम द्विचरम स्थिति arrant अतिम फालिके पतन के समय संख्यातगुणहानि होती है । पुनः अन्तमुहूर्त कालके बाद अन्तिम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके पतन के समय संख्यातगुणहानि होती है अतः संख्यात गुणहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा । तथा उक्त दानों वृद्धियों और दोनों हानियोंका उत्कृष्ट अन्तर काल असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण पाया जाता है, क्योंकि जिस जीवने संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याय में उक्त दो वृद्धियां और दो हानियां कीं पुनः जो मरकर एकेन्द्रियों में उत्पन्न हुआ और वहां असंख्यात पुद्गल परिवर्तन काल तक परिभ्रमण करता रहा । तत्पश्चात् वहां से निकलकर जो संज्ञियोंमें उत्पन्न हुआ और संज्ञी पर्याय में जिसने पुनः दो वृद्धियां और दो हानियां की उसके उक्त दो वृद्धियों और दो हानियोंका उत्कृष्ट अन्तर काल असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण पाया जाता है । एक समय के अन्तर से असंख्यात भागहानिका होना सम्भव है, अतः असंख्यात भागहानिका जवन्य अन्तर एक समय कहा । तथा अवस्थित स्थितिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अब यदि असंख्यात भागहानिको अवस्थित स्थिति से अन्तर्मुहूर्त काल तक अन्तरित कर दिया जाय तो असंख्यात भागहानिका उत्कृष्ट अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त हो जाता है । अनिवृत्तिकरण क्षपककें सवेद भाग में स्थिति काण्डककी अन्तिम फालिके पतनके समय
संख्यातगुणहानि होती है पुनः अन्तमुहूर्त के बाद दूसरे स्थिति काण्डककी अन्तिम फालिके पतनके समय असंख्यातगुणहानि होती है, अतः असंख्यातगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्तं प्राप्त होता है। अचतुदर्शन और भव्य मार्गणा में यह ओघ प्ररूपणा बन जाती है. अतः इनके कथनको ओघ के समान कहा ।
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गा० २२] हिदिविहत्तीए वड ढीए अंतर
__. १५१ ६ २७४. आदेसेण णेरइय० असंखे०भागवड्ढी अवहि. जह० एगसमओ। दो वडी० दो हाणी० जह० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीससागरो० देमूणाणि । असंखे० भागहाणी० अोघं । पढमादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेत्र । णवरि सगसगुकस्सहिदी देसूणा ।
२७५. तिरिक्खेसु असंखेजभागवडी अवहि० जह० एगसमो, उक्क० पलिदो० असंखे भागो। दो वडि-दोहाणी० असंखे० भागहाणी० ओघं । पंचि० तिरिक्वतियम्मि असंखे०भागवडी० अवहि० ज० एगसमओ। दो वड्री. संखे० गुणहाणी ज० अंतोमुहु। उक्क० सव्वेसि पि पुव्वकोडिपुध। असंखेजभागहाणी० ओघं । संख०मागहाणी ज. अंतोमहुत्, उक्क० तिषिण पलिदोवमाणि अंतोमहुत्तब्भहियाणि । एवं मणुसतिय० । णवरि जम्हि पुत्रकोडिपुत्त तम्हि पुवकोडी देसूणा । असंख०गणहाणी० ओघं । पंचिंतिरिक्खअपज. असंखे० भागवड्डी० हाणी अवहि० जह० एगसमयो । दो वड्डी० दो हाणी० जह० अंतोमु०। उक्क० सव्वेसिमंतोमहुत्त । एवं मणुसअपज्ज-पंचिं० अपज्ज०-तसअपज्ज-विहंग । णवरि तसअपज्ज. दोवडी० जह• एगसमो।
२७४. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंके असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय तथा दो वृद्धियों और दो हानियोंका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। तथा उपर्युक्त सभीका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागर है। तथा असंख्यात भागहानिका अन्तरकाल ओघके समान है। पहली पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनके कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति कहनी चाहिये।
६ २७५. तिर्यञ्चोंमें असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा दो वृद्धियों, दो हानियों और असंख्यातभागहानिका अन्तरकाल ओघके समान है। पंचेन्द्रियतियश्चत्रिकमें असंख्यातभागवृद्धि और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय तथा दो वृद्धियों और संख्यातगुणहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्व है। असंख्यात भागहानिका अन्तरकाल ओघके समान है तथा संख्यात भागहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त अधिक तीन पल्य है। इसी प्रकार मनुष्यत्रिकके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकके जहाँ पूर्वकोटि पृथक्त्व कहा है वहाँ मनुष्यत्रिकके कुछ कम पूर्वकोटि कहना चाहिये। तथा असंख्यातगुणहानिका अन्तरकाल ओघके समान है । पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय है तथा दो वृद्धियों और दो हानियोंका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। तथा उक्त सभीका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तक, पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक, त्रस अपर्याप्तक और विभंगज्ञानियोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि त्रस अपर्याप्तकोंके दो वृद्धियोंका जघन्य अन्तर काल एक समय है।
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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ द्विदिविहत्ती ३
$ २७६. देव० असंखेज्जभागवड्डी० अवहि० जह० एगसमश्री, दो बड्डी० संखेज्जगुणहाणी ० जह० अंतोमुहुत्तं, एक० अहारस सागरोवमाणि सादिरेयाणि । संखेज्जभागहाणी ० जह० अंतोमु०, उक्क० एकतीसं सागरो० देभ्रूणाणि । असंखे० भागहाणी० जह० एयसमओ, उक्क० अंतोमु० । भवणादि जाव सहस्सार त्ति एवं चैव । णवरि सगसगुकस्सहिदी देणा । आणदादि जाव उवरिमगेवज्जे त्ति असंखे ० भागहाणीए जहष्णुक० एगसम । संखे० भागहाणीए जह० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी देणा । अणुद्दिसादि जाव सव्वहति असंखे० भागहाणी० जहण्णुक्क० एग समओ । संखे० भागहाणी० जहण्णुक्क० अंतोमु० ।
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$ २७६. देवोंमें असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय है तथा दो वृद्धियों और संख्यात गुणहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक अठारह सागर है । तथा संख्यात भागहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागर है । तथा असंख्यात भागहानिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । भवनवासियों से लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंके इसी प्रकार जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति कहनी चाहिये । आनत कल्पसे लेकर उपरिम ग्रैवेयक तकके देवों में असंख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है । तथा संख्यात भागहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंके असंख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय तथा संख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल मुहूर्त है।
विशेषार्थ - नरक में स्वस्थानकी अपेक्षा संख्यातभाग वृद्धि और संख्यातगुणवृद्धि संक्लेश क्षयसे एक समय तक होती है और पुनः इनका होना अन्तर्मुहूर्त कालके बिना सम्भव नहीं है, अतः इनका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा । तथा नरक में असंख्यात भागहानिका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है, अतः असंख्यात भागहानिको छोड़कर शेष सबका उत्कृष्ट अन्तर काल उक्त प्रमाण कहा । तिर्यंचों में असंख्यात भागहानिका उत्कृष्ट काल यद्यपि साधिक तीन पल्य है पर ऐसे जीवके तिर्यंच पर्यायके रहते हुए असंख्यात भागवृद्धिका उत्कृष्ट अन्तरकाल सम्भव नहीं किन्तु तिर्यंचों में एकेन्द्रियों के जो असंख्यात भागहानिका उत्कृष्ट काल पल्के असंख्यातवें भाग प्रमाण बतलाया है वही इनके असंख्यात भागवृद्धिका उत्कृष्ट अन्तरकाल जानना चाहिये । तिर्यंचत्रिक में स्वस्थानकी अपेक्षा संख्यात भागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धि एक समय तक होकर पुनः अन्तनहीं हो सकती हैं अतः इन दोनोंका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा । तथा तिर्यंच त्रिकके असंख्यात भागहानिका उत्कृष्ट काल यद्यपि साधिक तीन पल्य बतलाया है। किन्तु ऐसा जीव मरकर पुनः तिर्यंच पर्याय में नहीं आता, अतः तिर्यंच त्रिकके असंख्यात भागहानिका जो उत्कृष्ट काल है वह तीन वृद्धि, संख्यातगुणहानि और अवस्थितका उत्कृष्ट अन्तरकाल नहीं हो सकता किन्तु इनके संज्ञी अवस्था में उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होकर असंज्ञयों में उत्पन्न हो जानेसे असंख्यात भागहानि प्रारंभ हो जाती है । पुनः असंज्ञयों में अपने अपने संज्ञियोग्य उत्कृष्ट काल तक, जो क्रमशः ४६, १५ व ७ कोटि पूर्व भ्रमण किया । तथा वहाँ अपनी अपनी असंज्ञी पर्यायके
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गा• २२.] हिदिविहत्तीए षड्ढीए अंतर
१५३ $ २७७. एइंदिएमु असंखे भागवडी० हाणी० अवहि. जह० एयसमो, उक्क० अंतोमु० । दो हाणी० णत्थि अंतरं । एवं पंचकायाणं । विगलिंदिएसु असंखे०भागवडी हाणी अवहि० जह० एयसमओ, उक० अंतोमु० । संखे०भागवडी. संखे०भागहाणी० जहण्णुक्क० अंतोमहुत्त । संखे० गुणहाणी० पत्थि अंतरं । प्रारम्भमें उक्त तीन वृद्धियां, संख्यात गुणहानि और अवस्थित स्थितिका अन्तर करके उक्त पूर्व कोटि प्रथक्त्व काल तक असंख्यात भागहानिके साथ रहा। और संज्ञियोमें उत्पन्न होकर पुनः तीन वृद्धियां, संख्यातगुण हानि और अवस्थित स्थिति प्राप्त हो गई तब जाकर इनका उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटि पृथक्त्व प्रमाण ही प्राप्त होता है । जिस तिथंचने प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करते समय संख्यातभागहानि की । पुनः मिथ्यात्वमें जाकर और अन्तमुहूर्त काल के बाद जो तीन पल्यकी आयुके साथ उत्तम भोगभूमिमें उत्पन्न हुआ और जीवनमें अन्तमुहूर्त कालके शेष रह जाने पर जिसने पुनः प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करके संख्यात भागहानि की उसके संख्यात भागहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त अधिक तीन पल्य प्रमाण पाया जाता है। मनुष्यत्रिकके असंख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल तियेच त्रिकके समान ही है पर इनके भी असंख्यात भागवृद्धि आदिका उत्कृष्ट अन्तरकाल तत्प्रमाण नहीं हो सकता क्योंकि तिर्यंचत्रिकके समान यहां भी वही बाधा आती है । अब यदि कहा जाय कि जिस प्रकार तिथंच त्रिकके इनका उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटि पृथक्त्व प्रमाण बतला आये हैं उसी प्रकार मनुष्यों के भी घटित हो जायगा सो भी बात नहीं है, क्योंकि मनुष्योंमें असंज्ञी न होनेके कारण सम्यक्त्व की अपेक्षा भुजगार और अवस्थित स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण बतलाया है अतः यहां असंख्यात भागवृद्धि आदिका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पूर्वकोटि प्रमाण ही कहा है। जो पंचेन्द्रिय तियेच अपर्याप्त स्थितिघात करता है उसके एक काण्डककी अन्तिम कालिके पतनके समय संख्यातभागहानि या संख्यातगुणहानि हुई । पुनः अन्तर्मुहूर्तकालके बाद दूसरे काण्डककी अन्तिम फालिके पतनके समय संख्यात भागहानि या संख्यात गुणहानि होगी अतः पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंमें इनका जघग्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा । किन्तु बस अपर्याप्तकोंमें विकलत्रय भी सम्मिलित हैं, अतः इनके संख्यातभागवृद्धिका जघन्य अन्तर काल एक समय भी बन जाता है । देवोंमें बारहवें स्वर्गके बाद असंख्यातभागवृद्धि संख्यातभागवृद्धि, संख्यात गुणवृद्धि, संख्यात गुणहानि और अवस्थित स्थिति नहीं पाई जाती अतः इनका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक अठारह सागर कहा । तथा नौ ग्रैवेयकके देव सम्यग्दर्शनको प्राप्त करके पुनः मिथ्यात्वमें और मिथ्यात्वसे सम्यक्त्वमें जा सकते हैं और इस प्रकार उनके पुनः अनन्तानुबन्धीका सत्त्व और उसकी विसंयोजना हो सकती है, अतः सामान्य देवोंके संख्यात भागहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागर कहा । शेष कथन सुगम है।
६२७७. एकेन्द्रियोंमें असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्महूर्त है। तथा दो हानियोंका अन्तरकाल नहीं है । इसी प्रकार पाँच स्थावरकायिक जीवोंके जानना चाहिये। विकलेन्द्रियोंमें असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर काल अन्तमुहूर्त है। संख्यात भागवृद्धि और संख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । तथा संख्यात गुणहानिका अन्तरकाल नहीं है।
विशेषार्थ-एकेन्द्रियोंमें असंख्यात भागहानिका उत्कृष्ट काल जो पल्यके असंख्यातवें
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [ हिदिविहत्ती ३ २७८. पंचिंदिय-पंचि०पज० असंखे भागवडी० अवडि• अंतरं के ? जह• एगसमओ, उक्क० तेबहिसागरोवमसदं अंतोमुहुत्तभहियतीहि पलिदोवमेहि सादिरेयं । असंखे० भागहाणि० अंतरं ज० एगसम०, उक्क० अंतोमु० । दोवड्ढी-दोहाणीणं ज० अंतोमु०, उक्क० तेवहिसागरोवमसदं सादिरेयं । असंखे०गुणहाणी• जहण्णुक्क० अंतोम० । एवं तस-तसपज्जत्ताणं । णवरि दो वड्ढी० जह० एगसमओ।
भागप्रमाण बतलाया सो इतने काल तक असंख्यात भागहानि उन एकेन्द्रियोंके पाई जाती है जिनकी स्थिति एकेन्द्रियोंकी उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे बहुत ही अधिक होती है और इसलिये ऐसे जीवके असंख्यात भागवृद्धि, या अवस्थित या इनका अन्तरकाल यह कुछ भी सम्भव नहीं। किन्तु असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यातं भागहानि या अवस्थितविभक्तिका अन्तर काल उन एकेन्द्रियोंके पाया जाता है जिनका स्थितिसत्त्व एकेन्द्रियोंके स्थितिबन्धके योग्य रह जाता है
और इस प्रकार इनका जघन्य अन्तरकाल एक समय तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त प्रमाण बन जाता है। तथा जिस संज्ञी पंचेन्द्रियने संख्यात भागहानि या संख्यात गुणहानिका प्रारम्भ किया है वह यदि स्थितिकाण्डकके उत्कीरण कालको समाप्त करनेके पहले मरकर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हो जाय तो उस एकेन्द्रिय जीवके संख्यात भागहानि या संख्यात गुणहानि पाई जाती है अतः एकेन्द्रियके इनका अन्तरकाल नहीं प्राप्त होता। विकलत्रयोंमें संख्यात भागवृद्धि भी सम्भव है अतः इनके अपने स्थितिबन्धके योग्य स्थितिके रहते हुए भी संख्यात भागहानि हो सकती है पर इस प्रकार संख्यात भागवृद्धि और संख्यात भागहानि अन्तर्मुहूर्तके पहले नहीं होती, अतः इनका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त कहा । शेष कथन सुगम है।
२७८. पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तक जीवोंमें असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थितविभक्तिका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुंहूते और तीन पल्य अधिक एकसौ त्रेसठ सागर है। असंख्यात भागहानिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है। दो वृद्धियों और दो हानियोंका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक एकसौ त्रेसठ सागर है । तथा असंख्यात गुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार त्रस और त्रस पर्याप्तक जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके दो वृद्धियोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है।
विशेषार्थ-पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवके संख्यात भागवृद्धि, संख्यात गुणवृद्धि, संख्यात भागहानि और संख्यात गुणहानिका जो उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक एकसौ ब्रेसठ सागर बतलाया है सो यहां दोनों वृद्धियों और संख्यात गुणहानिके अन्तरकालका कथन करते समय साधिकसे तीन पल्य और अन्तर्मुहूर्त कालका ग्रहण करना चाहिये तथा संख्यात भागहानिके अन्तरकालका कथन करते समय साधिकसे पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि पहले असंख्यात भागहानिका जो पल्यका असंख्यातवां भाग अधिक एकसौ त्रेसठ सागर प्रमाण उत्कृष्ट काल बतला आये हैं वह यहां संख्यात भागहानिका उत्कृष्ट अन्तर काल है और जो अल्पतर स्थितिका अन्तमुहूर्त और तीन पल्य अधिक एकसौ त्रेसठ सागरप्रमाण उत्कृष्ट काल बतला आये हैं वह यहां संख्यात भागवृद्धि, संख्यात गुणवृद्धि और संख्यात गुणहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल है। तथा उक्त जीवोंके उक्त दो वृद्धि और दो हानियोंका जघन्य अन्तरकाल जो अन्तर्मुहूर्त प्रमाण बतलाया है सो इसका कारण यह है कि स्वस्थानकी अपेक्षा उक्त स्थिति
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गा० २२ ]
हिदिविहत्तीए वड ढीए अंतर ६ २७६. पंचमण-पंचवचि० असंखे भागवड्ढी० अवहि० अंतरं के० १ ज० एगसमओ, उक्क० अंतोमु । असंखे०भागहाणी० ज० एगसगो, उक्क० अंतोमु० । सेसदोवड्ढी-तिण्णिहाणीणं णत्थि अंतरं । एवमोरालियकायजोगीणं ।
___$२८०. कायजोगीसु असंखे भागवड्ढी० अवहि० ज० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे भागो । असंख०भागहाणी० ज० एगसमो, उक्क० अंतोमु० । दोवड्ढी-दोहाणीणं जह० एगसमओ अंतोमु०, उक्क० अणंतकालमसंखजा पोग्गलपरियट्टा । असंख०गुणहाणी० णत्थि अंतरं । ओरालियमिस्स० असंख०भागवड्ढी० अवहि० ज० एगसमो, उक० अंतोमु० । असंखजभागहाणी० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । संखे०भागवड्ढी जह० एगसमओ, उक्क० अंतोम० । दोहाणी. सं०गुणवड्ढी० जह० अंतोम०, उक्क० अंतोम० । वेउविय० असंखे०भागवड्ढी० हाणी अवहि० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । सेसदोवड्ढी-दोहाणीणं पत्थि अंतरं । वेउब्धियमिस्स० असंखे० भागवड्ढी हाणी• अवहि जह• एगसमो, उक्क० अंतोमु० । सेसपदेसु णत्थि अंतरं । कम्मइय० अवहि० ज० उ० एगसमओ । विभक्तियोंका इससे कम अन्तरकाल नहीं पाया जा सकता है। तथा त्रस और त्रस पर्याप्त जीवोंके संख्यात भागवृद्धि और संख्यात गुणवृद्धिका जघन्य अन्तरकाल जो एक समय बतलाया है सो यह परस्थानकी अपेक्षा जानना चाहिये जिसका खुलासा ओघ प्ररूपणाके समय कर आये हैं।
२७६. पाँचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवोंमें असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थितविभक्तिका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । असंख्यात भागहानिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है। तथा शेष दो वृद्धियों और तीन हानियों का अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार औदारिककाययोगी जीवोंके जानना चाहिये ।
२८०. काययोगियोंमें असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रेमाण है। असंख्यात भागहानिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है ।दो वृद्धियों और दो हानियोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और अन्तमुहूर्त तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। असंख्यात गुणहानिका' अन्तरकाल नहीं है। औदारिकमिश्र काययोगियोंमें असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है। संख्यात भागवृद्धिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है। तथा दो हानियों और संख्यात गुणवृद्धिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है। वैक्रियिककाययोगियोंमें असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है । तथा शेष दो वृद्धियों और दो हानियोंका अन्तरकाल नहीं है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है। तथा शेष पदोंका अन्तरकाल नहीं है। कामणकाययोगियोंमें अवस्थितविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है। तथा
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे सेसपदाणं णत्थि अंतरं । आहार-आहारमिस्स० असंखे०भागहाणी. पत्थि अंतरं । एवमकसा०-जहाक्खाद०-सासण० । अणाहारीणं कम्मइयभंगो ।
$ २८१. इत्थिवेद० असंखे० भागवड्ढी० अवहि० ज० एगसमओ । दो वड्ढी-दोहाणीणं जह• अंतोमु० । उक्क. पणवण्णपलिदोवमाणि देसणाणि । असंखे०भागहाणी-असंखे०गुणहाणीणमोघमंगो । पुरिस० पंचिंदियभंगो। णवंस० असंखे भागहाणी-अवडिदाणं णिरओघं । सेसपदाणमोघभंगो । एवमसंजद० । शेष पदोंका अन्तरकाल नहीं है। श्राहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें असंख्यात भागृहानिका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार अकषायी, यथाख्यातसंयत और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। अनाहारक जीवोंके कार्मणकाययोगियोंके समान जानना चाहिए।
विशेषार्थ-पांचों मनोयोगों और पांचों वचनयोगोंका तथा एकेन्द्रियोंको छोड़कर शेष जीवोंके औदारिक काययोगका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है और विवक्षित किसी एक योगके रहते हए संख्यात भागवृद्धि आदि तथा संख्यात भागहानि आदि दो बार सम्भव नहीं अतः इनके संख्यात भागवृद्धि और संख्यात गुणवृद्धि इन दो वृद्धियोंका तथा संख्यात भागहानि, संख्यात गुणहानि
और असंख्यातगुणहानि इन तीन हानियोंका अन्तरकाल नहीं प्राप्त होता। काययोगमें असंख्यात भाग हानिका जो उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है वही यहां असंख्यात भागवृद्धि
और अवस्थितका उत्कृष्ट अन्तरकाल जानना चाहिये । कोई एक त्रस जीव है उसने काययोगके रहते हुए संख्यात भागवृद्धि की । पुनः वह काययोगके साथ मर गया और एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर अनन्त काल तक घमता रहा । तदनन्तर वह त्रस हुआ और वहां उसने पुनः संख्यात भागवृद्धि की। इस प्रकार इस जीवके संख्यात भागवृद्धिका उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण प्राप्त हो जाता है । इसी प्रकार संख्यात गुणवृद्धि और दो हानियोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल यथायोग्य रीतिसे घटित कर लेना चाहिये । औदारिकमिश्रकाययोगका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है इसलिये इसमें सम्भव सब पदोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण ही प्राप्त होता है। वैक्रियिक काययोगका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है और एक योगके रहते हुए सख्यात भागवृद्धि
और संख्यात गुणवृद्धि इन दो वृद्धियोंका तथा संख्यात भागहानि और सख्यात गुणहानि इन दो हानियोंका दो दो बार होना सम्भव नहीं अतः वैक्रियिककाययोगमें इनका अन्तरकाल नहीं बतलाया। यही बात वैक्रियिकमिश्रकाययोगके सम्बन्धमें जानना चाहिये। कार्मणकाययोगमें अवस्थित पदका ही उत्कृष्ट काल तीन समय बतलाया है । अब यदि किसी कार्मणकाययोगीने पहले
और तीसरे समयमें अवस्थित स्थिति की तो उसके अवस्थितका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय पाया जाता है। यहां शेष पदोंका अन्तरकाल सम्भव नहीं। यही बात अनाहारकोंके जानना चाहिये । शेष कथन सुगम है।
२८१. स्त्रीवेदी जीवोंमें असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थित विभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और दो वृद्धियों और दो हानियोंका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है । तथा उक्त सभीका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पचवन पल्य है। तथा असंख्यात भागहानि और असंख्यात गुणहानिका अन्तरकाल ओघके समान है। पुरुषवेदियों के पंचेन्द्रियोंके समान जानना चाहिये । नपुंसकवेदियोंमें असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थितविभक्तिका अन्तरकाल सामान्य नारकियोंके समान है । तथा शेष पदोंका अन्तरकाल ओघके समान है। इसी प्रकार असंयत
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गा• २२]
द्विदिविहत्तीए वड ढीए अंतरं णवरि असंखे०गुणहाणी पत्थि । अवगद० असंखे भागहाणी जहण्णुक्क० एगसमो। दोहाणीणं जहण्णुक्क० अंतोम० । एवं सुहुमसांपराय।
२८२. चत्तारिकसाय० तिणि वडढी० असंखेज्जभागहाणी० अवहि. जह० एगसमओ, उक्क० अंतोम० । संखे०भागहाणी-संखे०गुणहाणी-असंखेज्जगुणहाणीणं जहण्णुक्क० अंतोमु०।
3 २८३. मदि-सुदअण्णाणीसु असंखेज्जभागवड्ढी [अवहि०] जह० एगसमो, उक्क० एक्कत्तीस सागरो० सादिरेयाणि । सेसमोघ । एवमभव०-मिच्छादिहि त्ति ।
२८४. आभिणि ० - सुद० - ओहि० असंखे०भागहाणी जहण्णक्क० एगसमयो । संख०मागहाणी जह० अंतोमुहुत्तं, उक्क० छावहिसागरोवमाणि देसूणाणि । जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके असंख्यात गुणहानि नहीं है। अपगतवेदियों में असंख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है। तथा दो हानियोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार सूक्ष्मसांपरायिकसंयत जीवोंके जानना चाहिये।
६२८२. क्रोधादि चारों कषायवाले जीवोंमें तीन वृद्धियों, असंख्यात भागहानि और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है। तथा संख्यात भागहानि, संख्यात गुणहानि और असंख्यात गुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है।
विशेषार्थ-देवीकी उत्कृष्ट आयु पचवन पल्यकी है। अब यदि किसी देवीने उत्पन्न होनेके अन्तमुहूर्त बाद सम्यग्दर्शनको प्राप्त कर लिया और जीवनमें अन्तमुहूर्त कालके शेष रहने पर वह मिथ्यादृष्टि हो गई तो उसके इतने काल तक असंख्यात भागहानि ही पाई जायगी अतः स्त्रीवेदमें असंख्यात भागवृद्धि, अवस्थित, संख्यात भागवृद्धि, संख्यात गुणवृद्धि, संख्यात भागहानि और संख्यात गुणहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पचवन पल्प बन जाता है. क्योंकि ये र पद सम्यक्त्वको ग्रहण करनेके पूर्व और बादमें सम्भव हैं। असंख्यात गुणहानि अनिवृत्ति क्षपकके ही होती है अतः असंयत जीवके इसका निषेध किया। अपगतवेदमें असंख्यात भागहानि जब संख्यातभागहानि या संख्यातगुणहानिसे एक समयके लिये अन्तरित होजाती है तब असंख्यात भागहानिका अन्तरकाल पाया जाता है जो कि जघन्य और उत्कृष्ट रूपसे एक समय प्रमाण ही होता है । तथा यहां संख्यात भागहानि और संख्यातगुणहानिका अन्तरकाल ओके समान घटित कर लेना चाहिये । किन्तु वहां जो जघन्य अन्तरकाल बतलाया है वही यहां जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल जानना चाहिये । अपगतवेदसे सूक्ष्मसाम्परायिक संयतके कोई विशेषता नहीं अतः .उसके कथन को अपगतवेदके समान जानना चाहिये । चारों कषायोंका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है अतः इनमें सम्भव पदोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण बन जाता है । शेष कथन सुगम है।
६२८३ मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थितका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक इकतीस सागर है। शेष कथन ओघके समान है। इसी प्रकार अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये।
६२८४. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें असंख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है। संख्यात भागहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ एवं संखजगुणहाणीए । णवरि छावहिसागरो० सादिरेयाणि । असंखे० गुणहाणी. अोघं । एवमोहिदंस०-सम्मादिहीणं । मण पज्ज. असंखे भागहाणी. जहण्णुक० एगसमो। संखजभागहाणी० जह० अंतोम०, उक्क० पुवकोडी देसूणा । दोहाणी. जहण्णुक्क० अंतोमु० । एवं संजद०-सामाइय-छेदो०संजदे त्ति ।
२८५. परिहार० संजदासंजद० असंख०भागहाणी-संखे०भागहाणीणं मणपज्जयभंगो । चक्खु० तसपज्जत्तभंगो । णवरि संखे० भागवड्ढी० ज० अंतोम० ।
और उत्कृष्ट अन्तरकाल बुछ कम छियासठ सागर है। इसी प्रकार संख्या त गुणहानिका जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इसका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक छयासठ सागर है। तथा असंख्यात गुणहानिका अन्तरकाल अोधके समान है। इसी प्रकार अवधिदर्शनवाले और सम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । मनःपर्ययज्ञानियोंमें असंख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है संख्यात भागहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त
और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पूर्वकोटि है। तथा दो हानियोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार संयत, सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंके जानना चाहिये।
$ २५. परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवोंके असंख्यात भागहानि और संख्यात भागहानिका अन्तरकाल मनःपर्ययज्ञानियोंके समान है । चक्षुदर्शनवाले जीवोंके त्रसपर्याप्तकोंके समान जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनके संख्यात भागवृद्धिका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है।
विशेषार्थ-किसी एक मिथ्यादृष्टि मनुष्यने असंख्यात भागवृद्धि या अवस्थित स्थितिको किया। अनन्तर वह असंख्यात भागहानिको प्राप्त होकर उत्कृष्ट आयुके साथ नौवें ग्रेवेयकमें उत्पन्न हो गया और वहां से च्युत होकर वह पुनः असंख्यात भागवृद्धि या अवस्थित स्थितिको प्राप्त हुआ । इस प्रकार मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंके उक्त दो पदोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक इकतीस सागर पाया जाता है । आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंके असंख्यात भागहानिके सम्भव रहते हुए जब अन्य पद एक समयके लिये प्राप्त हो जाते हैं तभी इनके असंख्यात भागहानिका अन्तरकाल प्राप्त होता है अतः इनके असंख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय प्रमाण कहा । संख्यात भागहानि अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाके समय आदिमें हुई और ६६ सागर के अन्तिम अन्तर्मुहूर्तमें दर्शन मोहकी क्षपणाके समय हुई अतः इसका अन्तरकाल अन्तमुहूर्त कम ६६ सागर होता है । संख्यात गुणहानि वेदक सम्यक्त्वके प्रथम समयमें हुई। फिर वेदक सम्यक्त्वमें ३ पूर्वकोटि ४२ सागर काल तक रह कर क्षयिक सम्यग्दृष्टि हो २४ सागर व १ पूर्वकोटिके अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में क्षपकश्रेणीके कालमें संख्यातगुणहानि हुई इस प्रकार इसका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त का चार पूर्वकोटियोंसे अधिक छयासठ सागरोपम होता है। मनःपयमज्ञानी, परिहारविशुद्धि व संयतासंयतका उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटि है। अतः जिसने इस कालके प्रारंभमें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना और अन्तमें दर्शनमोहकी क्षपणा की उसके संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्थात् , ८ वर्ष, ३८ वर्ष व ८ वर्ष कम पूर्व कोटि होता है। शेष कथन सुगम है ।
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गा०२२] द्विदिविहत्तीए वड ढीए अंतरं
૫e $ २८६. किण्ह - णील - काउ० तिण्णि वड्ढी० अवडि• जह० एगसमओ, दोहाणी० ज० अंतीम० । उक्क० सव्वेसिं सगहिदी देसूणा । असंखे० भागहाणी० ओघं । तेउ० सोहम्मभंगो। पम्म० सहस्सारभंगो । सुक्क० असंखे० भागहाणी० जहण्णुक० एगसमो। संखे०भागहाणी० जह० अंतोमु०, उक्क० एक्कत्तीस साग० देसूणाणि । संखे गुणहाणी जहण्णुक्क० अंतोमु० । असंखे०गुणहाणी० ओघं ।
__२८७. खइय० असंखे०भागहाणी जहण्णुक्क० एगसमश्रो । तिण्णि हाणी. जहण्णुक्क० अंतोमु० । णवरि संखे०भागहाणी उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । वेदय० दो हाणीणं अोधिभंगो । संखे०गुणहाणी० णत्थि अंतरं । उवसम० असंखे० भागहाणी. जहण्णुक्क० एगसमयो । संखे भागहाणी. जहण्णुक्क अंतोमु०। सम्मामि० असंखे० भागहाणी० जहण्णुक्क० एगसमभो । दो हाणी० णत्थि अंतरं ।
____६२८८. [ सण्णीणं पंचिंदियभंगो । ] असण्णीसु असंखे०भागवड्डी० अवहि० जह• एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । संखे भागहाणी ओघं । संखे भागवड्डी ज० एगसमओ, संखे० गुणवड्डी-दोहाणीणं ज० अंतोमु० । उक्क० सव्वेसिमणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा ।
६२८६. कृष्ण, नील, और कापोत लेश्यावाले जीवोंमें तीन वृद्धियों और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और दो हानियोंका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है। तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । तथा असंख्यात भागहानिका अन्तरकाल ओघके समान है। पीतलेश्यावाले जीवोंके सौधर्म स्वर्गके समान और पद्मलेश्यावाले जीवोंके सहस्रारस्वर्गके समान जानना चाहिये । तथा शुक्ललेश्यावाले जीवोंमें असंख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है । संख्यात भागहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम इकतीस सागर है। तथा संख्यात गुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त और असंख्यात गुणहानिका अन्तरकाल ओघके समान है।
२८७. क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें असंख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय तथा तीन हानियोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है। इतनी विशेषता है कि संख्यात भागहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक तेतीस सागर है। वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें दो हानियोंका अन्तरकाल अवधिज्ञानियोंके समान है। तथा संख्यातगुणहानिका अन्तरकाल नहीं है। उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें असंख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है। तथा संख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें असंख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है। तथा दो हानियोंका अन्तरकाल नहीं है।
२८८. संज्ञी जीवोंमें पंचेन्द्रियोंके समान भंग है। असंज्ञी जीवों में असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। संख्यात भागहानिका अन्तरकाल ओघके समान है। संख्यात भागवृद्धि का जघन्य अन्तरकाल एक समय तथा संख्यातगुणवृद्धि और दो हानियोंका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्महर्त है। तथा उक्त सभीका उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है जो कि असंख्यात पुदलपरिवर्तनप्रमाण है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहती ३ २८९. आहारि. असंखे०भागवड्डी हाणी० अवहि० श्रोघं । संखे०गुणवड्डी दोहाणी० जह० अंतोमु० । संखे०भागवडी० ज० एगसमओ, उक्क० अंगुलस्स असंखे० भागो। असंखेजगुणहाणी० अोघं ।।
एवमंतराणुगमो समत्तो । $ २६०. णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमेण दुविहो णिसो–ोघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण असंखेज्जभागवड्डी-हाणि-अवहाणाणि णियमा अत्थि । सेसपदाणि भयणिज्जाणि । भंगा बादालीमुत्तरदुसदमेत्ता २४२ । एवं तिरिक्ख०सव्वेइ दिय-पुढवी०-बादरपुढवी०-बादरपुढवीअपज्ज०-सुहुमपुढवि०-सुहुमपुढविपज्जत्तापज्जत्त-आउ०-बादरआउ०-बादराउअपज्ज०-मुहुमाउ०-सुहुमाउपज्जत्तापज्जत्ततेउ०-बादरतेउ०-बादरतेउअपज्ज०-सुहुमतेउ०-सुहुमतेउपजत्तापज्जत्त-वाउ०-बादरवाउ०बादरवाउअपज्ज-मुहुमवाउ०-मुहुमवाउपज्जत्तापज्जत्त-वणप्फदि०-बादरवणप्फदि०बादरवणप्फदिपज्जत्तापज्जत्त-सुहुमवणप्फदिपज्जत्तापजत्त-णिगोद-बादरणिगोद०. बादरणिगोदपज्जत्तापज्जत्त-सुहुमणिगोद०-मुहुमणिगोदपज्जत्तापज्जत्त-बादरवणप्फदिपत्तेय - बादरवणप्फदिपत्तेयअपज्ज०- बादरणिगोदपदिहिद-बादरणिगोदपदिहिद
Nomanim
६२८६. आहारक जीवोंके असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितविभक्तिका अन्तरकाल ओघके समान है । संख्यातगुणवृद्धि और दो हानियोंका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है तथा संख्यात भागवृद्धिका जघन्य अन्तरकाल एक समय है। तथा सभीका उत्कृष्ट अन्तरकाल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है । तथा असंख्यात गुणहानिका अन्तरकाल ओघके समान है।
इस प्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ। ६२६० नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है--ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं । शेष पद भजनीय हैं। भंग दोसौ ब्यालीस होते हैं। इसी प्रकार सामान्य तिर्यंच, सभी एकेन्द्रिय, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सुक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, पर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, निगोद, बादर निगोद, बादर निगोद पर्याप्त, बादर निगोद अपर्याप्त, सूक्ष्म निगोद, सूक्ष्म निगोद पर्याप्त, सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर अपर्याप्त, बादर निगोद प्रतिष्ठित, बादर निगोद
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१६१ .
गा० २२ ]
हिदिविहत्तीए वडढीए भंगविचओ अपज्ज०-कायजोगि-ओरालिय०--ओरालियमिस्स०-कम्मइय०-णवुस०-चत्तारिकसाय-मदि-सुदअण्णाण-असंजद०-अचक्खु०-तिण्णिले०-भवसि०-अभवसि०मिच्छादि०-असण्णि-आहारि-अणाहारि त्ति । णवरि भंगा जाणिय वत्तव्वा । प्रतिष्ठित प्रत्येकशरीर अपर्याप्त, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञनी, असंयत, अचक्षुदर्शनवाले, कृष्णादि तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्याष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके भंग जान कर कहना चाहिये।
विशेषार्थ—मोहनीय कर्मकी स्थितिमें असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि और संख्यात गुणवृद्धि ये तीन वृद्धियां, असंख्यातभागहानि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानि ये चार हानियां तथा अवस्थित इस प्रकार आठ पद पाये जाते हैं। इनमेंसे असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थित पदवाले नाना जीव नियमसे पाये जाते हैं, इसलिये इनका एक ध्रुव भंग हुआ। किन्तु शेष पांच पद भजनीय हैं। उनमेंसे किसी एक पदवाला कदाचित् एक जीव होता है और कदाचित् नाना जीव होते हैं। यह भी सम्भव है कि कदाचित् किसी एक पदवाला एक या नाना जीव हों तथा उसी समय उससे भिन्न अन्य पदवाले भी एक या नाना जीव हों। इस प्रकार इन भजनीय पदोंके भंगोंमें एक ध्र व भंगके मिलाने पर कुल भंगोंका जोड़ २४३ होता है । यथा
१ ध्रुव भंग २ संख्यातभागवृद्धिके एक और नाना जीवोंकी
अपेक्षा ३ कुल जोड़ ६ संख्यातभागवृद्धिके प्रत्येक और संख्यातगुण
वृद्धिके साथ एक और नाना जीवोंकी अपेक्षा संयोगी भंग ६ कुल जोड़ . १८ संख्यात भागहानिके प्रत्येक व पूर्वोक्त दो पदों
के साथ संयोगी भंग २७ कुल जोड़ ५४ संख्यातगुणहानि के प्रत्येक व पूर्वोक्त तीन
पदोंके साथ संयोगी भंग ८१ कुल जोड़ १६२ असंख्यातगुणहानिके प्रत्येक व पूर्वोक्त चार
पदोंके साथ संयोगी भंग
२४३ कुल जोड़ मूलमें ध्रु व भंगको सम्मिलित न करके केवल भजनीय पदोंके २४२ भंग कहे हैं और ध्रुव भंगको अलग बतलाया है। अब यदि इन २४२ भंगोंमें ध्र व भंग भी मिला दिया जाता है तो कुल भंगोंका जोड़ २४३ होता है जैसा कि हमने पूर्वमें घटित करके बतलाया ही है। आगे सामान्य
२१ .
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ द्विदिविहत्ती ३
९ २६१. देसेण रइएस असंखे० भागहाणि वाणाणि णियमा अस्थि । सेसपदा भयरिज्जा । भंगा वादालीसुत्तरदुसदमेत्ता २४२ । एवं सत्तसु पुढवीसु सव्वपंचिंदियतिरिक्ख - मणुस - मणुसपज ० - मणुसिणी - देव० - भवणादि जाव सहस्सार०सव्वविगलिंदिय- सव्वपंचिंदिय - बादर पुढवीपज्ज० - बादरउपज्ज० - बादरते उपज्ज०बादरवाउपज्ज०- बादरवण फदिपत्तेयपज्ज० - बादरणि गोदपदिद्विदपज्ज० - सव्वतस०पंचमण० - पंचवचि० - वेउन्विय० - इत्थि० - पुरिस ० - विहंग० - चक्खु ० - तेउ ४- पम्म०सण्णिति ।
१६२
तिर्यंच आदि मार्गणाओंमें जो ओघके समान कथन करनेकी सूचना की है सो उसका मतलब यह है कि उन मार्गणाओं में जहां जितने सम्भव पद हैं उनमें से असंख्यात भागहानि, असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थित इन तीन पदोंकी अपेक्षा एक ध्रुव भंग है और शेष पद भजनीय हैं । विशेष खुलासा इस प्रकार है - मूलमें गिनाई हुई मार्गणाओंमेंसे काययोग, औदारिककाययोग, चारों कषाय, अचक्षु दर्शन, भव्य, आहारक और नपुंसक वेद ये मार्गणाएं ऐसी हैं जिनमें अविकल ओघ - प्ररूपणा घटित हो जाती है, अतः २४३ भंग प्राप्त होते हैं । सामान्य तिर्यंच, औदारि कमिश्नकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, असंज्ञी, अनाहारक, मिध्यादृष्टि, अभव्य और कृष्णादि तीन लेश्यावाले ये मार्गणाएं ऐसी हैं जिनमें असंख्यात गुणहानि नहीं पाई जाती अतः भजनीय पद चार रह जाते हैं और इसलिये इनमें ध्रुव भंगके साथ कुल भंग ८१ होते हैं । तथा इनके अतिरिक्त जो एकेन्द्रिय और उनके भेद तथा पांच स्थावर काय और उनके भेद बतलाये हैं । उनमें संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानि के बिना एक वृद्धि, तीन हानि और अवस्थित ये पांच पद ही पाये जाते हैं । सो इनमें से असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भगाऔर अवस्थित पद की अपेक्षा एक ध्रुव भंग ही प्राप्त होता है । अब भजनीय पद दो रह जाते हैं, अतः इनमें ध्रुव भंगके साथ कुल नौ भंग होते हैं ।
९ २६१. देशकी अपेक्षा नारकियों में असंख्यात भागहानि और अवस्थित विभक्तिवाले जीव नियमसे हैं । तथा शेष पद भजनीय हैं। भंग दोसौ व्यालीस होते हैं । इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, सभी पंचेन्द्रिय तिर्यंच, सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्तक, मनुष्यनी, सामान्य देव, भवनवासियों से लेकर सहस्रार कल्प तकके देव, सभी विकलेन्द्रिय, सभी पंचेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त, बादर बनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीरपर्याप्त, बादर निगोदप्रतिष्ठित प्रत्येकशरीर पर्याप्त, सभी त्रस, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभंगज्ञानी, चक्षुदर्शनवाले, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये |
विशेषार्थ–नारकियोंमें असंख्यात गुणहानिको छोड़कर सात पद हैं पर उनमें असंख्यात भागहानि और अवस्थित ये दो पद ध्रुव हैं तथा शेष पांच पद भजनीय हैं, अतः यहां भी भजनीय पदोंके २४२ भंग और एक ध्रुव भंग इस प्रकार कुल २४३ भंग प्राप्त होते हैं। आगे सातों तरहके नारी आदि कुछ और मार्गणाओं में जो सामान्य नारकियोंके समान कथन करनेकी सूचना की है सो उसका यह मतलब है कि जहां जितने सम्भव पद हैं उनमें से असंख्यात भागहानि और अव स्थित इन दो पदोंकी अपेक्षा एक ध्रुव भंग है और शेष पद भजनीय हैं। विशेष खुलासा इस
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गा० २२] . हिदिविहत्तीए वड ढीए भंगविचओं
१६३ ___२६२ मणुस्सअपज्ज० सव्वपदा भयणिज्जा । एवं वेउव्वियमिस्स०अवगद -सुहुम०-सम्मामि० । णवरि भंगा जाणिय वत्तव्या।
$ २६३. आणदादि जाव सव्वदृसिद्धि त्ति असंखेज्जभागहाणी णियमा अस्थि । सिया एदे च संखज्जभागहाणिविहत्तिो च । सिया एदे च संखे०भागहाणिविहत्तिया च । धुवसहिदा तिण्णि भंगा । एवं परिहार०-संजदासंजद० ।
8 २६४. आहार-आहारमिस्स० सिया असंखेज्जभागहाणिविहत्तिओ, सिया असंखे०भागहाणीविहत्तिया एवं दोण्णि भंगा २। एवमकसा०-जहाक्खाद०सासण० । आभिणि-सुद०-ओहिणाणीसु असंखेज्जभागहाणी णियमा अत्थि । सेसप्रकार है-मूलमें गिनाई हुई मार्गणाओंमेंसे सातों नरकके नारकी, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देव, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, बस अपर्याप्त, वैक्रियिककाययोगी, विभंगज्ञानी, पीतलेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले ये मार्गणाएं ऐसी हैं जिनमें सामान्य नार• कियोंके समान प्ररूपणा बन जाती है, अतः इनमें ध्र व भंग सहित कुल भंग २४३ होते हैं । सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य, मनुष्यनी, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, बस पर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, स्त्रीवेदवाले, पुरुषवेदवाले, चक्षदर्शनी और संज्ञी ये मार्गणाएं ऐसी हैं जिनमें असंख्यात गुणहानि और पाई जाती है, अतः कुल आठ पदोंमेंसे भजनीय पद ६ हो जाते हैं अतः यहां ध्र व भंगके साथ कुल भंग ७२६ हो जाते हैं। विकलत्रयोंमें असंख्यात. भागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि तथा तीन हानि और अवस्थित इस प्रकार छह पद हैं। इनमेंसे चार अध्र व है, अतः यहां ध्र व भंगके साथ कुल भंग ८१ होते हैं। अब शेष रहीं पृथिवीकायिक पर्याप्त आदि मार्गणाएं सो उनमें असंख्यात भागवृद्धि, तीन हानि और अवस्थित इस प्रकार पांच पद हैं। इनमेंसे तीन अध्रुव हैं, अतः यहां ध्र व भंगके साथ कुल भंग २७ होते हैं।
२६२. मनुष्य अपर्याप्तकोंके सभी पद भजनीय हैं। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, सूक्ष्मसांपरायिकसयत और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके भंग जानकर कहना चाहिये।
विशेषार्थ-लब्ध्यपर्याप्त मनुष्योंके असंख्यात गुणहानिके सिवा सात पद पाये जाते हैं और ये सब भजनीय हैं, अतः यहां ध्र व भंगके बिना कुल भंग २१८६ होंगे। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें २१८६ भंग जानना चाहिये । अपगतवेदी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत और सम्यग्मिथ्यादृष्टिके असंख्यातभागहानि, संख्यातभागहानि, और संख्यातगुणहानि ये तीन पद हैं तथा ये तीनों भजनीय हैं, अतः यहां २६ भंग होंगे।
२६३. आनतसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें असंख्यात भागहानिवाले जीव नियमसे हैं। तथा कदाचित् असंख्यात भागहानिवाले अनेक जीव हैं और संख्यातभागहानिवाला एक जीव है । कदाचित् असंख्यातभागहानिवाले अनेक जीव हैं और संख्यात भागहानिवाले अनेक जीव हैं। इस प्रकार ध्र व भंगसहित तीन भंग होते हैं। इसी प्रकार परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयत जीवोंके जानना चाहिये।
६२६४. आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें कदाचित् असंख्यात भागहानिवाला एक जीव है और कदाचित् असंख्यातभागहानिवाले अनेक जीव हैं। इस प्रकार दो भंग हैं । इसी प्रकार अकषायी, यथाख्यातसंयत और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें असंख्यात भागहानिवाले जीव नियम
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ पदा भयणिज्जा । एवं मणपज्ज०-संजद०-सामाइय-छेदो०-ओहिदंस०-सुक्क०-सम्मादि-खइय०-वेदय दिहि त्ति । उवसम० दो हाणी भयणिज्जा ।
एवं णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमो समत्तो । $ २६५. भागाभागाणुगमेण दुविहो णि(सो-ओघेण आदेसेण य । श्रोघेण असंखे भागवड्डी० सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? असंखे० भागो। अवहि० सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? संखेज्ज०भागो । असंख०भागहाणी. सव्वजी० के० ? संखेज्जा भागा। सेसपदा सव्वजीवा के० ? अणंतिमभागो । एवं तिरिक्व०-सव्वएइंदिय - वणप्फदि०-बादरवणप्फदि०-बादरवणप्फदिपज्जत्तापज्जत्त -सुहुमवणप्फदि०सुहुमवणप्फदिपज्जत्तापज्जत्त-णिगोद० - बादरणिगोद०-बादरणिगोदपज्जत्तापज्जत्तसुहुमणिगोद०-सुहुमणिगोदपज्जत्तापज्जत्त - कायजोगि-ओरालिय०-ओरालियमिस्स०कम्मइय०-णqस०-चत्तारिक०-मदि-सुदअण्णाण-असंजद०-अचक्खु०-तिण्णिले०-भवसि० से हैं। तथा शेषपद भजनीय हैं। इसी प्रकार मनःपययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, अवधिदर्शनवाले, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें दो हानियां भजनीय हैं।
विशेषार्थ-प्राभिनिवोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंके असंख्यात भागहानि की अपेक्षा एक ध्र वपद है और संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और असंख्यात गुणहानि ये तीन पद अध्रुव हैं अतः यहां ध्रुव भंगके साथ कुल भंग २७ होंगे। इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानी; संयत, सामायिकसंवत, छेदोपस्थापनासंयत, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके २७ भंग जानना चाहिये। किन्तु वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके असंख्यात गुणहानि नहीं होती, अतः यहां एक ध्रुषपद और दो भजनीय पद हुए और इसलिये कुल भंग नौ होंगे। उपशमसम्यग्दृष्टि जीवोंके असंख्यात भागहानि और संख्यात भागहानि ये दो पद ही होते हैं। किन्तु दोनों भजनीय हैं अतः यहां कुल भंग आठ होंगे।
इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगम समाप्त हुआ। ६२६५. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है -श्रोघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा असंख्यात भागवृद्धिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं। अवस्थितविभक्तिवाले जीव सब जीवों के कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। असंख्यात भागहानिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं। शेष पदवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं। अनन्तवें भाग हैं । इसी प्रकार सामान्य तिर्यंच, सभी एकेन्द्रिय, वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, निगोद, बादरनिगोद, बादर निगोद पर्याप्त, बादर निगोद अपर्याप्त, सूक्ष्म निगोद, सूक्ष्म निगोद पयोप्त, सूक्ष्मनिगोद अपर्याप्त, काययोगी, औदारिक काययोगी, औदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधादि चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनवाले, कृष्णादि
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गा० २२ ]
द्विदिविहत्तीए वड ढीए भागाभागो
अभवसि ०-मिच्छादिद्वि० असण्णि० - आहारि० - अणाहारिति ।
$ २६६. आदेसेण णेरइएस अवधि० सव्वजी० के० ९ संखेज्जदिभागो । संखे० भागहाणी० सव्वजी० के० १ संखेज्जा भागा। सेसपदा सव्वजीवाणं के० १ असंखे० भागो । एवं सत्तसु पुढवीसु सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुस्स- मणुस अपज्जत्तदेव-भवणादि जावं सहस्सार० सव्वविगलिंदिय-सव्व पंचिदिय - चत्तारिकाय- बादरसुहुम-पज्जत्तापज्जत - बादरवणफदि ० पत्तेय ०-सव्वतस००- पंचमण० - पंचवचि ० [वेउव्वि०-] वेउव्वियमिस्स०-इत्थि - पुरिस०- विहंग० - चक्खु०-ते उ०- पम्म० सण्णि त्ति । मणुसपज्ज०मणुसिणीस्रु असंखे०भागहाणी० सव्वजी० के० ? संखेज्जा भागा । सेसपदा संखेज्जदिभागो । एवमवगद ० -मणपज्ज० -संजद ० - सामाइय-छेदो ० -सुहुम० संजदेति ।
६ २६७. आणदादि जाव अवराइदे त्ति असंखे० भागहारिणी० सव्वजी० के० ? असंखेज्जा भागा। संखे० भागहाणी • सव्वजी० के० ? असंखे० भागो । एवतीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जीवों के जानना चाहिये |
विशेषार्थ - यहां तिर्यंच आदि अन्य मार्गणाओं में जो ओके समान भागाभाग जानने की सूचना की सो उसका यह अभिप्राय नहीं कि इन सब मार्गणाओं में सब पदोंकी अपेक्षा ओघ के समान भागाभाग बन जाता है । किन्तु इसका इतना ही अभिप्राय है कि जहां जितने पद सम्भव हों उनकी अपेक्षा भागाभाग ओघ के समान ही जानना । तथा जहां जो पद न हो उसकी अपेक्षा भागाभागका कथन नहीं करना। आगे भी इसी प्रकार विचार करके यथासम्भव भागाभाग जानना चाहिये |
१६५
§ २६६. आदेशनिर्देशकी अपेक्षा नारकियों में अवस्थितविभक्तिवाले जीव सभी नारकियों के कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं । असंख्यात भागहानिवाले जीव सभी नारकियोंके कितने भाग हैं । संख्यात बहुभाग हैं। शेष पदवाले जीव सभी नारकियोंके कितने भाग हैं ? असख्यातवें भाग हैं। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, सभी पंचेन्द्रियतियँच, सामान्य मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देव, सभी विकलेन्द्रिय, सभी पंचेन्द्रिय, पृथिवीकायिक आदि चार स्थावरकाय तथा इनके बादर और सूक्ष्म तथा बादर और सूक्ष्मोंके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकाधिक प्रत्येकशरीर, सभी त्रस, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्र काययोगी, स्त्रीवदवाले, पुरुषवेदवाले, विभंगज्ञानी, चतुदर्शनवाले, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये । मनुष्य पर्याप्तक और मनुष्यनियों में असंख्यात भागहानिवाले जीव उक्त सभी जीवों के कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं। तथा शेष पदवाले जीव संख्यातवें भाग हैं। इसी प्रकार अपगतवेदवाले, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत और सूक्ष्मसांपरायिक संयत जीवोंके जानना चाहिये ।
९ २६७ आनत कल्पसे लेकर अपराजित तक के देवों में असंख्यात भागहानिवाले जीव उक्त सभी जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं । संख्यात भागहानिवाले जीव उक्त सभी जीवों कितने भाग हैं, असंख्यातवें भाग हैं। इसी प्रकार उपशमसम्यग्दृष्टि और संयतासंयत
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ द्विदिविहत्ती ३
मुवसम० संजदासंजदाणं । सव्व असंखे० भागहाणी ० सव्वजी० के० १ संखे ०भागा । संखे० भागहाणी० सव्वजी० के० ? संखे० भागो । एवं परिहार० ।
२८. आभिणि० - सुद० - ओहि० असंखे० भागहाणी० सव्वजी० के० ? असंखेज्जा भागा | सेसपदा असंखे० भागो । एवमोहिदंस० - मुक्क० सम्मादि० खइय०वेदय० - सम्मामिच्छादिडि त्ति । आहार० - आहार मिस्स ० - अकसा० - जहाक्खाद ०सास सम्मादिहीणं णत्थि भागाभागं ।
एवं भागाभागानुगमो समत्तो ।
९ २६६. परिमाणागमेण दुविहो गिद्देसो- ओघेण आदेसेण य । तत्थओघेण असंखे०भागवडी हाणी० अवद्वि० केत्तिया ! अनंता । दोवड्डी० दोहाणी० के० ? असंखेज्जा । असंखे० गुणहाणी० केत्ति ० १ संखेज्जा । एवं कायजोगि०ओरालि० एवं स ० - चत्तारिकसाय - अचक्खु ० - भवसि ० - आहारि त्ति ।
$ ३०० आदेसेण णेरइएस सव्वपदा के त्ति ० १ असंखेज्जा । एवं सव्वणेरइयसव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुस अपज्ज •- -देव-भवणादि जाव सहस्सार ० - सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज्ज० - चत्तारिकाय- बादरवणप्फ दिपत्तेय० - तस्सेव
पज्जत्तापज्ज०
जीवों के जानना चाहिये । सर्वार्थसिद्धि के देवोंमें असंख्यात भागहानिवाले जीव उक्त सभी जीवोंके कितने भाग हैं ! संख्यात बहुभाग हैं । संख्यात भागहानिवाले जीव उक्त सभी जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। इसी प्रकार परिहारविशुद्धि संगत जीवोंके जानना चाहिये।
२८. आभिनिवोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवों में असंख्यात भागहानिवाले जीव उक्त सभी जीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभाग हैं । तथा शेष पदवाले जीव असंख्यातवें भाग हैं । इसी प्रकार अवधिदर्शनवाले, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों के जानना चाहिये। आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अकषायी, यथाख्यातसंयत और सासादनसम्यग्दृष्टियों के भागाभाग नहीं है ।
इस प्रकार भागाभागानुगम समाप्त हुआ ।
९ २६६. परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ निर्देश और देश निर्देश | उनमें से की अपेक्षा असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं । दो वृद्धियों और दो हानियोंवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । तथा असंख्यात गुणहानिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । इसी प्रकार काययोगी, औदारिककाययोगी. नपुंसक वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, अचतुदर्शनवाले, भव्य और आहारक जीवों के जानना चाहिये ।
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९ ३००. आदेशकी अपेक्षा नारकियों में सभी पदवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । इसी प्रकार सभी नारकी, सभी पचेन्द्रिय तिर्यंच, मनुष्य अपर्याप्त सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तक के देव, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, पृथिवीकायिक आदि चार स्थावर
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ग २२ ] द्विदिविहत्तीए वड्ढीए परिमाणाणुगमो
१६७ तसअपज्ज०-वेउव्विय०-वेउब्धिय मिस्स-विहंग-तेउ०-पम्मलेस्से त्ति ।
३०१. तिरिक्खा ओघं । णवरि असंखे गुणहाणी णत्थि। एवमेइंदियसव्ववणफदि०-ओरालियमिस्स०-कम्मइय०-मदि-सुदअण्णाण०-असंजद-तिण्णले०अभव०-मिच्छादिहि-असण्णि-अणाहारि त्ति ।
३०२. मणुस्सेसु णिरोघं । णवरि असंखे गुणहाणी. संखेजा। एवं पंचिंदिय-पंचिं०पज्ज०-तस-तसपज्ज०-पंचमण-पंचवचि०-इत्थि०-पुरिस०-चक्खु०सण्णि त्ति । मणुस्सपज्ज०-मणुस्सिणीसु सव्वपद० के० ? संखेज्जा। एवं सवढ०अबगद०-मणपज्ज०-संजद०-सामाइय-छेदो०-परिहार०-सुहुमसांपराय० ।
$ ३०३. आणदादि जाव अवराजिदा ति असंखे०भागहाणी संखे०भागहाणी केत्ति० ? असंखज्जा । [एवं संजदासंजद । आहार०-] आहार मिस्स० असंख० भाग हाणी० केत्ति० ? संखेज्जा । एवमकसाय०-जहाक्रवाद०त्ति ।
३०४. आभिणि-सुद०-ओहि तिण्णि हाणि० केत्तिया ? असंखेज्जा। असंखे०गुणहाणी. संखज्जा ? एवमोहिदंस०-सुक्क०-सम्मादिहि त्ति ।। काय, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, त्रस अपर्याप्त, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, विभंगज्ञानी, पीतलेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले ‘जीवोंके जानना चाहिये।
३०१. तियचोंमें असंख्यातभागवृद्धि आदिकी अपेक्षा संख्या ओघके समान है। इतनी विशेषता है कि इनमें असंख्यात गुणहानि नहीं है। इसी प्रकार एकेन्द्रिय, सभी वनस्पतिकायिक,
औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, कृष्णादि तीन लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये ।
६३०२. मनुष्योंमें असंख्यात भागवृद्धि आदिकी अपेक्षा संख्या सामान्य नारकियोंके समान है । इतनी विशेषता है कि इनमें असंख्यात गुणहानिवाले जीव संख्यात हैं। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, स, त्रसपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, स्त्रीवेदवाले, पुरुषवेवाले, चक्षुदर्शनवाले और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये । मनुष्य पर्याप्तक और मनुष्यनियों में सभी पदवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिके देव, अपगतवेदवाले, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और सूक्ष्मसांपरायिकसंयत जीवोंके जानना चाहिये ।
३०३. आनतकल्पसे लेकर अपराजित तकके देवों में असंख्यात भागहानि और संख्यात भागहानिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार संयतासंयत जीवोंके जानना चाहिए। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगियोंमें असंख्यात भागहानिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । इसी प्रकार अकषायी और यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिये।
$ ३०४. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रतज्ञानी और अवधिज्ञानियोंमें तीन हानिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । तथा अख्यांतगुणहानिवाले जीव संख्यात हैं। इसी प्रकार अवधिदर्शनवाले, शुक्ललेश्यावाले और सम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिबिहत्ती ३ ३०५. खइय० असंखज्जभागहाणी० के० ? असंखेज्जा । सेसपदा संखेज्जा । वेदग० तिणि हाणी० के० ? असंखेज्जा । उवसम० दो हाणी० असंखेज्जा । सासण. असंखे०भागहाणी० केत्ति० ? असंखेज्जा। सम्मामि० तिण्णि हाणी. वेदय भंगो।
एवं परिमाणाणुगमो समत्तो। ३०६. खेत्ताणुगमेण दुविहो णिसो-ओघेण श्रादेसेण य । तत्थ ओघेण असंखे भागवडी हाणी अवहि० केवडि खोने ? सव्वलोगे । सेसपदा केवडि खोते ? लोग० असंखोज०भागे । एवमणंतरासीणं ।
३०७. पुढवी-बादरपुढवी-बादरपुढवीअपज्ज०-सुहुमपुढवी-मुहुमपुढवीपज्जत्तापज्जत्त-आउ०-बादरग्राउ०-बादर प्राउअपज्ज०-सुहुमआउ०-सु हुमाउपज्जत्तापज्जत्त. तेउ०-बादरतेउ०-बादरतेउअपज्ज-मुहुमतेउ०-सुहुमतेउपज्जत्तापज्जत्त-वाउ०-बादरवाउ०-बादरवाउअपज्ज०-सुहुमवाउ०-सुहुमवाउपज्जत्तापज्जत्त० असंखेज्जभागवड्डीहाणी अवहि० केवडि खेचे ? सव्वलोगे । सेसपदा० के० ? लोग० असंखोज्ज०भागे। सेससंखेज्जासंखेज्जरासीणं सव्वपदा लोगस्स असंखे भागे । णवरि बादरवाउ
६३०५. क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में असंख्यात भागहानिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। तथा शेष पदवाले जीव संख्यात हैं। वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें तीन हानिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें दो हानिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। सासादनसम्यम्हष्टियोंमें असंख्यात भागहानिवाले जाव कितने हैं ? असंख्यात हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंमें तीन हानिवाले जीवोंका प्रमाण वेदकसम्यग्दृष्टियोंके समान है।
इस प्रकार परिमाणानुगम समाप्त हुआ। ६३०६. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितविभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सर्व लोकमें रहते हैं। शेष पदवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं। इसी प्रकार अनन्त संख्यावाली राशियोंके कहना चाहिये।
६३०७. पृथिवीकायिक, बादरपृथिवीकायिक, बादरपृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्मपृथिवीकायिक, सूक्ष्मपृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्त, अग्नि कायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादरवायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त और सक्ष्म वायकायिक अपर्याप्त. जीवोंमें असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थित विभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सब लोकमें रहते हैं। तथा शेष पदवाले जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं। शेष संख्यात और असंख्यात संख्यावाली राशियोंकी अपेक्षा सभी पदवाले जीव
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गा• २२.]
हिदिविहत्तीए षड्ढीए पोसणं पज्ज० असंखे०भागवडी हाणी अवहि० लोगस्स संखोज्जदिभागे ।
एवं खत्ताणुगमो समत्तो । ३०८. पोसणाणुगमेण दुविहो णि सो–ोघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण असंखेजभागवडी-हाणी-अवहि केवडियं खेनं पोसिदं ? सव्वलोगो। दोवड्डीदोहाणी० के० खे० पो० ? लोग० असंखे भागो अह-चोदसभागा देसूणा सव्वलोगो वा । असंखेजगुणहाणी० के० खे० पो० १ लोग० असंखे०भागो। एवं कायजोगि०-चत्तारिकसा०-अचक्खु०-भवसि०-आहारि त्ति । लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें रहते हैं । इतनी विशेषता है कि बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंमें असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंका क्षेत्र लोकका संख्यातवां भाग है।
_ विशेषार्थ-ओघसे असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थित स्थितिवाले जीव अनन्त हैं यह परिमाणानुयोगद्वारमें बतला ही आये हैं और अनन्त संख्यावाली राशियों का स्वस्थानकी अपेक्षा भी सब लोक क्षेत्र बन जाता है, अतः इन तीन पदवाले जीवोंका ओघसे सब लोक क्षेत्र कहा । किन्तु शेष पांच पदवाले जीव बहुत स्वल्प हैं, क्योंकि उन पदोंका अधिकतर त्रसोंसे ही सम्बन्ध है। दो हानियां ऐसी हैं जो स्थावरोंके भी पाई जाती हैं पर जो त्रस स्थितिकाण्डकघातके द्वारा संख्यात भागहानि और संख्यात गुणहानिको कर रहे हैं ऐसे त्रस यदि मर कर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हों तो उन स्थावरोंके ही वे दो हानियां पाई जाती हैं, अतः शेष पदवालोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही बनता है। जितनी भी अनन्त संख्यावाली मार्गणाएं हैं उनमें भी अपने अपने सम्भव पदोंकी अपेक्षा इसी प्रकार क्षेत्र जानना चाहिये । तथा सामान्य पृथिवीकायिक आदि कुछ असंख्यात संख्यावाली ऐसी मार्गणाएं हैं जिनका सब लोक क्षेत्र बन जाता है अतः उनमें भी अपने सम्भव पदोंकी अपेक्षा अविकल ओघ प्ररूपणा घटित हो जाती है । पर इनसे अतिरिक्त जितनी भी असंख्यात या संख्यात संख्यावाली मार्गणाएं हैं उनमें सभी सम्भव पदोंकी अपेक्षा क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है, क्योंकि उन मार्गणावाले जीवोंका क्षेत्र ही लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। किन्तु वायुकायिक पर्याप्त जीव इस व्यवस्थाके अपवादभूत हैं, क्योंकि उनका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण है अतः उनमें असंख्यात भागहानि, असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थित स्थितिवालोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण जानना और शेष पदोंकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र जानना।
इस प्रकार क्षेत्रानुगम समाप्त हुआ। ६३०८. स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? सर्वलोकका स्पर्श किया है। दो वृद्धि और दो हानिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका, जसनालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका और सर्वलोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। असंख्यातगुणहानिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है । इसी प्रकार काययोगी, क्रोधादि चारों कषायवाले, अचक्षुदर्शनवाले, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिये।
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- जयधवलासहिदे कसायपाहुडे । [द्विदिविहत्ती ३ ३०९. श्रादेसेण णेरइएसु सव्वपदा के० खे० पो० ? लोग० असंखेभागो छ चोदस० देसूणा । पढमपुढवि० खेत्तभंगो। विदियादि जाव सत्तमि त्ति सव्वपदाणं विहत्तिएहि के० खे० पो० ? लोग० असंखे०भागो एक बे तिण्णि चत्तारि पंच छ चोदसभागा देसूणा ।
३१०. तिक्खि० असंखे भागवड्डी-हाणी०-अवहि० के० ? सव्वलोगो । दोवड्डी-दोहाणी० के० खे० पो० ? लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा। एवमोरालियमिस्स-कम्मइय-तिण्णिले०-असण्णि०-अणाहारि त्ति ।
विशेषार्थ-ओघसे असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थित पदवालोंका स्पर्श सब लोक बतलानेका कारण यह है कि इन पदवाले जीवोंका प्रमाण अनन्त है और वे सब लोकमें पाये जाते हैं। संख्यात भागवृद्धि, संख्यात गुणवृद्धि, संख्यात भागहानि और संख्यात गुणहानि इन पदवालोंका स्पर्श तीन प्रकारका बतलाया है। लोकका असंख्यातवां भाग स्पर्श वर्तमान कालकी अपेक्षा बतलाया है। कुछ कम आठ बटे चौदह राजु प्रमाण स्पर्श विहार, वेदना आदि की अपेक्षा बतलाया है, क्योंकि उक्त पदवालोंका नीचे दो राजु और ऊपर छह राजु तक गमनागमन पाया जाता है। और सब लोक प्रमाण स्पर्श मारणान्तिक समुद्धात और उपपादपदकी अपेक्षा बतलाया है । तथा असंख्यात गुणहानिवालोंका स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलानेका कारण यह है कि इस पदको नौवें गुणस्थानवाले जीव ही प्राप्त होते हैं। पर नौवें गुणस्थानवालोंका स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागसे अधिक नहीं है। कुछ मार्गणाएं भी ऐसी हैं जिनमें यह ओघ. प्ररूपणा अविकल बन जाती है। जैसे काययोगी आदि, अतः इनके कथनको ओघके समान कहा।
३०६. आदेशनिर्देशकी अपेक्षा नारकियोंमें सभी पदवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम छह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। पहली पृथिवीमें स्पर्श क्षेत्रके समान जानना चाहिये। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक सभी पदवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम एक, लुछ कम दो, कुछ कम तीन, कुछ कम चार, कुछ कम पांच और कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है।
विशेषार्थ-नरकमें सामान्य नारकियोंका और प्रत्येक नरकके नारकियोंका जो स्पर्श बतलाया है वही यहां सब पदवालोंका स्पर्श है उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। कारण यह है कि सब नारकी संज्ञी पंचेन्द्रिय होते हैं अतः सबके सब पद सम्भव हैं और इसीलिये यहां प्रत्येक पदकी अपेक्षा वही स्पर्श प्राप्त होता है जो सामान्य नारकियोंके या उस नरकके नारकियोंके बतलाया है।
६३१०. तिथंचोंमें असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थित विभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? सर्वलोक क्षेत्रका स्पर्श किया है । तथा दो वृद्धि और दा हानिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और सर्वलोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । इसी प्रकार औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, कृष्णादि तीन लेश्यावाले, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये।
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गा०२२] हिदिविहत्तीए वड ढीए पोसणं
१७१ $ ३११. सव्वपंचिंतिरिक्ख० सव्वपदा० के० खेर पो• ? लोग असंखे०भागो सबलोगो वा । एवं मणुस्सअपज्ज०-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज्ज०बादरपुढविपज्ज०-बादरआउपज्ज०-बादरतेउपज्ज०-बादरवाउपज्ज-बोदरवणप्फदिपत्रेय पज्ज०-तसअपज्जत्तेत्ति । णवरि बादरवाउपज्जत्तएहि असंखेजभागवड्डो-हाणी-अवहि० के० खे० पोसिदं ? लोग० संख०भागो सव्वलोगो वा। मणुसतिय पंचि०तिरिक्खभंगो । णवरि असं०गुणहाणीए ओघमंगो।
३१२. देवेसु सव्वपदाणं वि० के० खे० पोसिदं ? लोगस्स असं० भागो अहणव चोदस० देसूणा। एवं सोहम्मीसाणे । भवण-वाण-जोइसि० सव्यपदा० के० खे० पो० ? लो० असंखे०भागो अधु-णवचोदसभागा वा देमणा । सणक्कुमारादि जाव सहस्सारो ति सव्वपदा० के० खे० पो० ? लोग० असंखे०भागो अहचोदस०
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विशेषार्थ-तिर्यंचों में असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितपदवाले जीव सब लोकमें पाये जाते हैं अतः इन तीन पदवालोंका स्पर्श सब लोक बतलाया है । संख्यात भागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, संख्यात भागहानि और संख्यात गुणहानि विभक्तिवाले तिर्यंच जीव पाये तो लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें ही जाते हैं किन्तु मारणान्तिक और उपपादपदकी अपेक्षा अतीत काल में इन्होंने सब लोकका स्पर्श किया है इसलिये इनका लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण स्पर्श बतलाया है। औदारिकमिश्रकाययोग आदि मूलमें गिनाई गई कुछ और ऐसी मार्गणाएं हैं जिनका स्पर्श तिर्यंचोंके समान है अतः उनके कथनको तिर्यंचोंके समान कहा। . ३११. सभी पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंमें सभी पदवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और सर्वलोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, सभी विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त. बादर वायुकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पति शरीर पर्याप्त और त्रस अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये। इतनो विशेषता है कि बादर वायुकायिक पर्याप्तकोंमें असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके संख्यातवें भाग और सर्वलोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । मनुष्यत्रिकके पंचेन्द्रिय तियेंचोंके समान स्पर्श जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनके असंख्यात गुणहानिकी अपेक्षा स्पर्श ओघके समान है।।
१३१२. देवोंमें सभी पद्वाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम आठ और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार सौधर्म और ऐशान स्वर्गके देवोंके जानना चाहिये । भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें सभी पदवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और त्रप्तनाली के चौदह भागों में से कुछ कम साढ़े तीन भाग और कुछ कम नौ भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देवों में सभी पदवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और प्रसनालीके चौदह भागों में से कछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। आनत, प्राणत, पारण
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૨૭રે
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ देसूणा । आणद-पाणद-आरणच्चुद० सव्वपदा० के० खेतं पोसिदं० १ लोग० असंखे०भागो छचोद्दसभागा वा देसूणा। उवरि खेत्तभंगो। एवं वेउव्वियमिस्स०-आहार०
आहारमिस्स० - अवगद० - अकसा० मणपज्ज० - संजद० - सामाइय-छेदो०-परिहार०सुहुम०-जहाक्खादसंजदे त्ति ।
३१३. सव्वेइंदिय० असंखेज्जभागवड्डी-हाणी-अवहा० के० खे० पो० ? सव्वलोगो। सेसपद० वि० के० खे० पो० ? लोग० असंखे भागो सव्वलोगो वा । एवं पुढवी०-बादरपुढवी० - बादरपुढवीअपज्ज० - सुहुमपुढवी०-सुहुमपुढवीपज्जत्तापज्जत्त
और अच्युत कल्पके देवोंमें सभी पदवाले देवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । सोलहवें कल्पके ऊपर स्पर्श क्षेत्रके समान जानना चाहिये। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत और यथाख्यात संयत जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-सब प्रकारके पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंका वर्तमानकालीन और कुछ अन्य पदोंकी अपेक्षा अतीत कालीन स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा मारणान्तिक और उपपादपदकी अपेक्षा अतीतकालीन स्पर्श सब लोक बतलाया है। तथा सब प्रकारके पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके असंख्यात गुणहानिको छोड़कर सब पद संभव हैं अतः सब प्रकारके तिर्यंचोंमें सब पदवालोंका स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोक कहा है। मूलमें गिनाई गई मनुष्य अपर्याप्तक आदि सब मार्गणाओंमें भी अपने अपने पदोंकी अपेक्षा इसी प्रकार स्पर्श प्राप्त होता है अतः उनके कथनको पंचेन्द्रिय तियचोंके समान कहा है। किन्तु बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंके असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थित पदकी अपेक्षा कुछ विशेषता है। बात यह है कि इन जीवोंने वर्तमानमें लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका और अतीत कालमें सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है अतः उक्त तीन पदोंकी अपेक्षा इनका स्पर्श उक्त प्रमाण ही प्राप्त होता है। जिन कारणोंसे पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंका स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रेमाण या सब लोक प्राप्त होता है वे ही कारण मनुष्यत्रिकके भी समझना चाहिये अतः इनमें पंचेन्द्रियतियंचोंके समान स्पर्श बतलाया है। किन्तु मनुष्योंके नौवां गुणस्थान भी होता है अतः यहां असंख्यातगुणहानि सम्भव है। फिर भी असंख्यात गुणहानिवालोंका जो स्पर्श ओघसे कह आये हैं वही उक्त पदकी अपेक्षा मनुष्योंके जानना चाहिये क्योंकि यह पद मनुष्योंके ही होता है । देवोंमें जिसका जितना स्पर्श है सब पदोंकी अपेक्षा उसका उतना ही स्पर्श प्राप्त होता है अतः यहां उसका विशेष खुलासा नहीं किया। ‘एवं' कह कर मूलमें जो कुछ वैक्रियिकमिश्रकाययोग आदि मार्गणाएं गिनाई हैं वहां एवं' का यही अर्थ है कि जिस मार्गणाका जितना स्पर्श है अपने सम्भव पदोंकी अपेक्षा उस मार्गणाका उतना ही स्पर्श प्राप्त होता है ।
३१३. सभी एकेन्द्रियोंमें असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थित विभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? सर्वलोक क्षेत्रका स्पर्श किया है । तथा शेष पदवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और सर्वलोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपयोप्त,
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गा० २२ ] हिदिविहत्तीए वड ढीए पोसणं
१७३ आउ०-[-बादराउ०-] बादरआउअपज्ज० - सहुमाउ० - सुहुमाउपज्जत्तापज्जत्ततेउ०-बादरतेउ० - बादरतेउअपज्ज० - सुहुमतेउ० - सुहुमतेउपज्जत्तापज्जत्त-वाउ०-बादरवाउ०-बादरवाउअपज्ज सुहुमवाउ० - सुहुमवाउपज्जत्तापज्जत्त- वणप्फदि०-बादरवणप्फदि० - बोदरवणप्फदिपज्जत्तापज्जत्त - सहुमवणप्फदि - सुहुमवणप्फदिपज्जत्तापज्जत्तणिगोद०-बादरणिगोद०-बादरणिगोदपज्जत्तापज्जत्त-सुहमणिगोद०-मुहमणिगोदपज्जत्तापज्जत्त-बादरवणप्फदिपत्तेय०-बादरवणप्फदिपत्तेयअपज्जत्ते त्ति ।
३१४. पंचिंदिय० - पंचि०पज्ज० - तस० - तसपज्ज. सव्वपदवि० के० खे० पो० ? लोग० असंख०भागो अहचोदस० देसूणा सव्वलोगो वा । णवरि असंखेज्जगुणहाणी० ओघं । एवं पंचमण०-पंचवचि०-इत्थि०-पुरिस०-चक्खु०-सण्णि ति । जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक पयाप्त, सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक अपयोप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पति कायिक अपर्याप्त, निगोद, बादर निगोद, बादर निगोद पर्याप्त, बादर निगोद अपर्याप्त, सूक्ष्म निगोद, सूक्ष्मनिगोद पर्याप्त. सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ जैसा कि आघमें घटित करके बतला आये हैं तदनुसार असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितपदवालोंका वर्तमान और अतीत दोनों प्रकारका स्पर्श सब लोक एकेन्द्रियोंमें ही पाया जाता है अतः एकेन्द्रियोंमें उक्त पदवालोंका स्पर्श सब लोक प्रमाण बतलाया। किन्तु एकेन्द्रियोंमें शेष पद सबके नहीं पाये जाते हैं किन्तु जो पंचेन्द्रियोंमेंसे आकर एकेन्द्रिय होते हैं उन्हींके पाये जाते हैं किन्तु ऐसे जीव स्वल्प होते हैं अतः इनका वर्तमान कालीन स्पर्श तो लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है हां अतीत कालीन स्पर्श सब लोक बन जाता है अतः इनमें शेष पदोंकी अपेक्षा वर्तमान कालीन स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा और अतीतकालीन स्पर्श सब लोक कहा। मूलमें जो पृथिवी आदि दूसरी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें भी उक्त प्रमाण स्पर्श उसी क्रमसे बन जाता है अतः उनके कथनको एकेन्द्रियोंके समान कहा । इसी प्रकार आगे और जितनी मार्गणाओंमें अपने अपने पदोंकी अपेक्षा स्पर्श बतलाया है वह उन उन मार्गणाओंके स्पर्शके अनुसार बन जाता है। अतः जिस मार्गणाका जितना स्पर्श है अपने सम्भव पदोंकी अपेक्षा उसका उतना स्पर्श जानना चाहिये जिसका निर्देश मूलमें किया ही है।
६३१४. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस और उस पर्याप्त जीवोंमें सभी पदवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्र का, त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग क्षेत्रका और सब लोकत्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। इतनी विशेषता है कि इनके असंख्यातगुणहानिका स्पर्शन ओघके समान है। इसी प्रकार पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, चतुदर्शनवाले और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये । वैक्रियिक
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [हिदिविहत्ती ३ वेउब्विय० सव्वपदवि० के० खे० पो० ? लोग० असंखे०भागो अह-तेरहचोदस० देसूणा । ओरालि० तिरिक्खोघं । एवं णवूस० ।
३१५. मदि-सुदअण्णा० अोघं । णव रि असंखेज्जगुणहाणी णत्थि । एवमसंजद०-अभव०-मिच्छादिहि त्ति । विहंग० पंचिंदियभंगो। णवरि असंखेज्जगुणहाणी णत्थि । आभिणि-सुद०-अोहि० तिणि हाणी० के० खे० पो० ? लोग० असंखे० भागो अहचोद्दस० देमणा । असंखे०गुणहाणी ओघं। एवमोहिदंस सम्मादिहि त्ति । एवं वेदय० । णवरि असंखेज्जगुणहाणी णत्थि ।
३१६. तेउ. सोहम्मभंगो । पम्म० सहस्सारभंगो । सक्क० तिण्णिहाणी के. खे० पोसिदं ? लोग० असंखे भागो छच्चोदस० देसूगा । असंखेज्जगुणहाणी० ओघं ।
३१७. खइथ० असंखे०भागहाणी० के० ख० पो० ? लो० असं० भागो । अहचौदस० देसूणा । सेसपदाणं खेत्तभंगो। उवसम० असंखे० भागहाणी० संख०भागहाणी० के० खे० पो० ? लोग० असंखे०भागो अहचोदस० देसूणा । सासण. काययोगियोंमें सभी पदवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम तेरह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । औदारिककाययोगियोंके स्पर्श सामान्य तिर्याञ्चोंके समान जानना चाहिये। इसी प्रकार नपुंसकवेदी जीवोंके जानना चाहिये।
३१५. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंके अोधके समान जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनके असंख्यातगुणहानि नहीं पाई जाती है। इसी प्रकार असंयत, अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । विभंगज्ञानियोंके पंचेन्द्रियोंके समान स्पर्श है । इतनी विशेषता है कि इनके असंख्यातगुणहानि नहीं पायी जाती है। आभिनिबोधिकज्ञानी, अतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें तीन हानिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा इनके असंख्यातगुणहानिको अपेक्षा स्पर्शन अोधके समान है। इसी प्रकार अवधिदशेनवाले और सम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । तथा इसी प्रकार वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनके असंख्यातगुणहानि नहीं पाई जाती है।
६३१६. पीतलेश्यावालोंके सौधर्म कल्पके समान स्पर्शन है। पद्मलेश्यावालोंके सहस्त्रार कल्पके समान स्पर्श है । तथा शुक्ललेश्यावालोंमें तीन हानिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम छह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा इनके असंख्यातगुणहानिकी अपेक्षा स्पर्शन श्रोधके समान है।
६ ३१७. क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें असंख्यातभागहानिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा इनके शेष पदोंकी अपेक्षा स्पर्शन क्षेत्रके समान है। उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें असंख्यातभागहानि और संख्यातभागहानिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और त्रसनालोके चौदह भागोंमें से कुछ कम
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नगा ।
गा• २२] हिदिविहत्तीए वड ढीए कालो
१७५ असंखेज्जभागहाणी० के० खे० पो० ? लोग. असंखे०भागो अह-बारहचोद्दस० देसूणा । सम्मामि० वेदय भंगो ।
३१८. संजदासंजद० असंखे०भागहाणी० के० खे० पो० ? लोग० असंख०भागो छचोद्दस० देसूणा । संखे भागहाणी० खेत्तभंगो ।
एवं पोसणाणुगमो समत्तो । - ३१६. कालाणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण असंखे०भागवड्डी-हाणी-अवहा० केवचिरं ? सव्वद्धा । दोवडी० दोहाणी० के० ? ज. एगसमओ, उक्क० श्रावलि० असंखो भागो। असंखो०गुणहाणी० जह० एगसमझो, उक्क० संखोज्जा समया । एवं कायजोगि०-ओरालि०-णस०-चत्तारिक०-अचक्खु०-भवसि०आहारि त्ति । आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें असंख्यातभागहानिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका तथा सनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम बारह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। सम्यग्मिथ्याष्टियों के वेदकसम्यग्दृष्टियोंके समान स्पर्श जानना चाहिये ।
३१८. संयतासंयतोंमें असंख्यात भागहानिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और बसनालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । तथा इनके संख्यात भागहानिकी अपेक्षा स्पर्श क्षेत्रके समान है।
इस प्रकार स्पर्शनानुगम समाप्त हुआ। ९३१६. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-अोघनिर्देश और श्रादेशनिर्देश । उनमें से ओघकी अपेक्षा असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? सर्वकाल है। दो वृद्धि और दो हानिवाले जीवोंका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा असंख्यात गुणहानिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। इसी प्रकार काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, अचक्षुदर्शनवाले, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-यहां नाना जीवोंकी अपेक्षा कालका विचार किया जा रहा है। तदनुसार ओघसे असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थित स्थितिवाले जीव अनन्त हैं अतः इनका सद्भाव सर्वदा पाया जाता है । संख्यात भागवृद्धि और संख्यात गुणवृद्धि तथा संख्यात भागहानि और संख्यात गुणहानि इनके निरन्तर रहने का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है. अतः इनका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल असंख्यातवें भागप्रमाण कहा। तथा असंख्यात गुणहानि अनिवृत्ति क्षपकके ही होती है और अनिवृत्ति क्षपकके इसके निरन्तर प्राप्त होनेका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है, अतः असंख्यात'गुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल तत्प्रमाण बतलाया। यह ओघ प्ररूपणा काययोगी आदि कुछ मार्गणाओं में अवकिल बन जाती है, अतः उनकी कथनी ओघके समान कही।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ ३२०. श्रादेसेण णेरइएसु असंखेजभागहाणी-अवहि० के० ? सव्वद्धा । सेसपदा० के० ? जह० एगसमओ, उक्क० आवलि० असंखे भागो । एवं सत्तसु पुढवीसु सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-देव०भवणादि जाव सहस्सार०-पंचिं०अपज्ज०-सव्वविगलिंदिय-बादरपुढविपज०-बादराउपज्ज० - बादरतेउपज्ज० - बादरवाउपज्ज-बादरवणप्फदिपत्तेयपज्ज-तसअपज०-वेउब्धिय०-विहंग०-तेउ०-पम्मलेस्से ति ।।
३२१. तिरिक्खा ओघं । णवरि असंखे०गुणहाणी णत्थि । एवमोरालियमिस्स० - कम्मइय० - मदि-सुदअण्णा०-असंजद० - तिण्णिलेस्सा०-अभव०-मिच्छादि०असण्णि-अणाहारि त्ति ।
$ ३२२. मणुस० पंचिं०तिरिक्खभंगो । णवरि असंखे०गुणहाणी० ओघं । एवं पंचिं०-पंचिं०पज्ज-तस-तसपज०-पंचमण-पंचवचि०-इत्थि०-पुरिस-चक्खु०-सण्णि त्ति। मणुसपज०-मणुसिणी० एवं चेव ? णवरि जम्हि आवलि० असंखे०
६३२०. आदेशनिर्देशकी अपेक्षा नारकियोंमें असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? सर्व काल है । तथा शेष पदवालोंका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, सभी पंचेन्द्रिय तिर्यंच, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देव, पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक, सभी विकलेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त, बस अपर्याप्त, वैक्रियिककाययोगी, विभंगज्ञानी, पीतलेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-नारकियोंमें असंख्यात भागहानि और अवस्थितस्थिति ये दो ध्रुव पद हैं अतः यहां इनका सर्वदा काल कहा । इसी प्रकार आगे भी जानना । तथा शेष पद अध्रुव हैं फिर भी यदि वे निरन्तर रहें तो कम से कम एक समय तक और अधिक से अधिक आवलिके असंख्यातवें भाग काल तक निरन्तर पाये जाते हैं अतः शेष पदोंका जघन्य काल एक समय और • उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा। सातों नरकके नारकी आदि कुछ ऐसी मागणाएं है जिनमें उक्त प्ररूपणा अविकल बन जाती है, अतः इनमें सब सम्भव पदोंका काल सामान्य नारकियोंके समान कहा ।
___६३२१. सामान्य तिर्यंचोंके ओघके समान जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके असंख्यात गुणहानि नहीं पाई जाती है। इसी प्रकार औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, कृष्णादि तीन लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये ।
६३२२. सामान्य मनुष्यों के पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि इनके असंख्यात गुणहानिका काल ओघके समान है। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, बस पर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, स्त्रीवेदवाले, पुरुषवेदवाले, चतुदर्शनवाले और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये । मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंके भी इसी प्रकार जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि पहले जहाँ आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण काल कहा है वहाँ इनके
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गा० २२ ] हिदिविहत्तीए वड ढीए कालो
१७७ भागो तम्हि संखेजा समया। णवरि संखे०भागहाणी. जह० एयसमो, उक्क० आवलि. असंखे०भागो। मणुसअपज० असंखे०भागहाणी-अवहि. के. १ जह० एगसमओ, उक्क पलिदो० असंख०भागो। सेसपदवि० के० ? जह० एगसमो , उक० आवलि. असंखे भागो । एवं वेउब्बियमिस्स० ।
संख्यात समय काल कहना चाहिये । तथा इतनी और विशेषता है कि इनके संख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्टकाल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। मनुष्य अपर्यातकोंमें असंख्यातभागहानि और अवस्थित विभक्तिवाले जीवोंके कितना काल है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा शेष पवाले जीवोंका कितना काल है ? जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-तिर्यंचोंका प्रमाण अनन्त है, अतः उनके सब पदोंका काल ओघके समान बन जाता है। किन्तु इनके असंख्यातगुणहानि नहीं होती, क्योंकि यह पद अनिवृत्तिक्षपकके ही पाया जाता है । औदारिकमिश्रकाययोग आदि कुछ ऐसी मार्गणाएं हैं जिनमें उक्त प्ररूपणा बन जाती है अतः इनमें सब सम्भव पदोंका काल सामान्य तिर्यंचोंके समान कहा। मनुष्योंके और सब पदोंका काल तो पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान है, क्योंकि इनके ध्र व और अध्र व पद पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के समान पाये जाते हैं । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके असंख्यातगुणहानि और पाई जाती है। पर यह पद मनुष्यों के ही होता है क्योंकि अनिवृत्ति क्षपक गुणस्थान मनुष्य गतिको छोड़कर अन्य गतिवाले जीवोंके नहीं पाया जाता। अतः सामान्य मनुष्योंके इस पदका काल ओघके समान बन जाता है। पंचेन्द्रिय आदि कुछ ऐसी मार्गणाएं हैं जिनमें उक्त प्ररूपणा बन जाती है अतः उनमें सम्भव सब पदोंका काल सामान्य मनुष्योंके समान कहा । मनुष्यपर्याप्त
और मनुष्यनी संख्यात होते हैं, अतः इनके संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, और संख्यात गुणहानिका उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त न होकर संख्यात समय प्राप्त होता है। किन्तु उक्त दोनों मार्गणावालोंका प्रमाण संख्यात होते हुए भी इनके संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण बन जाता है, क्योंकि पहले एक जीवकी अपेक्षा संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल दो कम उत्कृष्ट संख्यात समय प्रमाण बतला आये हैं। अब यदि किसी एक पर्याप्तमनुष्य या मनुष्यनीने संख्यातभागहानिका प्रारम्भ किया और वह संख्यात भागहानिके उत्कृष्ट काल तक उसके साथ रहकर जिस समय समाप्त करता है उसी समय किसी उक्त मार्गणावाले अन्य जीवने उसका प्रारम्भ किया तो इस प्रकार निरन्तर संख्यातभागहानिकी प्रवृत्ति प्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक पाई जाती है अतः उक्त मार्गणाओंमें इसका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा। मनुष्य अपर्याप्त यह सान्तर मार्गणा है अतः इस मार्गणाका जो उत्कृष्ट काल है वही यहां असंख्यातभागहानि और अवस्थित पदका उत्कृष्ट काल जानना। किन्तु अन्तरकालके बाद जब नाना जीव इस मार्गणाको प्राप्त होते हैं तब वे यदि एक समय तक असंख्यातभागहानि या अवस्थित पदके साथ रहे और दूसरे समयमें अन्य पदको प्राप्त हो गये तो इनके उक्त दो पदोंका जघन्यकाल एक समय पाया जाता है। वैक्रियिकमिश्रकाययोग यह मार्गणा भी सान्तर है, अतः यहां भी लब्ध्यपर्याप्त मनुष्योंके समान सम्भव सब पदोंका काल बन जाता है।
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जयपषलासहिदे कसायपाहुडे .
. [हिदिविहत्ती ३ ३२३. आणदादि जाव अवराइद त्ति असंखे०भागहाणी० के० १ सव्वद्धा । संखे०भागहाणी. जह० एगसमओ, उक्क० श्रावलि. असंख०भागो। एवं संजदासंजद० । सव असंख० भागहाणी० के०? सव्वद्धा । संखजभागहाणी ज० एगस०, उक्क० संखेजा समया । एवं परिहार० ।।
३२४. सव्वएइंदिएसु असंखे भागवड्डी-हाणी-अवहि० तिरिक्वोघं । सेसपदवि० के० ? जह० एगसमओ, उक्क० आवलि० असंखे०भागो । एवं पुढवि०-बादरपुढवि०-बादरपुढविअपज्ज०-सुहुमपुढवि०-सुहुमपुढविपज्जत्तापञ्जत्त-आउ०-बादरआउ०बादराउअपज्ज०-सुहुमाउ०-सुहुमाउपजत्तापज्जत्त-तेउ०-[-बादरतेउ०-] बादरतेउअपज्ज०-सुहुमतेउ०-सुहुमतेउपजत्तापज्जत-वाउ०-बादरवाउ०-बादरवाउअपज्ज०-मुहुमवाउ०-मुहुमवाउपज्जत्तापज्जत्त-वणप्फदि०-बादरवणप्फदि-बादरवणप्फदिपज्जत्तापज्जत्तसुहुमवणप्फदि० - सुहुमवणप्फदिपज्जत्तापज्जत्त - बादरवणप्फदिपत्तेयसरीर० - तस्सेव अपज्जत्ते ति।
$३२३. आनत कल्पसे लेकर अपराजित कल्पतकके देवोंमें असंख्यातभागहानिवाले जीवोंका कितना काल है ? सब काल है। संख्यातभागहानिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार संयतासंयत जीवोंके जानना चाहिये । सर्वार्थ सिद्धि में असंख्यातभागहानिवाले जीवोंका कितना काल है ? सर्व काल है। तथा संख्यातभागहानिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्टकाल संख्यात समय है। इसी प्रकार परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-आनत कल्पसे लेकर अपराजित तकके प्रत्येक स्थान के देवोंका प्रमाण असंख्यात है अतः यहाँ संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण बन जाता है । पर सर्वार्थसिद्धिमें देवोंका तथा परिहारविशुद्धि संयतोंका प्रमाण संख्यात है, अतः यहाँ संख्यातभागहानिका उत्कृष्ट काल संख्यात समय ही प्राप्त होता है । शेष कथन सुगम है। .
३२४. सभी एकेन्द्रियोंमें असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थित विभक्तिवाले जीवोंका काल सामान्य तिर्यंचोंके समान है। तथा शेष पदवाले जीवोंका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त, वनस्थितिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये।
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गा० २२]
द्विदिविहत्तीए वड ढीए कालो $ ३२५. आहार० असंखे०भागहाणी. जह० एगसमो,उक्क० अंतोमु०। एवमकसा०-जहारवादसंजदे ति । आहारमिस्स० असंखे भागहाणी० जहण्णुक्क० अंतोमु० । अवगद० असंख०भागहाणी के० ? जह० एगसमो, उक्क० अंतोमु० । सेसपदा० मणुसपज्जत्तभंगो । एवं सुहुमसांपरा।
$ ३२६. आभिणि-सुद०-ओहि. असंखे०भागहाणी० के० ? “सवद्धा । सेसपदा० पंचिंदयभंगो । एवमोहिदंस०-सुक्क० सम्मादिट्टि त्ति । मणपज्ज. असंखे० भागहाणी० के० १ सव्वद्धा । सेसपदा० के० ? जह० एगसमओ, उक्क० संखेजा समया । णवरि संखे भागहाणी० उक्क० श्रावलि० असंखे०भागो। एवं संजद०-सामाइय-छेदोव०-खइय० । णवरि सामाइय-छेदोव० संखेज्जभागहाणी. उक० संखज्जा समया ।
९ ३२७. वेदय० असंखेजभागहाणी० के० १ सव्वद्धा । सेसपद० आभिणि०.
६३२५. आहारककाययोगियोंमें असंख्यातभागहानिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार अकषायी और यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिये । आहारकमिश्रकाययोगियोंमें असंख्यातभागहानिवाले जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अपगतवेदियोंमें असंख्यातभागहानिवाले जीवोंका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । तथा इनके शेष पदोंकी अपेक्षा काल मनुष्य पर्याप्तकोंके समान जानना चाहिये । इसी प्रकार सूक्ष्मसांपरायिकसंयतों के जानना चाहिये।
विशेषार्थ आहारककाययोग,विवक्षित प्रकरणमें अकषाय और यथाख्यातसंयतका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है,अतः यहाँ असंख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल उक्तप्रमाण कहा । किन्तु आहारकमिश्रकाययोगका जघन्य काल भी अन्तमुहूर्त है, अतः इसमें असंख्यातभागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त ही प्राप्त होता है । अपगतवेद और सूक्ष्मसाम्परायका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है अतः इसमें असंख्यात भागहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल उक्तप्रमाण बन जाता है । तथा अपगतवेद अवस्था सूक्ष्म साम्परायसंयत मनुष्योंके भी होती है, अतः इनमें सम्भव शेष पदोंका काल मनुष्य पर्याप्तकोंके समान बन जाता है।
$३२६. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानियोंमें असंख्यातभागहानिवाले जीवोंका कितना काल है ? सबैकाल है । तथा शेष पदोंकी अपेक्षा काल पंचेन्द्रियोंके समान जानना चाहिये । इसी प्रकार अवधिदर्शनवाले, शुक्ललेश्यावाले और सम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये। मनःपर्ययज्ञानियोंमें असंख्यातभागहानिवाले जीवों का कितना काल है ? सर्वकाल है । तथा शेष पवाले जीवोंका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। इतनी विशेषता है कि संख्यातभागहानिवाले जीवोंका उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। इसी प्रकार संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि सामायिकसंयत और छेदोपस्थापना संयतोंमें संख्यातभागहानिवाले जीवोंका उत्कृष्ट काल संख्यात समय है।
६३२७. वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें असंख्यातभागहानियाले जीवोंका कितना काल है ? सर्वकाल
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ भंगो । उवसम० असंखे भागहाणी० के० १ जह० अंतोमुहुत्त, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । संखे०भागहाणी० जह० एगसमओ, उक्क० आवलि० असंख०भागो । सासण. असंख०भागहाणी० के० ज० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। सम्मामि० असंखे०भागहाणी० जह• एगसमो, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । सेसपदाणमोहिभंगो।
एवं कालाणुगमो समत्तो । ३२८ अंतराणुगमेण दुविहो णिद्देसो—ोघेण आदेसेण य । तत्त्थ ओघेण. असंखे० भागवड्डी-हाणी-अवहि० णत्थि अंतरं । दो वड्डी-हाणी. अंतरं के० ? जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । असंख०गुणहाणी० अंतरं के० ? जह० एगसमो, उक० छ मासा । एवं कायजोगि० - ओरालि०-णवुस०-चत्तारिक०-अचक्खु०-भवसि०. आहारि त्ति । णवरि णवुसयवेदे असंखे० गुणहाणी० उक्क० अंतरं वासपुधत्त । कोध-माण-माया-लोभाणं वार्स सादिरेयं । है। तथा इनके शेष पदोंकी अपेक्षा काल अभिनिबोधिकज्ञानियोंके समान है। उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें असंख्यातभागहानिवाले जीवोंका कितना काल है ? जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा संख्यातभागहानिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें असंख्यातभागहानिवाले जीवोंका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । सम्यग्मिध्यादृष्टियोंमें असंख्यातभागहानिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा शेष पदोंकी अपेक्षा काल अवधिज्ञानियोंके समान है।
इस प्रकार कालानुगम समाप्त हुआ। ६३२८. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं है । दो वृद्धि और दो हानिवाले जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। तथा असंख्यातगुणहानिवाले जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल, एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है। इसी प्रकार काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदवाले, क्रोधादि चार कषायवाले, अचक्षुदर्शनवाले भव्य और, आहारक जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है नपुसकवेदमें असंख्यातगुणहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है और क्रोध, मान, माया और लोभमें असंख्यातगुणहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक एक वर्ष है।
विशेषार्थ-असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितका काल सर्वदा है अतः इनका अन्तरकाल नहीं पाया जाता। संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, संख्यातभागहानि
और संख्यातगुणहानि ये कमसे कम एक समयके बाद और अधिकसे अधिक अन्तमुहूर्त कालके बाद नियमसे प्राप्त होती हैं, अतः इनका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त कहा। तथा असंख्यातगुणहानि क्षपकश्रेणीमें ही होती है और इसका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर क्रमशः एक समय और छह महीना प्रमाण है, अतः असंख्यातगुणहानिका जघन्य
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द्विदिविहत्तीए वड्ढीए अंतरं
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$३२६, आदेसेण णिरयगईए असंखे० भागहाणी - अवडि० णत्थि अंतरं । सेस पदार्थं केव० ? ज० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । एवं सत्तसु पुढवीसु पंचिदियतिरिक्ख पंचि ० तिर० पज्ज० - पंचिं ० तिर० जोगिणी- पंचिं० तिरि० अपज्ज० - देव० - भवणादि जाव सहस्सार ० - पंचिं ० अपज्ज० तस पज्ज० - वे उब्वि० - विभंग० ते ० - पम्मलेस्से ति । ९ ३३०. तिरिक्खा० ओघं । णवरि संखेज्जगुणहाणी णत्थि । एवमोरालियमिस्स० - कम्मइय० - मदि - सुदण्णा० - असंजद० - किण्ह - णील- काउ ० - अभव० - मिच्छा ०असणि० - रणाहारि त्ति ।
0
$३३१. मणुस ० रिओघं । णवरि असंखे० गुणहाणी० श्रोषं । एवं पंचिंदिय- पंचिं ० पज्ज० - तस-तसपज्ज० - पंचमण ० - पंचवचि० - इत्थि० - पुरिस० चक्खु०सणिति । मणुसपञ्ज० - मणुसिणी० एवं चेव । वरि इत्थि० - मणुस्सिरणी ० संखेज्जगुणहाणी • वासपुधतं । पुरिसवेद० वासं सादिरेयं ।
अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना प्रमाण कहा । काययोगी आदि कुछ ऐसी मार्गणाएं हैं जिनमें यह ओघ प्ररूपणा बन जाती है, अतः उनके कथनको ओघके समान कहा । किन्तु इतनी विशेषता है कि यदि नपुंसकवेदी जीव क्षपकश्रेणी पर न चढ़े तो अधिक से अधिक वर्षपृथक्त्व काल तक नहीं चढ़ता है अतः इसके असंख्यातगुणहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्ष पृथक्त्व प्रमाण कहा । तथा क्रोधादि कषायवाले जीव यदि क्षपकश्रेणी पर न चढ़ें तो अधिक से अधिकाधिक एक वर्ष तक नहीं चढ़ते हैं, अतः इनके असंख्यातगुणहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक एक वर्ष प्रमाण कहा ।
९ ३२६. आदेशनिर्देशकी अपेक्षा नरकगति में असंख्यात भागहानि और अवस्थितविभक्ति वाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं है। तथा इनके शेष पदोंकी अपेक्षा अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार सातों पृथिवियों के नारकी, पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त, पंचेन्द्रियतिर्यंच योनिमती, पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देव, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, त्रस अपर्याप्त, वैक्रियिककाययोगी. विभंगज्ञानी, पीतलेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिये ।
९ ३३०. तिर्यंचों के अन्तरकाल ओघ के समान जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके असंख्यातगुणहानि नहीं होती है । इसी प्रकार औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मरणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, कृष्णलेश्यावाले, नील वेश्यावाले कापोतलेश्यावाले, अभव्य, मिध्यादृष्टि, संज्ञी और अनाहारक जीवोंके 'जानना चाहिये ।
९ ३३१. मनुष्यों में अन्तरकाल सामान्य नारकियोंके समान जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके असंतगुणहानिकी अपेक्षा अन्तरकाल ओघ के समान है । इसी प्रकार पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रस पर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, स्त्रीवेदवाले, पुरुषवेदवाले, चतुदर्शनवाले और संज्ञी जीवों के जानना चाहिये । मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनीके भी इसी प्रकार जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेदवाले और मनुष्यनीके असंख्यातगुणहानिकी अपेक्षा अन्तरकाल वर्षपथक्त्व है । तथा पुरुषवेदवाले जीवोंके साधिक एक वर्ष है ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ .. ३३२. मणुसअपज्ज. सव्वपदा० अंतरं के० ? जह० एगसमो , उक्क० पलिदो० असंखे०भागो।
६३३३. आणदादि जाव अवराइद त्ति असंख०भागहाणीए णत्थि अंतरं । संखे० भागहाणि अंतरं के० ? जह० एगसमओ, उक्क सत्त रादिदियाणि वासपुधत्तं । सव्व असंखेज्जभागहाणीए णत्थि अंतरं । असंखे० भागहांणि अंतरं के ? जह० एगसमभो, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो ।
विशेषार्थ-नरकगतिमें असंख्यातभागहानि और अवस्थित ये दो पद निरन्तर पाये जाते हैं अतः इनका अन्तरकाल नहीं बनता। तथा यहां सम्भव शेष पदोंका अन्तरकाल ओघमें जिस प्रकार घटित करके लिख आये हैं उसी प्रकार यहां भी जानना । सातों नरकके नारकी आदि कुछ मार्गणाएं ऐसी हैं जिनमें नरकगतिके समान अन्तरकालकी प्ररूपणा बन जाती है, अतः उनके कथनको सामान्य नारकियोंके समान कहा । तिर्यंचोंके असंख्यातभागहानि, असंख्यात भागवृद्धि और अवस्थित ये तीन पद निरन्तर पाये जाते हैं अतः इनमें अन्तर प्ररूपणा ओघके समान कही। किन्तु तियचोंके असंख्यातगुणहानि नहीं होती, क्योंकि यह पद अनिवृत्तिक्षपकके ही पाया जाता है । औदारिकमिश्रकाययोग आदि कुछ और भी मार्गणाएं हैं जिनमें सम्भव पदोंका अन्तरकाल सामान्य तियचोंके समान बन जता है, अतः उनकी प्ररूपणा सामान्य तिर्यंचोंके समान कही। मनुष्योंमें असंख्यातभागहानि और अवस्थित ये दो पद ही निरन्तर पाये जाते हैं, अतः इनमें अन्तर प्ररूपणा सामान्य नारकियोंके समान कही । किन्तु इनके असंख्यातगुणहानि भी पाई जाती है जो मनुष्य पर्यायमें ही सम्भव है, अतः मनुष्योंके असंख्यातगुणहानिका अन्तरकाल अोधके समान कहा। पंचेन्द्रिय आदि कुछ और ऐसी मार्गणाएं हैं जिनमें अन्तरकाल सामान्य मनुष्योंके समान है, अतः उनकी प्ररूपणा सामान्य मनुष्यों के समान कही। किन्तु इतनी विशेषता है कि मनुष्यनीके क्षपकश्रेणीका उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व प्रमाण है, अतः स्त्रीवेद और मनुष्यनीके असंख्यातगुणहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व प्रमाण कहा । तथा पुरुषवेदमें क्षपकश्रेणीका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक एक वर्ष प्रमाण पाया जाता है, अतः पुरुषवेदमें असंख्यातगुणहानिका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक एक वर्ष प्रमाण कहा।
६. ३३२ मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सभी पदवाले जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है।
विशेषार्थ-लब्ध्यपर्याप्त मनुष्योंका जघन्य अन्तर काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, अतः इनके सम्भव सब पदोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त प्रमाण कहा।
६३३३. आनत कल्पसे लेकर अपराजित तकके देवोंके असंख्यातभागहानिकी अपेक्ष अन्तरकाल नहीं है। संख्यातभागहानिवाले उक्त देवोंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल सात दिन रात और वषपृथत्व है। सर्वार्थसिद्धिमें असंख्यात भागहानिकी अपेक्षा अन्तरकाल नहीं है। तथा संख्यातभागहानिवाले उक्त देवोंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है।
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गा० २२]
हिदिविहत्तीए वड ढीए अंतर $ ३३४. एइंदिएसु सव्वपदाणं तिरिक्खोपं । एवं पुढवि-बादरपुढवि०बादरपुढविअपज्ज०-सुहुमपुढवि० - सुहुमपुढविपज्जत्तापज्जत्त-आउ.-बादराउ०बादरआउअपज्ज•-सुहुमाउ० - सुहुमआउपज्जत्तापज्जत्त-तेउ०-बादरतेउ०-बादरतेउअपज्ज०-सुहुमतेउ०-सुहुमतेउपज्जत्तापज्जत्त-वाउ०-बादरवाउ०-बादरवाउअपज्ज०सुहुमवाउ०-सुहुमवाउपज्जत्तापज्जत्त-बादरवणप्फदिपत्रेय०-तस्सेव अपज्ज-वणप्फदि०-बादरवणप्फदि-बादरवणप्फदिपज्जत्तापज्जत्त-सुहुमवणप्फदि०--मुहुमवणप्फदिपज्जत्तापज्जत्त-णिगोद०-बादरणिगोद-बादरणिगोदपज्जत्तापज्जत्त-सुहुमणिगोद०-सुहुमणिगोदपज्जत्तापज्जने ति ।
३३५. सव्वविगलिंदिय० सव्वपदाणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो । एवं बादरपुढविपज्ज०-बादरभाउपज्ज०-वादरतेउपज्ज०-बादरवाउपज्ज०-बादरवणप्फदिपत्तेयसरीरपज्जत्ता त्ति ।
$ ३३६. वेउव्वियमिस्स० सव्वपदाणमंतरं जह० एगसमो, उक्क० बारस मुहुत्त । आहार०-आहारमिस्स० असंखे०भागहाणि० अंतरं के० ? ज० एगसमत्रो, उक्क. वासपुधत्त । एवमकसाय-जहाक्वादसंजदे त्ति ।
६३३४ एकेन्द्रियोंमें सभी पदोंकी अपेक्षा अन्तरकाल सामान्य तिर्यंचोंके समान है। इसी प्रकार पृथिवीकायिक, बादर पृथ्वीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर, बादर बनस्पतिकायिक प्रत्केक शरीर अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, निगोद, बादर निगोद, बादरनिगोद पर्याप्त, बादर निगोद अपर्याप्त, सूक्ष्मनिगोद, सूक्ष्मनिगोद पर्याप्त और सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये।
६३३५. सभी विकलेन्द्रियोंमें सभी पदोंकी अपेक्षा अन्तरकाल पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान जानना चाहिये । इसी प्रकार बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पाप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये।
६३३६. वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें सभी पदवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल बारह मुहूर्त है। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगियोंमें असंख्यातभागहानिवाले जीवोंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है। इसी प्रकार अकषायी और यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिये।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ द्विदिविहत्ती ३
३३७, अगद० तिण्णि हाणि० जह० एगसमओ, उक्क० छम्मासा एवं सुहुमसांपरा ० ।
९ ३३८. आभिणि० - सुद० - ओहि० असंखे ० भागहाणि ० णत्थि अंतरं । संखे० भागहाणि० - संखेगुणहारिण० ज० एगसमओ, उक्क० चउवीस अहोरत्ताणि । असंखे०गुणहाणी० ओघं । एवमोहिदंस ० - सम्मादिट्ठिति । णवरि ओहिणाणि ० हिदंसणी० असंखे० गुणहारिण० उक्क० वासपुधत्तं । मणपज्ज० असंखे ० भागहारिण०संखे० भागहाणि० ओहि०भंगो । दोहारिण० अंतरं ज० एगसमओ, उक्क० वासपुधत्तं ।
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९ ३३६. संजद० - सामाइय-छेद० असंखेज्जभागहाणी ० रात्थि अंतरं । संखे ० भागहारिण० मणपज्जवभंगो । दोहारिण० जह० एगसमओ, उक्क० छ मासा । परिहार०संजदासंजद ० असंखे ० भागहा ० - संखे ० भागहाणी० आभिणि० भंगो ।
O
$ ३४०. सुकले. असंखेज्जभागहाणि णत्थि अंतरं । सेसपदा० श्रघं । खइय० संजदभंगो | णवरि संखेज्जभागहाणी • उक्क० छम्मासा । वेदय० सव्वपदाणमाभिणि०भंगो ! उवसम० असखे० भागहाणी • जह एगसमत्रो, उक्क० चउवीस होरतारण ।
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I
९ ३३७. अपगतवेदियों में तीन हानिवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है । इसी प्रकार सूक्ष्मसांपरायिक संगत जीवोंके जानना चाहिये । ९३३८. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानियों में असंख्यात भागहानिवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं है । संख्यातभागहानिवाले और संख्यातगुणहानिवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल चौबीस दिनरात है । तथा असंख्यात हानिवाले जीवोंका अन्तरकाल ओघ के समान है । इसी प्रकार अवधिदर्शनवाले और सम्यग्दृष्टि जीवों के जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी जीवोंके असंख्यात गुणहानिकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है । मन:पर्ययज्ञानियोंमें असंख्यात भागहानि और संख्यात भागहानिवाले जीवोंका अन्तरकाल अवधिज्ञानियोंके समान है । तथा दो हानिवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षं पृथक्त्व है ।
९ ३३६. संयत, सामायिकसंयत और छेदोपस्थापना संयतों में असंख्यात भागहानिवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं है । संख्यात भागहानिवाले जीवोंका अन्तरकाल मन:पर्ययज्ञानियों के समान हैं । तथा दो हानिवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है । परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयतों में असंख्यात भागहानि और संख्यातभागहानिवाले जीवोंका अन्तरकाल आभिनिबोधिकज्ञानियोंके समान है ।
३४०. शुक्ललेश्यावालों में असंख्यात भागहानिवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं है । तथा शेष पदों की अपेक्षा अन्तरकाल ओघ के समान है । क्षायिकम्यग्दृष्टियों में संयतोंके समान जानना चाहिये | इतनी विशेषता है कि संख्यात भागहानिवाले जीवोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है । वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें सभी पदों की अपेक्षा अन्तरकाल अभिनिबोधिकज्ञानियोंके समान है । उपशम सम्यग्दृष्टियों में असंख्यात भागहानिवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल चौबीस दिनरात है ।
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गा० २२ ]
द्विदिविहत्तीए वड्ढीए अप्पाबहुअं
१ ३४१ (जइव सहारियो उ समसम्माइद्विकालम्मि अणंताणुबंधिविसंजोयणमिच्छदित साहिप्पारण संखे ० भागहाणी लभदि सा एत्थ कत्थ वि वृत्ता कत्थ विण बुत्ता तेण थप्पं काऊ एत्थ संखेज्जभागहाणी वत्तव्वा । अथवा उवसमसेढीए दंसणतियस्स हिदिघादसंभव पक्वमस्सियूण उवसमसम्माइडिम्म सव्वत्थ संखेज्जभागहाणी शिव्विसंकमणुगंतव्वा । सासण० असंखे० भागहा० ज० एयसमओ, उक्क पलिदो ०. संखे० भागो । एवं सम्मामि० । वरि पदभेदो अत्थि ।
एवमंतराणुगमो समत्तो ।
९ ३४२ भावाणुगमेण सव्वत्थ सव्वपदाणं को भावो ? ओदइओ भावो । एवं भावानुगमो समत्तो ।
९ ३४३. अप्पा हुगागमेण दुविहो सो - ओघेण आदेसेण य । तत्थ श्रघेण सव्वत्थोवा असंखे० गुणहाणि विहत्तिया जीवा । संखे० गुणहाणिविह० जीवा असं ० गुणा । संखे० भागहाणिवि० ज वा संखे० गुणा । संखे० गुंगवड्ढि वि० जीवा असंखेज्जगुणा । संखेज्जभागवडिवि० जीवा संखेज्जगुणा । असंखेज्जभागवड्ढि ० जीवा अतगुणा । अवद्विदवि० जीवा असंखे० गुणा । असंखे ० भागहारिणविहत्तिया
९ ३४१ यतिवृषभ आचार्य उपशमसम्यग्दृष्टि के काल में अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना स्वीकार करते हैं, अतः इनके अभिप्राय से उपशम सम्यग्दृष्टियों के संख्यातभागहानि प्राप्त होती है । वह यहाँ कहीं पर कही गई है और कहीं पर नहीं कही गई है, इसलिये इसे स्थगित करके यहाँ पर संख्यात भागहानि कहनी चाहिये । अथवा उपशमश्रेणिमें तीन दर्शनमोहनीयका स्थितिघात संभव है, अतः इस पक्षका आश्रय करके उपशमसम्यग्दृष्टिके सर्वत्र संख्यात भागहानि निःशंक जाननी चाहिये । सासादनसम्यग्दृष्टियों में असंख्यात भागहानिवाले जीवोंका जधन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों के कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके पद विशेष पाये जाते हैं । अर्थात् सासादन में असंख्यात भागहानि पद है और सम्यग्मिथ्यात्व में असंख्यात भागहानि, संख्यात भागहानि और संख्यातगुणहानि इस प्रकार ये तीन पद हैं।
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इस प्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ ।
$ ३४२. भावानुगमकी अपेक्षा सर्वत्र सभी पदोंकी अपेक्षा क्या भाव है । औदयिकभाव है । इस प्रकार भावानुगम समाप्त हुआ ।
९ ३४३, अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है। ओघ निर्देश और आदेश निर्देश | उनमें से ओकी अपेक्षा असंख्यातगुणहानिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे संख्यातगुणहानिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यात भागहानिवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यातगुणवृद्धिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे संख्यात भागवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे श्रसंख्यातभागवृद्धिवाले जीव अनन्तगुणे हैं। इनसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे
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१८६ .
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती जीवा संखेगुणा । एवं कायजोगि०-णवूस०-चत्तारिफसाय-अचक्खु-भवसि०आहारि त्ति । ___३४४. आदेसेण णेरइएसु सव्वत्थोवा संखे०गुणहाणिवि० जीवा । संखे०गुणवड्रिवि. जीवा विसेसाहिया । संखे भागवडि-संखे०भागहाणि विहत्तिया जीवा दो वि सरिसा संखे०गुणा । असंखे०भागवडिवि० जीवा असंखे०गुणा । अवहिदवि० जीवा असंखे०गुणा । असंखे०भागहाणिवि० जीवा संखे गुणा । एवं पढमाए पुढवीए सव्वपंचि०तिरिक्ख-मणुसअपज्ज-देव०-भवण०-वाण-पंचिंदियअपज्जतेत्ति । विदियादि जाव सत्तमि त्ति सव्वत्थोवा संखे गुणवडि-हाणिवि. जीवा दो वि सरिसा। संखेजभागवडि-हाणिविह० जीवा दो वि सरिसा संखो गुणा। असंखोज्जभागवडिवि० जीवा असंखेगुणा । अवहिदवि० जीवा असंखे०गुणा । असंखे०भागहाणिवि० जीवा संख०गुणा।
३४५. तिरिक्खा ओघं । णवरि सव्वत्थोवा संखेज्जगणहाणिविह० जीवा त्ति वत्तव्वं । एवमोरालियमिस्स-कम्मइय०-मदि-सुद०-असंजद-किण्ह-णीलकाउ०-अभव ०-मिच्छा० असएिण-अणाहारि त्ति ।
$ ३४६. मणुस्सेसु सव्वत्थोवा असंखो गुण हाणिवि० जीवा । संख० गुणहैं। इनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार काययोगी, नपुंसकवेदवाले क्रोधादि चारों कषायवाले, अचक्षुदर्शनवाले, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिये।
$३४४. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें संख्यातगुणहानिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातगुणवृद्धिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानिवाले जीव समान होते हुए भी संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव संख्यात गणे हैं । इसी प्रकार पहली पृथ्वीके नारकी, सभी पंचेन्द्रिय तिर्यंच, मनुष्य अपर्यास्त,सामान्य देव, भवनवासी, व्यन्तरदेव और पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके जानना चाहिये। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक संख्यातगुणवृद्धि और संख्यातगुणहानि इन दोनों पदवाले जीव समान होते हुए भी सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानि इन दोनों पदवाले जीव समान होते हुए भी संख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव संख्यातगुणे हैं।
६३४५. तिथंचोंमें अल्पबहुत्व ओघके समान है । इतनी विशेषता है कि इनमें संख्यातगुणहानिवाले जीव सबसे थोड़े हैं ऐसा कहना चाहिये। इसी प्रकार औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये ।
६३४६. मनुष्योंमें असंख्यातगुणहानिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे संख्यातगुणहानि
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गा• २२ ] हिदिविहत्तीए वड ढीए अप्पाबहुवे
१८७ हाणिवि० जीवा असंखे गुणा । संखे० गुणवडिवि० जीवा विसेसाहिया । संखे०भागवडि-हाणिवि. जीवा सरिसा संखे०गुणा। असंखे०भागवड्डिवि० जीवा असंखे०गुणा । अवहिदवि० जीवा असंखे०गुणा । असंखे०भागहाणिवि०जीवा संखे०गुणा । एवं पंचिं०-पंचि०पज्ज०-इत्थि-पुरिस०-सण्णि त्ति । मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु एवं चेव । णवरि जम्मि असंखे०गुणं तम्मि संखेज्जगुणं कायव्वं ।।
३४७. जोइसियादि जाव सहस्सारे त्ति विदियपुढविभंगो। आणदादि जाव अवराइदं ति सव्वत्थोवा संखे०भागहाणिवि० जीवा । असंखे०भागहाणिवि० जीवा असंखे०गुणा । एवं संजदासंजदाणं । सव्व सव्वत्थोवा संखे०भागहाणिवि० जीवा। असंखे०भागहाणिविक जीवा संखे०गुणा । एवं परिहार० ।
३४८. एइंदिएमु सव्वत्थोवा संखे०गुणहाणिवि० जीवा । संखे भागहाणिवि. जीवा संखेगुणा । असंखे०भागवडिवि० जीवा अणंतगणा । अवहि. जीवा असंखे०गुणा। असंखे०भागहाणिवि० जीवा संखे०खणा । एवं सव्वएइंदिय-वणप्फदि०-बादरवणप्फदि०-बादरवणप्फदिपज्जत्तापजत्त-सुहुमवणप्फदि०- सुहुमवणप्फदिपज्जत्तापज्जत्तणिगोद० - बादरणिगोद० - बादरणिगोदपज्जत्तापज्जत्त - सुहुमणिगोद - सुहुमणिगोदपज्जत्तापज्जत्ता त्ति । वाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातगुणवृद्धिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानि इन दोनों पदवाले जीव समान होते हुए भी संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, स्त्रीवेदवाले, पुरुषवेदवाले और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये । मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि जहां असंख्यातगुणा है वहां इनके संख्यातगुणा करना चाहिये ।
६३४७. ज्योतिषियोंसे लेकर सहस्रारतक दूसरी पृथिवीके समान भंग है। आनत कल्पसे लेकर अपराजित तक संख्यातभागहानिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार संयतासंयतोंके जानना चाहिये। सर्वार्थसिद्धिमें संख्यातभागहानिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार परिहारविशुद्धिसंयतोंके जानना चाहिये।
६३४८. एकेन्द्रियोंमें संख्यातगुणहानिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातभागहानिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव अनन्तगुणे हैं। इनसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार सभी एकेन्द्रिय, वनस्पतिकायिक, बादरवनस्पतिकायिक,बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त,बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, निगोद; बादर निगोद, बादर निगोद पर्याप्त, बादर निगोद अपर्याप्त, सूक्ष्म निगोद, सूक्ष्म निगोद पर्याप्त और सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये।
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१५८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे. [द्विदिविहत्ती ३ ३४९. सव्व विगलिंदिएसु सव्वत्थोवा संखे गुणहाणिवि हत्तिया जीवा । संखे भागवड्डि-हाणिवि० जीवा दो वि तुल्ला संखेज्जगुणा । असंखे०भागवडिवि० जीवा असंखे०गुणा । अवहिदवि० जीवा असंखे गुणा । असंखे भागहाणिवि० जीवा संखे गुणा । चदुहं कायाणमेइंदियभंगो। णवरि जम्मि अणंतगुणं तम्मि असंख०गुणं कायव्वं । तस-तसपज्जत्ताणमोघभंगो। णवरि जम्मि अणंतगुणं तम्मि असंख० गुणं । एवं तस०अपज्ज । णवरि असंखेगुणहाणी णत्थि ।
३५० पंचमण-पंचवचि. सव्वत्थोवा असंखे० गुणहाणि वि० जीवा । सेसं विदियपुढविभंगो। एवमोरालि०। णरि जम्मि असंखे गुणं तम्मि अणंतगुणं कायव्वं । वेउब्धिय विदियपुढविभंगो । उब्धियमिस्स० पढमपुढविभंगो । आहार०आहारमिस्स०-अकसा०-जहाक्रवाद० उवसम०-सासण० णत्थि अप्पाबहु।।
३५१. अवगद० सव्वत्थोवा संखे गुणहाणि जीवा। संख०भागहाणि जीवा संखे०गुणा । असंखेजभागहाणि जीवा संखे गुणा । एवं सुहुमसांपरा० ।
$३५२. आभिणि-सुद०-ओहि० सव्वत्थोवा असंखेजगुणहाणि० जीवा । संखेज्जगुणहाणि० जीवा असंखे गुणा। संखे०भागहाणि जीवा संखे गुणा । असंखे०
६३४६. सभी विकलेन्द्रियों में संख्यातगुणहानिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानि इन दोनों पदवाले जीव परस्पर समान होते हुए संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। चारों कायवाले जीवोंके एकेन्द्रियोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रियोंके जिस स्थानमें अनन्तगुणा कहा है वहां इ असंख्यातगणा करना चाहिये। त्रस और त्रसपर्याप्त जीवोंके ओघके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि अोघमें जहां अनन्तगुणा है वहां इनके असंख्यातगुणा करना चाहिये । इसी प्रकार त्रस अपर्याप्तकोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके असंख्यातगुणहानि नहीं है।
६ ३५०. पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवोंमें असंख्यातगुणहानिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । शेष कथन दूसरी पृथिवीके समान है । इसी प्रकार औदारिककाययोगी जीवोंके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि मनोयोगी और वचनयोगियोंमें जहाँ असंख्यातगुणा है वहाँ
औदारिककाययोगियोंके अनन्तगुणा करना चाहिये । वैक्रियिककाययोगियोंमें दूसरी पृथिवीके समान भंग है । वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें पहली पृथिवीके समान भंग है। आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अकषायी, यथाख्यातसंयत, उपशमसम्यग्दृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके अल्पवहुत्व नहीं है।
६ ३५१. अपगतवेदियोंमें संख्यातगुणहानिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातभागहानिवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार सूक्ष्मसांपरायिकसंयत जीवोंके जानना चाहिये।
६ ३५२ आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें असंख्यातगणहानिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे संख्यातगुणहानिवाले जीव असंख्यातगणे हैं। इनसे संख्यातभाग
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गा० २२.] द्विदिविहत्तीए वड्ढीए द्वारपरूवणा
१८६ भागहाणिविह० जीवा असंखोगुणा । एवमोहिदसण-सुक्कले०-सम्मादिहि त्ति । मणपज्जव० एवं चेव । णवरि जम्मि असंखो०गुणं तम्मि संखो०गुणं कायव्यं । एवं संजद०-सामाइय-छेदो० ।
$ ३५३. चक्खु० सव्वत्थोवा असंखेजगुणहाणिविहत्तिया जीवा । संखे० गुणहाणिवि० जीवा असंखो०गुणा । संखेगुणवडिवि० जीवा विसेसाहिया । संखोज्जभागवडि-हाणिवि० जीवा दो वि तुल्ला संखेज्जगणा । असंख०भागवडि. जीवा असंखे गुणा । अवडि० जीवा असंखोज्जगणा । असंखो०भागहाणिवि० जीवा संखो० गुणा । विभंग०-तेउ०-पम्म विदियपुढविभंगो।
$ ३५४. खइय० मणपज्जवभगो । णवरि असंखो०भागहाणि असंखो गणा त्ति वत्तव्यं । वेदय० सव्वत्थोवा संखो० गुणहाणि वि• जीवा । संखो०भागहाणिवि० जीवा संख० गुणा । असंखे० भागहाणिवि० जीवा असंखे गुणा । एवं सम्मामि ।
एवं वड्डी समत्ता । $ ३५५. संपहि हाणपरूवणे कीरमाणे सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीओ समयणदुसमयूणादिकमेण ओदारेयव्वाअो जाव णिवियप्पअंतोकोडाकोडि त्ति । तदो हानिवाले जीव संख्यातगणे हैं। इनसे असंख्यातभागहानवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार अवधिदर्शनवाले, शुक्ललेश्यावाले और सम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । मनःपयेयज्ञानियों के इसी प्रकार जानना चाहिये। पर उनके इतनी विशेषता है कि आभिनिबोधिकज्ञानी आदिके जहाँ असंख्यातगुणा है वहाँ इनके संख्यातगुणा करना चाहिये। इसी प्रकार संयत, सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंके जानना चाहिये।
६३५३. चक्षुदर्शनवालोंमें असंख्यातगुणहानिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातगुणहानिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातगुणवृद्धिवाले जीव विशेष अधिक हैं। इनसे संख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागहानि इन दोनों पदवाले जीव परस्पर समान होते हुए भी संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अवस्थित विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। विभंगज्ञानी,पीतलेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले जीवोंमें दूसरी पृथिवीके समान भंग है।
६३५५. क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें मनःपर्ययज्ञानियोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनमें असंख्यातभागहानिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं ऐसा कहना चाहिये । वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें संख्यातगुणहानिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे संख्यातभागहानिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये।
इस प्रकार वृद्धि अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। ३५५. स्थानको प्ररूपणा करते समय एक समय कम, दो समय कम इस क्रमसे सत्तर कोडाकाडी सागरप्रमाण स्थितिके निर्विकल्प अन्तःकोडाकोडी सागरप्रमाण प्राप्त होने तक कम
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१६०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [विदिविहत्ती ३ धुवहिदीए हदसमुप्पत्तियं कादूण णिरंतरमोदारेदव्यं जाग एइंदियधुनहिदि त्ति । तदो एइंदियधुगहिदिसरिसमणियट्टिखनगहिदिसंतकम्मं घेत्तूण सांतरणिरंतरकमेण अोदारेदां जाव सुहुमसांपराइयचरिमसमयम्मि एगा हिदि ति । एवमोदारिदे मूल. पयडिहाणाणि सव्याणि समुप्पण्णाणि होति ।
एवं मूलपयडिटिदिविहत्ती समत्ता ।
करना चाहिये । तदनन्तर ध्रुव स्थितिकी हतसमुत्पत्ति करके एकेन्द्रियोंकी ध्र व स्थिति प्राप्त होने तक कम करते जाना चाहिये । तदनन्तर एकेन्द्रियोंकी ध्र वस्थितिके समान अनिवृत्तिकरणक्षपककी सत्तामें स्थित स्थितिको ग्रहण करके सान्तर-निरन्तर क्रमसे इसे सूक्ष्मसांपरायिक गुणस्थानके अन्तिम समयमें प्राप्त होनेवाली एक स्थितिके प्राप्त होनेतक कम करते जाना चाहिये। इस प्रकार प्रारम्भसे स्थितिके उत्तरोत्तर कम करने पर सभी मूलप्रकृतिस्थितिस्थान प्राप्त हो जाते हैं।
इस प्रकार मूलप्रकृति स्थितिविभक्ति समाप्त हुई।
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उपर
गा० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तिपरूवणा
१६१ उत्तरपयडिहिदिविहत्ती ॐ उत्तरपयडिहिदिविहत्तिमणुमग्गइस्सामो।
$ ३५६. एदं जइवसहाइरियस्स पइज्जावयणं । ण चेसा पइज्जा णिप्फला, सिस्साणं परूविज्जमाणअहियारावगमणफलत्तादो । अहियारो किमिदि जाणाविजदे ? सिस्समणोगयसंदेहविणासणह ।
8 तं जहा । तत्थ अट्ठपदं-एया हिदी हिदिविहत्ती अणेयाओ हिदीओ हिदिविहत्ती।
६ ३५७. परूविज्जमाणहिदिविहत्तीए एदमपदं जइवसहाइरिएण किम परू विदं ? हिदिविहत्तिसरूवावगमण। एया कम्मस्स हिदी एया हिदी णाम । कथमणेयाणं पदेसभेदेण भिण्णाणं हिदीणमेयत्तं ? ण, पयडिभावेण सव्वपदेसाणमेयत्तु वलंभादो । चरिमणिसेयहिदिपरमाणूणं सव्वेसिं कालमस्सिदूण सरिसत्तदसणादो वा एयत्तं । एसा एगा हिदी हिदिविहत्ती होदि । समयूण-दुसमयणादि
उत्तरप्रकृतिस्थितिविभक्ति * अब उत्तरप्रकृति स्थितिविभक्तिका विचार करते हैं ।
६३५६. यह यतिवृषभ आचार्यका प्रतिज्ञावचन है। यदि कोई कहे कि यह प्रतिज्ञा निष्फल है सो भी बात नहीं है, क्योंकि शिष्योंको कहे जानेवाले अधिकारका ज्ञान कराना इसका फल है।
शंका-अधिकारका ज्ञान क्यों कराया जाता है ?
समाधान-शिष्योंके मनमें उत्पन्न हुए सन्देहको नष्ट करानेके लिये अधिकारका ज्ञान कराया जाता है।
* जो इस प्रकार है। उसके विषयमें यह अर्थपद है-एक स्थिति भी स्थितिविभक्ति है और अनेक स्थितियाँ भी स्थितिविभक्ति हैं।
३५१. शंका-कही जानेवाली स्थितिविभक्तिका यह अर्थपद यतिवृषभ आचार्यने किसलिए कहा ?
समाधान-स्थितिविभक्तिके स्वरूपका ज्ञान कराने के लिये यतिवृषभ आचार्यने यह अर्थपद कहा है।
कर्मकी एक स्थितिको एक स्थिति कहते हैं। शंका-प्रदेशोंके भेदसे भेदको प्राप्त हुईं अनेक स्थितियोंमें एकत्व कैसे बन सकता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि प्रकृति सामान्यकी अपेक्षा सभी प्रदेशोंमें एकत्व पाया जाता है । अथवा अन्तिम निषेककी स्थितिको प्राप्त हुए सब परमाणुओंमें कालकी अपेक्षा समानता देखी जाती है, अत: उनमें एकत्व बन जाता है।
यह एक स्थिति भी स्थितिविभक्ति होती है, क्योंकि एक समय कम और दो समय कम
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१६२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[द्विदिविहत्ती ३ हिदीहिंतो भेदुवलंभादो । अथवा सुहुमसांपराइयचरिमसमयपरमाणुपोग्गलक्खंधकालो एया हिदी णाम । तस्स एगसमयणिप्पण्णत्तादो । एसा वि हिदी हिदिविहत्ती होदि, दुसमयादिहिदीहिंतो पुधभूदत्तादो । तत्थेव भिण्णपरमाणुहिदसमएहितो अप्पिदकालसमयस्स पुधभावुवलंभादो वा सगाहारपरमाणुम्मि पोग्गलक्खंधे वावडिदतिकालगोयराणंतपज्जएहिंतो एदिस्से हिदीए पुधभावदसणादो वा विहत्तित् जुज्जदे । दबहियणयमस्सिदूण एसा परूवणा कदा। उकस्स-समऊणुकस्स-दुसमऊणुक्कस्सादिभेदेण अणेयाओ हिदीओ ताओ वि हिदिविहत्ती होति, समाणासमाणहिदीहितो परमाणुपोग्गलभेदेण च भेदुवलंभादो । एदमपदं पज्जवहियसिस्साणुग्गहर कदं ।
३५८. का हिदी णाम ? कम्मसरूवेण परिणदाणं कम्मइयपोग्गलक्खंधाणं कम्मभावमछंडिय अच्छणकालो हिदी णाम । उत्तरपयडीणं हिदी उत्तरपयडिहिदी। का उत्तरपयडी ? मूलपयडीए अवांतरपयडीओ। कथं मदि-सुद-ओहि-मणपज्जवकेवलणाणावरणीयाणं पुधभूदणाणेसु वावदाणं पयडीणमेयत्तं ? ण, णाणसामण्णेण सव्वेसिं णाणाणमेयत्तमुवगयाणमावरणाणं पि एयत्ताविरोहादो।" आदि स्थितियों से इसमें भेद पाया जाता है। अथवा सूक्ष्मसांपरायिक गुणस्थानके अन्तिम समयमें पुद्गल परमाणुओंके स्कन्धका जो काल है वह एक स्थिति कहलाती है, क्योंकि वह काल एक समय निष्पन्न है । यह स्थिति भी एक स्थितिविभक्ति होती है, क्योंकि यह दो समय आदि स्थितियोंसे भिन्न है । अथवा उसी सूक्ष्मसांपरायिक गुणस्थानके अन्तिम समयमें भिन्न परमाणुओं में स्थित समयोंसे विवक्षित कालसमय पृथक् पाया जाता है। अथवा अपने आधारभूत परमाणुओं में या पुद्गलस्कन्धमें अवस्थित त्रिका की विषयभूत अनन्त पर्यायोंसे यह स्थिति पृथक देखी जाती है, इसलिये इसमें विभक्तिपना बन जाता है। यह कथनी द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षासे की है। तथा जो उत्कृष्ट, एक समय कम उत्कृष्ट और दो समय कम उत्कृष्ट आदिके भेदसे अनेक स्थितियाँ हैं वे भी स्थितिविभक्ति कहलाती हैं, क्योंकि इनमें समान और असमान स्थितियोंकी अपेक्षा तथा पुद्गल परमाणुओंके भेदकी अपेक्षा भेद पाया जाता है। यह अर्थपद पर्यायार्थिक बुद्धिवाले शिष्यों के उपकारके लिये किया है।
६३५८. शंका-स्थिति किसे कहते हैं ?
समाधान-कर्मरूपसे परिणत हुए पुद्गलकर्मस्कन्धोंके कर्मपनेको न छोड़कर रहनेके कालक स्थिति कहते हैं।
उत्तर प्रकृतियोंकी स्थितिको उत्तर प्रकृतिस्थिति कहते हैं । शंका-उत्तर प्रकृति किसे कहते हैं ? समाधान-मूल प्रकृतिकी अवान्तर प्रकृतियोंको उत्तरप्रकृति कहते हैं।
शंका-भिन्न भिन्न ज्ञानोंमें व्यापार करनेवाले मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनःपर्ययज्ञानावरण और केवलज्ञानावरणरूप प्रकृतियोंमें एकपना कैसे बन सकता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि ज्ञानसामान्यकी अपेक्षा सभी ज्ञान एक हैं, अतः उनकोआवरण
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गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिविदिश्रदच्छेदो
१६६ * एदण अट्ठपदण।
३५६. एदमपदं कादूण उवरिमचउबीसअणियोगद्दारेहि हिदिविहत्तीए अणुगमं कस्सामो । तेसिं चउबीसहमणिोगद्दाराणं चुण्णिसुत्तम्मि पुव्वं परूविदाणं बालजणाणुग्गहह पुणरवि णामणिद्देसो कीरदे । तं जहा—अद्धाछेदो सव्वहिदिविहत्ती णोसव्वहिदिविहत्ती उक्कस्सहिदिविहत्ती अणुक्कस्सहिदिविहत्ती जहण्णहिदिविहत्ती अजहण्णहिदिविहत्ती सादियविहत्ती प्रणादियविहत्ती धुवहिदिविहत्ती अर्धवहिदिविहत्ती एयजीवेण सामित्वं कालो अंतरं गाणाजीवेहि भंगविचो भागाभागो परिमाणं खेचे पोसणं कालो अंतरं सण्णियासो भावो अप्पाबहुअं चेदि २४ । भुजगारपदणिक्खेव-वडि-हाणाणि त्ति एदाणि चत्तारि अणियोगद्दारोणि, एदेहि वि हिदिविहत्ती परूविजदि । अट्ठावीस अणियोगद्दाराणि किण्ण होति ति वुत्ते ण, चउबीसअणिओगद्दारेसु चेव एदेसिमंतब्भावादो। तं जहा-अजहण्णाणुक्कस्सहिदिविहत्तीसु भुजगारविहत्ती पविहा तत्थ उक्कस्सणोसक्कणविहाणपरूवणादो। भुजगारविसेसो पदणिक्खेवो, जहण्णुक्कस्सवढिहाणिपरूवणादो । पदणिक्खेवविसेसो वड्डी, वडिहाणीणं भेदपरूवणादो । वड्डिविसेसो हाणं, तत्थतणअवांतरभेदपरूवणादो । तदो हिदिविहत्तीए चउबीस चेव अणियोगदाराणि होति त्ति सिद्ध। करनेवाले कर्मोंको भी एक माननेमें कोई विरोध नहीं आता है ।
* इस अर्थपदके अनुसार स्थितिविभक्तिका अनुगम करते हैं ।
६३५६. इस अर्थपदका आलम्बन लेकर आगे कहे जानेवाले चौबीस अनुयोगद्वारोंके द्वारा स्थितिविभक्तिका अनुगम करते हैं । ये चौबीस अनुयोगद्वार चूर्णिसूत्रमें पहले कहे जा चुके हैं फिर भी बालजनोंके उपकारके लिये उनका फिरसे नामनिर्देश करते हैं। जो इस प्रकार हैअद्धाच्छेद, सर्वस्थितिविभक्ति. नोसर्वस्थितिविभक्ति, उत्कृष्ठस्थितिविभक्ति, अनुत्कृष्टस्थितिविभक्ति, जघन्यस्थितिविभक्ति, अजघन्यस्थितिविभक्ति, सादिस्थितिविभक्ति, अनादिस्थितिविभक्ति, ध्रु वस्थितिविभक्ति, अध्रु वस्थितिविभक्ति, एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, सन्निकर्ष, भाव और अल्पबहुत्व।
शंका-भुजगार, पदनिक्षेप, वृद्धि और स्थान ये चार अनुयोगद्धार और हैं, क्योंकि इनके द्वारा भी स्थितिविभक्तिका कथन किया जायगा, अतः अट्ठाईस अनुयोगद्वार क्यों नहीं होते हैं ?
समाधान-नहीं, क्योंकि चौबीस अनुयोगद्वारों में ही इनका समावेश हो जाता है । यथाअजघन्य और अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तियोंमें भुजगार स्थितिविभक्ति का अन्तर्भाव हो जाता है, क्योंकि उसमें उत्कर्षण और अपकर्षण विधिका कथन किया गया है । तथा भुजगार विशेषको पद निक्षेप कहते है,क्योंकि उसमें जघन्य और उत्कृष्टरूप वृद्धि और हानिका कथन किया गया है। पदनिक्षेप का एक विशेष वृद्धि है, क्योंकि इसमें वृद्धि और हानिके भेदोंका कथन किया गया है। तथा वृद्धिका एक विशेष स्थान है,क्योंकि इसमें स्थानगत अवान्तर भेदोंका कथन किया गयाहै । इसलिये स्थितिविभक्तिके चौबीस ही अनुयोगद्वार होते हैं यह सिद्ध हुआ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [द्विदिविहत्ती ३ .. पमाणाणगसो। .. ३६०. कीरदे इदि एत्थ अज्झाहारो कायव्वो, अण्णहा मुत्तहाणुषपत्तीदो। चर्वषींसअणियोगद्दारेसु ताव उत्तरपयडीणमद्धाछेदं भणामि त्ति वुत्त होदि। पहममद्धाछेदो चेव किम वुच्चदै ? ण, अणवगयअद्धाछेदस्स उवरिमणियोगहाराणं परूवणाणुववत्तीदो।
ॐ मिच्छत्तस्स उक्करसहिदिविहत्ती संत्तरिसागरोवमकोडाकोडीनी पंडिघुर्गणाओ।
३६१. एसो अद्धाछेदों एगसमयपद्धमस्सिदूर्ण पलं घिदो ण णाणासमयपंवद्ध तत्थ तिण्णिभंगप्पसंगादो । एगसमयपबद्धस्से त्ति कथं णव्वदें ? अकम्मसरूवेण हिदाणं कम्मइयवग्गणक्खंधाणं मिच्छत्तादिपञ्चएहि मिच्छत्तकम्मसरू वेणं अकमेणं परिणमिय सव्यजीवपदेसेसु संबंधाणं समयाहियसत्तवाससहस्समादि कादण णिरेंतरं समयुत्तरादिकमेण सत्तरिसागरोवमकोडाकोंडीमेत्तहिदिदसणादों । जर्मि समर्थपबद्ध मिच्छत्तकस्सहिदिकम्मक्खंधा अस्थि तत्थ एगसमयमादि कादूण जाव संतवाससहस्साणि त्ति एदेसु हिदिविसेसेसु एगो वि कम्पक्खंधो णंत्थि ति कुदों णव्वदे ?
* अब प्रमाणका अनुगम करते हैं ।
६३६०. 'पमाणाणुगमो' इस.सूत्रमें 'कीरदे क्रियाका अध्याहार कर लेना चाहिये, अन्यथा सूत्रका अर्थ नहीं बन सकता है । चौबीस अनुयोगद्वारोंमेंसे पहले उत्तर प्रकृतियोंके अद्धाच्छेद अर्थात् कालका कथन करते हैं यह उक्त सूत्रका अभिप्राय है।
शंका-सबसे पहले अद्धाच्छेदका ही कथन किसलिये किया जा रहा है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि अद्धाच्छेदका ज्ञान किये बिना आगेके अनुयोगद्वारोंका कथन नहीं बन सकता है, अतः सबसे पहले अद्धाच्छेदका कथन किया जा रहा है ।
* मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति पूरी सत्तर कोडाकोडी सागर है।
६३६१. यह अद्धाच्छेद एक समयप्रबद्धकी अपेक्षा कहा है नाना समयप्रबद्धोंकी अपेक्षा नहीं, क्योंकि नाना समयप्रबद्धोंकी अपेक्षा अद्धाच्छेदके कथन करने पर तीन भंग प्राप्त होते हैं।
शंका-यह स्थिति एक समयप्रबद्धकी है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-क्योंकि जो कार्मणवर्गणास्कन्ध अकर्मरूपसे स्थित हैं वे मिथ्यात्वादि कारणोंसे मिथ्यात्वकर्मरूपसे एक साथ परिणत होकर जब सम्पूर्ण जीव प्रदेशोंमें सम्बद्ध हो जाते हैं तब उनकी एक समय अधिक सात हजार वर्षसे लेकर समयोत्तरादि क्रमसे निरन्तर सत्तर कोड़ा कोड़ी सागर प्रमाण स्थिति देखी जाती है। इससे जाना जाता है, कि यह स्थिति एक समयप्रगद्धकी है।
शंका-जिस समयप्रबद्ध में मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण कर्मस्कन्ध हैं वहाँ प्रथम समयसे लेकर सात हजार वर्ष प्रमाण स्थितिविशेषों में एक भी कर्मस्कन्ध नहीं है यह किस प्रमाण
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गा० २२ ]
हिदिविहीए उत्तरपयडिद्विदिता च्छेदो
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मिच्छत्तस्स सत्तवाससहस्साणि उक्कस्सिया आवाहा आबाहूणिया कम्महिदी कम्मसेिति महाबंध सुत्तादो । ण च सव्वासु हिदी सत्तवाससहस्सारिण चैव चाबाहा होदि ति यिमो; एगाबाहाकंदयमेतद्विदीसुत्तणियमुवलंभादो । आवाहाकंद एणूणउक्कस्सडिदीए समयूरणसत्तवाससहस्सारिण आवाहा होदि चि एवं जाणिदूण शेय जाव धुवद्विदिनि ।
* एवं सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणं । णवरि अंतोमुहुत्तणाओ ।
९३६२. दाणि वे विकध्माणि जेण ण बंधपयडीओ तेण एदासिमुकस्सहिदी सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीओ अंतोमुहुत्त गाओ होदि । बंधाभावे कथमेदासिं दोहं पयडीमुकसहिदीए वा समुप्पत्ती ? मिच्छत्तसंकमादो । तं जहा - पढमसम्मत्तगणपढमसमए तिहि करणपरिणामेहि तिहाविहत्तमिच्छत्तकम्मंसेण अष्ठावीस संतकमियमिच्छाडि बद्धमिच्छतु कस्सडिदिया तो मुहुत्त पडिहरणेण पुणो सम्मतसे जाना जाता है ?
समाधान- 'मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट आबाधा सात हजार वर्ष प्रमाण है और आबाधासे न्यून कर्मस्थिति प्रमाण कर्मनिषेक हैं महाबन्धके इस सूत्र से जाना जाता है कि जिस समय प्रबद्धमें मिथ्यात्वक उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण कर्मस्कन्ध हैं वहाँ प्रथम समयसे लेकर सात हजार वर्ष प्रमाण स्थितिके भेदों में एक भी कर्मस्कन्ध नहीं है ।
यदि कहा जाय कि समस्त स्थितियों में सात हजार वर्ष प्रमाण ही आबाधा होती है ऐसा नियम है सो भी बात नहीं है, क्योंकि एक आबाधाकाण्डक प्रमाण स्थितियों में ही उक्त नियम देखा जाता है, अतः आबाधाकाण्डकसे न्यून उत्कृष्ट स्थितिकी एक समय कम सात हजार वर्ष प्रमाण बाधा होती है ऐसा समझना चाहिये। आगे भी इसी प्रकार जानकर ध्रुवस्थिति तक ले जाना चाहिये ।
* इसी प्रकार सम्यक्त्व प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थिति है । पर इतनी विशेषता है कि इनकी उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्तकम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर है ।
९ ३६२. चूंकि ये दोनों ही क्रर्म बँधते नहीं हैं, इसलिये इनकी उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर होती है ।
शंका-ब बन्धके नहीं होने पर इन दोनों प्रकृतियोंकी और उनकी उत्कृष्ट स्थितिकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है ?
समाधान - मिध्यात्वका संक्रमण होकर इन दोनों प्रकृत्तियोंकी और उनकी उत्कृष्ट स्थिति की उत्पत्ति होती है । उसका खुलासा इस प्रकार है-तीन करण परिणामोंके द्वारा जिसने प्रथमोपशम सम्यक्त्वके ग्रहण करने के पहले समय में सत्ता में स्थित मिध्यात्व कर्मको तीन भाग़ों में बांट दिया है ऐसा अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला मिथ्यादृष्टि जीव जब उत्कृष्ट स्थितिके साथ मिथ्यात्व कमैको बांधकर उत्कृष्ट स्थिति बन्धके योग्य उत्कृष्ट संक्लेशपरिणामों से निवृत्त होने में लगनेवाले अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कालके द्वारा पुनः सम्यक्त्वके ग्रहण करनेके प्रथम समय में ही उक्त
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بسیجی سرمربیعی
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिनिहत्ती ३ ग्गहणपढमसपए चेव पडिग्गहकालेणूणसत्तरिसागरोवमकोडाकोडीमेत्तमिच्छचहिदीए सम्मत्तसम्मामिच्छत्सु संकामिदाए सम्मचसम्मामिच्छाचाणमुक्कस्सश्रद्धाछेदो होदि,तेस बंधाभावे वि दोण्हं पयडीणं तदुक्कस्सहिदीणं च अत्थितं सिद्ध। पडिहग्गकालो एगदु-तिसमइओ किण्ण होदि ? ण, संकिलेसादो ओयरिय विसोहीए अंतोमुहुत्तावहाणेण विणा सम्मत्तस्स गहणाणुववत्तीदो। प्रतिभग्नकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाणसे न्यून सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण मिथ्यात्वकी स्थितिको सम्यक्त्व
और सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रान्त कर देता है तब सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अद्धाच्छेद होता है, अतः बन्धके नहीं होने पर भी दोनों प्रकृतियोंका और उनकी उत्कृष्ट स्थितिका अस्तित्व सिद्ध होता है।
शंका-प्रतिभग्न कालका प्रमाण एक, दो और तीन समय क्यों नहीं होता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि मिथ्यात्वमें आकर और उत्कृष्ट स्थितिबन्धके कारणभूत संक्लेशसे च्युत होकर और विशुद्धिको प्राप्त करके जब तक उसके साथ जीव मिथ्यात्वमें अन्तमुहूर्तकाल तक नहीं ठहरता है तब तक उसे सम्यक्त्वकी प्राप्ति नहीं हो सकती है, इसीलिये प्रतिभग्न कालका प्रमाण एक, दो और तीन समय नहीं होता ।।
विशेषार्थ-सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये दोनों प्रकृतियां बन्धसे सत्त्वको नहीं प्राप्त होती किन्तु मिथ्यात्व का इन दोनों प्रकृतियों रूप से संक्रमण होता है और इसीलिये मोहनीय की बन्ध प्रकृतियां २६ तथा उदय और सत्त्व प्रकृतियां २८ मानी गई हैं। यद्यपि एक सजातीय प्रकृति का दूसरी सजातीय प्रकृतिरूप से संक्रमण दूसरी प्रकृतिके बन्धकाल में ही होता है ऐसा नियम है पर यह नियम बन्ध प्रकृतियोंमें ही लागू होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दोनों प्रकृतियोंमें नहीं, क्योंकि ये दोनों बन्ध प्रकृतियां नहीं हैं। इनके सम्बन्धमें तो यह नियम है कि जब कोई एक २६ प्रकृतियों की सत्तावाला मिथ्यादृष्टि जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त होता है तब वह प्रथमोपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करनेके पहले समयमें मिथ्यात्वके तीन भाग कर देता है जिन्हें क्रमसे मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व संज्ञा प्राप्त होती है। पर ऐसे जीवके आयु कम को छोड़ कर शेष सात कर्मोका उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरसे अधिक नहीं होता है इसलिये ऐसे जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व सम्भव नहीं। अतः ऐसा जीव जब मिथ्यात्व में चला जाता है और वहां संक्लेशरूप परिणामों के द्वारा मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके तदनन्तर अन्तमुहूर्त कालके पश्चात् पुनः वेदकसम्यग्दृष्टि हो जाता है तब उसके मिथ्यात्वकी अन्तमुहूर्त कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थितिका सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वरूपसे संक्रमण हो जाता है और इस प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्तकम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण प्राप्त होती है। यहां इतना विशेष समझना चाहिये कि मिथ्यात्वमें जाकर जिस जीवने मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया है उसे सम्यक्त्वके योग्य विशुद्धता प्राप्त करनेके लिये अन्तमुहूर्त से कम काल नहीं लगता है इसलिये यहां मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिमें से अन्तर्मुहूर्त काल कम किया है । तथा ऐसा जीव वेदकसम्यक्त्वको ही प्राप्त कर सकता है प्रथमोपशम सम्यक्त्वको नही, क्योंकि प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करनेवाले जीवके अन्तःकोडाकोड़ी सागर से अधिक स्थिति नहीं होनी चाहिये ऐसा नियम है।
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गा० २२ ]
* सोलसण्हं कोडाकोडीओ पडिवण्णाओ ।
द्विदिविहती उत्तरपयडिहिदिश्रद्धाच्छेदो
कसायाणमुक्कस्सट्ठिदिविहत्ती
१६७
९ ३६३. कुदो १ मिच्छाइ हिरणा उक्कस्ससंकि लिड रेण बद्धकम्मइयवग्गणक्खंधारणं सोलसकस | यसरूवेण परिणयाणं सयलजीवपदेसुवगयाणं समयाहियचत्तारिवास सहस्समादि काढूण जाव चालीससागरोवमकोड | कोडीओ ति कम्मभावेण वहाव -
भादो । एदेसिं कम्माणं मिच्छत्तुकस्सद्विदीए समाया हिदी किण्ण जादा १ ण, दंसणचरितविरोहीणं पथडीणं सत्तीए समाणत्तविरोहादो । अविरोहे वा एगा चेत्र पयडी होज्ज; तासिं भेदकारणाभावादो । ण च एवं; कोहमाणमाया लोहादिकज भेए पयडीणं पि भेदसिद्धीदो ।
* एवं णवणोकसायाणं । णवरि आवलिऊणाओ ।
९ ३६४. कुदो, सोलसकसायाणमुक्कस्सडिदिं बंधिय बंधावलियकालं वोलाविय श्रावलियूणचाली ससागरोवमकोडा कोडीमेत्तलोभकसायद्विदीए णवणोकसाएस संकंताए * सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति विभक्ति पूरी चालीस कोड़ाकोड़ी सागर है।
९ ३६३. शंका - सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति पूरी चालीस कोड़ा कोड़ी सागर क्यों है ?
समाधान- जब कोई एक मिध्यादृष्टि जीव उत्कृष्ट संक्लेशरूप परिणामोंके द्वारा कार्मणवर्गणास्कन्धोंको बांधकर सोलह कषायरूप से परिणत करके समस्त जीवप्रदेशों में प्राप्त कर लेता है तब एक समय अधिक चार हजार वर्षसे लेकर चालीस कोड़ा कोड़ी सागर तक उन सोलह कषायों का कर्मरूपसे अवस्थानं पाया जाता है, इससे सिद्ध होता है कि सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति चालीस कोड़ाकोड़ी सागर है । तात्पर्य यह है कि सोहल कषायों का उत्कृष्ट स्थितिबन्ध चालीस कोड़ाकाड़ी सागर प्रमाण होता है ।
शंका- इन कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति मिध्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके समान क्यों नहीं होती है ? समाधान — नहीं, क्योंकि दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय परस्पर विरोधी प्रकृतियां हैं, अतः उनकी शक्तिको समान माननेमें विरोध आता है । यदि इनमें अविरोध माना जावे तो वे दोनों एक ही प्रकृति हो जायगी, क्योंकि अविरोध मानने पर उनमें भेदका कोई कारण नहीं रहता है । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि क्रोध, मान, माया और लोभ आदि रूप कार्यके भेद प्रकृतियों में भी परस्पर भेद सिद्ध है, अतः मिध्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके समान सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति नहीं हो सकती है ।
* इसी प्रकार नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति है । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनकी उत्कृष्ट स्थिति एक आवलीकम चालीस कोड़ाकोड़ी सागर है ।
$ १६४. शंका – नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति एक आवलीकम चालीस कोड़ा कोड़ी सागर प्रमाण क्यों है ?
चत्तालीस सागरोवम
समाधान - सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर और बन्धावलि प्रमाण कालको बिताकर एक वली कम चालीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण लोभ कषायकी स्थितिके नौ नोकषायों
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१९८
जयधवलासहिदे कसरबपाहुडे [हिदिविहत्ती तेसिमावलियूणकसायुक्कस्स हिदिदंसणादो । गवुसयवेद-अरदि-सोग-भय-दुगुंठाणमक्कस्ससंकिलेसेण बंधपाओग्गाणं सोलसकसायाणं व चत्तालीससागरोचमकोडाफोडीमेसो हिदिबंधो किरण होदि ? ण, कसायणोकसायाणं पुधभूदजादीणं हिदिभेदे संते विरोहाभावादो । इत्थि-पुरिस-हस्स-रदीणं पडिहग्गकालम्मि बज्झमाणाणं कथमावलियूणा कसायाणमकस्सहिदी होदि ? ण, पडिहग्गपढमसमए चेव बज्झमाणेसु चदुसु कम्मेसु बंधावलियादिक्कंतकसायकम्मक्खंधाणमावलियूणउक्कस्सहिदीणं संकंतिदंसणादो । एदाणि चत्तारि वि कम्माणि उक्कस्ससंकिलेसेण किण्ण बज्झति ? ण, साहावियादो । में संक्रान्त हो जाने पर नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति एक प्रावली कम चालीस कोड़ाकोड़ी सागर देखी जाती है, अतः नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति उक्त प्रमाणा धन जाती है।
शंका–उत्कृष्ट संक्लेशसे बंधनेके योग्य जो नपुंसकवेद, परति, शोक, भय और जुगुप्सा 'प्रकृतियां हैं उनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध ‘सोलह कषायोंके समान पूरा चालीस कोडाकोड़ी सागर क्यों नहीं होता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि कषाय और मोकषाय ये पृथक् जातिकी प्रकृतियाँ हैं, इसलिये .. इनके स्थिति भेदके रहनेमें कोई विरोध नहीं पाता है।
शंका-प्रतिभग्न कालमें बंधनेवाली स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य और रति इन प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति एक आवली कम कषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण कैसे हो सकती है ?
समाधान नहीं, क्योंकि, प्रतिभग्न कालके पहले समयमें ही बंधनेवाली इन चार प्रकृतियोंमें बन्धावलिके सिवा शेष कर्मस्कन्धोंकी एक आवली कम उत्कृष्ट स्थितिका संक्रमण देखा जाता है, अतः इनकी उत्कृष्ट स्थिति एक आवली कम कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण हो जाती है ।
शंका ये स्त्रीवेद आदि चारों कर्म उत्कृष्ट संक्लेशसे क्यों नहीं बंधते हैं ? समाधान नहीं, क्योंकि उत्कृष्ट संक्लेशसे नहीं बंधनेका इनका स्वभाव है।
विशेषार्थ-बन्धसे स्त्रीवेदकी १५. कोड़ाकोड़ी सागर, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा और नपुंसकवेदकी २० कोडाकोड़ी सागर तथा हास्य, रति और पुरुषवेदकी १० कोड़ाकोड़ी सागर उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है किन्तु जब कषायों की उत्कृष्ट स्थितिका नौ नोकषायरूपसे संक्रमण होता है तब इनकी उत्कृष्ट स्थिति एक आवलिकम ४० कोड़ाकोड़ी सागर हो जाती है। तत्काल बंधे हुए कर्मका एक आवलि काल तक संक्रमण नहीं होता अतः ४० कोड़ाकोड़ी सागरमें से एक
आवलि कम कर दी गई है ! किन्तु इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट संक्लेशसे होनेवाले कषायकी उत्कृष्ट स्थितिबन्धके समय नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा इन पांच प्रकृतियोंका ही बन्ध होता है, अतः बन्धकालके भीतर ही इनमें एक प्रावलिके पश्चात् कषायकी उत्कृष्ट स्थितिका संक्रमण प्रारम्भ हो जाता है । तथा स्त्रीचेद, पुरुषवेद, हास्य और रतिका बन्ध उत्कृष्ट संक्लेशरूप परिणामोंसे नहीं होता अतः कषायकी उत्कृष्ट स्थिति बन्धके उपरत होने पर एक आवलिके पश्चात् इनमें कषायकी उत्कृष्ट स्थितिका संक्रमण होता है क्योंकि उत्कृष्ट संक्लेश परिणामों के निवृत्त होने के पहले समयसे ही इन स्त्रीवेद आदि चार प्रकृतियोंका बन्ध होने लगता है और इसलिये एक
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गा० २२ ] . . हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिष्टिदिश्रद्धाच्छेदो
१६६ * एवं संधासु गर्दासु जयव्वों । ___३६५. जहाँ श्रोधणं अद्धाछेदों परूविदो तहा सन्चासु गदीसु णेदव्यो ति । एवं जइवसहाइरिएण संवासु मांगणासु चिदमुक्कस्सहिंदिश्रद्धच्छेदमुच्चारणाइरिएणं मंदबुद्धिजणाणुग्गहमेसुद्द से परूविदं वत्तइस्सामो
३६६. तं जहा–सत्तण्डं पुढवीणं तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्ख-पंचितिरि०पज्ज०-पंचिंतिरिक्खजोणिणी-मणुसतिय०-देव-भवणादि जाव सहस्सार०-पंचिंदियपंचिं०पज०-तस-तसपज्जा-पंचमण०-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालिय० - वेउब्विय०तिण्णिवेद०-चत्तारिकसाय-मदि-सुदअण्णाण-विहंग०-असंजद०-चक्खु०-अचक्खु०पंचलेस्सा०-भवसिद्धि० अभवसिद्धि-मिच्छाइ०-सण्णि-आहारीणमोघभंगो ।
___६३६७. पंचिंदियतिरिक्खअपजत्तएसु मिच्छत्त-सम्पत्त-सम्पामिच्छत्ताणमुक्कस्सआवलिके पश्चात् इनमें कषायको उत्कृष्ट स्थितिकै संक्रमित होने में कोई बाधा नहीं आती है । यहां इतना और विशेष जानना चाहिए कि बन्धावलिके बाद यद्यपि कषायकी उत्कृष्ट स्थितिका नौ नोंकपायरूपसे संक्रमण तो होता है पर उदयावलिप्रमाण निषेकोंको छोड़कर ऊपरके निषेकोंमें स्थित कमपरमाणुका ही संक्रमण होता है । इस प्रकार बन्धावलि और उदयावलि इन दो अवलिप्रमाण निषेक असंक्रमित ही रहते हैं । इसलिये संक्रमणकी अपेक्षा नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति दो
आवलिकर्म चालीस कौड़ाकोड़ी सागरप्रमाणं और सत्त्वकी अपेक्षा एक औवलिकम चालीस कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण पाई जाती है, क्योंकि जिस समय कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका संक्रमण होता है उस समय उदयावलिप्रमाण निषकों को छोड़कर शेषका होता है। पर नौ नोंकषायोंकी सत्ता संक्रमणके पहले भी थी अंतः पूर्वसत्तांके उदयावलि प्रमाण निषेकोंको मिला देने पर एक आवंलिकम चालीस कोडाकोड़ी सागरप्रमाण स्थिति प्राप्त हो जाती है ।
* इसी प्रकार सभी गतियोंमें जानना चाहिये।
६३६५. जिस प्रकार ओघसे मोहनीयकी अट्ठाईस प्रकृतियोंका अद्धाच्छेद कहा है उसी प्रकार सभी गतियोंमें जानना चाहिये । इस प्रकार यतिवृषभ आचार्यने जो सम्पूर्ण मार्गणाओंमें उत्कृष्ट स्थितिका प्रमाण सूचित किया है जिसका कि प्ररूपण उच्चारणाचार्यने मन्दबुद्धिजनोंके अनुग्रहके लिये इसी प्रकरणमें किया है उसे बंताते हैं ।
६३६६. वह इस प्रकार है-सातों नरक, सामान्य तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तियचयोनिमती; सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य, मनुष्यनी, सामान्य देच, भवनवासियोंसे लेकर सहस्त्रार स्वर्गतकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रस पर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, तीनों वेदवाले, चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी; श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी; असंयत; चर्बुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, कृष्णादि पांच लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंके ओधके समान भंग है। अर्थात् ओघसे जिस प्रकार मोहनीयकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी स्थितिका कथन कर आये हैं उसी प्रकार इन पूर्वोक्त मार्गणाओंमें भी जानना चाहिये। . ६.३६७. पंचेन्द्रिय तिर्यंचे अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व कर्मकी
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ हिदिअद्धाछेदो सत्तरि सागरोवमकोडाकोडीओ अंतोमुहुत्त णाओ। सोलसकसाय-णवणोकसायाणं उक्कस्सअदाछेदो चत्तालीससागरोवमकोडाकोडीओ अंतोमुहुत्त णाओ। एवं मणुसअपज्ज-बादरेइंदियअपज्ज-मुहुमेइंदियपज्जत्तापज्जत्त-सन्धविगलिंदिय-पंचिंदियअपज०-बादरपुढविअपज्ज० - सुहुमपुढविपज्जत्तापज्जत्त - बादराउअपज्ज० - मुहुमाउपज्जत्तापज्जत्त-सव्वतेउ०-सव्ववाउ०-बादरवणप्फदिपचेयसरीरअपज्ज०-मुहुमवणप्फदि०पज्जत्तापज्जत्त-सव्वणिगोद-तसअपज.-आभिणि सुद०-ओहि०-ओहिदंस-मुक्कलेस्सासम्मादि०-वेदय०-सम्मामिच्छादिहि त्ति ।
६३६८. आणदादि जाव सबढ० सव्वपयडीणमुक्क० अद्धाछेदो अंतोकोडाकोडी०। एवमाहार०-आहारमिस्स०-अषगद०-अकसा-मणपज्ज०-संजद-सामाइय-छेदो०परिहार०-सुहुमसांपराय० - जहाक्खाद० - संजदासंजद-खइय-उवसम० - सासणसम्मादिहि त्ति ।
$ ३६९. एइंदिएसु मिच्छत्तु क० सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीओ समऊणाओ। सम्मत्तसम्मामिच्छत्तणवणोकसायाणमोघं । सोलसक० उक्क० चत्तालीस० कोडाकोडीओ समयणाओ। एवं बादरेइंदिय-बादरेइंदियपज्ज०-पुढवि०-बादरपुढवि०-बादरपुढविपज्ज०आउ०-बादरआउ०-बादरआउपज्ज०-बादरवणप्फदिपय०-बादरवणप्फदिपत्रेयपज्ज०उत्कृष्ट स्थिति अन्तमुहूर्त कम सत्तर कोडाकोड़ी सागर है। तथा सोलह कषाय और नौ नोककषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त कम चालीस कोड़ाकोड़ी सागर है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तक, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तक, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तक, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्तक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्तक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्तक, बादर जलकायिक अपर्याप्तक, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्तक, सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्तक, सब अग्निकायिक, सब वायुकायिक, बादर वनस्पति प्रत्येक शरीर अपर्याप्तक, सूक्ष्म वनस्पति, सूक्ष्म वनस्पति पर्याप्तक, सूक्ष्म वनस्पति अपर्याप्तक, सब निगोद, बस अपर्याक, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी,
अवधिज्ञानी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि , जीवोंके जानना चाहिये।
६३६८. आनत कल्पसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सभी कृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण होती है। इसी प्रकार आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये।
६३६६. एकेन्द्रियोंमें मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति एक समय कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति ओघके समान है। तथा सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति एक समय कम चालीस कोड़ाकोड़ी सागर है। इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पति प्रत्येक शरीर,
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गा० २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपपडिहिदिअदाच्छेदो ओरालि०-वेउब्धियमि०-कम्मइय०-असण्णि-अणाहारि त्ति ।
एवमुक्कस्सहिदिअद्धाछेदो समत्तो। बादर वनस्पति प्रत्येकशरीर पर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मण. काययोगी, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये।
निशेषार्थ- यहाँ पहले श्रोध के अनुसार जिन मार्गणाओंमें २८ प्रकृतियोंका श्रद्धाच्छेद है उनका मल में उल्लेख करके जिन मार्गणाओंमें विशेषता है उनका अलगसे निर्देश किया है। खुलासा इस प्रकार है-जिसने मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया है वह एक अन्तर्मुहूर्तके बाद ही स्थितिघात किये बिना पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें उत्पन्न हो सकता है, अतः पंचेन्द्रिय तिर्यश्च लब्ध्यपर्याप्तकके मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म अन्तर्मुहूर्तकम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर कहा है। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तियेच लब्ध्यपर्याप्तकके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्तकम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर जाननी चाहिये, क्योंकि जिस जीवने मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त किया है वह जीव जब अति लघुकालके द्वारा लौट कर मिथ्यात्वमें आता है और स्थितिघात किये बिना मरकर पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकमें उत्पन्न होता है तब उसके पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तक अवस्थामें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अन्तर्मुहूर्तकम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थिति देखी जाती है। यहां मिथ्यात्वके उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे लेकर पुनः मिथ्यात्वमें आकर पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तकमें उत्पन्न होने तकके कालका जोड़ अन्तमुहूर्त ही लेना चाहिये तभी पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति उक्त प्रमाण बन सकती है। तथा पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तक जीवके जिस प्रकार मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति घटित करके लिख आये हैं उसी प्रकार सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्तकम चालीस कोड़ाकोड़ी सागर घटित कर लेनी चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि सोलह कषायों . की उत्कृष्ट स्थिति बन्धकी अपेक्षा और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति संक्रमकी अपेक्षा घटित करनी चाहिये । मूलमें मनुष्य अपर्याप्तक आदि और जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें भी इसी प्रकार सव कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति जाननी चाहिये। किन्तु सम्यग्दर्शनसे सम्बन्ध रखनेवाली आभिनिबोधिकज्ञानी आदि जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति कहते समय वेदकसम्यक्त्वसे पुनः मिथ्यात्वमें नहीं ले जाना चाहिये। किन्तु वेदकसम्यक्त्वके प्राप्त होनेके पहले समयमें ही उनके सब कर्मोकी उत्कृष्ट स्थिति कहनी चाहिये । हां सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवके वेदकसम्यक्त्वसे अतिशीघ्र सम्यग्मिध्यात्वको प्राप्त कराके पहले समयमें सब कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति कहनी चाहिये । आनतादि चार कल्पोंमें यदि अविरती उत्पन्न होता है तो द्रव्यलिंगी मुनि ही उत्पन्न होता है । यही बात नौ ग्रैवेयकोंकी भी है, अतः इनके सब कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरसे अधिक नहीं होती। मूलमें आहारककाययोगी आदि और जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें उत्कृष्ट स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरसे अधिक नहीं होती यह स्पष्ट ही है। हां सूक्ष्मसाम्परायिक और यथाख्यातसंयतके जो उत्कृष्ट स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर बतलाई है वह उपशामककी अपेक्षा जाननी चाहिये । जिसने मिथ्यात्व या सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया है वह दूसरे समय में मर कर मूल में कही गई एकेन्द्रियादि मार्गणाओंमें उत्पन्न हो सकता है अतः उक्त मार्गणाओंमें मिथ्यात्वकी एक समय कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर और सोलह कषायों की एक समय कम
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जयपवलासहिदे कसायपाहुडे [विदिविहत्ती ३ * एत्तो जहण्णयं। $ ३७०. एदम्हादो उवरि जहण्णयमद्धाच्छेदं वत्तइस्सामो ति मंदमेहाविजण
चालीस कोड़ाकोड़ी सागर उत्कृष्ट स्थिति बन जाती है। किन्तु एकेन्द्रियसे लेकर बादर वनस्पति प्रत्येक शरीर पर्याप्त तक मार्गणाओंमें और असंज्ञी मार्गणामें देव पर्यायसे च्युत हुए जीवको उत्पन्न कराकर उत्कृष्ट स्थिति कहनी चाहिये । औदारिक मिश्रकाययोगमें देव और नारक पर्यायसे च्युत हुए जीव को उसन्न कराकर उत्कृष्ट स्थिति कहनी चाहिये। वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें मनुष्य
और तिर्यंच पर्यायसे च्युत हुए जीवको नरकमें उत्पन्न कराकर उत्कृष्ट स्थिति कहनी चाहिये । कार्मणकाययोग और अनाहारकमें उत्कृष्ट स्थिति कहते समय चारों गतिसे मरे हुए जीवको तियेच
और नारकियोंमें उत्पन्न कराकर उत्कृष्ट स्थिति कहनी चाहिये । तथा इतनी और विशेषता है कि इन सब मार्गणाओंमें भवके पहले समयमें ही उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व होगा। तथा एकेन्द्रियसे लेकर बादर प्रत्येक वनस्पतिकायिक पर्याप्तक तक उपर्युक्त मार्गणाओंमें और असंज्ञी मार्गणामें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उकृष्ट स्थितिसत्त्व इस प्रकार घटित कर लेना चाहिये कि भवनत्रिक व सौधर्म कल्पतक के किसी एक जीवने मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके अन्तर्मुहूर्त कालके पश्चात् वेदक सम्यक्त्व प्राप्त किया । पुनः अति लघु कालके द्वारा वह मिथ्यात्वमें गया और वहां अन्तर्मुहूर्त काल तक रह कर सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्वका स्थिति काण्डकघात किये बिना एकेन्द्रियादिक उक्त मार्गणाओंमें से किसी एकमें उत्पन्न हो गया तो उसके उत्पन्न होनेके पहले समय में सम्यकत्व और सम्यग्मिथ्यात्त्वका उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व प्राप्त होता है। इसी प्रकार
औदारिकमिश्रकाययोगमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिसत्व कहना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि देव और नारक पर्यायसे वेदकसम्यकत्वके साथ आकर जो औदारिकमिश्रकाययोगी होता है उसके ही भवके पहले समयमें सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिसत्व होता है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व कहते समय मनुष्य और तिर्यंच पर्यायसे नारकियोंमें उत्पन्न कराकर भवके पहले समयमें ही कहना चाहिये। किन्तु ऐसे जीवको तिर्यंच और मनुष्य पर्यायमें रहते हुए वेदकसम्यक्त्व उत्पन्न कराकर मिथ्यात्वमें ले जाना चाहिये और तब नरकमें वैक्रियिकमिश्रकाययोगके साथ उत्पन्न कराना चाहिये । तथा कार्मणकाययोग और अनाहारक मार्गणामें सम्यक्त्व और सम्मग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व औदारिकमिश्रकाययोगके समान घटित कर कहना चाहिये । तथा नौ नोकषायों का उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व मिथ्यात्व और सोलह कषायोंके उत्कृष्ट स्थितिसत्त्वके समान घटित करके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि नौ नोकषायोंका उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व उस मार्गणा में भवके पहले समयसे लेकर एक आवलिकाल तक प्राप्त हो सकता है; क्योंकि जिस जीवने सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति बांधकर एक श्रावलि कालके पश्चात मरण किया उसके भवके पहले समयमें नौ नोकषायोंका उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व प्राप्त होगा और जो दूसरे समयमें मर गया उसके एक श्रावलिकाल के पश्चात् उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व प्राप्त होगा। इसीप्रकार एक समयसे लेकर आवलितकके मध्यम विकल्प जानने चाहिये।
इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिअच्छाच्छेद समाप्त हुआ। * इसके आगे जघन्य स्थिति अद्धाच्छेदको बतलाते हैं । ६३७०. इस उत्कृष्ट स्थितिअद्धाच्छेदके आगे जघन्य स्थिति अद्धाच्छेदको बतलाते हैं।
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द्विदिवत्तीए उत्तरपयडिठ्ठिदिश्रद्धाच्छेदो
गा० २२ ]
संभाल
परूविदमेदं ।
* मिच्छत्त-सम्मामिच्छन्त- बारसकसायाणं जहण्णडिदिविहत्ती एगा हिदी दुसमयका लडिदिया ।
९ ३७१. कुदो ? असंजदसम्मादिद्विप्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदो त्ति एदे दंसणमोहवणार पाओग्मा । एदेसिं चदुण्हं गुलडाणाणमण्णदरेण पुव्वमेव खविदअनंताणुबंधिचक्केण दंसणमोहक्खवणाए अन्भुडिदेण अधापवत्तकरणद्धाए अतगुणाए विसीही वडिमुवगण अपसत्थाणं कम्माणं समांतरादीदअणुभागबंधं पहुच बद्धअनंतगुणहीणाणुभागेण पसत्थाणं कम्माणमणंतरादीद अणुभागबंधादो बद्धअनंतगुणाणुभागेण द्विदिणुभागखंडयघादविवज्जिएण दंसणमोहणीयक्खवणाए गुणसेढिपदेसणिज्जरुम्मुक्केण अपुव्वकरणद्धाए पढमसमए आढत्तद्विदिअणुभागखंडयघादेण तत्थेवाढत्तपदेसगुणसेढिणिज्जरेण बंधविरहिद अप्पसत्थमिच्छत्त-सम्मामिच्छत्ताणमाढत्तगुण संकमेण अपुत्रकरणद्धार संखेज्जसहस्सद्विदिकंडयाणि हिदिकंडएहिंतो संखेज्जगुण | णुभागकंडयाणि च पाडिय संखेज्जसहस्सट्ठिदिबंधोसरणाहि ओसरिय गुणसेढिणिज्जराए कम्मक्खंधे गालिय अणियट्टिकरणं पविण तत्थ वि अणियट्टिश्रद्धाए द्विदिकंडयअणुभागयह सूत्र मन्दबुद्धि जनों के सम्हालनेके लिये कहा है ।
* मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और बारह कषायोंकी एक स्थिति जघन्य स्थितिविभक्ति होती हैं, जिसका स्थितिकाल दो समय है ।
९ ३७१. शंका उक्त मिथ्यात्वादि कर्मोंकी दो समय कालवाली एक स्थिति जघन्य स्थितिविभक्ति क्यों होती है ?
समाधान-असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत तक ये चार गुणस्थानवर्ती जीव दर्शन मोहनीयकी क्षपणा के योग्य होते हैं । इनमें से पहले जिसने अनन्तानुबन्धी चतुष्कका क्षय कर दिया है ऐसा इन चार गुणस्थानों में रहनेवाला कोई एक जीत्र जब दर्शनमोहनीयकी क्षपणा के लिये उद्यत होता है तब वह अधःप्रवृत्त करण के काल में अनन्तगुणी विशुद्धि के द्वारा वृद्धिको प्राप्त होता हुआ अप्रशस्त कर्मों के अनुभागको अपने पूर्वसमयवर्ती अनुभागबन्धकी अपेक्षा अनन्तगुणा हीन बाँधता है और प्रशस्त कमों के अनुभागको अपने पूर्व समयवर्ती अनुभागबन्धकी अपेक्षा अनन्तअधिक है । पर इसके यहाँ स्थितिकाण्डकघात और अनुभाग काण्डकघात नहीं हाते हैं और न दर्शनमोहनीयकी क्षपणा में होनेवाली गुणश्रेणी क्रम से कर्मप्रदेशोंकी निर्जरा ही होती है । तथा जब वह अपूर्वकरणको प्राप्त होता है तब वह उसके पहले समय में ही स्थितिकाण्डकघात और अनुभाग काण्डकघातका आरम्भ कर देता है । तथा यहींसे कर्मप्रदेशोंकी गुणश्रेणी निर्जरा चालू हो जाती है और जिनका बन्ध नहीं होता ऐसे मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन दो अप्रशस्त कर्मोंका गुणसंक्रम प्रारम्भ हो जाता है। तथा इस जीवके अपूर्वकरण कालमें संख्यात हजार स्थितिकाण्डकघात और स्थितिकाण्डकघातों से संख्यातगुणे अनुभागकाण्डकघात हाते हैं तथा संख्यात हजार स्थितिबन्धापसरण होते हैं । इस प्रकार यह जीव गुणश्र ेणी निर्जरा के द्वारा कर्मकों का नाश करता हुआ अनिवृत्तिकरण में प्रवेश करता है । वहाँ अनिवृत्तिकरण के
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जयrवलासहिदे कसायपाहुडे
[ हिदिविहत्ती ३
कंड सहस्सा णि घादिय समयं पडि श्रसंखेज्जगुणाए सेढीए कम्मक्खं गालियरअद्धा संखेजे भागेसु गदेसु मिच्छत्तचरिमफ/लिं पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तमुदयावलियादो बाहिरिल्लयं घेत्तृण सम्मत्तसम्मामिच्छत्तेषु संकामेंतेण उव्वरा.विदस मऊणुदयावलियमेत्तद्विदीसु थिउक्कसंकमेण संकमंतीसु मिच्छत्तेयणिसेयणिसेयहिदी दुसमयकाल दिए उवलंभादो । कथमणंताणं परमाणुणं ठिदिववएसो ? ण, हारे ओवारादो । कथमेयत्तं ? ण दुसमयकालावहाणेण समाणाणमेयत्ताविरोहादो ।
९ ३७२. एवं सम्मामिच्छत्त बारसकसायाणं पि वत्तव्वं । वरि अप्पप्पणी 'चरिमफालीओ परसरूवेण संछुहिय उदयावलियपविरिण सेयद्विदीओ थिवुक्कसंकमेण कामिय यणिसे हिदीए दुसमयका लाए सेसाए जहण्णडिदिविहत्ती होदित्ति वत्तव्वं । एदेसिं सव्वकम्माणं सगसगणियट्टिश्रद्धासु संखेज्जसु भागेसु गदेसु चरिमफालीओ पदंति । अताणुबंधिचक्कस्स पुण अणियअद्धाए चरिमसमए चरिमफाली पददि
कालमें भी यह जीव हजारों स्थितिकाण्डक और अनुभागकाण्डकोंका घात करके प्रतिसमय असंख्यातगुणी श्र ेणी रूपसे कर्मस्कन्धोंका नाश करता है और इस प्रकार जब यह जीव अनिवृत्तिकरण के काल संख्यात बहुभागको व्यतीत कर देता है तब वह पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण मिध्यात्वकी अन्तिम फालिको उदयावलि के बाहरसे ग्रहण करके सम्यक्त्व और सम्यग्मि ध्यात्वमें संक्रान्त करता है और उदद्यावलिप्रमाण जो निषेक शेष रहे हैं उनमें से एक समय कम उदयावलिप्रमाण स्थितिको भी स्तिवक संक्रमण के द्वारा ( सम्यक्त्वप्रकृति में ) संक्रान्त कर देता है । तब इस जीवके मिध्यात्व के एक निषेककी दो समय प्रमाण निषेकस्थिति प्राप्त होती है ।
शंका- अनन्त परमाणुओंको स्थिति संज्ञा कैसे प्राप्त होती है ?
समाधान- ● आधारमें आधेयके उपचार से अनन्त परमाणुओंको स्थितिसंज्ञा प्राप्त हो जाती है ?
शंका- ये एक कैसे हो सकते हैं ?
समाधान — नहीं क्योंकि दो समय काल तक रहनेके कारण इनमें समानता है, इसलिये इनको एक मानने में कोई विरोध नहीं है ।
६ ३७२. जिस प्रकार मिध्यात्वकी एक जघन्य स्थिति दो समय प्रमाण कही उसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व और बारह कषायोंकी भी कहनी चाहिये । इतनी विशेषता है कि अपनी अपनी अन्तिम फालिको पररूपसे संक्रमित करके तथा उद्यावलिमें स्थित निषेकोंकी स्थितिको स्तिवुक संक्रमणके द्वारा संक्रामित करके जो दो समय प्रमाण एक निषेककी स्थिति शेष रहती है वह उक्त कर्मोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है प्रकृत में ऐसा कथन करना चाहिये । इन सभी कर्मोंकी अपने अपने अनिवृत्तिकरण के कालके संख्यात बहुभाग व्यतीत होने पर अन्तिम फालियोंका पलन होता है । परन्तु अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अन्तिम फालिका पतन अनिवृत्तिकरण के कालके
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गा० २२ ] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिअद्धाच्छेदो
२०५ त्ति घेत्तव्यं । कुदो ? साहावियादो । सम्मामिच्छत्तस्स उव्वेल्लणाए वि जहण्णहिदिविहत्ती होदि । चरिमुव्वेल्लणकंडयचरिमफालीए पदिदाए तत्थ वि दुसमयकालेगणिसेगहिदीए उवलंभादो। ___* सम्मत्त-लोहसंजलण-इत्थि-णवुसयवेदाणं जहण्णहिदिविहत्ती एगा हिदी एगसमयकालढिदिया ।
३७३. सम्मत्तस्स एगा हिदी एगसमयकालपमाणा जहण्णहिदिविहत्ती होदि त्ति जं मुत्ते भणिदं तस्स विवरणं कस्सामो। तं जहा-सम्मामिच्छत्तचरिमफालियाए सम्मत्तम्मि संकामिदाए सम्मत्तस्स अहवस्सहिदिसंतकम्मं होदि । पुणो एवंविहहिदिसंतकम्ममंतोमहत्तमेत्तहिदिकंडयपमाणेण घादयमाणो सम्मत्तस्स अणुसमयअोवट्टणं च कुणमाणो ताव गच्छदि जाव संखे जहिदिकंडयसहस्साणि गदाणि त्ति । तदो तेसु गदेसु सम्मत्तचरिमफालिमागाएंतो कदकरणिजकालमेत्ताओ हिदीओ मोत्तण आगाएदि । पुणो तं घेत्तूण गुणसेढिणिक्खेवेण णिक्खिचे अणियट्टिकरणं समपदि । तदो अणुसमयमोवट्टणं करेमाणो उदयावलियपविहिदीश्रो ताव गालेदि जाव एगा हिदी एगसमयकालपमाणा उदयम्मि हिदा त्ति । ताधे सम्मत्तस्स जहण्णहिदिविहत्ती होदि । सम्मा
अन्तिम समयमें प्राप्त होता है ऐसा यहां ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि इनका ऐसा स्वभाव है। तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलनामें भी जघन्य स्थिति विभक्ति होती है, क्योंकि अन्तिम उद्वेलनाकाण्डककी अन्तिम फालिके पतन होने पर वहां भी एक निषेककी दो समय प्रमाण स्थिति पाई जाती है।
* सम्यक्त्व, लोभसंज्वलन, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी एक स्थिति जघन्य 7 स्थिति विभक्ति होती है, जिसका स्थितिकाल एक समय है।
९३७३. सम्यक्त्वकी एक स्थिति एक समय प्रमाण काल तक रहनेवाली जघन्य स्थिति विभक्ति होती है, इस प्रकार जो सूत्र में कहा है, अब उसका विवरण करेंगे ।जो इस प्रकार है जब सम्यग्मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिका संक्रमण सम्यक्त्वमें होता है तब सम्यक्त्वका आठ वर्ष प्रमाण स्थिति सत्कर्म होता है। पुनः यह जीव सम्यक्त्वके इस प्रकार स्थित स्थितिसत्कर्मका अन्तमुहूर्त प्रमाण स्थितिकाण्डकके द्वारा घात करता हुआ और प्रत्येक समयमें अपवर्तना करता हुआ तब तक जाता है जब जाकर संख्यात हजार स्थितिकाण्डक व्यतीत हो जाते हैं। तदनन्तर उन संख्यात हजार स्थितिकाण्डकों के व्यतीत होने पर यह जीव सम्यक्त्वकी अन्तिम फालिको प्राप्त होता हुआ उसमेंसे कृतकृत्यवेदकके काल प्रमाण स्थितियों को छोड़कर शेषको ग्रहण करता है। पुनः इसके कृतकृत्यवेदक कालप्रमाण स्थितियोंको छोड़कर और शेषको ग्रहण करके उनका गुणश्रेणीरूपसे निक्षेप कर देने पर अनिवृत्तिकरण समाप्त होता है। तदनन्तर उनका प्रत्येक समयमें अपवर्तन करता हुआ उद्यावलिमें स्थित स्थितियोंकी तब तक निर्जरा करता है जब जाकर उदयमें स्थित एक स्थिति एक समय काल प्रमाण प्राप्त होती है। और इसी समय सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति विभक्ति होती है।
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जयघवलासहिदे कसायपाहुडे
[ द्विदिषहत्ती ३
मिच्छत्तादीणं जहणहिदी एगसमयकालपमाणा त्ति किण्ण परूविदं ? ण, मिच्छत्तसम्मामिच्छत्त- बारसकसायाणं सम्मत्तस्सेव सोदएण क्खवणाभावादी ।
९ ३७४. संपहि लोहसंजलणस्स जहण्णहिदी बुच्चदे । तं जहा - अप्पणो बादरकिट्टीओ वेदिय तदो तदियकिहिं वेदयमाणो सुहुमसांपराइयअद्धाए संखेज्जे भागे गंतूण लोभचरिमफालिमागाएंतो मुहुमसांपराइयश्रद्धाए सेसं सगद्धाए संखेज्जदिभागं मोत्ता आगाएदि । पुणो तं चरिमफालिदव्वं घेत्तूण गुणसेटिकमेण उदयादि णिक्खिविय तदो जहाकमेण सेसगोवुच्छाओ गालिय एगहिदीए उदयगदाए एगसमयकालपमाणाए सेसाए लोभसंजणस्स जहणद्विदिविहत्ती होदि ।
९ ३७५. इत्थवेदस्स एगा हिंदी एगसमयकालपमाणा जहण्णडिदिविहत्ती होदि त्ति जं भणिदं तस्स विवरण कस्सामो । तं जहा - इत्थिवेदोदएण खवगसेटिं चडिय तदो विदिय हिदी द्विदमित्थिवेदचरिमफालिं दुचरिमसमय सवेदएण घेत पुरिसवेदसरुवेण संकामिदे सवेदियचरिमसमयम्मि एगा हिदी एगसमयकालपमाणा सुद्धा चिदिता इत्थवेदस्स जहण्णहिदिविहत्ती होदि ।
९ ३७६. संपहिणवुंसयवेदस्स बुच्चदे । तं जहा —णवु सयवेदोदएण जो खवगशंका-सम्यग्मिथ्यात्व आदिककी जघन्य स्थिति एक समय कालप्रमाण क्यों नहीं कही ? समाधान नहीं, क्योंकि मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और बारह कषायोंका सम्यक्त्वके समान स्वोदय से क्षपण नहीं होता, इसलिये उनकी जघन्य स्थिति एक समय कालप्रमाण नहीं कही ।
९ ३७४, अब लोभसंज्वलनकी जघन्य स्थिति कहते हैं । वह इस प्रकार है - लोभसंज्वलन - वाला जीव अपनी बादर कृष्टियों का वेदन करके तदनन्तर तीसरी कृष्टिका वेदन करता हुआ सूक्ष्मसांपरायिकगुणस्थान के काल में संख्यात बहुभागप्रमाण कालका व्यतीत करके लोभकी अन्तिम फालिको ग्रहण करता हुआ सूक्ष्मसंपराय के काल में अपने कालक अर्थात् लाभकी अन्तिम फालिके कालके संख्यातवें भागप्रमाण निषेकोंको छोड़कर शेष निषेकों को ग्रहण करता है । पुनः उस अन्तिम फालिके द्रव्यको ग्रहण करके और उसे गुणश्रेणीक्रमसे उदय काल से लेकरके निक्षिप्त करके तदनन्तर यथाक्रमसे शेष गोपुच्छको गलाता है तब जाकर उदद्य प्राप्त एक स्थितिकी एक समय कालप्रमाण स्थितिके शेष रहने पर लोभसंज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है ।
—
§ ३७५. अब स्त्रीवेदकी एक स्थिति एक समय कालप्रमाण जघन्य स्थितिविभक्ति होती है यह जो पहले कह आये हैं उसका विवरण करेंगे। वह इस प्रकार हैं
स्त्रीवेद के उदयसे क्षपकश्रेणी पर चढ़कर तदनन्तर सवेदक जीवके द्वारा द्विचरम समय में द्वितीय स्थिति में स्थित स्त्रीवेदकी अन्तिम फालिका पुरुषवेदरूप से संक्रमण कर देने पर जब सवेद भाग के अन्तिम समय में एक समय कालप्रमाण एक स्थिति शुद्ध शेष रहती है तब स्त्रीवेद की जघन्य स्थितिविभक्ति होती है ।
। ३७६. अब नपुंसकवेदकी जघन्य स्थिति कहते हैं । वह इस प्रकार है - जो नपुंसक वेद के
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गा. २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिअाच्छेदो
२०७ सेढिमारूढो तेण सवेदियदुचरिमसमए इत्थिणवुसयवेदचरिमफालीसु सव्वसंकमेण पुरिसवेदे संकामिदासु तदो सवेदियचरिमसमए •णqसयवेदस्स एगा हिंदी एगसमयकालपमाणा पत्तोदया सुद्धा चिहदि । ताधे णqसयवेदस्स जहण्णहिदिविहत्ती होदि ।
* कोहसंजलणस जहण्णष्टिदिविहत्ती वे मासा अंतोमुत्तूणा ।
३७७. कदो ? चरित्तमोहक्खएण कोधसंजलणवेकिट्टीओ खविय कोधतदियकिटिं खवेमाणेण तिस्से पढमहिदीए समयाहियावलियाए सेसाए कोषसंजलणस्स जहण्णबंधे संपुण्णबेमासमेचे पबद्धताधे समयूणदोआवलियमेत्ता समयपबद्धा मुद्धा कोहस्स चिटुंत्ति । तम्मि समए उप्पादाणुच्छेदेण कोहचिराणसंतकम्मचरिमफालीए णिस्सेसविणासुवलंभादो । तदो बंधावलियाए वदिक्कताए समऊणावलियमेत्तफालीसु परसरूवेण संकामिदासु दुसमयणदोआवलियमेत्तसमयपबद्ध से णिस्सेसं परसरूवेण गदेसु ताधे समयूणदोआवलियाहि ऊणवेमासमेत्ता कोधचरिमसमयपबद्धस्स हिदी थक्कदिः ताधे कोधसंजलणस्स जहण्णहिदिदंसणादो। समयणदोआवलियाहि ऊणवेमासमेत्ता कोधजहण्णहिदिविहत्ती होदि त्ति अभणिय वेमासा अंतोमुत्तूणा त्ति भणिदं कथमेदं घडदे ? ण, बेमासअभंतरआबाहाए अंतोमुहुत्तपमाणाए कम्मणिसेगाउदयसे क्षपकश्रेणी पर चढ़ा है वह जब सवेद भागके द्विचरम समयमें स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी अन्तिम फालियोंका सर्वसंक्रमणके द्वारा पुरुषवेदमें संक्रमण कर देता है तब सवेद भागके अन्तिम समयमें नपुंसकवेदकी उदयगत एक स्थिति एक समय कालप्रमाण शुद्ध शेष रहती है और तभी नपुंसकवेदकी जघन्य स्थिति विभक्ति होती है।
* क्रोधमंज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्ति अन्तमुहूर्त कम दो महीना है।
६३७७. शंका-कोधसंज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्ति अन्तमुहूर्त कम दो महीना क्यों है ?
समाधान--चारित्रमोहनीयके क्षयके साथ क्रोधसंज्वलनकी दो कृष्टियोंका क्षय करके क्रोधकी तीसरी कृष्टिका क्षय करते हुए उसकी प्रथम स्थितिके एक समय अधिक प्रावली प्रमाण शेष रहने पर क्रोधसंज्वलनका जघन्य बन्ध पूरा दो महीना होता है और उस समय क्रोधके केवल एक समय कम दो आवली काल प्रमाण समयप्रबद्ध शेष रहते हैं। तथा उसी समय उत्पादानुच्छेद की अपेक्षा क्रोधकी प्राचीन सत्तामें स्थित अन्तिम फालिका पूरा विनाश प्राप्त होता है। तदनन्तर बन्धावलिके व्यतीत होने पर एक समय कम आवलि प्रमाण फालियोंके पररूपसे संक्तमित होने पर तथा दो समय कम दो आवली प्रमाण समयप्रबद्धोंके पूरी तरह पररूपसे प्राप्त होने पर उस समय एक समय कम दो आवलियोंसे न्यून दो महीना प्रमाण क्रोधके अन्तिम समयप्रवद्धकी स्थिति शेष रहती है, क्योंकि उसी समय क्रोधसंज्वजनकी जघन्य स्थिति देखी जाती है।
शंका-क्रोधसंज्वलनकी एक समय कम दो आवलियोंसे न्यून दो महीना प्रमाण जघन्य स्थिति होती है ऐसा न कहकर जो अन्तर्मुहूर्त कम दो महीना जघन्य स्थिति कही है सो यह कैसे बन सकती है ?
१ अप्रतौ दुसमयणादो-इति पाठः । २ अप्रतौ हिस्सेणं इति पाठः।
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- जयधवलासहिदे कसायपाहुडे .. [विदिनिहत्ती ३ भावेण अंतोमुहुत्त णं बेमासत्तु ववत्तीदो। कथं णिसेयाणं हिदिववएसो १ ण, णिसेयादो पुधभूदकालाभावेण णिसेयाणं हिदित्ताविरोहादो। एत्थ कालो पहाणो किण्ण कदो? ण, कम्मपरूवणाए कालस्स पहाणत्ताभावादो। जहा सम्मामिच्छत्तस्स एगा हिदी दुसमयकालपमाणा जहण्णहिदि विहत्ती होदि त्ति भणिदं तहा एत्थ वि अंतोमुहुत्तूणवेमासमेतहिदीओ समयूणवेआवलिऊणवेमासकालपमाणाओ ति किण परूविदं ? ण, चरिमणिसेयं मोत्त ण सेसणिसेयाणमेम्महंतकालाभावादो। उवदेसेण विणा वि णिसयाणं कालो अवगम्मदि त्ति वा मुत्तण भणिदो।
* माणसंजलणस्स जहण्णहिदिविहत्ती मासो अंतोमुहुत्तूणो ।
३७८. कुदो ? माणवेकिट्टीओ खविय तदियकिटिं वेदयमाणस्स तिस्से तदियकिट्टीपढमहिदीए समयाहियावलियसेसाए माणचरिमडिदिबंधी मासमेत्तो। तत्तो उवरि समऊणदोश्रावलियमेतद्धाणे चडिदे चरिमसमयपबद्धहिदीए अंतोमुहुत्त णमासमेत्तणिसेगाणमुक्लंभादो । जदि णिसंगहिदीओ चेव घेत्तण जहण्णहिदिविहत्ती वुच्चदि
समाधान-नहीं, क्योंकि दो मास प्रमाण स्थितिके भीतर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आबाधाकालमें कर्मनिषेक नहीं होनेसे जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्तकम दो महीना बन जाती है।
शंका-निषेकोंकी स्थिति संज्ञा कैसे हो सकती है ?
समाधान नहीं, क्योंकि निषेकोंसे काल पृथग्भूत नहीं पाया जाता है अतः निषेकोंकी स्थिति संज्ञा होने में कोई विरोध नहीं आता है।
शंका-यहाँ पर कालको प्रधान क्यों नहीं किया है ? समाधान नहीं, क्योंकि कर्मोंकी प्ररूपणामें कालको प्रधानता नहीं प्राप्त होती है।
शंका-जिस प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी दो समय कालवाली एक स्थिति जघन्य स्थिति विभक्ति होती है ऐसा कहा है उसी प्रकार यहाँ भी अन्तर्मुहुत कम दो महीना प्रमाण स्थितियाँ एक समय कम दो श्रावलियोंसे न्यून दो महीना काल प्रमाण होती हैं ऐसा क्यों नहीं कहा ?
समाधान नहीं, क्योंकि अन्तिम निषेकको छोड़कर शेष निषेकोंका इतना बड़ा काल नहीं पाया जाता है । अथवा उपदेशके बिना भी निषेकोंका काल जाना जाता है इसलिये सूत्र में नहीं कहा है।
* मान संज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्ति अन्तर्मुहूर्त कम एक महीना है । ३७८. शंका-मानसंज्वलनकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त कम एक महीना क्यों है ?
समाधान-मानकी दो कृष्टियोंका क्षय करके तीसरी कृष्टिका वेदन करनेवाले जीवके उस तीसरी कृष्टिकी प्रथम स्थिति एक समय अधिक प्रावलीप्रमाण शेष रहने पर मानका अन्तिम स्थितिबन्ध एक महीना प्रमाण होता है । तदनन्तर एक समय कम दो आवली प्रमाण स्थान जाने पर अन्तिम समयप्रबद्धकी स्थितिके निषेक अन्तमुहूर्त कम एक महीना प्रमाण पाये जाते हैं।
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गा० २२ । हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिअद्धाच्छेदो
२०६ तो चरिमसमयमाणवेदयम्मि जहण्णसामित्तं किण्ण परूविजदि; अंतीमुहुत्त ण पडि विसेसाभावादो ? ण, तत्थ समयाहियावलियमेत्तणिसेगहिदीणं पढमहिदीए उवलंभादो । पढमहिदिणिसेगेसु गालिदेसु किरण दिजदे ? ण, तत्थ हेहा बद्धकम्माणं चरिमसमयट्ठिदिवंधादो हेडा वितएिणसेगाणमुवलंभादो। तम्हा समयूणदोआवलियमेत्तद्धाणं गंतूण चेव जहण्णहिदिविहत्ती होदि ।
* मायासंजलणस्स जहएणहिदिविहत्ती अद्धमासो अंतोमुहुत्तूणो ।
३७९. जेण मायासंजलणचरिमझिदिबंधस्स णिसेया अंतोमुहुत्तणा अद्धमासमेत्ता तेण समऊणदोआवलियमेत्तपञ्चग्गसमयपबद्धस गालिदेसु अंतोमुहुत्तूणद्धमासमेत्तणिसेयहिदीओ लभंति तम्हा तत्थ जहण्ण हिदिविहत्ती होदि । सेसं सुगम, कोधमाणसंजलणेसु परूविदचादो।
ॐ पुरिसवेदस्स जहएणहिदिविहत्ती अहवस्साणि अंतोमुहुत्त णाणि । $३८०. कुदो ? चरिमसमयसवेदएण बंधजहण्णहिदिवंधो अवस्समेत्तो ।
शंका-यदि निषेकोंकी स्थितिको ग्रहण करके जघन्य स्थितिविभक्ति कही जाती है तो मान वेदनके अन्तिम समयमें जघन्य स्थितिका स्वामित्व क्यों नहीं कहा, क्योंकि दोनों जगह दो महीनामें अन्तमुहूर्त काल कम है इसकी अपेक्षा दोनों जगह कोई विशेषता नहीं है ?
- समाधान नहीं, क्योंकि मानवेदनके अन्तिम समयमें प्रथम स्थितिके निषेकोंकी भी एक समय अधिक प्रावलीप्रमाण स्थिति पाई जाती है, अत: वहाँ मानकी जघन्य स्थिति नहीं हो सकती है।
शंका--तो फिर जिसने प्रथम स्थितिके निषेकोंको गला दिया है वह जघन्य स्थितिका स्वामी क्यों नहीं माना जाता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि वहाँ पहले बंधे हुए कर्मोंकी अपेक्षा अन्तिम समयमें जो स्थिति बन्ध होता है उसके नीचे भी उनके निषेक पाये जाते हैं। अतः एक समय कम दो आवली प्रमाण स्थान जाकर ही मानकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है।
* मायासंज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्ति अन्तम हर्त कम आधा महीना है।
३७६. चूँ कि मायासंज्वलनके अन्तिम स्थितिबन्धके निषेक अन्तर्मुहूर्त कम आधा महीना प्रमाण होते हैं, इसलिये एक समय कम दो आवलीप्रमाण नूतन समयप्रबद्धोंके गला देने पर अन्तमें निषेकोंकी स्थितियाँ अन्तर्मुहूर्त कम अधुमास प्रमाण प्राप्त होती हैं, इसलिये वहाँ जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। शेष कथन सुगम है; क्योंकि उसका कथन क्रोध और मान संज्वलनकी जघन्य स्थितिका कथन करते समय कर आये हैं।
* पुरूषवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति अन्तमहत कम आठ वर्षप्रमाण होती है। ६३८०. शंका-पुरुष वेदकी जघन्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त कम आठ वर्षप्रमाण क्यों होती है ? समाधान-क्योंकि सवेदभागके अन्तिम समयमें पुरुषवेदका जघन्य स्थितिबन्ध आठ वर्षप्रमाण
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[हिदिविहत्ती ३ णिसेयहिदीओ पुण अंतोमुहुत्त णअहवस्समेत्ताओ; अंतोमुहुत्ताबाहाए णिसेयरयणाभावादो । पुणो समयणदोआवलियमेत्तमद्धाणमुवरि गंतूण अंतोमुहुत्त अवस्समेत्तणिसेयहिदीणमुवलंभादो। सत्तरिसागरोवमकोडाकोडीणं जदि सत्तवाससहस्समेत्ताबाहा लब्भदि तो अहं वस्साणं किं लभामो त्ति पमाणेणिच्छागुणिदफले श्रोवट्टिदे जेण एगसमयस्स असंखेजदिभागो आगच्छदि तेण अण्णं वस्साणमाबाहा अंतोमुहुत्तमता ति ण घडदे ? ण एस दोसो, संसारावत्थं मोत्तण खवगसेढीए एवंविहणियमाभावादो। तं पि कुदो णव्वदे ? अहवस्साणि अतोमुहुत्त णाणि पुरिसवेदस्स जहण्णहिदिविहत्ती होदि ति सुचादी। एदमत्थपदमण्णत्थ वि वचव्वं ।।
* छण्णोकसायाणं जहण्णहिदिविहत्ती सखेज्जाणि वस्माणि ।
१९३८१. एदस्स अत्थो वुच्चदे, अण्णदरवेदकसायाणमुदएण खवगसेढिं चडिय तदो जहाकमेण णव सयवेदमित्थिवेदं च खविय तदो छण्णोकसायखवणकालचरिमसमए चरिमहिदिकंडयचरिमफालीए संखेजवस्सपमाणाए सेसाए छण्णोकसायाणं जहण्णहिदिविहत्ती होदि। होता है । परन्तु निषेकोंकी स्थितियाँ अन्तमुहूर्त कम आठ वर्षप्रमाण ही होती हैं, कारण कि अन्तमुहूर्त प्रमाण आवाधामें निषेकोंकी रचना नहीं पाई जाती है । पुनः एक समय कम दो आवली प्रमाण काल ऊपर जाकर निषेकोंकी स्थितियाँ अन्तर्मुहूर्तकम आठ वर्ष प्रमाण पाई जाती हैं।
शंका-सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितिकी यदि सात हजार वर्ष प्रमाण आबाधा पाई जाती है तो आठ वर्षप्रमाण स्थितिकी कितनी आबाधा प्राप्त होगी, इस प्रकार त्रैराशिक विधिके अनुसार इच्छाराशिसे फलराशिको गुणित करके उसमें प्रमाणराशिका भाग देने पर चूँ कि एक समयका असंख्यातवां भाग आता है, इसलिये आठ वर्षकी आबाधा अन्तमुहूर्त प्रमाण होती है यह कथन नहीं बनता है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि संसार अवस्थाको छोड़कर क्षपकश्रेणीमें इस प्रकारका नियम नहीं पाया जाता है।
शंका-यह भी किस प्रमाणसे जाना जाता है।
समाधान-'पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति अन्तर्मुहूर्त कम आठ वर्ष प्रमाण है। इन सूत्रसे जाना जाता है।
यह अर्थपद अन्यत्र भी कहना चाहिये ।
* छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यात वर्षप्रमाण होती है। 1 ।३८१. अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं-किसी एक वेद और किसी एक कषायके उदयसे क्षपकश्रेणी पर चढ़कर तदनन्तर यथाक्रमसे नपुंसकवेद और स्त्रीवेदका सय करके तदनन्तर छह नोकषायोंके क्षय करनेके अन्तिम समयमें उनके अन्तिम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिकी संख्यात वर्ष प्रमाण स्थितिके शेष रहने पर छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है।
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पा. २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिविदिश्रद्धाच्छेदो
ॐ गदीसु अणुमग्गिदव्वं । $ ३८२. गदीसु चि देसामासियवयणं । तेण गदियादिसु चोदसमग्गणहाणेसु अणुमग्गिदव्वमिदि भणिदं होदि । एवं जइवसहाइरिएण सूचिदस्स अत्थस्स उच्चारणाइरिएण परूविदवक्रवाणं भणिस्सामो। उच्चारणोघो जइवसहोघेण समाणो चि ण तत्थ वत्तव्यमस्थि ।
$ ३८३. मणुस०-मणुसपज्ज०-पंचिंदिय-पंचिं०पज्ज-तस-तसपज्ज०-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालिय०-लोभकसाय-आमिणि-मुद०-ओहि०-संजद० - चक्खु०अचक्खु०-ओहिदंस०-मुक्क०-भवसिद्धि०-सम्मादिहि-सण्णि-आहारीणमोघभंगो। णवरि मणुसपज्ज० इत्थिवेद० जह० अद्धाच्छेदो पलिदो० असंखे० भागो । लोभकसाय० दोण्हं संजलणाणं जह० हिदिश्रद्धा०जहाकमेण अह वस्साणि चचारि मासा च अंतोमुहुत्त णा ।
३८४. आदेसेण णेरइएमु मिच्छत्त-बारसकसाय-भय-दुगुंछाणं जहण्णहिदिविहत्ती सागरोवमसहस्सस्स सच सचभागा चत्वारि सचभागा पलिदो० संखे०भागेण ऊणा । तं जहा–मिच्छत्तस्स ताव उच्चदे। असण्णिपंचिंदिओ हदसमप्पत्तियकमेण द्विदिघादं कादूण कयजहण्णमिच्छचहिदिसंतकम्मो विग्गहगदीए णेरइएमु उववण्णो
* इसी प्रकार गतियोंमें अनुसंधान करके समझना चाहिये।
६३८२. सूत्र में आया हुआ 'गदीसु' यह वचन देशामर्षक है, इसलिये गति आदिक चौदह मार्गणास्थानोंमें अनुसन्धान करके समझना चाहिये यह उक्त सूत्रका अभिप्राय होता है। इस प्रकार यतिवृषभ आचार्यके द्वारा सूचित अर्थका उच्चारणाचार्यके द्वारा जो व्याख्यान किया गया है उसे कहेंगे। उसमें भी उच्चारणाका ओघ यतिवृषभके ओघके समान है अतः उच्चारणाके ओघका कथन नहीं करेंगे।
६३८३. उसमें भी सामान्य मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रस पर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, लोभकषायी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, संयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंके ओघके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यपर्याप्तके स्त्रीवेदका जघन्य स्थितिकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है और लोभकषायवाले जीवके दो संज्वलनोंका जघन्य स्थितिकाल क्रमसे अन्तर्मुहूर्त कम आठ वर्ष और अन्तमुहूर्तकम चार मास है।
३८४. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति हजार सागरके सात भागोंमेंसे पल्योपमके संख्यातवें भागसे न्यून सातों भागप्रमाण है और बारह कवाय, भय तथा जुगुप्साकी जघन्यस्थितिविभक्ति हजार सागरके सात भागोंमें से पल्यका संख्यातवाँ भग कम चार भागप्रमाण है। खुलासा इस प्रकार है। उसमें पहले मिथ्यात्वकी जयन्य स्थिति कहते हैं-जिसने हतसमुत्पत्तिकक्रमसे स्थितिघात करके मिथ्यात्वका जघन्यस्थिति सत्कर्म कर लिया
१. ११०प्रतौ असंखे. इति पाठः ।
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जयधवासहिदे कसा पाहुडे
[ द्विदिविहती ३
तस्स विदियसमये रइयस्स सागरोवमसहस्सस्स सच सभागा पलिदो० संखे०भागेण ऊणा जहण हिदिश्रद्धाछेदो होदि । णेरेइ सण्णिपंचिदित्र संतो अंतोकोडाकोडिदि मिच्छस्स किण्ण बंधदि ? सरीरे गहिदे पढमसमय पहुडि अंतोकोडाकोहि चैत्र बंधदि, किं तु विग्गहगदीए असण्णिद्विदिं चैव बंधदि, पंचिंदियपाओग्गजण हिदी तत्थ संभवादो असण्णिपंचिंदियपच्छायदत्तादो वा ।
९ ३८५. एवं बारसकसाय-भय-दुर्गुछाणं पि वतव्यं । णवरि सागरोवमसहस्सस्स चचारि सत्तभागा पलिदोवमस्स संखे० भागूणा । एवं सत्तणोकसायाणं । इत्थवेदस्स जहण्णद्धाछेदो ताव वुच्चदे । तं जहा - जो सण पंचिंदि हदसमुप्पत्तियकमेण कयतत्थतणजहण्णडिदिसंतकम्मो तेण बंधावलिया दिक्कतकसायद्विदिसंतकम्मे सागरोवमसहस्सस्स चत्तारि सत्तभागमेचे पलिदो ० संखे ० भागेणूणे इत्थवेदम्मि संकामिय णेरइये सुप्पण्णपढसमए इत्थवेदबंधवोच्छेदे कदे कसाय हिदी इत्थवेदमिण संकमदि; बंधाभावेण पडिग्गहत्ताभावादो । तदो अंतोमुहुत्तकालं पुरिस
है ऐसा कोई एक असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव जब विग्रहगति से नारकियों में उत्पन्न होता है तब उस नारकीके दूसरे समय में हजार सागरके सात भागों में से पल्यके संख्यातवें भागसे न्यून सातों भाग प्रमाण जघन्यस्थिति होती है ।
शंका- नारकी संज्ञी पंचेन्द्रिय है, अतः वह मिध्यात्वकी अन्तःकोड़ाकोड़ीप्रमाण स्थितिको क्यों नहीं बाँधता है ?
समाधान- नारकी जीव शरीर ग्रहण करने पर प्रथम समयसे लेकर अन्तः कोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थितिको ही बाँधता है किन्तु वह विग्रहगति में असंज्ञीकी स्थितिको बाँधता है, क्योंकि पंचेन्द्रियके योग्य जघन्य स्थितिका पाया जाना नरककी विग्रहगतिमें संभव है । अथवा वह असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यायसे लौटकर आया है, इसलिये भी वहाँ असंज्ञीके योग्य जघन्य स्थिति पाई जाती है ।
९ ३८५. इसी प्रकार बारह कषाय, भय और जुगुप्साका भी कथन करना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनकी जघन्य स्थिति हजार सागर के सात भागों में से पल्यका संख्यातवाँ भाग कम चार भाग प्रमाण होती है। इसी प्रकार शेष सात नोकषायोंकी जघन्य स्थिति होती है । उनमें से पहले स्त्रीवेदकी जघन्य स्थिति कहते हैं । वह इस प्रकार है - जिस असंज्ञी पंचेन्द्रियने हतसमुत्पत्तिकक्रमसे असंज्ञीके योग्य जघन्यस्थिति सत्कर्मको प्राप्त कर लिया है वह बालिके व्यतीत होने पर हजार सागर के सात भागों में से पल्योपम के संख्यातवें भागसे न्यून चार भागप्रमाण कषायके स्थितिसत्कर्मका स्त्रीवेदमें संक्रमण करके नारकियोंमें उत्पन्न हुआ और वहाँ उत्पन्न होने पर पहले समय में स्त्रीवेदकी बन्धव्युच्छित्ति होनेसे उसके कषायकी स्थितिका स्त्रीवेदमें संक्रमण नहीं होता, क्योंकि स्त्रीवेदका बन्ध नहीं होने से उसमें प्रतिग्रह शक्ति नहीं रहती। ऐसा जीव तदनन्तर अन्तर्मुहूर्त काल तक पुरुषवेदका बन्ध करके पुनः अन्तर्मुहूर्त
१. ० प्रतौ खेरइएस इति पाठः ।
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गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिविदिअद्धाच्छेदो वेदं बंधिय पुणो अंतोमुहुत्तकालं णqसयवेदं बंधदि । णवंसयवेदबंधगद्धाचरिमसमए इत्थिवेदस्स जहण्णद्धाच्छेदो होदि । एवं पुरिसवेद-णसयवेद-हस्स-रदि-अरदि-सोगाणं। णवरि असण्णिचरिमसमए इच्छिदणोकसायं बंधाविय तत्थेव बंधवोच्छेदं कादूण णेरइएमुप्पण्णपढमसमयप्पहुडि अंतोमुहुत्तकालपडिवक्खपयडीओ बंधाविय पडिवक्रवपयडिबंधगद्धाचरिमसमए इच्छिदणोकसायस्स जहण्णअद्धाच्छेदो होदि।
३८६. एत्थ पडिवक्खपयडिबंधयद्धाणं माहप्पजाणावण णोकसायद्धाणमप्पाबहुगं उच्चदे । तं जहा-सव्वत्थोवा पुरिसवेदबंधगद्धा २। इत्थिवेदबंधगद्धा संखेज्जगुणा ४ । हस्स-रदिबंधगद्धा संखे०गुणा १६ । अरदि-सोगबंधगद्धा संखे गुणा ३२ । णवुसयवेदबंधगद्धा विसेसाहिया ४२। तिरिक्खगइ-मणुस्सगईसु देव-णिरयगईसु च एसो अद्धप्पाबहुआलावो वत्तव्यो । एसो उच्चारणाइरियाणमहिप्पाओ ।।
१३८७अण्णे पुण वक्खाणाइरिया एवं भणंति–ओघप्पाबहुआलावो तिरिक्खमणुसगईसु चेव होदि ) णिरयगईए पुण अण्णहा । तं जहा-सव्वत्थोवा पुरिसबंधगद्धा० ३। इथि०बंधगद्धा संखे गुणा ६ । हस्स-रदिबंधगद्धा विसे० ११ । णवुसयबंधगद्धा संखे०गुणा २२ । अरदि-सोगबंधगद्धा विसेसाहिया २३ । देवगईए णिरयगइभंगो । हेहिमबंधगद्धमुवरिमबंधगद्धम्मि सोहिदे सुद्धसेसं विसेसपमाणं होदि । काल तक नपुंसकवेदका बन्ध करता है, अतः उसके नपुसकवेदके बन्ध हानेके अन्तिम समयमें स्त्रीवेदकी जघन्य स्थिति होती है। इसी प्रकार पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति और शोककी जघन्य स्थिति कहनी चाहिये । परन्तु इतनी विशेषता है कि असंज्ञीके अन्तिम समयमें इच्छित नोकषायका बन्ध कराकर और वहीं उसकी बन्धव्युच्छिति कराके नारकियोंमें उत्पन्न होनेके पहले समयसे लेकर अन्तमुहूर्त काल तक प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध कराकर प्रतिपक्ष प्रकृतियों के बन्धकालके अन्तिम समयमें इच्छित नोकषायकी जघन्य स्थिति कहनी चाहिये।
३८६. अब यहाँ प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्ध कालके दीर्घत्वका ज्ञान करानेके लिये अर्थात् उत्कृष्ट बन्धकाल बतलानेके लिये नोकषायों के कालके अल्पबहुत्वको कहते हैं। वह इस प्रकार हैपुरुषवेदका बन्धकाल सबसे थोड़ा २ है । इससे स्त्रीवेदका बन्धकाल संख्यातगुणा ४ है। इससे हास्य और रतिका बन्ध काल संख्यातगुणा १६ है। इससे अरति और शोकका बन्धकाल संख्यातगुणा ३२ है । इससे नपुंसक वेदका बन्धकाल विशेष अधिक ४२ है। जिनकी अंकसंदृष्टि क्रमशः २,१४, १६. ३२ और ४२ है । यह अल्पबहुत्व तिर्यंचगति, मनुष्यगति, देवगति और नरकगतिमें कहना चाहिये। यह उच्चारणचार्यका अभिप्राय है।
३८७. परन्तु अन्य व्याख्यानाचार्य इस प्रकार कथन करते हैं-ओघ अल्पबहुत्वालाप तिर्यंचगति और मनुष्यगतिमें ही होता है । परन्तु नरकगतिमें अन्य प्रकारसे होता है। वह इस प्रकार है-पुरुषवेदका बन्धकाल सबसे थोड़ा ३ है। इससे स्त्रीवेदका बन्धकाल संख्यातगुणा ६ है। इससे हास्य और रतिका बन्धकाल विशेष अधिक ११ है। इससे नपुंसकवेदका बन्धकाल संख्यातगुणा २२ है। इससे अरति और शोकका बन्धकाल विशेष अधिक २३ है। जिनकी अंकसंदृष्टि क्रमशः ३, ६, ११, २२ और २३ है। तथा देवगतिमें नरकगतिके समान भंग है। यहाँ नीचेके बन्धकालको ऊपरके वन्धकालमेंसे घटा देने पर जो शेष रहता है वह विशेषका प्रमाण है। ये
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trader हिदे कसा पाहुडे
एदा बंधा चदुगदिजहण्णश्रद्धाच्छेदस्स साहणीओ होंति ।
९३== सम्पत्त - सम्मामिच्छत्त-अनंत। णुबंधिच कारणं श्रघभंगो। एवरि सम्मतं गिरएसुप्पण्णकदकर णिज्जस्स चरिमसमए जहां होदि । सम्मामिच्छत्तमुव्वेल्लरणाए वत्तव्वं । एवं पढमाए भवण० - वाण० । वरि भवरणवासिय वाणवैतरेसु सम्मत्तस्स सम्मामिच्छत्तभंगो । विदियादि जाव छहि त्ति मिच्छत्तस्स जहण्णद्विदिश्रद्धाच्छेदे भण्णमाणे मिच्छाही अणपणो गिरएस उपजिय पज्जत्तयदो होदूण उवसमसम्मतं गण्हमाणेण जेण सव्वुक्कस हिदिघादो कदो, पुणो अंतोमुहुतं गंतूण श्रताणुबंधिचक्क विसंजोएमाणेण जेण उकस्सओ हिदिघादो कदो तस्स सगसगुकस्सा उअमेत्तsarasaगलगाए गालिय सगाउअचरिमसमए वट्टमाणस्स अंतोकोडाकोडीसागरोवममेतद्विदीओ मिच्छत्तस्स जहण्णओ श्रद्धाच्छेदो । एवं इत्थि एवं सयवेदाणं । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-प्रणताणुबंधि चउक्कारणमोघभंगो । गवरि सम्मत्तस्स भवण० भंगो; उज्वेल्लणाए जहण्ण श्रद्धाच्छेदग्गहणादो । बारसकसाय - सत्तणोकसायाणं उवसमसम्मत्तगहणकाले सकसयं द्विदिवादं काढूण पुणो अरांताणुबंधिचउकस्स विसंजोय
-
[ द्विदिविहत्ती ३
बन्धकाल चारों गतियों के जघन्य कालके साधक होते हैं । अर्थात् इनसे चारों गतियोंका जघन्य स्थिति श्रद्धाछेद निकाला जाता है ।
•
1
९ ३८८. नारकियोंमें सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थिति के समान है । पर इतनी विशेषता है कि नारकियों में उत्पन्न हुए कृतकृत्यवेदक के अन्तिम समयमें सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति होती है । तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलनाके समय जघन्यस्थिति कहनी चाहिये । इसी प्रकार पहली पृथिवीके नारकी, भवनवासी और व्यन्तरोंके कथन करना चाहिये । पर इतनी विशेषता है कि भवनवासी और व्यन्तरोंके सम्यक्त्वकी जघन्यस्थिति सम्यमिथ्यात्व के समान होती है । दूसरे नरकसे लेकर छटे नरक तक मिथ्यात्व की जघन्य स्थितिके श्रद्धाच्छेदका कथन करनेपर जो मिध्यादृष्टि जीव अपने अपने नरकमें उत्पन्न हुआ और वहाँ पर्याप्त होकर जिसने उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण करते हुए सबसे उत्कृष्ट स्थितिघात किया पुनः अन्तर्मुहूर्तकाल व्यतीत करके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना के हेतु जिसने उत्कृष्ट स्थितिघात किया वह अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण स्थितियोंको अधः स्थितिगलनाके द्वारा गलाता हुआ जब अपनी अन्तिम समय में विद्यमान रहता है तब उसके अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण मिध्यात्वका जघन्यस्थितिद्वाच्छेद होता है ! इसी प्रकार स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका जघन्यस्थिति काल कहना चाहिये । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग ओघ के समान है । saat विशेषता है कि सम्यक्त्वको जघन्य स्थिति भवनवासियों के समान है, क्योंकि यहाँ उद्वेलनाके द्वारा प्राप्त होनेवाले जघन्य स्थिति अद्धाच्छेदका ग्रहण किया है । उपशमसम्यक्त्वके ग्रहण करने के समय सर्वोत्कृष्ट स्थितिघात करके पुनः अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना
१. श्र०प्रतौ श्रद्धहिदि- इति पाठः ।
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गा. २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिअद्धाच्छेदो
२१५ कुणमाणद्धाए वि सव्वुक्कस्सयं हिदिघादं कादूण पुणो उक्कस्साउअमणुपालिय णिप्पियमाणसम्माइहिचरिमसमए अंतोकोडाकोडीसागरोवममेत्तहिदीओ जहण्णअद्धाच्छेदो।
वरि णवुसयवेदं मोत्तूण अण्णासि सव्वपयडीणं परोदएण जहण्णश्रद्धच्छेदो वत्तव्यो । कुदो ? उदयहिदीए थिवुक्कसंकमेण गदाए जहण्णत्तु ववचीदो।
६ ३८६. एवं सत्तमाए वि वत्तव्यं । णवरि मिच्छत्तस्स जहण्णअद्धाच्छेदे भण्णमाणे पढमसम्मत्तग्गहणेण अणंताणुबंधिचउक्कविसंयोजणाए च सव्वुक्कस्सयं हिदिघादं कादूण सम्मत्तेण सह तेत्तीससागराउअमणुपालिय तदो अंतोमुहुत्तावसेसे आउए मिच्छत्तं गंतूण अंतोमुहुत्तकालं संतस्स हेहा बंधिय पुणो संतसमाणट्ठिदि बंधमाणचरिमसमए अंतोकोडाकोडिसागरोवममेत्तहिदीओ घेत्त ण जहण्णअद्धाच्छेदो होदि । एवं सोलसकसाय-भय-दुगुंछाणं । सत्तणोकसायाणं पि एवं चेव । णवरि मिच्छ गंतूण जहण्णहिदिसंतसमाणबंधे संजादे अप्पप्पणो पडिवक्खबंधगद्धाओ बंधाविय तासिं चरिमसमए जहण्णअद्धाछेदो वत्तव्यो ।
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करनेके समय भी सर्वोत्कृष्ट स्थितिघात करके पुनः उत्कृष्ट आयुका पालन करके जो सम्यग्दृष्टि नरकसे निकलना चाहता है उसके नरकसे निकलनेके अन्तिम समय में बारह कषाय और सात नोकषायोंका अन्तः कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण जघन्यस्थिति अद्धाच्छेद होता है। इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेदको छोड़कर अन्य सभी प्रकृतियोंका परोदयसे जघन्य स्थितिअद्धाच्छेद कहना चाहिये, क्योंकि स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा उदयस्थितिके कम हो जाने पर जघन्यपना बन जाता है।
३८६. इसी प्रकार सातवीं पृथ्वीमें भी कहना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका कथन करते समय जो प्रथम सम्यक्त्वका ग्रहण करनेसे और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करनेसे सर्वोत्कृष्ट स्थितिघात करके सम्यक्त्वके साथ तेतीस सागर आयुका पालन करके तदनन्तर आयुके अन्तमुहूर्त कालप्रमाण शेष रहने पर मिथ्यात्वको प्राप्त होकर सत्तामें स्थित कर्मसे कम स्थितिवाले कर्मका बन्ध करके पुनः सत्तामें स्थित कर्मके समान स्थितिवाले कर्मका बन्ध करता है उसके अन्तिम समयमें अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितिकी अपेक्षा जघन्यस्थिति श्रद्धाच्छेद होता है। इसी प्रकार सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका जघन्यस्थिति अद्धाच्छेद कहना चाहिये । तथा इसी प्रकार सात नोकषायोंका भी कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वको प्राप्त होकर जघन्य स्थिति सत्त्वके समान बन्धके होने पर अपनी अपनी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध कराके उनके बन्धकालके अन्तिम समयमें सात नोकषायोंका जघन्यस्थिति अद्धाच्छेद कहना चाहिये।
विशेषार्थ—जो असंज्ञी जीव मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साके जघन्य स्थिति सत्त्वके साथ नरकमें उत्पन्न हुआ है उसके विग्रहके दूसरे समयमें उक्त कर्मोंकी जघन्य स्थिति विभक्ति होती है । विग्रहगतिके दूसरे समयमें कहनेका कारण यह है कि शरीरग्रहण करनेके पश्चात् इसके संज्ञी पंचेन्द्रियके योग्य स्थितिका बन्ध होने लगता है। किन्तु विग्रहगतिमें ऐसा जीव असंज्ञीके योग्य स्थितिका ही बन्ध करता है। मिथ्यात्वादिकी जघन्य स्थिति मूलमें बतलाई
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[द्विदिविहत्ती ३
ही है। सात नोकषायोंकी यद्यपि जघन्य स्थिति एक हजार सागरके सात भागोंमेंसे पल्यके संख्यातवें भाग कम चार भागप्रमाण ही प्राप्त होती है पर यह स्थिति विग्रहके दूसरे समयमें न प्राप्त होकर अन्तमुहूर्त कालके पश्चात् प्राप्त होती है। यथा-वेद तीन हैं और ये प्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं। इनमें से किसी एकका बन्ध होते समय शेष दोका बन्ध नहीं होता। अब यदि कोई असंज्ञी जीव स्त्रीवेदके जघन्य स्थिति सत्त्वके साथ नरकमें उत्पन्न हुआ और वहाँ उत्पन्न होनेके पहले समयसे लेकर पुरुषवेदका बन्ध करने लगा। पुनः पुरुषवेदके स्थानमें अन्तर्मुहूर्तकाल तक नपुंसकवेदका बन्ध करने लगा तो उस नारकीके नपुंसकवेदके बन्ध होनेके अन्तिम समय तक स्त्रीवेदकी उक्त प्रमाण जघन्य स्थितिके अन्तर्मुहूर्त प्रमाण अधस्तन निषेकोंका और गलन हो जायगा किन्तु स्थितिमें वृद्धि नहीं होगी, अतः नरकमें स्त्रीवेदका जघन्य स्थितिसत्त्व नपुंसकवेदके बन्धके अन्तिम समयमें प्राप्त हुआ । तथा पुरुषवेद, नपुंसमवेद, हास्य, रति, अरति और शोकके विषयमें इसी प्रकार जानना चाहिये। किन्तु हास्यादिकी जघन्य स्थिति एक अन्तमुहूर्तके पश्चात् कहनी चाहिये, क्योंकि इनकी प्रतिपक्षभूत एक एक प्रकृतियाँ होनेसे एक अन्तर्मुहूर्तके बाद पुनः इनका बन्ध होने लगता है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमेंसे जिनका जघन्य स्थितिसत्त्व कहना हो उनका असंज्ञीके अन्तिम समयमें बन्ध कराकर नरकमें उत्पन्न होने पर उनकी प्रतिपक्षभूत प्रकृतियोंका अन्तमुहूर्तकाल तक बन्ध कहना चाहिये और इस अन्तमुहूर्तके अन्तिम समयमें उस उस प्रकृतिका जघन्य स्थितिसत्त्व कहना चाहिये। तथा सम्यक्त्वकी जघन्यस्थिति एक समय और सम्यग्मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थिति दो समय ओघके समान नरकमें भी बन जाती है, क्योंकि जो कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव नरकमें उत्पन्न हुआ है उसके कृतकृत्यवेदकके अन्तिम समयमें सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति पाई जाती है । तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थिति विसंयोजना करनेवाले नारकीके अनिवृत्तिकरणरूप परिणामोंके अन्तिम समयमें बन जाती है। किन्तु सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति दो समय सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलनामें ही बनेगी, क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्वकी क्षपणा मनुष्यगतिको छोड़कर अन्यत्र नहीं होती। सामान्य नारकियोंके जो मिथ्यात्वादि कर्मोंकी जघन्य स्थिति कही है इसी प्रकार पहले नरकके नारकी, भवनवासी और व्यन्तर देवोंके भी जानना चाहिये, क्योंकि इनमें भी असंज्ञी जीव मर कर उत्पन्न होते हैं। किन्तु भवनवासी और व्यन्तरोंमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव मर कर नहीं उत्पन्न होते, अतः इनके सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति एक समय न कहकर सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिके समान दो समय कहनी चाहिये, क्योंकि उद्वेलनाकी अपेक्षा इनके सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति दो समय बन जाती है। द्वितीयादिक पाँच नरकोंमें न तो असंज्ञी जीव मरकर उत्पन्न होता है और न सम्यग्दृष्टि ही उत्पन्न होता है, अतः वहाँ मिथ्यात्व आदि कर्मोंकी जघन्य स्थिति ऊपर कहे अनुसार नहीं बन सकती। फिर वह किस प्रकार बनती है आगे इसीका खलासा करते हैं-कोई एक जीव द्वितीयादिक नरकोंमें अपनी अपनी उत्कृष्ट आयुके साथ उत्पन्न हुआ और पर्याप्त होनेके पश्चात वह उपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करना चाहता है। ऐसी हालतमें उसने मिथ्यात्वकी स्थितिका उत्कृष्ट स्थितिघात किया और उसे इतनी रखी जो उपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करनेवालेके कमसे कम हो सकती है। पुनः उपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करके उसने अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजनाके साथ उत्कृष्ट स्थितिघात किया। यहाँ वेदकसम्यक्त्वको ग्रहण कराकर अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना इसलिये नहीं कही, क्योंकि वेदकसम्यक्त्वको ग्रहण करनेवालेके स्थितिघात करनेका कोई नियम नहीं है। पुनः वह जीवन भर सम्यग्दृष्टि रहा और इस प्रकार मिथ्यात्वकी अधःस्थितिके एक एक निषेकको · गलाता
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गा० २२] ___ द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिश्रद्धाच्छेदो . २१७
३९०. तिरिक्वेसु मिच्छत्त-बारसकसाय-णवणोकसायाणं जहण्णहिदिअद्धाछेदो सागरोवमस्स[सत्त] सत्तभागा चत्तारि सत्तभागा पलिदो० असंखे०भागेण ऊणया । सम्मत्त-सम्मामि० अणंताणुबंधिचउकाणमोघं । पंचिंतिरिक्ख-पंचिंतिरि०पज्ज०पंचिंतिरिक्वजोणिणीसु मिच्छत्त-बारसकसाय-भय-दुगंछाणं जहण्ण. सागरीवमसहस्सस्स सत्त सत्तभागा चत्तारि सत्तभागा वे सत्तभागा पलिदो० संखे०भागण ऊणया । सत्तणोकसायाणं सागरोवमस्स चत्तारि सनभागा पलिदो० असंखे०भागेण पडिवक्वबंधगद्धाहियऊणया । सेसं तिरिक्खोघं । णवरि जोणिणीसु सम्मत्त० सम्मामिच्छत्तभंगो। पंचिंतिरि०अपज पंचिं०तिरि०जोणिणीभंगो। णवरि अणंताणु०४ बारसक०भंगो। रहा । इस प्रकार अपनी आयुके अन्तिम समयमें उसके मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति होगी। इसी प्रकार स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी जघन्यस्थिति कहनी चाहिये, क्योंकि सम्यग्दृष्टिके इन दोनों वेदोंका बन्ध नहीं होता, अतः इनकी उक्त प्रकारसे जघन्य स्थिति बन जाती है। तथा इनके सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थिति दो समय होती है जिसका खुलासा भवनवासियोंके इनकी जघन्यस्थिति कहते समय कर आये हैं। तथा सातवें नरकमें जो विशेषता है उसका खुलासा मूलमें ही कर दिया है।।
३६०. तियेचोंमें मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिअद्धाच्छेद एक सागरके सात भागों से पल्योपमके असंख्यातवें भागसे न्यून सात भागप्रमाण है । बारह कषाय और नौ नोकषायोंका एक सागरके सात भागोंमेंसे पल्योपमके संख्यातवें भागसे न्यून चार भागप्रमाण है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुवन्धी चतुष्कका जघन्य स्थितिकाल ओघके समान है। पंचेन्द्रियतियंच पंचेन्द्रियतियंचपर्याप्त और पंचेन्द्रियतिथंच योनिमती जीवोंमें मिथ्यात्वका जघन्यस्थिति सत्त्वकाल एक हजार सागरके सात भागोंमेंसे पल्योपमके संख्यातवें भागसे न्यून सात भागप्रमाण है । बारह कषायोंका जघन्यस्थिति सत्त्वकाल एक हजार सागरके सात भागोंमेंसे पल्योपमके संख्यातवें भागसे न्यून चार भागप्रमाण है और भय तथा जुगुप्साका जघन्यस्थिति सत्त्वकाल एक हजार सागरके सात भागोंमेंसे पल्योपमके संख्यातवें भागसे न्यून दो भागप्रमाण है। सात नोकषायोंका जघन्यस्थिति सत्त्वकाल एक सागरके सात भागोंमेंसे अपनी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धकालसे और पल्यके असंख्यातवें भागसेन्यन चार भागप्रमाण है। शेष कथन सामान्य तियंचोंके समान है। इतनी विशेषता है कि योनिमती तिर्यंचोंमें सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है। पंचेन्द्रियतियच अपर्याप्तकोंमें पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतीके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्कक्रा भंग बारह कषायोंके समान है।
विशेषार्थ-तिर्यंचोंमें एकेन्द्रिय भी सम्मिलित हैं, अतः एकेन्द्रियोंकी जो जघन्य स्थिति है वही यहाँ मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी सामन्य तिर्यंचोंके जघन्यस्थिति जाननी चाहिये, किन्तु अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त ही करता है, अतः अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थिति ओघके समान दो समय जानना। सम्यक्त्व की जघन्यस्थिति कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिके समान एक समय जानना । किस कर्मकी कितनी जघन्य स्थिति है यह मूल में बतलाया ही है । पंचेन्द्रियतिथंच, पंचेन्द्रियतियच पर्याप्त और पंचेन्द्रियतियच योनिमती जीवोंके मिथ्यात्व और बारह कषायकी जघन्य स्थिति असंझियोंकी जघन्य स्थितिके
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जपधवलासहिदे कसायपाहुडे . [द्विदिविहत्ती ३ ६३६१. मणुसिणि० सयवेद जहण्ण० पलिदो० असंखे भागो। पुरिस० जह० संखेज्जाणि वस्साणि । सेसपयडीणमोघभंगो। मणु सअपज. पंचिं०तिरि०अपज्जत्तमंगो। समान जानना। भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति हजार सागरके सात भागोंमेंसे पल्यके संख्यातवें भाग कम दो भागप्रमाण होती है। इसका कारण यह है कि ये दोनों ध्र घबन्धिनी प्रकृतियाँ हैं । अब यदि कोई एकेन्द्रिय जीव उक्त तीन प्रकारके तिर्यंचोंमें उत्पन्न हुआ और वहाँ उसने पहले समयमें असंज्ञीके योग्य जघन्य स्थितिका बन्ध किया तो उसके उक्त दोनों प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति उक्त प्रमाण ही प्राप्त होगी। यदि कहा जाय कि इस जीवके उस समय सोलह कषायोंकी जघन्य स्थिति भय और जुगुप्सारूपसे संक्रमित हो जायगी, अतः भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति भी सोलह कषायोंकी जघन्य स्थिति के समान प्राप्त हो जायगी सो भी बात नहीं है, क्योंकि नवीन बन्धका एक आवलिके बाद ही अन्य प्रकृतिरूपसे संक्रमण होता है और यह जीव एकेन्द्रिय पर्यायसे आया है, अतः इसके सोलह कषायोंकी असंज्ञीके योग्य जघन्य स्थिति उसी समय प्राप्त हुई है, अतः उसका संक्रमण नहीं हो सकता । तथा सात नोकषाय प्रतिपक्ष प्रकृतियाँ हैं अतः जो एकेन्द्रिय उक्त तीन प्रकारके तिर्यंचोंमें उत्पन्न हुआ है उसके सात नोकषायोंकी जघन्य स्थिति एकेन्द्रियोंकी जघन्य स्थितिके समान होती है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनकी जघन्य स्थिति कहते समय अपनी अपनी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धकालको और घटा देना चाहिये, क्योंकि प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्ध होते समय शेष सजातीय प्रेकृतियोंका बन्ध नहीं होता और उसके अधःस्थितिगलनारूपसे प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धकाल प्रमाण निषेक गल जाते हैं। तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्क, सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी जवन्य स्थिति सामान्य तिचोंके समान क्रमसे दो समय, एक समय और दो समय प्रमाण बन जाती है। खुलासा सामान्य नारकियोंके समान जानना । किन्तु योनिमती तियचोंमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न नहीं होता अतः वहाँ सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति एक समय नहीं बनती। अतः जिस प्रकार उद्वेलनाकी अपेक्षा सम्यग्मिथ्यात्वकी दो समय जघन्य स्थिति कही उसी प्रकार योनिमतियोंके सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति कहनी चाहिये। पंचेन्द्रियतिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंके अनन्तानुबन्धी चतुष्कको छोड़कर शेष सब कर्मोकी जघन्य स्थिति योनिमती तिथंचोंके समान बन जाती है। किन्तु अनन्ताबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थिति शेष बारह कषायोंकी जघन्य स्थितिके समान होती है, क्योंकि इनके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना नहीं होती।
३६१. मनुष्यनियोंमें नपुंसकवेदका जघन्यस्थिति सत्त्वकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। पुरुषवेदका जघन्यस्थिति सत्त्वकाल संख्यात वर्ष है। तथा शेष प्रकृतियोंका ओघके समान है । मनुष्य अपर्याप्तकोंमें पंचेन्द्रियतिथंच अपर्याप्तकोंके समान भंग है ।
विशेषार्थ-मनुष्यनियोंके नपुसकवेद और पुरुषवेदको छोड़कर सब कर्मोंकी जघन्य स्थिति श्रोधके समान बन जाती है, क्योंकि इनके क्षायिक सम्यग्दर्शन और क्षपकश्रेणीकी प्राप्ति सम्भव है। किन्तु इनके क्षपकरणीमें जिस समय नपुंसकवेदकी द्वितीय स्थितिके अन्तिम काण्डककी अन्तिम फालिका पुरुषवेदमें संक्रमण होता है उस समय उसकी पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थिति पाई जाती है, अतः इनके नपुंसक्वेदकी जघन्य स्थिति पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण जाननी चाहिये । तथा इनके पुरुषवेदकी जघन्य स्थिति संख्यात वर्ष प्रमाण होती है, क्योंकि मनुष्यनियोंके पुरुषवेदका क्षय छह नोकषायोंके साथ होता है, इसलिये जब यह जीव पुरुषवेदके साथ छह नोकषायोंके अन्तिम काण्डककी अन्तिम फालिका संक्रमण क्रोधसंज्वलनमें
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رحیمی در سر سجدے سے معه حره
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गा० २२ ]
द्विदिविहत्तीए उत्तरपपडिद्विदिश्रद्धाच्छेदो ३६२. देवाणं णिरओघ । जोदिसि० विदियपुढविभंगो। सोहम्मादि जाव उवरिमगेवजे त्ति विदियपुढविभंगो। णवरि दोवारमुवसमसढिं चढाविय उकस्सहिदिघादं कराविय पुणो ओदरिय दंसणमोहणीयं खइय अप्पिददेवेसु उक्स्साउहिदीएसुप्पाइय णिप्पिदमाणदेवचरिमसमए जहण्णअद्धाछेदो वत्तव्यो । सम्मत्तस्स देवोघं । अणुदिसादि जाव सव्वदृसिद्धि त्ति एवं चेव । णवरि सम्मामिच्छत्तस्स मिच्छत्तभंगो। करता है उस समय पुरुषवेदकी द्वितीय स्थितिमें स्थित अन्तिम फालिकी स्थिति संख्यात वर्ष प्रमाण पाई जाती है। लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंके सब कर्मोंकी जघन्य स्थिति पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकोंके समान बतानेका कारण यह है कि जो एकेन्द्रिय जीव अपने स्थिति बन्धके योग्य स्थितिके साथ लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंमें उत्पन्न होता है उसके यथायोग्य समयमें सब कर्मोकी लब्ध्यपर्याप्तक तिर्यंचोंके समान जघन्य स्थिति बन जाती है। किन्तु सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी जघन्य स्थिति दो समय उद्वेलनाकी अपेक्षा कहनी चाहिये ।
६३६२. देवोंमें सामान्य नारकियोंके समान जघन्य स्थिति है। ज्योतिषियोंमें दूसरी पृथिवीके समान भंग है। सौधर्म स्वर्गसे लेकर उपरिम अवेयक तक दूसरी पृथिवीके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि जो दो बार उपशमश्रेणी पर चढ़कर और उत्कृष्ट स्थितिघात करके पुनः उतर कर
और दर्शनमोहनीयका क्षय करके उत्कृष्ट युवाले विवक्षित देवोंमें उत्पन्न हुआ है उसके वहाँसे निकलनेके अन्तिम समयमें बारह कषाय और नौ नोकषायका जघन्य स्थिति सत्त्वकाल कहना चाहिये। सम्यक्त्वका सामान्य देवोंके समान जघन्य स्थिति सत्त्वकाल है । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितक भी इसी प्रकार है । इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यात्वका स्थितिसत्त्वकाल मिथ्यात्वके समान है।
विशेषार्थ—सामान्य देवोंमें सामान्य नारकियोंके सामान जघन्य स्थिति कहनेका कारण यह है कि असंज्ञी जीव भी देवोंमें उत्पन्न होते हैं, अतः इस अपेक्षासे देवोंमें नारकियोंके समान मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थिति घटित हो जायगी। तथा विसयोजनाकी अपेक्षा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी, उद्वेलनाकी अपेक्षा सम्यग्मिथ्यात्वकी और कृतकृत्यवेदक सम्यक्त्वकी अपेक्षा सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति भी नारकियोंके समान देवोंके बन जाती है। तथा उयोतिषियोंमें असंज्ञी जीव मर कर उत्पन्न नही होता अतः इनके दूसरी पृथिवीके समान मिथ्यात्वादिककी जघन्य स्थिति घटित करके कहनी चाहिये । विशेषता इतनी है कि इनके अपनी उकृष्ट आयुका विचार करके ही कथन करना चाहिये । यद्यपि सौधर्मस्वर्गसे लेकर नौ अवयक तक मिथ्यात्वादिककी जघन्य स्थिति दूसरी पृथिवीके समान बन जाती है पर सौधर्मादिक स्वर्गों में सम्यग्दृष्टि जीव भी उत्पन्न होता है, अतः यहां द्वितीय पृथिवीके नारकियोंके जघन्य स्थितिके कथनसे कुछ विशेषता है जो मूलमें बतलाई है, अतः उसके अनुसार इनके जघन्य स्थिति घटित करके जानना चाहिये। किन्तु यहां कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव भी उत्पन्न होता है अतः यहां सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति द्वितीय नरकके समान न जानकर सामान्य नारकियोंके समान जाननी चाहिये। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक सम्यग्दृष्टि ही उत्पन्न होते हैं, अतः इनके सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति दो समय नहीं बन सकती है और इसलिये इनके सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिके समान जाननी चाहिये । तथा शेष कर्मोंकी जघन्य स्थिति सौधर्मादिक स्वगाके समान जानना।
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२२०
..अपचवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ $ ३६३. एइंदिएसु मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० जह० सागरोवमस्स सत्त सत्तभागा चत्तारि सत्तभागा पलिदो० असंखे० भागेण ऊणा। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तं० जह० एया हिदी दुसमयकाला । एवं सव्वएइंदिय-पंचकाय-ओरालियमिस्स-कम्मइय०मदि-सुदअण्णा०-तिएिणलेस्सा-अभव०-मिच्छा०-असण्णि-अणाहारि ति । णवरि ओरालियमिस्स-कम्मइय० - काउलेस्सा- अणाहारि० सम्मत्तमोघं । तिसु लेस्सासु अणंताणुबंधिचउक्कमोघं ।
5 ३६४. विगलिंदिएसु मिच्छत्त-सोलसक०-भय-दुगुंडा० ज० पणुवीससागराणं पण्णारससागराणं सदसागराणं सत्त सत्तभागा चत्तारि सत्तभागा वे सत्तमागा पलिदोवमस्स संखेजदिभागेण ऊणा । सत्तणोकसायाणं ज० सागरोवमस्स चत्तारि
६३६३. एकेन्द्रियोंमें मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल एक सागरके सात भागोंमेंसे पल्योपमके असंख्यातवें भागसे न्यून सात भागप्रमाण है । सोलह कषाय और नौ नोकषायोंका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल एक सागरके सात भागोंमेंसे पल्योपमके असंख्यातवें भागसे न्यून चार भागप्रमाण है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी एक स्थितिका जघन्य सत्त्वकाल दो समय है। इसी प्रकार सब एकेन्द्रिय, पाँचों स्थावरकाय, औदारिकमिश्रकाययोगी; कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, कृष्णादि तीन लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्याष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि औदारिकमिश्रकाययोगी, कामणकाययोगी, कपोतलेश्यावाले और अनाहारक जीवोंमें सम्यक्त्वका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल अोधके समान है। तीन लेश्याओं में अनन्तानन्धी चतुष्कका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल ओषके समान है।
विशेषार्थ-एकेन्द्रियादिक मार्गणाओं में जो मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थिति बतलाई है वह वहां सम्भव जघन्य स्थितिसत्त्वकी अपेक्षासे जानना । तथा सम्यस्त्व
और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति दो समय उद्वेलनाकी अपेक्षा जानना। किन्तु औदारिक मिश्रकायोगी, कार्मणकाययोगी, कापोत लेश्यावाले और अनाहारक इन मार्गणाओंमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि भी उत्पन्न हो सकता है और इनके रहते हुए उसका काल भी पूरा हो सकता है, अतः इन मार्गणाओंमें सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति ओघके समान एक समय भी बन जाती है। तथा कृष्णादि तीन लेश्याओं के रहते हुए अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना भी होती है अतः इन तीन लेश्याओंमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थिति ओघके समान दो समय बन जाती है ।
६३६४. विकलेन्द्रियोंमें मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल दोइन्द्रियोंमें पच्चीस सागरके सात भागोंमेंस पल्योपमके संख्यातवें भागसे न्यून सात भागप्रमाण, तीन इन्द्रियोंमें पचास सागरके सात भागोंमेंसे पल्योपमके संख्यातवें भागसे न्यून सात भागप्रमाण और चौइन्द्रियोंमें सौ सागरके सात भागोंमेंसे पल्योपमके संख्यातवें भागसे न्यून सात भागप्रमाण है। सोलह कषायोंका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल दोइन्द्रियोंमें पच्चीस सागरके तेइन्द्रियोंमें पचास सागरके और चौइन्द्रियोंमें सौ सागरके सात भागोंमेंसे पल्योपमके संख्यातवें भागसे न्यून चार भागप्रमाण है । तथा भय और जुगुप्साका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल दो इन्द्रियोंमें पच्चीस सागरके, तेइन्द्रियोंमें पचास सागरके और चौइन्द्रियोंमें सौ सागरके सात भागों में से पल्योपमके संख्यातवें भागसे न्यून
१. अ०प्रतौ सम्मामिच्छाइही० इति पाठः ।
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गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिविदिश्रद्धाच्छेदो
२२१ सत्तभागा पलिदो असंखे० भागेण ऊणा । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त० एइंदियभंगो। पंचिंदियअपज. पंचिंतिरि०अपज्जत्तभंगो। तसअपज० वेइंदियअपज्जत्तभंगो।
३३६५. वेउव्यि० सबभंगो । णवरि सम्म०-सम्मामि० जोदिसियभंगो। वेउव्वियमिस्स० मिच्छत्त-सोलसक-भय-दुगुंछ० जह० अंतोकोडाकोडीसागरोवमाणि । सम्मत्त-सम्मामि० सोहम्मभंगो । सत्तणोक० जह० सागरोवमसहस्सस्स चत्तारि सत्तभागा पलिदोवमस्स संखेजदिभागेण ऊणा । आहार-आहारमिस्स० सव्वपयडीणं जह० अंतोकोडाकोडीसागरोवमाणि । दो भागप्रमाण है। सात नोकषायोंका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल एक सागरके सात भागोंमेंसे पल्योपमके असंख्यातवें भागसे न्यून चार भागप्रमाण है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका एकेन्द्रियोंके समान भंग है। पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकोंमें पंचेन्द्रियतिथंच अपर्याप्तकोंके समान भंग है । बस अपर्याप्तकोंमें दो इन्द्रिय अपर्याप्तकोंके समान भंग है।
विशेषार्थ-जब कोई एक एकेन्द्रिय जीव विकलत्रयोंमें उत्पन्न होता है तो वह वहां उत्पन्न होनेके पहले समयमें ही कमसे कम विकलत्रयोंके योग्य जघन्य स्थितिका बन्ध करने लगता है, अतः विकलत्रयके मिथ्यात्व, सोलह कषाय तथा भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति मूलमें बतलाये अनुसार ही प्राप्त होगी। किन्तु सात नोकषाय प्रतिपक्षभूत प्रकृतियां हैं, अत: बिकलत्रयोंके इनकी जघन्य स्थिति एकेन्द्यिोंके समान भी बन जाती है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति उद्वेलनाकी अपेक्षा एकेन्द्रियोंके समान दो समय जाननी चाहिये । पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके पंचेन्द्रिय तियेच अपर्याप्तकोंके समान तथा त्रस अपर्याप्तकोंके द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकोंके समान जघन्य स्थिति जाननेकी जो मूलमें सूचना की सो उसका कारण स्पष्ट ही है ।
६३६५. वैक्रियिककाययोगियों में सर्वार्थसिद्धिके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल ज्योतिषियोंके समान है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल सौधर्मके समान है । तथा सात नोकषायोंका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल एक हजार सागरके सात भागोंमें से पल्योपमके संख्यातवें भागसे न्यून चार भागप्रमाण है। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके सभी प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर है ।
विशेषार्थ-देव वैक्रियिककाययोगी भी होते हैं अतः वैक्रियिककाययोगमें सर्वार्थसिद्धिके समान सब कर्मोंकी जघन्य स्थिति बन जाती है। किन्तु वैक्रियिक काययोगमें कृतकृत्यवेदक सम्यक्त्व नहीं पाया जाता, अतः इसमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति ज्योतिषियोंके समान दो समय जानना । ऐसा नियम है कि शरीर ग्रहण करनेके पश्चात् संज्ञी जीव पंचेन्द्रियके योग्य स्थितिका ही बन्ध करता है अतः वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर कही है। किन्तु सात नोकषाय सप्रतिपक्षभूत प्रकृतियां हैं । इनका बन्ध एक साथ नहीं होता, अतः वैक्रियिकमिश्रकाययोगके रहते हुए भी इनकी जघन्य स्थिति असंज्ञीके योग्य प्राप्त हो जाती है जो मूलमें बतलाई ही है। तथा वैक्रियिक मिश्रकाययोगमें कृतकृत्यवेदक सम्यक्त्व भी पाया जाता है, अतः इसमें सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति
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२२२ जयपवलासहिदे कसायपाहुढे
[द्विदिविहत्ती ३ ____ ३६६. इत्थिवेदे मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-बारसक०-इत्थिवेदाणमोघं । णवंस० ज. पलिदो० असंखे०भागो। सत्तणोक०-चत्तारिजल० संखेज्जाणि वाससहस्साणि । एवं णस० । णवरि इत्थि० जह० पलिदो० असंखे०भागो । पुरिस० इत्थि-णव॑सयवेद० ज० पलिदो० असंखे०भागो। परिस-चत्तारिक. जह० संखेज्जाणि वस्साणि ।सेसं मूलोघं । अवगद० मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-अहक०-इत्थि-णवूस० जह० अंतोकोडाकोडीसागरोवमाणि । सत्तणोक०-चत्तारिसंज० ओघं ।
एक समय और उद्वेलनाकी अपेक्षा सम्यग्मिथ्यात्व की जघन्य स्थिति दो समय बन जाती है जो सौधर्म स्वर्गमें भी सम्भव है ।छठे गुणस्थानमें सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण होती है, अतः आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोगमें इनकी जघन्य स्थिति उक्त प्रमाण कही है। तथा आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोगके रहते हुए दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ नहीं होता है और जिसने दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ किया है उसकेउक्त दोनों योग नहीं होते, अतः उक्त दोनों योगोंमें तीन दर्शन मोहनीयकी जघन्य स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण ही होती है।
६३६६. स्त्रीवेदमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और स्त्रीवेदका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल ओघके समान है। नपुंसकवेदका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । तथा सात नोकषाय और चार संज्वलनोंका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल संख्यात हजार वर्ष है। इसी प्रकार नपुंसकवेदमें जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इसमें स्त्रीवेदका जघन्यं स्थितिसत्त्वकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। पुरुषवेदमें स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। पुरुषवेद और चार कषायों का जघन्य स्थितिसत्त्वकाल संख्यात वर्ष है। तथा शेष मूलोष के समान है । अपगतवेदमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, आठ कषाय, स्त्रीवेद और नपुसकवेदका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर है । तथा सात नोकषाय और चार संज्वलनोंका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल ओघके समान है।
विशेषार्थ-स्त्रीवेदके उदयके रहते हुए मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और स्त्रीवेदकी क्षपणा सम्भव है, अतः स्त्रीवेदीके इनकी जघन्य स्थिति ओघके समान कही है । तथा स्त्रीवेदके उदयके रहते हुए नपुंसकवेदकी क्षपणा भी हो जाती है पर जिस समय ऐसे जीवके नपुंसकवेदके अन्तिम काण्डककी अन्तिम फालिका पुरुषवेद रूपसे संक्रमण होता है उस समय उसकी जघन्य निषेक स्थिति पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण पाई जाती है, अतः स्त्रीवेदीके नपुंसकवेदकी जघन्य स्थिति उक्तप्रमाण कही है। तथा जिस समय स्त्रीवेदका प्रथम स्थितिमें विद्यमान अन्तिम निषेक स्वोदयसे, क्षयको प्राप्त होता है उस समय सात नोकषाय
और चार संज्वलनका जघन्य स्थितिसत्त्व संख्यात हजार वर्ष प्रमाण पाया जाता है, अतः स्त्रीवेदीके उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति उक्तप्रमाण कही है। नपुंसकवेदीके भी इसी प्रकार सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति जानना। किन्तु क्षक नपुंसकवेदी जीव अपने उपान्त्य समयमें स्त्रीवेदके अन्तिम काण्डककी अन्तिम फालिका पुरुषवेदरूपसे संक्रमण करता है और उस समय अन्तिम फालिकी जघन्य स्थिति पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण पाई जाती है, अतः नपुंसकवेदीके स्त्रीवेदकी जघन्य स्थिति उक्त प्रमाण कही है । तथा पुरुषवेदीके जब स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके
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गा० २२ ]
वित्तीए उत्तरपयडिडिदि श्रद्धाच्छेदो
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९ ३९७. कोध० चत्तारिक० जह० चत्तारि वस्साणि । सेसं मूलोघं । एवं माण० । वरि तिष्णि० संज० जह० वे वस्सारिण । सेसमोघं । एवं माया० । वरि दो संज० जह० वस्सं । सेसमोघं । श्रकसा० सव्वपयडीणं ज० अंतोकोडाकोडी | एवं जहाक्खाद ० ।
arrant न्तिम फालिका सर्वसंक्रमण द्वारा पुरुषवेदरूपसे संक्रमण होता है उस समय अन्तिम फालियोंकी जघन्य निषेकस्थिति पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण पाई जाती है, अतः पुरुषवेदीके स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी जघन्य स्थिति उक्तप्रमाण कही है । पुरुषवेदके अन्तिम समयमें चार संज्वलनोंकी स्थिति संख्यात वर्षप्रमाण पाई जाती है, अतः पुरुषवेदीके चार संज्वलनोंकी जघन्य स्थिति उक्त प्रमाण कही है । तथा पुरुषवेदीके शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति
के समान प्राप्त होती है, अतः उनकी जघन्य स्थिति ओघके समान कही है। तथा जो द्वितीयोपशम सम्यक्त्व से उपशमश्रेणी पर चढ़ा है उसीके अपगतवेदके रहते हुए मिध्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, मध्यकी आठ कषाय स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका सत्त्व पाया जाता है । उपशमश्रेणी में सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति अतः कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण होती है, अतः अपगतवेदीके उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ीसागर प्रमाण कही है । तथा सात नोकषाय और चार संज्वलनका सत्त्व क्षपक अपगतवेदी के भी होता है. अतः अपगतवेदीके इनकी जघन्य स्थिति ओघ के समान कही है । अपगतवेदीके श्रनन्तानुबन्धी चतुष्कका सत्त्व तो हाता ही नहीं, अतः इसके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थिति नहीं कहीं । हां जिन आचार्यों के
तसे अनन्तानुबन्धीकी बिना विसंयोजना किये भी जीव उपशमश्रेणी पर चढ़ सकता है उनके मतानुसार अपगतवेदीके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण होगी जिसका यहां उल्लेख न करनेका कारण यह है कि कषायप्राभृतके मतानुसार ऐसी जीव उपशमश्रेणिपर आरोहण नहीं करता ।
९ ३६७. क्रोधमें चार कषायोंका जघन्य स्थिति सत्त्वकाल चार वर्ष है । शेष मूलोधके समान है । इसी प्रकार मानमें जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इसके तीन संज्वलनका जघन्य स्थिति सत्त्वकाल दो वर्ष है । तथा शेष ओघ के समान है । इसी प्रकार मायामें जानना चाहिये । पर इतनी विशेषता है कि इसके दो संज्वलनोंका जघन्य स्थिति सत्त्वकाल एक वर्ष है । तथा शेष ओघके समान है । अकषायी जीवों में सब प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल अन्त:कोड़ाकोड़ी सागर है । इसी प्रकार यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिये ।
विशेषार्थ — क्रोधकषायीके क्रोध कषायके वेदन करनेके अन्तिम समय में चार संज्वलनों की जघन्य स्थिति चार वर्षं प्रमारण होती है। मानकषायीके मान कषायके वेदन करनेके अन्तिम समय में मानादि तीन संज्वलनोंकी जघन्य स्थिति दो वर्षप्रमाण होती है । तथा मायाकषायीके माया कषायके वेदन करनेके अन्तिम समय में माया आदि दो संज्वलनोंकी जघन्य स्थिति एक वर्ष प्रमाण होती है, अतः इन क्रोधादि कषायवाले जीवोंके उक्त कषायोंकी जघन्य स्थिति उक्त प्रमाण कही है। इनके शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति के समान जानना, क्योंकि इनमें से किसी भी कषायके उदयके रहते हुए दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयकी क्षपरणा सम्भव है, अतः इन कषायवालोंके शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति ओघके समान बन जाती है । उपशान्तकषाय गुणस्थान में अकषायी जीवोंके अनन्तानुबन्धी चतुष्कको छोड़ कर शेष सब प्रकृतियोंका सत्त्व सम्भव है और उपशमश्रेणी में सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति अन्तः कोड़ाकोड़ी सागरसे
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ ३६८. विहंग० मिच्छत्त०-सोलसक०-णवणोक० ज० अंतोकोडाकोडीसागरोवमाणि। सम्मत्त-सम्मामि० एइंदियभंगो । मणपज० ओघं । णवरि इत्थि०णवुस० ज० पलिदो० असंखे भागो। ___३६६. सामाइय-छेदो० ओघ । णवरि लोभसंज० ज० अंतोमुहुनं । परिहार० सम्मत्त० मिच्छत्त०-सम्मामि०-अणंताणु० ओघं । सेसाणं सोहम्मभंगो। एवं तेउ-पम्मसंजदासंजदाणं । मुहमसंप० लोभ० ज० एया हिंदी एयसमइया। सेसाणमकसाइभंगो । असंजद० तिरिक्खोघं । णवरि मिच्छत्तस्सोधभंगो । कम नहीं होती, अत: अकाषायी जीवोंके सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण कही है । तथा अकषायी जीवोंके समान यथाख्यातसंयत जीवोंके भी सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति घटित कर लेनी चाहिये।
६३६८. विभंगज्ञानियों में मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंका जघन्य स्थिति सत्त्वकाल अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य स्थिति सत्त्वकाल एकेन्द्रियोंके समान है। मनःपर्ययज्ञानमें ओघके समान है। पर इतनी विशेषता है कि इसमें स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका जघन्य स्थिति सत्त्वकाल पल्योपमके असंख्यातवेंभागप्रमाण है।
विशेषार्थ-विभंगज्ञान संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवके पर्याप्त अवस्थामें ही होता है और पर्याप्त अवस्थामें संज्ञी मिथ्यादृष्टि जीवके अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरसे कम जघन्य स्थितिसत्त्व नहीं होता, अतः विभंगज्ञानियोंके मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण कही है । तथा विभंगज्ञानी भी सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करते हैं, अतः इनके उक्त दो प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति एकेन्द्रियों के समान दो समय कही है । यद्यपि मनःपर्ययज्ञानके रहते हुए क्षायिक सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति और क्षपकश्रेणी पर आरोहण बन सकता है, अतः इसके स्त्रीवेद और नपुंसकवेदको छोड़ कर शेष सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति ओघके समान बन जाती है। किन्तु स्त्रीवेदी और नपुंसकवेदी जीवके मनःपर्ययज्ञानकी प्राप्ति सम्भव नहीं, अतः जिस प्रकार पुरुषवेदी जीवके स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी जघन्य स्थिति पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण घटित करके बतला आये हैं उसी प्रकार मनःपर्यायज्ञानीके भी जानना । . ६३६६. सामायिक और छेदोपस्थापना संयममें ओघके समान है। पर इतनी विशेषता है कि इनके लोभसंज्वलनका जघन्य स्थिति सत्त्वकाल अन्तर्मुहूर्त है। परिहारविशुद्धिसंयतके सम्यक्त्व, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल ओघके समान है। तथा शेषका सौधर्मके समान है। इसी प्रकार पीत, पद्म लेश्यावाले और संयतासंयतोंके जानना चाहिये। सूक्ष्मसांपरायिकसंयतोंके लोभकी एक स्थितिका जघन्य काल एक समय है। तथा शेषका अकषायी जीवोंके समान भंग है। असंयतोंमें सामान्य तिर्यंचोंके समान भंग है । पर इतनी विशेषता है कि इनके मिथ्यात्वका ओघके समान भंग है ।
विशेषार्थ-सामायिक संयम और छेदोपस्थापना संयमके रहते हुए भी दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयकी क्षपणा होती है, अतः इनके संज्वलन लोभको छोड़कर शेष सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति ओघके समान कही है। किन्तु ये दोनों संयम नौवें गुणस्थान तक ही पाये जाते हैं
और क्षपक नौवें गुणस्थानके अन्त में लोभकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होती है, अतः इन दोनों संयमोंमें लोभकी जघन्य स्थिति अन्तमुहूर्त कही है ।
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गा० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपडिविदिश्रद्धाच्छेदो
२२५ $ ४००. खइय० एकावीसपयडीणमोघभंगो। वेदयसम्मा० परिहार० भंगो । उवसम० अकसाइभंगो। सम्मामिच्छत्त० सोलसक..णवणोक० ज० अंतोकोडाकोडिसागरोवमाणि । सम्मत्त०-सम्मामि० जह० सागरोवमपुधनं । सासण० अकसाइभंगो।
__ परिहारविशुद्धि संयमके रहते हुए दर्शनमोहनीयकी क्षपणा और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना सम्भव है, अतः इसके इन प्रेकृतियोंकी जघन्य स्थिति अोधके समान कही। तथा यह संयम सातवें गुणस्थान तक ही होता है और सातवें गुणस्थानमें शेष कर्मोंकी जघन्य स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण पाई जाती है, अतः इसके शेष कर्मोंकी जघन्य स्थिति सौधर्म कल्पके समान कही। यहां सौधर्म कल्पके समान जघन्य स्थिति कहनेसे यह प्रयोजन है कि जिस प्रकार सौधर्म स्वर्ग में उक्त कर्मोकी जघन्य स्थिति प्राप्त करनेके लिये विशेषताका कथन किया है उसी प्रकार यहां भी जानना । तथा पीत और पद्म लेश्यावाले तथा संयतासंयतोंके परिहारविशुद्धि संयतोंके समान जघन्य स्थितिका कथन करना चाहिये । क्षपक सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके अन्तमें सूक्ष्म लोभकी जघन्य स्थिति एक समय रह जाती है जो उस समय उदयरूप होती है, अतः इस संयमवालेके लोभकी जघन्य स्थिति एक समय कही। तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्कको छोड़ कर शेष प्रकृतियोंका सत्त्व सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थानमें उपशमश्रेणीकी अपेक्षासे पाया जाता है, अतः जिस प्रकार अकषायी जीवोंके शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति बतला आये उसी प्रकार सूक्ष्मसंपराय संयमवाले जीवोंके जानना । असंयतोंमें एकेन्द्रिय तिर्यंच मुख्य है और उन्हींके मिथ्यात्वको छोड़कर शेष सब प्रकृतियोंकी असंयतोंकी अपेक्षा जंघन्य स्थिति सम्भव है, अतः असंयतोंके मिथ्यात्वके बिना शेष सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति सामान्य तियचोंके समान कही। किन्तु असंयत मनुष्य भी होते हैं और मनुष्य असंयत दर्शनमोहनीयकी क्षपणा भी करते हैं अतः असंयतोंके मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति ओघके समान एक समय कही।
६४००. क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंके इक्कीस प्रकृतियोंका अोधके समान .भंग है। वेदक सम्यग्दृष्टियोंके परिहारविशुद्धिसंयतोंके समान भंग है। उपशमसम्यग्दृष्टियोंके अकषायी जीवोंके समान भंग है । सम्यग्मिथ्यात्वमें सोलह कषाय, नौ नोकषायोंका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल अन्तः कोडाकोड़ी सागर है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल सागर पृथक्त्व है । सासादनसम्यदृष्टियोंके अकषायी जीवोंके समान भंग है।
विशेषार्थ-- क्षायिकसम्यग्दृष्टिके २१ प्रकृतियां ही पाई जाती हैं और क्षपक श्रेणीका अधिकारी यही है अतः इसके २१ प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति ओघके समान बन जाती है। वेदकसम्यग्हष्टियोंमें विशुद्धिकी अपेक्षा परिहारविशुद्धिसंयत मुख्य है अतः इनके सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति परिहारविशुद्धिसंयतोंके समान कही। इसी प्रकार उपशम सम्यग्दृष्टियोंमें अकषायी जीव मुख्य हैं, अतः इनके सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति अकषायी जीवोंके समान कही। किन्तु इनके अनन्तानुबन्धीकी जघन्य स्थिति ओघके समान जानना; क्योंकि यहां पर विसंयोजना संभव है। सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवके सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थिति अन्तः कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण ही होती है। किन्तु जिसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसत्त्व सागरपृथक्त्व है वह मिथ्यादृष्टि जोव भी सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त हो सकता है, अतः सम्यग्मिथ्यादृष्टिके इन दोनोंकी जघन्य स्थिति पृथक्त्व सागर कही। तथा जो अकषायी जीव आकर सासादनसम्यग्दृष्टि होता है उसके सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति अन्तःकोडाकोड़ी
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे एवमद्धादो समत्तो ।
४०१ सव्वद्विदिविहत्ति० णोसव्वडिदिविहत्ति० । सव्वाओ हिदीओ सव्वद्विदिविहत्ती । तदूणं णोसव्वद्विदिविहत्ती । एवं णेदव्वं जाव अणाहारए त्ति ।
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९ ४०२. उक्कस्स० विहत्ति- अणुक्कस्स ० विहत्तिअणुगमेण दुविहो० । ओघे० सव्वुकस्सट्ठिदी उकस्सद्विदिविहत्ती । तदूणमणुकस्सद्विदिविहत्ती । उकस्सद्विदिविहत्तिसव्वद्विदिविहत्ती को भेदो ? ण, सव्वणिसेगहिदीगं समुदाय सव्वहिदिविहत्ती णाम | उक्कसहिदिविहत्ती पुण उक्कस्सकालुवलक्खिओ चरिमणिसे एको चेव । तेण दोहमत्थि भेओ । उक्कस्सडिदिणिसेयवदिरित्तसव्वणिसेया अणुक्कस्सहिदिवि हत्ती णाम । सव्वणि सेयद्विदीसु अण्णदरणिसेगे श्रवखिदे सेसद्विदीओ गोसव्वद्विदिविहत्ती गाम । तेण ण पुणरुत्तदोसो ति सिद्धं । एवं वेदव्वं जाव अणाहारए त्ति ।
[हिती ३
४०३. जहण्ण - अजहण्णहिदि • दुवि० । ओघे० सव्वजहण्णहिदी जहण्णहिदिवित्ती तदुवरि अजहण्णडिदिविहत्ती । उक्कस्सअद्धाछेदे उकस्सडिदिविहत्ती किण्ण
सागर प्रमाण होते हुए भी कमसे कम पाई जाती है, अतः सासादनसम्यग्दृष्टियों के सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति कषायी जीवोंके सामान कही ।
इस प्रकार अद्धाच्छेद समाप्त हुआ ।
९४०१ सर्वस्थितिविभक्ति और नोसर्वस्थितिविभक्ति अनुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ निर्देश और आदेश निर्देश उनमें से ओघकी अपेक्षा सब स्थितियां सर्वस्थितिविभक्ति हैं और सब स्थितियोंसे न्यून स्थितियां नोसर्वंस्थितिविभक्ति है । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक ले जाना चाहिये ।
९ ४०२ उत्कृष्टस्थितिविभक्ति और अनुत्कृष्टस्थितिविभक्ति अनुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ निर्देश और आदेश निर्देश । उनमें से घी अपेक्षा सबसे उत्कृष्ट स्थिति उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति है और इससे न्यून अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्ति है ।
शंका-- उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति, और सर्वस्थितिविभक्ति में क्या भेद है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, सब निषेकों की स्थितियोंके समुदायका नाम सर्वस्थितिविभक्ति है परन्तु उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिउत्कृष्ट कालसे उपलक्षित एक अन्तिम निषेक कहलाता है, अतः इन दोनों में भेद है ।
उत्कृष्ट स्थितिवाले निषेकोंके सिवा शेष सब निषेक अनुकृष्ट स्थितिविभक्ति कहलाते हैं । तथा सब स्थितिवाले निषेकोंमें से किसी एक निषेकके निकाल देने पर शेष स्थितियां नोसर्वस्थितिविभक्ति कहलाती हैं । इस लिये इनके कथनमें पुनरुक्त दोष नहीं है यह सिद्ध होता है । इसी प्रकार अनाहार मार्गणातक जानना चाहिये ।
९४०३ जघन्य स्थितिविभक्ति और अजघन्य स्थितिविभक्ति अनुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - निर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओधकी अपेक्षा सबसे जघन्य स्थितिको जघन्य स्थितिविभक्ति कहते हैं और इसके ऊपर अजघन्य स्थिति विभक्ति होती है ।
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गा० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिअर्धवाणुगमो
২২৩ श्रद्धाच्छेदो पुण उक्कस्सकालुवलक्खियएगणिसेगाविणाभाविसबणिसेयकलाओ तेण [ण ] पविसदि त्ति घेत्तव्वं । एवं जहण्णहिदि-जहण्णहिदिअद्धाछेदाणं पि भेदो परूवेदव्यो । एवं णेदव्वं जाव अणाहारए त्ति ।
___४०४. सादि-अणादि-धुव-अद्ध वाणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० उक्क० अणुक्क० जह० किं सादि०४। सादि अद्ध बं । अजह• किं सादि० ४ ? अणादिओ धुबो अद्ध वो वा । सम्मत्तपविस्सदि ? ण, उक्कस्सहिदिविहत्ती णाम उक्कस्सकालुवलक्खियएगणिसेगो उक्कस्स
शंका-उत्कृष्ट अद्धाच्छेदमें उत्कृष्ट स्थिति विभक्तिका अन्तर्भाव क्यों नहीं होता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि उत्कृष्ट कालसे उपलक्षित एक निषेकको उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति कहते हैं परन्तु उत्कृष्ट अद्धाच्छेद तो उत्कृष्ट कालसे अलक्षित एक निषेकके अविनाभावी समस्त निषेकोंके समुदायका नाम है, इसलिये उत्कृष्ट अद्धाच्छेदमें उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका अन्तर्भाव नहीं होता है ऐसा ग्रहण करना चाकिये । इसी प्रकार जघन्य स्थिति और जघन्य स्थिति अद्धाच्छेदके भेदका भी कथन करना चाहिये । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक जानना चाहिये।
विशेषार्थ-किसी एक मनुष्यके चार बेटे हैं। उनमें से सबसे बड़ा बेटा ज्येष्ठ या उत्कृष्ट, शेष अनुत्कृष्ट, सबसे छोटा बेटा लघु या जघन्य और शेष अजघन्य बेटे कहे जायंगे। यही बात स्थितिके विषयमें भी जाननी चाहिये । अर्थात् उत्कृष्ट स्थितिसे सबसे अन्तिम निषेककी स्थिति ली जायगी। अनुत्कृष्ट स्थितिसे अन्तिम निषेककी स्थितिको छोड़कर शेष सब निषेकोंकी स्थितियां ली जायगी। जघन्य स्थितिसे सबसे कम स्थिति ली जाती है तथा अजघन्य स्थितिसे सबसे कम स्थितिको छोड़ कर शेष सब स्थितियां ली जाती हैं। इस प्रकार इस कथनसे यह भी जाना जाता है कि इन चारों प्रकारके स्थिति भेदोंमें अवयवकी मुख्यता है समुदायकी नहीं। अतः सर्व स्थितिमें समुदायरूपसे सब स्थितियोंका ग्रहण हो जाता है और नोसर्वस्थितिमें अविवक्षित किसी एक या एकसे अधिक निषेकोंकी स्थितियोंको छोड़ कर शेष स्थितियोंका ग्रहण हो जाता है। यहां यह शंका की जा सकती है कि यद्यपि उत्कृष्ट स्थिति अवयव प्रधान है अतः उससे सर्वस्थिति भिन्न सिद्ध हो जाती है पर अनुत्कृष्ट और अजघन्य स्थितिसे नोसर्व स्थिति कैसे भिन्न सिद्ध हो सकती है, क्योंकि इन तीनोंमें ऊन स्थितियों को ही ग्रहण किया गया है। पर ठीक तरहसे विचार करने पर यह शंका निमूल हो जाती है, क्योंकि जिस प्रकार अनुत्कृष्ट स्थितिमें केवल उत्कृष्ट स्थितिका
और अजघन्य स्थितिमें केवल जघन्य स्थितिका अभाव इष्ट है वह बात नोसर्वस्थितिकी नहीं है किन्तु इसमें अविवक्षित किसी भी निषेककी स्थितिका प्रभाव इष्ट है । उदाहरणके लिये ऊपरके मनुष्यसे कहा जाय कि तुम अपने कुछ वेटोंको बुलाओ तो वह किसी भी बेटेको बुलानेसे छोड़ सकता है । यही बात नोसर्वं स्थितिके विषयमें जानना चाहिये। इस प्रकार ओघ और आदेशकी अपेक्षा जहां जो स्थिति सम्भव हो, जानकर उसका कथन करना चाहिये।
४८४ सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव अनुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य स्थिति विभक्ति क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है या क्या अध्रुव है ? सादि और अध्रुव है। अजघन्य स्थितिविभक्ति क्या सादि है, क्या
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२२८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[द्विदिविहत्ती ३ सम्मामि० उक्क० अणुक्क० जह• अजह० किं सादि०४१ सादिओ अद्ध वो। [ अणंताणुबंधिचउक्क० उक्क० अणुक० जह० किं सादि०४ ? सादि अद्ध वं] अज. किं सादि०४ ? सादिओ प्रणादिलो वा धुवो अद्ध वो वा । एवमचक्खु० भवसि० । णवरि भवसिद्धिएसु धुवं णत्थि । सेसाणं मग्गणाणं उक्क अणुक्क० जह० अजह० किं. सादि०४ ? सादिया अद्ध वा वा ।
अनादि है, क्या ध्रुव है या क्या अध्रुव है ? अनादि, ध्रुव और अध्रुव है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्ति क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है या क्या अध्रुव है ? सादि और अध्रुव है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य स्थितिविभक्ति क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है या क्या अध्रुव है ? सादि और अध्रुव है। अजघन्य स्थितिविभक्ति क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है या क्या अध्रुव है ? सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव है । इसी प्रकार अचक्षुदर्शनवाले और भव्योंके जानना चाहिये। पर इतनी विशेषता है कि भव्यों के ध्रुवभंग नहीं होता है । शेष मार्गणाओंमें उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्ति क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है या क्या अध्रुव है ? सादि और अध्रुव है।
विशेषार्थ-मोहनीयकी सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति कादाचित्क है तथा जघन्य स्थिति अपने अपने क्षय कालके अन्तिम समयमें ही प्राप्त होती है, अतः ये तीनों स्थितियाँ सादि और अध्रव हैं। किन्तु सब प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिके विषयमें विशेषता है जिसका खुलासा निम्न प्रकार है-यह तो हम पहले ही बतला आये हैं कि जघन्य स्थितिको छोड़कर शेष सब स्थितिविकल्प अजघन्य कहे जाते हैं, क्योंकि जघन्यके प्रतिषेध मुखसे अजघन्यमें जघन्यको छोड़कर शेष सबका ग्रहण हो जाता है। प्रकृतियोंके विषयमें दूसरी यह बात ज्ञातव्य है कि मोहनीयकी अट्ठाईस प्रकृतियोंमेंसे मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंका क्षय होनेके पहले तक निरन्तर सत्त्व पाया जाता है और क्षय होनेके बाद पुनः इनका बन्ध नहीं होता । अनन्तानुबन्धी चतुष्कका अनादि मिथ्यादृष्टिके तो निरन्तर सत्त्व है किन्तु जिसने सम्यग्दर्शनको प्राप्त कर लिया है उसके इसकी विसंयोजना भी हो जाती है और ऐसा जीव जब मिथ्यात्वमें आता है तो पुनः उनका बन्ध होने लगता है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व सादि ही हैं यह स्पष्ट ही है । इन सब विशेषताओंको ध्यानमें रखकर जब इन प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिके सादित्व आदिका विचार करते हैं तो मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अजघन्य स्थिति अनादि ध्रुव और अध्रुव प्राप्त होती है, क्योंकि अनादि कालसे इनकी अजघन्य स्थिति चली आरही है इसलिये अनादि है। तथा भव्योंकी अपेक्षा अध्रव और अभव्योंकी अपेक्षा धूव है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अजघन्य स्थिति सादि, अनादि. ध्रव
और अध्रुव चारों प्रकारकी प्राप्त होती है, क्योंकि विसंयोजनासे जघन्य स्थितिके प्राप्त होनेके पहले तक वह अनादि है । विसंयोजना के पश्चात् पुनः बन्ध होनेपर सादि है तथा अभाव्योंकी अपेक्षा ध्रुव और भव्योंकी अपेक्षा अध्रुव है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये दोनों प्रकृतियाँ मूलतः ही सादि हैं अतः इनकी अजघन्य स्थिति भी और स्थितियोंके समान सादि और अध्रव है। अचक्षदर्शनमार्गणा छद्मस्थ अवस्थाके रहने तक और भव्य मार्गणा संसार अवस्थाके रहने तक निरन्तर पाई जाती है, अतः इसमें उक्त ओघप्ररूपणा बन जाती है। किन्तु भव्योंके ध्रुव
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गा• २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिविदिसामित्त
२२६ एवं अद्ध वाणुगमो समत्तो। * एयजीवेण सामित्त ।
६४०५. सामित्ताणुगमेण सामित्तं दुविहं-जहण्णमुक्कस्सं च । उकस्से पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण उक्कस्ससामित्तं भणामि त्ति पइज्जामुत्तमेदं सुगमं । ___ * मिच्छत्तस्स उक्कस्सद्विदिविहत्ती कस्स ? उक्करसहिदि बंधमाणस्म ।
४०६ एदस्स जइवसहाइरियमुहकमलविणिग्गयस्स सामित्तसुत्तस्स अत्थपरूवणं कस्सामो। तं जहा, मिच्छत्तस्से ति णिद्देसो सेसपयडिपडिसेहफलो । उकस्सहिदिविहत्तिणिद्देसो सेसहिदिविहत्तिपडिसेहफलो। कस्से त्ति पुच्छा सयस्स कत्तारत्तपडिसेहफला । उक्कस्सहिदि बंधमाणस्से त्ति, वयणं अणुक्कस्सहिदिबंधेण सह उक्कस्सहिदिसंतपडिसेहफलं । अणुक्कस्सहिदीए बज्झमाणाए वि उक्कस्सहिदिणिसेयाणमधहिदिगलणा णत्थि ति उक्कस्सहिदिविहत्ती किण्ण होदि ? ण, चरिमणिसेयस्स उक्कस्सकालुवलक्खियस्स उक्कस्सहिदिसण्णिदस्स अपहिदिगलणाए एगहिदीए विकल्प नहीं बनता। इन दो मार्गणाओंके अतिरिक्त शेष जितनी मार्गणाए हैं उनमें चारों प्रकारकी स्थितियां सादि और अध्रुव हैं, क्योंकि एक तो मार्गणाएं परिवर्तनशील हैं और दूसरे सब मार्गणाओंमें यथायोग्य ओघ उत्कृष्ट स्थिति आदि न प्राप्त होकर आदेश उत्कृष्ट स्थिति आदि प्राप्त होती हैं।
__ इस प्रकार अध्रु वानुगम समाप्त हुआ। .8 अब एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्वानुगमको कहते हैं ।
६४०५ स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा स्वामित्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उनमेंसे पहले उत्कृष्ट स्वामित्वका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्वामित्वको कहते हैं इस प्रकार यह प्रतिज्ञासूत्र सरल है।
* मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति किसके होती है ? उत्कृष्टस्थितिको बाँधनेवाले जीवके होती है। ____६४०६. अब यतिवृषभ आचार्यके मुखसे निकले हुए इस स्वामित्वसूत्रके अर्थका कथन करते हैं जो इस प्रकार है- सूत्रमें मिथ्यात्व पदके देनेका फल शेष प्रकृतियोंका निषेध करना है। उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति पद देनेका फल शेष स्थिति विभक्तियोंका निषेध करना है। किसके होती है' इस प्रकार पृच्छाका आशय स्वकर्तृत्वका प्रतिषेध करना है। उत्कृष्ट स्थितिको बांधनेवाले जीवके इस वचनके देनेका फल अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धके साथ उत्कृष्ट स्थितिसत्त्वका प्रतिषेध करना है।
शका-अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध होते हुए भी उत्कृष्ट स्थितिके निषेकोंका अधःस्थितिगलन नहीं होता है, अतः अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धके समय उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति क्यों नहीं होती है।
समाधान-नहीं, क्योंकि जिसकी उत्कृष्ट स्थिति यह संज्ञा है ऐसे उत्कृष्ट कालसे उपलक्षित
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م عرفي مي بجمیعی می می می سیخ میعی جاتی ہے اور جی جی جی جی جی جی کی ترجیح می بی سی سی سی، حسیحی
حجي حر حر حر مرمي جي
مع حرم
سی سی
مد فہمی می
جی جی سی جی جی جی حب جرح جرحي في
میں میری عمر سے میری مہر جیمی , مسیج
سے بے نیم مرعي التي هي في نوعي مي نوي في تقی می می می من در هر مر في غر مي عرعر عرعر ميمي مرمي مرمي عيج ميمر مرمر
२३०
जयधवलासहिदे कसायपाहुढे . [हिदिविहत्ती ३ गलिदाए वि उक्कस्सहिदिविहत्तिविणासादो। अहवा उक्कस्सहिदिअद्धाछेदस्स एवं सामित्रं, सो च कालणिसंगपहाणो, तेण अणुक्कस्सहिदि बंधमाणस्स उक्कस्सहिदिविहत्ती ण होदि किंतु उक्कस्ससंकिलेसेण उक्कस्सहिदि बंधमाणस्स चेवे त्ति |
* एवं सोलसकसायाणं ।
४०७. जहा मिच्छत्तस्स उक्कस्ससामित्तं परूविदं तहा सोलसकसायाणं पि परूवेदव्वं; मिच्छादिडिम्मि तिव्वसंकिलेसम्मि उक्कस्सहिदि बंधमाणम्मि चेव एदेसिमुक्कस्सहिदिविहत्तीए संभवादो । अन्तिम निषेककी अधःस्थिति गलनाके द्वारा एक स्थितिके गलित होजानेपर भी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका विनाश हो जाता है, अतः अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धके समय उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति नहीं होती है ऐसा समझना चाहिये। अथवा यह उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका स्वामित्व न होकर उत्कृष्ट स्थितिअद्धाच्छेदका स्वामित्व है और वह कालनिषेक प्रेधान होता है, अतः अनुत्कृष्ट स्थितिको बाँधनेवाले जीवके उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति नहीं होती है किन्तु उत्कृष्ट संक्लेशसे उत्कृष्ट स्थितिको बांधनेवाले जीवके ही उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है। जी * इसी प्रकार सोलह कषायोंका उत्कृष्ट स्वामित्व कहना चाहिये ।।
६४०७. जिस प्रकार मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्वामित्व कहा है उसी प्रकार सोलह कषायोंका भी कहना चाहिये, क्योंकि तीव्र संक्लेशवाले और उत्कृष्ट स्थितिको बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि जीवके ही इन सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति संभव है।
विशेषार्थ-चूर्णिसूत्रमें यह बतलाया है कि उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध करनेवाले जीवके ही मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति होती है। इसपर शंकाकारका कहना है कि जो प्रथमादि समयोंमें उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर द्वितीयादि समयोंमें अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करने लगता है उसके उत्कृष्ट स्थितिके निषेकोंका अधःस्थिति गलन नहीं होता अतः अनुत्कृष्ट स्थितिके बन्धके समय भी उत्कृष्ट स्थिति कहनी चाहिये । इस शंकाका वीरसेन स्वामीने दो प्रकारसे समाधान किया है। पहले समाधानका तात्पर्य यह है कि जिस अन्तिम निषेककी सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थिति पड़ी है उस निषेककी उत्कृष्ट स्थिति संज्ञा है किन्तु द्वितीयादि समयोंमें उस निषेककी सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थिति न रहकर एक समय, दो समय आदि रूपसे कम हो जाती है, अतः अनुत्कृष्ट स्थिति बन्धके समय उत्कृष्ट स्थिति नहीं हो सकती किन्तु जिस समय उत्कृष्ट स्थिति बन्ध होता है उसी समय उत्कृष्ट स्थिति होती है। इस समाधानपर यह शंका होती है कि जब स्थिति निषेकप्रधान होती है और द्वितीयादि समयोंमें उत्कृष्ट स्थितिसंज्ञावाले निषेकोंका गलन ही नहीं हुआ तब अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धके समय उत्कृष्ट स्थिति क्यों न मानी जाय ? इस शंकाका विचार करके वीरसेन स्वामी ने दूसरा समाधान किया है । उसका सार यह है कि उत्कृष्ट स्थिति कालकी प्रधानतासे कही गई है निषेकोंकी प्रधानतासे नहीं, अतः अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाले जीवके उत्कृष्ट स्थिति नहीं हो सकती, क्योंकि उस समय उत्कृष्ट काल सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरमेंसे एक, दो आदि समय कम हो जाते हैं। इसी प्रकार सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिके सम्बन्धमें भी जानना चाहिये ।
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गा० २२]
हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिट्ठिदिसामित्त
* सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्सट्ठिदिविहत्ती कस्स ? ९४०८. सुगममेदं पुच्छासुतं ।
* मिच्छत्तस्स उक्कस्सडिदि बंधिदूण अंतोमुहुत्त परिभग्गो जो डिदिद्यादमकादूण सव्वलहुसम्मत्तं पडिवण्णो तस्स पढमसमयवेदयसम्मादिस्सि |
२३१
९४०९, जदि वि एत्थ अट्ठावीस संतकम्मियग्गहणं ण कदं तो वि अट्ठावीससंतकमिओत्ति णव्वदे; वेदगसम्मत्तग्गहणण्ण हाणुववत्तदो । सो विमिच्छादिवित्ति व्त्रदे; अण्णगुणहाणम्मि मिच्छत्तस्स बंधाभावादो । सो तिव्वसंकिलेसो त्ति उक्कस्सद्विदिबंधण्णहाणुववचीदो गब्बदे । एदम्हादो चेव ण सुत्तो जग्गंतो त्ति णव्वदे, सुम्मि तब्बंधासंभवादो । उक्कस्सहिदिं बंधतो पडिहग्गपढमादिसमएस सम्म ण गेहदित्ति जाणावणमंतोमुहुत्तद्ध पडिभग्गो त्ति भणिदं । पडिभग्गो उकसहिदिबंधुक्कस संकिले सेहि पडिणियत्तो होदूण विसोहीए पडिदो चि मणिदं होदि । द्विदिघादं काढूण विवेदसम्मतं के वि जीवा पडिवज्जंति तप्पडिसेहट' द्विदिवादमकाऊ ि
* सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति किसके होती है ? $ ४०८. यहू पृच्छासूत्र सुगम है ।
* मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर जिसे उत्कृष्ट स्थितिके बन्धके कारणभूत उत्कृष्ट संक्लेश परिणामोंसे निवृत्त हुए अन्तर्मुहूर्त हो गया है और जो स्थितिका घात न करके अतिशीघ्र सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ है उस वेदक सम्यग्दृष्टिके प्रथम समय में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है ।
९४०६. यद्यपि सूत्र में 'अट्ठावीससंतकम्मिय' पदका ग्रहण नहीं किया है तो भी ऐसा जीव अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्तावाला होता है यह जाना जाता है, क्योंकि अन्यथा वेदकसम्यक्त्वका ग्रहण नहीं बन सकता है । और वह भी मिथ्यादृष्टि ही होता है यह जाना जाता है, क्योंकि अन्य गुणस्थान में मिध्यात्वका बन्ध नहीं हो सकता है । तथा वह मिध्यादृष्टि भी तीव्र संक्लेशवाला होता है यह जाना जाता है, अन्यथा मिध्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध नहीं हो सकता है । इसीसे वह जीव सोता हुआ नहीं है किन्तु जागता हुआ है यह बात भी जानी जाती है, क्योंकि सोते हुएके मिथ्याय्वका उत्कृष्ट बन्ध नहीं हो सकता । उत्कृष्ट स्थितिको बांधनेवाला जीव उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे च्युत होकर प्रथमादि समयों में सम्यक्त्वको ग्रहण नहीं करता है इस बातका ज्ञान करानेके लिये 'जिसे उत्कृष्ट स्थितिबन्धसे निवृत्त हुए अन्तर्मुहूर्त हो गया है' ऐसा कहा है । प्रतिभग्न शब्दका अर्थ उत्कृष्ट स्थिति बन्धके योग्य उत्कृष्ट सँक्लेशरूप परिणामोंसे प्रतिनिवृत होकर विशुद्धिको प्राप्त हुआ होता है । ि ही जीव स्थितिका घात करके भी वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त करते हैं अतः इसके प्रतिषेध करनेके . लिये सूत्र में स्थितिका घात न करके यह कहा है । बहुतसे जीव ऐसे हैं जो स्थितिघात
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ भणिदं । हिदिघादमकुणमाणा वि दीहकालेण सम्म पडिवज्जता अत्थि तप्पडिसेहह सव्वलहुग्गहणं कदं । विदियादिसमएसु अधहिदिगलणाए गलिदेसु उक्कस्सहिदिसंतं ण होदि त्ति पढमसमए वेदगसम्मादिहिस्से त्ति परूविदं । मिच्छाइटिणा अट्ठावीससंतकम्मिएण तिव्वसंकिलेसेण सागार-जागारउवजुत्तेण बद्धमिच्छत्तु क्कस्सहिदिसंतकम्मेण तत्तो परिवदिय अंतोमुहुत्तद्ध तप्पाश्रोग्गविसोहीए अवहिदेण अकदहिदिघादेण सव्वलहुएण कालेण वेदगसम्मत्तग्गहणपढमसमए मिच्छत्त क्कस्सहिदीए सम्मत्तसम्मामिच्छ
सु संकामिदाए सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्सहिदिविहत्ती जायदि त्ति भणिदं होदि। अबंधपयडीसु बंधपयडी कथं संकमइ ? ण एस दोसो; बंधपयडीणं चेव बंधे थक्के पडिग्गहत्त फिदि णाबंधपयडीणं, अण्णहा अबंधपयडीण सम्मत्तादीणमभावो हज्ज। ण च एवं मोहणीयस्स अहावीसपयडिसंतुवएसेण सह विरोहादो । नहीं करके दीर्घकालके द्वारा सम्यक्त्वको प्राप्त होते हैं, अतः इसका प्रतिषेध करनेके लिये सूत्रमें सर्वलघु पदका ग्रहण किया है । सम्यक्त्व ग्रहण होनेके अनन्तर दूसरे आदि समयोंमें अधःस्थिति गलनाके द्वारा स्थितिके गलित हो जाने पर उत्कृष्ट स्थितिका सत्त्व नहीं रहता है, अतः सूत्रमें वेदकसम्यग्दृष्टिके पहले समयमें ऐसा कहा है । जो मिथ्यादृष्टि जीव अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला है, जो जाग्रत रहते हुए साकार उपयोगसे उपयुक्त है, जिसने तीव्र संक्लेशसे मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति बांधकर उसकी सत्ता प्राप्त करली है वह जब तीव्र संक्लेशरूप परिणामोंसे च्युत होकर अन्तमुहूर्त काल तक सम्यक्त्वके योग्य विशुद्धिके साथ अवस्थित रहता हुआ स्थितिघात न करके सबसे लघु कालके द्वारा वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त करके उसके पहले समयमें मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रमण कर देता है तब उसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है यह उक्त सूत्रका अभिप्राय है।
शंका-बन्धप्रकृति अबन्ध प्रकृतियोंमें संक्रमणको कैसे प्राप्त होती है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि बन्ध प्रकृतियोंके ही बन्धके रुक जाने पर उनमें प्रतिग्रहशक्ति नष्ट हो जाती है अबन्ध प्रकृतियोंकी नहीं, अन्यथा सम्यक्त्वादिक अबन्ध प्रकृतियों
व हो जायगा। परन्त ऐसा है नहीं. क्योंकि ऐसा मानने पर उक्त कथनका मोहनीयकी अट्ठाईस प्रकृतियोंके सत्त्वके प्रतिपादक उपदेशके साथ विरोध आता है। अतः जिन प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता किन्तु जो संक्रमण द्वारा ही अपने सत्त्वको प्राप्त होती हैं उनमें बन्ध प्रकृतिका संकमण हो सकता है इसमें कोई दोष नहीं है।
विशेषार्थ-ऐसा नियम है कि जिस समय किसी प्रकृतिका बन्ध होता है उसी समय अन्य सजातीय प्रकृतिका उस बंधनेवाली प्रकृतिरूपसे संक्रमण होता है, क्योंकि तभी वह बंधने वाली प्रकृति प्रतिग्रह या पतगहरूप होती है। और इसीका नाम परप्रकृति संक्रमण है। यह संक्रमण मूल प्रकृतियोंमें और चारों आयुओंमें परस्पर नहीं होता। तथा इस प्रकारका संक्रमण दर्शनमोहनीयका चारित्रमोहनीयमें और चारित्रमोहनीयका दर्शनमोहनीयमें भी नहीं होता । तथा इस प्रकारका संक्रमण होते समय संक्रमित होनेवाली प्रकृतिका स्थितिघात या अनुभागघात नहीं होता और न स्थिति तथा अनुभागमें वृद्धि ही होती है, क्योंकि स्थितिघात और अनुभागघात
का
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गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिसामित्त
२३३ * एवणोकसायाणमुक्कस्सहिदिविहत्ती कस्स ?
४१०. सुगममेदं । * कसायाणमुकरसहिदि बंधिदूण आवलियादीदस्स।
४११. किमहमावलियादीदस्सुक्कस्ससामित्त दिजदि ? ण; अचलावलियमेत्तकालं बद्धसोलसकसायाणमुक्कस्सहिदीए णोकसाएसु संकमाभावादो । कुदो एसो का सम्बन्ध अपकर्षणसे तथा स्थितिवृद्धि और अनुभागवृद्धिका सम्बन्ध उत्कर्षणसे है और अपकर्षण तथा उत्कर्षण एक ही प्रकृतिके कर्म परमाणुओंमें परस्पर होते हैं । इस नियमके अनुसार यहां शंकाकारका यह कहना है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व बन्धरूप प्रकृतियां नहीं होनेसे उनमें प्रतिग्रहपना नहीं पाया जाता, अतः मिथ्यात्वका सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वरूपसे संक्रमण नहीं होना चाहिये । इस शंकाका वीरसेन स्वामीने जो समाधान किया है उसका सार यह है कि जो बँधनेवाली प्रकृतियां हैं उनका यदि बन्ध नहीं हो रहा है तो अबन्धकालमें उनमें ही प्रतिग्रहपना नहीं रहता है। उदाहरण के लिये जब साताका बन्ध होता है तभी वह प्रतिग्रहरूप है और तभी उसमें असातारूप कर्मपुंज संक्रमणको प्राप्त होता है । किन्तु जब साताका बन्ध नहीं होता तब उसका प्रतिग्रहपना नष्ट हो जाता है और ऐसी हालतमें असातारूप कर्मपुंज सातारूपसे संक्रमणको नहीं प्राप्त होता। किन्तु सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये दोनों अबन्ध प्रकृतियां हैं, अतः इनके विषयमें संक्रमणको उक्त नियम लागू नहीं है । इनमें तो प्रतिग्रहपना बन्धके बिना भी पाया जाता है और इसलिये इनमें मिथ्यात्वके कर्मपुंजके संक्रमण होनेमें कोई आपत्ति नहीं है। पर इतनी विशेषता है कि सम्यग्दृष्टि जीवके ही मिथ्यात्वका कर्मपुंज इन दो प्रकृतियोंमें संक्रमित होता है। अब यहां इन दोनों प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति बतलाना है, अतः अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जिस मिथ्यादृष्टि जीवने मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करके और संक्लेशपरिणामोंसे निवृत्त होकर तथा मिथ्यात्वका स्थितिकाण्डकघात किये बिना अन्तर्मुहूर्त कालमें वेदकसम्यक्त्व को प्राप्त कर लिया है उसके वेदकसम्यक्त्वके प्राप्त करने के पहले समयमें अन्तमहूर्त कम मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रमण हो जाता है, अतः उस समय सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति पाई जाती है । शेष बातोंका खुलासा मूलमे किया ही है।
* नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति किसके होती है । 7 ६४१०. यह सूत्र सुगम है।
* जिसने कषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति बांधकर एक श्रावलीप्रमाण काल व्यतीत कर दिया है उसके नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है।
शंका-जिसने कषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति बांधकर एक प्रावली प्रमाण काल व्यतीत कर दिया है वही नौ नोकषायों के उत्कृष्ट स्वामित्वका अधिकारी क्यों है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि बंधी हुई सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका अचलावली कालतक नौ नोकषायोंमें संक्रमण नहीं होता है, अतः सोलह कषायोंके उत्कृष्ट स्थितिबंधके बाद एक आवली काल व्यतीत होने पर ही नौ नोकषायोंका उत्कृष्ट स्वामित्व प्राप्त होता है।
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२३४
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- जयभवलासहिदे कसावपाहुडे . [हिदिविहत्ती ३ णियमो ? साहावियादो । जदि णोकसायाणमण्णेसिं कम्माणमावलिऊणुक्कस्सद्विदिसंकमेण उक्कस्सहिदिविहत्ती होदि तो मिच्छत्त कस्सहिदिं सत्तरिसागरोवमकोडाकोडिपमाणं णोकसाएसु संकामिय उक्कस्सहिदिविहत्ती किण्ण परूविज्जदे ? ण, दसणमोहणीयस्स चरित्तमोहणीयसंकमाभावादो । कसायाणं णोकसाएमु णोकसा. याणं च कसाएसु कुदो संकमो ? ण एस दोसो, चरित्तमोहणीयभावेण तेसिं पञ्चासत्तिसंभवादो । मोहणीयभावेण दंसणचरितमोहणीयाणं पञ्चासत्ती अत्थि त्ति अण्णोण्णेसु संकमो किण्ण इच्छदि ? ण, पडिसेज्झमाणदंसणचरिचाणं भिएणजादितणेण तेसिं पच्चासनीए अभावादो ( एवं जइवसहाइरियपरूविदउक्कस्ससामि देसामासियभावेण . सूचिदादेसं भणिय संपहि उच्चारणाइरियवक्खाणं पुणरुत्तभएण ओघ मोत्तण अदे विसयं वत्तइस्सामो।
६४१२. सत्तमु पुढवीसु तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिं०तिरि०पज-पंचिं०
शंका-विवक्षित समयमें बंधे हुए कर्मपुंजका अचलावली कालके अनन्तर ही पर प्रकृतिरूप से संक्रमण होता है ऐसा नियम क्यों है ?
समाधान-स्वाभावसे ही यह नियम है ।
शंका-यदि अन्य कर्मोकी एक आवली कम उत्कृष्ट स्थितिके संक्रमणसे नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति होती है तो सत्तरकोडाकोड़ी सागर प्रमाण मिथ्यात्वको उत्कृष्ट स्थितिको नोकषायोंमें संक्रमित करके उनकी उत्कृष्ट स्थिति आवलिकम सत्तरकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण क्यों नहीं कही जाती है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि दर्शनमोहनीयका चारित्रमोहनीयमें संक्रमण नहीं होता है । शंका-कषायोंका नोकषायोंमें और नोकषायोंका कषायोंमें संक्रमण किस कारणसे होता है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि वे दोनों चारित्रमोहनीय हैं, अतः उनकी परस्परमें प्रत्यासत्ति पाई जाती है इसलिये उनका परस्परमें संक्रमण हो सकता है।
शंका-दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय ये दोनों मोहनीय हैं। इस रूपसे इनकी . भी प्रत्यासत्ति पाई जाती है, अतः इनका परस्परमें संक्रमण क्यों नहीं स्वीकार किया जाता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि परस्परमें प्रतिषेध्यमान दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय के भिन्न जाति होनेसे उनकी परस्परमें प्रत्यासत्ति नहीं पाई जाती है, इसलिये उनका परस्परमें संक्रमण नहीं होता है।
___ इस प्रकार जिसके द्वारा देशामर्षक भावसे आदेशकी सूचना मिलती है ऐसे यतिवृषभप्राचार्यके द्वारा कहे गये उत्कृष्ट स्वामित्वको कहकर अब पुनरुक्त दोषके भयसे उच्चारणाचार्यके द्वारा व्याख्यात ओघ स्वामित्वको छोड़कर आदेशविषयक स्वामित्वको कहते हैं
६४१२. सातों पृथिवियोंके नारकी, सामान तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच
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गा० २२ ] . हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिसामित्त
२३५ तिरि०जोणिणी-मणुस्सतिय०-देव-भवणादि जाव सहस्सार०-पंचिंदिय-पंचिं०पजातस-तसपज्ज-पंचमण०--पंचवचि०-कायजोगि-ओरालि०-वेउन्वि०-तिण्णिवेद-चत्तारिक०-असंजद०-चक्खु०-अचक्खु०-पंचलेस्सा-भवसिदि०-सपिण-आहारीणमोघभंगो।
४१३. पंचिं०तिरि०अपज० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० उक्क० कस्स ? अण्ण० जो तिरिक्खो मणुस्सो वा उक्कस्सहिदि बंधिदूण हिदिघादमकादूण पंचिं०तिरिक्खअपज्जत्तएसु पढमसमयउववण्णो तस्स उक्कस्सहिदिविहती। सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० कस्स ? अण्ण तिरिक्खो मणुस्सो वा उक्कस्सद्विदि बंधिदूण अंतोमुहुरेण सम्मत् पडिवण्णो सम्मत्तेण सह सव्वलहु कालमच्छिय मिच्छत् गदो मिच्छत्तेण हिदिघादमकाऊण पंचिं०तिरि०अपज्जत्तएसु उववण्णो तस्स पढमसमयउववण्णस्स उक्कस्सहिदिविहत्ती । एवं मणुसअपज-चादरेइंदियअपज्ज-सुहुमेइंदियपज्जत्तापज्जत्त-सव्वविगलिंदिय-पंचिं० अपज्ज०-बादरपुढवि०अपज्ज०--मुहुमपुढविपज्जत्तापज्जत्तबादरआउअपज्ज०--सुहुमआउ०पज्जत्तापज्जत--बादरतेउ०पज्जचापज्जत्त-सुहुमतेउपज्जत्तापर्याप्त, पंचेन्द्रिय तियेंच योनिमती, सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य, मनुष्यिनी, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रस पर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, वैक्रियिक काययोगी, तीनों वेदवाले, चारों कषायवाले, असंयत, चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, कृष्णादि पाँच लेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके पोषके समान भंग है।
विशेषार्थ--ऊपर जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें मिथ्यात्व आदि सब कर्मोकी उत्कृष्ट स्थिति ओषके समान बन जाती है, अतः इनकी प्ररूपणाको ओघके समान कहा है।
६४५३. पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति किसके होती है ? जो कोई एक तिर्यंच या मनुष्य उत्कृष्ट स्थिति बाँधकर
और स्थितिघात न करके पंचेन्द्रिय तियेच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ है उसके उत्पन्न होनेके पहले समयमें उक्त कमोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति किसके होती है ? जो कोई एक तिर्यंच या मनुष्य उत्कृष्ट स्थिति बाँधकर अन्तमुहूर्तकाल के द्वारा सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ तथा सम्यक्त्वके साथ अतिलघु कालतक रहकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। पुनः मिथ्यात्वके साथ रहते हुए स्थितिघात न करके पंचेन्द्रिय तियेच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ उसके उत्पन्न होनेके पहले समयमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति होती है। इसी प्रकार लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य,बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तक, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्तक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्मपृथिवीकायिक पर्याप्तक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्तक, बादर जलकायिक अपर्याप्तक, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्तक, सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्तक,अमिकायिक,बादर अग्निकायिक पर्याप्तक, बादर अनिकायिक अपर्याप्तक, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अनिकायिक पर्याप्तक, सूक्ष्म अग्निकायिक अपर्याप्तक, वायुकायिक, बादर वायुकायिक पर्याप्तक, बादर वायुकायिक अपर्याप्तक, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्तक,
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२३६
जयघवलासहिदे कसायपाहुडै . द्विदिविही ३ पज्जत्त-बादरवाउपज्जत्तापजत-सुहुमवाउ०पज्जत्तापज्जत-बादरवणप्फदिपत्रेय अपज्ज०सुहुमवणप्फदि०पज्जत्तापज्जत-सव्वणिोद-तसअपज्जत्ता ति ।
४१४. आणदादि जावुवरिमगेवज्जोति मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-सोलसक० णवणोक० उक्क० ? अण्ण• जो दव्वलिंगी तप्पाओग्गुक्कस्सहिदिसंतकम्मित्रो पढमसमयउववण्णो तस्स उक्कस्सहिदिविहची । अणुदिसादि जाव सबसिद्धि ति सव्वपयडीणमुक्क० कस्स ? अएण. जो वेदय दिही तप्पाओग्गउक्कस्सहिदिसंतकम्मिओ पढमसमयउववण्णो तस्स उक्कस्सहिदिविहत्ती ।
४१५. एइंदिएमु मिच्छत्त-सोलसक० उक्क० कस्स ? अण्ण. जो देवो उक्कस्सहिदि बंधमाणो एइदिएसु पढमसमयउववण्णो तस्स० उक्क० विहत्ती। सम्मत्त०
सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्तक, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्तक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्तक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक, सब निगोद और बस अपर्याप्तक जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-जिस मनुष्य या तिर्य चने मिथ्यात्व या सोलह कषायोंका उत्कृष्ट स्थितिबंध किया है ऐसा जीव अन्तर्मुहूर्त कालके पश्चात् उस उत्कृष्ट स्थितिके साथ मर कर पंचेन्द्रिय तिर्यच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें उत्पन्न हो सकता है, अतः पंचेन्द्रिय तिर्यच लब्ध्यपर्याप्तकोंके भवके पहले समयमें मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्तकम सत्तर कोडाकोड़ी सागर और सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्तकम चालीस कोड़ाकोड़ी सागर कही है तथा नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति उस लब्ध्यपर्याप्तक तियचके होती है जिसने पूर्व भवमें सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके और एक प्रावलिके पश्चात् उसका नौ नोकषायरूपसे संक्रमण करके पश्चात् अन्तर्मुहर्त कालके बाद पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें जन्म लिया है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मि. थ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका खुलासा मूलमें ही किया है। मूलमें और जितनी मार्गणाएं गिनाई . हैं उनमें भी इसी प्रकार जानना ।
६४१४. आनत कल्पसे लेकर उपरिम प्रैवेयकतक मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिध्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति विभक्ति किसके होती है ? आनतादिके योग्य उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मवाला जो कोई एक द्रव्यलिंगी मुनि मरकर आनतादिकमें उत्पन्न हुआ .उसके उत्पन्न होनेके पहले समयमें उक्त कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंके सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति किसके होती है ? अनुदिशादिकके. योग्य उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मवाला जो कोई एक वेदकसम्यग्दृष्टि जीव अनुदिश
आदिमें उत्पन्न हुआ उसके उत्पन्न होनेके पहले समयमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है।
६४१५. एकेन्द्रियोंमें मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति किसके होती है ? उत्कृष्ट स्थिति बाँधनेवाला जो कोई एक देव एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ उसके उत्पन्न होनेके पहले समयमें उक्त कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व
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गा० २२) हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिसामित सम्मामि० उक्क० कस्स० १ अण्ण० जो तिगदिओ उक्कस्सहिदि बंधिदूण अंतोमुहुनपडिहग्गो संतो वेदगसम्म पडिवण्णो तेण सम्मत्रेण सह सबलहुअमंतोमुहुत्तद्धमच्छिय मिच्छतं गदो । तदो मिच्छत्तेण हिदिघादमकादण पढमसमयएइंदिरो जादो तस्स उक्क० विहत्ती । णवणोक० उक्क० कस्स ? अण्णदरस्स जो देवो उक्कस्सहिदि बंधमाणो कालं कादूण एइंदिओ जादो पडमसमयमादि कादूण जीव आवलियउववण्णस्स तस्स उक्क० हिदिविहत्ती । एवमेइ दियपज०-बादरएइंदिय-बादरेइंदियपज्ज०-पुढवि०-बादरपुढवि०-बादरपुढविपन्जा-अाउ०-बादराउ०-बादरभाउपज्ज०वणप्फदि०-बादरवणप्फदि०-बादरवणप्फदिपज्ज०-बादरवणप्फदिपत्रेय०-बादरवणप्फदिपत्तेयपज ०-असण्णि चि । ओरालियमिस्स० एवं चेव । णवरि देव णेरइयपच्छायदाणं कादव्वं ।
की उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति किसके होती है ? तीन गतियोंका जो कोई एक जीव मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधकर अन्तर्मुहूर्त कालमें प्रतिभग्न होकर तथा सम्यक्त्वके योग्य विशुद्धिको प्राप्त होकर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। पुनः अतिलघु कालतक वेदकसम्यक्त्वके साथ रहकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। तदनन्तर मिथ्यात्वके साथ स्थितिघात न करके एकेन्द्रिय हुआ। उसके उत्पन्न होनेके पहले समयमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है। नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति किसके होती है ? जो कोई एक देव कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधकर मरा और एकेन्द्रिय हुआ। उसके उत्पन्न होनेके पहले समयसे लेकर एक आवली प्रेमाण कालके भीतर नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है। इसी प्रकार एकेन्द्रिय पर्याप्तक, बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर, पृथिवीकायिक पर्याप्तक, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक पर्याप्तक, वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्तक, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्तक और असंज्ञी जीवोंके जानना चाहिये । औदारिक मिश्रकाययोगी जीवोंके भी इसी प्रकार जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि जो देव और नारक पर्यायसे वापिस आकर औदारिक मिश्रकाययोगी हुए हैं उनके उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति कहनी चाहिये।
विशेषार्थ-मूलमें एकेन्द्रिय आदि ऐसी मार्गणाए गिनाई हैं जिनमें देव पर्यायसे आकर जीव उत्पन्न हो सकते हैं, अतः इन सबमें एकेन्द्रियों के समान सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति बन जाती है। किन्तु औदारिकमिश्रकाययोगमें उत्कृष्ट स्थिति कहते समय देव और नारक पर्यायसे आकर जो औदारिकमिश्रकाययोगी हुए हैं उनके सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति होती है। यहां यह शंका की जा सकती है कि जो उक्त मार्गणाओंमें देव पर्यायसे आकर उत्पन्न हुए हैं और
औदारिकमिश्रकाययोगमें देव या नारक पर्यायसे आकर उत्पन्न हुए हैं उन्हींके उत्कृष्ट स्थिति क्यों प्राप्त होती है जो तिर्यंच या मनुष्य पर्यायसे आकर उक्त मार्गणाओंमें उत्पन्न हुए हैं उनके उत्कृष्ट स्थिति क्यों नहीं प्राप्त होती है । सो इसका समाधान यह है कि अतिसंकलेशसे मरा हुआ तिर्यंच और मनुष्य नारक पर्यायमें उत्पन्न होगा अतः यहां देव और नारक पर्यायसे यथायोग्य उत्पन्न कराकर ही उक्त मार्गणोंमें उत्कृष्ट स्थिति कही है।
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- २३०
• अयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहची ३ ४१६. वेउवियमिस्स० मिच्छत्त-सोलसक० उक्क० कस्स ? अण्ण. जो तिरिक्खो मणुस्सो वा उक्कस्सहिदि बंधमाणो मदो रइएसु पढमसमयउववण्णो तस्स उक्कविहत्ती । सम्मत्त-सम्मामि० पंचिंतिरिक्खअपज्जत्तभंगो। णवणोक० उक्क० कस्स ? अण्ण० जो तिरिक्खो मणुस्सो वा उक्कस्सहिदि बंधिदूण कालं गदो रइएसु उववण्णो पढमसमयमादि कादूण जाव आवलियउववण्णस्स तस्स उक्क०विहत्ती ।
$ ४१७ आहार० सव्वपयडीणमुक्क० कस्स ? अण्ण. जो वेदय दिही उक्कस्सहिदिसंतकम्मिश्रो पढमसमयपज्जत्तयदो तस्स उक्क विहत्ती । एवमाहारमिस्स० णवरि पढमसमयआहारमिस्सयस्स ।
४१८. कम्मइय० मिच्छत्त-सोलसक० उक० कस्स १ अण्ण० जो चदुगदिओ उक्कस्सहिदि बंधमाणो कालं गदो समयाविरोहेण तिरिक्ख-णेरइएमु पढमसमयकम्मइयकायजोगी जादो तस्स उक्क विहत्ती । सम्मत्त०-सम्मामि० ओरालियमिस्सभंगो । णवरि चदुसु गदीसु सम्मत्तं दादव्वं । णवणोक उक्क० कस्स ? अण्ण. जो चदुगदिओ उक.हिदि. बंधमाणो कालं गदो जहासंभवं तिरिक्ख-णेरइएसु पढमविदयसमयउव
rammam
६४१६. वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति किसके होती है ? जो कोई एक तिर्यंच या मनुष्य उत्कृष्ट स्थितिको बाँध कर मरा और नारकियोंमें उत्पन्न हुआ उसके उत्पन्न होनेके पहले समयमें उक्त कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग पंचेन्द्रिय तिथंच अपर्याप्तकोंके समान है। नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति किसके होती है ? जो कोई एक तिर्यंच या मनुष्य उत्कृष्ट स्थितिको बाँधकर मरा और नारकियोंमें उत्पन्न हुआ उसके उत्पन्न होनेके पहले समयसे लेकर एक आवलीप्रमाण कालके भीतर नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है ।
६४१७. आहारककाययोगियोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति किसके होती है ? उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मवाला जो कोई वेदकसम्यग्दृष्टि जीव आहारककाययोगी हुआ उसके पर्याप्त होनेके पहले समयमें सब कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है। इसी प्रकार आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि आहारकमिश्रकाययोगके पहले समयमें उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है।
६४१८. कार्मणकाययोगियोंमें मिथ्यात्त्र और सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति किसके होती है ? उत्कृष्ट स्थितिको बाँधनेवाला जो काई चार गतिका जीव मरा और यथानियम तिथंच और नारकियोंमें उत्पन्न होकर कार्मणकाययोगी हो गया उसके पहले समयमें उक्त कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग औदारिकमिश्रकाययोगियोंके समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वको चारों गतियोंमें देना चाहिये। अर्थात् उसकी उत्कृष्टस्थिति विभक्ति चारों गतियोंमें कार्मणकाययोगियोंके होती है। नौ नोकषायोकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति किसके होती है ? उत्कृष्ट स्थितिको बांधनेवाला जो कोई एक चारों गतियोंका जीव मरा और यथायोग्य तिर्यंच तथा नारकियोंमें पहले और दूसरे समयमें उत्पन्न
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ग०११] . हिदिविहत्तीए उत्तरपडिदिसामित्त
२३६ वण्णो तस्स उक्त विहत्ती।
___$ ४१६. अवगद० मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-बारसक०-णवणोक० उक्क० कस्स ? अण्ण. जो उक्कस्सहिदिसंतकम्मिो पढमसमयअवगदवेदो जादो तस्स उक्क० विहत्ती । एवमकसा०-मुहम०-जहाक्खादसंजदे त्ति ।
___४२०. मदि-सुदअण्णा० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० ओघभंगो । सम्मत्तसम्मामि० उक्क. कस्स ? अण्ण. जो मिच्छत्तउक्कस्सहिदि बंधिय अंतोमुहत्तेण सम्मत्तं पडिवण्णो । पुणो सम्मरेण सव्वलहुअमंतोमुहुत्तद्धमच्छिय मिच्छ गदो तस्स पढमसमए उक्क०विहत्ती। एवं विहंग० ।
४२१. आभिणि-सुद०-अोहि० सयपयडीणमक्क० कस्स ? अण्ण. जो मिच्छाइटी देवो गेरइओ वा उक्क हिदि बंधिदूण द्विदिघादमकादूण अंतोमुहुत्तेण सम्म पडिवण्णो तस्स पढमसमयसम्माइहिस्स उक्क० विहत्ती । एवमोहिदंस०. सम्मादि-वेदय दिहि त्ति । मणपज्जव० सव्वपयडि. उक्क० कस्स ? अण्ण. वेदय०दिही उक्कस्सद्विदिसंतकम्मिश्रो तस्स पढमसमयमणपज्जवणाणिस्स उक्कस्सहिदिविहत्ती । एवं संजद०-सामाइय-छेदो०-परिहार०-संजदासजदे त्ति । हुआ उसके उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है।
४१६ अपगतवेदमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति किसके होती है ? उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मवाला जो कोई जीव अपगतवेदवाला हो गया उसके पहले समयमें उक्त कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति विभक्ति होती है। इसी प्रकार अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत और यथाख्यातसंयतके जानना चाहिये।
४२० ६ मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकाषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति ओघके समान है। सम्क्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्टि स्थितिविभक्ति किसके होती है ? जो कोई जीव मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधकर अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। पुनः सम्यक्त्वके साथ सबसे लघु अन्तमुहूर्त काल तक रह कर मिथ्यात्वमें गया उसके पहले समयमें उक्त कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है। इसी प्रकार विभंगज्ञानियोंके जानना चाहिये।
६४२१ आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें सब प्रकृतियों की उत्कृष्टस्थिति विभक्ति किसके होती है ? जो कोई मिथ्यादृष्टि देव या नारकी जीव उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर और स्थितिघात न करके अन्तमुहूर्त कालमें सम्यवस्वको प्राप्त हुआ उस सम्यग्दृष्टि जीवके पहले समयमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । मनःपर्ययज्ञानी जीवोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति किसके होती है ? उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मवाला जो कोई वेदक सम्यग्दृष्टि जीव है उसके मनःपर्ययज्ञानको प्राप्त होनेके पहले समयमें उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है । इसी प्रकार संयत, समायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयतके जानना चाहिये ।
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२४.
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे, [हिदिविहली ३ । ९४२२. सुकले० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० उक्क० कस्स ? अण्ण. जो मिच्छाइट्टी उकस्सहिदि बंधिय हिदिघादमकाऊण लेस्सापरावचिं गदो तस्स उक्क० विहत्ती । सम्मत्त०-सम्मामि० उक्क० कस्स० ? अण्ण. जो मिच्छाइही उक्क हिदि बंधिय अंतोमुहुत्तेण सम्म पडिवण्णो । पुणो अंतोमुहुरोण लेस्सापरावनिं गदो तस्स पढमसमए उक्क विहत्ती । - ४२३, अभविय० देवोघं । णवरि सम्म० सम्मामि० णत्थि । खइय० बारसक०-णवणोक० उक्क० कस्स ? अण्ण. जो उक्क०हिदिसंतकम्मिश्रो पढमसमयखीणदंसणमोहणीयो जादो तस्स उक्क विहत्ती । उपसम० सयपयडि० उक्क० कस्स ? अण्ण. जो उक्क०हिदिसंतकम्मिओ पढमसमयउवसंतदसणमोहरणीओ जादो तस्स उक्कविहत्ती। सासण. सव्वपयडि. उक्क० कस्स ? अण्ण० तस्सेव पढमसमयसासणं गदस्स तस्स उक्कस्स०विहत्ती । सम्मामि० मिच्छत्त-सोलसक०णवणोक० उक्क० कस्स ? अण्ण. जो मिच्छाइट्टी उक्क हिदि बंधिदूण हिदिघादमकाऊण अंतोमहुत्तेण सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णो तस्स उक्क विहत्ती । सम्मत्तसम्मामि० उक० कस्स ? अण्ण. जो मिच्छत्तउक्कस्सहिदिं बंधिदूण हिदिघादमकाऊण
__$४२२ शुक्ललेश्यामें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति किसके होती है ? जो मिथ्यादृष्टि जीव उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर और स्थितिघात न करके लेश्यापरावृत्तिसे शुक्ललेश्याको प्राप्त हुआ है उसके उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है। सम्यक्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति किसके होती है ? जो कोई मिथ्यादृष्टि जीव उत्कृष्ट स्थितिको बांध कर अन्तमुहूर्त कालके द्वारा सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ है। पुनः अन्तमुहूर्त कालके द्वारा लेश्यापरावृत्तिसे शुक्ललेश्याको प्राप्त हुआ है उसके पहले समयमें उत्कृष्ट स्थिति विभक्ति होती ह ।
६४२३ अभव्योंके सामान्य देवोंके समान कथन जानना चाहिये। पर इतनी विशेषता है कि इनके सम्यक्त्व और सन्यग्मिथ्यात्व कर्म नहीं होते हैं। क्षायिक सम्यग्दृष्टियोंमें बारह कषाय
और नौ नौकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति किसके होती है ? उत्कृष्ट स्थितिसकर्मवाला जो जीव क्षीणदर्शनमोह हो गया है उसके पहले समयमें उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है। उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति किसके होती है ? उत्कृष्ट स्थितिसत्कमवाला जो जीव उपशान्तदर्शनमोहनीय हो गया है उसके पहले समयमें उस्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है। सासादन सम्यग्दृष्टियोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति किसके होती है ? जो कोई वही पूर्वोक्त जीव सासादनसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ है उसके पहले समयमें उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति हाती है। सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकाषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति किसके होती है ? जो कोई मिथ्यादृष्टि जीव उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर और स्थितिघात न करके अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ है उसके उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है। सम्यक्ष और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति किसके होती है ? जो कोई मिथ्याद्दष्टि जीव मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति बांधकर और स्थितिघात
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गा० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिविदिसामित्तं
२४१ सम्मत्तं पडिवण्णो सम्मत्तेण सव्वलहुअमद्धमच्छिय हिदिघादमकाऊण सम्मामिच्छत्त गदो तस्स पढमसमयसम्मामिच्छादिहिस्स उक्क विहत्ती । अणाहारीणं कम्मइयभंगो ।
एवमुक्कस्ससामित्तं समत् । * एत्तो जहण्णय ।
४२४. जहण्णसामि भणामि त्ति सिस्ससंभालणं कदमेदेण सुत्तेण । तस्स दुविहो णिदेसो-ओघेण आदेसेण य चेदि । तत्थ ओघेण परूवण (जइवसहाइरिओ उत्तरसुत्र भणदि
मिच्छत्तस्म जहण्णहिदिविहत्ती कस्स ? $ ४२५. सुगममेदं
* मणुसस्स वा मणुसिणीए वा खविज्जमाणयमावलिय पविहं जाधे दुसमयकालहिदिग सेसताधे ।। ___ ४२६. मणुस्सो त्ति वुत्ते पुरिसणवु सयवेदोदइल्लाणं गहणं । मणुस्सिणि त्ति वुत्चे इत्थिवेदोदयजीवाणं गहणं । जहा अप्पसत्थवेदोदएण मणपज्जवणाणादीणं ण
न करके सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ है। पुनः सम्यक्त्वके साथ अतिलघु काल तक रहकर और स्थितिघात न करके सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ है उसके सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होनेके पहले समयमें उत्कृष्ट स्थिति विभक्ति होती है। अनाहारकोंका कार्मणकाययोगियोंके समान स्वामित्व जानना चाहिये।
इस प्रकार उत्कृष्ट स्वामित्व समाप्त हुआ। * इसके आगे जघन्य स्वामित्वको कहते हैं ।
४२४. अब जघन्य स्वामित्वको कहते हैं। इस प्रकार इस सूत्र द्वारा शिष्योंकी सम्हाल की है। इस जघन्य स्वामित्वकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघके कथन करनेके लिये यतिवृषभ आचार्य आगेका सूत्र कहते हैं
* मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? ६४२५. यह सूत्र सुगम है।
* मनुष्य या मनुष्यिनीके उदयावलिमें प्रविष्ट होकर क्षयको प्राप्त होता हुआ जो मिथ्यात्व कम है उसकी जब दो समय प्रमाण स्थिति शेष रहती है तब जघन्य स्थितिविभक्ति होती है।
६४२६. सूत्रमें मनुष्य ऐसा कहने पर उससे पुरुषवेद और नपुंसकवेदके उदयवाले मनुष्यों का ग्रहण होता है। मनुष्यिनी ऐसा कहने पर उससे स्त्रीवेदके उदयवाले मनुष्य जीवोंका ग्रहण होता है। जिस प्रकार अप्रशस्त वेदके उदयके साथ मनःपर्ययज्ञानादिकका होना संभव नहीं है
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२४२ : जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[हिदिविहत्ती ३ संभवो तहा दंसणमोहणीयक्खवणाए तत्थ किं संभवो अत्थि णत्थि त्ति संदेहेण घुलतहियस्स सिस्ससंदेहविणासण मणुस्सस्स मणुस्सणीए वा त्ति भणिदं । खविजमाणयं ति वुत्ते मिच्छत्तस्स गहणं, अण्णस्सासंभवादो। श्रावलियं ति वृत्ते उदयावलियाए गहणं; मिच्छत्तचरिमफालियाए परसरूवेण गदाए उदयावलियपविद्वणिसेगे मोत्तूण अण्णेसिमवहाणाभावादो । एत्थ जमावलियं पविद् खविज्जमाणयं मिच्छत्तं अधडिदिगलणाए गलिय जाधे तं दुसमयकालडिदिगं सेसं ताधे तस्स जहण्ण हिदिविहत्ती होदि त्ति संबंधो कायव्वो) कधं सुत्तम्मि असंताणं पदाणमझाहारो कीरदे ! ण, मुत्तस्सेव अवयवभूदाणं सुगमत्तणेण तत्थ अणुच्चारिज्जमाणाणं तत्थ अभावविरोहादो।
इसी प्रकार अप्रशस्त वेदके उदयमें दर्शनमोहनीयकी क्षपणा क्या संभव है या नहीं है इस प्रकार सन्देहसे जिसका हृदय घुल रहा है उस शिष्यके सन्देहको दूर करनेके लिये सूत्रमें 'मणुस्सस्स ‘मणुस्सणीए वा' यह पद कहा है। सूत्रमें 'खविज्जमाणयं ऐसा कहने पर उससे मिथात्वका ग्रहण करना चाहिय, यहां अन्यका ग्रहण नहीं हो सकता है। सूत्र में 'आवलियं ऐसा कहने पर उससे उदयावलिका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिके पररूपसे संक्रमित हो जाने पर उदयावलिमें प्रविष्ट हुए निषेकोंको छोड़कर अन्य निषेकोंका सद्भाव नहीं पाया जाता है। यहाँ पर जो उदयावलिमें प्रविष्ट होकर क्षयको प्राप्त होनेवाला मिथ्यात्व कर्म है वह अधःस्थिति. गलना रूपसे गलित होकर जब दो समय काल स्थितिप्रमाण शेष रहता है तब उसकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है ऐसा सम्बन्ध कर लेना चाहिये ।
शंका-जो पद सूत्रमें नहीं है उनका अध्याहार कैसे किया जा सकता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि जो सूत्रके ही अवयवभूत हैं पर सुगम होनेसे जिनका वहां उच्चारण नहीं किया है उनका अस्तित्व यदि वहाँ नहीं स्वीकार किया जाता है तो विरोध आता है ।
विशेषार्थ-यद्यपि ऐसा नियम है कि स्त्रीवेदवाले और नपुंसकवेदवाले मनुष्यके मनःपर्ययज्ञान, परिहारविशुद्धिसंयम, आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोगकी प्राप्ति नहीं होती फिर भी क्षायिकसम्यक्त्व और क्षायिकचारित्रकी प्राप्ति तीनों वेदोंके रहते हुए हो सकती है, इसी बातका ज्ञान करानेके लिए सूत्रमें मनुष्य और मनुषियनी इन दोनों पदोंका ग्रहण किया है। यहां मनुष्य पदसे पुरुषवेदी और नपुंसकवेदी मनुष्योंका ग्रहण करना चाहिये और मनुष्यनी पदसे स्त्रीवेदी मनुष्योंका ग्रहण करना चाहिये। इस प्रकार जब इन तीन वेदवालोंमेंसे कोई एक वेदवाला मनुष्य दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करता हुआ मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिमें स्थित उदयावलिप्रमाण निषेकोंको गलाता हुआ अन्तमें दो समय स्थितिवाला एक निषेक शेष रखता है तब उसके मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति होती है । मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिके प्रतिपादक उक्त चूर्णिसूत्रका समुदायार्थ कहते समय वीरसेन स्वामीने 'अधद्विदिगलणाए गलिय' इतना पद और जोड़ा है । इस पर शंकाकारका कहना है कि ये पद पूर्ववर्ती सूत्रोंमें तो पाये नहीं जाते, अतः यहां इनका अध्याहार कैसे किया जा सकता है, क्योंकि अध्याहार तो उन्हीं पदोंका होता है जो पूर्ववर्ती सूत्रोंमें
आ चुके है । इस शंकाका वीरसेन स्वामीने जो समाधान किया है उसका सार यह है कि कोई ' पद यदि पूर्ववर्ती सूत्रोंमें न आया हो तो भी उसका अध्याहार करने में कोई आपत्ति नहीं, क्योंकि
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गो०२२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिसामित्त
२४३ * सम्मत्तस्स जहण्णहिदिविहत्ती कस्स ? ६४२७. सुगममेदं । * चरिमसमयअक्रवीणदंसणमोहणीयस्स ।
$ ४२८. चरिमसमयअक्खीणसम्मत्तस्से त्ति वत्तव्वं तेणेत्थ अहियारादो ग चरिमसमयअक्खीणदंसणमोहणीयस्से त्ति ? ण एस दोसो, मिच्छत्त-सम्मामिच्छचे खइय पच्छा सम्म खविज्जदि ति कम्माण क्खवणकमजाणावणह चरिमसमयअक्रवीणदंसणमोहणीयस्से ति णिसादो। मिच्छत्त-सम्मामिच्छतेमु कं पुव्वं खविज्जदि ? मिच्छत् । कुदो, अच्चमुहत्तादो । असुहस्स कम्मस्स पुव्वं चेव खवणं होदि त्ति कुदो णयदे ? सम्मत्तस्स लोहसंजलणस्स य पच्छा खयण्णहाणुवत्तीदो। ऐसा कोई नियम नहीं है कि जो पद पूर्ववर्ती सूत्रोंमें आये हों उन्हींका केवल अध्याहार किया जा सकता है ! किन्तु सरल होनेसे जो पद सूत्रमें नहीं कहे गये हों पर जिनके कथन करनेसे अर्थ बोधमें सुगमता जाती हो ऐसे पदोंको ऊपरसे भी जोड़ा जा सकता है, क्योंकि अध्याहारका अर्थ भी यही है कि जिस वाक्यका अर्थ अस्पष्ट हो उसे शब्दान्तरकी कल्पना द्वारा स्पष्ट कर देना चाहिये। अब यदि ऐसे पद पूर्ववर्ती सूत्रोंमें मिल जाते हैं तो अच्छा ही है और यदि नहीं मिलते हैं तो कल्पनाद्वारा उन्हें ऊपरसे भी जोड़ा जा सकता है ।
* सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? ६४२७. यह सूत्र सुगम है।
* जिसने दर्शनमोहनीयका तय नहीं किया है ऐसे जीवके दर्शनमोहनीयके क्षय होनेके अन्तिम समयमें सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। . ४२८ शंका-सूत्रमें 'जिसने दर्शनमोहनीयका क्षय नहीं किया है ऐसे जीवके अन्तिम समयमें' यह न कहकर 'जिसने सम्यक्त्वका क्षय नहीं किया है ऐसे जीवके अन्तिम समयमें ऐसा कहना चाहिये, क्योंकि सम्यक्त्वका यहां अधिकार है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वको क्षय करके अनन्तर सम्क्त्व का क्षय करता है इस प्रकार कर्मों के क्षपणके क्रमका ज्ञान करनेके लिये 'जिसने दर्शन मोहनीयका क्षय नहीं किया है ऐसे जीवके अन्तिम समयमें यह कहा है। .
शंका-मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें पहले किसका क्षय होता है ? समाधान-पहले मिथ्यात्वका क्षय होता है। शंका-पहले मिथ्यात्वका क्षय किस कारणसे होता है ? समाधान-क्योंकि मिथ्यात्व अत्यन्त अशुभ प्रकृति है। शंका-अशुभ कर्मका पहले ही क्षय होता है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? .
समाधान-अन्यथा सम्यक्त्व और लोभ संज्वलनका पश्चात् क्षय बन नहीं सकता है, इस प्रमाणसे जाना जाता है कि अशुभ कर्मका क्षय पहले होता है।
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२४४
अवधवलासहिदे कसायपाहुडे. [हिदविहत्ती ३ * सम्मामिच्छत्तस्स जहरणहिदिविहत्ती कस्स ?
४२६. सुगममेदं । । * सम्माभिच्छत्तं खविज्जमाणं वा उव्वेल्लिज्जमाणं वा जस्स दुसमयकालहिदियं सेसं तस्स ।
६४३०.खवेंतस्स वा उव्वेल्लंतस्स वा जस्स दुसमयकालहिदियं सम्मामिच्छ सेसं तस्सेव जीवस्स जहण्णसामि होदि ति वयणेण सेससम्मामिच्छत्तसंतकम्मियाणं पडिसेहो कदो । एवकारेण विणा कधमेसो णियमो अवगम्मदे ? ण एस दोसो, एवकाराभावे वि तदहो तत्थ अत्थि त्ति सावहारणअवगमुप्पत्तीए विरोहाभावादो । एगसमयकालडिदियमिदि किण्ण वुच्चदे ? ण, उदयाभावेण उदयणिसेयहिदी परसरूवेण गदाए विदियणिसेयस्स दुसमयकालहिदियस्स एगसमयावहाणविरोहादो। विदियणिसेओ सम्मामिच्छत्तसरूवेण एगसमयं चेव अच्छदि उवरिमसमए मिच्छत्तस्स सम्मत्तस्स वा उदयणिसेयसरूवेण परिणामुवलंभादो। तदो एयसमयकालहिदिसेसं
* सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? ६ ४२६ यह सूत्र सुगम है।
ॐ जिसके क्षयको प्राप्त होते हुए व उद्देलनाको प्राप्त होते हुए सम्यग्मिथ्यात्वकी दो समय काल प्रमाण स्थिति शेष रहती है उसके सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है।
६४३० क्षय करनेवाले या उद्वेलना करनेवाले जिस जीवके दो समय काल स्थिति प्रमाण सम्यग्मिथ्यात्व शेष रहता है उसी जीवके जघन्य स्वामित्व होता है। इस वचनके द्वारा शेष सम्यग्मिथ्यात्य सत्कर्मवाले जीवोंका प्रतिषेध कर दिया है।
शंका-एवकारके बिना यह नियम कैसे जाना जाता है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि एवकारके नहीं रहने पर भी एवकार शब्दका अर्थ सूत्रमें अन्तर्निहित है इसलिये अवधारण सहित अर्थके ज्ञानके होनेमें कोई विरोध नहीं आता है।
शंका-सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति एक समय काल प्रमाण क्यों नहीं कही जाती है।
समाधान-नहीं, क्योंकि जिस प्रकृतिका उदय नहीं होता उसकी उदय निषेकस्थिति उपान्त्य समयमें पररूपसे संक्रमित हो जाती है अतः दो समय कालप्रमाण स्थितिवाले दूसरे निषेककी जघन्य स्थिति एक समय प्रमाण माननेमें विरोध आता है।
शंका-सम्यग्मिध्यात्वका दूसरा निषेक सम्यग्मिथ्यात्व रूपसे एक समय काल तक ही रहता है, क्योंकि अगले समयमें उसका मिथ्यात्व या सम्यक्त्वके उदय निषेकरूपसे परिणमन पाया जाता है अतः सूत्रमें 'दुसमयकालट्ठिदिसेसं' के स्थान पर 'एक समयकालट्ठिदिसेसं ऐसा कहना चाहिये ?
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गा० २२ ]
हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिसामित्त ति वत्तव्वं ? ण, एगसमयकालडिदिए णिसेगे संते विदियसमए चेव तस्स णिसेगस्स . अदिण्णफलस्स अकम्मसरूवेण परिणामप्पसंगादो । ण च कम्म सगसरूवेण परसरूवेण वा अदत्तफलमकम्मभावं गच्छदि, विरोहादो। एगसमयं सगसरूवेणच्छिय विदियसमए परपयडिसरूवेणच्छिय तदियसमए अकम्मभावंगच्छदि त्ति दुसमयकालहिदिणिद्देसोकदो।
* अणंताणुबंधीणं जहण्णहिदिविहत्ती कस्स ?
४३१. सुगममेदं ।
* ताणुबंधी जेण विसंजोइदं आवलिय पविट्ठ दुसमयकालहिदिगं सेसं तस्स।
समाधान-नहीं, क्योंकि इस निषेकको यदि एक समय काल प्रमाण स्थितिवाला मान लेते हैं तो दूसरे ही समयमें उसे फल न देकर अकर्मरूपसे परिणमन करनेका प्रसंग प्राप्त होता है। और कर्म स्वरूपसे या पररूपसे फल बिना दिये अकर्मभावको प्राप्त होते नहीं, क्योंकि ऐसा माननेमें विरोध आता है। किन्तु अनुदय रूप प्रकृतियोंके प्रत्येक निषेक एक समय तक स्वरूपसे रहकर और दूसरे समयमें पर प्रकृतिरूपसे रहकर तीसरे समयमें अकर्मभावको प्राप्त होते हैं ऐसा नियम है अतः सूत्रमें दो समय कालप्रमाण स्थितिका निर्देश किया है।
विशेषार्थ-यहां यह शंका उठाई गई है कि जिस कर्मका स्वोदयसे क्षय नहीं होता उसका अन्तिम निषेक उपान्त्य समयमें ही पर प्रकृतिरूप हो जाता है, अतः अनुदयरूप प्रकृतिकी जघन्य स्थिति एक समय ही कहनी चाहिये। इस शंकाका वीरसेन स्वामीने जो समाधान किया है उसका भाव यह है कि यद्यपि ऐसा निषेक उपान्त्य समयमें ही परप्रकृतिरूप हो जाता है पर वह कर्मरूपसे दो समय तक रहता है और तीसरे समयमें ही अकर्मभावको प्राप्त होता है, अतः उस निषेककी जघन्य स्थिति दो समय कहना ही युक्त है । यदि उसकी स्थिति एक समय मानी जाती है तो दूसरे समयमें बिना फल दिये उसे अकर्मरूप हो जाना चाहिये। पर ऐसा होता नहीं, क्योंकि कोई भी कर्म फल दिये बिना अकर्मरूप होता नहीं और उपान्त्य समय उसका उदयकाल नहीं है, अतः उपान्त्य समयमें वह फल दे नहीं सकता । इसलिये यही निश्चित होता है कि जो निषेक जितने काल तक कर्मरूपसे रहता है उसकी उतनी स्थिति होती है। स्थितिका विचार करते समय यह नहीं देखा जाता कि वह अमक समयमें अन्य प्रकृतिरूप होनेवाला है इसलिये इसकी स्थिति अन्य प्रकृतिरूप होनेसे पहले तक हो। किन्तु जिस समय जिस कर्मकी जितनी स्थिति कही जाती है उस समय उस कर्मरूप परणमे निषेकोंके सद्भावकालको देख कर ही वह स्थिति कही जाती है। अब यदि वे निषेक उसी समय या अन्य समयमें अन्य प्रकृतिरूप होते हों तो हो जायं, इससे उस कर्मकी स्थितिका कथन करने में कोई बाधा नहीं आती।
ॐ अनन्तानुबन्धीकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? ६४३१ यह सूत्र सुगम है।
* जिसने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कर दी है और तदनन्तर उदयावलीमें प्रविष्ट होकर जब उसकी दो समय काल प्रमाण स्थिति शेष रहती है तब उसकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है।
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२४६
... जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ ४३२. अणंताणुबंधी जेण खविदं ति अभणिय जेण विसंजोइदं ति किम वुच्चदे १ ण, जस्स कम्मस्स परसरूवेण गयस्स पुणरुप्पत्ती पत्थि तस्स कम्मस्स विणासो खवणा णाम । ण च अणंताणुबंधीणमहकसायाणं व पुणरुप्पत्ती पत्थि; पुणो वि परिणामवसेण सासणादिसु बंधुवलंभादो । तम्हा अणंताणुबंधी जेण विसंजोइदं ति सुहासियमेदं; तस्स पुणरुप्पत्तिजाणावणटुं परूविदत्तादो । जदि अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोइदं तो तेण जीवेण अणंताणुबंधिचउक्कं पडि णिस्संतकम्मेण होदव्यं ण तत्थ जहण्णसामित्तस्स संभवो अभावे भावविरोहादो त्ति ? ण एस दोसो, चरिमहिदिखंडयचरिमफालियाए परसरूवेण गदाए समाणिदअणियट्टिकरणस्स विसंजोइदत्ताविरोहादो। अणंताणुबंधिकम्मक्खंधे सेसकसायसरूवेण परिणामेंतओ विसंजोएंतओ णाम । ण च एवंविहा विसंजोयणा आवलियपविणिसेयाणमत्थि; तेसिं संकमाभावादो । तम्हा अणंताणुबंधी जेण विसंजोइदं ति सुहासियमेदं । जमुदयावलियपविट्ठमणंताणुबंधिच उक्कमंतकम्मं तं जाधे दुसमयकालहिदिगं सेसं ताधे तस्स जहण्णहिदिविहत्ती ।
६४३२ शंका-सूत्रमें 'जिसने अनन्तानुबन्धीका क्षय कर दिया है। ऐसा न कह कर 'जिसने उसकी विसंयोजना कर दी है' ऐसा किसलिये कहा ?
समाधान-नहीं, क्योंकि पररूपसे प्राप्त हुए जिस कर्मको पुनः उत्पत्ति नहीं होती है उस कर्मके विनाशको क्षपणा कहते हैं। पर जिस प्रकार आठ कषायोंकी पुनः उत्पत्ति नहीं होती उस प्रकार चार अनन्तानुबन्धीकी पुनः उत्पत्ति नहीं होती यह बात तो है नहीं किन्तु परिणामोंके वशसे सासनादिकमें इसका पुनः बन्ध पाया जाता है अतः जिसने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कर दी है यह सूत्रमें उचित कहा है क्योंकि उसकी पुनः उत्पत्तिका ज्ञान करानेके लिये ऐसा कथन किया है।
शंका-यदि अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना हो गई तो उस जीव को अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा कमरहित हो जाना चाहिये, अतः ऐसे जीवके जघन्य स्वामित्व संभव नहीं है, क्यों कि अभावमें भावके माननेमें विरोध आता है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि अन्तिम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके पर-रूपसे प्राप्त हो जानेपर अनिवृत्तिकरणको प्राप्त हुए जीवके अनन्तानुबन्धीको विसंयोजित माननेमें कोई विरोध नहीं आता है। अनन्तानुबन्धीके कर्मस्कन्धोंको शेष कषायरूपसे परिमानेवाला जीव विसंयोजक कहलाता है। पर इस प्रकारको विसंयोजना आवली प्रविष्ट कर्मोंकी तो होती नहीं, क्योंकि उनका संक्रमण नहीं होता है, अतः सूत्रमें 'जिसने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कर दी है। यह योग्य कहा है । जो उदयावलिमें प्रविष्ट अनन्तानुबन्धी चतुष्क सत्कर्म है वह जिससमय दो समय स्थितिप्रमाण शेष रहता है तब उसकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है।
विशेषार्थ--यहां विसंयोजना और क्षपणामें अन्तर बतलाते हुए यह लिखा है कि पर प्रकृतिरूपसे संक्रमणको प्राप्त हुए जिस कर्मकी पुनः उत्पत्ति नहीं होती उस कर्मके विनाशका नाम क्षपणा है और जिस कर्मकी पुन: उत्पत्ति हो सकती है उस कर्मके विनाशका नाम विसंयोजना है
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गा० २२ ]
हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिसामित्त
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monommonwww
~
सो इसका यह तात्पर्य है कि जो कर्म स्वोदयसे क्षयको नहीं प्राप्त होते हैं उनके द्वितीय स्थितिमें स्थित कर्मपुंजका उस समय बंधनेवाली अपनी सजातीय प्रकृतिरूपसे संक्रमण होता रहता है
और जो कर्मपुंज उदयावलिमें स्थित है उसके प्रत्येक अन्तिम निषेकका स्तिवक संक्रमणके द्वारा उपान्त्य समयमें उदयगत सजातीय प्रकृतिरूपसे संक्रमण होता रहता है और इस प्रकार उस कर्मकी क्षपणा होती है। क्षपणाका यह लक्षण परोदयसे जिन प्रकृतियोंका क्षय होता है उनके क्षयमें ही घटित होता है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी क्षपणा भी इस लक्षणमें आ जाती है फिर भी उसके क्षयको क्षपणा न कहकर विसंयोजना इसलिये कहा है, क्योंकि अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी यद्यपि इस प्रकारसे क्षपणा हो जाती है फिर भी परिणामोंके वशसे सासादन और मिथ्यात्व गुणस्थानमें उसकी पुनः उत्पत्ति देखी जाती है। अब यहां थोड़ा इस बातका विचार कर लेना भी आवश्यक है कि जिस जीवने अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना कर ली है ऐसा जीव क्या सासादन गुणस्थानको भी प्राप्त हो सकता है ? जिस जीवने अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना नहीं की है किन्तु केवल दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोंकी उपशमना की है ऐसा प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टि जीव सासादन गुणस्थानको प्राप्त होता है इसमें किसीको विवाद नहीं । हां, जिस वेदकसम्यग्दृष्टिने अनन्तानबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करके दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोंकी उपशमना की है ऐसा द्वितीयोपशमसम्यग्दृष्टि जीव उपशमश्रेणीसे च्युत होकर सासादन गणस्थानको प्राप्त हो सकता है इसमें अवश्य विवाद है। धवला बन्धसामित्त विचयखण्डमें बतलाया है कि जिस जीवने अनन्तानबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना की है ऐसा जीव यदि मिथ्यात्व में आता है तो उसके एक आवलिकाल तक अनन्तानबन्धी चतष्कमें से किसी एक प्रकृतिका उदय नहीं होता है। इसका यह अभिप्राय है कि ऐसा जीव यदि मिथ्यात्वमें आता है तो उसके पहले समयसे ही यद्यपि अनन्तानुबन्धी चतुष्कका बन्ध होने लगता है और अन्य प्रकृतियोंका अनन्तानुबन्धी रूपसे संक्रमण होने लगता है किन्तु बन्धावलि और संक्रमावलि करणोंके अयोग्य होती है इस नियमके अनुसार एक वलि कालतक न तो बंधे हुए कर्मोंका ही उदय हो सकता है और न बन्धके साथ संक्रमको प्राप्त हुए कर्मोंका ही एक आवलि काल तक उदय हो सकता है । जब मिथ्यात्व गुणस्थानकी यह स्थिति है तब ऐसा जीव सासादन गुणस्थानको कैसे प्राप्त कर सकता है, क्योंकि सासादन गुणस्थान अनन्तानबन्धी चतुष्कमेंसे किसी एक प्रकृतिकी उदीरणा हुए बिना होता नहीं । पर जब अनन्तानुबन्धीका सत्त्व ही नहीं और बन्धके बिना अन्य प्रकृतियां अनन्तानुबन्धीरूपसे संक्रमणको नहीं प्राप्त हो सकती तथा अनन्तानुबन्धी का बन्ध मिथ्यात्व और सासादन प्राप्त किये बिना हो नहीं सकता। कदाचित् यह मान लिया जाय कि जिस समय ऐसा जीव सासादनको प्राप्त हो उसी समय अनन्तानुबन्धीका बन्ध होने लगे और शेष कषाय और नोकषाय अनन्तानुबन्धीरूपसे संक्रमित होकर उदीरणाको प्राप्त हो जायं तो ऐसे जीवके भी सासादन गुणस्थान बन जायगा सो भी बात नहीं है, क्योंकि जैसा कि हम पहले बतला आये हैं कि इस नियमके अनुसार संक्रमित कर्मपुंज भी एक आवलिके पश्चात् ही उदीरित हो सकता है। अतः यह सिद्ध हुआ कि षडखण्डागमके अभिप्रायानुसार ऐसा जीव सासादन गुणस्थानको नहीं प्राप्त होता है। श्वेताम्बरोंके यहां प्रसिद्ध कर्म प्रकृतिमें बतलाया है कि ऐसा जीव सासादन गुणस्थानको भी प्राप्त होता है । पर इसकी टीकामें इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया है कि जिन आचार्यों के मतसे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उपशमना होती है उनके मतानुसार उपशमश्रेणीसे च्युत हुआ जीव सासादन गुणस्थानको भी प्राप्त होता है । टीकाकारने मलका इस प्रकार अर्थ विठलाया है। किन्तु मूलकारका यही अभिप्राय रहा होगा यह कहना जरा कठिन है क्योंकि सो कर्मप्रकृतिके प्रकृतिस्थान संक्रम नामक प्रकरणको देखनेसे मालूम
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [विदिविहाची ३ * अट्टण्ह कसायाण जहणणहिदिविहत्ती कस्स ? - ४३३, मुगममेदं ।
* अहकसायक्खवयस्त दुसमयकालहिदियस्स तस्स ।
६ ४३४. हिदी णिसेओ त्ति एयट्ठो, दुसमो कालो जिस्से सा दुसमयकाला, दुसमयकालहिदी जस्स अट्टकसायक्ववयस्स सा दुसमयकालहिदियस्स अट्ठकसायाणं जहण्णहिदिविहत्ती । चारित्तमोहक्खवणाए अब्भुहिय अधापवत्तकरण-अप्पुव्वकरणद्धाो जहाविहिविसिहानी परिवाडीए गमिय अणियट्टिकरणं पविसिय द्विदिअणुभागपदेसाणं बहुवाणं घादं कादण अणियहिअद्धाए संखे०भागे गदे अढकसायाणं खवणमाढविय आढत्तपढमसमयादो असंखेज्जगुणाए सेढीए कम्मप्पदेसक्खंधे गालयंतेण होता है कि जिस जीवने अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना की है ऐसा जीव भी सासादन गुणस्थानको प्राप्त हो सकता है। वहां बतलाया है कि इक्कीस प्रकृतिक संक्रमस्थानका इक्कीस प्रकृतिक पतद्ग्रहमें भी संक्रमण होता है । विचार करके देखनेसे यह स्थिति सासादन गुणस्थानमें ही प्राप्त होती है, अन्यत्र नहीं, क्योंकि मोहनीयका इक्कीस प्रकृतिक बन्ध सासादन में ही होता है, अतः यह निश्चित हुआ कि जिस जीवने अनन्ताबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना कर ली है ऐसा जीव जब सासादनको प्राप्त होता है तब उसके एक प्रावलिकाल तक अनन्तानबन्धी चतष्कका संक्रममा नहीं होता है। परन्तु जो बारह कषाय और नौ नोकषाय अनन्तानुबन्धीरूपसे संक्रमित होती हैं, उनकी पहले समयसे ही उदीरणा होने लगती है । इस व्यवस्थाको मानलेनेपर संक्रमावलि सकल करणोंके अयोग्य है यह बात नहीं रहती है ? कर्मप्रकृतिका यह विवेचन कषायप्राभृतके विवेचनसे मिलता हुआ है । अतः चूर्णिसूत्रकारने भी अनन्तानुबन्धीकी विर्सयोजना किये हुए जीवके दसरे गुणस्थानमें जाने का विधान किया है।
* आठ कषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? 27 ४३३ यह सूत्र सुगम है।
* आठ कषायोंका तय करनेवाले जिस क्षपक जीवके दो समय कालप्रमाण स्थिति शेष रह गई है उसके उनकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है ।
४३४ स्थिति और निषेक ये दोनों एकार्थवाची शब्द हैं। जिस स्थितिको दो समय काल है उसको दो समय कालवाली स्थिति कहते हैं। आठ कषायोंकी क्षपणा करनेवाले जिस जीवके दो समय कालप्रमाण स्थिति होती है वह दो समय काल प्रमाण स्थितिवाला कहलाता है। उसके आठ कषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है।
___कोई जीव जिसने चारित्रमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ किया अनन्तर जिसने जिसकी जैसी विशेषता बतलाई है उसके अनुसार अधःप्रवृत्तकरण और अपूर्वकरणके कालको क्रमसे व्यतीत करके अनिवृत्तिकरणमें प्रवेश किया और वहां बहुतसी स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंका घात करके अनिवृत्तिकरणके संख्यातवें भाग कालके ब्यतीत होने पर आठ कषायोंके क्षयका प्रारम्भ किया और इस प्रकार आठ कषायोंके क्षयका आरम्भ करनेके प्रथम समयसे लेकर
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गा० २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिविदिसामित्त
२४६ संखेज्जहिदि-अणुभागखंडयसहस्साणि पादिदाणि । एवं पादिय अहकसायाणं चरिमहिदिअणुभागकंडयाणि घेत्तु माढत्ताणि । तेसिं चरमफालीसु णिवदिदासु उदयावलियब्भंतरे समयूणावलियमेत्ता णिसेया लभंति;उदयाभावेण पढमणिसेयस्स परसरूवेण गदस्स अहकसायसरूवेण अभावादो । तेसु णिसेगेसु जहाकमेण अघहिदीए गलमाणेसु जाधे जस्स एया हिंदी दुसमयकाला सेसा ताधे तस्स जहण्णहिदिविहत्ती होदि त्ति घेत्तव्वं । एसो पडत्यो ।
* कोधसंजलणस्स जहण्णहिदिविहत्ती कस्स ! $ ४३५. सुगममेदं । * खवयस्स चरिमसमयअणिल्लेविदे कोहसंजलणे।
४३६. खवयस्से त्ति ण वत्तव्यं, पडिसेझाभावादो । णोवसामयपडिसेहह'; तस्स कोहसंजलणस्स णिल्लेवत्ताभावादो । तम्हा चरिमसमयअणिल्लेविदे कोहसंजलणे चि एत्तियं चेव वत्तव्वं ? ण एस दोसो, कोहसंजलणस्स णिल्लेघओ खवओ चेव ण उवसामओ त्ति जाणावण खवयस्से त्ति णिद्देसादो । ण च मुत्तमंतरेण असंख्यातगुणी श्रेणीके द्वारा कर्मप्रदेशस्कन्धोंका गालन करता हुआ हजारों स्थितिकाण्डक और अनुभागकाण्डकों का पतन किया । इस प्रकार हजारों काण्डकोंका पतन करके आठ कषायोंके अन्तिम स्थिति और अनुभाग काण्डकों के घात करने का प्रारम्भ किया और इस प्रकार उनकी अन्तिम फालियोंका पतन हो जाने पर उदयावलिके भीत्र एक समय कम आवली प्रमाण निषेक प्राप्त होते हैं, क्योंकि उदय न होनेके कारण प्रथम निषेक परप्रकृतिरूप हो जाता है अतः उसका आठ कषायरूपसे अभाव हो जाता है । अनन्तर उन उदयावलीमें प्रविष्ट निषेकोंका यथा क्रमसे अधःस्थितिके द्वारा गलन होते हुए जिस समय एक स्थिति दो समय कालप्रमाण शेष रहती है उस समय उसके जघन्य स्थितिविभक्ति होती है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये । यह उक्त सूत्रका समुदायार्थ है।
* क्रोधसंज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? ४३५. यह सूत्र सुगम है।
* क्रोधसंज्वलनकी सत्त्वव्युच्छित्तिके अन्तिम समयमें विद्यमान क्षपक जीवके क्रोधसंज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है।
६४३६. शंका-सूत्रमें 'क्षपकके' यह नहीं कहना चाहिये, क्योंकि प्रतिषेध करने योग्य कोई और दूसरा नहीं है। यदि कहा जाय कि उपशामकका प्रतिषेध करनेके लिये उक्त पद दिया है सो भी बात नहीं है, क्योंकि उपशामकके क्रोधसंज्वलनका अभाव नहीं होता है। अतः 'चरिमसमयअणिल्लेविदे कोहसंजलणे' इतना ही कहना चाहिये ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि क्रोधसंज्वलनका अभाव करनेवाला क्षपक ही होता है उपशामक नहीं। इस बातका ज्ञान करानेके लिये सूत्रमें 'ग्लवयस्स' पदका निर्देश किया
न
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ द्विदिहिती
एसो अत्थो णव्वदे; तहाणुवलंभादो । चरिमसमय अणिल्लेविदस्सेवे त्ति किम' बुच्चदे १ ण, दुचरिमादिसमएस बंध हिदीगं गालणड तदुत्तदो । कोहसंजलणं चरिमसमयअणिल्लेविदे संते जो खवओ ताए अवस्था वट्टमाणो तस्स जहण्णहिदिविहत्ती होदित्ति संबंध काव्वो । बे मासा अंतोमुहुत्तूणा त्ति जहण्णद्विदिवमाणमेत्थ किण्ण परुविदं १ जहण्णहिदिअद्धाच्छेदे परूविदस्स परूवणाए फलाभावादो ।
ए;
* एवं माण-माया संजलणाणं ।
९ ४३७. जहा कोहसंजलणस्स जहण्णसामित्तं वृत्तं तहा माणमायासंजलणाणं वत्तव्वं । चरिमसमय रिल्लेविदे माणसंजलणे जो खवओो तस्स माणसंजलणजहण्णद्विदिविहत्ती । चरिमसमय अगिल्लेविदे माया संजलणे जो खवओो तस्स मायासंजल - जहणद्विदिविहत्ति त्ति भणिदं होदि । अंतोमुहुत्त रामासद्धमासद्विदिपमाणपरूवणा एत्थ ण कायव्वा । कुदो ? श्रद्धाच्छेद परूवणाए तत्थ वा वारादो ।
२५०
है । परन्तु सूत्रके बिना यह अर्थ जाना नहीं जाता है, क्योंकि सूत्र के बिना इस प्रकारके अर्थका ज्ञान होना शक्य नहीं ।
शंका- सूत्र में 'चरिमसमय पिल्लेविदस्स' यह किसलिये कहा है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि द्विचरम आदि समयों में बन्धस्थितियोंके गालन करनेके लिये 'चरिमसमयअणिल्लेविदस्स' यह पद कहा है ।
क्रोधसंज्वलनकी सत्त्वव्युच्छित्तिके अन्तिम समयके प्राप्त होनेपर जो क्षपक उस अवस्थामें विद्यमान है उसके जघन्य स्थितिविभक्ति होती है इस प्रकार उक्त सूत्रका सम्बन्ध करना चाहिये । शंका- यहाँ पर जघन्य स्थितिका प्रमाण अन्तमुहूर्त कम दो महीना है ऐसा क्यों नहीं कहा ?
समाधान- नहीं, क्योंकि जघन्य स्थितिके प्रमाणका जघन्य स्थिति अद्धाच्छेद प्रकरण में कथन कर आये हैं, अतः यहाँ उसका पुनः कथन करनेसे कोई लाभ नहीं है ।
* इसी प्रकार उस क्षपकके संज्वलन मान और संज्वलन मायाकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है ?
ኣ
९ ४३७. जिस प्रकार क्रोधसंज्वलनका जघन्य स्वामित्व कहा है उसी प्रकार मान और माया संज्वलनका जघन्य स्वामित्व कहना चाहिये। जो क्षपक मान संज्वलनकी सत्त्वव्युच्छित्तिके अन्तिम समय में विद्यमान है उसके मान संज्वलनकी जघन्य स्थिति विभक्ति होती है । तथा जो क्षपक मायासंज्वलनकी सत्त्वव्युच्छित्तिके अन्तिम समयमें विद्यमान है उसके माया संज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है, यह उक्त सूत्रका अभिप्राय है ।
यहाँ पर मानसंज्वलनकी अन्तमुहूर्त कम एक महीना और मायासंज्वलनकी अन्तर्मुहूर्त कम आधा महीना प्रमाण स्थितिका कथन नहीं करना चाहिये, क्योंकि उसे श्रद्धाच्छेदकी प्ररूपणामें बतलाये हैं ।
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गा० २२ ]
हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिसामित्त ___ * लोहसंजलणस्स जहण्णहिदिविहत्ती कस्स ? . ४३८. सुगममेदं ।
* खवयस्स चरिमसमयसकसायस्स । ___$ ४३९. दुचरिमादिसमयपडिसेहट्टो चरिमसमयसकसायणि सो । किमह तप्पडिसेहो कीरदे ? दोतिरिणआदिणिसेगेसु हिदेसु जहण्णट्ठिदिविहत्ती ण होदि त्ति जाणावण । चरिमसमयसुहुमसांपराइयस्स अधहि दिगलणाए गालिददुचरिमादिणिसेयस्स हिदिकंडयघादेण घादिदासेसउवरिमहिदिणिसेयस्स एगोदयणिसेगे वट्टमाणस्स जहण्ण हिदिविहत्ति त्ति भणिदं होदि ।
* इस्थिवेदस्स जहण्णहिदिविहत्ती कस्स ? .. ४४०. सुगम०।
* चरिमसमयइथिवेदोदयखवयस्स ।
४४१. दुचरिमसमयसवेदो किण्ण जहण्णहिदिसामिओ ? ण, पढमहिदीए * लोभसंज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ?
४३८. यह सूत्र सुगम है।
* कषायसहित क्षपक जीवके अन्तिम समयमें लोभसंज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है।
४३६. द्विचरमसमय आदिका निषेध करनेके लिये सूत्रमें 'चरिमसमयसकसायस्स' । पदका निर्देश किया है।
शंका-द्विचरमसमय आदिका निषेध किसलिये किया है ? ।
समाधान-दो, तीन आदि निषेकोंके स्थित रहनेपर जघन्य स्थितिविभक्ति नहीं होती है इस बातका ज्ञान करानेके लिये द्विचरमसमय आदिका निषेध किया है।
जिसने द्विचरम आ.द निषेकोंको अधःस्थिति गलनाके द्वारा गालित कर दिया है, जिसने स्थितिकाण्डकघातके द्वारा ऊपरके समस्त स्थितिनिषेकोंका घात कर दिया है और जो एक उदयरूप निषेकमें विद्यमान है उस सूक्ष्मसांपरायिकसंयत जीवके अन्तिम समयमें जघन्य स्थितिविभक्ति होती है यह उक्त सूत्रका अभिप्राय है। ____* स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? " ६ ४४०. यह सूत्र सुगम है।
के तपक जीवके स्त्रीवेदके उदयके अन्तिम समयमें स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है।
६४४१. शंका-द्विचरम समयवाला सवेद जीव जघन्य स्थितिका स्वामी क्यों नहीं होता है ?
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२५२
अयधवलासहिदे कसायपाहुडे द्विदिविहत्ती ३ दोण्हमित्थिवेदणिसेयाणं विदियहिदीए वि पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तणिसेयाणं चरिमफालिसरूवेण अवहिदाणं तत्थुवलंभादो। अण्णवेदोदयक्खवयस्स जहण्णसामि किण्ण दिज्जदे ? ण, उदयाभावेण पढमहिदिविरहियस्स विदियहिदीए चेव अवहिदस्स पलिदो. असंखेजदिभागमेत्तणिसेगेसु इत्थिवेदस्स चरिमफालीए अवहाणुवलंभादो । एगाए णिसेगहिदीए उदयगदाए सुद्धपुव्वुत्तरासेसणिसगाए वट्टमाणो जहण्णहिदिसामि त्ति भणिदं होदि ।
* पुरिसवेदस्स जहण्णहिदिविहत्ती कस्स ? ६४४२. सुगमं० । * पुरिसवेदखवयस्स चरिमसमयअणिल्लेविदपुरिसवेदस्स। .
$ ४४३. जस्स पुन्चमेत्येव भवे पुरिसवेदो उदयमागदो सो जीवो पुरिसवेदो; साहचज्जादो । तस्स पुरिसवेदक्खवयस्स चरिमसमयअणिल्लेविदपुरिसवेदस्स जहण्णसामि होदि तत्थ अंतोमुहुत्तणअहवस्समेत्तहिदीए उवलंभादो । इत्थिवेदस्स भण्ण
समाधान नहीं, क्योंकि द्विचरम समयमें स्त्रीवेद सम्बन्धी प्रथम स्थितिके दो निषेक पाये जाते हैं और द्वितीय स्थितिके भी अन्तिम फालिरूपसे पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण निषेक पाये जाते हैं अतः द्विचरम समयवाला सवेद जीव जघन्य स्थितिका स्वामी नहीं होता है।
' शंका-अन्य वेदके उदयमें स्थित क्षपक जीवको स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिका स्वामी क्यों नहीं कहा ?
समाधान-नहीं, क्योंकि ऐसे जीवके स्त्रीवेदका उदय नहीं होता अतः उसकी प्रथम स्थिति नहीं पाई जाती किन्तु केवल द्वितीय स्थिति ही पाई जाती है पर उसकी अन्तिम फालिके निषेकों का प्रमाण पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण होता है, अतः अन्य वेदके उदयमें स्थित क्षपक जीव स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिका स्वामी नहीं हो सकता।
जो स्त्रीवेदी क्षपक जीव स्त्रीवेदके पूर्वोत्तर सब निषेकोंसे रहित है और उदय प्राप्त एक निषेक स्थितिमें विद्यमान है वह स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिका स्वामी होता है यह उक्त सूत्रका तात्पर्य है।
* पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? ६४४२. यह सुगम है।
* जिसके पुरुषवेदका अभाव नहीं हुआ है ऐसे पुरुषवेदी क्षपक जीवके अन्तिम समयमें पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है।
६४४३ जिसके पहले इसी भवमें पुरुषवेद उदयको प्राप्त हुआ है वह जीव पुरुषवेदके साहचर्यसे पुरुषवेदी कहलाता है। उस पुरुषवेदी क्षपक जीवके पुरुषवेदके सत्त्वके अन्तिम समयमें जघन्य स्वामित्व होता है, क्योंकि वहाँ पर अन्तर्मुहूर्त कम आठवर्ष प्रमाण स्थिति पाई जाती है।
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गी० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिसामित्तं
२५३ माणे जहा इत्थिवेदोदयखवगस्से त्ति परूविदं तहा पुरिसवेदोदयक्रववगस्से त्ति किण्ण परूविदं ? ण, अवगदवेदकालब्भतरे दुसमऊणदोआवलियमेत्तकालं गंतूण द्विदजहण्णहिदिसामियस्स सवेदत्तविरोहादो।
* णवुसयवेदस्स जहण्णहिदिविहत्ती कस्स ? ६४४४. सुगमं । * चरिमसमयणदुंसयवेदोदयक्खवयस्स
$ ४४५. कुदो ? चरिमसमयणQसयवेदस्स गालिददचरिमादिसयलगुणसेढिणिसेयस्स सवेदियदचरिमसमए इत्थिवेदचरिमफालीए सह परसरूवेण संकामिदणqसयवेदविदियहिदिसयलणिसेयस्स एगुदयगोवुच्छुवलंभादो । * छण्णोकसायाणं जहण्णहिदिविहत्तो कस्स ?
४४६. सुगमं०। * खवयस्स चरिमे हिदिखडए वट्टमाणस्स
शंका-स्त्रीवेदका जघन्य स्वामित्व कहते समय जिस प्रकार स्त्रीवेदके उदयको प्राप्त क्षपकको उसका स्वामी बतलाया है उसी प्रकार पुरुषवेदके उदयको प्राप्त क्षपकको पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिका स्वामी क्यों नहीं कहा ?
समाधान-नहीं, क्योंकि अपगतवेद काल के भीतर दो समय कम दो आवली प्रमाण काल जाकर जो पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिका स्वामी विद्यमान है उसे सवेद कहनेमें विरोध आता है।
* नपुंसकवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? ६४४४. यह सूत्र सुगम है।
ॐ तपक जीवके नपुंसकवेदके उदयके अन्तिम समयमें नपुंसकवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है।
६४.५. शंका-क्षपक जीवके नपुंसकवेदके उदयके अन्तिम समयमें नपुंसकवेदकी जघन्य स्थिति विभक्ति क्यों होती है ?
समाधान-जिसने नपुंसकवेद सम्बन्धी द्विचरम आदि सम्पूर्ण गुणश्रेणी के निषेकोंको गला दिया है और जिसने सवेद भागके द्विचरम समयमें स्त्रीवेदकी अन्तिम फालिके साथ द्वितीय स्थितिमें स्थित नपुंसकवेदके समस्त निषेकोंका पररूपसे संक्रमण कर दिया है उसके अन्तिम समयमें एक उदयरूप गोपुच्छ पाया जाता है, अतः नपुंसकवेदके उदयके अन्तिम समयमें उसकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है।
* छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है । ६४४६. यह सूत्र सुगम है।
* छह नोकषायोंके अन्तिम स्थितिकाण्डकमें विद्यमान तपक जीवके उनकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। .
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ ४४७. कुदो ? तत्थ संखेज्जवाससहस्समेत्तचरिमफालिहिदीए उवलंभादो ।
४४८ एवं मणुस०-मणुसपज्ज -पंचिंदिय०-पंचि०पज्ज-तस-तसपज्ज०पंचमण-पंचवचि० कायजोगि० ओरालिय०-लोभकसाय-चक्खु०-अचक्खु०-सुकले०भवसि-आहारए त्ति । णवरि मणुसपज्ज. इत्थिवेद० जण्णहिदिविहत्ती खवगस्स चरिमहिदिखंडगे वट्टमाणस्स ।
* णिरयगईए ऐरइएसु सम्मत्तस्स जहण्णहिदिविहत्ती कस्स ।
४४६. सुगमं० । * चरिमसमयअक्खीणदंसणमोहणीयस्स। $ ४५०. कुदो ! मणुस्समिच्छाइहिस्स तिव्वारंभपरिणामेहि णिरयगईए सह
६ ४४७.शंका-अन्तिम स्थितिकाण्डकमें विद्यमान क्षपक जीवके छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति क्यों होती है ?
समाधान-क्योंकि वहाँ पर अन्तिम फालिकी संख्यात हजार वर्ष प्रमाण जघन्य स्थिति पाई जाती है।
६४४८. इसी प्रकार सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, सपर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, लोभकषायी, चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, शुक्ललेश्यावाले, भव्य और आहारकके जानना चाहिये । पर इतनी विशेषता है कि मनुष्यपर्याप्तमें स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति स्त्रीवेदके अन्तिम काण्डकमें विद्यमान क्षपक जीवके होती है।
विशेषार्थ-मूलमें जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें ओघके समान प्ररूपणा बन जाती है, अतः उनके कथनको ओघके समान कहा है। किन्तु मनुष्यपर्याप्तके स्त्रीवेदकी जघन्य स्थिति एक समय नहीं होती, क्योंकि जो जीव स्त्रीवेदके उदयके साथ क्षपकोणी पर चढ़ता है वही जीव स्त्रीवेदके उदयके अन्तिम समयमें एक सययवाली जघन्य स्थितिका स्वामी होता है। किन्तु जो पुरुषवेद और नपुंसकवेदके उदयके साथ क्षपकश्रेणी पर चढ़ता है वह जीव जब स्त्रीवेदके अन्तिम काण्डककी अन्तिम फालिको पुरुषवेदरूपसे संक्रमित करता है तब उसके स्त्रीवेदकी पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण जघन्य स्थितिविभक्ति होती है इससे कम नहीं और इसलिये मनुष्य पर्याप्तको स्त्रीवेदकी अन्तिम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिरूप जघन्य स्थितिविभक्तिका स्वामी कहा है।
* नरकगतिमें नारकियोंमें सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है । ६४४६. यह सूत्र सुगम है।
* जिसने दर्शनमोहनीयका क्षय नहीं किया है उसके दर्शनमोहनीयके क्षय करनेके अन्तिम समयमें सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। - ४५०.शंका-दर्शन मोहनीयकी क्षपणाके अन्तिम समयमें सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति क्यों होती है ?
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गा. २२ ]
हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिडिदिसामित्त बद्धणिरयाउअस्स पच्छा तित्थयरपादमूलमुवणमिय सम्म घेत्तण अंतोमुहुचावसेसे
आउए अधापवत्तापुव्वाणियट्टिकरणाणि कादण मिच्छत्तसम्मामिच्छत्ताणि अणियट्टि कालभंतरे खविय अणियट्टिकरणद्धाए चरिमसमयम्मि सम्मत्तचरिमहिदिखंड्यचरिमफालिं घेत्तूण उदयादिगुणसेढिसरूवेण घेत्तिय द्विदस्स कदकरणिज्जे त्ति सण्णा कया; सेसदसणमोहवरखवणाविसयकज्जत्तादो । तस्स काउलेस्सं परिणमिय पढमपुढवीए उप्पज्जिय अधहिदिगलणाए चरिमगोवुच्छं मोत्तण गलिदासेसगोवुच्छस्स एगसमयकालेगडिदिदंसणादो।
* सम्मामिच्छत्तस्स जहणणहिदिविहत्ती कस्स ?
४५१. सुगमं०। * चरिमसमयउब्वेल्लमाणस्स ।
- ४५२, कुदो ? सम्मादिहिणा मिच्छ गंतूण अंतोमुत्तमच्छिय सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणमुव्वेल्लणमाढविय पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तद्विदिखंडयाणि जहाकमेण पाडिय उव्वेल्लिदसम्मत्रेण पुणो सम्मामिच्छत्तस्स पलिदो० असंखे०भागमेत्तहिदिकंडए पादिय चरिममुव्वेल्लणकंडयस्स चरिमफालीए पादिदाए समऊणा
समाधान-जो मिथ्यादृष्टि मनुष्य जीव तीव्र आरम्भरूप परिणामोंके द्वारा नरकगतिके साथ नरकायुका बन्ध करनेके अनन्तर तीर्थंकरके पादमूलको प्राप्त होकर और सम्यक्त्वको ग्रहण करके आयुके अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर अधःप्रवृत्त करण, अपूर्वकरण और अनिवृतिकरणरूप परिणामोंको करके तथा अनिवृत्तिकरणके कालके भीतर मिथ्यात्व और सम्मग्मिथ्यात्वका क्षय करके अनिवृत्तिकरणके कालके अन्तिम समयमें सम्यक्त्वकी अन्तिम स्थिति काण्ड ककी अन्तिम फालिको ग्रहण करके और उदयसे लेकर गुणश्रेणीरूपसे उसका निक्षेप करके स्थित है उसे कृतकृत्य यह संज्ञा प्राप्त होती, है क्योंकि इसका कार्य शेष दर्शनमोहनीयकी क्षपणा है। अनन्तर जिसने कापोतलेश्यासे परिणत होकर और पहली पृथिवीमें उत्पन्न होकर अधःस्थिति गलनाके द्वारा अन्तिम गोपुच्छको छोड़कर बाकी के समस्त गोपुच्छको गला दिया है उसके एक समय कालप्रमाण एक स्थिति देखी जाती है। अतः प्रतीत होता है कि नारकीके दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके अन्तिम समयमें सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। ... *नारकियोंमें सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ?
६४५१ यह सूत्र सुगम है। ..
* सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वलनाके अन्तिम समयमें सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है।
६ ४५२. शंका-उद्वेलनाके अन्तिम समयमें जघन्य स्थितिविभक्ति क्यों होती है ?
समाधान-कोई एक सम्यग्दृष्टि मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ और वहां अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर उसने सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलनाका आरम्भ करके पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितिकाण्डकोंका यथाक्रमसे पतन करके सम्यक्त्वकी उद्वेल ना कर ली। पुनः उसके सम्यग्मिथ्यात्वके पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थिति काण्डकोंका पतन करके अन्तिम
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२५६
... जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [हिदिविहत्ती ३ वलियमेत्तगोवुच्छानो चिट्ठति । पुणो तासु दुसमऊणावलियमेत्तासु अधहिदिगलणाए गालिदासु दुसमयकालेगणिसे यहिदिदसणादो। * अणंताणुबंधीणं जहणहिदिविहत्ती कस्स ?
४५३. सुगमं० । * जस्स विसंजोइदे दुसमयकालढिदियं सेसं तस्त ।
४५४. सुगममेदं ओघम्मि परू विदत्तादो । * सेसं जहा उदीरणार तहा कायव्वं ।
४५५. एदस्स अत्यो वुच्चदे-मिच्छत्त-वारसकसाय-भय-दुगुंछाणं जहण्णहिदिविहत्ती कस्स ? जो असण्णिपंचिंदिओ सागरोवमसहस्समेत्तउक्कस्सहिदिबंधादो पलिदोवमस्स संखेजदिभागेण जहा ऊणं होदि उक्स्सद्विदिसंतकम्मं तहा घादिय जहण्णहिदिसंतं करिय पुणो जहण्णसंतादो हेहा अंतोमुत्तकालं संखे०भागहीणं पुव्वं बंधमाणो अच्छिदो जहण्णहिदिसंतकदसमए चेव जहण्णहिदिसंतसमाणं बंधिय तदो से काले जहण्णहिदिसंतं बोलेदूण बंधिहिदि त्ति तावणियरगदीएसमयविग्गहं काऊण णेरइएसुबवण्णो तत्थ दोसु वि विग्गहसमएसु असण्णिपंचिंदियहिदि चेव बंधदि असण्णिउद्वेलना काण्डककी अन्तिम फालिके पतन करने पर एक समय कम आबलिप्रमाण गोपुच्छ शेष रहते हैं। पुनः उसके दो समय कम आवलिप्रमाण उन गोपुच्छोंके अधःस्थितिगलनाके द्वारा गला देने पर एक निषेककी दो समय कालप्रमाण स्थिति देखी जाती है। इससे प्रतीत होता है कि अपनी उद्वेलनाके अन्तिम समयमें सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है।
* नारकियोंमें अनन्तानुबन्धिचतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ?
६४५३ यह सूत्र सुगम है।
* विसंयोजना करने पर जिस नारकीके अनन्तानुबन्धीकी दो समय काल प्रमाण स्थिति शेष है उसके अनन्तानुबन्धीकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है।।
४५४ यह सूत्र सरल है, क्योंकि इसका कथन ओघप्ररूपणामें कर आये हैं।
नारकियोंके उपयुक्त प्रकृतियोंके अतिरिक्त शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति जिस प्रकार उदीरणामें होती है उस प्रकार कहनी चाहिये ।
६४५५. अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं-मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिविभक्ति किस नारकीके होती है ? जो असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीव हजार सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिबन्धमें से पल्योपमका संख्यातवाँ भागप्रमाण कम जिस प्रकार होवे उस प्रकार उत्कृष्ट स्थिति सत्कर्मका घात करके जघन्य स्थिति सत्कर्मको प्राप्त करता है। तथा जघन्य स्थिति सत्कर्मके नीचे पहले अन्तर्मुहूर्त कालतक पल्योपमके संख्यातवें भाग प्रमाण कम स्थितिको बांधता हुआ स्थित है पुनः जघन्य स्थितिसत्त्वके होनेके समय ही जघन्य स्थितिसत्वके समान स्थितिको बांधकर उसके अनन्तर काल में जब जघन्य स्थितिसत्वको उल्लंघकर बांधेगा तब दो समयका विग्रह करके नरकगतिमें नारकियोंमें उत्पन्न हुआ। पर वहां विग्रहके दोनों ही समयोंमें असंज्ञी
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गा० २२
द्विवित्तीए उत्तरपयडि हिदिसामित्त
પછ
पंचिदियपच्छायदस्स सण्णिपंचिंदियपज्जत्तएसु उप्पज्जिय श्रगहिदसरीरस्स अंतोकोडाकोडिदिबंध सत्ती अभावादो । तत्थ दोसु विग्गहसमएस असण्णिपंचिंदियजहण्णडिदिसंतादो सरिसमहियमृणं पि बंधदि । तत्थ एसो जहण्णडिदिसंतदो हेहा बंधावेदव्व । एवं बंधिय विदियविग्गहे वट्टमाणस्स मिच्छत्त- बारसकसाय-भय-दुगुंछाणं जहण्णहिदिविहत्ती । वरि मिच्छत्तस्स सागरोवमसहम्सं पलिदो ० संखे० भागेणूणं ।
I
साणं सागरोवमसहस्सस्स चत्तारि सत्तभागा पलिदो० संखे० भागेगा । सरीरे गहिदे जहण्णसामित्तं किण्ण दिज्जदि १ ण, तत्थ अंतोकोडा कोडिसागरोवममेत्तहिदिबंधुवलंभादो । सत्तणोकसायाणमेवं चेव । एवरि असण्णिपंचिंदियचरिमसमए सागरोवमसहस्सस्स चत्तारि सत्तभागो पलिदो० संखेज्जदिभागेणो बंधावलियादिक्कंतसमए चैव कसायहि दिसंतकम्मं असण्णिपंचिदियपाओग्गजहण्णे पडिच्छिय पुणो तत्थेव बंधवोच्छेदं करिय रिए सुप्पण्णपढमसमय पहुडि पडिवक्खपयडीओ बंधाविय पुणो
पण पडिवक्खपडिबंधगाणं चरिमसमए जहण्णडिदिविहत्तिसामित्तं होदि । तिरिक्खगइपडिवक्खपय डिबंधगद्धाओ तिरिक्खेसु चैव गालिय णेरइए सुप्पण्णपढमसमए पंचेन्द्रियकी स्थितिको ही बांधता है क्योंकि जो असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्यायसे आकर संज्ञी पंचेन्द्रियों में उत्पन्न होता है उसके शरीर ग्रहण करने के पूर्वसमय तक अन्तःकोड़ाकोड़ी. स्थितिके बन्ध करनेकी शक्ति नहीं पाई जाती है । फिर भी वहां विग्रहके दो समयोंमें असंज्ञी पंचेन्द्रियके जघन्य स्थितिसत्व के समान या उससे हीन या अधिक स्थितिका भी बन्ध करता है पर इसके जघन्य स्थितिसत्त्व से हीन स्थितिका बन्ध कराना चाहिये । इस प्रकार बांधकर जो दूसरे विग्रहमें स्थित है उस नारकीके मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिविभत्ति होती है । इतनी विशेषता है कि मिध्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति पल्यके संख्यातवें भागसे न्यून हजार सागरप्रमाण होती है । तथा शेष कर्मोंकी हजार सागरके सात भागों मेंसे पल्योपमक संख्यातवें भागसे न्यून चार भागप्रमाण होती है ।
शंका -- जिस नारकीने शरीरको ग्रहण कर लिया है उसे जघन्य स्थितिका स्वामी क्यों नहीं कहा ?
समाधान -- नहीं, क्योंकि नारकीयों के शरीर के ग्रहण करने पर अन्तः कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितिबन्ध पाया जाता है ।
सात नोकषायों को जघन्य स्थितिविभक्ति इसी प्रकार होती है । किन्तु इतनी विशेषता है जिसने संज्ञी पर्यायके रहते हुए एक हजारके सात भागों में से पल्योपमके संख्यातवें भागसे न्यून चार भाग प्रमाण कषायकी जघन्य स्थितिका बन्ध किया । पुनः बन्धावलिप्रमाण कालके व्यतीत होनेके पश्चात् तदनन्तर समय में ही असंज्ञी पंचेन्द्रियके योग्य कषायके जघन्य स्थितिसत्कर्मका विवक्षित नोकषाय में संक्रमण किया पुनः जो उस विवक्षित प्रकृतिकी वहीं असंज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याय के अन्तिम समय में बन्धव्युच्छित्ति करके नारकियों में उत्पन्न हुआ। वह यदि वहाँ उत्पन्न होने के पहले समय से लेकर प्रतिपक्ष प्रकृतियोंको बाँधता है तो उसके अपनी-अपनी प्रतिपक्ष • प्रकृतियों के बन्धकालके अन्तिम समयमें जघन्य स्थितिविभक्तिका स्वामित्व प्राप्त होता है । शंका- तिर्यंचगति सम्बन्धी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धकालको तिर्यंचों में ही बिताकर जो
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जयघवला सहिदे कसायपाहुडे
[ द्विदिविही ३
जहणडिदिसा मित्तं किण्ण दिज्जदि ? ग, तिरिक्ख गइ पडिवक्खबंगद्धा हिंतो गिरयगइपडिवक्खबंधगद्वाणं बहुवत्तादो । तेसिं बहुअतं कुदो गव्वदे ? एदम्हादो चेव जहण्णसामित्तच्चरणादो । एवं पढमपुढवि - देव० - भवण० - वाण० देवे त्ति । णवरि भवण ०वाण० सम्मत्तस्स सम्मामिच्छत्तभंगो ।
* एवं सेसासु गदीसु अणुमग्गिदव्वं ।
$ ४५६. एवं जइवसहाइरिए सूचिदअत्थस्स उच्चारणाइरियवक्खाणं वत्तइसाम । घोण च चुण्णिसुत्रेण परुविदत्तादो भेदाभावादो च ।
४५७ विदियादि जाव छट्टि त्तिमिच्छत्त - बारसकसाय - वणोक० ज० कस्स ? अण्णदरस्स जो उक्कस्साउद्विदीए उववण्णो अंतोमुहुत्रेण पढमसम्मत्तं पडि - वज्जिय पुणो अंतोमुहुत्रेण तारबंधिचक्कं विसंजोइय सम्मत्रेणेव अप्पप्पणो उक्करसाउ मणुपालिय चरिमसमयणिप्पिदमाणसम्मादिडी तस्स जहण्णद्विदिविहत्ती । सम्मामि ० - अनंताणु०४ पिरोधं । सम्मत्तस्स सम्मामिच्छतभंगो |
नारकियों में उत्पन्न होता है उसके वहाँ उत्पन्न होने के पहले समय में ही विवक्षित प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका स्वामित्व क्यों नहीं प्राप्त होता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि तिर्यंचगति सम्बन्धी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धनकालसे नरकगति सम्बन्धी प्रतिपक्ष प्रकृतियों का बन्धक काल बहुत है ।
शंका - नरकगति सम्बन्धी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका बन्धकाल बहुत है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान -- इसी जघन्य स्वामित्वसम्बन्धी उच्चारणसे जाना जाता है ।
इसी प्रकार पहली पृथिवीके नारकी, सामान्य देव, भवनवासी और व्यन्तर देवोंके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिध्यात्वके समान है । अर्थात् भवनवासी और व्यन्तर देवोंके सम्यक्त्वकी उद्व ेलनाके अन्तिम समय में उसकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है ।
ॐ इसी प्रकार शेष गतियोंमें विचार कर समझना चाहिये ।
९ ४५६. इस प्रकार यतिवृषभ आचार्यके द्वारा सूचित अर्थका जो उच्चारणाचार्यने व्याख्यान किया है, उसे बताते हैं फिर भी यहाँ पर उच्चारणाचार्य के द्वारा कहे गये ओधका कथन नहीं करते हैं, क्योंकि उसका कथन चूर्णिसूत्र के द्वारा किया जा चुका है तथा उससे इसमें कोई भेद भी नहीं है । ६४५७. दूसरी पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवीतक मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायों की जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? जो उत्कृष्ट आयुको लेकर द्वितीयादिक पृथिवियोंमें उत्पन्न हुआ है और अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा प्रथम सम्यक्त्वको प्राप्त करके पुनः अन्तर्मुहूर्त काल के द्वारा अनन्तानुबन्ध चतुष्ककी विसंयोजना करके सम्यक्त्वके साथ ही अपनी-अपनी उत्कृष्ट आयुका पालन करके नरकसे निकला है उस सम्यग्दृष्टिके नरकसे निकलनेके अन्तिम समयमें जघन्य स्थितिविभक्ति होती है । सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्ति सामान्य नारकियोंके समान है । तथा सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्व के समान है ।
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गा० २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिडिदिसामित्त
રક્ષક ४५८. सत्तमाए पुढवीए मिच्छत्त-बारसक० जहरू कस्स ? अण्ण० जो उक्कसाउहिदि बंधिय सत्तमाए उववएणो । पुणो अंतोमुहुत्तेण सम्म पडिवज्जिय अवरेण अंतोमुहुत्तेण अणंताणुबंधिचउक्क विसंजोइय थोवावसेसे जीविए मिच्छनं गदो। मिच्छशेण जावदि सक्कं तावदियकालं हिदिसंतकम्मस्स हेढदो बंधिय समहिदि बोलेहदि त्ति तस्स जहण्णहिदिविहत्ती । भयदुगुंछाणमेवं चेव । णवरि समहिदि बंधिय आवलियाइक्कंतस्स तस्स जहण्णहिदिविहत्ती। सत्तणोक० एवं चेव । णवरि पडिवक्खबंधगद्धाश्री बंधाविय तेसिं चरिमसमए वतस्स जहण्णहिदिविहत्ती । सम्मत्त०-सम्मामि०-अणंताणुछउक्काणं विदियपुढविभंगो।
४५९. तिरिक्खेसु मिच्छत्त-वारसक० ज० कस्स ? अण्ण० जो बादरएइंदिओ जहासत्तीए डिदिघादं कादूण जावदियं सक्कं तावदियं कालं हिदिसंतकम्मस्स हेहा बंधिय समद्विदिबंधं से काले वोलेहदि दिा तस्स जहण्णहिदिविहत्ती । भय-दुगुंठाणमेवं चेव । णवरि समद्विदिबंधादो आवलियाइक्कतस्स । सत्तणोकसाय. जह० कस्स ? अण्ण० जो बादरेइंदिनो समद्विदिबंधमाणकाले पंचिंदियतिरिक्खेसु उववण्णो दीहपडिवक्खबंधगद्धामेत्तहिदिगालणह अंतोमहुचेण अप्पप्पणो पडिवक्खबंधगद्धाणचरिमसमए
Swarranwwwnnar
६४५८. सातवी पृथिवीमें मिथ्यात्व और बारह कषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? जो उत्कृष्ट आयुको बाँधकर सातवीं पृथिवीमें उत्पन्न हुआ है। पुनः अन्तमुहूर्त कालके द्वारा सम्यक्त्वको प्राप्त होकर एक दूसरे अन्तर्मुहूर्तके द्वारा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करके जीवितके थोडा शेष रहने पर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। पनः मिथ्यात्व में जितने कालतक शक्य हो उतने कालतक स्थितिसत्कर्मसे कम स्थितिका बन्ध करके जो अगले समयमें सत्त्वस्थितिसे अधिक बन्धस्थिति करेगा उसके जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। भय और जुगुप्साकी इसी प्रकार जाननी चाहिये। इतनी विशेषता है कि समान स्थितिको बाँधकर एक आवलीप्रमाण कालको अतिक्रान्त करनेवाले जीवके जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। सात नोकषायोंकी इसी प्रकार जाननी चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धक कालतक उन्हें बँधाकर उनके अन्तिम समयमें रहनेवाले जीवके जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। यहाँ सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग दूसरी पृथिवीके समान है।
४५६. तिर्यंचोंमें मिथ्यात्व और बारह कषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? जो कोई बादर एकेन्द्रिय नीव शक्त्यनुसार स्थितिघात करके जितने कालतक शक्य हो उतने कालतक स्थितिसत्कर्मसे हीन नवीन स्थितिको बाँधकर अनन्तर समयमें समान स्थितिबन्धको उल्लंघन करेगा उसके जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। भय और जुगुप्साकी इसी प्रकार जाननी चाहिये। किन्तु इतनी विशेता है कि समान स्थितिबन्धके बाद जिसने एक आवली काल व्यतीत कर दिया है उसके जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? जो कोई एक बादरएकेन्द्रिय जीव स्थितिसत्त्वके समान स्थितिबन्धके होनेके समय पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंमें उत्पन्न हुआ। पुनः दीर्घ प्रतिपक्ष बन्धक कालप्रमाण स्थितियोंको गलानेके लिये अन्तमुहूर्त कालतक अपने-अपने प्रतिपक्ष बन्धककाल में रहकर प्रतिपक्ष बन्धककाल
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२६०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [विदिविहत्ती ३ जो वट्टमाणी तस्स जहण्णहिदिविहनी । सम्मत-सम्मामि०-अणंताणु० चउक्काणं णिरओघं ।
४६०. पंचिंदियतिरिक्ख – पंचिंतिरिक्वपज्जत - पंचि०तिरि जोणिणीसु मिच्छन-बारसक-भय-दुगुंछाणं ज० कस्स ? अण्ण • जो बादरेइंदिओ हदसमुप्पत्तियकम्मेण पंचिंदियतिरिक्खेसु उववण्णो तस्स पढमविदियविग्गहे वट्टमाणस्स जहण्णहिदिविहत्ती । सम्मत्त०-सम्मामिच्छन-अणंताणु चउक्काणं तिरिक्खोघं । सत्तणोक० ज० कस्स ? अण्ण जो बादरेइंदिओ हदसमुप्पत्तियकम्मेण पंचिंदियतिरिक्खेसु उववण्णो एवमुववज्जिय अंतोमुहुत्तमच्छिय से काले अप्पणो बंधमाढविहदि चि तस्स जहण्ण हिदिविहत्ती । णवरि पंचिंदियतिरिक्वजोणिणीसु सम्मत्तस्स सम्मामिच्छत्तभंगो । पंचिं तिरि अपज्जा पंचिंतिरि०जोणिणीभंगो। णवरि अणंताणु०चउक्कस्स मिच्छत्तभंगो । एवं मणुसअपज्ज०-सव्वविगलिंदिय-पंचिं०अपज्ज-तसअपज्जचे शि।
४६१. मणुसिणीसु अहणोक० ज० कस्स ? अण्ण. अणियट्टिखवयस्स चरिमहिदिखंडए वट्टमाणस्स जहण्णहिदिविहती । सेसमोघं ।।
४६२. जोइसि० विदियपुढविभंगो । सोहम्मादि जाव उपरिमगेवज्जो ति मिच्छच० ज० कस्स ? अण्ण. जो दो बारे कसाए उवसामेदूण चउवीससंतकम्मिश्रो के अन्तिम समयमें जो विद्यमान है उसके जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्ति सामान्य नारकियोंके समान है।
४६०. पंचेन्द्रिय तियेंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती जीवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? जो कोई एक बादर एकेन्द्रिय जीव हतसमुत्पत्ति कर्मके साथ पंचेन्द्रिय तियचोंमें उत्पन्न हुआ। पहले और दूसरे विग्रहमें विद्यमान उस जीवके उक्त कमोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्ति सामान्य तियेंचोंके समान है। सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? जो कोई एक बादर एकेन्द्रिय जीव हतसमुत्पत्तिक कर्मके साथ पंचेन्द्रिय तियचोंमें उत्पन्न हुआ । वहाँ इस प्रकार उत्पन्न होकर और अन्तर्मुहूर्त कालतक वहाँ रहकर तदनन्तर कालमें अपने बन्धका
आरम्भ करेगा उसके जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। इतनी विशेषता है कि पंचेन्द्रिय योनिमती तियंचोंमें सम्यक्त्व प्रकृतिका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है। पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंमें पंचेन्द्रिय तियेच योनिमतीके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग मिथ्यात्वके समान है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और त्रस अपर्याप्तकोंके जानना चाहिये। .
६४६१. मनुष्यनियोंमें आठ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? अन्तिम स्थितिकाण्डकमें विद्यमान किसी अनिवृत्तिकरण क्षपकके होती है । शेष कथन ओघके समान है ।
६४६२. ज्योतिषियोंमें दूसरी पृथिवीके समान भंग है। सौधर्म कल्पसे लेकर उपरिम वेयक वकके जीवोंमें मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? दो बार कषायों को
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गा०२२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिसामित्तं
२६१ . उक्कस्साउडिदिएसु अप्पप्पणो विमाणेसु. उववज्जिय चरिमसममयणिप्फिदमाणो तस्स जहण्णहिदिविहत्ती। सम्मत्त-सम्मामि०अणंताणु०चउक्काणं णिरोधभंगो । बारसक०. णवणोक० ज० कस्स ? अण्ण० जो संजदो जहासंभवेण उवसमसेटिं चडिय हेहा ओयरिय दंसणमोहणीयं खविय उक्कस्साउएण अप्पप्पणो विमाणेसु उववण्णो तस्स चरिमसमयणिफिदमाणस्स जहण्णहिदिविहत्ती । अणुदिसादि जाव सवढे ति एवं चेव । णवरि सम्मामि० मिच्छत्तभंगो।
४६३. एईदिएसु मिच्छत्त-बारसकसाय-भय-दुगुंछा-सम्मामिच्छचाणं तिरिक्खोघं । अणंताण चउक० गिच्छित्तभंगो । सत्तणोक० ज० कस्स ? जो एइंदिओ हदसमुप्पत्तियं कादूण समहिदि बंधिय अंतोमुहुत्तमच्छिय से काले अप्पप्पणो बंधमाढवेहदि त्ति तस्स जहण्णहिदिविहत्ती । सम्मत्त० सम्मामिच्छत्तभंगो। एवं सव्वएइ दिय-पंचकाए ति ।
४६४. ओरालियमिस्स० तिरिक्खोघं । णवरि अणंताणु० चउक्क० मिच्छत्तभंगो । वेउव्विय० सोहम्मभंगो । णवरि सम्मत्तस्स सम्मामिच्छत्तभंगो।।
४६५. वेउब्धियमिस्स० मिच्छत्त० ज० कस्स ! अण्ण. जो जहासंभवेण उपशमा कर जो कोई जीव चौबीस कर्मोकी सत्तावाला होता हुआ उत्कृष्ट आयुको लकर अपने अपने विमानोंमें उत्पन्न हुआ उसके वहांसे निकलनेके अन्तिम समयमें जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्ति सामान्य नारकियोंके समान है । बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? जो कोई संयत यथासंभव उपशमश्रेणी पर चढ़कर और नीचे उतर कर तथा दर्शनमोहनीयका क्षय करके उत्कृष्ट अायुके साथ अपने अपने विमानोंमें उत्पन्न हुआ उसके वहाँसे निकलनेके अन्तिम समयमें जघन्य स्थितिविभक्ति होती है । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितक इसी प्रकार कथन करना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके सम्यग्मिथ्यात्वका भंग मिथ्यात्वके समान है।
६४६३ एकेन्द्रियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय, जुगुप्सा और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति सामान्य तिर्यचोंके समान है। अनन्तानबन्धी चतुष्कका भंग मिथ्यात्वके समान है। सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? जो एकेन्द्रिय हतसमुत्पत्तिक होकर, समान स्थितिको बांधकर और अन्तर्मुहूर्त काल तक रह कर तदनन्तर समयमें अपने अपने बन्धको आरम्भ करेगा उसके जघन्य स्थिति विभक्ति होती है । सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है । इसी प्रकार सब एकेन्द्रिय और पांच स्थावरकाय जीवोंके जानना चाहिये।
४६४ औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके जघन्य स्थितिविभक्ति सामान्य तिर्यंचोंके समान है। इतनी विशेषता है कि इनके अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग मिथ्यात्वके समान है । वैक्रियिक काययोगमें सौधर्मके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि इसमें सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्व के समान है।
६४६५. वैक्रियिक मिश्रकाययोगी जीवोंमें मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती
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२६२
. जयघवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ उवसमसेढिं चडिदूण देवेसु उववण्णो से काले सरीर पज्जत्ति गाहिदि त्ति तस्स जहण्णहिदिविहत्ती । अणंताणु०चउक्क० ज० कस्स ? अण्ण. जो अहावीससंतकम्मिओ संजदो देवेसुववण्णो से काले सरीरपज्जतिं गाहदि त्ति तस्स जहण्णहिदि विहत्ती । बारसक०-भय-दुगुछ० मिच्छत्तभंगो। णवरि खइयसम्माइटी देवेसु उप्पाएदव्यो । सम्मत्त-सम्मामि०-सत्तणोक० पढमपुढविभंगो ।
४६६. आहार० मिच्छत्त-समत्त-सम्मामि० ज० कस्स ? अण्ण. जो चउबीससंतकम्मिश्रो चरिमसमयाहारसरीरो तस्स जहण्णहिदिविहत्ती । एवं बारसक०-णनणोक० । वरि खइयसम्मादिहिस्स वत्तव्वं । अणंताणु० ४ ज० कस्स ? अण्ण. अट्ठावीससंतकम्मियस्स । एवमाहारमिस्स० । णवरि से काले सरीरपज्जनिं गाहदि त्ति तस्स जहण्णहिदिविहत्ती।
४६७. कम्मइय० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० ज० कस्स ? अण्ण. जो बादरेइंदिश्रो हदसमुप्पत्तियकम्मेण विदियं विग्गहं गदो तस्स जहण्णहिदिविहत्ती । सम्मत्त-सम्मामि० ओघं । णवरि सम्मामि० उव्वेल्लणाए कायव्वं ।
४६८. वेदाणुवादेण इत्थिवेदे मणुस्सिणीभंगो। णवरि सत्तणोक०-चत्तारि है ? जो यथासंभव उपशमश्रेणी पर चढ़कर देवोंमें उत्पन्न हुआ और तदन्तर कालमें शरीर पर्याप्ति को प्राप्त होगा उसके जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थिति विभक्ति किसके होती है ? अट्ठाइस सत्कर्मवाला जो कोई एक संयत जीव देवोंमें उत्पन्न होकर तदन्तर समयमें शरीरपर्याप्तिको प्राप्त होगा उसके जवन्य स्थितिविभक्ति होती है। इनके बारह कषाय, भय और जुगुप्साका भंग मिथ्यात्वके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनकी जघन्य स्थितिविभक्ति कहते समय क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीवको देवोंमें उत्पन्न कराना चाहिये । तथा सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सात नोकषायोंका भंग पहली पृथिवीके समान है।
६४६६. आहारककाययोगियोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? जो चौबीस सत्कर्मवाला जीव आहारकशरीरी हुआ उसके अन्तिम समयमें जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। इसी प्रकार बारह कषाय और नौ नोकषायोंका कथन करना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इन कर्मोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवके कहनी चाहिये । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? अट्ठाईस सत्कर्मवाले किसी एक जीवके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। इसी प्रकार आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके कहना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि जो तदनन्तर कालमें शरीर पर्याप्तिको प्राप्त करेगा उसके जघन्य स्थितिविभक्ति होती है।
१४६७ कार्मण काययोगियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? जो कोई एक बाहर एकेन्द्रिय जीव हतसमुत्पत्तिक कर्मके साथ द्वितीय विग्रहको प्राप्त हुआ है उसके जघन्य स्थितिविरक्ति होती है। इसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति ओघके समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति उद्वेलनामें कहनी चाहिये।
६४६८. वेद मार्गणाके अनुवादसे स्त्रीवेदमें मनुष्यनीके समान भंग है। किन्तु इतनी
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गा० २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिष्ठिदिसामित्त
२६३ संजलण० जह० कस्स ? अण्ण० अणियट्टिखवयस्स सवेदचरिमसमए वट्टमाणस्स जहण्णद्विदिविहत्ती । एवं गवुस । णवरि इत्थिवेद चरिमहिदिखंडए वट्टमाणस्स । पुरिस० पंचिंदियभंगो । वरि चत्तारिसंजलण-पुरिस० ज० कस्स ? अण्ण० सवेदचरिमसमए वट्टमाणस्स जहण्णहिदिविहत्ती। इत्थि-णवुस० ज० कस्स ? अण्ण. अणियट्टिखवयस्स चरिमद्विदिखंडए वट्टमाणस्स । अवगद० मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि० ज० कस्स ? अण्ण० जो चउबीससंतकम्मिो उवसमसेढिमारुहिय ओयरमाणो से काले सवेदो होहदि ति तस्स जहण्णहिदिविहत्ती । एवमहकसाय-इत्थि०-णवुस । णवरि खइय०दिहिस्स वत्तव्वं । सत्तणोक०-चचारिसंज० ओघं ।
४६९. कसायाणुवादेण कोधक० ओघं । णवरि अणियट्टिम्मि चरिमसमयकोधकसायम्मि चदुण्णं संजलणाणं जहण्णहिदिविहत्ती । एवं माण० । णवरि तिण्हं संजलणाणं चरिमसमयमाणवेदयस्स जहण्णहिदिविहत्ती। एवं माय० । णवरि दोण्हं संजलणाणं चरिमसमयमायवेदयस्स जहण्णहिदिविहत्ती। अकसा० मिच्छत्त-सम्मत्तसम्मामिच्छत्त० जह० क० ? अण्ण० चउबीससंतकम्मिो जो से काले सकसाओ
विशेषता है कि सात नोकषाय और चार संज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? सवेद भागके अन्तिम समयमें विद्यमान अन्यतर अनिवृत्तिकरण क्षपकके जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। इसी प्रकार नपुंसकवेदीके जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि अन्तिम स्थितिकाण्डकमें विद्यमान जीवके स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। पुरुषवेदीके पंचेन्द्रियके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि चार संज्वलन और पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? सवेद भागके अन्तिम समयमें विद्यमान किसी जीवके जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। स्त्रीवेद और नपुसकवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? अन्तिम स्थितिकाण्डमें विद्यमान अन्यतर अनिवृत्तिकरण क्षपकके जघन्य स्थितिविभक्ति होती है । अपगतवेदमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? चौबीस सत्कर्म वाला जो कोई जीव उपशमश्रेणी पर चढ़कर और उतरता हुआ तदनन्तर कालमें सवेदी होगा उसके जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। इसी प्रकार आठ कषाय, स्त्रीवेद और नपुसकवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति जाननी चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनकी जघन्य स्थितिविभक्ति क्षायिकसम्यग्दृष्टिके कहनी चाहिये । तथा सात नोकषाय और चार संज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्ति ओघके समान है।
६४६६. कषायमार्गणाके अनुवादसे क्रोधकषायमें जघन्य स्थितिविभक्ति ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अनिवृत्तिकरणमें क्रोध कषायके अन्तिम समयमें चार संज्वलनों की जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। इसी प्रकार मानकषायमें जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि मानवेदकके अन्तिम समयमें तीन संज्वलनोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। इसी प्रकार माया कषायमें जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि मायावेदकके अन्तिम समयमें दो संज्वलनोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। अकषायी जीवमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? जो कोई एक जीव चौबीस
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जलसहिदे कसा पाहुडे
[ द्विदिहिती ३
होहदि ति तस्स जह० हिदिविहत्ती । एव बारसक० - रावणोक ० । वरि खइय० दिडीसु
वत्तव्वं । एवं जहाक्खाद० ।
४७०. मदि- सुदअण्णाणीणं तिरिक्खोघं । णवरि सम्मत - श्रताणु ० चउक्क० एइ दियभंगी । एत्रमसण्णि० । विहंगणाणीसु मिच्छत्त० - सोलसक० -गवणोक० ज० कस्स १ अण्णद० जो उवरिमगेवज्जम्मि मिच्छतं गदो चरिमसमयणिप्पिदमाणओ तस्स जहणडिदिविहत्ती | सम्मत० - सम्मामि एइंदियभंगो |
$ ४७१, आभिणि०- मुद० श्रहि० श्रघं । णवरि सम्मामि० जह० खवरणाए दायव्वं । एवं संजद० - हिदंस०- सम्मादिट्टि ति । मरणपज्जव० एव चेव । णवरि इत्थि० - वुस ० पुरिस० भंगो ।
९ ४७२. सामाइय-छेदो० ओहिभंगी । णवरि लोहसंजल ० जह० कस्स ? अण्ण० चरिमसमयम्मि अणियट्टिक्ववयस्स । परिहार० मिच्छत्त-सम्मत - सम्मामि० श्रणंताणु० चउक० श्रहिभंगो । बारसक० - रावणोक० जह० क० १ जो खइयसम्मादिही जहासंभवेण उवसमसेटिं चढिय प्रोयरिय परिणामपच्चएण परिहार० जादो से काले सत्कर्मवाला तदनन्तर कालमें सकषायी होगा उसके उक्त कर्मोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है । इसी प्रकार बारह कषाय और नौ नोकषयोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति जाननी चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनकी जघन्य स्थितिविभक्ति क्षायिकसम्यग्दृष्टियों के कहनी चाहिये। इसी प्रकार यथाख्यातसंयतों के जानना चाहिये ।
६ ४७० मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी के सामान्य तिर्यंचोंके समान जघन्य स्थितिविभक्ति होती है । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्ति एकेन्द्रियों के समान होती है । इसी प्रकार असंज्ञी पचेन्द्रियके जानना चाहिये । विभंगज्ञानियों में मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितित्रिभक्ति किसके होती है ? जो कोई एक उपरिमयैवेयक में मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ है उसके वहांसे निकलनेके अन्तिम समयमें उक्त कर्मोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वका भंग एकेन्द्रियों के समान है ।
१४७१, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंके श्रोघके समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यग्मिध्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति केवल क्षपकके कहनी चाहिये। इसी प्रकार संयत, अवधिदर्शनवाले और सम्यग्दृष्टि जीवों के जानना चाहिये । मनः पर्ययज्ञानमें भी इसी प्रकार कहना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका भंग पुरुषवेदके समान है ।
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९४७२. सामायिक और छेदोपस्थापना संयममें अवधिज्ञानके समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें लोभसंज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? किसी अनिवृत्तिकरण क्षपक जीवके अन्तिम समयमें लोभ संज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है । परिहार विशुद्धिसंयममें मिध्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्ति अवधिज्ञानियोंके समान होती है। तथा बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? जो क्षायिक सम्यग्यदृष्टि जीव यथायोग्य उपशम श्रेणी पर चढ़कर और उतरकर परिणामों के अनुसार परिहारविशुद्धिसंयत हो गया और तदनन्तर कालमें क्षपक
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गा० २२ ] द्विदिविहत्तीए उरपयडिद्विदिसामित्त
२६५ खवगसेढिअभिमुहो होहदि चि तस्स जहण्णहिदिविहत्ती । एवं संजदासजद० । णवरि से काले संजम पडिवज्जिदूण अंतोमुहुत्तेण सिझहिदि ति तस्स जहण्णहिदिविहत्ती। सुहुमसांपराइय० अकसाइभंगो। णवरि लोभसंजल० ओघं । असंजद. तिरिक्खोघं । णवरि मिच्छत्त०-सम्मामि० ओघं ।
४७३. तिएिणले० तिरिक्खोघं । णवरि किण्ह-णीललेस्सासु सम्मत्त. सम्मामिच्छत्तभंगो । अणंताणु०चउक्क० ओघं । सेसलेस्साणं परिहार भंगो । अभव० छब्बीसपयडीणं मदिअण्णाणिभगो।
४७५. खइय० एक्कवीस. ओहिभंगो । वेदयसम्मादि० मिच्छत्त-सम्मामि० अणंताणु चउक्कं ओघं । णवरि सम्मामि० उव्वेल्लणाए णत्थि । सम्मत-बारसक०णवणोक० ज० कस्स ? अण्ण० चरिमसमयअक्खीणदसणमोहणीयस्स ।
४७५. उवसम० मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-बारसक०-णवणोक० जह क० १ अण्ण्ण० जहासंभवेण उवसमसेढिं चडिय सव्वुक्कस्समंतोमुहुत्तद्धमच्छिय से काले वेदगं पडिवज्जिहदि त्ति तस्स जहण्णहिदि विहत्ती । अणंताणु०चउक्क० ज० श्रेणीके सन्मुख होगा उस परिहारविशुद्धिसंयतके जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। इसी प्रकार संयतासंयतोंके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि जो संयतासंयत तदनन्तर कालमें संयमको प्राप्त होकर अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा सिद्ध होगा उसके जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। सूक्ष्मसांपरायिक संयत जीवोंके कषायरहित जीवोंके समान जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके लोभसंज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्ति ओघके समान है। असंयतोंके सामान्य तिर्यंचोंके समान सब कर्मोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति जाननी चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है, कि इनके मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति ओघके समान है।
४७३. कृष्णादि तीन लेश्याओंमें सामान्य तिर्यञ्चोंके समान जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। किन्तु इतनी विशेषता है कि कृष्ण और नीललेश्यामें सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है। तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थिति ओषके समान है। शेष लेश्याओंमें जघन्य स्थितिविभक्ति परिहारविशुद्धि संयमके समान है । अभव्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति मत्यज्ञानियोंके समान है।
६४७४. क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें इक्कीस प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति अवधिज्ञानियों के समान है। वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्ति ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति उद्वेलनामें नहीं होती, क्योंकि यहाँ उसकी उद्वेलना संभव नहीं है। सम्यक्त्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? जिसने दर्शनमोहनीयका क्षय नहीं किया है ऐसे किसी जीवके दर्शनमोहनीयके क्षय होनेके अन्तिम समयमें उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है।
४७५ उपशमसम्यक्त्वमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? यथासंभव जो कोई जीव उपशमश्रेणी पर चढ़कर और सबसे उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कालतक वहाँ रहकर तदनन्तर समयमें वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त होगा
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहची ३ कस्स ? अण्ण. दसणमोहउवसामयस्स से काले वेदयं पडिवजहिदि त्ति तस्स ज. हिदिविहत्ती । अधवा विसंजोएमाणस्स एयहिदिदुसमयकालमेचे सेसे ।
४७६ सासण. सव्वपयडीणं जहण्ण कस्स ? अण्ण जो चारित्तमोहउवसामो सासणं पडिवण्णो से काले मिच्छ गाहदि त्ति तस्स जहिदिविहत्ती । सम्मामिच्छा० मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० ज० कस्स ? अण्ण० चउवीससंतकम्मियस्स सम्मामिच्छत् पडिवण्णस्स चरिमसमयसम्मामिच्छादिहिस्स | सम्मत्त-सम्माभि• जह० कस्स ? अण्ण० सागरोवमपुधत्तसंतकम्मेण सम्मामिच्छत्तं पडिवज्जिय जो चरिमसमयसम्मामिच्छादिही जादो तस्स० जह विहत्ती । अणंताणू० चउक्क० ज० कस्स ? अण्ण. अहावीससंतकम्मिश्रो चरिमसमयसम्मामिच्छादिही तस्स ज० विहत्ती । मिच्छादि० एइदियभंगो । अणाहारि० कम्मइयभंगो ।
एवं सामित्ताणुगमो समत्तो। * [ कालो।]
४७७. कालाणुगमेण दुविहो जिद्द सो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेणउसके जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? दर्शनमोहनीयका उपशामक जो कोई जीव तदनन्तर कालमें वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त होगा उसके अनन्तानबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। अथवा विसंयोजना करनेवाले जीवके एकस्थितिके दो समय कालप्रमाण शेष रहनेपर अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। .
६४७६. सासादन सम्यक्त्वमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? चारित्रमोहनीयकी उपशमना करनेवाला जो कोई जीव सासादनको प्राप्त हुआ है और तदनन्तर समयमें मिथ्यात्वको प्राप्त होगा उसके सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। सम्यरमिथ्यात्वमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? जो कोई चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ है उसके सम्यग्मिथ्यात्वके अन्तिम समयमें उक्त कर्मोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? सागरपृथक्त्वप्रमाण सत्कर्मवाला जो कोई जीव सम्यगमिथ्यात्वको प्राप्त होकर जो अन्तिम समयवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टि है उसके उक्त कर्मोकी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। अनन्तानुबन्धी चतुष्कको जघन्य स्थितिविभक्ति किसके होती है ? अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जो कोई जीव सम्यग्मिध्यादृष्टि हो गया है उसके सम्यग्मिथ्या वके अन्तिम समयमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्ति होती है। मिथ्यादृष्टिके एकेन्द्रियोंके समान भंग है। अनाहारकोंके कार्मणकाययोगियोंके समान भंग है।
इस प्रकार स्वामित्वानुगम समाप्त हुआ। ॐ कालका अधिकार है।
६४७७. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे श्रोघकी अपेक्षा
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गा० २२]
हिदिविहत्तीए उरपयडिद्विदिसामित्त मिच्छत्तस्स उकस्सहिदिसंतकम्मिओ कवचिरं कालादो होदि १
४७८. एत्थ मिच्छत्तग्गहणेण सेसपयडिपडिसेहो कदो । उक्कस्सग्गहणेण जहण्णडिदिपडिसेहो कदो । सेसं सुगमं ।
* जहण्णण एगसमओ ।
४७ . कुदो १ एगसमयमुक्कस्सहिदि बंधिय विदियसमए पडिहग्गस्स उक्कस्सहिदीए एगसमयकालुवलंभादो । विदियसमए हिदिखंडयघादेण विणा कथमुक्कस्सत्तं फिट्टदि ? ण अधहिदिगलणाए एगसमए गलिदे उक्कस्सत्ताभावादी । उक्कस्सहिदिसमयपबद्धस्स एगो वि णिसेगो ण गलिदो; सत्तवाससहस्समेत्तआबाहाए उवरि तस्स अवहाणादो । गलिदणिसेगो वि चिराणसंतकम्मस्स । तम्हा जाव हिदिखंडओ ण पददि ताव उक्कस्सहिदिसंतकम्मेण होदव्वमिदि ? ण एस दोसो, जहण्णहिदिअद्धाछेदो णिसेगपहाणो। तं कथं णव्वदे? कोधसंजलणस्स जहण्णहिदिअद्धाछेदो वेमासा अंतोमुहुत्तणा त्ति सुत्तणिद्देसादो। उक्कस्सहिदी पुण कालपहाणा तेण णिसेगेण विणा एगसमए गलिदे वि उक्कस्सत्तं फिट्टदि । तदो जहण्णकालस्स सिद्धमेगसमय ।
* मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति सत्कर्मवाले जीवका कितना काल है ?
४७८ यहाँ सूत्रमें मिथ्यात्व पदके ग्रहण करनेसे शेष प्रकृतियोंका निषेध कर दिया है। उत्कृष्ट पदके ग्रहण करनेसे जघन्य स्थितिका निषेध कर दिया है । शेष कथन सुगम है ।
* जघन्य काल एक समय है। $ ४७६. शंका-जघन्य काल एक समय क्यों है ।
समाधान—क्योंकि एक समयतक उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर दूसरे समयमें उत्कृष्ट संक्लेशसे च्युत प्राप्त हुए जीवके उत्कृष्ट स्थितिका एक समय प्रमाण काल पाया जाता है।
शंका-दूसरे समयमें स्थितिकाण्डकघातके विना स्थितिके उत्कृष्टत्वका नाश कैसे हो जाता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि अधःस्थितिगलनाके द्वारा एक समयके गल जाने पर स्थितिमें उकृष्टत्व नहीं रहता ह।
शंका-उत्कृष्टस्थितिप्रमाण समयप्रबद्धका एक भी निषेक नहीं गला है, क्योंकि सात हजार वर्षप्रमाण आबाधाके बाद निषेक पाया जाता है और जो निषेक गला भी है वह सत्तामें स्थित प्राचीन सत्कर्मका है अतः जबतक स्थितिकाण्डकका पतन नहीं होता है तबतक उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म होना चाहिये ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जघन्य स्थितिअद्धाच्छेद निषेकप्रधान है। शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-क्रोध संज्वलनका जघन्य स्थितिअद्धाच्छेद अन्तमुहूर्त कम दो महीना प्रमाण है इस सूत्रके निर्देशसे जाना जाता है। किन्तु उत्कृष्ट स्थिति कालप्रधान है, इसलिये निषेकके बिना एक समयके गल जाने पर भी उत्कृष्ट स्थितिके उत्कृष्टत्वका नाश हो जाता है, अतः उत्कृष्ठ स्थितिका जघन्यकाल एक समय है यह बात सिद्ध होजाती है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ * उक्कसेण अंतोमुहुत्तं ।
$ ४८०. कुदो ? दाहहिदि बंधमाणो उकस्सदाहं गंतूण उकस्सहिदि बंधदि; तिस्से बंधकालस्स उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तपमाणत्तादो ।
* एवं सोलसकसायाण। $ ४८१. मिच्छत्तस्सेव सोलसकसायाणमुक्कस्सहिदिकालो जहण्णेण एगसमओ,
विशेषार्थ यहां मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति जघन्य रूपसे कितने काल तक पाई जाती है इसका विचार किया है। बात यह है कि जब कोई एक जीव मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके दूसरे समयमें उत्कृष्ट स्थिति के बन्धके योग्य उत्कृष्ट संक्लेशरूप परिणामोंसे च्युत होकर विशुद्धि को प्राप्त होने लगता है तो उसके उत्कृष्ट स्थितिका सत्त्व एक समय तक देखा जाता है; क्योंकि दूसरे समयमें उसमें से एक समय कम हो जाता है, इसलिये उसमें उत्कृष्ट स्थितिपना नहीं रहता है। इस विषयमें शंकाकारका कहना यह है कि एक तो स्थितिकाण्डकघातसे स्थिति कम होती है और दूसरे प्रथमादि निषेकोंके गल जानेसे स्थिति कम होती है। किन्तु मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्ध होनेके दूसरे समयमें न तो उसका स्थितिकाण्डकघात ही होता है; क्योंकि बन्धावलि सकल करणोंके अयोग्य होती है ऐसा नियम है और न प्रथमादि निषेक ही गलते हैं, क्योंकि मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका आबाधाकाल सात हजार वर्ष है और आबाधाकालमें निषेक रचना नहीं होती, अतः सात हजार वर्षके समयोंको छोड़ कर ही प्रथमादि निषेकों का सदभाव पाया जाता है। यद्यपि उत्कृष्ट स्थितिबन्धके समय और बादमें निषेक गलते हैं पर वे नवीन स्थितिबन्धके न होकर प्राचीन सत्कर्म के होते हैं, अतः जिस समय मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है उस समय उसकी उत्कृष्ट स्थितिका न तो स्थितिकाण्डक घात ही हो रहा है और न प्रथमादि निषेक ही गलते हैं यह सच है, फिर भी उत्कृष्ट स्थिति निषेकप्रधान न होकर कालप्रधान होती है. अतः दसरे समयमें सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर में से एक समय कम होजानेके कारण उसमें उत्कृष्ट स्थितिपना नहीं रहता। हां जघन्य स्थिति अवश्य निषेकप्रधान होती है, यदि ऐसा न माना जाय तो क्रोधसंज्वलनकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त कम दो महीना नहीं बन सकती है, क्योंकि यह क्रोधसंज्वलनके अन्तिम काण्डककी अन्तिम फालिकी स्थिति है जो कि उसी समय मान संज्वलनरूपसे संक्रमित हो जाती है। अतः कालकी अपेक्षा वह क्रोधरूप एक ही समय रही पर उस समय उस अन्तिम फालिमें निषेक अवश्य अन्तमुतहूर्त कम दो माहके समय प्रमाण होते हैं और इसलिये इस अन्तिम फालिकी जघन्य स्थिति अन्तमुहूर्त कम दो माह कही जाती है । उक्त कथनका सार यह है कि उत्कृष्ट स्थितिमें कालकी प्रधानता है और जघन्य स्थितिमें निषेकोंकी। अतः सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरमें से एक समयके घट जाने पर भी मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति नहीं रहती।
* उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। ६४८०. शंका-उकृष्ट काल अन्मुहूर्त क्यों है ?
समाधान-क्योंकि, दाहस्थितिको बाँधनेवाला जीव उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है तब उस उत्कृष्ट स्थितिके बन्धकालका उत्कृष्ट प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है। ___* इसी प्रकार सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका काल जानना चाहिये ।
६४८१. मिथ्यात्वके समान सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्यकाल एक समय
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गा० २२]
द्विदिविहत्तीए उरपयडिष्टिदिसामित्तं २६६ उक्कस्सेण अंतोमुहुत्तमेत्तो; परपयडीदो संकेतहिदीए विणा सगुक्कस्सबंध चेव अस्सिदूण उक्कस्सहिदिग्गहणादो।
* णवंसयवेद-अरदि-सोग-भय-दुगुंछाणमेवं चेव ।
$ ४८२. एगसमयमेत्तजहण्णकालेण अंतोम हुत्तमेत्तुक्कस्सकालेण च सोलसकसाएहितो भेदाभावादो। कसायउक्कस्सहिदीए बंधावलियादिक्कताए अप्पप्पणो उवरि संकेताए उकस्सहिदि पडिवज्जमाणाणं णोकसायाणं कथं कालेण समाणदा ? ण, उक्कस्सबंधेण सह अविरुद्धबंधाणं बंधकमेणेव पडिच्छिदउक्कस्सहिदिसंतकम्माणं कालेण समाणत्ताविरोहादो।
और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है; क्योंकि यहाँ पर प्रकृतिसे संक्रमण होकर प्राप्त होनेवाली स्थितिको छोड़कर अपने उत्कृष्ट बन्धकी अपेक्षा ही उत्कृष्ट स्थितिका ग्रहण किया है।
विशेषार्थ-पहले मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके उत्कृष्ट कालका निर्देश करते समय जो टीकामें दाह शब्द आया है वह संक्लेशरूप परिणामों के अर्थमें आया है । दाहका मुख्यार्थ ताप या संताप होता है, जो कि संक्लेशके होने पर होता है, अतः यहाँ दाहसे संक्लेशरूप परिणामों का ग्रहण किया है। उत्कृष्ट स्थितिके बन्धके प्रयोजक ऐसे संक्लेशरूप परिणाम अधिकसे अधिक अन्तमुहूर्त कालतक ही होते हैं अतः उत्कृष्ट स्थितिका काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। चूँ कि उत्कृष्ट संक्लेशरूप परिणाम कम से कम एक समय तक और अधिक से अधिक अन्तमुहूतं काल तक होते हैं, अतः सोलह काषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति बन्धसे ही प्राप्त होती है संक्रमणसे नहीं, क्योंकि मिथ्यात्वमें संक्रमित होनेवाली सम्यक्त्व और सम्यग्यिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति यदि सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर हो और सोलह कषायोंमें संक्रमित होनेवाली अन्य प्रकृतियोंकी स्थिति चाल स कोड़ाकोड़ी सागर हो तो संक्रमणसे मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर और सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति चालीस कोड़ाकोड़ी सागर प्राप्त हो सकती है पर अन्य प्रकृतियोंकी सत्तर और चालीस कोड़ाकोड़ी सागरसे कम ही स्थिति होती है, अतः इन मिथ्यात्व आदिककी बन्धकी अपेक्षा ही उत्कृष्ट स्थिति जाननी चाहिये ।
* नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट स्थितिका काल इसी प्रकार होता है।
६ ४८२. क्योंकि एक समय प्रमाण जघन्य काल और अन्तर्मुहूर्त प्रमाण उत्कृष्ट कालकी , अपेक्षा सोलह कषायोंसे इनके कालमें कोई भेद नहीं है।
शंका-कषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति बन्धावलिको व्यतीत करके नौ नोकषायोंमें संक्रान्त होती है और तब जाकर नौ नोकषाएँ उत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त होती हैं अतः इनकी कालकी अपेक्षा कषायोंके साथ समानता कैसे हो सकती है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि उत्कृष्ट बन्धके साथ जिनका बन्ध अविरुद्ध है तथा बन्धक्रमसे ही जिन्होंने उत्कृष्ट स्थिति सत्कर्मको प्राप्त कर लिया है उनकी कालकी अपेक्षा कषायोंके साथ समानता माननेमें कोई विरोध नहीं आता है।
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२७०
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जयघवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिनिहत्ती ३ * सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुकस्सहिदिवित्तीओ केवचिर कालादो होदि ? ६४८३. सुगमं ।
* जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ ।
$ ४८४. कुदो ? अहावीससंतकम्मिएण मिच्छादिहिणा तिव्वसंकिलेसेण चउद्याणियजवमज्झस्स उवरि अंतोकोडाकोडिमेत्तदाहहिदि बंधमाणेण उक्स्सहिदि बंधिय अंतोमुहुत्तपडिभग्गेण वेदगसम्मत्ते गहिदे तग्गहणपढमसमए चेव सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुकस्सहिदिदसणादो ।
* इस्थिवेद-पुरिसवेद-हस्स-रदीणमुक्कस्सहिदिविहत्तीओ केवचिर कालादो होदि ?
विशेषार्थ भय और जुगुप्सा तो ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियाँ हैं, अतः उनका बन्ध तो सर्वदा होता रहता है । किन्तु नपुंसकवेद, अरति और शोक, इन नोकषायोंका बन्ध अन्य समयमें होता भी है और नहीं भी होता है परन्तु उत्कृष्ट स्थितिबन्धके समय अवश्य होता है। अब किसी जीवने कषायकी उत्कृष्ट स्थितिका एक समय तक बन्ध किया और वह जीव कषायकी उत्कृष्ट स्थिति बन्धके पश्चात् एक आवलि कालतक इन पांच नोकषायोंका बन्ध करता रहा तो उसके एक आवलिके पश्चात् कषायोंकी वह उत्कृष्ट स्थिति पांच नोकषायोंमें संक्रमित हो जाती है और इस प्रकार उक्त पाँच नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति एक समय काल तक पाई जाती है। तथा किसी अन्य जीवने अन्तर्मुहूर्त काल तक सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति बाँधी और वह जीव कषायोंकी उत्कट स्थिति बन्धके पश्चात एक आवलि कालतक उक्त पाँच नोकषायोंका बन्ध करत तो उसके कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिबन्धके प्रारम्भ होनेके एक आवलि कालसे लेकर बन्ध समाप्त होनेके एक आवलि काल तक सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति पांच नोकाषायोंमें संक्रमित होती रहती है और इस प्रकार पांच नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका अवस्थानकाल कषायोंके समान अन्तमुहूर्त प्राप्त हो जाता है।
७ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति वालेका कितना काल है ? ६४८३ यह सूत्र सुगम है ।। * जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । $ ४८४ शंका-इनका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय क्यों है ?
समाधान-जो अट्ठाईस कोंकी सत्तावाला है और जो तीव्र संक्लेशरूप परिणामोंके कारण चतुःस्थानिक यवमध्यके ऊपर अन्तः कोड़ाकोड़ी प्रमाण दाहस्थितिका बन्ध कर रहा है ऐसा कोई मिथ्यादृष्टि जीव उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर और उत्कृष्ट संक्लेशरूप परिणामोंसे निवृत्त होकर अन्तर्मुहूर्त कालतक विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ जब वेदक सम्यक्त्वको स्वीकार करता है तब उसके वेदक सम्यक्त्वके ग्रहण करनेके प्रथम समयमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति देखी जाती है। अतः इन दोनोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है।
* स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य और रतिकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवालेका कितना काल है ?
*
पामाक
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गा० २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिसामित्त
२७९ $ ४८५. सुगर्म । * जहण्णण एगसमनो।
४८६. कुदो ? कसायाणमेगसमयमावलियमेत्तकालं वा उक्कस्सहिदि बंधिय पडिहग्गपढमसमए पडिहग्गावलियाए वा इच्छिदणोकसायं बंधाविय गलिदसेसकसायुक्कस्सहिदीए तत्थ संकमिदाए एदासिं चदुण्डं पयडीणमुक्कस्सहिदिकालस्स एगसमयदंसणादो। ___ * उक्कस्सेण आवलिया।
४८७. कुदो ? पडिहग्गकाले चेव एदासिं चदुण्हं पयडीणं बंधणियमादो। उकस्सहिदिबंधकाले एदाओ किण्ण बझति ? अचसुहत्ताभावादो साहावियादो वा। . अहियो कालो किण्ण लब्भदि ? ण, बंधगद्धाचरिमावलियाए बद्धसमयपबद्धाणं चेव तत्थुक्कस्सत्तुवलंभादो।
६४८५ यह सूत्र सरल है। * जघन्य काल एक समय है। $ ४८६. शंका-इनका जघन्य काल एक समय क्यों है ?
समाधान_क्योंकि जिसने कषायोंकी एक समय तक अथवा एक आवलीप्रमाण काल तक उत्कृष्ट स्थितिको बांधा है उसके प्रतिभग्न होनेके पहले समयमें अथवा प्रतिभग्न होनेके आवली प्रमाण कालके भीतर इच्छित नोकषायका बन्ध कराकर अनन्तर गलकर शेष रही कषायकी उत्कृष्ट स्थितिके इच्छित नोकषायमें संक्रमण कराने पर इन चारों प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका काल एक समय देखा जाता है।
* उत्कृष्ट काल एक आवली है । ६४८७.शंका-उत्कृष्ट काल एक आवली क्यों है ? समाधान-क्योंकि प्रतिभग्न कालके भीतर ही इन चार प्रकृतियोंके बन्धका नियम है। शंका-उत्कृष्ट स्थितिके बन्धकालमें ये चारों प्रकृतियां क्यों नहीं बंधती हैं ?
समाधान-क्योंकि ये प्रकृतियां अत्यन्त अशुभ नहीं हैं इसलिये उस कालमें इनका बन्ध नहीं होता। अथवा उस समय नहीं बंधनेका इनका स्वभाव है।
शंका-उत्कृष्ट काल अधिक क्यों नहीं पाया जाता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि बन्धककालकी अन्तिम श्रावलीमें बंधे हुए समयप्रबंद्धोंकी ही इन चारों प्रकृतियोंमें संक्रमण होनेके कालमें उत्कृष्टता पाई जाती है, इसलिये इनकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल एक आवलीसे अधिक नहीं हो सकता।
विशेषार्थ-स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य और रतिकी उत्कृष्ट स्थिति एक आवलीकम चालीस कोड़ाकोड़ी सागर है और इनका बन्ध कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिबन्धके समय होता नहीं, किन्तु जिस समय उत्कृष्ट संक्लेशरूप परिणामोंसे जीव निवृत्त होने लगता है उसी समयसे होता है, अतः इनकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अवस्थान काल एक समय और उत्कृष्ट
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[द्विदिविहत्ती ३ * एवं सव्वासु गदीसु ।
४८८. जहा ओघम्मि उक्कस्सडिदिकालपरूवणा कदा तहा सव्वासिं गदीणमोघम्मि परूवणा कायव्वा ण आदेसम्मि; तत्थ ओघादो विसेसदसणादो ।
४८९. एवं चुण्णिमुत्तपरूवणं काऊण संपहि एदेण सूचिदत्थजाणावण?मुच्चारणाइरियवक्खाणमोघादो चेव भणिस्सामो ।
४९०. कालाणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य। तत्थ ओघेण मिच्छत्त-सोलकसायाणमुक्क० जह० एगसमो, उक्क० अंतोमुहुत्त । पंचणोकसायाणमुक्क० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोम० । कुदो ? सोलसकसाय-णवु'स०-अरदिसोग-भय-दुगुंछाणं सरिसं संकिलेसं पूरेदूण उक्कस्सहिदिं बंधदि । ताधे कसायाणअवस्थान काल एक श्रावलि प्राप्त होता है, क्योंकि जो एक समय तक कषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति बांधकर और दूसरे समयसे इन स्त्रीवेद आदिका बन्ध करने लगता है उसके एक आवलीके पश्चात् एक आवलिकम कषायकी उत्कृष्ट स्थिति स्त्रीवेद आदि रूपसे संक्रमित हो जाती है । तथा जो एक आवलि या एक आवलिसे अधिक काल तक कषायकी उत्कृष्ट स्थिति बांध कर पश्चात् स्त्रीवेद आदिका बंध करने लगता है उसके एक आवलिके पश्चात् एक आवलि काल तक ही एक आवलिकम कषायकी उत्कृष्ट स्थिति स्त्रीवेद आदि रूपसे संक्रमित होती है। इसके पश्चात् बांधी हुई कषायकी उत्कृष्ट स्थिति का स्त्रीवेद आदिमें संक्रमण होने पर भी उसमें एक एक समय उत्तरोत्तर कम होता जाता है, अतः इनकी उत्कृष्ट स्थिति जघन्य रूपसे एक समय तक और उत्कृष्ट रूपसे एक आवली कालतक पाई जाती है।
* इसी प्रकार सभी गतियोंमें जानना चाहिये ।
६४८८ जिस प्रकार ओघमें उत्कृष्ट स्थितिके कालकी प्ररूपणा की है उसी प्रकार सभी गतियों की प्ररूपणा ओघमें ही करनी चाहिये आदेशमें नहीं, क्योंकि आदेशमें ओघकी अपेक्षा विशेषता देखी जाती है।
विशेषार्थ-यहां चूर्णिसूत्रकारने सब गतियोंमें काल सम्बन्धी अोघप्ररूपणाको स्वीकार किया है। इसका यह तात्पर्य है कि कालसम्बन्धी उपर्युक्त ओघप्ररूपणा चारों गतियों में बन जाती है, अतः चारों गतियोंमें कालसम्बन्धी प्ररूपणा ओघप्ररूपणा ही है। आदेशप्ररूपणा तो वह है जिसमें ओघसे कुछ विशेषता हो, किन्तु चारों गतियोंमें कालसम्बन्धी प्ररूपणा ओघप्ररूपणासे कुछ भी विशेषता नहीं रखती, अतः चारों गतियोंमें कालसम्बन्धी प्ररूपणा भी ओघ प्ररूपणा ही है यह उक्त सूत्रका तात्पर्य है।
४८६, इस प्रकार चूर्णिसूत्रोंका कथन करके अब इनके द्वारा सूचित अर्थका ज्ञान करानेके लिये उच्चारणाचार्यके व्याख्यानका ओघकी अपेक्षा ही कथन करते हैं।
६४६०. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है, ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश ! उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा इन पांच नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि समान संक्लेशको प्राप्त होकर जीव सोलह कषायोंकी तथा नपुंसकवेद, अरति, शोक,
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गा० २९ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिटिदिकालो
२७३ मुक्कस्सहिदिविहत्तीए आदी होदि। णवुस-अरदि-सोग-भय-दुगुंछाणं पुण तत्तो आवलियमेत्तकाले गदे उक्स्सहिदिविहत्ती होदि; कसायाणमुक्कस्सहिदीए असंकंताए एदासिमुक्कस्सत्ताभावादो । तदो सव्वेसिमुक्कस्सहिदिबंधकालं सरिसं गंतूण सोलसकसायाणमुक्कस्सडिदिबंधो थक्कदि । तदो तम्मि थक्के वि आवलियमेत्तकालं पंचणोकसायाणमुक्कस्सहिदिविहत्ती होदि । पुणो इमं पच्छिमावलियं घेत्तूण पुव्वुत्तावलिऊणउकस्सहिदिबंधकालम्मि पक्विचे कसायाणमुक्कस्सहिदिकालमेत्तस्स पंचणोकसायाणमुक्कस्सा हिदिकालस्सुवलंभादो। इत्थि-पुरिस-हस्स-रदीणं पुण उक्क० जह० एगस०, उक्क० एगावलिया ; पडिहग्गावलियाए चेव एदासिमुक्कस्सहिदिदंसणादो।
४६१. मिच्छत्त-सोलकसायाणमणुक्क० जह० अंतोमुहुत्त णवणोक० जह० भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधता है। उस समय कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका प्रारम्भ होता है और नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति इससे एक आवलि कालके जाने पर होती है, क्योंकि जबतक कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका इनमें संक्रमण नहीं होता तबतक इनकी उत्कृष्ट स्थिति नहीं हो सकती, अतः सभीकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धकाल समान जावर सोलह कषायोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध रुक जाता है और सोलह कषायोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके रुक जाने पर भी एक आवली कालतक पांच नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति विभक्ति होती है, अतः इस पीछेकी आवलीको ग्रहण करके इन पाँच नोकषायोंके पूर्वोक्त एक आवलिकम उत्कृष्ट स्थितिबन्धकालमें मिला देने पर कषायोंके उत्कृष्ट स्थिति बन्धकाल प्रमाण पांच नोकषायोंका उत्कृष्ट स्थितिकाल हो जाता है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य और रतिकी उत्कृष्ट स्थिति विभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल एक श्रावलि है, क्योंकि प्रतिभग्नावलिकाल में ही इनकी उत्कृष्ट स्थिति देग्ली जाती है।
विशेषार्थ-सोलह कषायोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके साथ नपुंसकवेद आदि पांच नोकषायोंका ही बन्ध होता है यह बात पहले ही बतला आये हैं। अब यदि किसी एक जीवने सोलह कषायोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त काल तक किया तो उसके उत्कृष्ट स्थिति बन्धके प्रारम्भ होनेके एक आवली कालसे लेकर सोलह कषायोंकी एक आवलि कम उत्कृष्ट स्थितिका पांच नोकानायों में संक्रमण होता रहेगा। और यदि यह जीव कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिबन्धके बाद एक
आवलि कालतक उक्त पांच नोकषायोंका और बन्ध करता रहे तो उस समय भी कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका इनमें संक्रमण होता रहेगा, क्योंकि बन्ध हुई प्रकृतिके निषेकोंका एक आवलिके बाद अन्य प्रकृतिमें (यदि अन्य प्रकृतिका बन्ध होता हो तो) संक्रमण होता है ऐसा नियम है। इस नियमके अनुसार जो अन्तिम आवलिमें कषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति बँधी है उसका संक्रमण एक
आवलिके बाद पांच नोकषायोंमें एक प्रावली तक अवश्य होता रहेगा, अतः जिस प्रारम्भकी अावलीमें कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका पांच नोकषायोंमें संक्रमण नहीं हुआ था उसे कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्ध कालमेंसे घटा देने पर और इस अन्तिम आवलिके जोड़ देने पर पांच नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका सत्त्वकाल सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिके सत्त्व कालके समान प्राप्त हो जाता है। शेष कथन सुगम है।
$ ४६१ मिथ्यत्व और सोलह कषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त
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२७४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ एगसमओ, उक्क० सव्वासिमणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । सम्मत्त-सम्मामिच्छताणमुक्क० जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ । अणुक्क० ज० अंतोमुहुत्त, उक्क० वेछावहि-. सागरोवमाणि सादिरेयाणि । एवं अचक्खु०-भवसि ।
६४९२. आदेसेण णेरइएसु मिच्छत्त-सोलक०-णवणोक० उक्क० ज० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्त । णवरि इत्थि-पुरिस-हस्स-रदीणमावलिया । है तथा नौ नोकषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय है और सभी प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थिति का उत्कृष्ट काल अनन्त काल है जिस का प्रमाण असंख्यात पुद्गल परिवर्तन है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूत है और उत्कृष्ट काल साधिक एकसौ बत्तीस सागर है । इस प्रकार अचक्षुदर्शनवाले और भव्य जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ जो जीव उत्कृष्ट स्थितिके बन्धके कारणभूत उत्कृष्ट संक्लेश परिणामोंसे निवृत्त हो गया है उसे पुनः उन परिणामोंको प्राप्त करनेमें कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल लगता है और इस मध्यके कालमें इस जीवके मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका ही बन्ध होगा, अतः इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त कहा । यदि कोई जीव एकेन्द्रिय पर्यायमें निरन्तर परिभ्रमण करता रहे तो वह वहां अनन्त काल तक रह सकता है और एकेन्द्रियके मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध नहीं होता, इसलिये इसके नौ नोकषायोंकी भी उत्कृष्ट स्थिति नहीं पाई जा सकती, अतः उक्त २६ प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अनन्त काल कहा। जब कोई एक जीव एक एक समयके अन्तरसे क्रोधादिककी एक समय आदि कम उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है और उसका उसी प्रकारसे नौ नोकषायोंमें संक्रमण करता है तब नौ नोकषायोंकी अनत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। जो जीव सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ताको प्राप्त करके अन्तमुहर्त में उनकी क्षपणा कर देता है उसके उक्त दोनों प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त होता है। तथा जो जीव उद्वेलना कालके अन्तमें सम्यक्त्वको प्राप्त होता है और छ्यासठ सागर तक सम्यक्त्वके साथ रह कर पुनः मिथ्यात्वमें , जा कर उक्त दोनों प्रकृतियोंकी उद्वेलना करने लगता है तथा उद्वेलनाके अन्तिम समयमें सम्यक्त्वको प्राप्त करके पुनः एक आवलिकम छ्यासठ सागर तक सम्यक्त्वके साथ रहता है तथा अन्तमें मिथ्यात्वमें जाकर उक्त दोनों प्रकृतियोंकी उद्वेलना करता है उसके सम्यकत्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल साधिक एकसौ बत्तीस सागर पाया जाता है। चूर्णिसूत्रोंमें चारों गतियों में उत्कृष्ट स्थितिकी काल प्ररूपणा ओघके समान कही है और उच्चारणामें चारों गतियों को आदेश प्ररूपणामें ले लिया है। इसका कारण यह है कि उच्चारणामें उत्कृष्ट स्थितिके कालके साथ अनुत्कृष्ट स्थितिका काल भी सम्मिलित है, अतः यहाँ चारों गतियोंमें ओघ प्ररूपणा नहीं बनती। यही कारण है कि उच्चारणामें चारों गतियोंको आदेश प्ररूपणामें परिंगणित किया है। किन्तु उच्चारणाकी अोध प्ररूपणा अचक्षदर्शन और भव्य मार्गणामें घटित हो जाती है, अतः उच्चारणामें इनकी प्ररूपणाको अोध के समान कहा है। यद्यपि इन दोनों मार्गणाओंमें चूर्णिसूत्रोंकी अोध प्ररूपणा भी बन जाती है फिर भी चूर्णिसूत्रका 'एवं सव्वासु गदीसु' यह वचन देशामर्षक है, अतः वहां अन्य मार्गणाएं नहीं गिनाई हैं।
४६२. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। किन्तु इतनी
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गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिविदिकालो
२७५ अणुक्क० जह० एगसमओ, उक्क० सगुक्कस्सहिदी । कत्थ वि देसूणा ति भणंति; तत्थ पविसिय अणुक्कस्सहिदीए आदिकरणादो । सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० जहण्णुक्क० [ एगसमओ । अणक्क० ] जह० एगसमो, उक्क० सगहिदी । पढमादि जाव सत्तमा त्ति एवं चेव । णवरि सगसगुक्कस्सहिदी वत्तव्वा । विशेषता है कि स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य और रतिकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल एक श्रावलि प्रमाण है । तथा उक्त सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल नारकियोंकी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है। कहीं पर कुछ आचार्य नारकियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अपनी उत्कृष्ट स्थितिसे कुछ कम है ऐसा कहते हैं सो वहाँ पर नरकमें प्रवेश कराके अनुत्कृष्ट स्थितिका प्रारम्भ किया है ऐसा जानना चाहिये । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है। पहली पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवीतक इसी प्रकार कथन करना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि सब कर्मोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल कहते समय अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण कहना चाहिये।
विशेषार्थ-मिथ्यात्व आदि सब कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिके जघन्य और उत्कृष्ट कालका खुलासा जिस प्रकार ओघमें कर आये हैं उसी प्रकार नारकियोंके कर लेना चाहिये । तथा जिसने अपने भवके उपान्त्य समयमें मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके अन्तिम समयमें अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया उस नारकीके मिथ्यात्व और सोलह कषायों . की अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। तथा जो पूरी पर्यायमें अनुत्कृष्ट स्थितिको बांधता है उसके मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल नरककी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण पाया जाता है। तथा जिस नारकीने भवके उपान्त्य समयमें एक समयतक नौ नोकषायोंमें सोलह कषायोंकी एक आवालिकम उत्कृष्ट स्थितिका संक्रमण किया है उस नारकीके भवके आन्तम समयमें नौ नोकेषयोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है । अथवा जिस प्रकार ओघमें नौ नोकषायोंका जघन्यकाल घटित किया है उसी प्रकार यहां भी जानना चाहिये। तथा जिसके पूरी पर्यायमें मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति का बन्ध नहीं हुआ और न पूर्व पर्यायमें मरते समय एक आवलि कालके भीतर उक्त प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध हुआ उस नारकी के नौ नोकषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण पाया जाता है । यहां मूलमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहा है सो इसका कारण यह बताया है कि नरकमें प्रवेश कराके अनुत्कृष्ट स्थितिका प्रारम्भ कराना चाहिये । जो मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करके अन्तर्मुहूर्तमें वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करता है उसके वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करनेके प्रथम समयमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको उत्कृष्ट स्थिति देखी जाती है, अतः यहाँ इन दोनों प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। जो जीव नरकमें उत्पन्न होते ही सम्यक्त्व या सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना कर लेता है उसके नरकमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्यकाल एक समय पाया जाता है । तथा जो प्रारम्भके और अन्तके अन्तर्मुहूर्त कालको छोड़कर जीवन भर वेदक सम्यक्त्वके साथ रहा है। या जिसने सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना होनेके मध्य या अन्तमें पुनः पुनः यथायोग्य सम्यक्त्वका प्राप्त किया है उसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल नरकका
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[हिदिविही ३ __४६३. तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु मिच्छत्त-सोलसक० उक्क० जह० एगसमो, उक्क० अंतोमहुत्त । अणुक्क० ज० एगसमो, उक्क० अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । णवणोक० उक्क० ज० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० एगावलिया। अणुक्क० ज० एगसमओ, उक्क० अणंतकालमसंखे० पोग्गलपरियहा । सम्मत्त०सम्मामि० उक्क. जहण्णुक्क० एगसमओ। अणुक्क० ज० एगसमओ, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि सादिरेयाणि । ___४९४. पंचिंदियतिरिक्ख०-पंचिं०तिरि०पज०-पंचिं०तिरि०जोणिणीसु मिच्छत्तसोलसक०-णवणोकसाय. उक्क० ओघभंगो । अणुक्क० जहण्ण० एगसमओ, उक्क० सगहिदी । सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० जहण्युक्क० एगस० । अणुक्क० ज. एगसमओ, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि सादिरेयाणि । एवं मणसतियः । उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण पाया जाता है। इसी प्रकार प्रथमादि पृथिवियोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितियोंका काल कहना चाहिये । किन्तु सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अपने अपने नरककी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहना चाहिये।
S४६३. तिथंचगतिमें तियेचोंमें मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहर्त प्रमाण है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय है और नपुंसकवेद आदि पाँचका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त और स्त्रीवेद आदि चारका उत्कृष्ट काल एक आवलि प्रमाण है। तथा नौ नोकषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य है।
४६४. पंचेन्द्रियतिर्यंच, पंचेन्द्रियतिथंच पर्याप्त और पंचेन्द्रियतिथंच योनिमतियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका काल ओघके समान है। तथा उक्त सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्यिथ्यात्बकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य है। इसी प्रकार सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनीके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-तिथंच गतिमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल ओघके समान घटित कर लेना चाहिये । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल जिस प्रकार नारकियोंमें घटित करके बतला आये हैं उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिये । हाँ अनुत्कृष्ट स्थिति के उत्कृष्ट कालमें कुछ विशेषता है । तियेच पर्यायमें निरन्तर रहनेका उत्कृष्टकाल असंख्यात पुद्गल परिवर्तन है, अतः मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल भी इतना ही प्राप्त होता है । तथा सन्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य है, क्योंकि पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंमें रहनेका उत्कृष्ट काल पृथक्त्व पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य है अतः उस कालमें पुनः पुनः सम्यक्त्वके होनेसे सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्वका
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गा०२२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिकालो
২৬৩ ४६५ पंचिंतिरि०अपज्ज० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० उक्क० जहण्णक्क० एगसमो। अणुक्क० ज० खुद्दा भवग्गहणं समऊणंउक्क. अंतोमु० । सम्मत्त०-सम्मामि० उक्क० जहणुक्क० एगसमओ । अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । एवं मणुसअपज्ज०-पंचिं०अपज तसअपज्जत्ताणं ।
सत्त्व बना रहता है । अतः सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थतिका उत्कृष्ट काल पृथक्त्व पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य कहा है। पंचेन्द्रियपर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती जीवोंके सब कर्मोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिके उत्कृष्ट कालको छोड़कर शेष सब काल पूर्ववत् है। किन्तु मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । यहाँ पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंकी पंचानवे पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्तककी सेंतालीस पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य और पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतीकी पन्द्रह पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य उत्कृष्ट कायस्थिति जाननी चाहिये। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य है जिसका खुलासा पहले किया ही है। सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनीके इसी प्रकार कथन करना चाहिये। किन्तु इनके मिथ्यात्व श्रादिकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल कहते समय क्रमसे सेंतालीस, पन्द्रह और सात पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य उत्कृष्ट काल कहना चाहिये ।
४६५ पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषयोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समयकम खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और त्रस अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-जो संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति बाँधकर और स्थितिघात न करके अन्तर्मुहूर्त कालके पश्चात् पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकों में उत्पन्न होता है उसके पहले समयमें उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति होती है अतः पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। इसी प्रकार नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय जानना चाहिये पर यह संक्रमणसे प्राप्त होता है। तथा इस एक समयको छोड़कर शेष खुद्दाभवग्रहण प्रमाण काल उक्त सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल है और लब्धपर्याप्त अवस्थामें रहनेका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। अब यदि कोई जीव उत्कृष्ट स्थितिके बिना ही पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्त हुआ और अपने उत्कृष्ट कालतक उसने वह पर्याय न बदली, पुनः पुनः उसीमें उत्पन्न होता रहा तो उसके उक्त सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त पाया जाता है। इसी प्रकार भवके प्रथम समयमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय घटित कर लेना चाहिये । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय उद्वेलनाकी अपेक्षा और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त अपनी उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा जानना चाहिये । मूलमें और जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें भी इसी प्रकार सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल जानना चाहिये ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ ४९६. देवेमु णिरोघं । भवणादि जाव सहस्सार त्ति एवं चेव । णवरि अप्पप्पणो उक्कस्सहिदी वत्तव्वा । आणदादि जाव उवरिमगेवज्जे ति मिच्छत्तबारसक०-णवणोक० उक्क० जहण्णुक्क० एगस० । अणुक्क० जह० सगसगजहण्णाउअं समऊणं, उक्क० सगसगुक्कस्सहिदी । अणंताणबंधिचउक्क० उक्क० जहएणुक्क० एगस० । अणुक्क० ज० अंतोमु० एयसमो वा, उक्क. सगहिदी । सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० जहण्णुक्क० एगसमओ। [ अणुक्क० जह० एगससओ.] उक्क० सगहिदी । अणु दिसादि जाव सव त्ति मिच्छत्त-सम्मामि०-बारसक-रणवणोक० उक्क. जहण्णुक्क० एगसमझो। अणुक्क० जह० जहण्णहिदीए समयूणा, उक्क० उक्कस्सहिदी। सम्मत्त. उक्क० जहण्णुक्क० एगस० । अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० सगहि । अणंताणु०चउक्क० उक्क० जहण्णुक्क० एगस० । अणुक्क० जह०अंतोमु०, उक्क० सगहिदी ।
४६६ देवोमें सामान्य नारकियोंके समान कथन है। भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देवोंके इसी प्रकार जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि सर्बत्र अनुकृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल कहते समय अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण कहना चाहिये। आनत कल्पसे लेकर उवरिम प्रैवेयक तकके देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय कम अपनी अपनी जघन्य स्थिति प्रमाण और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त या एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। सम्यक्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नौकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। तथा अनत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय कम जघन्य स्थिति प्रमाण और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । तथा सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। तथा अनन्तानुवन्धी चतुष्ककी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूर्तप्रमाण और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है।
विशेषार्थ-सामान्य देव तथा भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें सब कर्मोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल सामान्य नारकियोंके समान है, किन्तु अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल कहते समय अपने-अपने कल्पकी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहना चाहिये । आनतसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देवोंमें भवके पहले समयमें ही मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति सम्भव है अतः उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय कम अपने-अपने कल्पकी
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गा० २२ ]
द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिडिदिकालो
२७६
९ ४९७. इंदियाणुवादे एइंदिएसु मिच्छत - सोलसक० उक्क० जहण्णुक्क • समओ | अणुक्क० ज० खुद्दा भवग्गहणं, उक्क ० अनंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । णवणोक० उक्क० ज० एगस०, उक्क० आवलिया । अणुक्क ० ज० एयस०, उक्क० अणतकालमसंखे० पो० परियट्टा । सम्मत्त ० - सम्मामि० उक्क० जहण्णुक्क ० एगसमओ | अणुक्क० ज० एयस०, असंखे॰भागो । एवं बादरेइंदियाणं । वरि अणुक्कस्सुक्कस्समं गुलस्स
उक्क० पलिदो ० असंखेज्जदि
जघन्य स्थितिप्रमाण और उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहा है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्ध चतुष्ककी उत्कृष्ट स्थिति भी भवके पहले समय में हो सकती है अतः इनकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा इन प्रकृतियों की अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण होता है, क्योंकि जो अनुत्कृष्ट स्थिति के साथ अनादि कल्पों में उत्पन्न होता है । वह यदि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी
ना नहीं करता है और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना नहीं करता है तो उसके जीवन भनी अनुत्कृष्ट स्थिति बनी रहती है । तथा जो जीव आनतादिकोंमें पैदा हुआ और पर्याप्त होकर अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर जिसने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कर ली उसके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त पाया जाता है । तथा अनन्तानुबन्धीकी वियोजना किया हुआ कोई एक देव सासादनमें आया और दूसरे समयमें मरकर अन्य गतिमें चला गया तो उसके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। तथा सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय क्रमसे उद्वेलना और कृतकृत्यवेदक सम्यक्त्वकी अपेक्षा घटित कर लेना चाहिये । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं अतः इनमें अनन्तानुबन्ध और सम्यक्त्व अनुत्कृष्ट स्थिति के जघन्य कालके कथनमें कुछ विशेषता है । शेष कथन पूर्ववत् ही जानना चाहिये । बात यह है कि यहाँ अनन्तानुबन्धीकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्यकाल एक समय नहीं बनता केवल भवके प्रारम्भ में जिसने अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कर ली है। उसके अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त ही पाया जाता है । तथा जो कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टि अनुदिशादिकमें उत्पन्न हुआ और एक समयतक सम्यक्त्व प्रकृति के साथ रहकर दूसरे समयमें क्षायिक सम्यग्दृष्टि हो गया उसके सम्यक्त्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है । तथा यहाँ सम्यग्मिथ्यात्व के कालका कथन मिथ्यात्व आदिके साथ करना चाहिये, क्योंकि यहाँ इस प्रकृतिकी उद्वेलना सम्भव नहीं है ।
९ ४६७. इन्द्रियमाणा के अनुवादसे एकेन्द्रियोंमें मिध्यात्व और सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है । नौ नोकषायों की उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवली प्रमाण है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रेमाण है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार बादर एकेन्द्रियोंके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण
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२८० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[द्विदिविही ३ भागो असंखेज्जाओ ओसप्पिणिउस्सप्पिणीओ। बादरेइंदियपज मिच्छत्त-सोलसक०णवणोक० उक्क० एइंदियभंगो । अणुक्क० ज० अंतोमु० णवणोकसायाणं एगसमओ, उक्क संखेजाणि वाससहस्साणि । सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० जहण्णुक्क० एगसमत्रो । अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० सगहिदी। बादरेइंदियअपज्ज० सुहुमेइंदियपज्जत्तापज्जत्ताणं पंचिंदियअपज्जत्तभंगो। णवरि सुहमेइंदियपज्जत्ताणं अणक्क० ज० अंतोमुहुचे । सुहुम० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० उक्क० जहण्णुक्क० एगस० । अणुक० जह० खुद्दाभवग्गहणं समयूणं, उक्क० असंखेजा लोगा । सम्मत्तसम्मामि० एइंदियभंगो।
४६८. सव्वविगलिंदय० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० उक्क० जहण्णुक्क० एयस० । अणुक्क० ज० खुद्दाभवग्गहणं अंतोमु० समऊणं, उक्क० सगहिदी । सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० जहण्णुक्क० एगसम० । अणुक्क० ज० एगस०, उक्क. सगहिदी। है जिसका प्रमाण असंख्यात अवसर्पिणी और उत्सपिणी होता है। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिके कालका भंग एकेन्द्रियोंके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है पर नौ नोकषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय है और सबका उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय है और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी स्थिति प्रमाण है। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंके अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है। सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय कम खुद्दाभवग्रहण प्रमाण और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक प्रमाण है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग एकेन्द्रियोंके समान है।
६४६८ सब विकलेन्द्रियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय कम खुद्दा भवग्रहण प्रमाण और एक समय अन्तमुहूर्त है तथा उत्कृष्ट काल अपनी स्थिति प्रमाण है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय और . अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी स्थिति प्रमाण है।
विशेषार्थ-एकेन्द्रियोंके मिथ्यात्व और सोलह कषायकी उकृत्ष्ट स्थिति भवके पहले समयमें ही होती है अतः इनके उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा। पर यह उत्कृष्ट स्थिति पर्याप्त एकेद्रियोंके ही प्राप्त होती है और इस अपेक्षासे लब्ध्यपर्याप्तकोंके उक्त कर्मोकी सब स्थिति अनुत्कृष्ट कही जाती है, अतः सामान्य एकेन्द्रियोंके उक्त प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल खुद्दा भवग्रहण प्रमाण कहा। तथा एकेन्द्रिय पर्यायमें जीव असंख्यात पुद्गल परिवर्तन काल तक लगातार रह सकता है और ऐसे जीवके बीच में उक्त
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गा०२२ हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिकालो
२८१ ४६६. पंचिंदिय-पंचि०पज्ज-तस-तसपज्ज० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० उक्क० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० एगावलिया । अणुकक० ज० एगस० उक्क० सगसगुकस्सहिदी । सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० जहण्णुक्क० एगस० । अणुक्क प्रकृतियोंकी उत्कष्ट स्थिति प्राप्त नहीं हो सकती, अतः अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण कहा। जो देव सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका एक समय तक बन्धकरके एक आवली कालके भीतर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ है उसके नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है और जो देव एक आवली या इससे अधिक काल तक सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके अनन्तर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ है उसके नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल एक श्रावलि प्रमाण पाया जाता है। तथा जिस देवने सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया और एक आवलीमें एक समय शेष रहने पर वह मर कर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ उसके भवके पहले समयमें नौ नोकषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थिति
और दूसरे समयमें उत्कृष्ट स्थिति पाई जाती है, अतः नौ नोकषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय कहा। तथा नौ नोकषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल मिथ्यात्व आदिके समान जानना चाहिये । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल भवके पहले समयमें होता है अतः एकेन्द्रियोंमें इन दोनों प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । तथा एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होनेके पहले समयमें जिसने सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना कर ली है उसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय कहा। तथा उद्वेलनाके कालकी अपेक्षा एकेन्द्रियोंमें सम्यक्त्व और सभ्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कुष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण कहा। बादर एकेन्द्रियोंके भी इसी प्रकार सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुकृष्ट स्थितिका काल जानना। किन्तु एक जीवका निरन्तर बादर एकेन्द्रिय पर्यायमें रहनेका उत्कृष्ट काल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है अतः इनके मिथ्यात्व सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंके अपनी पर्यायमें रहनेका जघन्य काल अन्तमु हत और उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्षे है अतः इस अपेक्षासे इनके अनुत्कृष्ट स्थितिके जघन्य और उत्कृष्ट कालमें एकेन्द्रियोंसे विशेषता आ जाती है। शेष कथन एकेन्द्रियों के समान जानना। बादर एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त और सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंके पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके समान काल कहना चाहिये। किन्तु सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंके अपनी पर्यायमें रहलेका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है अतः इनके अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहना चाहिये । तथा सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें पर्याप्त और अपर्याप्त दोनों प्रकारके जीव गर्भित है अतः इनके अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय कम खुद्दा भवग्रहण प्रमाण कहना चाहिये । शेष कथन सुगम है । इसी प्रकार विकलत्रयोंमें यथा सम्भव उनकी स्थितिका विचार करके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल घटित कर लेना चाहिये।
४६६. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस और सपर्याप्त जीवोंमें मिथ्यात्व सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल मिथ्यात्व और सोलह कषायोंका अन्तमुहूर्त और नौ नोकषायोंका एक आवलीप्रमाण है। तथा अनुत्कृष्ट स्थिति का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्टकाल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । तथा सम्यक्त्व
और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल ओघके समान है । इसी प्रकार पुरुषवेदवाले,
३६
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२८२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[विदिविहत्ती ज० एगस०, उक्क० ओघभंगो । एवं पुरिस०-चक्खु-सण्णि त्ति । - ५००. कायाणुवादेण पुढवि०-आउ०-चादरवणप्फदिपत्तेय० मिच्छत्त-सोलसक०णवणोक० उक्क० एइंदियभंगो । अणुक्क० जह० खुद्दाभवग्गहणं एगसमओ, उक्क० सगढिदी । सम्मत-सम्मामि० एइंदियभंगो। बादरपुढवि०-बादरआउ० एवं चेव । णवरि अणुक्कस्सुक्कस्सं सगहिदी। बादरपुढविपज्ज०-बादराउपज्ज० बादरेइंदियपज्जत्तभंगो। एवं बादरवणप्फदिपचेयसरीरपज्जत्ताणं । बादरपुढविअपज्ज० - बादरश्राउअपज्ज-तेउबादरतेउपज्जत्तापज्जत्त-वाउ०-बादरवाउपज्जत्तापज्जत्त - वादरवणप्फदिपत्तेयसरीरअपज०-णिगोद०-वादरणिगोदपज्जतापज्जत-सव्वसुहमाणं छब्बीसं पयडीणं उक्क० जहण्णुक्क० एगस० । अणुक्क. खुद्दाभवग्गहणमंतोमुहुर्ग समऊणं,
चक्षदर्शनवाले और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये।
६५०० कायमार्गणाके अनुवादसे पृथिवीकायिक, जलकायिक और बादर प्रत्येक बनस्पतिकायिक जीवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका भंग एकेन्द्रियोंके समान है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्यकाल मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी अपेक्षा खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा एक समय है तथा उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग एकेन्द्रियोंके समान है। बादर पृथिवीकायिक और बादर जलकायिक जीवोंके इसी प्रकार जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है।
विशेषार्थ-पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस और त्रस पर्याप्त जीवों के उद्वेलनाकी अपेक्षा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जधन्य काल एक समय बन जाता है । भय जुगुप्सा, अरति शोक व नपुन्सक वेदकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अोधके समान अन्तर्मुहूर्त भी जानना चाहिये । शेष कथन सुगम है। ऊपर पुरुषवेदी आदि और जितनी मार्गणाएँ गिनाई है उनमें भी इसी प्रकार सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल घटित कर लेना चाहिये। तथा पृथिवीकाविक बादर पृथिवीकायिक और बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त आदिके अपनी-अपनी पर्यायमें निरन्तर रहने के कालका विचार करके अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल कहना चाहिये । शेष कथन सुगम है, क्योंकि इसका पहले अनेक बार खुलासा किया जा चुका है, अतः यहाँ व आगे भी उसका विचार करके यथासम्भव कथन करना चाहिये।
बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त और बादर जलकायिक पर्याप्त जीवोंका भंग बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंके समान जानना चाहिये । इसी प्रकार बादर बनस्पतिकायिकप्रत्येकशरीर पर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये। बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, वादर बनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, निगोदजीव, बादरनिगोद, बादरनिगोद पर्याप्त जीव, बादर निगोद अपर्याप्तजीव और सब सूक्ष्म जीवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय कम खुद्दाभवग्रहण प्रमाण और एक समय कम अन्तमुहूर्त है
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ना० २२ ]
हिदिविहत्ती उत्तरपयडिट्ठिदिकालो
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ज०
उक्क० सगसगुक्कस्सद्विदी । सम्मत्त सम्मामि० उक्क० जहण्णुक्क० एस० । अणुक० एगसमओ, उक्क० पलिदो ० असंखेज्जदिभागो । एवरि बादरपुढविश्रादिअपज्जत्ताणं सुहुम पुढवित्र्यादिपज्जत्तापञ्जाणं च सगहिदी वत्तव्वा ।
१५०१ पंचमण० - पंचवचि० मिच्छत्त - सोलसक० णवणोकसाय उक्क० पंचि - दियभंगो | अणुक्क० ज० एगसमत्रो, उक्क० अंतोमुहुतं । सम्मत - सम्मामि० उक्क० जहण्णुक० एगसमओ । अक० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । ओरालिय• एवं चेव वरि सगहिदी बचव्वा ।
ज० एस ०,
५०२, कायजोगि० मिच्छत्त- सोलसक० - णवरणोक० उक्क० श्रघं । अणुक्क ० उक्क० एइंदियभंगो । सम्मत सम्मामि० एइंदियभंगो । ओरालियमिस्स० मिच्छत - सोलसक० णवणोक० उक्क० जहण्णुक्क० एइंदियभंगो । मिच्छत्तसोलसक० अक्क० जह० खुदाभवग्गहणं तिसमऊणं । गवणोकसाय० जह० एयसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । सम्मत्त सम्मामि० पंचिदियअपजत्तभंगो । एवं वेडव्विय० णवरि मिच्छत्त - सोलसक० अणुक० ज० एगसमओ उक्क० अंतोमु० । तथा उत्कृष्टकाल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । किन्तु इतनी विशेषता है कि बादर पृथिवीकायिक आदि अपर्याप्त जीवोंकी तथा सूक्ष्म पृथिवीकायिक आदि पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अपनी स्थिति प्रमाण कहना चाहिये ।
$ ५०१ पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवोंके मिथ्यात्य, सोलह कषाय और कषायों उत्कृष्ट स्थितिका भंग पंचेन्द्रियोंके समान है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तमुहूर्त है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । औदारिककाययोगी जीवोंके इसी प्रकार जानना चाहिये | किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्टकाल अपनी स्थिति प्रमाण कहना चाहिये ।
विशेषार्थ - पांचों मनोयोग और पांचों वचनयोगों का उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त तथा दारिकाय योगका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कम वाईस हजार वर्ष है, अतः इनके अनुसार अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल कहना चाहिये | शेत्र कथन सुगम है ।
९५०२ काययोगियों में मिध्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति विभक्ति काल के समान है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल एकेन्द्रियों के समान है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग एकेन्द्रियोंके समान है। औदारिक मिश्र काययोगियोंमें मिध्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्टकाल एकेन्द्रियों के समान है । तथा मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्यकाल तीन समयकम खुद भवग्रहणप्रमाण है और नौ नोकषायों का जघन्यकाल एक समय है तथा सबकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वका भंग पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकों के समान है । इस प्रकार वैक्रियक काययोगी जीवों के जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें मिथ्यात्व और सोलह
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जयधबलासहिदे कसायपाहुडे
[ द्विदिवती ३
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वेजव्वियमिस्स • मिच्छत्त • सोलसक० रावणोक० उक्क० एइंदियभंगो । अशुक्क० जहण्णुक्क० अंतोमु० । वरि णवणोकसाय० अणुक्क० जह० एयसमश्र । सम्मत्तसम्मामि मिच्छत्तभगो । वरि शुक्क० जह० एयसमश्र ।
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९५०३. आहार० सव्वपयडीणमुक्क० जहण्णुक्क० एस० । अणुक्क० ज० एगसमओ उक्क ० अंतोमुहुत्तं । एवमवगद० प्रकसा० सुहुमसांप ० - जहाक्खादसंजदेत्ति | आहार मिस्स ० सव्वपयडीणमुक्क० जहण्णुक्क० एस० । अणुक्क० जहण्णुक्क० अंतोमु० । एवमुवसम० - सम्मामि ० ।
९ ५०४, कम्मइय० मिच्छत्त - सोलसक० - सम्मत्त० सम्मामि० उक्क० जहण्णुक्क० एगस० । अणुक्क० ज० एगसमओ, उक्क० तिण्णि समया । णवरणोकसाय० उक्क० ज० एगस०, उक्क० वेसमया । अणुक० ज० एगसमओ, उक्क० तिण्णि समया । एवमणाहार० ।
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कषायों की अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । वैक्रियक मिश्रका योगियों में मिध्यात्व, सोलहकषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका भंग एकेन्द्रियोंके समान है तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । किन्तु इतनी विशेषता है कि नौ नोकषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग मिथ्यात्व के समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय है ।
९५०३. आहारक काययोगी जीवोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल
मुहूर्त है। इसी प्रकार अपगतवेद वाले, अकषायी, सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिये । आहारकमिश्रकाययोगियों में सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार उपशम सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवों के जानना चाहिये ।
५०४. कार्मणका योगी जीवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिको उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय है । तथा नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय है । इसी प्रकार अनाहारक जीवोंके जानना चाहये ।
विशेषार्थ - एकेन्द्रियों के एक काययोग ही होता है, अतः काययोगमें अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल एकेन्द्रियोंके समान जानना चाहिये । औदारिक मिश्रका जघन्य काल तीन समय कम खुद्दाभवग्रहण प्रमाण और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है अतः इसमें मिथ्यात्व और सोलह कषाय की अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल तीन समय कम खुद्दाभवग्रहण प्रमाण और नौ नोकषायों की अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय जिस प्रकार एकेन्द्रियों में घटित करके लिख आये हैं उसी प्रकार यहां भी जानना । शेष कथन सुगम है। तथा जिस वैक्रियिककाययोगीने वैक्रियिककायोग उपान्त समयमें उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया और अन्त समय में अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध
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गा० २२) विदिविहत्तीए उत्तरपयडि हदिकालो
२८५ $ ५०५. वेदाणुबादेण इत्थिवेदेसु मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० उक्क० ओघं । अणुक्क० ज० एगसमो. उक्क. सगहिदी । सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० जहण्णुक्क० एगस० । अणुक्क० ज० एगसमो, उक्क० षणवण्णपलिदो० सादिरेयाणि । णवस० मिच्छत्त०-सोलसक०-णवणोक० उक्क० ओघं । अणुक्क० ज० एगस०,
किया उसके मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी अनुत्कष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है । तथा वैक्रियिककाययोगका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है अतः यहां अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त पाया जाता है शेष कथन पूर्ववत् जानना । वैक्रियिकमिश्रकाययोगका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है अतः इसमें मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जवन्य काल अन्तमुहूर्त तथा नौ नोकषाय मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त होता है। नौ नोकषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल पूर्ववत् जानना। शेष कथन सुगम है। आहारक काययोगके पहले समयमें ही सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति सम्भव है अतः यहां सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कष्ट काल एक समय कहा । जो जीव एक समय तक आहारक काययोगके साथ रहे और दूसरे समयमें मर गये या मूल शरीरमें प्रविष्ट हो गये उनके सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। तथा आहारक काययोगका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है अतः इनके सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा। अपगतवेदी, अकषायी, सूक्ष्मसाम्परायिक संयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके आहारककाययोगियोंके समान काल जानना। क्योंकि उपशम श्रेणीकी अपेक्षा उक्त मार्गणाओंमें उक्त काल बन जाता है। आहारकमिश्रकाययोगीका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है, अतः इसमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त बन जाता है। तथा उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके भी इसी प्रकार कथन करना चाहिये । कार्मणकाययोगका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय है। अतः इसमें नौ नोकषायोंको छोड़कर शेष सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय और सर्व प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय बन जाता है। किन्तु नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिके उत्कृष्ट कालमें कुछ विशेषता है। बात यह है कि नौ नोकषायोंकी उत्कृष्टस्थिति अपर्याप्त अवस्थामें एक आवलिकाल तक भी पाई जासकती है पर ऐसा जीव अधिकसे अधिक दो विग्रहसे ही उत्पन्न होता है, अतः इसके कार्मणकाययोग दो समय पाया जाता है और इसीलिये कार्मणकाययागमें नौ नाकषायोंको उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल दो समय कहा है। नौ नोकषायों की उत्कृष्ट स्थितिका जवन्य काल एक समय तो स्पष्ट ही है। तथा अनाहारक जीवोंके इसी प्रकार जानना, क्योंकि संसार अवस्थामें जहां कार्मणकाययोग होता है वहीं अनाहारक अवस्था पाई जाती है ।
६५०५. वेदमार्गणाके अनुवाद से स्त्रीवेदियों में मिथ्यात्व, सोलहकषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका काल ओघके समान है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय
और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय
और उत्कृष्ट काल साधिक पचपन पल्य है। नपुंसकवेदियोंमें मिथ्यात्व, सोलहकषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका काल ओघके समान है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जबन्य काल
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जयघवलासहिदे कसायपाहुडे
[द्विदिविही ३ उक्क० अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा। सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० जहण्णुक्क० एगस०, अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० तेत्तीसं साग० सादिरेयाणि । असंजद०
सयभंगो णवरि मिच्छ० सोलसक० अणुक्क० जह० अंतोम० ।। ____ ५०६. चत्तारि कसाय० मणजोगिभंगो । मदिमुदअण्णा० ओघं । णवरि सम्मत्त०-सम्मामि० अणुक्क० उक्क० एइंदियभंगो। एवं मिच्छादि० । अभव० एवं चेव णवरि सम्मत्त०-सम्मामि० णत्थि । विहंग• सत्तमपुढविभंगो । गवरि सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणमेइ दियभंगो। एक समय और उत्कृष्ट अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। तथा सम्यक्त्व
और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। असंयत सम्यग्दष्टियोंका भंग नपुंसकोंके समान है। किन्तु विशेषता इतनी है कि इनमें मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है।
विशेषार्थ-स्त्रीवेदका उत्कृष्ट काल सौ पल्यपृथक्त्व है, अतः इसमें उपर्युक्त छब्बीस प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण जानना चाहिये। जो अट्ठाईस या चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जीव पूर्व पर्यायमें स्त्रीवेदी है और वहांसे मरकर तथा अट्ठाइस प्रकृतियोंकी सत्तावाला मिथ्यादृष्टि होकर पचवन पल्यकी उत्कृष्ट आयुके साथ देवपर्यायमें स्त्रोवेदी हुआ उसके साधिक पचवन पल्य तक सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थिति पाई जासकती है, अतः स्त्रीवेदमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल साधिक पचवन पल्य कहा है। शेष कथन सुगम है । एक जीव निरन्तर नपुंसकवेदके साथ अनन्त काल तक रह सकता है अतः नपुंसकवेदमें मिथ्यात्व आदि छब्बीस प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण कहा। तथा जो पूर्व पर्यायमें अट्ठाइस प्रकृतियोंकी सत्तावाला नपुंसकवेदी है और वहां से च्युत होकर तेतीस सागरकी आयुवाले नारकियोंमें उत्पन्न हुआ उसके साधिक तेतीस सागर काल तक सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता पाई जा सकती है अतः इन दो प्रकृतियों की अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहा है शेष कथन सुगम है। असंयतों का सब कथन नपुंसकों के समान है किन्तु मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिके जघन्य कालमें कुछ विशेषता है । बात यह है कि जिस नारकीने भवके उपान्त्य समयमें उक्त प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति बांधो अन्तिम समयमें अनुत्कृष्ट स्थिति बांधी उसके नपुंसकवेदमें उक्त प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय बन जाता है पर ऐसा जीव मरकर भी असंयत ही रहता है, अतः असंयतके उक्त प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त कहा है।
५०६. चार कषायवालोंका भंग मनोयोगियोंके समान है । मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानियों के ओघके समान जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल एकेन्द्रियों के समान है। इसी प्रकार मिथ्यादृष्टिजीवोंके जानना चाहिये । अभव्योंके भी इसी प्रकार जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि अभव्योंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व नहीं हैं । विभंगज्ञानियोंका भंग सातवीं पृथिवीके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग एकेन्द्रियोंके समान है।
विशेषार्थ-एक समय और अन्तर्मुहूर्त सामान्यकी अपेक्षा चारों कषायों और मनोयोगका काल समान है, अतः चारों कषायोंमें मनोयोगके समान कथन करनेकी सूचना की। मत्यज्ञानी
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गा०२२ ] द्विदिविहत्ती९ उत्तरपयडिहिदिकालो
२८७ ६५०७. आमिणि-सुद०-ओहि० मिच्छ०-सम्म०-सम्मामि०-अणंताणु० चउक्क०-बारसक०-णवणोक० उक्क० जहएणुक्क० एगसमओ। अणक्क० ज० अंतोमु०, उक्क० छावहिसागरो० सादिरेयाणि । अणंताणु० चउक्क० देसूणाणि वा। एवमोहिदंस०-सम्मादि० । वेदय० एवं चेव । णवरि सम्म०-बारसक० [णवणोक०] छावहिसाग० पडिवुण्णाणि । सेसाणं देसूगाणि । मणपज्ज. सव्वपयडीणमुक्क० जहण्णुक्क० एगस० । अणुक्क० ज० अंतोमुहुत्ते, उक्क. पुवकोडी देसूणा । एवं संजद-परिहार०-संजदासंजद० । सामाइयछेदो० एवं चेव । णवरि चउवीसप० अणुक्क० जह• एगस० । और अताज्ञानी जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका सत्त्व पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक ही पाया जाता है, अतः इनके उक्त दोनों प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल एकेन्द्रियोंके समान कहा । शेष कथन सुगम है। अभव्योंमें भी छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल ओघके समान बन जाता है। इनके सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी सत्ता नहीं होती यह स्पष्ट ही है। विभंगज्ञानमें सातवीं पृथिवीके समान
और सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल तो बन जाता है किन्तु सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल नहीं बनता, क्योंकि विभंगज्ञान मिथ्याष्टिके होता है और मिथ्यादृष्टिके इन दो प्रकृतियोंकी सत्ता पल्यके असंख्यातमें भागप्रमाण काल तक ही पाई जाती है।
६५०७. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व सन्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चतुष्क, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और "उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर है अथवा अनन्तानुबन्धी चतुष्कका कुछ कम छयासठ सागर है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी और सम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । वेदकसम्यग्दृष्टि जीवों के भी इसी प्रकार जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्व बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल पूरा छयासठ सागर है शेषका कुछ कम छयासठ सागर है। मनःपर्ययज्ञानियोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटि है। इसी प्रकार संयत, परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयतोंके जानना चाहिये । सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंके इसी प्रकार जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें चौबीस प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय है।
विशेषार्थ-सम्यग्दृष्टि जीवके सम्यक्त्व ग्रहण करनेके पहले समयमें ही सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति पाई जाती है अतः मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवके सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । तथा इन मार्गणाओंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक छ्यासठ सागर है, अतः सबकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक छ्यासठ सागर कहा। किन्तु अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल कुछ कम छयासठ सागर भी प्राप्त होता है, क्योंकि वेदकसम्यक्त्व के कालमें से मिथ्यात्व आदि तीन प्रकृतियोंके क्षपण कालको घटा देने पर और अनन्तानुबन्धी चतुष्कके विसंयोजन काल को मिला देने पर देशोन छ्यासठ सागर प्राप्त होते हैं। अब यदि
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२८८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[द्विदिविहत्ती ३ ६५०८. किण्ह-णील-काउ० तेउपम्मलेस्सासु मिच्छत्त०-सोलसक०-णवणोक० उक्क० ओघं, अणक्क० जह० एगस० । णवरि किण्हणीलकाउ० मिच्छ० सोलस० अतोमु०, उक्क० सगहिदी । सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० जहण्णक्क० एगस० । अणुक्क० ज० एगस०, उक्क. सगहिदी। सुक्कले० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० उक्क० जहण्णुक्क० एगस० । अणुक्क० ज० अंतोम० । अणंताणु० एगसमओ वा, उक्क. सगहिदी । सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० जहण्णुक्क० एगसः। अणुक्क० ज० एगस०, उक्का सगहिदी। इसमें प्रारम्भ में हुए उपशम सम्यक्त्वके कालको मिला दिया जाता है तो साधिक छयासठ सागर प्राप्त हो जाते हैं और यही सबब है कि अवधिज्ञानी आदि मार्गणाओंमें अनन्तानुबन्धी चतुष्कके अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर भी स्वीकार किया है। अवधिदर्शन अवधिज्ञानका अविनाभावी है अतः अवधिदर्शनमें अवधिज्ञानके समान व्यवस्था जानना। तथा सम्यग्दृष्टि जीवोंके भी इसी प्रकार जानना। वेदकसम्यक्त्वमें यद्यपि इसी प्रकार जानना पर इसके सम्यक्त्व और बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल पूरा छयासठ सागर होता है क्योंकि कृतकृत्यवेदक सम्यक्त्व तक वेदक सम्यक्त्वका काल पूरा छयासठ सागर है और उक्त प्रकृतियोंका यहां तक सत्त्व पाया जाता है। इससे यह भी तात्पर्य निकल आया कि उक्त प्रकृतियोंको छोड़ कर वेदकसम्यक्त्वमें शेष प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल कुछ कम छयासठ सागर है। मनः पर्ययज्ञानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल देशोन पूर्वकोटि है। अतः इसमें सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटिप्रमाण कहा है शेष कथन सुगम है। ऊपर संयत आदि और जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं इनमें भी इसी प्रकार जानना । यद्यपि सामायिक और छेदोपस्थापनामें काल सन्बन्धी उक्त व्यवस्था बन जाती है पर जो जीव उपशमश्रेणीसे उतर कर और नौवें गुणस्थानमें एक समय तक रह कर मर जाता है उसके सामायिक और छेदोपस्थापना संयममें चौबीस प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है।
६५०८. कृष्ण, नील कापोत पीत और पद्म लेश्याओंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिकाल ओघके समान है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय है। किन्तु इतनी विशेषता है कि कृष्ण, नील और कापोत लेश्याओंमें मिथ्यात्व
और सोलह कषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्यकाल अन्तमुहूर्त है और उपर्युक्त सभी लेश्याओंमें उपर्युक्त सभी प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। शुक्ललेश्यामें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा अनन्तानुबन्धीका एक समय भी है। और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है।
विशेषार्थ-कृष्णादि पांच लेश्याओंके रहते हुए मिथ्यात्व और सोलह कषायोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध हो सकता है तथा सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका नौ नोकषायोंमें संक्रमण हो
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पा० २२ ] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयाड द्विदिकालो
२८६ 8 ५०६. खड्य० बारसक०-णवणोक० [उक्क० ] जहण्णुक्क० एगस। अणुक्क० ज० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि । सासण. सव्वपयडी० उक्क० जहण्णुक्क० एगस० । अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० छावलियाओ । असणगी० एईदियभंगी। सकता है, अतः इनमें मिथ्यात्वादि छब्बोल प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल ओघके समान कहा है। जो पीत और पद्मलेश्यावाला जोव मर कर तिर्यंचोंमें उत्पन्न होता है यदि वह मरने के पहले उपान्त्य समयमें मिथ्यात्व आदिकी उत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त करके अन्तमें अनुत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त करता है तो उसके पीत और पद्म लेश्यामें अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। किन्तु कृष्णादि तीन अशुभ लेश्याएं मरनेके पश्चात् भी एक अन्तमुहर्त काल तक बनी रहती हैं, अतः इनमें उक्त प्रतियां की अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त ही प्राप्त होता है। तथा पांचों लेश्याओंमें उक्त प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है यह सुगम है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति वेदक सम्यक्त्वके ग्रहण करनेके पहले समयमें ही हो सकती है अतः पांचों लेश्याओंमें उक्त दोनों प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जयन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा उद्वेलनाके अन्तिम समयमें जो कृष्णादि लेश्याओं को प्राप्त होते हैं उनके कृष्णादि लेश्याओंमें सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। पर सम्यक्त्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय कृष्ण और नील लेश्यामें उद्वेलनाकी अपेक्षा और कापोत आदि तीन लेश्याओंमें कृतकृत्यवेदक सम्यक्त्वकी अपेक्षा जानना चाहिये । तथा उक्त दोनों प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। शुक्ललेश्यामें मिथ्यात्व आदि छब्बीस प्रकृतियाँको उत्कृष्ट स्थिति पहले समयमें ही सम्भव है, अतः इसमें उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा शुक्ल लेश्याका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है अतः इसमें उक्त छब्बीस प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त कहा है । तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयाजना किया हुआ जो शुक्ललेश्यावाला जाब मिथ्यादृष्टि हो गया और दूसरे सनयम उसको लेश्या बदल गई उसके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय भी पाया जाता है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण हाता हे यह स्पष्ट ही है । तथा सम्यक्त्व
और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य भार उत्कृष्ट काल पूर्ववत् घटित कर लेना चाहिये उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है।
६५०६. क्षायिक सम्यग्दृष्टियोंमें बारह कषाय और नौ नोकषायोंको उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय और अनुत्कृष्ट स्थितिका जवन्य काल अन्तमुहूतं और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागरप्रमाण है। सासादन सम्यग्दष्टयों में सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल छह आवलीप्रमाण है। असंज्ञियों में एकेन्द्रियोंके समान भंग है।
विशेषार्थ-क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त होने के पहले समयमें ही बारह कषाय और नौ नोकषायों की उत्कृष्ट स्थिति सम्भव है अत: इसमें उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है । तथा क्षायिक सम्यक्त्वका संसारमें जवन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है अतः इसमें अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहा है। सासादन सम्यक्त्वके पहले .
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२४०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ द्विदिविहत्ती ३ ६५१०, आहारिं० मिच्छत्त- सोलसक०-णवणोक० उक्क० ओघं । अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० सगहिदी । सम्मत्त सम्मामि० उक्क० जहण्णुक्क० एगस० । अणुक्क० ज० एगसमो, उक्क० वेछावहिसागरो० सादिरेयाणि ।
__ एवमुक्कस्सकालाणुगमो समत्तो । * जहण्णहिदिसंतकम्मियकालो। $ ५११. अहियारसंभालणवक्कमेदं सुगमं ।
* मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-सोलस कसाय-तिवेदाण जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ।।
$ ५१२. कदो ? जहण्णहिदिसंतुप्पण्णविदियसमए चेव एदासिं पयडीणं जहण्णहिदीए विणासुवलंभादो । सो वि ण अजहण्णहिदिगमणेण विणासो; विदियसमयमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति हो सकती है अतः इसमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा सासादनसम्यक्त्वका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल छह आवलि है अतः इसमें अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल छह श्रावलि प्रमाण कहा है । असंज्ञियोंमें एकेन्द्रिय प्रधान हैं अतः असंज्ञियोंके सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका काल एकेन्द्रियों के समान कहा है।
५१०. आहारकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका काल ओघके समान है। अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक दो बार छयासठ सागर है।
विशेषार्थ-मिथ्यात्व आदि छब्बीस प्रकृतियोंकी ओघके सम न उत्कृष्ट स्थिति अाहारक जीवोंके ही हो सकती है अतः आहारकों के उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल ओघके समान कहा है। जो उपान्त्य समयमें उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति प्रात करके अन्तसमयमें अनुत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त करता है और तीसरे समयमें अनाहारक हो जाता है उस आहारकके उक्त छब्बीस प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय होता है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है यह स्पष्ट ही है । शेष कथन सुगम है।
इस प्रकार उत्कृष्ट कालानुगम समाप्त हुआ। * अब जघन्य स्थितिसत्कर्मका काल कहते हैं । $५११. अधिकारके सम्हालने के लिए यह सूत्र वाक्य आया है। जो कि सरल है।
* मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और तीन वेदोंकी जघन्य स्थिति सत्कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है।
६५१२. शंका-इनका जघन्य काल एक समय क्यों है ?
समाधान-जघन्य स्थितिसत्त्वके उत्पन्न होनेके दूसरे समयमें ही इन प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका विनाश हो जाता है। यह विनाश भी अजघन्य स्थितिको प्राप्त करनेसे नहीं होता।
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२६१
गा० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिकालो
२६१ समए णिस्संतभावुवलंभादो।
* छण्णोकसायाण जहण्णढिदिसंतकम्मियकालो जहण्णकस्सेण अंतोमुहत्तं ।
$ ५१३. अद्धाछेदो णिसेयपहाणो, तस्स जदि एसो कालो घेप्पदि तो छण्णोकसायाणं जहण्णहिदीए कालस्स अंतोमुहुत्तत्तं जुज्जदे; विदियहिदीए हिदछण्णोकसायहिदीए चरिमकंडयसरूवेण अवहिदाए चरिमद्विदिकंडयउक्कीरणद्धामेत्तकालम्मि सम्वणिसेयाणं गलणेण विणा अवहाणुवलंभादो। ए जहण्णहिदीए अंतोमुहुत्तत्तमुवलब्भदे; तत्थ कालस्स पहाणत्तुवलंभादो त्ति ? ण एस दोसो, जहण्णहिदि-जहण्णहिदिअद्धच्छेदाणं जइवसहुच्चारणाइरिएहि णिसेगपहाणाणं गहणादो। उक्स्सहिदी उक्कासहिदिअद्धाछेदो च उक्कस्सहिदिसमयपबद्धणिसेगे मोत्तूण गाणासमयपबद्धणिसेगपहाणा तेण अंतोमुहुत्तकालावहाणं छण्णोकसायजहण्णहिदीए जुज्जदि त्ति । पुचिल्लवक्खाणमेदेण सुरेण सह किण्ण विरुज्झदे ? सच्चमेदं विरुज्झदे चेव, किंतु उक्कस्सहिदि-उक्क हिदिअद्धाछेद-जहण्णहिदि-ज हिदिअद्धाछेदाणं भेदपरूवण तं वक्वाणं कयं वक्रवाणाइरिएहि । चुण्णिसुत्तुच्चारणाइरियाणं पुण एसो णाहिप्पामो;
किन्तु दूसरे समयमें इनका निःसत्त्वभाव पाया जाता है । अतः उक्त प्रकृतियों की जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय कहा ।
* छह नोकषायोंके जघन्य स्थिति सत्कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है।
५१३. शंका-अद्धाच्छेद निषेकप्रधान है। उसका यदि यह काल लिया जाता है तो छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका काल अन्तर्मुहूर्त बन जाता है क्योंकि द्वितीय स्थितिमें स्थित छह नोकषायोंकी स्थितिके अन्तिम काण्डकरूपसे अवस्थित रहनेपर अन्तिम स्थितिकाण्डकके उत्कीरण काल प्रमाण काल तक सब निषेकोंका गलनेके बिना अवस्थान पाया जाता है। पर जघन्य स्थितिका अवस्थान अन्तर्मुहूर्त तक नहीं बन सकता है, क्योंकि उसमें कालकी प्रधानता स्वीकार की गई है?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जबन्य स्थिति और जघन्य स्थितिअद्धाच्छेदको यतिवृषभ आचार्य और उच्चारणाचार्यने निषेकप्रधान स्वीकार किया है । तथा उत्कृष्ट स्थिति
और उत्कृष्ट स्थितिअद्धाच्छेद उत्कृष्ट स्थितिवाले समयप्रबद्रके निषेकोंकी अपेक्षा न हो कर नाना समयप्रबद्धोंके निषेकोंकी प्रधानतासे होता है. अतः छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका अन्तमुहूर्तेकाल तक अवस्थान बन जाता है।
शंका-पूर्वोक्त व्याख्यान इस सूत्रके साथ विरोधको क्यों नहीं प्राप्त होता है ?
समाधान-यह सच है कि पूर्वोक्त व्याख्यान इस सूत्रके साथ विरोधको प्राप्त होता ही है किन्तु उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट स्थिति अद्वाच्छेदमें तथा जघन्य स्थिति और जघन्य स्थितिअद्धाच्छेदमें भेदके कथन करनेके लिये व्याख्यानाचार्यने वह व्याख्यान किया है। पर चूर्णिसूत्र
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२६२
जयघवलासहिदे कसायपाहुडे
[ विदिविहती ३ छण्णो कसाय जहणहिदीए अंतो मृहुत्तकालुवदेसादो। पुन्विल्लवक्खाणं ण मद्दयं, सुत्तविरुद्धतादो। ण, वक्खाणभेदसंदरिसणड तप्पत्तीदो पडिवक्खरणयणिरायरण - हे उत्तरण भयो । ण च एत्थ पडिवक्खणिरायरणमत्थि तम्हा वे वि णिरवज्जे त्ति घेतव्यं । हिदि- हिदिश्रद्धच्छेदाणं वित्तिमुत्तकत्ताराणमहिप्पाएण कथं मे ? बुच्चदे-सयल गियकाल पहाणो अद्भावेदो, सयलणि सेगपहाणा हिदि ति ण दोहं पुणरुत्तदा । एवं चुण्णिसुत्तोघं परूविय संपहि जहण्णाजहण्णहिदीणं कालपरूवणद्वमुच्चारणाइरियवक्खाणं भणिस्सामो ।
$ ५१४. जहण पदं । दुविहो गिद्देसो-- श्रघेणादेसेण य । मिच्छत्त- बारसक तिण्णिवेद० ज० के० जहण्णुक्क० एगसम । अजहण्ण० केव० १ णादिअपज्ज० अणादिसपज्जवसिदा । सम्मत्त सम्मामि० जह० जहण्णुक्क एगसमओ । अ० ज० अंतोमुहुत्तं, उक्क० वे छावहिसागरो० सादिरेयाणि । श्रणंताणु ० चउक० [ जह० ] जहण्णुक्क० एगसम । अजह० के ० १ अणादिपज्जवसिदा णादिसपज्जवसिदा सादिसपज्जनसिदा । जो सो सादिसपज्जवसिदो भंगो तस्स इमो णिद्देसोकार और उच्चारणाचार्यका यह अभिप्राय नहीं है, क्योंकि उन्होंने छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका काल अन्तर्मुहूर्त कहा है ।
शंका- पूर्वोक्त व्याख्यान समीचीन नहीं है, क्योंकि वह सूत्रविरुद्ध है ।
समाधान- नहीं, क्योंकि व्याख्यानभेदके दिखलानेके लिये पूर्वोक्त व्याख्यानकी प्रवृत्ति हुई है । जो नय प्रतिपक्षनयके निराकरण में प्रवृत्ति करता है वह समीचीन नहीं होता है । परन्तु यहाँ पर प्रतिपक्ष नयका निराकरण नहीं किया है, अतः दोनों उपदेश निर्दोष हैं ऐसा प्रकृत में ग्रहण करना चाहिये ।
0
शंका- तो फिर वृत्तिसूत्र के कर्त्ता के अभिप्रायानुसार स्थिति और स्थितिद्वाच्छेद में भेद कैसे हो सकता है ?
समाधान - सर्व निषेकगत कालप्रधान श्रद्धाच्छेद होता है और सर्वनिषेकप्रधान स्थिति होती है इसलिये दोनों के कथनमें पुनरुक्त दोष नहीं आता है ।
इस प्रकार चूर्णिसूत्रकी अपेक्षा श्रोघका कथन करके अब जघन्य और अजवन्य स्थितियों के कालका कथन करने के लिये उच्चारणाचार्य के व्याख्यानको कहते हैं
$ ५१४. अब जघन्य स्थिति के कालका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व बारह कषाय और तीन वेदोंकी जघन्य स्थितिका काल कितना है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य स्थितिका काल कितना है ? अनादि अनन्त और अनादि- सान्त काल है । सम्यक्व और सम्यग्मिथ्यात्व की जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागर है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है तथा अजघन्य स्थितिका काल कितना है ? अनन्तानुबन्धी की अजघन्य स्थिति के कालके अनादि-अनन्त, अनादि- सान्त और सादि-सन्त ये तीन विकल्प होते हैं। इनमें जो सादि- सान्त भंग है उसकी अपेक्षा यह प्रकृत में
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गा० २२ ]
हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिकालो जहण्ण० अंतोमु, उक्क० अद्धपोग्गलपरियट्ट देसूणं । छण्णोकसायाणं जह० जहण्णुक्क० अंतोमु० । अजह० केव० १ अणादिअपज्जवसिदा अणादिसपज्जवसिदा । एवं भवसि० । णवरि अणादिअपज्जव० णत्थि ।
५१५. आदेसेण रइएसु मिच्छत्त०-बारस०-भय-दुगुंडाणं ज० जहण्णुक्क० एगस० । अज० ज० एगस०, उक्क. सगहिदी । सम्मत्त-सम्मामि० जह० जहएणुक० कथन किया जा रहा है। जयन्य काल अन्तमुहूते और उत्कृष्ट काल कुछ कम अधंपुद्गलपरिवतनप्रमाण है। छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। तथा अजघन्य स्थितिका कितना काल है ? अनादि-अनन्त और अनादि-सान्त काल है। इसी प्रकार भव्योंके जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि उनके किसी भी प्रकृतिका अनादि-अनन्त काल नहीं है।
विशेषार्थ-मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सोलह कषाय और तीन वेदोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है इसका खुलासा पहले किया ही है। तथा सम्यक्त्व
और सम्यग्मिथ्यात्वको छोड़कर इनकी अजघन्य स्थिति अनादि-अनन्त और अनादि-सान्त होती है, क्योंकि अभव्योंके उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थिति अनादि-अनन्त काल तक पाई जाती है । तथा जिन्होंने दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयकी क्षपणा करते हुए उक्त प्रकृतियों की जघन्य स्थितिको प्राप्त कर लिया है उनके उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका काल अनादि-सान्त है। किन्तु अनन्तान
धी चतुष्कका काल सादि-सान्त भी पाया जाता है। जिसने सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता प्राप्त करके अन्तमुहूते कालमें उनकी क्षपणा कर दी है उसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तमहतं पाया जाता है। तथा सम्यक्त्व
और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट सत्त्वकाल पल्यके तीन असंख्यातवें भागोंसे अधिक एकसौ बत्तीस सागर है, अतः इनकी अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण समझना चाहिये । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अजघन्य स्थितिका काल अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त इस तरह तीन प्रकारका पहले बतलाया ही है । जो अनादि कालसे अनन्त कालतक मिथ्यात्वमें पड़ा है उसके अनादि-अनन्त काल पाया जाता है । जिसने अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करते हुए जघन्य स्थिति प्राप्त कर ली उसके अनादि-सान्त काल पाया जाता है। तथा जिसने विसंयोजनाके पश्चात् पुनः अनन्तानुबन्धीका सत्त्व प्राप्त कर लिया उसके सादि-सान्त काल पाया जाता है। इनमें से सादि-सान्त कालकी अपेक्षा अनन्तानुबन्धीकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है, क्योंकि अनन्तानुबन्धीका सत्त्व प्राप्त होने पर एक अन्तमुहूर्तके भीतर विसंयोजना द्वारा पुनः उसका क्षय किया जा सकता है। तथा अनन्तानुबन्धीकी अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण है यह स्पष्ट हो है । छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है यह पहले बतला ही आये हैं। तथा मिथ्यात्व आदिके समान छह नोकषायोंकी अजयन्य स्थितिका काल अनादि-अनन्त और अनादि-सान्त घटित कर लेना चाहिये । यह सब व्यवस्था भव्योंके बन जाती है, इसलिये इनके कथनको ओघके समान कहा। किन्तु इतनी विशेषता है कि भव्योंके सब प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका अनादि-अनन्त यह विकल्प नहीं पाया जाता।
५१५. श्रादेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी
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२६४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[हिदिविहत्ती ३ एगस०, अज० ज० एगस० । उक्क० सगहिदी । सत्तणोक० ज० जहण्णुक० एयस० । अज. ज. अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि । अणंताणु० जह० जहण्णुक्क० एयस० । अज० जह• अंतोमु० एयसमयो वा, उक्क० सगहिदी । एवं पढमाए । णवरि सगहिदी।
जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय और अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय और अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त या एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। इसी प्रकार पहली पृथिवीमें जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ अपनी उत्कृष्ट स्थिति कहनी चाहिये ।
विशेषार्थ-जो असंज्ञी अपने योग्य जघन्य स्थितिके साथ दो मोड़े लेकर नरकमें उत्पन्न होता है उसके दूसरे मोड़में मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति पाई जा सकती है अतः नरकमें उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा इसके पहले मोड़में अजघन्य स्थिति पाई जाती है अतः उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय कहा है। तथा जो उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिके साथ नरकमें उत्पन्न होता है उसके उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल नरककी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण पाया जाता है। सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति नारकीके कृतकृत वेदक सम्यक्त्वके अन्तिम समयमें और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति उद्वेलनाके अन्तिम समयमें प्राप्त होती है, अतः नारकियोंके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा जिसके कृतकृत्यवेदकके काल में दो समय शेष हैं ऐसा जीव यदि मरकर नरकमें उत्पन्न होता है तो उसके सम्यक्त्वकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल । क समय पाया जाता है। तथा जिसके सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलनामें दो समय शेष हैं ऐसा जीव यदि मरकर नरकमें उत्पन्न होता है तो उसके सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। इन दोनों प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल नरककी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। नरकमें सात नोकषायोंकी जघन्य स्थिति वहाँ उत्पन्न होनेके अन्तर्मुहूर्त कालके पश्चात् एक समयके लिये प्राप्त हो सकती है, अतः सात नोकषायोंकी जघन्य स्थिति का जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा इसके पहले अन्तमुहूर्त काल तक अजघन्य स्थिति होती है, अतः सात नोकषायोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त कहा है। तथा उत्कृष्ट काल नरककी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण होता है यह स्पष्ट ही है । अनन्तानुबन्धीकी जघन्य स्थिति विसंयोजनाके अन्तिम समयमें होती है, अतः नरकमें इसकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा जिसने विसंयोजनाके पश्चात् पुनः अनन्तानुबन्धीकी सत्ता प्राप्त कर ली है और अन्तमुहूर्त कालके भीतर पुनः उसकी विसंयोजना कर दी है उसके अनन्तानुबन्धीकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूतं पाया जाता है । तथा विसंयोजना किया हुआ जो जीव सासादनमें जाकर और दूसरे समयमें अन्य गतिको प्राप्त हो जाता है उसके अनन्तानुबन्धीकी अजवन्य स्थितिका जवन्य काल एक समय भी पाया जाता है। तथा उत्कृष्ट काल नरककी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। पहले नरकमें इसी प्रकार
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गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिकालो
२६५ ५१६. विदियादि जाव छहि त्ति मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० ज० जहण्णुक्क० एगस० । अजहण्ण० [जहण्णक० ] जहण्णुक्कस्सहिदी कायव्वा । सम्पत्त-सम्मामि० ज० जहण्णुक० एगस० । अज० ज० एगस०, उक्क० सगहिदी । अणंताणु०चउक्क० जह० जहण्णक्क० एगस० । अज० ज० अंतोमु० एगसमो वा, उकक० सगहिदी । सत्तमाए मिच्छत्त-बारसक०-भय-दुगुंछा० जह० ज० एगस०, उक्क० अंतीमु० । अज० ज. अंतोमु०, उक्क० सगहिदी । [सम्मत्त-] सम्मामि० णिरोघं । अर्णताणु०-सत्तणोक० जह• जहण्णुक्क० एगस० । अज० जह० अंतोम०, उक्क० सगहिदी । जानना चाहिए। किन्तु अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल कहते समय उसे पहले नरककी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहना चाहिये।
६५१६. दूसरी से लेकर छठी पृथिवी तकके नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकपायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है और अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण करना चाहिये । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त या एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है। सातवीं पृथिवीमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त
और उत्कृष्ट काल अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थितिका काल सामान्य नारकियोंके समान है। अनन्तानुबन्धी चतुष्क और सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहर्त और उत्कृष्ट काल अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है।
विशेषार्थ-द्वितीयादि पृथिवियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थिति अन्तिम समयमें ही प्राप्त हो सकती है, अतः यहां उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा। पर यह जघन्य स्थिति उसी जीवके होती है जिसने उत्कृष्ट आयुके साथ नरकमें उत्पन्न होनेके पश्चात् अन्तमुहूर्त कालके भीतर उपशम सम्यक्त्व प्राप्त कर लिया है और अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके जा जीवन भर वेदक सम्यग्दृष्टि बना रहा है। शेष जीवोंके तो उक्त कमांकी अजघन्य स्थिति ही होती है, अतः द्वितीयादि नरकोंमें उक्त कर्मोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अपनी अपनी जघन्य स्थितिप्रमाण और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहा। यहां सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजवन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय उद्वेलनाकी अपेक्षा घटित कर लेना चाहिये । शेष कथन सुगम है क्योंकि उसका पहले खुलासा कर आये हैं, उसी प्रकार यहां भी कर लेना चाहिये । सातवीं पृथिवीमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति पर्यायके अन्त में एक समय तक या अन्तमुहूर्त काल तक प्राप्त हो सकती है अतः इसके उप प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा। अनन्तानुबन्धीकी जघन्य स्थिति विसंयोजनाके अन्तिम समयमें तथा सात नोकषायोंकी जघन्य स्थिति भवके अन्तिम अन्तमुहूर्तके भीतर प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धकालके
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२६६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[द्विदिविहत्ती ३ ६५१७. तिरिक्खेसु मिच्छत्त-बारसक०-भय-दुगुंछा जह० ज० एगस०, उक्क० अंतोम० । अज० ज० एगस०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। सम्मत्त०-सम्मामि० ज० जहण्णुक्क० एगस० । अज० जह० एगस०, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि सादिरेयाणि । अयंतागु०चउक्क० [ज०] जहण्णुक्क० एयस० । अज० ज० अंतोमु० एयसमो वा, उक्क० अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । सत्तणोक० ज० जहण्णुक्क० एगस । अज० ज० खुद्दाभवग्गहणं, उक्क० अणंतकालमसंखे० पो०परिया।
६५१८.पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंतिरि०पज्ज-पंचिंतिरि०जोणिणीसु मिच्छत्त०बारसकसाय-भय-दुगुंछ• जह० ज० एगस०, उक्क० वेसमया। अज० ज० खुद्दाभवगहणं [ अंतोमहुत् ] विसमऊणं एयमत्रो वा, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि पुन्वकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि । सम्मत्त०-सम्मामि० जह० जहण्णक्क० एगसमओ । अज. ज० एगस०, उक्क० सगहिदी। अणंताणु०चउक्क० जह० जहण्णुक्क० एगस० । अज० ज० अंतोम०, उक्क० सगहिदी। एवं सत्तणोकसायाणं । गवरि अणंताणु० अज० ज० एगसमी वा। अन्तिम समयमें प्राप्त होती है अतः इन प्रकृतियों की जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । शेष कथन सुगम है।
६५१७. तिथंचोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूत है तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय
और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक प्रमाण है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थिति का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त या एक समय और उत्कृष्ट काल अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य
और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहण प्रमाण और उत्कृष्ट अनन्त काल है जो असंख्यात पुगदल परिवर्तनप्रमाण है ।
६५१८ पंचेन्द्रियतिर्यंच, पंचेन्द्रियतिथंच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियों में मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल दो समय कम खुद्दाभवग्रहण प्रमाण, दो समय कम अन्तमुहूर्त या एक समय और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है । सम्यक्त्व और सम्याग्मथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जवन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अग्नी अपनी स्थिति प्रमाण है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल अपनी स्थिति प्रमाण है। इसी प्रकार सात नोकषायोंका जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय भी है।
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गा० २२ ]
विहत्तीए उत्तरपयडिट्ठिदिकालो
$ ५१६. पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज० मिच्छत्त० - सोलसक० -भय-दुगुंछाणं जह० ज० एस ०, उक्क० वे समया अ० ज० खुद्दाम वग्गहणं दुसमऊणं एयसमत्रो वा, उक्क० अंतोमु० । सम्मत्त सम्मामि० जह० जहण्णुक्क० एस० । अज० ज० एगस ०, उक्क० अंतोमु० | सत्तणो० ज० जहण्णुक्क० एस० | अज० जहण्णुक्क • अंतोमु० । एवं मणुस पज्ज० - पंचिंदियअपज्ज० - तस अपज्जत्ताणं ।
१५१६. पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकों में मिध्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है । तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल दो समय कम खुदाभवग्रहणप्रमाण या एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा
२६७
जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और जीवोंके जानना चाहिये ।
अपर्याप्त
विशेषार्थ - तिर्यंचों में मिध्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति बादर एकेन्द्रियोंमें कमसे कम एक समय तक और अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक प्राप्त होती है, अतः इनमें उक्त प्रकृतियों की जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कहा है। तथा जो तिथंच जघन्य स्थितिके पश्चात् एक समय तक उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थिति के साथ रहा और दूसरे समयमें मर कर अन्य गतिमें उत्पन्न हो गया उसके उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय होता है । तिर्यंचोंमें उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थिति के साथ रहनेका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक है, क्योंकि सूक्ष्म एकेन्द्रियों में जघन्य स्थिति नहीं होती और सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें रहनेका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक है, अतः उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक कहा । सम्यक्त्व और सम्यग्मि - थ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल नारकियोंके समान जानना । किन्तु जघन्य स्थिति उत्कृष्ट कामें विशेषता है । बात यह है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के साथ कोई जीव तिर्यंचपर्याय में अधिक से अधिक साधिक (पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक) तीन पल्य तक रह सकता है, अतः इनमें उक्त दो प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल साधिक तीन पल्य कहा । तिर्यंचपर्याय में अनन्तानुबन्धीकी अजघन्य स्थिति के साथ निरन्तर रहनेका काल असंख्यात पुद्गल परिवर्तन है अतः इनमें अनन्तानुबन्धीकी अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा । अन्तानुबन्धीकी अपेक्षा शेष कथन सामान्य नारकियोंके समान जानना । जो कषायों की जघन्य स्थितिका बन्ध करके पश्चात् प्रतिपक्ष प्रकृतियोंका दीर्घकाल तक बन्ध करता है उसके प्रतिपक्ष प्रकृतियों के बन्धके अन्तिम समय में सात नोकषायोंकी जघन्य स्थिति होती है, अतः सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । तथा तिर्यंच पर्यायमें रहने का जघन्य काल खुद्दाभवग्रहण प्रमाण और उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है, अतः सात नोकषायोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण कहा । पंचेन्द्रिय तिर्यंचत्रिक के पहले और दूसरे विग्रह के समय जघन्य स्थिति हो सकती है अतः इनके मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जवन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय कहा । तथा ३=
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trader कसा पाहुडे
[ द्विदिहिती ३
$ ५२०. मणुस - मणुमपज्जत - मरणुस्सिणीसु मिच्छत्त - बारसक० णवणोक० जह० मोघं । अज० ज० खुद्दाभवग्गणं अंतोमु०, उक्क० सगहिदी । सम्मत्त सम्मामि० पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तभंगो । अरांता ० चउक्क० जह० जहण्णुक्क० एगसमओ । अजह० ज० अंतोमु० एगसमओ वा, उक्क० सगहिदी । णवरि माणुसपज्ज० इत्थवेद० छष्णोकसायभंगो । मणुसिणीसु अदृणोक० जह० जहण्णुक्क० अंतोमुहुचं ।
१५२१ देवाणं णेरइयभंगो। भवरण ० - वाणवैतराणमेवं चेव । वरि सगहिदी ।
२६८
इन दो समयको घटा देने पर पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के दो समय कम खुद्दाभवग्रहण प्रमाण और शेष दो प्रकारके तिर्यों के दो समय कम अन्तर्मुहूर्त अजघन्य स्थितिका जघन्य काल होता है । तथा जिस पंचेन्द्रियतिर्यंच त्रिकके भवके दूसरे समय में जघन्य स्थिति हुई उसके पहले समय में अजघन्य स्थिति होती है अतः इनके अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय भी सम्भव है । शेष कथन सुगम है । इतनी विशेषता है कि योनिमती तिर्यंचके सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति और अजघन्य स्थितिका जघन्य काल उद्व ेलनाकी अपेक्षा ही घटित करना चाहिये। पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकों में मिध्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अजघन्य स्थितिका जघन्य काल तिर्यंचोंके समान घटित कर लेना चाहिये । पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्त अवस्थामें रहनेका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, अतः इनमें उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा। शेष प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका का पूर्व में कहे हुए कालको ध्यान में रखकर घटित कर लेना चाहिये । मनुष्य अपर्याप्त, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और अपर्याप्त जीवों की स्थिति और पर्याय पंचेन्द्रिय तिर्येच अपर्याप्तकों के समान है अतः इनमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल पंचेन्द्रियतिर्यंच अपर्याप्तकोंके समान कहा । ५२०. मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियों में मिध्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकपायोंकी जघन्य स्थिति के समान है । तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल सामान्य मनुष्योंमें खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और शेष दोमें अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग पंचेन्द्रियतिर्यंचपर्याप्तकों के समान है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका अन्य काल अन्तर्मुहूर्त या एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । किन्तु इतनी विशेषता है कि मनुष्य पर्याप्तकों में स्त्रीवेदका भंग छह नोकषायों के समान है और मनुष्यनियोंमें आठ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल
मुहूर्त है।
विशेषार्थ - सामान्य मनुष्योंका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहण प्रमाण तथा पर्याप्त और मनुष्यनियोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है, अतः सामान्य मनुष्यों में मिथ्यात्व आदि बाईस प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहण प्रमाण और पर्याप्त तथा मनुष्यनियों में उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्तं कहा । तथा मनुष्य पर्याप्तकों में स्त्रीवेदके अन्तिम काण्डकके शेष रहने पर जघन्य स्थिति प्राप्त होती है, अतः इनके स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल छह नोकषायोंके समान अन्तर्मुहूर्त कहा। इसी प्रकार मनुष्यनियोंके आठ कषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त जानना । शेष कथन सुगम है ।
१५२१, देवों में नारकियों के समान जानना चाहिये । भवनवासी और व्यन्तर देवोंके भी
1
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રહદ
गां० २२
हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिकालो जोदिसियादि जाव उवरिमगेवज्जो त्ति मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० जह• जहण्णुक० एगस० । अज० ज० जहण्णहिदी, उक० उकस्सहिदी। सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु०चउकाणं देवोघभंगो। रणवरि अप्पप्पणो उकस्सहिदी वतव्वा । अणुदिसादि जाव अवराजिद० मिच्छत्त-सम्मामि०-बारसक०-गवणोक० ज० जहण्णुक्क० एगसः । अज० जह० ज०हिदी, उक्क० उक्कस्सहिदी कायव्वा। सम्मत्त-अणंताणु० चउक्क० देवोघं । णवरि अणंताणु० अज० एयसमयो णत्थि । सबढ० मिच्छ०-सम्मामि०-बारसक०. णवणोक० जह० जहण्णुक्क० एयसमओ। अज० जह० तेत्तीसं सागरोव० समऊणाणि, उक्क० तेत्तीस सागरोवमाणि संपुण्णाणि । सम्मत्त०-अणंताणु० जह० जहण्णुक. एयस० । अज० जह० एअसमत्रो अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरो । इसी प्रकार जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके अपनी स्थिति कहनी चाहिये। ज्योतिषियोंसे लेकर उपरिम अवेयकतकके देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल जघन्य स्थितिप्रमाण और उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग सामान्य देवोंके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति कहनी चाहिये । अनुदिशिसे लेकर अपराजित तकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल जघन्य स्थितिप्रमाण और उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण करना चाहिये । सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका काल सामान्य देवोंके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय नहीं है। सर्वार्थसिद्धिमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय कम तेतीस सागर और उत्कृष्ट काल पूरा तेतीस सागर है। सम्यक्त्व
और अनन्तानुवन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल सम्यक्त्वका एक समय और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल दोनोंका तेतीस सागर है।
विशेषार्थ-जिस प्रकार सामान्य नारकियोंके सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल बतला आये हैं उसी प्रकार सामान्य देवोंके जानना । तथा भवनवासी और व्यन्तर देवोंके भी इसी प्रकार जानना । विशेष बात इतनी है कि इनके अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण जानना चाहिये । ज्योतिषियोंसे लेकर उपरिम अवेयक तक के देवोंके मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंको जघन्य स्थिति भवके अन्तिम समयमें सम्भव है, अतः इनके उक्त प्रकृतियोंकी जवन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा। पर यह जघन्य स्थिति उत्कृष्ट स्थितिवाले सम्यग्दृष्टि देवोंके सम्भव है, अतः उक्त कर्मों की अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अपनी-अपनी जघन्य स्थितिप्रमाण और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहा । शेष कथन सुगम है। अनुदिश आदिकमें इसी प्रकार जानना चाहिये। पर इनके सम्बग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका काल मिथ्यात्वके समान घटित करके कहना चाहिये, क्योंकि अनुदिशसे लेकर ऊपरके सब देव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं,
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AAAAAAAMA
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ ५२२. एईदिएसु मिच्छत्त-सोलसक०-भय-दुगु'छाणं जह०] जह• एयसमओ, उक्क० अंतोमु० । अज० ज० एगस०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। सम्मत्त-सम्मामि० ज० जहण्णुक० एगस० । अज० ज० एगस०, उक० पलिदो० असंखेज भागो । सत्तणोक० ज० जहण्णुक० एगस०। अज० ज० एगस०, उक्क० असंखेज्जा लोगा । एवं सुहमेइंदियाणं । बादरेइंदियाणमेवं चेव । णवरि सगहिदी । बादरेइंदियपज्ज० मिच्छत्त-सोलसक०-भय-दुगुछ० जह० ज० एगस०, उक्क० अंतोम० । अज० ज० एगस०, उक० संखेजाणि वस्ससहस्साणि । सम्मत्त-सम्मामि० उकस्सभंगो। सत्तणोक० जह० जहण्णुक० एगस० । अज० ज० एगस०, उक० संखेज्जाणि वस्ससहस्साणि । बादरेइंदियअपज्ज०-सुहुमेइंदियपज्जत्तापज्जत्ताणं मिच्छत्त-सोलसक०भय-दगंछ० ज० ज० एगसमओ, उक्क० अंतोम० । अज० ज० एगसमओ, उक्क० अंतोम० । सम्मत्त०-सम्मामि०-सत्तणोक० ज० जहण्णुक्क० एगसगओ। अज० ज० अतः इनके सम्यग्मिथ्यात्वको उद्वेलना सम्भव नहीं। तथा जो उपशमसम्यग्दृष्टि अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनावाला जीव भवके अन्तमें सासादनमें जाता है उसके अनन्तानुबन्धीकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। पर यहाँ कोई भी जीव सम्यक्त्वसे च्युत नहीं होता अतः यहाँ अनन्तानुबन्धीकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय सम्भव नहीं । सर्वार्थसिद्धिमें जघन्य और उत्कृष्ट आयुका भेद नहीं है तथा वहाँ भवके अन्तिम समयमें मिथ्यात्व
आदि तेइस प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति सम्भव है अतः वहाँ जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा। तथा इस एक समयको कम कर देने पर अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समम कम तेतीस सागर प्राप्त होता है। शेष कथन सुगम है।।
२२. एकेन्द्रियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण है। इसी प्रकार सूक्ष्म एकेन्द्रियोंके जानना चाहिये। बादर एकेन्द्रियोंके भी इसी प्रकार जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि अपनी स्थिति कहनी चाहिये। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग उत्कृष्ट स्थितिके समान है । सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तक, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट
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गा० २२ ]
हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिकालो एगसमो, उक्क० अंतोमु० ।।
६५२३. सव्वविगलिंदिय० मिच्छत्त-सोलसक-भय-दगुछ० ज० ज० एगसमो. उक्क० वेसमया। अज० ज० खुद्दाभवग्गहणं अंतोमहुतं विसमऊणं एयसमयो वा, उक० अप्पप्पणो उकस्सहिदी । सम्मत्त-सम्मामि० जह• जहण्णक० एगस० । अज० ज० एगस०, उक्क० सगहिदी। सत्तणोक० ज० जहण्णुक० एगस० । अज० ज० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी ।
६५२४. पंचिंदिय-पंचिं०पज्ज-तस-तसपज्जा मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० काल एक समय तथा अजघन्य स्थिातका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमहते है।
विशेषार्थ-एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त तथा अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय और सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त तथा अपर्याप्त जीवोंके अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिका विचार करके सब प्रकृतियों की अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल कहना चाहिये । परन्तु एकेन्द्रियोंमें जघन्य स्थिति केवल बादर पर्याप्तके ही होती है सूक्ष्मके जघन्य नहीं होती और सूक्ष्मोंका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक है अतः एकेन्द्रियोंमें अजघन्यका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक कहा है। यद्यपि एकेन्द्रियोंमें अजघन्यकी उत्कृष्ट स्थिति असंख्यात लोक प्रमाण है, फिर भी इनके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है, क्योंकि मिथ्यादृष्टि जीवके इससे अधिक काल तक इनकी सत्ता नहा पाई जाती । तथा इन पूर्वोक्त एकेन्द्रियादि जीवोंमें जो जघन्य स्थितिके पश्चात् एक समय तक अजघन्य स्थितिके साथ रहा और दूसरे समयमें मर गया उसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके बिना शेष सब प्रकृतियों की अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है। तथा इनके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय उद्वेलनाकी अपेक्षा कहा है । तथा मिथ्यात्व, सालह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहर्त तथा सात नाकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय सामान्य तियेचांक समान अपनी अपनी पर्यायमें घटित करके जानना चाहिये ।
$ ५२३. सब विकलेन्द्रियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय है तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल पर्याप्तकोंको छोड़ कर शेषमें दो समय कम खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और पर्याप्तकोंमें दो समय कम अन्तर्मुहूर्त अथवा एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूते और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है।
विशेषार्थ-विकलत्रयोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल दो समय कम खुद्दाभवग्रहण प्रमाण और दा समय कम अन्तमुहूर्त या एक समय पंचेन्द्रिय तियच निकके समान घटित कर लेना चाहिये। तथा अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। शेष कथन सुगम है ।
६५२४. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस और त्रस पर्याप्त जीवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय
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अयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ ज० ओघं । अज० ज० खुद्दाभवग्गहणं अंतोमु०, उक्क० सगहिदी । सम्मत्त-सम्मामि० ज० जहएणुक० एगस० | अज० ज० एगस०, उक्क० वे छावहिसागरो० सादिरेयाणि । अणंताणु०चउक्क० ज० जहण्णुक्क० एगस । अज० ज० अंतोमु० [एगसमश्रो वा], उक्क० सगहिदी । एवं चक्खु०-सण्णि त्ति ।।
$ ५२५. कायाणुवादेण पुढवि०-आउ०-तेउ०-चाउ०-वणप्फदि०-णिगोद० और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका काल ओघके समान है तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल पर्याप्तकों के बिना शेषमें खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और पर्याप्तकोंमें अन्तर्मुहूर्तप्रमाण और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य
और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागर है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त या एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। इसी प्रकार चक्षदशनवाले और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका काल जो अोघमें कहा है वह पंचेन्द्रियादिकी प्रधानतासे कहा है, अतः इन चारोंमें उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका काल ओघके समान जानना । तथा पंचेन्द्रिय और त्रसोंमें उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहण प्रमाण और पंचेन्द्रिय पर्याप्त तथा त्रस पर्याप्तकोंमें उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त होगा। तथा उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण होगा। इनमें पंचेन्द्रियोंकी कायस्थिति पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक हजार सागर, पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंकी कायस्थिति सौ पृथक्त्व सागर, त्रसकायिकोंकी कायस्थिति पूर्वकोटि पृथक्त्वसे अधिक दो हजार सागर और बस पर्याप्तकोंकी कायस्थिति दो हजार सागर है। अतः इतने काल तक उक्त जीवोंको उक्त प्रकृतियोंके अजघन्य स्थितिके साथ रहने में कोई बाधा नहीं है। सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्टकाल एक समय कृतकृत्य वेदकके अन्तिम समयमें होगा । तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट एक समय काल उद्वेलना और कृतकृत्यवेदक इन दोनोंकी अपेक्षा हो सकता है। तथा इनके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका सत्त्व साधिक एक सौ बत्तीस सागर तक रह सकता है अतः उक्त दो प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल साधिक एक सौ बत्तीस सागर कहा। विसंयोजनाके अन्तिम समयमें अनन्तानुबन्धाकी जघन्य स्थिति प्राप्त होती है और उसे चारों प्रकारके जीवोंके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना हो सकती है अतः इनके अनन्तानुबन्धीकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा। जिसने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की है ऐसा जीव यदि मिथ्यात्वमें जाय और वहां अतिलघु काल तक रह कर और पुनः वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त करके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कर ले तो उसे ऐसा करने में अन्तमुहूर्त काल लगता है अतः अनन्तानुबन्धीकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त कहा। परन्तु आयुके अन्तिम समयमें एक समय कालवाला सासदन हुआ और मरकर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होनेवाले किसी भी चौवीसकी सत्तावाले पंचेन्द्रिय या त्रसके अनन्तानुबन्धीकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय भी प्राप्त होता है। तथा उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ठ स्थिति प्रमाण होता है यह स्पष्ट ही है।
६५२५. कायमार्गणाके अनुवादसे सभी पृथिवीकायिक, सभी जलकायिक, सभी अग्नि
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३०३
गा० २२ ]
हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिकालो एइंदियभंगो । णबरि सगसगुक्कस्सहिदी वत्तव्वा ।
$ ५२६,पंचमण-पंचवचि० मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-सोलसक०-णवणोक० जह० ओघं। णवरि छण्णोक० ज० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु । सव्वेसिमज० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । ओरालि० एवं चेव । णवरि सगहिदी । एवं वेउविय० । णवरि छएणोक० ज० जहण्णुक्क० एयस० । कायजोगि० मिच्छत्तसोलसक०-णवणोक० ज० मणजोगिभंगो । अज० ज० एगस०, उक्क० अणंतकालो । सम्मत्र-सम्मामि० एइंदियभंगो। ओरालियमिस्स० बादरेइदियअपज्जत्तभंगो । वरि सत्तणोक • अज. जह• अंतोमु० । वेउव्वियमिस्स० मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-सोलसक०-णवणोक० ज० जहण्णुक्क० एगस० । अज. जहण्णुक्क० अंतोमु । णवरि सम्मत्त-सम्मामि० अज० ज० एगसमत्रो। एवमाहारमिस्स । णवरि सम्मत्त-सम्मामि० अन० जहण्णुक्क० अंतोमु० । आहार० वेउब्धियभंगो । एवमकसाय-महुम०-जहाक्वादसंजदे त्ति । कम्मइय० मिच्छत्त-सोलसक०-भय-दुगुंछा. कायिक, सभी वायुकायिक और सभी निगाद जीवोंमें एकेन्द्रियों के समान भंग हे। इतनी विशेषता है कि इनके अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण कहना चाहिये। तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार एकेन्द्रियोंके सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल बतला आये हैं उसी प्रकार इनके यथायोग्य जान लेना चाहिये।
६५२६. पाँचों मनोयोगी और पाँचों वचनयोगी जीवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व. सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका काल ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है तथा सभी प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। औदारिककाययोगी जीवोंके भी इसी प्रकार जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ अपनी स्थिति कहनी चाहिये । इसी प्रकार वैक्रियिककाययोगी जीवोंके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । काययोगियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका भंग मनोयोगियों के समान है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट अनन्त काल है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका एकेन्द्रियों के समान भंग है । औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सात नोकषायोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तमु हूत है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य
और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय है। इसी प्रकार आहारकमिश्रकाययोगियोंमें जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। आहारककाययोगियोंमें वैक्रियिककाययोगियोंके समान भंग है। इसी प्रकार अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिए। कार्मणकाययोगियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति और अजघन्य स्थितिका जघन्य
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३०४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[द्विदिविहत्ती ३ जहण्णडिदि० अजहण्णहिदि० च जह० एगसमओ, उक्क० तिण्णि समया। सम्मत्तसम्मामि०-सत्तणोक० ज० जहण्णुक्क० एगसमो। अज० ज० एगसमओ, उक्क० तिण्णि समया । एवमणाहारि० ।
काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय है। इसी प्रकार अनाहारकोंके जानना ।
विशेषार्थ-पांचों मनोयोग और पांचों वचनयोगोंमें छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय तथा सब प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय योग परिवर्तनकी अपेक्षा कहा है । शेष कथन सुगम है। औदारिक काययोगका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कम बाईस हजार वर्ष है । अतः औदारिक काययोगमें सब प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण प्रात होता है। शेष कथन मनोयोगके समान जानना । जो देव दो बार उपशम श्रेणी पर चढ़कर सर्वार्थसिद्धिमें उत्पन्न होनेवाले भवके अन्तिम समयमें वैक्रियिककाययोगी होता है उसीके वैक्रियिक काययोगमें छह नोकषायोंकी जघन्य स्थिति सम्भव है अतः वैक्रियिककाययोगमें छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा। तथा इसके सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति उद्वेलनासे ही प्राप्त होगी क्योंकि जो कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि देव या नारकियोंमें उत्पन्न होता है उसके वैक्रियिक मिश्रकाययोगके कालमें ही कृतकृत्यवेदकका काल समाप्त हो जाता है । काययोगका उत्कृष्ट काल असंख्यात पुगदल परिवर्तन प्रमाण है अतः इसमें मिथ्यात्व आदि छब्बीस प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा । काययोगमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल एकेन्द्रियों के समान कहा इसका यह तात्पर्य है कि जिस प्रकार एकेन्द्रियोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण बन जाता है उसी प्रकार काययोगमें भी जानना। औदारिकमिश्रकाययोगमें सात नोकषायोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय न कहकर अन्तमुहूर्त बतलाया है उसका कारण यह है कि यह जघन्य स्थिति उस जीवके होती है जो कोई बादर एकोन्द्रय जघन्य स्थिति सत्त्वके साथ पंचेन्द्रिय तिर्यों में उत्पन्न हुआ और अन्तर्मुहूर्त काल तक अपने अपने प्रतिपक्ष बन्धक कालमें रहकर प्रतिपक्ष बन्धक कालके अन्तिम समयमें विद्यमान है उसके औदारिकमिश्रमें सात नोकषायोंकी जघन्य स्थिति होती है। औदारिकमिश्रका काल प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्ध कालसे बहुत अधिक है। जघन्य स्थितिसे पूर्व व पश्चात् काल अन्तमुहूर्त होता है अतः सात नोकषायों की अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त कहा है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति वैक्रियिक मिश्रकाययोगके अन्तिम समयमें सर्वार्थसिद्धि में सम्भव है। सात नोकषायोंकी जघन्य स्थिति अपनी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धकालके अन्तिम समयमें प्रथम नरकमें सम्भव है तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति किसी भी समय सम्भव है, अतः इसमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा जिस वैक्रियिकमिश्रकाययोगीके दूसरे समयमें सम्यक्व या सम्यग्मिध्यात्वकी जघन्य स्थिति होती है उसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। शेष कथन सुगम है । आहारकमिश्रकाययोगमें इसी प्रकार जानना चाहिये । किन्तु इनके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी न तो उद्वेलना होती है और न क्षपणा, अतः
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गा० २२ ]
हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिट्ठिदिकालो
३०५
$ ५२७. वेदाणुवादेण इत्थवेदसु मिच्छत्त- अडकसाय- द्वणोकसाय- चत्तारिसंजलण० जह० जहण्णुक्क० एयस० । अज० ज० एस ०, उक्क० सगहिदी | एवं ण स० । णवरि जह० जहण्णुक्क० अंतोमु० । सम्मत्त०० - सम्मामि० जह० जहण्णुक्क० एस० । अज० ज० एगस०, पणवण्णपलिदोवमाणि सादिरेयाणि । अणताणु ० चउक्क० ज० जहण्णुक्क० एस० । अज० ज० अंतोमु० एयसमयो वा, उक्क० सहिदी ।
उक्क ०
इनके उक्त दो प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । तथा इनकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय पर्याप्त योग होनेके पूर्ववर्ती समयमें होगा । आहारककाययोगमें वैक्रियिक काययोगके समान सब प्रकृतियों की स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल जानना चाहिये । मूलमें अकषाय आदि और जितनी मार्गणाएँ गिनाई में भी इसी प्रकार जानना चाहिये । कार्मण काययोगका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय है अतः इसमें मिध्यात्व आदि उन्नीस प्रकृतियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण बन जाता है। जो कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव कारण काययोगके रहते हुए क्षायिकसम्यग्दृष्टि हो जाता है उसके काम काययोग में सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय पाया जाता है । तथा जिसने कार्मणकाययोगमें सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना की है उसके उक्त प्रकृतिकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय पाया जाता है । सात नोकषायों की जघन्य स्थिति कार्मणकाययोगके दूसरे समय में प्राप्त होती है अतः इनकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । तथा कार्मण काययोग में उक्त नौ प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय कार्मणकाययोग जघन्य और उत्कृष्ट कालकी अपेक्षा बन जाता है। मोहनीयकी सत्तावाले जो जीव कार्मणकाययोगी होते हैं वे ही अनाहारक होते हैं, अतः अनाहार कोंमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल कार्मणकाययोगियोंके समान कहा ।
आठ कषाय, आठ
$ ५२७. वेदमार्गणा के अनुवादसे स्त्रीवेदवालोंमें मिथ्यात्व, नोकषाय और चार संज्वलनकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है । इसी प्रकार नपुंसक - वेदका जानना । किन्तु इतनी विशेषता है कि इसकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल मुहूर्त है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक पचवन पल्य है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त या एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है ।
'विशेषार्थ-स्त्रीवेदवाले जीवोंके मिध्यात्वकी जघन्य स्थिति मिथ्यात्वकी क्षपणा अन्तिम समय में और आठ कषायोंकी जघन्य स्थिति आठ कषायोंकी क्षपणा के अन्तिम समयमें तथा आठ नोकषाय और चार संज्वलनकी जघन्य स्थिति सवेदभाग के अन्तिम समयमें प्राप्त होती है अतः इनकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । स्त्रीवेदी जीव जब नपुंसक वेदके अन्तिम काण्डका पतन करता है तब उसके नपुंसकवेदकी जघन्य स्थिति होती है पर इसका उत्कीरणकाल अन्तर्मुहूर्त है, अतः इसके नपुंसकवेदकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा। जो जीव उपशमश्रेणी से उतर कर एक समय तक स्त्रीवेदके उदय के साथ रहा और ३६
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अथधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ द्विदिहिती ३
९५२८ पुरिस० मिच्छत्त- बारसक० पुरिस० ज० जहण्णुक्क० एयस० । अज० ज० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी । सम्मत्त० - सम्मामि० जह० जहण्णुक्क ० एगसम । अज० ज ० एस ०, उक्क० वे छावहिसागरो० सादिरेयाणि । ऋणोक० ज० जहण्णुक्क० अंतोमु० । अज० ज० अंतोमु०, उक्क० सहिदी । ता० जह० जहण्णु० एयस० । अज० जह० अंतोमु० एयसमत्रो वा उक्क० सगहिदी ।
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दूसरे समय में मरकर देव हो गया उसके उक्त सत्र प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है तथा उक्त सब प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है यह स्पष्ट ही है । स्त्रीवेद के साथ निरन्तर रहनेका उत्कृष्ट काल सौ पल्य पृथक्त्व प्रमाण है । अतः यहाँ उत्कृष्ट स्थिति से यही काल लेना चाहिये । जो स्त्रीवेदी जीव दर्शनमोहनीय की नृपणा कर रहा है उसके अपनी अपनी क्षपणा के अन्तिम समयमें सम्यक्त्व और सम्यग्मि - ध्यात्वकी जघन्य स्थिति प्राप्त होती है अतः इसके उक्त दोनों प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । इसी प्रकार विसंयाजनाकी अपेक्षा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय जानना । जो द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि जीव उपशमश्रेणी से उतर कर एक समय तक स्त्रीवेदके साथ रहा और दूसरे समय में देव हो गया उसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है । एक जीव स्त्रावेदके रहते हुए निरन्तर वेदकसम्यक्त्वके साथ कुछ कम पचवन पल्य काल तक रह सकता है। यदि कोई जीव पचवन पल्यकी आयुके साथ देवी हो गया और वहाँ उसने वेदक, सम्यक्त्व प्राप्त कर लिया तो उसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल साधिक पचवन पल्य पाया जाता है । जो चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला मिध्यात्वमें जाकर अन्तर्मुहूर्त के भीतर सम्यग्दृष्टि हो कर पुनः अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कर लेता है उसके अनन्तानुबन्धीकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्तं पाया जाता है । तथा जो चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला स्त्रीवेदी जीव जीवनके अन्तिम समय में सासादनको प्राप्त होता है और दूसरे समय में मर कर अन्यवेदी हो जाता है उसके अनन्तानुबन्धीकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है । तथा अनन्तानुबन्धीकी अजघन्य स्थितिकी उत्कृष्ट काल अपनी उत्कृष्ट स्थितिमा है यह स्पष्ट ही है ।
५२८. पुरुषवेदवालों में मिध्यात्व, बारह कषाय और पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागर है। आठ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्तं तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त या एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है ।
विशेषार्थ - पुरुषवेदवाले जीवोंके मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति मिथ्यात्व की क्षपणा के अन्तिम समयमें, आठ कषायोंकी जघन्य स्थिति आठ कषायोंकी क्षपणा के अन्तिम समय में तथा चार संज्वलन और पुरुषवेदकी जघन्य स्थिति सवेदभाग के अन्तिम समयमें होती है, अतः इनके उक्त प्रकृतियों
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गा• २२ ]
हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिविदिकालो $ ५२९. णवुस० मिच्छत्त-अट्ठक०-अहणोक०-चत्तारिसंजल० ज० जहण्णुक० एगस० । अज० ज० एगस०, उक्क० अणंतकालमसंखेजा पो०परियट्टा । सम्मत्तसम्मामि० जह० जहण्णक्क० एगस० । अज० ज० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० सादिरेयाणि । अणंताणु० चउक्क० जह• जहण्णुक्क० एगस० । अज. ज. अंतोमु० की जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा। कोई मनुष्य उपशमश्रेणीसे उतर कर एक समयके लिये पुरुषवेदी हुआ और दूसरे समयमें मरकर वह देव हो गया तो भी वह पुरुषवेदी ही रहता है अतः पुरुषवेदमें उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय नहीं बनता । किन्तु जो उपशमश्रेणीसे उतर कर और पुरुषवेदी हो कर अन्तर्मुहूर्तमें क्षपकश्रेणी पर चढ़कर उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिको प्राप्त कर लेता है उसके उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त पाया जाता है। इसी प्रकार आठ नोकषायोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त घटित कर लेना चाहिये। दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाले जीवके अन्तिम समयमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति प्राप्त होती है अतः इसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल जिस प्रकार ओघमें घटित करके बतला आये हैं उसी प्रकार यहाँ घटित कर लेना चाहिये । जो जीव उपशमश्रेणीसे उतर कर और पुरुषवेदी होकर अन्तर्मुहूर्तमें दशनमोहनीयकी क्षपणा कर देता है उसके सम्यक्त्व
और सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त पाया जाता है। या जिसने उद्वेलनाके बाद अन्तर्मुहूर्तमें क्षायिकसम्यग्दशनको प्राप्त किया है उसक भी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूतं पाया जाता है। अतः उसे यहाँ ग्रहण नहीं करना चाहिये किन्तु उद्वेलना करता हुआ जो कोई जीव उपान्त्य समयमें पुरुषवेदा हो गया उसके सम्यक्त्व व सम्याग्मथ्यात्वकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है। पुरुषवेदी जीवके आठ नोकषायोंकी जघन्य स्थिति अन्तिम काण्डकके समय प्राप्त हाती है और उसका उत्कीरणकाल
हते है अतः यहाँ आठ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहतं कहा । विसंयोजनाके अन्तिम समयमें अनन्तानुबन्धीकी जघन्य स्थिति प्राप्त होता है अतः इसका जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा। चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जो पुरुषवेदी जीव मिथ्यात्वमें गया और अन्तर्मुहते में सम्यग्दृष्टि हो कर पुनः अनन्तानबन्धीकी विसंयोजना कर लेता है उसके अनन्तानुबन्धीकी अजघन्य स्थितिका जघन्य क अन्तमहतं पाया जाता है। तथा जो चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला उपशमसम्यग्दृष्टि सासादनका प्राप्त हुआ और दूसरे समय में मरकर अन्यवेदी होगया उस पुरुषवेदीके अनन्तानबन्धीकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय भी पाया जाता है। स्त्रीवेदमें भी इस प्रकार एक समय काल प्राप्त किया जा सकता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको छोड़कर शेष सब प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है यह स्पष्ट ही है।
५२६. नपुंसकवेदवालोंमें मिथ्यात्व, आठ कषाय, आठ नोकषाय और चार संज्वलनकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल
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३०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [हिदिविहत्ती ३ एगसमो वा, उक्क० अणंतकालमसखेजा पो०परियट्टा । इत्थि० जह० जहण्णुक्क० अंतोमु० । अज० जह० एगसमो, उक्क० अणंत कालमसं०पो०परि । अवगदवेद० मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-बारसक०-णवणोक० जह० ओघं । अज० जह [ एगस०, ] उक्क० अंतोमु० ।
६५३०. कसायाणुवादेण सव्वकसाईसु मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु०चउक्क० मणजोगिभंगो । बारसक०-णवणोक० ज० ओघं । अज० जहण्णुक्क० अंतोमु० । अन्तर्महूर्त या एक समय और उत्कृष्ट अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्महूर्त तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । अपगतवेदवालोंके मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल ओघके समान है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है।
विशेषार्थ-नरकमें जीव सम्यग्दर्शनके साथ कुछ कम तेतीस सागर काल तक रह सकता है । अब यदि कोई अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला नपुंसकवेदी मिथ्यादृष्टि जीव नरकमें उत्पन्न हुआ और वहाँ कुछ कम तेतीस सागर काल तक सम्यग्दर्शन के साथ रहा तो उसके सम्यक्त्व
और सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर पाया जाता है। तथा इनके अतिरिक्त शेष प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है, क्योंकि नपुंसकवेदका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण है। यहाँ सब प्रकृतियोंकी जघन्य आदि स्थितियोंका शेष काल स्त्रीवेदियोंके समान घटित कर लेना चाहिये । इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिका काल कहते समय वह नपुंसकवेदीके स्त्रीवेदके अन्तिम काण्डकघातके समय प्राप्त होता है जिसका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। जो अपगतवेदी जीव उपशमश्रेणी से उतर कर अवेदभागके अन्तिम समयमें विद्यमान है उसके मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति पाई जाती है अतः इसके उक्त तीन प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल ओघके समान एक समय कहा। जो अपगतवेदी क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव उपशमश्रेणीसे उतर कर अपगतवेदके अन्तिम समयमें विद्यमान है उसके स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और आठ कषायोंकी जघन्य स्थिति होती है अतः इसके उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल ओघके समान एक समय कहा । तथा जो अपगतवेदी जीव छह नोकषायोंके अन्तिम स्थितिकाण्डकमें तथा पुरुषवेद और चार संज्वलन की क्षपणाके अन्तिम समयमें विद्यमान है उसके उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल ओघके समान पाया जाता है। अपगतवेदका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूतें है, अतः अपगतवेदमें अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूत प्राप्त होता है।
६५३०. कषाय मार्गणाके अनुवादसे सब कषायवालोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग मनोयोगियों के समान है। बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका काल ओघके समान है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है।
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गा० २२] द्विदिावहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिकालो
३०६ ५३१. णाणाणवादेण मदि-सुदअण्णा० मिच्छत्त-सोलसक०-भय-दुगुंछा० ज० जह• एयसमओ, उक्क० अंतोमु । अज० जह० अंतोमु०, उक्क० असंखेजा लोगा। सत्तणोक० जह० जहएणुक० एगस० । अज० जह० अंतोमु०, उक्क० अणंतकोलमसं० पो. परि० । सम्मत्त-सम्मामि० जह• जहण्णुक्क० एगस० । अज० ज० अंतोमु०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। विहंग० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० जह• जहण्णक्क० एगस० । अज० ज० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । सम्मत्त-सम्मामि० एइंदियभंगो।
विशेषार्थ-जिस प्रकार मनोयोगी जीवके मिथ्यात्वादि सात प्रकृतियोंकी जघन्य और . अजघन्य स्थितिका काल घटित करके बतला आये हैं उसी प्रकार चारों कषायवाले जीवोंके घटित कर लेना चाहिये। जो क्रोधादि कषायवाले जीव आठ कषाय और नौ नोकषायोंकी क्षपणा कर रहे हैं उनके उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति होती है अतः इनके उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल ओघके समान कहा । क्रोधकषायीके क्रोधवेदक कालके अन्तिम समयमें चार संज्वलनोंकी, मानकषायीके मानवेदक कालके अन्तिम समयमें तीन संज्वलनोंकी, मायाकषायवालेके मायावेदककालके अन्तिम समयमें दो संज्वलनोंकी
और लोभकषायवाले जीवके लोभकषायवेदककालके अन्तिम समयमें लोभसंज्वलनकी जघन्य स्थिति होती है। तथा मानादि कषायवाले जीवोंके शेष कषायोंकी जघन्य स्थिति अपनी-अपनी क्षपणाके अन्तिम समयमें होती है, अतः इनके चार संज्वलनोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल ओघके समान एक समय कहा। तथा क्रोधादि कषायवाले जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, अतः इनके उक्त सब प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा।
६५३१. ज्ञान मार्गणाके अनुवादसे मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमहर्त है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तम हर्त और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण है। सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्त काल ह जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तमु हतं और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। विभंगज्ञानियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नौषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग एकेन्द्रियोंके समान है।
विशेषार्थ--मत्यज्ञान और श्रुताज्ञान एकेन्द्रियोंसे लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय तकके सब मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंके होते हैं। किन्तु यहाँ जघन्य स्थितिका प्रकरण है अतः मुख्यतः एकेन्द्रियोंकी स्थितिका ग्रहण किया है। एकेन्द्रियोंमें भी सबसे कम बादर एकेन्द्रियों की जघन्य स्थिति होती है। जिसका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, अतः मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंके मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा। मिथ्यात्व गुणस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है, अतः इनके उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल
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३१० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[द्विदिविहत्ती ३ ५३२. आभिणि-सुद०-ओहि० उक्कस्सभंगो। णवरि छण्णोक० जह० जहण्णुक्क० अंतोम० । एवं संजद०. सामाइय-छेदो०-परिहार०-संजदासंजद०-ओहिदंस०सम्मादि०-खइय०-वेदय० । णवरि खवगसेढिम्मि छण्णोक० ज० ओघं । मणपज्ज. अहणोक० पुरिस०भंगो । सेस० उक्कस्सभंगो । अन्तर्मुहूर्तं कहा । तथा सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्यायमें निरन्तर रहनेका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक है और सूक्ष्म एकेन्द्रियोंके मत्यज्ञान और श्रुताज्ञानकी अपेक्षा उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थिति होती है अतः मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंके उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण कहा । जो बादर एकेन्द्रिय जीव जघन्य स्थितिके बन्धकालमें मरकर पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ उसके अपनी प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धकालके अन्तिम समयमें सात नोकषायोंकी जघन्य स्थिति होती है अतः मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंके सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा। मिथ्यात्व गणस्थानका जघन्य है और एकेन्द्रिय पर्यायमें निरन्तर रहनेका उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । अब कोई जीव इतने कालतक निरन्तर एकेन्द्रिय पर्यायमें रहा और अन्तमें बादर एकेन्द्रिय हुआ तथा वहाँ सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका बन्ध व सत्त्व करके पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ और वहाँ अपनी प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धकालके अन्तमें सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिको प्राप्त हुआ । इस प्रकार इस जीवके उक्त काल तक सात नोकषायोंकी अजघन्य स्थिति पाई जाती है, अतः मत्यज्ञानी
और ताज्ञानी जीवके सात नोकषायों की अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण कहा। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति उद्वेलनाके अन्तिम समयमें प्रात होती है, अतः इनके रक्त दोनों प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जवन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । तथा मिथ्यात्वमें उक्त दोनों प्रकृतियोंका सत्त्व पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक ही पाया जाता है, अतः इनके उक्त दोनों प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा। जो उपरिम अवेयकका जीव अन्तिम समयमें सासादनको प्राप्त हो जाता है उसके विभंगज्ञानके रहते हुए मिथ्यात्व आदि छब्बीस प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति होती है अतः विभंगज्ञानीके उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । तथा उपरिम अवेयकके देवको छोड़ कर अन्य देव तथा नारकी जीवके अन्तिम समयमें सासादनको प्राप्त होने पर विभंगज्ञानमें उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। विभंग ज्ञानका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है अतः इसमें उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल जिस प्रकार एकेन्द्रियोंके घटित करके बतला आये हैं उसी प्रकार यहाँ भी घटित कर लेना चाहिये।
६५३१. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रतज्ञानी और अवधिज्ञानियोंमें जघन्य स्थितिका भंग उत्कृष्ट स्थितिके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूत है। इसी प्रकार संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनवाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि क्षपकश्रेणीमें छह नोकषायोंका जघन्य स्थितिका काल ओघके समान है। मनःपर्ययज्ञानियोंमें आठ नोकषायोंका भंग पुरुषवेदके समान है। शेष प्रकृतियोंका भंग अपनी उत्कृष्ट स्थितिके समान है। .
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गा० २२ ]
द्विदिवसीए उत्तरपयडिट्ठिदिकालो
३११
$ ५३३. असंजद० मिच्छत्त० जह० जहण्णुक० एगसमओ । अज० केवचिरं ? अनादिअपज्जवसिदो, श्रणादिसपज्जवसिदो सादिसपज्जव । जो सो सादिसपज्जवसिदो तस्स इमो णिद्द सो – जह० अंतोमु०, उक्क० उवडपोग्गलपरियॣौं । सम्मत्त ०- सम्मामि० जह० जहण्णुक्क० एगसमग्र । अज० ज० एस० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं साग० सादिरेयाणि । अनंताणु ० चउक्क० ओघ । बारसक०णवणोक० मदि० भंगो | अचक्खु० ओघं ।
विशेषार्थ - क्षपकश्रेणी में जब छह नोकषायोंका अन्तिम काण्डक प्राप्त होता है तब उनकी जघन्य स्थिति होती है और इसका काल अन्तर्मुहूर्त है, अतः आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंके छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा । शेष कथन सुगम है। इसी प्रकार संयत आदि मार्गणाओं में जानना । इसका यह तात्पर्य है कि इन मार्गणाओं में जिस प्रकार उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका काल कह आये हैं उसी प्रकार यहाँ जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल कहना चाहिये, क्योंकि इनमें परस्पर कालकी अपेक्षा समानता देखी जाती है । किन्तु इनमेंसे जिन मार्गणाओं में क्षपकश्रेणी सम्भव हो उन्हींमें छह Pravrritt जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल ओघके समान जानना चाहिये शेषमें नहीं । मन:पर्ययज्ञान पुरुषवेदी जीवके ही होता है अतः इनके आठ नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल पुरुषवेदियोंके समान कहा । शेष सुगम I
९५३३. असंयतों में मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है | तथा अजघन्य स्थितिका कितना काल है ? अनादि-अनन्त, अनादि- सान्त और सादि - सान्त इस प्रकार तीन तरहका काल है। उनमें जो सादि- सान्त काल है उसका यह कथन है । वह जघन्यसे श्रन्तमुहूर्त और उत्कृष्टसे उपाधे पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । सम्यक्त्व और सम्यमिध्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल क्रमसे एक समय और अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर है । अनन्तानुबन्धी चतुष्कका काल श्रोघके समान है । बारह कषाय और नौ नोकषायोंका काल मत्ज्ञानियोंके समान है । अचतुदर्शन में ओघ के समान है ।
विशेषार्थ - जो असंयत मिध्यात्वकी क्षपणा कर रहा है उसके मिथ्यात्वकी क्षपणाके अन्तिम समय में जघन्य स्थिति होती है, अतः असंयतके मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । मूलमें असंयतके मिध्यात्वकी अजघन्य स्थिति के अनादिअनन्त, अनादिसान्त और सादिसान्त ये तीन भंग कहे हैं सो वास्तवमें ये असंयतत्व के साथ मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिके तीन भंग हैं अतः उसके सम्बन्धसे मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिको तीन भागों में बाँट दिया है, क्योंकि ऐसा किये बिना असंयत के मिथ्यात्व की अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल बतलाना कठिन था । इनमेंसे सादि - सान्त असंयतका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण है, अतः असंयतके मिथ्यात्व की अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल उक्तप्रमाण कहा । असंयतके अपनी अपनी क्षपणा के अन्तिम समय में सम्यक्त्व और सम्यग्यिध्यात्वकी जघन्य स्थिति होती है तथा सम्यग्मिथ्यात्व की उद्वेलना के अन्तिम समय में भी जघन्य स्थिति होती है, अतः इसके उक्त दोनों प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । जब कोई संयत कृतकृत्यवेदकके काल में दो समय शेष रहने पर असंयत हो जाता है तब
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [विदिविहत्ती ३ ५३४. लेस्साणुवादेण किण्ह-णील-काउ० मिच्छत्त-बारसक०-भय-दुगुंछ. जह० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अज. जह० एगस०, उक्क. सगहिदी। सत्तणोक० जह० जहएणुक्क० एगस० । अज० ज० एगस०, उक्क० सगहिदी । सम्मत्त०-सम्मामि० जह• जहण्णुक्क० एगस । अज० जह० एगस०, उक्क० सगहिदी । अणंताणु०चउक्क० जह० जहण्णुक्क० एगस० । अज० जह• अंतोम०, उक्क संगहिदी।
५३५. तेउ-पम्म० मिच्छत्त सोलसक०-णवणोक० जह० जहण्णुक्क० एगस० । अज० जह० अंतोमु० अणंताणु० एगसमओ वा, उक्क०. सगहिदी । सम्मत्त०सम्मामि० ज० जहण्णुक्क० एगस० । अज० ज० एगस०, उक्क० सगहिदी । सुक्क० उसके सम्यक्त्वकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। तथा असंयतका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है अतः इसके सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्यु स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा। कोई जीव असंयतभावके रहते हुए सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके साथ अधिकसे अधिक साधिक तेतीस सागर काल तक ही रह सकता है अतः असंयतके उक्त दोनों प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा। जो असंयत अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कर रहा है उसके अन्तिम समयमें अनन्तानुबन्धीकी जघन्य स्थिति होती है अतः असंयतके अनन्तानुबन्धीकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अोधके समान एक समय कहा । इसी प्रकार ओघमें बताये अनुसार असंयतके अनन्तानुबन्धीकी अजघन्य स्थितिका काल भी घटित कर लेना चाहिये । तथा असंयत जीवके बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल मत्यज्ञानियोंके समान बन जाता है अतः इसके उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल मत्यज्ञानियोंके समान कहा। छप्रस्थ जीवोंके अचक्षुदर्शन निरन्तर रहता है अतः अचनदर्शनमें सब प्रेकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल ओघके समान कहा।
६५३४. लेश्यामार्गणाके अनुवादसे कृष्ण, नील और कापोतलेश्यामें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है।
५३५. पीत और पद्म लेश्यामें मिथ्यात्व सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त या अनन्तानुबन्धी चतुष्कका एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी-अपनी स्थितिप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। शुक्ल
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गा० ३२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिकालो
३१३ उक्कस्सभंगो । णवरि छण्गोक० जह० जहण्णुक्क० अंतोमु० । अभव० मदिभंगो । णवरि सम्मत्त-मम्मामि० णत्थि ।
लेश्यामें उत्कृष्ट स्थिनिके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अभव्योंमें मत्यज्ञानियोंके समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता ह कि इनके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये दो प्रकृतियाँ नहीं हैं।
विशेषार्थ-एकेन्द्रियोके कृष्णादि तीनों लेश्याएँ सम्भव हैं, अतः जिस प्रकार एकेन्द्रियों के मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय बतला आये हैं उसी प्रकार कृष्णादि तीन लेश्याओंमें घटित कर लेना चाहिये । किन्तु इनके अजघन्य स्थितिके उत्कृष्ट कालमें विशेषता है । बात यह है कि कृष्णलेश्याका उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर, नील लेश्याका उत्कृष्ट काल साधिक सत्रह सागर और कापोत लेश्याका उत्कृष्ट काल साधिक सात सागर है, अतः इनमें उक्त प्रकृतियोंकी अजवन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण ही प्राप्त होगा। उक्त तीनों लेश्याओंमेंसे कोई एक लेश्यावाला जो बादर एकेन्द्रिय जीव जघन्य स्थितिके साथ पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न होता है उसके प्रतिपक्ष प्रकृतियों के बन्धकालके अन्तमें सात नोकषायोंकी जघन्य स्थिति होती है, अतः कृष्णादि तीनों लेश्याओंमें सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । अब यदि उक्त जीव दूसरे समयमें अजघन्य स्थितिके साथ रहा और तीसरे समयमें उसके विवक्षित लेश्या बदल गई तो उक्त लेश्याओं में सात नोकषायोंकी अजघन्य स्थिति जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है इस अपेक्षासे उक्त तीन लेश्याओंमें सात नोकषायोंकी अजवन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय कहा । तथा उत्कृष्ट काल स्पष्ट ही है। कृष्ण और नील लेश्यामें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलनाकी अपेक्षा तथा कापोत लेश्यामें सम्यक्त्वको कृतकृत्यवेदक सम्यक्त्वको अपेक्षा और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलनाकी अपेक्षा जवभ्य स्थिति प्राप्त होता है जिसका काल एक समय है, अतः उक्त तीनों लेश्याओंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा। जिस जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलनामें दो समय शेष रहने पर कृष्णादि तीन लेश्याएं प्राप्त होती हैं उसके कृष्णादि तीन लेश्याओंमें उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थिति एक समय तक पाई जाती है, अतः इनके उक्त दो प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय कहा। किन्तु इतनी विशेषता है कि कापो लेश्यामें एक समय तक सम्यक्त्वकी अजघन्य स्थिति कृतकुत्य वेदकके दो अन्तिम समयकी अपेक्षा घटित करनी चाहिये। तात्पर्य यह है कि सम्यक्त्वकी क्षपणाके दो अन्तिम समयमें कापोत लेश्या प्राप्त करावे और इस प्रकार कापोत लेश्यामें सम्यक्त्वकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय कहे। तथा उत्कृष्ट काल स्पष्ट ही है । विसंयोजनाके अन्तिम समयमें अनन्तानुबन्धीकी जघन्य स्थिति प्राप्त होती है जा तीनों लेश्याओमें सम्भव है, अतः इनके अनन्तानुबन्धीका जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । तथा उक्त लेश्याओंके जघन्य और उत्कृष्ट कालकी अपेक्षा उनमें अनन्तानुबन्धीकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहा। जो क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव उपशमश्रेणीसे उतर कर पीत और पद्मलेश्याको प्राप्त हुआ है वह यदि तदनन्तर शुक्ललेश्याको प्राप्त होकर क्षपकश्रेणीपर चढ़े तो उसके पीत . और पद्मलेश्याके अन्तिम समयमें बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थिति होती है।
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जेथेघवलासहिदे कसायपाहुडे
[ द्विदिवसी ३
§
९ ५३६, उवसम० मिच्छत्त- सोलसक०-गवणोक० जह० जहण्णुक्क० एस० । ज० जहण्णुक्क० अंतोमु० । सम्मत्त सम्मामि० जह० जहण्णुक्क० एस० । अज० जहण्णुक्क० अंतोमु० । एवं सम्मामि० । सासण० सव्वपयडीणं जह० जहण्णुक्क एगस० । अज० जह० एगस०, उक्क० छावलियाओ । मिच्छादिट्ठी • मदि०भंगो । असणि० तिरिक्खोघं । वरि श्रणंताणु० चउक्क० सम्मत्त सम्मामि० एइंदियभंगो । तथा इन दोनों लेश्यावाले जीवों के मिध्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की जघन्य स्थिति इनकी क्षपणा अन्तिम समय में और अनन्तानुबन्धीकी जघन्य स्थिति अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाके अन्तिम समय में प्राप्त होती है, अतः इनके सब प्रकृतियों की जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा। यहां इतना विशेष जानना कि उक्त लेश्याओं में सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति उद्वेलनाकी अपेक्षा भी प्राप्त होती है । तथा उक्त लेश्याओंके जघन्य और उत्कृष्ट कालकी अपेक्षा इनमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल कहा । किन्तु चौबीस प्रकृतियों की सत्तावाला जीव पीत और पद्मलेश्या के अन्तिम समय में मिथ्यात्वको प्राप्त हो सकता है अतः इनमें अनन्तानुबन्धीकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय भी कहा। जो जीव कृतकृत्यवेदकके उपान्त्य समयमें और उद्वेलनाके उपान्त्य समय में पीत और पद्मलेश्याको प्राप्त होते हैं उनके क्रमसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी जघन्य स्थिति एक समय तक पाई जाती है, अतः उक्त लेश्याओं में उक्त दो प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय कहा । तथा उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण होता है यह स्पष्ट ही है। शुक्ल लेश्यामें छह नोकषायोंके अन्तिम स्थितिकाण्डकके पतन के समय उनकी जघन्य स्थिति प्राप्त होती है जो अन्तर्मुहूर्त काल तक रहती है, अतः इसके छह नोकषायों की जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा। शेष कथन सुगम है ।
I
९५३६ उपशमसम्यग्दृष्टियों में मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवों के जानना चाहिए । सासादनसम्यग्दृष्टियों में सब प्रकतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल छह
वलीप्रमाण है । मिध्यादृष्टियों में मत्यज्ञानियोंके समान भंग है । असंज्ञियोंमें सामान्य तिर्यंचोंके समान जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि असंज्ञियोंमें अनन्तानुबन्धी चतुष्क, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग एकेन्द्रियोंके समान है ।
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विशेषार्थ — जो उपशमसम्यग्दृष्टि उपशमश्रेणी से उतर कर अनन्तर वेदकसम्यग्दृष्टि होनेवाला है उसके अन्तिम समय में सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति होती है, अतः उपशमसम्यग्दृष्टिके सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । तथा उपशमसम्यक्त्वके जघन्य और उत्कृष्ट कालकी अपेक्षा सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा । किन्तु इतनी विशेषता है कि उपशमश्रेणी में अनन्तानुबन्धी चतुष्कका सत्त्व नहीं पाया जाता, अतः जो प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टि जीव तदनन्तर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करता है उसके अन्तिम समयमें अनन्तानुबन्धी चतुsaat जघन्य स्थिति होती है । या जिन आचार्योंके मतसे उपशमसम्यग्दृष्टि जीव अनन्तानु
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३१५
marwranrammmmmmmarrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrra
गा० २२ ]
हिदिविहत्ताए उत्तरपयडिडिदिकालो ६५३७. आहारीसु मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-बारसक०-णवणोक० जह० ओघं । अज. जह. खुद्दाभवग्गहणं तिसमऊणं, उक्क० सगहिदी। सम्मस०. सम्मामि० पंचिंदियभंगो। अणंताणु०चउक्क० जह० जहण्णुक्क० एगस० । अज. जह० अंतोमु० एगसमयो वा, उक्क० सगहिदी।
एवं कालाणुगमो समत्तो। बन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करता है उसके विसंयोजनाके अन्तिम समयमें अनन्तानुबन्धीकी जघन्य स्थिति होती है। जो चौबीस प्रकृतियों की सत्तावाला सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त होता है उसके अन्तिम समयमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थिति होती है, अतः सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवके उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी प्रथक्त सागर स्थितिकी सत्तावाला जो मिथ्यादृष्टि जीव सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होता है उसके अन्तिम समयमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति होती है, अतः सम्यग्मिथ्यादृष्टिके इनकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा। अनन्तानुबन्धीकी जघन्य स्थिति अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाले सन्यग्मिथ्यादृष्टिके अन्तिम समयमें होती है, अतः इसके अनन्तानुबन्धीकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा। तथा इसके सब प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त होता है यह स्पष्ट ही है। जो उपशमश्रेणीसे गिरकर सासादनभावको प्राप्त होता है उसके सासादनके अन्तिम समयमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति होती है, अतः सासादनसम्यग्दृष्टिके सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा । तथा सासादन गुण स्थानके जघन्य और उत्कृष्ट कालकी अपेक्षा सब प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल छह श्रावलिप्रमाण कहा। मिथ्यादृष्टियोंके सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल मत्यज्ञानियोंके समान होता है यह स्पष्ट ही है। असंज्ञी तिर्यञ्च ही होते हैं अतः सामान्य तिर्यञ्चोंके समान असंज्ञियोंके सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल जानना चाहिये । किन्तु सामान्य तिर्यञ्चोंमें संज्ञी तिर्यश्च भी सम्मिलित हैं और उनके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना भी होती है तथा उनमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि भी उत्पन्न होता है, अतः असंज्ञियोंमें सम्यग्मिथ्यात्व सहित उक्त छह प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थिति सामान्य तिर्यंचोंके समान नहीं बन सकती है, फिर भी यहाँ जघन्य और अजघन्य स्थितिके कालकी मुख्यता है जो यथायोग्य एकेन्द्रियोंके सम्भव है, अतः असंज्ञियोंके उक्त प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल एकेन्द्रियोंके समान कहा।
६५३७. आहारकोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायों की जघन्य स्थितिका काल ओघके समान है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल तीन समय कम खुद्दाभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थिति का भंग पंचेन्द्रियोंके समान है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त या एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है।
विशेषार्थ ओघसे मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी
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- जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विविषिहती ३ * अंतरं । मिच्छत्त-सोलसकसायाणमुकस्साहिदिसंतकम्मिगं. अंतरं जहरणेण अंतोमुहुत्त। ... $ ५३८. कुदो ? भणिदकम्माणमुक्कस्सहिदि बंधमाणो जीवो अणुकस्सबंधनो होदूण अंतोमुहुत्तमच्छिय पुणो एदे।सं कम्माणमुक्कस्सद्विदिबंधुवलंभादो । दोण्हमुकस्सहिदाणं विच्चालिमअणुक्कस्सहिदिबंधकालो तासिमंतरं ति भणिदं होदि । एगसमओ जहण्णंतरं किण्ण होदि ? ण, उक्कस्सहिदि बंधिय पडिहग्गस्स पुणो अंतोमहुरेण विणा उकस्सहिदिबंधासंभवादो । जघन्य स्थिति आहारकों के ही सम्भव है, अतः आहारकों के उक्त प्रकृतियों की जघन्य स्थितिका काल ओघके समान कहा । सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी जघन्य स्थिति अनाहारकों के भी होती है यहाँ इतना विशेष जानना। आहारकोंका जघन्य काल तीन समय कम खहाभवग्रहण प्रमा ण और उत्कृष्ट काल अंगुलके असंख्यातवें भाग असंख्यातासंख्यात अवसपी उत्सपर्णी काल प्रमाण है. अतः इनके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको छोड़कर उक्त सब प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल तीन समय कम खुद्दाभवग्रहण प्रमाण आर उत्कृष्ट काल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल जिस प्रकार पंचेन्द्रियों के घटित करके बतला आये हैं उसी प्रकार आहारकोंके जानना, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। आहारक अवस्थामें ही अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना होती है, अतः इनके अनन्तानुबन्धीकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा। अनम्तानुबन्धीका जघन्य सत्त्वकाल अन्तर्मुहूर्त है, अतः इनके अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा। चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला उपशमसम्यग्दृष्टि जीव जीवनके अन्तिम समयमें सासादन हुआ और दूसरे समयमें मरकर अनाहारक हो गया तो उसके अनन्तानुबन्धीकी अजघन्य स्थिति एक समय भी पाई जायगी, अत: आहारक के अनन्तानुबन्धीकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय भी कहा। तथा अनन्तानुबन्धीकी अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल आहारकके उत्कृष्ट काल प्रमाण होता है यह स्पष्ट है ।
इस प्रकार कालानुगम समाप्त हुआ। * अब अन्तरका प्रकरण है । उसमें मिथ्यात्व और सोलह कषायोंके उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मका जघन्य अन्तर अन्तमुहूते है।।
६५३८. शंका-उक्त प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थिा सत्कमका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त क्यों है ?
समाधान-क्योंकि चूर्णिसूत्रमें कहे हुए कोंकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधनेवाला जो जीव अनुत्कृष्ट स्थितिका कमसे कम अन्तमुहूत काल तक बन्ध करता है उसके अन्तर्मुहूतके बाद पुनः पूर्वोक्त कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध पाया जाता है । इस कथनका यह तात्पय है ।क दानों उत्कृष्ट स्थितियोंके मध्यमें जो अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तमुहूतं प्रमाण बन्धकाल है वह उन दोनों उत्कृष्ट स्थितियोंका अन्तरकाल है।
शंका-जघन्य अन्तर एक समय क्यों नहीं होता ?
समाधान-नहीं, क्योंकि उत्कृष्ट स्थितिको बाँध कर उससे च्युत हुए जीवके पुनः अन्तर्मुहूर्त कालके बिना उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध नहीं हो सकता, अतः जघन्य अन्तर एक समय नही होता।
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गा० २२ ]
हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिअंतरं ® उक्कस्समसंखेजा पोग्गलपरियट्टा ।
$ ५३९. कुदो? उक्कस्सहिदि बंधिय पडिहग्गो होदूण अणुक्कस्सहिदिं बंधमाणो ताव अच्छदि जाव अणुक्कस्सहिदिबंधगद्धाए उक्कस्सियाए चरिमसमओ ति । तदो एइदिएसुववज्जिय असंखेजाणि पोग्गलपरियट्टाणि तत्थ परिभमिय पुणो पंचिंदियतसाजत्तएसु उप्पन्जिय पजत्तयदो होदूण उक्स्सदाहं गंतूण उक्कस्सहिदीए पबद्धाए आवलियाए असंखेजदिभागपमाणपोग्गलपरियट्टाणमंतरेणुवलंभादो ।
* एवं णवणोकसायाणं । णवरि जहणणेण एगसमश्रो ।
$ ५४०. णवणोकसायाणमकस्सहिदीए अंतरकालो मिच्छत्तादीणमुक्कस्सहिदिअंतरकालेण सरिसो, किंतु जहणंतरकालो एगसमत्रो । कुदो ? कसाएसु अण्णदरकसायस्स उक्कस्सहिदिमेगसमयं बंधिसूण पुणो विदियसमए सव्वेसिं कसायाणमणुक्कस्स हिदि बंधिय तदियसमए उक्कस्सद्विदि बधिय एवमग्गदो अग्गदो य उक्कस्सहिदिसंतमझे अणुक्कस्सहिदिसंतं कादण बंधावलियादिक्कतकसायहिदीए णोकसाएसु संताए उक्कस्सहिदीए आदी जादा । तदो विदियसमए अणुक्कस्सहिदीए
* उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात पुद्गलपरिवर्तनप्रमाण है। ६५३६. शंका-उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात पुद्गल पारवतनप्रमाण क्यों है ।
समाधान-किसी एक जीवने उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया अनन्तर उत्कृष्ट स्थितिके बन्धके कारणभूत उत्कृष्ट संक्लेशरूप परिणामोंसे निवृत होकर उसने अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया और यह बन्ध अनुत्कृष्ट स्थितिके उत्कृष्ट बन्धकालके अन्तिम समय तक करता रहा। तदनन्तर यह जीव एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ और वहाँ असंख्यात पुद्गल परिवर्तन काल तक परिभ्रमण करके पुनः पंचेन्द्रिय त्रस पर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ और पर्याप्त होकर उत्कृष्ट संक्लेशरूप परिणामोंको प्राप्त हुआ तब जाकर इसके उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध होता है और इसलिये उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर आवली के असंख्यातवें भागके जितने समय हों उतने पुद्गल परिवर्तनप्रमाण पाया जाता है। .
* इसी प्रकार नौ नोकषायोंका अन्तर है । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय है ।
६५४०. नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका अन्तरकाल मिथ्यात्वादिककी उत्कृष्ट स्थितिके अन्तरकालके समान है। किन्तु जघन्य अन्तरकाल एक समय है ।
शंका-नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर काल एक समय क्यों है ?
समाधान-जिस जीवने सोलह कषायोंमेंसे किसी एक कषायकी उत्कृष्ट स्थितिको एक समय तक बाँधः पुनः दूसरे समयमें सब कषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिको बाँधा और तीसरे समयमें अन्य कषायकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधा इस प्रकार जो जीव आगे आगे कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिसत्त्वके मध्यंमें कषायों की अनुत्कृष्ट स्थितिसत्त्वको करता है। तदनन्तर जिसके बन्धावलिके . पश्चात् कषायकी उत्कृष्ट स्थिति के नोकषायोंमें संक्रांत होने पर नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ अंतरिय पुणो तदियसमए णोकसाएसु बंधावलियाइक्कंतकसायुक्कस्सहिदीए संकंताए एगसयमेनंतरुवलंभादो।।
* सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्साणमुक्कस्सहिदिसंतकम्मियंतरं जहगणेण अंतोमुहुत्त।
५४१. कुदो ? मिच्छत्तुक्कस्सहिदिसंतकम्मेण वेदगसम्मत्त पडिवण्णपढमसमए सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्सहिदिसंतकम्मं कादण विदियसमए अणुक्कस्सद्विदि गंतूणंतरिय सव्वजहण्णसम्मत्नकालमच्छिय मिच्छत्तेण परिणमिय पुणो उक्कस्सहिदि बंधिय अंतोमुहुत्त पडिहग्गो होदणच्छिय वेदगसम्मत्तपाओग्गमिच्छत्तुक्कस्सहिदिसंतकम्मेण वेदगसम्मत्त पडिवण्णे सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्सहिदिसंतकम्ममुवगयस्स उक्कस्सहिदीए अंतोमुहुत्तमेत्तजहण्णंतरुवलंभादो ।
* उक्कस्समुवड्डपोग्गलपरियट्ट।
$ ५४२. तं जहा एगो अणादियमिच्छाइट्टी छब्बीससंतकम्मियो उपसमसम्मत्त पडिवण्णो । पुणो उत्रसमसम्मत्तेण अंतोमुहुत्तमच्छिय मिच्छत्त' गंतूण उक्कस्सहिदि बंधिय पडिहग्गो होदूण हिदिघादमकरिय वेदगसम्मत्त घेत्तण सम्मत्तप्रारम्भ हुआ। तथा जो दूसरे समयमें अनुत्कृष्ट स्थितिको अन्तरित करके पुनः तीसरे समयमें बन्धावलिके पश्चात् कषायकी उत्कृष्ट स्थितिको नोकषायोंमें संक्रान्त करता है उसके नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तरकाल एक समय प्रमाण पाया जाता है।
* सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। . ६ ५४१. शंका-जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त कैसे है ?
समाधान-मिथ्यात्वके उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मवाले किसी एक जीवने वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करके प्रथम समयमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म किया। तदनन्तर वह दूसरे समयमें अनुत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त हुआ और इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मका अन्तर करके सबसे जघन्य सम्यक्त्वके काल तक वहाँ रहा। तदनन्तर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ और वहाँ पुनः मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधकर और संक्लेश परिणामोंसे च्युत हो विशुद्धिको प्राप्त होता हुआ अन्तमुहूर्त कालतक वहाँ रहा। तदनन्तर वेदकसम्यक्त्वके योग्य मिथ्यात्वके उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मवाला वह जीव जब वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त कर लेता है तब पुनः उसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है और इस प्रकार उस जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ठ स्थितिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त पाया जाता है ।
* उत्कृष्ट अन्तर उपाधेपुद्गल परिवतेनप्रमाण है।
६५४२. वह इस प्रकार है-छब्बोस प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीव उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ । पुनः वह उपशमसम्यक्त्वके साथ अन्तर्मुहूर्त कालतक रहकर मिथ्यात्व में गया और वहाँ मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधकर और संक्लेश परिणामोंसे च्युत होकर स्थितिघात न करके वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। पुनः वहाँ सम्यक्त्व और सम्य
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गा० २२ ।
द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिअंतरं सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्सटिदिसंतकम्मं कादूण सम्मण अंतोमुहुत्तमच्छिय मिच्छत्त गंतूण देसूणद्धपोग्गलपरियढें परिभमिय पुणो तिण्णि वि करणाणि करिय पढमसम्मत्त पडिवज्जिय मिच्छत्त गंतूणुक्कस्सहिदि बंधिय अंतोमहुत्तेण वेदगसम्मत्तमवगयपढमसमए मिच्छत्तु क्कस्सहिदीए सम्मत्तसम्मामिच्छत्तेसु संकंताए लद्धमंतरं होदि। एवं पुल्लिंतिल्लअंतोमुहुरोणूणमद्धपोग्गलपरियट्टमुक्कस्संतरं । ऊणमद्धपोग्गलपरियट्ट उघडपोग्गलपरियदृ ति घेत्तव्यं ।
५४३. संपहि चुण्णिसुत्तपरूवणं काऊण विसेसोवलद्धि पडुच्च पुणरुत्तभयं छडिय सोघमुच्चारणं भणिस्सामी । अंतरं दुविहं-जहण्णमुक्कस्सं च । उक्कस्से पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मिच्छत्त-बारसक० उक्क० ज० अंतोम०, उक्क० अणंतकालं० । अणुक्क० ज० एगसमो, उक्क० अंतोम० । सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० जह• अंतोमु०, उक्क० उवडपोग्गलपरिय। अणक्क० ज० एगस०, उक्क० उवडपो०परिय। अणंताणु० चउक्क० उक्क० अंतरं केवचिरं० ? ज. अंतोमु०, उक्क० अणंतकाल० । अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० बेछावहिसागरोवमाणि देसूणाणि । पंचणोक० उक्क० जह० एगस०, उक्क० अणंतकाल। अणुक्क० ग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मको करके तथा सम्यक्त्वके साथ अन्तमुहूत कालतक रहकर मिथ्यात्वमें गया । पुनः वह मिथ्यात्वके साथ कुछ कम अर्धपुद्गल परिवतन कालतक परिभ्रमण करके पुनः तीनों करण करके प्रथम सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। तदनन्तर उसने मिथ्यात्वमें जाकर
और वहाँ मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधकर अन्तमुहूर्त कालके द्वारा वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करके प्रथम समयमें मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रमण किया। तब जाकर उसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त होता है। इस प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर पहलेके और अन्तके अन्तमुहूर्तोंसे कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन प्रमाण प्राप्त होता है। यहाँ सूत्रमें जो उपार्थ पुद्गल परिवर्तन पदका ग्रहण किया है सो उससे कुछ कम अर्धपुद्गल परिवतनरूप कालका ग्रहण करना चाहिये।
५४३ इस प्रकार चूर्णिसूत्रका कथन करके अब विशेष ज्ञान करानेके लिये पुनरुक्त दोषके भयको छोड़कर ओघसहित उच्चारणाका कथन करते हैं-अन्तर दो प्रकारका है-जघन्य अन्तर और उत्कृष्ट अन्तर । उनमें से उत्कृष्ट अन्तरका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व और बारह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है। अनुस्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर उपाधं पुद्गलपरिवर्तन काल है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर उपार्ध पुद्गल परिवर्तनकाल है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उत्कृष्ट स्थितिका अन्तर कितना है ? जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ठ अन्तर कुछ कम एकसौ बत्तीस सागरप्रमाण है। पांच नोकषायोंकी
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३२० अयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[हिदिविहाची ३ ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । चत्तारिणोक० उक्क० ज० एगस०, उक्क० अणंतकाल । अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० एगावलिया। एसो चुण्णिसुत्तउवएसो। उच्चारणाए पुण बे उवएसा- एगावलिया आवलियाए असंखेजदिभागो चेदि । पडिहग्गसमए चेव जे आइरिया चदुणोकसायाणं बंधो होदि ति भणंति तेसिमहिप्पाएण एगावलियमेत्तो चदुणाकसायाणमणुक्कस्सहिदीए उक्कस्संतरकालो। पडिहग्गपढमसमयप्पहुडि आवलियाए असंखेज्जेसु भागेसु गदेसु असंखे० भागावसेसे चदुणोकसाया बझति त्ति जे आइरिया भणंति तेसिमहिप्पारण अणुक्कस्सहिदीए उकस्संतरं आवलियाए असंखे० मागो । एवमचक्खु०-भवसिद्धि० ।
AMArwarrare
उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । चार नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर एक आवली काल है। चार नोकषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल एक आवलीप्रमाण है यह उपदेश चूर्णिसूत्रके अनुसार है। उच्चारणाकी अपेक्षा तो दो उपदेश पाये जाते हैं। एक उपदेश एक आवली कालका है और दूसरा उदेश आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कालका हे। जो आचार्य उत्कृष्ट स्थितिबन्धके कारणभूत उत्कृष्ट संक्लेशरूप परिणामोंसे निवृत्त होकर तदनन्तर समयमें ही चार नोकषायों का बन्ध होता है ऐसा कहते हैं उनके अभिप्रायानुसार चार नाकषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर काल एक आवलिप्रमाण प्राप्त होता है। तथा जो आचाय उत्कृष्ट स्थितिबन्धके कारणभूत उत्कृष्ट संक्लेशरूप परिणामोंसे निवृत्त होकर पहले समयसे कर आवलिके असंख्यात बहुभाग कालको बिताकर असख्यातवें भागप्रमाण काल के शेष रहन पर चार नोकषायोंका बन्ध होता है ऐसा कहते हैं उनके अभिप्रायानुसार चार नोकषायों की अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है। इसी प्रकार चक्षुदशनवाले और भव्य जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-मिथ्यात्व आदि सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिके जघन्य और उत्कृष्टा अन्तरका खुलासा मूलमें किया ही है, अतः यहां अनुत्कृष्ट स्थितिके जघन्य और, उत्कृष्ट अन्तरक खुलासा किया जाता है। जब किसी जीवके एक समय तक मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध होता है तब उसके उक्त प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय पाया जाता है। तथा जब किसीके मिथ्यात्व और बारह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध अन्तमहर्तकाल तक होता है तब उसके उक्त प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्महूर्त पाया जाता है। जो जीव सम्यक्त्व या सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करके तीसरे समयमें उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होता है उसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्वात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय पाया जाता है । तथा जो जीव अर्धपुद्गल परिवर्तन कालके प्रारम्भमें उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करके और मिथ्यात्वमें जाकर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करता है। पुनः अर्धपुद्गल परिवर्तन कालमें अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेपर उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होता है उसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर काल उपार्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण पाया जाता है। जिसने अनन्ता.
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गा० २२)
द्विदिविहत्तीए उत्तरपयदिविदिअंतरं ६५४४. आदेसेण रइएसु मिच्छत्त-बारसक० उक० जह• अंतीमु०, उक० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । अणुक्क० ओघं । सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० जह० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । अणुक्क० एवं चेव । णवरि जह० एगस० । अणंताणु० चउक्क० उक्क० ज० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी देसूणा । अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० सगहिदी देसूणा । पंचणोक० उक० जह० एगस०, उक्क० सगहिदी देसूणा । अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु । चत्तारिणोक० उक्क० जह० एगस०, उक्क० सगहिदी देसूणा । अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० आवलियाए असंखे०भागो एगा
नुबन्धीकी विसंयोजना की है ऐसा जीव यदि पुन: मिथ्यात्वमें आवे तो उसे मिथ्यात्वमें आनेके लिये कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल और अधिकसे अधिक कुछ कम एकसौ बत्तीस सागर काल लगता है अतः अनन्तानुबन्धीकी अनुस्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम एकसौ बत्तीस सागर प्राप्त होता है। नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कष्ट काल अन्तर्मुहूते है, अतः इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है। तथा शेष चार नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल एक आवली है, अतः इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर एक आवलि है। यहाँ चार नोकषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका एक आवलिप्रमाण जो उत्कृष्ट अन्तर बतलाया है वह चूर्णिसूत्रके उपदेशानुसार बतलाया है। परन्तु इस विषयमें उच्चारणामें दो उपदेश पाये जाते हैं। पहले उपदेशका सार यह है कि सोलह कषायोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके हो चुकनेके दूसरे समयसे ही चार नोकषायोंका बन्ध होने लगता है। तथा दूसरे उपदेशका सार यह है कि सोलह कषायोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके हो चुकनेके पश्चात् दूसरे समयसे चार नोकषायोंका बन्ध नहीं होता किन्तु जब आवलिका असंख्यातवां भाग काल शेष रह जाता है तब वहांसे बन्ध होता है। इनमेंसे पहले उपदेशके अनुसार चार नोकषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कष्ट अन्तर एक आवलि प्राप्त होता है और दूसरे उपदेशके अनुसार आवलीका असंख्यातवां भागप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त होता है। अचक्षदर्शन और भव्यमार्गणा छद्मस्थ जीवोंके सर्वदा पाई जाती हैं, अतः इनमें ओधके समान सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर बन जाता है।
६५४४, आदेश निर्देशकी अपेक्षा नारकियोंमें मिथ्यात्व और बारह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम तेतीस सागर है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर काल ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम तेतीस सागर है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर काल भी इसी प्रकार है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इसका जघन्य अन्तर काल एक समय है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम अपनी स्थिति प्रेमाण है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। पाँच नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त है। चार नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम अपनी स्थितिप्रेमाण है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती । वलिया वा । एत्य उवएसं लद्ध ण एगयरणिण्णी काययो। पढमादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । णवरि सगसगुक्कस्सहिदी देसूणा त्ति वत्तव्वं ।।
५४५. तिरिक्ख० मिच्छत्त०-बारसक०-णवणोक० ओघं । सम्मत्त-सम्मामि उक्क० अंतरं जह० अंतोमु०, उक्क० अद्धपोग्गलपरियह देसूणं । अणुक्क० एवं चेव । णवरि जह० एगस० । अणंताणु० चउक्क. उक्क० ओथं । अणुक्का अंतरं ज० एगस०, उक्क० तिण्ण पलिदो० देसूणाणि । पंचिंदियतिरिक्व-पंचिंतिरि०पज्ज०अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण अथवा एक आवली है । यहाँ पर उपदेशको प्राप्त करके किसी एकका निर्णय करना चाहिये। पहली पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंके इसी प्रकार जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति कहनी चाहिये।
विशेषार्थ-जिसने नरकमें उत्पन्न होकर और पर्याप्त होकर मिथ्यात्व और बारह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया। अनन्तर जो अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता रहा किन्तु नरकसे निकलनेक पहले जिसने पुनः उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया उसके उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका कुछ कम तेतीस सागर उत्कृष्ट अन्तर पाया जाता है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिये । जिसने नरकमें उत्पन्न होकर और अन्तर्मुहूर्तके पश्चात् वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त करके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कर दी वह यदि नरकमें रहनेका काल अन्तर्मुहूते शेष रहने पर मिथ्यात्वको प्राप्त होता है तो उसके अनन्तानुबन्धीकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर पाया जाता है । जिसने पर्याप्त होकर और मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके अन्तर्मुहूर्त कालमें वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त किया उसके सम्यक्त्व ग्रहण करनेके समय सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है। अनन्तर जो नरकमें रहनेका काल अन्तर्मुहूत शेष रह जाने पर पुनः इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त करता है उसके सम्यक्त्व और सम्याग्मथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर पाया जाता है। जिस नारकीने नरकमें उत्पन्न हाकर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उद्वेलना करके अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर किया। अनन्तर नरकम रहनेका काल अन्तमुहूत शेष रह जाने पर जिसने उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करके पुनः सम्यक्त्व और सम्याग्मथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिका प्राप्त किया उसके उक्त दोनों प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर पाया जाता है। तथा बारह कषायोंके समान नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर घटित कर लेना चाहिये। सब प्रकृतियोंकी शेष स्थितियोंका उत्कृष्ट और जघन्य अन्तर जो ओघमें बतला आये हैं उसी प्रकार जानना चाहिये। तथा प्रथमादि नरकाम अपने अपने नरककी विशेष स्थितिका ख्याल करके इसी प्रकार कथन करना चाहिये।
५४. तिचोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर ओघके समान है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तमुंहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर भी इसी प्रकार है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इसका जघन्य अन्तर एक समय है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उत्कृष्ट स्थितिका अन्तर ओघके समान है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य' है। पंचेन्द्रियतिथंच, पंचेन्द्रियतियच पर्याप्त
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गा० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिअंतर
३२३ पंचिं तिरि जोणिणीसु मिच्छत्त-बारसक० उक्क० ज० अंतोमु०, उक्क० पुवकोडिपुधत्तं । अणुक्कस्स० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । सम्मत्त०-सम्मामि० उक्क० अंतरं ज० अंतो०. उक्क० पुवकोडिपुधत्तं । अणुक्क० ज० एगस०, उक्क. तिण्णि पलिदो० पुवकोडिपुधरेणब्भहियाणि । अणंताणु०चउक्क० उक्क० मिच्छत्तभंगो । अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि देसूणाणि । पंचणोक० उक्क० ज० एगस०, उक्क० पुवकोडिपुधत्तं । अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । चत्तारिणोक० उक्क० ज० एगस०, उक्क० पुचकोडिपुधनं । अणुक० ज० एगस०, उक्क० आवलि. असंखे०भागो एगावलिया वा। एवं मणसतिय० । और पंचेन्द्रियतिथंच योनिमती जीवों में मिथ्यात्व और बारह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व है। अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक तीन पल्य है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उत्कृष्ट स्थितिका अन्तर मिथ्यात्वके समान है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। पांच नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। चार नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण अथवा एक अावली है। इसी प्रकार अर्थात् पंचेन्द्रिय आदि उक्त तीन प्रकारके तिर्यञ्चोंके समान सामान्य मनुष्य, पयोप्त मनुष्य और मनुष्यनी जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-जिस तिथंचने अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण कालके शेष रहने पर उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त किया पश्चात् मिथ्यात्वमें जाकर और मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके अन्तर्मुहूर्त कालमें वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त करके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको प्राप्ता किया। पश्चात् मिथ्यात्वमें जाकर पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण कालके द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना की। अनन्तर जो अर्धपदगल परिवर्तन कालके अन्त में कालके शेष रह जाने पर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करके और मिथ्यात्वमें जाकर तथा मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके अन्तर्मुहूर्त में वेदकसम्यग्दृष्टि होकर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त करता है उसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन काल प्रमाण पाया जाता है। तथा इसी प्रकार अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर काल घटित कर लेना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि यह अन्तर उद्वेलना कालके अन्तसे प्रारम्भ होता है और अन्तमें उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करनेके समय समाप्त होता है। कोई एक जीव भोगभूमिके तिर्यंचोंमें उत्पन्न हुआ और दो माह गर्भमें रहा । अनन्तर गभसे. निकल कर अन्तर्मुहूर्तमें जिसने वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की। पश्चात् जीवन भर अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाके साथ रह कर अन्तमें मिथ्यात्वको प्राप्त होकर अनन्तानुबन्धीका बन्ध किया। उसके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर
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३२४.
अयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ ५४६. पंचि०तिरि०अपज्ज० मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि० - सोलसक०-णवणोक० उक्क० अणुक० णत्थि अंतरं । एवं मणुसअपज्ज. अणुदिसादि जाव सव्वह०सव्वएई दिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिं०अपज्ज०-पंचकाय० -तसअपज्ज०-ओरालियमिस्सवेउव्वियमिस्स०-आहार०-आहारमिस्स-कम्मइय० - अवगद० - अकसा-ग्राभिणि.. सुद०-ओहि०-मणपज्ज०-संजद०-सामाइय-छेदो०-परिहार०-मुहुमसांप०-जहाक्खाद०संजदासंजद-ओहिदंस०-सम्मादि०-खइय०-वेदय०-उवसम-सासण-सम्मामि०[असण्णि-] अणाहारि त्ति । णवरि एइंदिय-बादरेइंदियपज्ज -पुढ वि०-आउ० तेसिं बादरपज्ज-बादरवणप्फदिपत्तेय०-तप्पज्जत्त-ओरालियमिस्स० - वेउब्धियमिस्स-असण्णि.
कुछ कम तीन पल्य प्रमाण पाया जाता है। भोगभूमिमें मिथ्यात्व आदिकी उत्कृष्ट स्थिति नहीं प्राप्त होती किन्तु पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिथंच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिथंच योनिमती जीवोंका जो उत्कृष्ट काल पूर्वकोटि पृथक्त्वसे अधिक तीन पल्य बतलाया है उसमें भोगभूमिका काल भी सम्मिलित है अतः इसमेंसे तीन पल्य कम कर देने पर जो पूर्वकोटि पृथक्त्व प्रमाण काल शेष बचता है वह उक्त तीन प्रकारके तियचोंमें मिथ्यात्व आदि अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर काल जानना चाहिये। यहां किस तिर्यचके पूर्वकोटि पृथक्त्वसे कितनी पूर्वकोटियोंका ग्रहण करना चाहिये इसका कथन अन्यत्र किया है, इसलिये वहांसे जान लेना चाहिये । उक्त तीन प्रकारके तिर्यचोंमें जिस तिर्यंचने अपनी पर्यायके प्रथम समयमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना की अनन्तर वह अपनी अपनी कायस्थितिके उत्कृष्ट कालतक मिथ्यादृष्टि रहा पर अन्तमें उपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करके उक्त दोनों प्रकृतियोंकी सत्ता प्राप्त कर ली उसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर काल पूर्वकोटि पृथक्त्वसे अधिक तीन पल्य प्रमाण पाया जाता है । तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अनुत्कृष्ट स्थितिके उत्कृष्ट अन्तरका कथन जिस प्रकार सामान्य तियचोंके कर आये हैं उसी प्रकार इन तीन प्रकारके तियचोंके कर लेना चाहिये। इसका प्रमाण कुछ कम तीन पल्य है। शेष कथन ओघके समान जानना चाहिए । समान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनियोंके भी उक्त सीन प्रकारके तिर्यंचोंके समान अम्तर काल जानना चाहिये । किन्तु पूर्वकोटियां जिसकी जितनी हों उतनी कहनी चाहिये ।
६५४६. पंचेन्द्रिय तिथंच अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर काल नहीं है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तक, अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, पांचों स्थावर काय, त्रस अपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियकमिश्र आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, अपगतवेदवाले, अकषायी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनवाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्याष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रिय, बादर . एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी और
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गा० २२ ]
डिदिविहत्तीए उत्तरपयडिडिदिअंतरं
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णवणोक० उक्क० ज० एगसमश्र, उक्क० प्रावलिया दुसमणा । अणु० जह०
० उक्क० आवलिया समयूरणा 1
एगस ०, ५४७. देवदि० मिच्छत्त बारसक० उक्क० ज० अंतोमु०, उक्क० अहारस सागरो ० सादिरेयाणि । अणुक्क० ज० एयस०, उक्क० अंतोमु० । सम्मत्त० - सम्मामि० उक्क० ज० अंतोमु०, उक्क० अहारस साग० सादिरेयाणि । अणुक्क० ज० एस ०, उक्क० एक्कतीस सागरो० देसूणाणि । ताणु० चउक्क० उक्क० मिच्छत्तभंगो | अणुक्क० ज० एस ०, उक्क० एक्कत्तीस सागरो० देसूणाणि । णवणोक० उक्क० ज० एयस०, उक्क० अट्ठारस सागरो० सादिरेयाणि । अणुक्क० श्रघं । भवणादि जाव सहस्सार ति एवं चैव । णवरि सगहिदी देणा । आणदादि जाव उवरिमगेवज्जो त्ति मिच्छत्त बारसक० णवणोक० उक्कस्सारशुक्क० णत्थि अंतरं खिरंतरं । सम्मत्तअसंज्ञी जीवोंमें नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर काल दो समय कम आवलिप्रमाण है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर काल एक समय कम आवलिप्रमाण है ।
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विशेषार्थ — पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्त और मनुष्य लब्ध्यपर्याप्त से लेकर मूलमें और जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर नहीं पाया जाता। इसका कारण यह है कि इनके प्रथम समय में उत्कृष्ट स्थिति होती है अतः उस उस पर्यायके रहते हुए दो बार उत्कृष्ट स्थिति नहीं प्राप्त होती । किन्तु एकेन्द्रिय आदि मूलमें गिनाई हुई कुछ ऐसी मर्गणाएं हैं जिनमें नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर सम्भव । यद्यपि उत्कृष्ट स्थितिबन्धके विषय में सामान्य नियम तो यह है कि जिस कर्मका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध रुक जाता है उसका यदि पुनः उत्कृष्ट स्थितिबन्ध हो तो अन्तर्मुहूर्त कालके पश्चात् ही हो सकता है परन्तु कषायोंको बदल बदल कर उनका एक या एकसमयसे अधिक काल के अन्तरसे भी उत्कृष्ट स्थितिबन्ध हो सकता है । अब यदि किसी जीवने इस प्रकार कषायकी उत्कृष्ट स्थित बांधी और वह एकेन्द्रियादिक उक्त मार्गणाओं में से किसी एक मार्गणा में उत्पन्न हुआ तो उसके नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर दो समय कम एक वलिका प्रमाण बन जाता है। और इसके विपरीत अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर एक समय कम आवलि प्रमाण भी बन जाता है ।
५४७. देवगतिमें मिथ्यात्व और बारह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है । अनन्तानुबन्धी agreat उत्कृष्ट स्थिति के अन्तरका भंग मिथ्यात्व के समान है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। नौ नोकषायों की उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर ओघ के समान है । भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंके इसी प्रकार जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि सर्वत्र कुछ कम अपनी स्थिति कहनी चाहिये।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ सम्मामि० उक्क० णत्थि अंतरं । अणुक्क० ज० एगसमो, उक्क सगहिदी देसूणा । अणंताणु० चउक्क० उक्क० णत्थि अंतरं । अणुक्क जह० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी देसूरणा ।
५४८. पंचिं०-पंचिं०पज्ज०-तस-तसपज्ज० मिच्छत्त०-बारसक० उक्क० अंतरं ज० अंतोम०, उक्क० सगहिदी देसूणा । अणुक्क० ओघं । सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० ज० अंतोमु० । उक्क० सगहिदी देसणा । अणक्क एवं चेव । णवरि जह एगस० । अणंताणु० चउक्क० उक्क० ज० अंतोमु०, उक्क. सगहिदी देसूणा । अणक्क० ज० एगसमो, उक्क० वेछावहिसागरो० देसूणाणि । णवणोक० उक्क० ज० एगस०, उक्क० सगहिदी देसूणा। अणक्क० ओघं । एवं पुरिस०-चक्खु०-सण्णि त्ति। आनत कल्पसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर नहीं है किन्तु पूर्वोक्त प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका काल निरन्तर है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थितिका अन्तर नहीं है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उत्कृष्ट स्थितिका अन्तर नहीं है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है।।
विशेषार्थ देवोंमें सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंके ही मिथ्यात्व आदिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध और संक्रमण सम्भव है, अतः स मान्यसे देवोंमें मिथ्यात्व आदि अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर कहा। तथा नौ ग्रैवेयक तकके देव मिथ्यात्वमें जा सकते हैं और सम्यग्दृष्टि भी हो सकते हैं अतः सामान्य देवोंमें सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व
और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर कहा। शेष कथन ओघके समान है। तथा भवनवासियोंसे लेकर सहस्रारस्वर्ग तकके देवोंमें अपनी अपनी स्थितिका विचार करके इसी प्रकार अन्तर काल जानना चाहिये । आनतसे लेकर उपरिम प्रैवेयक तकके देवोंके मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका तथा सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उत्कृष्ट स्थितिका अन्तरकाल तो होता ही नहीं, क्योंकि इनके पर्यायके प्रथम समयमें ही उक्त कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है। हाँ सम्यक्त्व
और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उद्वेलनाकी अपेक्षा और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अनुत्कृष्ट स्थितिका विसंयोजनाकी अपेक्षा अन्तरकाल सम्भव है जो मूलमें बतलाया ही है।
६५४८. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, बस और त्रस पर्याप्त जीवोंमें मिथ्यात्व और बारह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्सिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तमुहूते और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर इसी प्रकार है । किन्तु इतनी विशेषता है कि अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय है । अनन्तानुबन्धी चतुष्कको उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागर है। नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण
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३२७
गा० २२
हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिडिदिअंतरं ६५४९. पंचमण.-पंचवचि० उक्क० णत्थि अंतरं । णवरि पंचणोक० [ज.] एयसमा, उक्क० अंतोमुहुचे । चदुणोक० [उक्क०] ज० एगस०, उक्क० आवलिया दुसमऊणा । अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० आवलि० असंखे०भागो एगावलिया वा । एवं कायजोगि०-ओरालिय०-वेउव्विय० चत्तारिकसाए त्ति । है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर ओघके समान है। इसी प्रकार पुरुषवेदवाले, चक्षुदर्शनवाले और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये ।
विशेषार्थ कोई भी जीव पंचन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, बस और त्रसपर्याप्त जीवोंकी कायस्थिति प्रमाण काल तक मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिके साथ रह सकता है पर यहाँ इनकी उत्कृष्ट स्थितिका अन्तर काल बतलाना है, अतः इनके प्रारम्भ और अन्त में उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त करावे और इस प्रकार उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर काल ले आवे जो उक्त जीवोंकी कुछ कम कायस्थितिप्रमाण होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतने काल तक लगातार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका सत्त्व सम्यक्त्व प्राप्तिकी अपेक्षा बन सकता है, अन्यथा मध्यमें इनकी उद्वेलना भी हो जायगी। जिसने अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना की है ऐसा जीव यदि पुनः अनन्तानुबन्धीका सत्त्व प्राप्त करे तो वह अनन्तानुबन्धी चतुष्कके बिना अधिक से अधिक कुछ कम एकसौ बत्तीस सागर तक रह सकता है, अतः उक्त जीवोंके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एकसौ बत्तीस सागर कहा । शेष कथन ओघके समान है। पुरुषवेदी, चक्षुदर्शनी और संज्ञी जीवोंकी उत्कृष्ट कायस्थिति क्रमशः सौ सागर पृथक्त्व, दो हजार सागर और सौ सागर पृथक्त्व है, अतः इनमें भी उक्त क्रमसे अन्तर काल बन जाता है।
६५४६. पाँचों मनोयोगी और पाँचों वचनयोगी जीवोंमें उत्कृष्ट स्थितिका अन्तर नहीं है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें पाँच नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । चार नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर दो समय कम एक वलि है। तथा सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर चार नोकषायोंके सिवा शेषका अन्तर्मुहूर्त तथा चार नोकषायोंका आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाग अथवा एक आवलिप्रमाण है। इसी प्रकार काययोगी, औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी और चारों कषायवाले जीवोंके जानना चाहिये ।
विशेषार्थ-पांचों मनोयोग और पांचों वचनयोगोंमें नौ नोकषायोंको छोड़कर शेष सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका अन्तरकाल नहीं प्राप्त होता। इसका कारण यह है कि इन योगोंका काल थोड़ा है, अतः इनमें दो बार उत्कृष्ट स्थितिका प्राप्त होना सम्भव नहीं है। किन्तु सोलह कषायोंका बदल बदल कर अन्तरसे भी उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है, अतः उनके संक्रमणकी अपेक्षासे नौ नोकषायोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट और जघन्य अन्तर बन जाता है जो मूलमें बतलाया ही है। इसी प्रकार यहां शेष प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका भी अन्तर घटित कर लेना चाहिये । मूलमें काययोगी आदि जितनी मार्गणाएं बतलाई हैं उनमें भी यथायोग्य जानना चाहिये। यद्यपि काययोगका उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है और औदारिक काययोगका काल कुछ कम बाईस हजार वर्ष प्रमाण है पर यह काल एकेन्द्रिय और पृथिवीकायिक जीवोंके ही प्राप्त होता है, अतः इनमें भी उत्कृष्ट स्थितिका अन्तरकाल
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जयधवलासहिदे कायपाहुडे
[हिदिविहत्ती ३ $ ५५०. इत्थि० पंचिंदियभंगो । णवरि सगहिदी देसूणा । अणंताणु०चउक्क० उक्क० जह० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी देसृणा । अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० पणवण्ण पलिदोवमाणि देसूणाणि। णवुसओघं । णवरि अणंताणु०चउक्क० अणुक्क० [उक्क० ] तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि ।
५५१. मदि०मुदअण्णा० ओघं । णवरि सम्मत-सम्मामि० उक्क० अणक्कर पत्थि अंतरं । अणंताण०चउक्क० बारसकसायभंगो। विहंग. सत्तमपुढविभंगो । णवरि सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० अणक० णत्थि अंतरं । अणंताण चउक्क. बारसकसायभंगो । असंजद णवुस भंगो । सम्भव नहीं।
६५५०. स्त्रीवेदवालों में पंचेन्द्रियों के समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी स्थिति कहनी चाहिये । तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तमहतं और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पचवन पल्य है। नपुंसकवेदमें ओघके समान जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है।
विशेषार्थ-स्त्रीवेदीकी उत्कृष्ट कायस्थिति सौ पल्य पृथक्त्व प्रमाण है, अतः इनमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछकम सौ पल्य पृथक्त्वप्रमाण प्राप्त होता है। तथा स्त्रीवेदी जीव सम्यक्त्वके साथ कुछकम पचवन पल्य तक रह सकता है और कुछकम इतने कालतक उसके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना पाई जा सकती है, अतः इसके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पचवन पल्य प्रमाण कहा। शेष कथन सुगम है। नपुंसकवेदमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अनुत्कृष्ट स्थितिके उत्कृष्ट अन्तर कालको छोड़ कर शेष सब कथन ओघके समान बन जाता है। किन्तु नपुंसकवेदी लगातार कुछ कम तेतीस सागर तक ही सम्यग्दर्शनके साथ रह सकता है अतः इसके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण प्राप्त होता है।
६५५१. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें ओघके समान अन्तर है । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर नहीं है। तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अनुत्कृष्ट स्थितिके अन्तरका भंग बारह कषायोंके समान है। विभंगज्ञानियों में सातवीं पृथिवीके समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर नहीं है । तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी स्थितिके अन्तरका भंग बारह कषायोंके समान है। असंयतोंमें नपुंसकों के समान भंग है।
विशेषार्थ-मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उदेलना ही होती जाती है। अतः इनके इन दो प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तरकाल नहीं पाया जाता । शेष कथन सुगम है। इसी प्रकार विभंगज्ञानी जीवों के भी उक्त दो प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर नहीं पाया जायगा। असंयतोमें नपुंसकवेद प्रधान है, अतः असंयतोंका कथन नपुंसकों के समान कहा।
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गा. २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिअंतरं
३२६ - ५५२. तिण्णिले० मिच्छत्त०-बारसक० उक्क० ज० अंतीमु०, उक्क० सगहिदी देसणा । अणक. ओघ । सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० अंतरं ज. अंतोम०, उक्क० सगहिदी देसूणा । अणक्क० एवं चेव । णवरि जह• एगसमओ। णवणोक० उक्क० जह० एगसमो, उक्क. सगहिदी देसणा। अणक्क० ओघं। अणताण०चउक्क. उक्क० बारसकसायभंगो । अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० सगहिदी देसणा । तेउ०पम्म० मिच्छत्त-बारसक० ज० अंतोमु० । उक्क. सगहिदी देसूणा । अणुक्क० ओघ । सम्मत-सम्मामि०-अणंताणु० चउक्क० उक्क० ज० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी देसूणा । अणुक्क० एवं चेव । णवरि जह० एयस । णवणोक० उक्क० जह० एगस०, उक्क० सगहिदी देसूणा। अणुक्क० ओघं । सुक्कले० सम्मत-सम्मामि० उक्क० णत्थि अंतरं । अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० एक्कचीस सागरोवमाणि देसूणाणि । अणंताणु०चउक्क० उक्क० णत्थि अंतरं । अणुक्क० ज० अंतोमु० । उक० एक्कतीस सा० देसणाणि । सेस. उक्क० अणुक्क० णत्थि अंतरं ।
६५५२. कृष्ण आदि तीन लेश्यावालोंमें मिथ्यात्व और बारह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है । तथा अनुत्कृष्ट स्थिति का अन्तर इसी प्रकार है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय है। नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर ओघके समान है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उत्कृष्ट स्थितिके अन्तरका भंग बारह कषायों के समान है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है । पीत और पद्मलेश्यावालों में मिथ्यात्व और बारह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर ओघके समान है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है । तथा अनुत्कष्ट स्थितिका अन्तर इसी प्रकार है । किन्तु इतनी विशेषता है कि इसका जघन्य अन्तर एक समय है। नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर अघिके समान है। शुक्ललेश्यावालोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थितिका अन्तर नहीं है तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उत्कृष्ट स्थितिका अन्तर नहीं है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है । शेष प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर नहीं है।
विशेषार्थ—कृष्णादि पांच लेश्याओंका उत्कृष्ट काल क्रमशः साधिक तेतीस सागर, साधिक सत्रह सागर, साधिक सात सागर, साधिक दो सागर और साधिक अठारह सागर है।
और इनमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति सम्भव है, अतः इनमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण बन जाता है । तथा
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गयधवलासहिदे कसायपाहुरे
[द्विदिविहती ३ ६५५३. अभव० मिच्छ०-सोलसक०-णवणोक० मोघं । णवरि अणंताणु०चउक्क० मिच्छत्तभंगो। मिच्छादि० मदि०भंगो। आहार० मिच्छत्त-बारसक० उक्क० जह० अंतोमु०, उक्क. सगहिदी देसूणा। अणुक्क. ओघं। सम्मत्त०-सम्मामि० पंचिंदियभंगो । अणंताणु० चउक्क० उक्क० मिच्छत्तभंगो । अणुक्क० पंचिंदियभंगो । णवणोक० उक्क० ज० एगसमओ, उक्क० सगहिदी देसूणा । अणुक्क० ओघं ।
एवमुक्कस्संतराणुगमो समत्तो । * एत्तो जहणणयंतरं।
५५४. सुगमं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर काल उद्वेलनाकी अपेक्षा
और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर काल विसंयोजनाकी अपेक्षा पूर्वोक्त प्रमाण बन जाता है। शेष कथन सुगम है। शुक्ल लेश्यामें सम्यक्त्व. सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर नौवें अवेयकके समान घटित कर लेना चाहिये। शेष कथन सुगम है ।
६५५३. अभव्योंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी स्थितिके अन्तरका भंग मिथ्यात्वके समान है। मिथ्यादृष्टियोंमें सभी प्रेकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके अन्तर का भंग मत्यज्ञानियोंके समान है। आहारक जीवों में मिथ्यात्व और बारह कषायों की उत्कृष्ट स्थिति का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग पंचेन्द्रियोंके समान है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उत्कृष्ट स्थितिके अन्तरका भंग मिथ्यात्वके समान है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर पंचेन्द्रियोंके समान है । नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर ओघके समान है।
विशेषार्थ-अभव्योंके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना नहीं होती, अतः इनके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर काल मिथ्यात्वके समान बन जाता है। आहारकका उत्कृष्ट काल अंगुलके असंख्यातवें भाग असंख्यातासंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी प्रमाण है, अतः इनमें मिथ्यात्व. सोलह कषाय और नौ नोकषायोंका उत्कृष्ट स्थिति का उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम उक्त काल प्रमाण बन जाता है। यहाँ जो लगातार आहारक होनेका उत्कृष्ट काल बतलाया है सो वह पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियके पश्चात् चौइन्द्रिय और चौइन्द्रियके पश्चात् तेइन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, एकेन्द्रिय जीव जितने काल तक लगातार आहारक होते रहते हैं उन सब आहारक कालोंको जोड़ कर बतलाया है। किन्तु सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर काल पंचेन्द्रियोंमें ही प्राप्त हो सकता है अन्यत्र नहीं, अतः आहारकके इनके अन्तर कालको पंचेन्द्रियोंके समान कहा । शेष कथन सुगम है।
इस प्रकार उत्कृष्ट अन्तरानुगम समाप्त हुआ। * इसके आगे जघन्य अन्तरका प्रकरण है । ६५५४. यह सूत्र सरल है।
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गा० २२)
हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिअंतरं मिच्छत्त-सम्मत्त-बारसकसाय-णवणोकसायाणं जहणणहिदिविहत्तियस्स पत्थि अंतरं।
६५५५. कुदो १ ख विदकम्माणं पुणरुप्पत्तीए अभावादो।
® सम्मामिच्छत्त-अणंताणुबंधीणं जहएणहिदिविहत्तियस्स अंतरं जहरणेण अंतोमुहुत्तं।
___५५६. तं जहा-उव्वेल्लणाए सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णहिदिसंतकम्मं कुणमाणो सम्मत्ताहिमुहो होदूणंतरचरिमफालीए सह उव्वेल्लणचरिमफालिमवणिय तत्तोप्पहुडि मिच्छत्तपढमहिदीए समयूणावलियमेत्तमणुप्पविसिय तत्थ पयदजहण्णहिदिसंतकम्मस्सादि कादर्णतरिय कमेण मिच्छत्तपढमहिदि गालिय पढमसम्मत्तं पडिवज्जिय अंतोमुहुत्तमच्छिय वेदगसम्मत्तं पडिवज्जिय पुणो अंतोमुहुत्तेण अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोइय पुणो अधापवत्तअपुवकरणाणि करिय अणियट्टिअद्धाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु मिच्छत्तं खविय पुणो अंतोमुहुत्तेण सम्मामिच्छत्तचरिमफालिं परसरूवेण संकामिय जहाकमेण अधहिदिगलणाए उदयावलियणिसेगेसु गलमाणेसु एगणिसेगहिदीए दुसमयकालाए सेसाए अंतोमुहुत्तपमाणं सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णंतरं होदि । एव
* मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिका अन्तर नहीं है।
६५५५. शंका उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका अन्तर क्यों नहीं होता ?
समाधान—क्योंकि क्षयको प्राप्त हुए कर्मोंकी पुनः उत्पत्ति नहीं होती है और इन प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति क्षपणाके अन्तमें ही प्राप्त होती है, अतः इनकी जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं होता। ___* सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है।
६५५६. वह इस प्रकार है-उद्वेलनाके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसत्कर्म करनेवाला कोई एक जीव सम्यक्त्वके सन्मुख हुआ और इसने अन्तरकरणकी अन्तिम फालिके साथ उद्वेलनाकी अन्तिम फालिको अन्य प्रकृतिमें खिपाया। फिर वहाँ से लेकर मिथ्यात्वकी स्थितिमें एक समय कम आवलिप्रमाण कालको बिताकर सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य स्थितिसत्कर्मका आदि किया और इस प्रकार उसका अन्तर कर दिया। फिर क्रमसे मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिको गलाकर प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त किया और वहाँ अन्तर्मुहूर्त रह कर वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त किया । पुनः अन्तर्मुहूतेकालके द्वारा अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की। पुनः अधःकरण और अपूर्वकरणको करके अनिवृत्तिकरणके कालके संख्यात बहुभाग व्यतीत हो जाने पर मिथ्यात्वका क्षय किया। पुनः अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिका पररूपसे संक्रमण करके यथाक्रमसे अधःस्थितिगलनाके द्वारा उदयावलिके निषेकोंको गलाते हुए जब एक निषेककी स्थिति दो समय कालप्रमाण शेष रह जाती है तब उस जीवके सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ मणंताणुबंधिचउक्कस्स वि । णवरि अंतोमुहुत्तभंतरे दो वारं तेसिं विसंयोजणं काउण जहण्णंतरं वत्तव्वं ।
® उक्कस्सेण उवड्डपोग्गलपरियट्ट।
$ ५५७. सुगममेदं । एवं चुण्णिसुत्तमस्सिदृण ओघतरपरूवणं करिय संपहि तेण सूचिदसेसमग्गणाओ अस्सिदण अंतरपरूवणाए कीरमाणाए उच्चारणमस्सिदूण कस्सामो।
६ ५५८. जहण्णए पयदं । दुविहो णिसो-ओघेण ओदेसेण य । तत्थ ओघेण मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० जह० अजह० णत्थि अंतरं। सम्मत्त० जह० णत्थि अंतरं । अज. अणुक्कस्सभंगो। सम्मामि० जह० ज० अंतोमु०, उक्क० अद्धपोग्ग० देसूणं । अज० अणुक्क भंगो। अणंताणु० चउक्क० जह० ज० अंतोमु०, उक्क० अद्धपोग्ग० देसूणं । अज० ज० अंतोम०, उक्क० बेछावहिसागरो० देसूणाणि । एवमचक्खु०-भवसि०। स्थितिका जघन्य अन्तर प्राप्त होता है जिसका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भी जघन्य अन्तर कहना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर दोबार अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कराके जघन्य अन्तर कहना चाहिये ।
* तथा उस्कृष्ट अन्तर उपार्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण है ।
६५५७. यह सूत्र सरल है। इस प्रकार चूर्णिसूत्रका आश्रय लेकर ओघ अन्तरका कथन करके अब सभी मार्गणाओंमें इसके द्वारा सूचित होनेवाले अन्तरका कथन उच्चारणाके आश्रयसे करते हैं
६५५८. जघन्य अन्तरका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओपनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। तथा अजघन्यका भंग अनुत्कृष्टके समान है। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। तथा अजघन्यका भंग अनुत्कृष्टके समान है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागर प्रमाण है । इसी प्रकार अचक्षुदर्शनवाले और भव्योंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-सब प्रकृतियों की जघन्य स्थितिके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरका उल्लेख चूर्णिसूत्रों की व्याख्या करते समय किया ही है अतः यहां अजघन्य स्थिति के जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरका उल्लेख किया जाता है-उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त हो जानेके बाद उससे न्यून जितनी स्थितियां प्राप्त होती हैं उन सबको अनुत्कृष्ट स्थिति कहते हैं तथा जघन्य स्थितिके अतिरिक्त जितनी स्थितियाँ होती हैं उन्हें अजघन्य स्थिति कहते हैं। इसके अनुसार ओघसे मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अजघन्य स्थितियोंका अन्तर नहीं प्राप्त
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गा० ३२ )
हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिश्रेतर ५५९. आदेसेण गेरइएसु मिच्छत्त-बारसक० णवणोक० जह० णत्थि अंतरं । अज० जहण्णुक्क० एगस । सम्मत्त० जह• पत्थि अंतरं । अज० अणुक्क०मंगो। सम्मामि० जह० जह० पलिदो० असंखे०भागो। अज० जह० एगस०, उक्का दोण्हं पि तेत्तीस० देसणाणि । अणंताणु०चउक्क० ज० अज० जह० अंतोम०, उक्क० तेत्तीसं सागरो. देसणाणि । पढमाए मिच्छत्त-बारसक णवणोक० जह० पत्थि अंतरं । अज० जहण्णुक्क एगस० । सम्मत्त० ज० णत्थि अंतरं। अज० जह० एगस०, उक्क० सगहिदी देसूणा । सम्मामि० जह० जह० पलिदोवमस्स असं०भागो। अज. जह० एगस०, उक्क. सगहिदी देसूणा । अणंताणु चउक्क० जह० अजह० जह० अंतो०, उक्क सगहिदी देसूणा | विदियादि जाव छहि त्ति मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० जह० अज० णत्थि अंतरं । सम्मत्त०-सम्मामि० जह० ज० पलिदो० असंखे० होता, क्योंकि ओघसे उन प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितियाँ क्षपणाके अन्तमें ही प्राप्त होती हैं और क्षय होनेके पश्चात् पुनः इनका सत्त्व नहीं पाया जाता। किन्तु सम्यक्त्व और सन्यग्मिथ्यात्वका उद्वेलनाके पश्चात् सम्यक्त्वके होने पर नियमसे सत्त्व हो जाता है और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका विसंयोजनाके पश्चात् पुनः सत्त्व हो सकता है अतः इन प्रकृतियोंकी ओघसे अजघन्य स्थितियों का भी अन्तर पाया जाता है। उनमेंसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थितिके अन्तरका खुलासा इनके अनुत्कृष्ट स्थितिके अन्तरके समान जानना चाहिये । तथा अनन्ता. नुबन्धी चतुष्ककी अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूत है, क्योंकि अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजनाके बाद पुनः उसका सत्त्व प्राप्त करनेमें कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल लगता है । तथा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एकसौ बत्तीस सागर है, क्योंकि जिसने अनन्तानुबन्धी चतुप्ककी विसंयोजना कर दी है वह यदि मिथ्यात्वमें आकर पुनः उसका सत्त्व प्राप्त करे तो उसे ऐसा करने में सबसे अधिक काल कुछ कम एकसौ बत्तीस सागर लगता है।
६५५६. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। सम्यक्त्व प्रकृतिकी जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। तथा अजघन्यका भग अनुत्कृष्टके समान है। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय है और दोनों स्थितियोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य और अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है । पहली पृथिवीमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषयोंकी जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय है और दोनोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य और अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। दूसरी पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तकके नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[हिदिविहत्ती ३ भागो । अज० ज० एगस०, उक्क० सगहिदी देसूणा । अणंताणु चउक्क० जह० अज० ज० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी देसूणा । सत्तमाए मिच्छत्त-बारसक०-भयदुगुंछ० जह० णत्थि अंतरं। अज० जह० एगस०, उक्क० अंतोम० । सत्तणोक० जह. णत्थि अंतरं । अज० जहण्णक्क० एगस० । सम्मामि०-अणंताणु० णिरोघं । सम्मत्त० सम्मामिच्छत्तभंगो ।
स्थितिका अन्तर नहीं है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और दोनों जघन्य अजघन्यका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य और अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। सातवीं पृथिवीमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग सामान्य नारकियोंके समान है। तथा सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है।
विशेषार्थ- नरक में मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति दूसरे विग्रहके समय एक बार ही प्राप्त हो सकती है, अतः यहाँ जघन्य स्थितिका अन्तर काल नहीं कहा । किन्तु इस जीव के पहले विग्रहमें और तृतीयादि समयों में अजघन्य स्थिति रहेगी अतः नरकमें उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर काल एक समय कहा है । नरकमें उत्पन्न हुए कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीवके ही सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति पाई जाती है, अतः इसकी जघन्य स्थितिका अन्तरकाल सम्भव नहीं। तथा इसकी अजघन्य स्थितिका अन्तर काल अनुत्कृष्ट स्थितिके समान घटित कर लेना चाहिये। जिस नारकीने उद्वेलना करके सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति प्राप्ति की है वह उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करके और मिथ्यात्वमें पाकर पुनः उद्वेलना करके यदि पुनः उसकी जघन्य स्थितिको प्राप्त करे तो उसे ऐसा करने में पल्यका असंख्यातवां भागप्रमाण काल लगता है, अतः सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका अन्तरकाल उक्त प्रमाण कहा । जिस नारकीने सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थितिके बाद जघन्य स्थितिको प्राप्त किया और तीसरे समयमें उपशमसम्यक्त्वी होकर पुनः अजघन्य स्थितिको प्राप्त कर लिया उसके सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय पाया जाता है। जो नारकी नरक में उत्पन्न होनेके पहले समयमें और अपनी आयुके अन्तिम समय में उद्वेलनाद्वारा सम्यग्मिथ्यात्व की जघन्य स्थितिको प्राप्त करता है उसके सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर प्राप्त होता है । तथा जिस नारकीने उत्पन्न होनेके बाद दूसरे समयमें सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना कर दी और अन्तमें अन्तर्मुहूर्त कालके शेष रहनेपर उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त किया उसके सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर पाया जाता है । तथा नरकमें सम्भव विसंयोजनाके जघन्य और उत्कृष्ट कालकी अपेक्षा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य और अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तेतीस सागर प्रमाण प्राप्त होता है। प्रथम नरकके कथनमें सामान्य नारकियोंके कथनसे कोई विशेषता नहीं है। किन्तु जहां सामान्य नारकियोंके कथनमें कुछ कम अपनी उत्कृष्ट स्थिति कही हो वहां प्रथम नरककी कुछ कम उत्कृष्ट स्थिति जाननी चाहिये। दूसरेसे लेकर छठे नरक
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गा० २२ ]
हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिट्ठिदिअंतरं
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९५६०. तिरिक्खेसु मिच्छत्त - बारसक० -भय-दुर्गुछा० जह० ज० अंतोम०, उक्क • असंखेज्जा लोगा । अज० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । सम्मत्त० जह० णत्थि अंतरं । अज० अणुक्कस्सभंगो । सम्मामि० जह० ज० पलिदो० असंखे० भागो । उक्क० ओघं । अता- चउक० जह० श्रोधं । अज० जह० अंतोमु०, उक्क० तिण्णि पलिदो ० देसूणाणि । सत्तणोक० ज० ज० पलिदो० असंखे०भागो, उक्क० अतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अज० जहण्णुक्क० एयस० ।
अज० ज० एस ०,
तक नारकियोंके मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकाषायोंकी जघन्य स्थिति अन्तिम समय में ही प्राप्त हो सकती है अतः इनके उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थिति का अन्तरकाल नहीं प्राप्त होता । द्वितीयादि पृथिवियों में कृतकृतत्यवेदक सम्यग्दृष्टि नहीं उत्पन्न होता है अतः यहां सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति के अन्तरका कथन समान है । वह सामान्य नारकियोंके समान यहां भी घटित कर लेना चाहिये । शेष कथन सुगम है। सातवें नरकमें मिथ्यात्व बाहर कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति अन्त के अन्तमुहूर्त में कम से कम एक समय तक और अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त काल तक प्राप्त हो सकती है । अब जिसने इस अन्तमुहूर्तके मध्य में एक समय के लिये जघन्य स्थिति प्राप्त की उसके अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय पाया जाता है । तथा जिसने अन्तर्मुहूर्त तक जघन्य स्थिति प्राप्त करके अन्त में अजघन्य स्थिति प्राप्त की उसके अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त पाया जाता है । तथा नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय बतलाया है, अतः इनकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय प्राप्त होता है । शेष कथन प्रोघके समान है । किन्तु यहां भी कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होता, अतः यहां सम्यक्त्वका कथन सम्यग्मिथ्यात्व के समान जानना ।
§ ५६० तिर्यंचों में मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुसाकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है । तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है । तथा अजघन्य स्थितिका भंग अनुत्कृष्ट स्थिति के समान है । सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण और अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय तथा दोनोंका उत्कृष्ट अन्तर के समान है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिका अन्तर ओघके समान है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है जो असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय 1
विशेषार्थ — पहले तिर्यंचोंके मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टकाल असंख्यात लोकप्रमाण बतला आये है अतः वही यहां इनके उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल जानना चाहिये । तथा पहले इनके उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त बतला आये हैं अतः वही यहां इनके उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल जानना चाहिये । तिर्यंचोंके सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिके प्राप्त होती है अतः इनके सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति अन्तरकालका निषेध किया है । तिर्यंचों
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[द्विदिविहत्ती ३ ६५६१. पंचिंदियतिरिक्व-पंचिंतिरि०पज्ज०-पंचि०तिरि०जोणिणीसु मिच्छत्तबारसक०-भय-दुगुंछ० जह० णत्थि अंतरं । अज. जहण्णुक एयस० । सम्म० जह० पत्थि अंतरं । अज० जह० एयस०, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि पुवकोडिपुधत्तेणसम्यक्त्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण बतला आये हैं उसी प्रकार यहां उसकी अजघन्य स्थितिका अन्तरकाल घटित कर लेना चाहिये। किसी एक तियेचने उद्वेलनाके अन्तिम समयमें सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिको प्राप्त किया। पुनः वह दूसरे समयमें उपशमसम्यग्दृष्टि हो गया तो उसे मिथ्यात्वमें जाकर उद्वेलनाके द्वारा पुनः सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिको प्राप्त करनेमें पल्यका असंख्यातवां भाग प्रमाण काल लगता है, अतः तिर्यचके सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा। जो तिर्यंच सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिके साथ एक समय तक रहा और दूसरे समयमें वह उपशमसम्यग्दृष्टि हो गया उसके सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तरकाल एक समय कहा। तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर ओघके समान जानना, क्योंकि ओघमें कहा गया उत्कृष्ट अन्तरकाल तियंचोंके ही घटित होता है। एक अन्तर्मुहूर्तमें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना दो बार प्राप्त हो सकती है और ओघसे विसंयोजनाके अन्तिम समयमें अनन्तानुबन्धीकी जघन्य स्थिति होती है जो तिथंचोंके भी सम्भव है अतः इनके अनन्तानुबन्धीकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तरकाल ओघके समान अन्तर्मुहूर्त कहा। तियचोंमें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाका उत्कृष्ट अन्तरकाल अर्ध पुद्गलपरिवर्तन है, अतः इनके अनन्तानुबन्धीकी जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर काल
ओघके समान कुछ कम अर्धं पुद्गल परिवर्तन कहा। तथा तिर्यंचोंके चौबीस प्रकृतिक स्थानका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त है अतः इनके अनन्तानुबन्धीकी अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्महर्त कहा। तथा तिर्यंचोंके चौबीस प्रकृतिक स्थानका सत्त्वकाल कुछ कम तीन पल्य है, अत: इनके अनन्तानुबन्धीकी अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम तीन पल्य कहा। जो एकेन्द्रिय जीव सोलह कषायोंकी जघन्य स्थितिके साथ पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न होता है उसके प्रतिपक्ष प्रकृतियों के बन्ध कालके अन्तिम समयमें सात नोकषायोंकी जघन्य स्थिति प्राप्त होती है। अब यदि दूसरी बार यह जीव इसी स्थितिको प्राप्त करना चाहे तो उसे कमसे कम पल्यका असंख्यातवां भाग प्रमाण काल लगेगा, क्यों कि किसी एकेन्द्रियको पंचेन्द्रियके योग्य स्थितिका घात करके एकेन्द्रियके योग्य जघन्य स्थितिको प्राप्त करनेमें पल्यका असंख्यातवां भाग प्रमाण काल लगता है, अतः तिथंचोंके सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तरकाल पल्यके . असंख्यातवें भाग प्रमाण कहा। तथा एकेन्द्रियोंका उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है। अब यदि किसी एकेन्द्रियने उक्त कालके प्रारम्भ और अन्तमें पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिको प्राप्त किया तो उसके सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका उक्त काल प्रमाण उत्कृष्ट अन्तर काल पाया जाता है। तियचोंके सात नोकषायोंकी जघन्य स्थिति एक समयके लिये प्राप्त होती है, अतः इनके उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय कहा।
६५६१. पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तियेच योनिमतियों में मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है । तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्वसे
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गा० २२ ]. द्विदिविहत्तीए उत्तरपपडिहिदिअंतरं भहियाणि । सम्मामि० जह० ज० पलिदो० असंखे भागो । अज० ज० एगसमओ, उक्क० तिण्णि पलिदो० पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि । अणंताण चउक० ज० ज० अंतोमुहु, उक्क० सगहिदी देसूणा । अज० जह० अंतोमु०, उक० तिण्णि पलिदोवमाणि देसूणाणि । सत्तणोक० जह० पत्थि अंतरं । अज० जहण्णुक्क० एगस । णवरि पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु सम्मत्त० सम्मामिच्छत्तभंगो। अधिक तीन पल्यप्रमाण है। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और दोनोंका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्वसे अधिक तीन पल्य है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है । तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है। सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है । तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है । किन्तु इतनी विशेषता है कि पंचेन्द्रिय तियेच योनिमतियोंमें सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है।
विशेषार्थ उक्त तीन प्रकारके तिर्यंचोंके मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिका अन्तरकाल पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती पर्यायके रहते हुए नहीं प्राप्त होता, क्योंकि जो बादर एकेन्द्रिय हत समुत्पत्तिक्रमसे उक्त तीन प्रकारके तियचोंमें उत्पन्न होता है उसीके इनकी जघन्य स्थिति पाई जाती है, अतः इनके उक्त प्रकृतियोंका जघन्य अन्तर काल नहीं कहा । इनके सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिके अन्तरके नहीं होनेका भी यही कारण जानना चाहिए। तथा इनके उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति एक समयके लिये होती है, अतः अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय कहा। तियचोंमें सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिके होती है और ऐसे जीवके पुनः सम्यक्त्वका सत्त्व नहीं पाया जाता, अतः अन्तिम भेदको छोड़कर उक्त दो प्रकारके तिर्यंचोंके सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिका अन्तरकाल नहीं कहा । जिस तिथंचने सम्यक्त्वकी उद्वेलना करके एक समयके अन्तरालसे उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त किया है उसके सम्यक्त्वका अन्तर एक समय पाया जाता है, अतः विवक्षित तियंचोंके सम्यक्त्वकी अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय कहा। उक्त तीन प्रकारके तियचोंका उत्कृष्ट काल पूर्वकोटि पृथक्त्वसे अधिक तीन पल्य है। अब यदि किसीने अपने कालके प्रारम्भमें सम्यक्त्वकी उद्वेलना की और अन्तमें उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करके सम्यक्त्वकी अजघन्य स्थितिको प्राप्त किया तो उसके उक्त काल तक सम्यक्त्वका अन्तर पाया जाता है, अतः उक्त तीन प्रकारके तियेचोंके सम्यक्त्वकी अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर काल उक्त प्रमाण कहा । तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल सम्यक्त्वके समान घटित कर लेना चाहिये और सामान्य तिथंचोंके सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका अन्तरकाल जिस प्रकार घटित करके लिख आये हैं उसी प्रकार यहां भी जानना चाहिए, इसलिये इसका अलगसे खुलासा नहीं किया। किन्तु यहां इतनी विशेषता है कि योनिमती तिर्यंचके सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिका अन्तरकाल सम्मग्मिथ्यात्वके समान ही प्राप्त होता है, क्योंकि इनमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होता । उक्त तीनों प्रकारके तियचोंके अनन्तानुबन्धीकी जघन्य स्थिति विसंयोजनाके अन्तिम समयमें प्राप्त होती है और जिसने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की है ऐसा जीव मिथ्यात्वमें आकर और सम्यक्त्वको प्राप्त करके पुनः विसंयोजना करे तो कमसे कम
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:: नयंधवलासहिदे कसायपाहु.
[डिदिहिती ३
९५६२, पंचिं० तिरि० अ ] पज्ज० मिच्छत्त - बारसक० - बगोक० पचिं०तिरिक्त्वभंगो | अनंताणु० चउक्क० मिच्छत्तभंगो । सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं जहण्णाजहण्ण० णत्थि अंतरं । एवं मणुस पज्ज० - सव्वविगलिंदिय-पंचिंदिय अपज्ज० - तसपज्जते ति ।
९५६३, मणुसतिय० मिच्छत बारसक० - णवणोक० जह० अ० णत्थि अंतर । सेसाणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो | णवरि सम्मामि० जह० ओघं ।
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अन्तर्मुहूर्त काल लगता है, अतः इनके अनन्तानुबन्धीकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूत कहा । उक्त तीन प्रकारके तिर्यंचोंका जो उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्व से अधिक तीन पल्य बतलाये हैं सो इसके आदि और अन्त में अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करावे और इस प्रकार उभयत्र अनन्तानुबन्धीकी जघन्य स्थिति ले आवे, अतः इनके अनन्तानुबन्धीकी जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण कहा । किसीने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना के अन्त समय में अजघन्य स्थितिका अन्तर किया और अन्तर्मुहूर्त के बाद मिथ्यात्व में जाकर उसने पुनः अनन्तानुबन्धीकी अजघन्य स्थिति प्राप्त करली तो उसके अनन्तानुबन्धीकी अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त पाया जाता है इसीलिये उक्त तीन प्रकारके तिर्यंचोंके अनन्तानुबन्धीकी अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा । तथा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य हैं यह स्पष्ट ही है । सात नोकषायोंकी जघन्य स्थिति एक समय तक पाई जाती है, अतः इनके सात नोकषायोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय कहा ।
$ ५६२. पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकों में मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायों का भंग पंचेन्द्रियतिर्यंचों के समान है । अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग मिथ्यात्वके समान है । सम्यक्त्व और समयकी जघन्य और अजवन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और त्रस अपर्याप्त जीवों में जानना चाहिये । विशेषार्थ-पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकोंके मिध्यात्व आदि २२ प्रकृतियोंकी
जघन्य स्थितिका अन्तरकाल सम्भव नहीं तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है और यह सब व्यवस्था पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के समान है, अतः इस कथनको पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के समान करनेकी सूचना की । पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तक के अनन्तानुबन्धीकी जघन्य और जघन्य स्थिति के अन्तर के सम्बन्धमें यही व्यवस्था जाननी चाहिये, अतः इसके कथनको मिध्यात्व के समान कहा । पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपाप्तकोंके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की उद्वेलना तो होती है पर इसी पर्यायके रहते हुए पुनः इनकी प्राप्ति नहीं होती, अतः इनके उक्त दो प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर काल नहीं बनता । मूलमें मनुष्य लब्ध्यपर्याप्त आदि और जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें यह व्यवस्था बन जाती है, अतः उनके कथनको पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकोंके समान कहा ।
९ ५६३, सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में मिथ्याख, बारह कषाय और नौ नोकषायों की जन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है । शेष प्रकृतियों का भंग पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर
के समान है ।
विशेषार्थ - मनुष्य त्रिकके मिध्यात्वकी जघन्य स्थिति दर्शनमोहनीयकी क्षपणा के समय
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गा० २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिडिदिअंतरं
३३६ ६ ५६४. देव० मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० जह० णत्थि अंतरं । अज० जहण्णक्क० एयस । सम्मत्त० जह० णत्थि अंतरं । अज० जह० एगस०, उक्क० एक्कत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि । सम्मामि० जह० जह० पलिदो० असंखे०भागो । उक्क० एकत्तीससागरो० देसूणाणि । अजह० जह० [ एगसमओ, ] उक्क० एकत्तीस सागरोवमाणि देसूणाणि । अणंताणु० ज० अज० ज० अंतोमु०, उक्क एकत्तीस० देसूणा० । तथा बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थिति चारित्रमोहनीयकी क्षपणाके समय प्राप्त होती है तथा इसके बाद इनका पुनः सत्त्व सम्भव नहीं, अतः इनकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तरकाल नहीं कहा। अब शेष जो छह प्रकृतियां बचती हैं सो उनकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके अन्तरके विषयमें जिस प्रकार पंचेन्द्रिय तियंचके खुलासा कर आये हैं उसी प्रकार यहां भी खुलासा कर लेना चाहिये । किन्तु इनके सम्यग्मिथ्यात्वको जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तरकाल ओघके समान बन जाता है, क्योंकि इनके सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलनाके समान क्षपणा भी पाई जाती है।
६५६४. देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है । सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर पल्योफ्मके असंख्यातवें भागप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य और अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है।
विशेषार्थ—जो असंज्ञी दो मोड़ा लेकर देवोंमें उत्पन्न होता है उसके दूसरे विग्रहके समय ही मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति सम्भव है। तथा इसी जीवके प्रतिपक्ष पंकृतियोंके बन्धकालके अन्त में सात नोकषायोंकी जघन्य स्थिति सम्भव है, अतः सामान्य देवोंके उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका अन्तर काल नहीं कहा । तथा इनके उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति एक समय तक पाई जाती है, अत: इनके उक्त कृतियोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय कहा। देवोंमे कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न होते हैं अतः इनके सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिका अन्तरकाल सम्भब नहीं है। कारण स्पष्ट है । जिस देवके उद्वेलनाके एक समयके अन्तरालसे उपशम सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है, उसके सम्यक्त्वकी अजघन्य स्थितिका अन्तर एक समय पाया जाता है अतः देवोंके सम्यक्त्वकी अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तरकाल एक समय कहा । देवोंमें उपरिम प्रैवेयक तकके देव ही मिथ्यादृष्टि होते हैं। अब जिस देवने वहाँ उत्पन्न होनेके पहले समयमें सम्यक्त्वकी उद्वेलना करके अजघन्य स्थितिका अन्तर किया और अन्तर्मुहूर्तकालके शेष रह जाने पर उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करके सम्यक्त्वकी अजघन्य स्थितिको प्राप्त किया उसके सम्यक्त्वकी अजघन्य स्थितिका अन्तरकाल कुछकम इकतीस सागर पाया जाता है, अतः सामान्य देवोंके उक्त प्रकृतिकी अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त प्रमाण कहा। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल घटित कर लेना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि
त: सामान्य
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अयधवलासहिदे कसा पाहुडे
[ द्विदिहिती ३
S५६५. भवण० वाण० मिच्छत्त० - बारसक० णवणोक० जह० अज० देवोघं । सम्मत्त० - सम्मामि० जह० ज० पलिदो० असंखे० भागो । उक्क० सगहिदी देभ्रूणा । अज० ज० एयस०, उक्क० सग० देसूणा । श्रणतारणु० चउक० जह० अ० ज० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी देणा । जोइसियादि जाव उवरिमगेवज्जो त्तिमिच्छत्तबारसक० - णवणोक० ज० ज० णत्थि अंतरं । सम्मत्त ज० णत्थि अंतरं । अज० अणुकरसभंगो । सम्मामि० जह० ज० पलिदो० असंखे० भागो । उक्क० सगसगुक्कसहिदी देणा । अज० अणुक्कस्तभंगो । अनंताणु० चउक्क० ज० अज० ज०
३४०
जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल प्राप्त करते समय जीवनमें पल्यके असंख्यातवें भाग कालके शेष रह जाने पर उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करावे और वहांसे निकलनेके अन्तिम समयमें जघन्य स्थिति प्राप्त करावे । सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण जिस प्रकार तिर्यंचके घटित करके बतला आये हैं उसी प्रकार सामान्य देवोंके घटित कर लेना चाहिये । तथा जिस देवने सम्यग्मिध्यात्वकी उद्वेलनाके पहले समय में सम्यक्त्वको प्राप्त कर लिया है उसके सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय पाया जाता है, अतः देवोंके सम्यग्मिथ्यात्व की जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय कहा । अनन्तानुबन्धीकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके जघन्य अन्तरकालको जिस प्रकार तिर्यंचोंके अन्तर्मुहूर्त प्रमाण घटित करके लिख आये हैं उसी प्रकार सामान्य देवोंके घटित कर लेना चाहिये। एक देव है जिसने जीवन के प्रारम्भ में विसंयोजना के अन्तिम समय में अनन्तानुबन्धीकी जघन्य स्थितिको प्राप्त किया अनन्तर वह मिथ्यात्वको प्राप्त हो गया और जब जीवनमें अन्तर्मुहूर्त काल शेष रह जाय तब वह पुनः अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके अनन्तानुबन्धीकी जघन्य स्थितिको प्राप्त करे तो उसके अनन्तानुबन्धीकी जघन्य स्थितिका अन्तर कुछकम इकतीस सागर बन जाता है, अतः समान्य देवोंके अनन्तानुबन्धीकी जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल उक्त प्रमाण कहा । तथा जिस देवने प्रारम्भमें विसंयोजना द्वारा विसंयोजना के अन्तिम समय में अनन्तानुबन्धीकी अजघन्य स्थितिका अन्तर किया और जीवन भर वह सम्यक्त्वके साथ रहा । पुनः जीवनके अन्तिम समय में वह मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ तो उसके अनन्तानुबन्धीकी अजघन्य स्थितिका अन्तर कुलकम इकतीस सागर पाया जाता है, अतः इसका उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण कहा ।
·
९५६५. भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें मिध्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर सामान्य देवोंके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है । तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य और अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है । ज्योतिषियोंसे लेकर उपरिमयैवेयक तकके देवोंमें मिध्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है । सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है तथा जघन्यका भंग अनुत्कृष्टके समान है । सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । तथा अजघन्यका भंग अनुत्कृष्टके समान है । अनन्तानुबन्धी agrrat जघन्य और अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम
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गा० २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिडिदिअंतर
३४१ अंतो०, उक्क० सगहिदी देसूणा । णवरि जोइसिएसु सम्मत्त० सम्मामिच्छत्तभंगो। अणुद्दिसादि जाव सव्वह० सव्वपयडीणं ज० अज० णत्थि अंतरं । कम्मइय-आहार०. आहारमिस्स०-अवगद०-अकसा०-आभिणि-सुद०-ओहि०-मणपज्जा-विहंग०-संजद०सामाइय-छेदो०-परिहार० सुहुम०-जहाक्खाद०-संजदासंजद-ओहिदंस०-सम्मादि०खइय०-वेदय०-उवसम०-सासण-सम्माभि०-अणाहारए त्ति णत्थि अंतरं।
५६६. एइंदिएसु मिच्छत्त-सोलसक-भय-दुगुंछ० जह० ज० अंतोमु०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। अज० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु । सम्मत्त०-सम्मामि० ज० अज० पत्थि० अंतरं । सत्तणोक० ज० ज० अंतोम०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। अज० जहण्एक० एगस० । एवं सुहुम० । बादराणमेवं चेत्र । णवरि सगहिदी देसूणा । एवं बादरपजत्ताअपनी स्थितिप्रमाण है। किन्तु इतनी विशेषता है कि ज्योतिषियोंमें सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है । इसी प्रकार कार्मणकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, आभिनिबाधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, विभंगज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनवाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और अनाहारक जीवोंके सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है।
विशेषार्थ भवनवासी और व्यन्तरदेवोंमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होते. अतः इनके वहाँ सम्भव सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिका अन्तरकाल बन जाता है, क्योंकि एक बार सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिको प्राप्त करके पुनः उसी स्थितिको प्राप्त करने में पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल लगता है। शेष कथन सुगम है। ज्योतिषियोंसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देवोंके मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका प्राप्त होना जीवनके अन्तिम समयमें सम्भव है, अत: इनके उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तरकाल नहीं पाया जाता । ज्योतिषियोंमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होता, अतः उनके सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिका अन्तरकाल भवनवासियोंके समान बन जाता है, शेषके नहीं। अनुदिशादिकमें सम्यग्दृष्टि जीव ही उत्पन्न होते हैं, अतः वहां किसी भी प्रकृतिका अन्तरकाल सम्भव नहीं है। इसी प्रकार आहारककाययोगसे लेकर सम्यग्मिथ्यादृष्टि तकके जीवोंमें अपने अपने कालके अन्तिम समयमें जघन्य स्थिति होनेके कारण अन्तर संभव नहीं है। कार्मणकाययोग और अनाहारक ऐसी मार्गणाएं हैं जिनमें सम्भव सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तरकाल सम्भव नहीं, क्योंकि वहां अन्तरालके साथ दो बार जघन्य या अजघन्य स्थिति नहीं पाई जाती।
६५६६. एकेन्द्रियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। तथा अजघन्य स्थितिका
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जयघवलासहिदे कसायपाहुडे
[ द्विदिविहत्ती ३
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पज्जत्ताणं । सुहुमपज्जत्तापजत्तएसु मिच्छत्त - सोलसक०-भय-दुगुंछ ० जह० जहण्णुक्क • अंतोमु० । अ० ज० एंगस ०, उक्क० अंतोमु० | सत्तणोकसाय० ज० जहरागुक्क अंतोमु० । अज० जहण्णुक्क एगसम । [सम्मत्त-सम्मा० ज० अज० णत्थि अंतरं ।] ९५६७. पंचिंदिय-पंचिं० पज्ज०-तस० - तसपज्ज० मिच्छत्त - बारसक० - णवणोक जह० ज० णत्थि अंतरं । सम्मत्त० ज० णत्थि अंतरं । अज० अणुक्क० भंगो । सम्मामि० ज० ज० अंतोमु० । अज० ज० एगस ०, उक० सहिदी देणा । अनंताणु०
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•
जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है । इसी प्रकार सूक्ष्म एकेन्द्रियों के जानना चाहिये । बादर एकेन्द्रियोंके भी इसी प्रकार जानना चाहिये, किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके कुछ कम अपनी स्थिति कहनी चाहिये । इसी प्रकार बादर पर्याप्तक और बादर अपर्याप्तक जीवोंके जानना चाहिये । सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक और अपर्याप्त जीवों में मिध्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है ।
विशेषार्थ - जो बादर एकेन्द्रिय मिध्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिको प्राप्त करके पुनः उसे प्राप्त करना चाहता है उसे वैसा करनेमें कमसे कम अन्तर्मुहूर्तकाल लगता है अतः एकेन्द्रियोंके उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा । तथा यदि ऐसा जीव सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें अपने उत्कृष्ट काल तक परिभ्रमण करे और फिर बादर एकेन्द्रिय हो कर जघन्य स्थिति प्राप्त करे तो असंख्यात लोकप्रमाण काल लगता है, अतः इनके उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण कहा । तथा एकेन्द्रियों के उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त है अतः इनके अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा। इनके सात Pravrrit जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वोक्त रीति से ही घटित कर लेना चाहिये | किन्तु अजघन्य स्थितिके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालमें कुछ विशेषता है । बात यह है कि इनके सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय प्रमाण ही होता
, अतः अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय प्रमाण ही प्राप्त होगा। एकेन्द्रियोंको सम्यग्दर्शन की प्राप्ति नहीं होती, अतः उनके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तरकाल सम्भव नहीं, यह स्पष्ट ही है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय और बादर एकेन्द्रियों के मिथ्यात्वादिकी जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण होता है। शेष कथन पूर्वोक्त प्रमाण ही है । बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त और बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके भी इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त हो है, अतः इनके उक्त सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त हो जाता है । शेष कथन पूर्वोक्त प्रमाण ही है ।
५६७. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस और त्रसपर्याप्त जीवोंमें मिध्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है । सम्यक्त्व प्रकृतिकी जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है । तथा अजघन्यका भंग अनुत्कृष्टके समान है । सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय है ।
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गा० २२] हिदिविहतीए उत्तरपयडिष्टिदिअंतरं
३४३ चउक० ज० ज० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी देसूणा । अज० ज० अंतोमु०, उक्क० वे छावहिसागरो० देसूणाणि । एवं पुरिस०-चक्खु०-सण्णि त्ति ।
६५६८. कायाणुवादेण पंचकाय० एइंदियभंगो । णवरि सगसगुक्कस्सहिदी देसूणा । पंचमण०-पंचवचि० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० ज० अज० गत्थि अंतरं । सम्मत्त० सम्मामि० ज० णत्थि अंतरं । अज० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । कायजोगि०-ओरालि.-वेउब्धिय० मणजोगिभंगो। ओरालियमिस्स० सुहुमेइंदियअपजत्तभंगो। णवरि सत्तणोक० जह० णत्थि अंतरं। अज० जहण्णुक० एगसमओ। वेउव्वियमिस्स० मिच्छत्त-सम्पत्त-सम्मामि०-सोलसक०-भय-दुगुंछ. ज. अज० णत्थि अंतरं । सत्तणोक० ज० णत्थि अंतरं । अज० जहण्णुक० एगस० । तथा दोनोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागर है। इसी प्रकार पुरुषवेदवाले, चक्षुदर्शनवाले और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-पंचेन्द्रिय आदि चार मार्गणाओंमें दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयकी क्षपणाके समय मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकाषायोंकी जघन्य स्थिति पाई जाती है, अतः इनके उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तरकाल नहीं कहा। तथा इनके कृतकृत्यवेदकके अन्तिम समय में सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति पाई जाती है अतः इसकी जघन्य स्थितिका अन्तरकाल भी सम्भव नहीं। जिसने सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना की और सम्यग्दृष्टि होकर अन्तर्मुहूर्त में उसकी क्षपणा की उसके सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त पाया जाता है, अत: इसका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त कहा। शेष कथन सुगम है।
६५६८ काय मार्गणाके अनुवादसे पांच स्थावर कायोंमें एकेन्द्रियों के समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति कहनी चाहिये। पांचों मनोयोगी और पांचों मनोयोगी जीवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। काययोगी, औदारिककाययोगी और वैक्रियिककाययोगी जीवोंमें मनोयोगियों के समान भंग है। औदारिक मिश्रकाययोगियोंमें सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगियों में मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है । सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है।
विशेषार्थ-पांचों मनोयोगों और पांचों वचनयोगोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका तथा सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिका अन्तरकाल नहीं है सो इसका खुलासा पंचेन्द्रिय मार्गणा में जिस प्रकार कर आये हैं उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिए। तथा उक्त योगोंमेंसे एक योगके रहते हुए अनन्तानुबन्धीकी दो बार विसंयोजना सम्मव नहीं, अतः
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३४४ जयपवलासहिदे कसायपाहुडे
[छिदिविहत्ती ५६९, इत्थिवेदेसु मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० ज० अज. पत्थि अंतरं । सम्मत्त० ज० णत्थि अंतरं । अज० अणुक्क भंगो। सम्मामि० ज० ज० अंतोमु । अज० ज० एगस०, उक्क० सगहिदी देसूणा । अणंताणु०चउक्क० ज० सम्मामिच्छत्तभंगो । अज० ज० अंतोमु०, उक्क. पणवण्णपलिदो० देसूणाणि ।
५७०. णवु'स० मिच्छत्त०-बारसक०-णवणोक० ज० अज० पत्थि अंतरं । सेसमोघं । णवरि अणंताणु० चउक० अज० ज० अंतोम०, उक्क० तेत्तीसं सागरो. देसूणाणि । एवमसंजद० । णवरि बारसक०-णवणोक० तिरिक्खभंगो। चत्तारिक. मणजोगिभंगो।
६ ५७१. मदि-सुदअण्णा० तिरिक्खोघं । णवरि सम्मत्त०-सम्मामि० ज० अज० णत्थि अंतरं । अणंताणु चउक्क० मिच्छत्तभंगो । एवमभव०-मिच्छा। इनमें अनन्तानुबन्धीकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तरकाल नहीं कहा। इसी प्रकार उक्त योगोंमेंसे किसी एक योग के रहते हुए सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका दो बार प्राप्त होना सम्भव नहीं, अतः इनमें सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका अन्तरकाल नहीं कहा। सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलनाके अनन्तर समयमें या अन्तर्मुहूर्तके बाद विवक्षित योगके रहते हुए उपशम सम्यक्त्वकी प्राप्ति सम्भव है अतः इनमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त कहा । औदारिकमिश्रकाययोग में सात नोकषायोंकी जघन्य स्थिति पंचेन्द्रियके एक बार ही प्राप्त होती है, अतः उसका अन्तरकाल नहीं है। किन्तु इस जघन्य स्थितिके कारण अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय बन जाता है । इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें सात नोकषायोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय प्रमाण घटित कर लेना चाहिये । शेष कथन सुगम है।
५६६. स्त्रीवेदवालोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है । सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। तथा अजघन्यका भंग अनुत्कृष्टके समान है। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय है। तथा दोनोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्यस्थितिके अन्तरका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पचवन पल्य है ।
६५७०. नपुंसकवेदवालोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। तथा शेष प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुवन्धी चतुष्ककी अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तम हर्त है और उत्कृष्ट अन्तर का कम तेतीस सागर है। इसी प्रकार असंयतोंके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि बारह कषाय और नौ नोकषायोंका भंग तियचोंके समान है। चारों कषायवालोंका भंग मनोयोगियोंके समान है। '
६५७१, मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानियोंका भंग सामान्य तिर्यंचोंके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग मिथ्यात्वके समान है। इसी प्रकार अभव्य और मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिए।
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गा० २२) द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तीए भंगविचओ
३४५ $ ५७२ किण्ह-णील-काउ० मिच्छत्त-बारसक०-भय-दुगुछ ० ज० णत्थि अंतरं । अज० ज० एयस०, उक्क० अंतोमु० । सत्तणोक० जह० णत्थि अंतरं। अज० जहण्णुक एगसमओ। सम्मत्त-सम्मामि० ज० जह० पालिदो० असंखे०भागो । अज० ज०. एगस०, उक्क० सगहिदी देसूणा । अणंताणु०चउक्क० ज० अज० ज. अंतोमु०, उक्क० सगहिदी देसूणा । णवरि काउ० सम्मत्त० जह० णत्थि अंतरं । तेउ० सोहम्मभगो। पम्म० सहस्सारभंगो। सुकले० मिच्छत्त०-बारसक-णवणोक० ज० अज.
णत्थि अंतरं । सेसमुरिमगेवज्जभंगो। असण्णि० मिच्छाइभिंगो। आहार० ओघं । णवरि सगुक्कस्सहिदी देसूणा ।
एवमंतराणुगमो समत्तो । *णाणाजीवेहि भंगविचओ। ६५७३. एदमहियारसंभालणसुत्नं सुगमं ।
* तत्थ अपदं । तं जहा—जो उकसियाए हिदीए विहत्तिो सो अणुक्कस्सियाए हिदीए ण होदि विहत्तिो ।
$ ५७४. कुदो ? उक्कस्सहिदीए समऊणुक्कस्सहिदियादिकालविसेसाणमभावादो।
६ ७२. कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावालोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है । तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। तथा अजघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण और अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय है। तथा दोनोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य और अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है । किन्तु इतनी विशेषता है कि कापोतलेश्यामें सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। पीतलेश्याका भंग सौधर्मके समान है। पद्मश्याका भंग सहस्रारके समान है। शुक्ललेश्यावालोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका अन्तर नहीं है। शेष प्रकृतियोंका भंग उपरिमौवेयकके समान है। असंज्ञेयोंमें मिथ्याष्टिके समान भंग है । आहारकोंमें ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि कुछ कम अपनी उत्कृष्ट स्थिति होती है।
इस प्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ। * अब नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयका अधिकार है। ६५७३. यह सूत्र अधिकारके सम्हालनेके लिये आया है जो सुगम है ।
* इस विषयमें यह अर्थपद है। यथा-जो उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाला है वह अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाला नहीं होता।
६५७४. शंका-उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाला अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाला क्यों नहीं होता है ? समाधान-क्योंकि उत्कृष्ट स्थितिमें एक समय कम उत्कृष्ट स्थिति इत्यादि काल विशेष
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३४६
धवलासहिदे कसा पाहुडे
उक्क सहिदिपडिसेहमुहेण अकस्सट्ठिदिपउत्तीदो वा ।
* जो अणुक्कस्सियाए हिदीए विहत्तित्रो सो उक्कस्सियाए हिदीए होदि विहति ।
५७५, कुदो ? परोप्परपरिहारसरूवेण उक्कस्सागुक्कस्स हिदीणमवद्वाणादो। एवदमेगमपदं । किमद्वपदं णाम ? भणिस्समाण अहियारस्स जोणिभावेण वहिदअत्थो अत्थपदं णाम ।
* जस्स मोहणीयपयडी श्रत्थि तस्मि पयदं । कम्मे ववहारो णत्थि । $ ५७६, सुगममेदं ।
पदे मिच्छुत्तस्स सव्वे जीवा उक्कस्सियाए हिदीए सिया
* एदे विहत्तिया ।
[ हिदिविहती
$ ५७७, एत्थ सियासदो कदाचिदित्यस्यार्थे द्रष्टव्यः, तेण कम्हि वि काले सव्वे जीवा मिच्छत्तु कस्स हिदीए अविहत्तिया होंति त्ति सिद्ध । किमहमुकसहिदीए सव्वे जीवा कमेण अविहत्तिया ? ण, तिव्वसंकिलेसाणं जीवाणं पाएण संभवाभावादो ।
नहीं पाये जाते । अथवा उत्कृष्ट स्थितिका प्रतिषेध करके अनुत्कृष्ट स्थितिकी प्रवृत्ति होती है, अतः जो उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाला है वह उसी समय अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाला नहीं हो सकता । * जो अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाला है वह उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाला नहीं होता ।
९ ५७५. शंका- अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाला उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाला क्यों नहीं होता ? समाधान - क्योंकि एक दूसरेका परिहार करके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितियाँ रहती हैं, अतः जो अनुत्कृष्टस्थितिविभक्तिवाला है वह उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाला हो सकता । इस प्रकार यह एक अर्थपद है । शंका- पद किसे कहते हैं ?
समाधान कहे जाने वाले अधिकार के यो निरूपसे अवस्थित अर्थको अर्थपद कहते हैं ।
* जिसके मोहनीय प्रकृति है उसका यहाँ प्रकरण है, क्योंकि मोहनीय कर्मसे रहित जीवमें यह व्यवहार नहीं होता ।
९५७६. यह सूत्र सुगम है ।
* इस अर्थपदके अनुसार कदाचित् सब जीव मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति के विभक्तिवाले हैं ।
$ ५७७. यहाँ सूत्रमें आया हुआ 'स्यात्' शब्द 'कदाचित्' इस अर्थ में जानना चाहिये । इससे यह सिद्ध हुआ कि किसी भी कालमें सब जीव मिथ्यात्यकी उत्कृष्ट स्थितिकी विभक्तिबाले होते हैं।
शंका- सब जीव एक साथ मिध्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति के अविभक्तिवाले क्यों होते हैं ? समाधान- नहीं, क्योंकि तीव्र संक्लेशवाले जीव प्राय: करके नहीं पाये जाते हैं, अतः सब जीव एक साथ मिध्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिकी विभक्तिवाले होते हैं ।
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गा० २२ ]
ट्ठिदिविहत्तीए उत्तरपयडिट्ठिदिविहत्तीए भंगविचओ
* सिया विहत्तिया च विहत्तित्र च ।
९५७८. कुदो ? कहि वि काले तिहुणासेसजीवेसु कस्सहिदिविहत्तिएसु संते तत्थ एगजीवस्स उक्कस्सद्विदिविहत्तिदंसणादो ।
३४७
* सिया विहत्तिया च विहत्तिया च ।
$ ५७९ कुदो ? अतेसु विहत्तिसु संतेसु तत्थ संखेज्जाणमसंखेज्जाणं वा उक्कस हिदिविहत्तिजीवाणं संभवुवलंभादो ।
३।
९५८० एत्थ तिण्हमको किं कारणं द्वविदो । एवमेदे एत्थ तिण्णि चैव भंगा होंति त्ति जाणावणडौं ।
*
कस्सियाए हिदीए सिया सव्वे जीवा विहत्तिया ।
९ ५८१. कुदो, उक्कस्सहिदिविहत्तिएहि विणा तिहुवणासेसजीवाणमशुक्कस्सहिदीए चेव अवद्विदाणं कम्हि वि काले उवलंभादो ।
* सिया विहत्तिया च विहत्तिओ च ।
* कदाचित् बहुत जीव मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति के अविभक्तिवाले होते हैं और एक जीव मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाला होता है ।
$ ५७८. शंका- ऐसा क्यों होता है ?
समाधान - क्योंकि किसी भी कालमें तीन लोकके सब जीवोंके अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले रहते हुए उनमें से एक जीव उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाला देखा जाता है ।
* कदाचित् बहुत जीव मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिप्रविभक्तिवाले होते हैं और बहुत जीव मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले होते हैं ।
९ ५७६. शंका- ऐसा क्यों होता है ?
समाधान - उत्कृष्ट स्थिति अविभक्तिवाले अनन्त जीवोंके रहते हुए उनमें कदाचित् संख्यात या असंख्यात जीव उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले पाये जाते हैं ।
* ३ ।
९ ५८० शंका- यहां पर तीनका अंक किसलिये रखा है।
समाधान - इस प्रकार यहाँ पर ये तीन हो भंग होते हैं इस बातका ज्ञान करानेके लिये यहां पर तीनका अंक रखा है ।
* कदाचित् सब जीव मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले होते हैं । ६ ५६१. शंका- ऐसा क्यों होता है ?
समाधान- क्योंकि किसी भी कालमें उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवों के बिना तीन लोकके सब जीव अनुत्कृष्ट स्थिति में ही विद्यमान पाये जाते हैं ।
* कदाचित बहुत जीव मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले होते हैं और एकजीव मिथ्यात्वक अनुत्कृष्ट स्थिति अविभक्तिवाला होता है ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ हिदिविहती ३
९ ५८२. कुदो ? एक्केण श्रणुक्कसहिदीए अविहत्तिएण सह सयलजीवाणमणुक्कस्सद्विदिविहत्तियाणमुवलंभादो ।
३४८
* सिया विहत्तिया च अविहत्तिया च ।
९५८३. कुदो ? अनंतेहि अणुक्कस्सद्विदिविहत्तिएहि सह संखेज्जासंखेज्जानमुक्कस्सडिदिविहत्तियाणमुवलंभादो ।
* एवं सेसाणं पि पयडीणं कायव्वो ।
९ ५८४. जहा मिच्छत्तस्स णाणाजीवेहि भंगविचयपरूवणा कदा तहा सेसपयsis काव्वा |
-
$ ५८५ एवं जइवसहाइरियसूचिदत्थस्स उच्चारणाइरिएण बालजणागुग्गहडकयपरूवणं भणिस्सामो । णाणाजीवेहि भंगविचओ दुविहो -- जहण्णओ कस्सओ चेदि । तत्थ उक्कस्सए पयदं । दुविहो णिद्द सो— घेण आदेसेण य । श्रघेण अट्ठावीसहं पयडीणं उक्कस्स हिदीए सिया सव्वे जीवा अविहत्तिया, सिया विहत्तिया च विहत्तिओ च, सिया अविहत्तिया च विहत्तिया च । अकस्माद्विदीए सिया सव्वे जीवा विहत्तिया, सिया विहत्तिया च अविहत्तिओ च, सिया विहत्तिया च विहत्तिया
०५८२. शंका- ऐसा क्यों होता है ?
समाधान- क्योंकि अनुत्कृष्ट स्थिति आविभक्तिवाले एक जीव के साथ सब जीव अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले पाये जाते हैं ।
* कदाचित् बहुत जीव मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले होते हैं और बहुत जीव मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थिति अविभक्तिवाले होते हैं ।
९५८३. शंका- ऐसा क्यों होता है ?
समाधान- क्योंकि कदाचित् अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले अनन्त जीवोंके साथ संख्यात या असंख्यात उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव पाये जाते हैं ।
* इसी प्रकार शेष प्रकृतियोंकी अपेक्षा भी कथन करना चाहिये ।
९ ५८४. जिस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा मिथ्यात्व की भंगविचयप्ररूपणा की है उसी प्रकार शेष प्रकृतियों की भी करनी चाहिये ।
५८५. इस प्रकार यतिवृषभ आचार्यके द्वारा सूचित किये गये अर्थकी उच्चारणाचार्य ने बालजनों अनुग्रहके लिये जो प्ररूपणा की है उसे कहते हैं - - नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । उनमेंसे उत्कृष्टका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - घनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघकी अपेक्षा अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा कदाचित् सब जीव अविभक्तिवाले होते हैं, कदाचित् बहुत जीव अविभक्तावले और एक जीव विभक्तिवाला होता है । कदाचित बहुत जीव अविभक्तिवाले और बहुत जीव विभक्तिवाले होते हैं । अनुत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा कदाचित् सब जीव विभक्तिवाले होते हैं । कदाचित् बहुत जीव विभक्तिवाले और एक जीव अविभक्तिवाला होता है । कदाचित् बहुत जीव विभक्तिवाले और बहुत जीव अविभक्तिवाले होते हैं । इसी प्रकार अनाहारकमार्गणातक
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गा० २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तीए भंगविचओ
३४६ च । एवं णेदव्वं जाव अणाहारए त्ति । णवरि मणुसअपज्ज० उक्कस्सहिदीए सिया सव्वे जीवा अविहत्तिया, सिया सव्वे जीवा विहत्तिया, सिया एगो जीवो अविहत्तिो, सिया एगो जीवो विहत्तिो । एवमेदे चत्तारि एगसंजोगभंगा। दुसंजोगभंगा वि एत्तिया चेव । सव्वभंगसमासो अझ ८ । अणुक्कस्सस्स वि एवं चेव परूवेदव्वं । एवं वेउव्वियमिस्स० आहार-आहारमिस्स० अवगद अकसा०-सुहुम-जहाक्खाद०उवसम०-सासण० सम्मामि० ।।
___ एवमुक्कस्सओ णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमो समत्तो ।
* जहएणए भंगविचए पयदं । लेजाना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि मनुष्य अपर्याप्तकोंम उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा कदाचित सब जीव अविभक्तिवाले, कदाचित् सब जाव विभाक्तवाले, कदाचित एक जीव अविभक्तिवाला, कदाचित् एक जीव विभक्तिवाला इस प्रकार ये एक संयोगी चार भंग होते हैं। तथा द्विसंयोगी भंग भी इतने ही होते हैं । इस प्रकार सब भंगोंका जोड़ आठ होता है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा भी इसी प्रकार कथन करना चाहिये। इसी प्रकार वैक्रियिक्रमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदवाले, अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-नाना जीवोंकी अपेक्षा भंग विचयानुगममें दो बातें ज्ञातव्य हैं। -थम यह कि एक जीवमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति एक साथ नहीं पाई जाती। और दूसरी यह कि अनुत्कृष्ट स्थितिवाले नाना जीव तो सर्वदा रहते है किन्तु उत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाला कदाचित् एक भी जीव. नहीं होता, कदाचित् एक होता है और कदाचित् अनेक होते हैं। इस प्रकार इन दो विशेषताओंको ध्यानमें रखकर यदि एक बार उत्कृष्ट स्थितिकी मुख्यतासे और दूसरी बार अनुत्कृष्ठ स्थितिकी मुख्यतासे भंग प्राप्त किये जाते हैं तो वे छह होते हैं। यथा-कदाचित् सब जीव उत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले नहीं हैं कदाचित् बहुत जीव उत्कृष्ट स्थिति अविभक्तिवाले और एक जीव उत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाला है, कदाचित् बहुत जीव उत्कृष्ट स्थिति अविभक्तिवाले और बहुत जीव उत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले हैं, कदाचितू सब जीव अनुत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले हैं। कदाचित् बहुत जीव अनुत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले और एक जीव अनुत्कृष्ट स्थितिअविभक्तिवाला है तथा कदाचित् अनेक जीव अनुत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले और अनेक जीव अनुत्कृष्ट स्थिति अविभक्तिवाले हैं। यह क्रम मोहनीयकी मिथ्यात्व आदि सब प्रकृतियोंकी अपेक्षा बन जाता है। आदेशकी अपेक्षा सब मार्गणाओंमें भी यही क्रम जानना चाहिये। किन्तु मनुष्य लब्ध्यपर्याप्त, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी. आहारकमिश्रकाययोगी, सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत, उपशमसम्यग्दृष्टि, सास सम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि इन आठ सान्तर मार्गणाओंमें तथा मोहनीयके सत्त्वकी अपेक्षा अन्तरको प्राप्त हुई अपगतवेदी, अकषायी और यथाख्यातसंयत इन तीन मार्गणाओंमें एक और अनेक जीवोंके सत्त्वासत्त्वका आश्रय लेकर उत्कृष्ट स्थिति और अनुत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा आठ आठ भंग होते हैं । जो मूलमें गिनाये ही हैं।
___ इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट भंगविचयानुगम समाप्त हुआ। * अब जघन्य भंगविचयका प्रकरण है ।
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३५०
१५८६. एदमहियार संभालणसुतं सुगमं ।
* तं चैव पदं ।
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
* एदे विहत्तिया ।
५८७ जमट्ठपदमुकस्सम्मि परूविदं तं चैव एत्थ परूवेयव्वं विसेसाभावादो । वरि जहण्णमजहण्णं ति वत्तव्वं एत्तियो चैत्र विसेमो ।
पदे मिच्छत्तस्स सब्वे जीवा जहरियाए द्विदीए सिया
६५८८. मिच्छत्तक्खवएहि दुसमयकालेगणिसेय धारएहि विणा मिच्छत्तअजहिदी चैव वहिदाणं सव्वेसिं जीवाणं कयाइ दंसणादो ।
* सिया अविहत्तिया च विहत्ति च ।
$ ५८९. कुदो ? मिच्छत्तअजहण्णद्विदिधारएहि सह कम्हि वि काले एकस्स जीवस्स जहणविदिधारयस्सुवलंभादो ।
[ द्विदिवत्ती ३
* सिया विहत्तिया च विहत्तिया च ।
६५९० कुदा ? कम्हि वि काले अजहण्णद्विदिविहत्तिएहि सह संखेज्जाणं जहण्णद्विदिविहत्तियाँ मुवलंभादो । एवमेत्थ तिष्णि भंगा ।
९८६ अधिकार के सम्हालनेके लिये यह सूत्र आया है जो सुगम है ।
* यहां भी वही अर्थपद है ।
९ ५८७, जो अर्थपद उत्कृष्ट में कहा है वही यहां कहना चाहिये, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है । किन्तु इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट के स्थान में जघन्य और अजघन्य कहना चाहिये ।
* इस अर्थपदके अनुसार कदाचित् सव जीव मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति के अविभक्तिवाले हैं ।
8. क्योंकि एक निषेककी दो समय काल प्रमाण स्थितिको धारण करनेवाले मिथ्यात्वके क्षपक जीवोंके बिना मिध्यात्वकी अजघन्य स्थिति में अवस्थित सब जीव कभी भी पाये जाते हैं ।
* कदाचित् बहुत जीव मिथ्यात्व की जघन्य स्थितिके अविभक्तिवाले हैं और एक जीव मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाला है ।
९५८६. शंका- ऐसा क्यों है ?
समाधान- क्योंकि किसी भी कालमें मिध्यात्वकी अजघन्य स्थितिको धारण करनेवाले जीवोंके साथ जघन्य स्थितिको धारण करनेवाला एक जीव पाया जाता है ।
* कदाचित् बहुत जीव मिध्यात्वकी जघन्य स्थितिके विभक्तिवाले हैं और बहुत जीव मिथ्यात्वको जघन्य स्थिति विभक्तिवाले हैं।
1
९५६०. शंका- ऐसा क्यों है ?
समाधान- क्योंकि किसी भी कालमें अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंके साथ जघन्य स्थितिविभक्तिवाले संख्यात जीव पाये जाते हैं । इस प्रकार यहां तीन भंग होते हैं ।
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गा० २२ ]
safar उत्तरपयडिडिदिविहत्तीए भंगविचत्रो
३५१
* जहरिणयाए हिंदीए सिया सव्वे जीवा विहत्तिया । सिया विहशिया च विहन्ति च । सिया विहत्तिया च अविहत्तिया च । ५६१. एवमेदाणि तिष्णि वि सुत्ताणि सुगसाणि ।
* एवं तिरिण भंगा ।
९५९२. एदं पि सुगमं ।
* एवं सेसाणं पयडीणं कायव्वो ।
९ ५९३. जहा मिच्छत्तस्स णाणाजीवभंगविचयपरूपणा कदा तहा सेसपयडीणं पि भंगविचओ काव्बो |
५९४ एवं जइबसहाइरिएण सूचिदत्थाणमुच्चारणाइरिएण मंदबुद्धिजणाries कयवक्खाणं भणिस्सामो ।
१५६५ जण पदं । दुविहो लिसो - ओघेण आदेसेण य । ओघेए बीस पडणं जहरिणयाए हिंदीए सिया सव्वे जीवा अविहत्तिया, सिया अविहत्तिया च वित्तिय च, सिया अविहत्तिया च विहत्तिया च । श्रहणहिदीए सिया सव्वे जीवा विहत्तिया, सिया विहत्तिया च अविहत्तिओ च, मिया विहत्तिया च विहत्तिया च । एवं सत्तसु पुढवीसु पंचिदियतिरिक्ख पंचि ० तिरि०पज्ज०-पंचि०
* मिथ्यात्व की जघन्य स्थितिकी अपेक्षा कदाचित् सब जीव विभक्तिवाले हैं । कदाचित् बहुत जीव विभक्तिवाले हैं और एक जीव अविभक्तिवाला है । कदाचित् बहुत जीव विभक्तिवाले हैं और बहुत जीव विभक्तिवाले हैं।
1
$ ५६१. इस प्रकार ये तीनों ही सूत्र सुगम हैं ।
* इस प्रकार तीन भंग होते हैं ।
९ ५६२. यह सूत्र भी सुगम है ।
* इसी प्रकार शेष प्रकृतियोंकी प्ररूपणा करनी चाहिये ।
९५६३. जिस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा मिध्यात्वकी भंगविचयप्ररूपणा की है उसी प्रकार शेष प्रकृतियों का भी भंगविचय करना चाहिये ।
·
९ ५६४. इस प्रकार यतिवृषभ आचार्यके द्वारा सूचित किये गये अर्थोंका उच्चारणाचार्यने मन्दबुद्धि जनों के अनुग्रह के लिये जो व्याख्यान किया है अब उसे कहते हैं
६ ५६५, अब जघन्य स्थितिका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । ओबसे अट्ठाईस प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिकी अपेक्षा कदाचित् सब जीव अविभक्तिवाले हैं । कदाचित् बहुत जीव अविभक्तिवाले हैं और एक जीव विभक्तिवाला है । कदाचित् बहुत जीव अविभक्तिवा हैं और बहुत जीव विभक्तिवाले हैं । अन्य स्थितिकी अपेक्षा कदाचित् सब जीव विभक्तिवाले हैं । कदाचित् बहुत जीव विभक्तिवाले हैं और एक जीव अविभक्तिवाला है । कदाचित् बहुत जीव विभक्तिवाले हैं और बहुत जीव अविभक्तिवाले हैं। इसी प्रकार सातों पृथिवियों में रहनेवाले नारकी, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय
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રૂપૂર્
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ द्विदिविहत्ता
तिरिक्खजोणिणि - पंचि ० तिरि० अपज्ज० मणुसतिय सव्वदेव - सव्वविगलिंदिय० -सत्रपंचिदिय - बादरपुढविपज्ज० - बादर आउपज्ज० - बादरते उपज्ज० - बादरवाउपज्ज० - बादरवणफ दिपत्तेय पज्ज० - सव्वतस - पंचमण० - पंचविच० - कायजोगि० - ओरालि० - वेडव्विय०इत्थि० - पुरिस० स० - चत्तारिक० विहंग ० - आभिणि० - सुद० - ओहि ० - मणपज्ज०संजद ० - सामाइय-छेदो० - परिहार० - संजदासंजद ० चक्खु ० चक्खु०-३ - ओहिदंस० तेउ०- सुक्क० - भवसिद्धि० सम्मादि ० खइय० वेदय ० -सण्णि० - आहारए त्ति । ५६. तिरिक्खगईए तिरिक्ख० मिच्छत्त० - बारसक० - भय- दुगुंछा० ज० अज० णियमा अत्थि । सेसपयडीणमोघं । मणुस अपज्ज० उक्क भंगो सव्वपयडीणं । एवं वेत्रिय मिस्स ० - आहार०- आहार मिस्स ० - अवगद ० -अकसा० - सुहुम० - जहाक्खाद०उवसम०- सासण०-सम्मामि० दिहिति ।
पम्म०
०
-
६ ५६७. एइंदिएसु मिच्छत्त- सोलसक० णवणोक० जह० अजह० णियमा अत्थि । सम्मत्त - सम्मामि० श्रघं० । एवं बादरेइंदिय - बादरे इंदियपज्जत्तापज्जत्त-मुहुमे इंदियसुहुमेइं दियपज्जत्तापज्जत्त पुढवि०- बादर पुढवि० - बादर पुढविअपज्ज० सुहुम पुढवि० सुहम पुढ विपज्जत्तापज्जत्त आउ०- बादरआउ०- बादरचा उपज्ज०- - सुहुमआउ- सुहुमया उपज्जत्तातियेंच यानिमती, पंचेन्द्रियं तिर्यंच अपर्याप्त, सामान्य मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त, मनुष्यनी, सब देव, सब विकलेन्द्रिय, सब पंचेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त, सब त्रस, पांचों मनोयोगी, पाच वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेदवाले, पुरुषवेदवाले, नपुंसकवेदवाले, चारों कषायवाले, विभंगज्ञानी, आभिनिबाधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानां संयत, सामायिकसंयन, छेदोपस्थापना संयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, अवधिदर्शनवाले, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, शुक्ल लेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवों के जानना चाहिये ।
९ ५६६. तियंचगतिमें तिर्यंचों में मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं । तथा शेष प्रकृतियोंका कथन के समान है । मनुष्य अपयातकों में सब प्रकृतियोंका भंग उत्कृष्ट के समान है । इसी प्रकार वैकियिक मिश्रकायोगी, आहारककाययोगी, आहारक मिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, सूक्ष्मसां परायिकसंयत, यथाख्यात संयत, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये ।
५७. एकेन्द्रियों में मिध्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायों की जवन्य और अजघन्य स्थिति विभक्तिवाले जीव नियमसे हैं । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग के समान हैं । इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त सूक्ष्म एट्रिय अपर्याप्त, पृथिवीकायिक, बादरपृथिवीकायिक, वादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्मपृथिवीकायिक, सूक्ष्मपृथिवी कायिकपर्याप्त, सूक्ष्मपृथिवीकायिक अपर्याप्त, जलकायिक, बादरजल कायिक, बादरजलकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्मजलकायिक, सूक्ष्म जलकायिकपर्याप्त,
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गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिविहत्तीए भंगविचओ
३५३ पज्जत्त-तेउ०-बादरतेउ०- बादरतेउ०अपज्ज०-सुहुमतेउ०-मुहुमतेउपजत्तापज्जत्त-वाउ०बादरवाउ०-बादरवाउअपज्ज०-सुहुमवाउ०-मुहुमवाउपज्जत्तापज्जत्त-बादरवणप्फदिजिगोद-बादर-सुहमपजत्तापजत्त-बादरवणप्फदिपत्तेयसरीरअपज्ज० - ओरालियमिस्समदि-सुदअण्णाण-मिच्छादि०-असण्णि त्ति । णवरि पुढवि-आउ०-तेउ०-बाउ०-बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीराणं सगसगबादरपज्जत्तभंगो। ओरालियमिस्सादिसु सत्तणोकसायाणं तिरिक्खोघं । अभव० एवं चेव । णवरि सम्मत्त०-सम्मामिच्छत् णस्थि ।
५१८ कम्मइय० सम्म०-सम्मामि० अह भंगा। सेस० जहण्ण० णियमा अस्थि । एवमणाहारीणं । असंजद तिरिक्खोघं । णवरि मिच्छत्तमोघं । किण्ह-णीलकाउ० तिरिक्खोघं ।
एवं जहण्णो णाणाजीवभंगविचयाणुगमो समत्तो ।
एवं णाणाजीवहि भंगविचओ समत्तो। सूक्ष्मजलकायिकअपर्याप्त, अग्निकायिक, बादरअग्निकायिक, बादरअग्निकायिकअपर्याप्त, सूक्ष्मअग्निकायिक, सूक्ष्मअग्निकायिकपर्याप्त, सूक्ष्मअग्निकायिकअपर्याप्त, वायुकायिक, बादरवायुकायिक, बादरवायुकायिकअपर्याप्त, सूक्ष्मवायुकायिक, सूक्ष्मवायुकायिकपर्याप्त, सूक्ष्मवायुकायिकअपर्याप्त, बादरवनस्पति कायिकप्रत्येकशरीर, निगोद, बादरनिगोद, बादरनिगोदपर्याप्त, बादरनिगोदअपर्याप्त, सूक्ष्मनिगोद,सूक्ष्मनिगोदपर्याप्त, सूक्ष्मनिगोदअपर्याप्त, बादरवनस्पतिकायिकप्रत्येकशरीर अपर्याप्त, औदारिक मिश्रकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक और बादरवनस्पतिकाथिकप्रत्येशरीर जीवोंके अपने अपने बादर पर्याप्तकों के समान भंग है। तथा औदारिकमिश्रकाययोगी आदिमें सात नोकषायोंका भंग सामान्य तियचोंके समान है। अभव्योंमें भी इस जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि उनके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व नहीं हैं।
६५६८. कार्मणकाययोगियोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा आठ भंग होते हैं। तथा शेष प्रकृतियोंकी अपेक्षा जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं। इसी प्रकार अनाहारकोंके जानना चाहिये। असंयतोंमें सामान्य तियचोंके समान जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। कृष्ण, नील और कापोतलेश्यावालोंमें सामान्य तिर्यंचोंके समान जानना चाहिये।
विशेषार्थ-पहले ओघसे उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा जिस प्रकार छह भंग बतला आये हैं उसी प्रकार जघन्य और अजघन्य स्थितिकी अपेक्षा छह भंग जानने चाहिये। तथा यह ओघ प्ररूपणा सामान्य नारकियोंसे लेकर आहारक तक मूलमें जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें अपनी अपनी जघन्य और अजघन्य स्थितिकी अपेक्षा घटित हो जाती है, अतः इनकी प्ररूपणाको श्रोघके समान कहा । तिर्यंचोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी आदेशसे जो जघन्य और अजघन्य स्थिति बतलाई है उसकी अपेक्षा उनमें उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिवाले नाना जीव नियमसे हैं, अतः इनमें उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति विभक्तिवाले और अविभक्तिवाले नाना जीव नियमसे हैं। तथा उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले और अविभक्तिवाले नाना जीव नियमसे हैं ये दोभंग ही बनते हैं । हाँ इनके अतिरिक्त शेष
४५
सी प्रकार
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जयघवलासहिदे कसायपाहुडे. [विदिविहत्ती ३ ___५६६, भागाभागाणुगमो दुविहो-जहण्णओ उक्कस्सो च । उकस्से पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ अोघेण अट्ठावीसहं पयडीणमुक्कस्सहिदिविहत्तिया सव्वजीवाणं केवडिओ भागो अणंतिमभागो। अणुक्क० सव्वजी० के० ? अणंता भागा । णवरि सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० सव्वजी० असंखेज्जदिभागो । अणुक्क० सव्वजीवाणं असंखेज्जा भागा। एवं तिरिक्ख-सव्वएइंदिय-वणप्फदि-णिगोद-कायजोगि०ओरालिया-ओरालिय०मिस्स०-कम्मइय०-णवुस०-चत्तारिक०-मदि-सुदअण्णा०-असंजद०-अचक्खु०-किण्ह०-णील०-काउ०-भवसिद्धि०-मिच्छादिहि-असण्णि-आहारिअणाहारि ति । अभव० एवं चेव । णवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि पत्थि ।
___$६००. आदेसेण णेरइएसु सव्वपयडीणमुक्क० सबजी० के० ? असंखेज्जदिभागो। अणुक्क० असंखेज्जा भागा। एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुस-मणुसप्रकृतियोंकी अपेक्षा ओघ के समान छहों भंग बन जाते हैं । मनुष्य अपर्याप्तकोंसे लेकर सम्यग्मिथ्यादृष्टि तक जितनी भी मार्गणाएं मूलमें गिनाई हैं उनमें जिस प्रकार उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा आठ आठ भंग बतला आये हैं उसी प्रकार जघन्य और अजघन्य स्थितिकी अपेक्षा आठ आठ भंग जानने चाहिये । एकेन्द्रियों में आदेशकी अपेक्षा जो उनकी जघन्य और अजघन्य स्थिति बतलाई है उसकी अपेक्षा मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके सामान्य तियचोंके समान दो भंग प्राप्त होते हैं। वे दो भंग पहले बतलाये ही हैं। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा तो यहां भी अोधके समान छह भंग ही प्राप्त होते हैं। बादर एकेन्द्रियोंसे लेकर असंज्ञी तक मूलमें जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमेंसे सामान्य पृथिवी आदि पांच मार्गणाओंको छोड़कर शेषमें इसी प्रकार जानना चाहिये । इसी प्रकार आगे भी जिन मार्गणाओंमें जिन प्रकृतियोंकी स्थिति सम्बन्धी जो विशेषता बतलाई है उसको ध्यानमें रखकर भंगविचयकी प्ररूपणा करनी चाहिये।
इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य विचयानुगम समाप्त हुआ।
इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय समाप्त हुआ। ६५६६. भागाभागानुगम दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । पहले यहां उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके असंख्यातवेंभाग हैं। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके असंख्यात बहुभाग हैं। इसी प्रकार तियेच, सब एकेन्द्रिय, वनस्पतिकायिक, निगोद, काययोगी, औदारिककाययगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुसकवेदी, चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षदर्शनवाले, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, भव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी,
आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये। अभव्योंके भी इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये दो प्रकृतियां नहीं हैं।
६६००. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यात बहुभाग हैं । इसी प्रकार सब नारकी, सब पंचेन्द्रिय तिर्यंच, मनुष्य, मनुष्यअप्रर्याप्त, सामान्य देव,
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गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तियभागाभागो
३५५ अपज्ज०-देव०-भवणादि जाव अवराइद०-सव्वविगलिंदिय० सव्वपंचिंदिय-चत्तारिकायबादरवणप्फदिपोयसरीर-सव्वतस-पंचमण०-पंचवचि०-वेउवि०-उ०मिस्स०-इत्थि०पुरिस०-विहंग०-आभिणि-सुद०-ओहि-संजदासंजद०-चक्खु०-ओहि०-तेउ०-पम्म०सुक्क०-सम्मादि-खइय०-वेदय०-उवसम०-सासण-सम्मामि०-सण्णि त्ति । मणुसपज्ज०मणुसिणीसु सव्वपयडीणमुक्क. सव्वजी० के० १ संखेज्जदिभागो। अणुक्क० सव्वजी० के० १ संखेज्जा भागा। एवं सव्वह०-आहार-आहारमिस्स०-अवगद०-अकसा०मणपज्ज०-संजद०-सामाइय-छेदो०-परिहार०-मुहुम०-जहाक्खाद० ।
___ एवमुक्कस्सओ भागाभागाणुगमो समत्तो । भवनवासियोंसे लेकर अपराजित तकके देव, सब विकलेन्द्रिय, सब पंचेन्द्रिय, चारों स्थावरकाय, सभी बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर, सब त्रस, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, वैक्रियिक काययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, स्त्रीवेदवाले, पुरुषवेदवाले, विभंगज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी अवधिज्ञानी, संयतासंयत, चक्षुदर्शनवाले, अवधिदर्शनवाले, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये। मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिके देव, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदवाले, अकषायी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदापस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-ओघसे छब्बीस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जीव अनन्त हैं तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तावाले जीव असंख्यात हैं। यह तो प्रकृतियोंके सत्त्वकी अपेक्षा संख्या हई । किन्तु उत्कृष्ट स्थिति और अनुत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा विचार करने पर छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिवाले जीव असंख्यात प्राप्त होते हैं और अनुत्कृष्ट स्थितिवाले अनन्त, इसलिये भागाभागकी अपेक्षा यह बतलाया है कि छब्बीस प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंसे उत्कृष्ट स्थितिवाले जीव अनन्तवें भाग प्रमाण है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिवाले जीव प्रत्येक असंख्यात हैं फिर भी अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंसे उत्कृष्ट स्थितिवाले जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं, इसलिये भागाभागकी अपेक्षा यह बतलाया है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तावाले जितने जीव हैं उनमें से असंख्यातवें भागप्रमाण उत्कृष्ट स्थितिवाले हैं और असंख्यात बहुभाग प्रमाण अनुत्कृष्ट स्थितिवाले हैं। मार्गणाओंकी अपेक्षा सब जीव तीन भागोंमें बट जाते हैं कुछ मागणावाले जीव अनन्त हैं, कुछ मार्गणावाले जीव असंख्यात और कुछ मार्गणावाले जीव संख्यात । इनमेंसे अनन्त संख्यावाली जितनी भी मार्गणाएं हैं उनमें यह ओघ प्ररूपणा बन जाती है, इसलिये उनकी प्ररूपणाको ओघके समान कहा । वे मार्गणाएं मूलमें गिनाई ही हैं। किन्तु अभव्योंके सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वका सत्त्व नहीं पाया जाता, अतः इनमें उक्त प्रकृतियोंकी अपेक्षा भागाभाग नहीं कहना चाहिये । अब रहीं असंख्यात संख्यावाली और संख्यात संख्यावाली मार्गणाएं सो असंख्यात संख्यावाली मार्गणाओंमें सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिवाले जीव असंख्यात बहुभाग प्रमाण और उत्कृष्ट स्थितिवाले जीव असंख्यातवें भाग प्रमाण
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जयधवलासहिदे कस्मयपाहुढे । द्विदिविहत्ती ३. ६०१. जहण्णए पयदं । दुविहो णिद्देसो-अोघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० जह० सव्वजी० के० १ अणंतिमभागो । अज० सव्वजी० के ? अणता भागा । सम्मत्त०-सम्मामि० उक्कभंगो । एवं कायजोगि०-ओरालि०णवुस०-चत्तारिक०-अचक्खु०-भवसि०-आहारि त्ति । . ६०२. आदेसेण णेरइएमु सव्वपयडीणं जह० अज० उक्स्स भंगो । एवं सव्वपंचिं०तिरिक्ख-सव्वमणुस-सव्वदेव-सव्वविगलिंदिय-सव्वपंचिंदिय-चत्तारिकायबादरवणप्फदिपचेय०-सव्वतस-पंचमण-पंचवचि०-वेउब्विय०-वेउ०मिस्स०-आहार०
आहारमिस्स०-इत्थि०-पुरिस०-अवगद०-अकसा०-विहंग०-आभिणि०-मुद०-ओहि०मणपज्ज०-संजद०-सामाइय- छेदो०- परिहार०-सुहुम० - जहाक्वाद० - संजदासंजदचक्खु०-ओहिदंस०-तिण्णिले०-सम्मादि०-खइय०-वेदय -उवसम-सासण-सम्मामि०सण्णि त्ति।
___६६०३. तिरिक्ख० णारयभंगो। णवरि अणंताणु०चउक्क०-सत्तणोक० ओघं । जानने चाहिये । तथा संख्यात संख्यावाली मार्गणाओंमें सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिवाले जीव संख्यात बहुभाग प्रमाण और उत्कृष्ट स्थितिवाले जीव संख्यात एक भागप्रमाण होते हैं। असंख्यात संख्यावाली और संख्यात संख्यावाली मार्गणाओंके नाम मूलमें गिनाये ही हैं।
इस प्रकार उत्कृष्ट भागाभागानुगम समाप्त हुआ। ६०१. अब जघन्य भागाभागका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं । तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभाग हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग उत्कृष्टके समान है। इसी प्रकार काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदवाले, चारों कषायवाले, अचक्षुदर्शनवाले, भव्य और आहारकोंके जानना चाहिये।
६६०२. आदेशकी अपेक्षा सब नारकियोंमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिकी अपेक्षा भंग उत्कृष्टके समान है। इसी प्रकार सब पंचेन्द्रिय तिर्यंच, सब मनुष्य, सब देव, सब विकलेन्द्रिय, सब पंचेन्द्रिय, सब चार स्थावरकाय, सब बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर, सब त्रस, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, स्त्रीवेदवाले, पुरुषवेदवाले, अपगतवेदवाले, अकषायी, विभंगज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यात संयत, संयतासंयत, चक्षुदर्शनवाले, अवधिदर्शनवाले, तीन लेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये।
६६०३. तिर्यंचोंमें नारकियोंके समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि उनमें अनन्तानुबन्धी चतुष्क और सात नोकषायोंकी अपेक्षा भंग ओघके समान है। इसी प्रकार कृष्ण, नील
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गा० २२ । विदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तियभागाभागो एवं किण्ह०-णील-काउलेस्से त्ति । एइंदिय० णारयभंगो । एवं वणप्फदि०-णिगोदकम्मइय०-अणाहारित्ति । ओरालियमिस्स०तिरिक्खोघं । णवरि अणंताणु० मिच्छत्तभंगो। मदि-सुदअण्णा०-मिच्छादि० असण्णि त्ति । असंजद. तिरिक्खोघं । णवरिमिच्छत्त० ओघं । अभव० छव्वीसपयडीणं ओरालियमिस्सभंगो।
एवं भागाभागाणुगमो समत्तो । और कापोतलेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिये । एकेन्द्रियोंमें नारकियोंके समान भंग हैं । इसी प्रकार सब वनस्पतिकायिक, सब निगोद जीव, कार्मणकाययोगी और अनाहारकोंके जानना चाहिये । औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें सामान्य तिथंचोंके समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग मिथ्यात्वके समान है। इसी प्रकार मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, मिथ्यारष्टि और असंनियोंके जानना चाहिये। असंयतों में सामान्य तिर्यंचोंके समान जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है । अभव्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंका भंग औदारिकमिश्रकाययोगियोंके समान है ।
विशेषार्थ-मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायवाले जीव अनन्त हैं। किन्तु इनमें ओघसे जघन्य स्थितिवाले जीव संख्यात हैं और अजघन्य स्थितिवाले जीव अनन्त हैं, अतः भागाभागकी अपेक्षा उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिवाले जीव अनन्तवें भाग प्राप्त होते हैं और अजघन्य स्थितिवाले जीव अनन्त बहुभाग प्राप्त होते हैं। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिवाले जीव असंख्यात हैं और अजघन्य स्थितिवाले जीव अनन्त । फिर भी भागाभागकी अपेक्षा इनका भी वही क्रम बन जाता है जो पूर्वमें मिथ्यात्व आदिकी अपेक्षा बतलाया है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्थ्यिात्वकी सत्तावाले जीव असंख्यात हैं किन्तु इनमें सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिवाले जीव संख्यात और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिवाले असंख्यात हैं तथा दोनोंकी अजघन्य स्थितिवाले जीव असंख्यात हैं। अतः यहां उत्कृष्ट के समान यह भागाभाग बन जाता हैं कि उक्त दोनों प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिवाले जीव असंख्यातवें भाग प्रमाण और अजघन्य स्थितिवाले जीव असंख्यात बहुभाग प्रमाण हैं। मूलमें काययोगी आदि जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें यह ओघ प्ररूपणा घटित हो जाती है, अतः उनके कथनको ओघके समान कहा। आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिवालोंके भागाभागको जो उत्कृष्टके समान कहा उसका यह तात्पर्य है कि जिस प्रकार सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिवाले जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं और उत्कृष्ट स्थितिवाले जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं उसी प्रकार यहां भी जानना चाहिए । तथा सब पंचेन्द्रियोंसे लेकर संज्ञी तक और जितनीमार्गणाएं गिनाई हैं उनमें भी इसी प्रकार जानना यह जो कहा है सो इसका यह तात्पर्य नहीं कि इनमें नारकियोंके समान भागाभाग होता है किन्तु इसका यह तात्पर्य है कि इन मार्गणाओंमें जिस प्रकार उत्कृष्ट
और अनुत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा भागाभाग कहा है उसी प्रकार जघन्य और अजघन्य स्थितिकी अपेक्षा भी भागाभाग कहना चाहिये, क्योंकि इन मार्गणाओंमें बहुतसी मागणाएं अनन्त संख्यावाली हैं, बहुतसी असंख्यात संख्यावाली हैं तथा बहुतसी संख्यात संख्यातवाली हैं अतः इन सबमें नारकियोंके समान भागाभाग बन भी नहीं सकता। तथा इन मार्गणाओंमें जघन्य और अजघन्य स्थितिवालोंकी संख्याको देखनेसे भी वही अभिप्राय फलित होता है जो हमने दिया है। तिर्यंचगतिमें अनन्तानुबन्धी चतुष्क और सात नोकषायोंको छोड़कर शेष सब प्रकृतियोंकी अपेक्षा भागाभाग नारकियोंके समान है सो इसका यह अभिप्राय है कि जिस
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जयघवलासहिदे कंसायपाहुडे
[ हिदिविहत्ता ३
९. ६०४. परिमाणं दुविहं - जहण्णमुक्कस्सं च । उक्कस्से पयदं । दुविहो णिसोघेण आदेसेण य । श्रघेण छव्वीसपयडीणमुक्क० केत्तिया ? असंखेज्जा । अणुक • केत्तिया ? अनंता । सम्पत्त० सम्मामि० उक्क० - अणुक्क० केत्ति ० १ असंखेज्जा । एवं. तिरिक्ख-सव्वएइंदिय-वणप्फदि- णिगोद-कायजोगि ओरालिय० - ओरालियमिस्स-कम्मइय० - णवुस ० चत्तारिक० -मदि मुदण्णा० असंजद० - अचक्खु ० - तिण्णिले ० - भवसि ०मिच्छादि ० - असणि० - आहारि अणाहारि ति । एवमभवसि ० । णवरि सम्म०- - सम्मामि० णत्थि ।
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प्रकार नारकियों में सब प्रकृतियोंकी अपेक्षा अजघन्य स्थितिवाले असंख्यात बहुभागप्रमाण और जघन्य स्थितिवाले असंख्यात एक भागप्रमाण हैं उसी प्रकार तिर्यंचों में जानना चाहिये । यद्यपि तिर्यंचोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य और अजघन्य दोनों प्रकारकी स्थितिवाले जीव अनन्त हैं फिर भी जघन्य स्थितिवालोंसे अजघन्य स्थितिवाले जीव श्रसंख्यातगुणे होनेसे उक्त व्यवस्था बन जाती है। तथा तिर्यंचोंमें अनन्तानुबन्धी चतुष्क और सात नोकषायवाले जीवों में जघन्य स्थितिवालोंसे अजघन्य स्थितिवाले अनन्तगुणे हैं, अतः इनके कथनको ओघके समान कहा । कृष्ण, नील और कापोत लेश्यामें तिर्यंचोंके समान व्यवस्था बन जाती है, अतः इनके भागाभागको तियँचोंके समान कहा । एकेन्द्रियोंमें भागाभाग संबन्धी कुल व्यवस्था नारकियों के भागाभाग के समान बनती है, अतः इनके भागाभागको नारकियोंके भागाभाग के समान कहा । वनस्पति आदि और जितनी मार्गणाएं मूलमें गिनाई हैं उनमें भी नारकियों के समान भागाभाग जानना । औदारिक मिश्रकाययोग में यद्यपि भागाभाग सामान्य तिर्यंचोंके समान है पर अनन्तानुबन्ध चतुष्ककी जघन्य और अजघन्य स्थितिवालोंका भागाभाग मिथ्यात्वकी tar और अन्य स्थितिके भागाभाग के समान है । अथात् तिर्यंचोंमें जिस प्रकार मिध्यात्वकी अपेक्षा भागाभाग कहा है उसी प्रकार औदारिकमिश्रकाययोगमें अनन्तानुबन्धीकी अपेक्षा जानना । मूलमें जो मत्यज्ञानी आदि मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें भी औदारिकमिश्र काययोगके समान भागाभाग जानना चाहिए । असंयतों के सामान्य तिर्यंचों के समान जानना | किन्तु इनके मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिवालोंका भागाभाग ओघके समान कहना चाहिये | अभव्योंके छब्बीस प्रकृतियों का सत्व है, अतः इनके छब्बीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा भागाभाग श्रदारिक मिश्रकाययोग के समान जानना चाहिए ।
इस प्रकार भागाभागानुगम समाप्त हुआ :
$ ६०४. परिमाण दो प्रकारका है- - जघन्य और उत्कृष्ट । पहले यहाँ उत्कृष्टका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— ओघ निर्देश और आदेशनिर्देश । घकी अपेक्षा छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । अनुत्कुष्टस्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । इसी प्रकार तिर्यंच, सब एकेन्द्रिय, वनस्पतिकायिक, निगोद, काययोगी, औदारिककायोगी, औदारिक मिश्रकाययोगी, कार्मण काययोगी, नपुंसकवेदी, चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनवाले, तीन लेश्यावाले, भव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारक जोवोंके जानना चाहिये। इसी प्रकार अभव्योंके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व नहीं हैं ।
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गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिविदिविहत्तियपरिमाण
३५६ ६६०५.आदेसेण णेरइएमु सव्वपयडि. उक्क०-अणुक्क० केत्ति० १ असंखेज्जा। एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुसअपज्ज०-देव-भवणादि जाव सहस्सार०-सव्वविगलिंदिय-सव्वपंचिंदिय-चत्तारिकाय-सब्बतस-पंचमण-पंचवचि०-वेउब्विय०-वेउब्धियमिस्स-इत्थि०-पुरिस०-विहंग०-आभिणि०-सुद०-ओहि०-संजदासजद०-चक्खु०ओहिदंस०-तिण्णिले०-सम्मादि०-वेदय-उवसम०-सासण-सम्मामि०-सण्णि त्ति ।
६०६. मणुसगईए मणुस. उक० केत्ति० १ संखेज्जा । अणुक्क० केत्ति ? असंखेज्जा । एवमाणदादि जाव अबराइद०-खइियदिहि त्ति । मणुसपज्ज०-मणुसिणी० सव्वपयडीणमुक्क०-अणुक्क० केत्ति ? संखेज्जा । एवं सबह-आहार०-आहारमिस्स० अवगद०-अकसा०-मणपज्ज-संजद०-सामाइय-छेदो० परिहार०-सुहुम०-जहाक्खाद।
एवमुक्कस्सो परिमाणाणुगमो समत्तो। १६०५ आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कुष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं । असंख्यात हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पंचेन्द्रियतिथंच, मनुष्यअपर्याप्त, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रारस्वर्गतकके, देव सब विकलेन्द्रिय, सब पंचेन्द्रिय, सभी चार स्थावरकाय, सब त्रस, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, स्त्रीवेदवाले, पुरुषवेदवाले, विभंगज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, संयतासंयत, चतुदर्शनवाले, अवधिदर्शनवाले, तीन लेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये ।
१६०६. मनुष्यगतिमें मनुष्योंमें उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार आनतकल्पसे लेकर अपराजित तकके देव और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें जानना चाहिये । मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियों में सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिके देव, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदवाले, अकषायी, मनापर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिये।
.. विशेषार्थ-गुणस्थान अप्रतिपन्न सभी संसारी जीव छब्बीस प्रकृातयोंकी सत्तावाले हैं। किन्तु इनमें उत्कृष्ट स्थितिबन्धके कारणभूत परिणामवाले जीव थोड़े होते हैं, अतः आपसे छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिवाले जीव असंख्यात और अनुत्कृष्ट स्थितिवाले जीव अनन्त कहे । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता उपशमसम्यग्दृष्टि या वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके पाई जाती है या जो इनसे च्युत हुए हैं उनके पाई जाती है। उसमें भी मिथ्यात्वमें इनका संचयकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है अतः सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तावाले जीवोकी सामान्यसे संख्या असंख्यात ही होगी। और इनकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंम भी प्रत्यककी संख्या असंख्यात बन जाती है। मागणास्थानोंमें राशियां तीन भागोंमें बटी हुई हैं कुछ मागणाएं अनन्त संख्यावाली, कुछ मार्गणाएं असंख्यात संख्यावाली और कुछ मार्गणाएं संख्यात संख्यावाली हैं। उनमें जो अनन्त संख्यावाली मार्गणाएं हैं उनमें ओघके समान ब्यवस्था बन जाती है। जो असंख्यात संख्यावाली मार्गणाएं हैं उनमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कुष्ट स्थितिवाले जीवोंका प्रमाण असंख्यात ही प्राप्त होता है। किन्तु इनमें मनुष्यगति आदि कुछ
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जयपषलासहिदे कसायपाहुडे
[विदिविहसी ३ .. ६६०७. जहण्णए पयदं। दुविहो णिसो-ओघेण आदेसेण य। भोघेण मिच्छत्तबारसक०-णवणोक० जह० केत्ति ? संखेज्जा । अज० केत्ति० १ अणंता । सम्मत्त० जह० केत्ति० ? संखेज्जा । अजह० केत्ति० १ असंखेजा। सम्मामि० जह० अजह० के० ? असंखेजा। अणंताणु० चउक्क० जह० के० १ असंखेजा। अजह० के० ? अणंता । एवं कायजोगि०-ओरालि०-णस०.चत्तारिक०-अचक्खु०-भवसि०-आहारए ति। .. ६०८. आदेसेस णेरइएमु मिच्छत्त-सम्मामि०-सोलसक..णवणोक० जह. अजह० के० १ असंखेज्जा । सम्मत्त० जह० केत्ति ? संखेज्जा । अजह० के० ? असंखेंज्जा । एवं पढमाए । विदियादि जाव छहि त्ति मिच्छत्त०-बारसक०-णवणोक० जह केत्ति ? संखेज्जा । अजह० केत्ति०१ असंखेज्जा । सम्मत-सम्मामि०-अणंताणु० मार्गणाएं अपवाद हैं । इसका कारण यह है कि मनुष्यों में पर्याप्त मनुष्योंके ही उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है । और उनकी संख्या संख्यात है, अतः सामान्यसे मनुष्योंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिवाले जीव संख्यात ही होंगे और अनुत्कृष्ट स्थितिवाले जीव असंख्यात । आनत कल्पसे लेकर अपराजित तकके देवोंमें और क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें भी यही व्यबस्था जानना चाहिये, क्यों कि इनके अपनी अपनी पर्यायके प्राप्त होनेके पहले समयमें ही उत्कृष्ट स्थिति सम्भव है पर इनमें मनुष्यगतिसे ही जीव उत्पन्न होते हैं परन्तु अच्युत स्वर्गतक सम्यग्दृष्टि तिथंच भी उत्पन्न होते हैं और ऐसे जीवोंकी संख्या संख्यात है, अतः उक्त मार्गणाओंमें भी उत्कृष्ट स्थितिवाले जीवोंका प्रमाण संख्यात और अनुत्कृष्ट स्थितिवाले जीवोंका प्रमाण असंख्यात बन जाता है। अब रही संख्यात संख्यावाली मार्गणाएं सो उनमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट दोनों स्थितिवाले जीवोंका प्रमाण संख्यात होगा यह स्पष्ट ही है। अनन्त, असंख्यात और संख्यात संख्यावाली मार्गणाओंका मूलमें उल्लेख किया ही है।
इस प्रकार उत्कृष्ट परिमाणानुगम समाप्त हुआ। ६६०७. अब जघन्य परिमाणानुगमका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। इसी प्रकार काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदी, चारों कषायवाले, अचक्षुदर्शनवाले, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिये।
६०८. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार पहली पृथिवीमें जानना चाहिये । दूसरी पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तकके नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ?
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गा०२२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिविहत्तियपरिमाणं
३६१ चउक्क० ज० अज० केत्ति० १ असंखेज्जा । सत्तमाए उक्कभंगो ।
६०६. तिरिक्खगइ० मिच्छत्त-बारसक०-भय-दुगुंछ. ज. अज० के० ? अणंता । सम्मत्त० ज० के० १ संखेजा। अज० के० १ असंखेज्जा । सम्मामि० ज० अज० के० १ असंखेज्जा । अणंताणु०चउक्क०-सत्तणोक० ज० के० ? असंखेजा। अज० के ? अणंता । एवं किण्ह०-णील०-काउ० । णवरि किण्ह-णील० सम्म० सम्मामि भंगो । पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंतिरि०पज्जा-पंचिं०तिरि०जोणिणी० पढमपुढविभंगो । णवरिपंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु सम्मत्त० सम्मामिभंगो। पंचिं०तिरि०अपज्ज० एवं चेव । एवं मणुसअपज्जा-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज्ज०-चत्तारिकाय-[सव्ववणप्फदिपत्तेय०-] तसअपज्जः ।
___ ६१०. मणुस० सव्वपयडीणं ज० केत्ति ? संखेज्जा । अज० के० ? असंखेजा। णवरि सम्मामि० जह० असंखे। मणुसपज्ज०-मणुसिणी० सव्वप० जह० अज० संखेज्जा। __६६११. देव० णारयभंगो । भवण०-वाण एवं चेव । णवरि सम्मत्त० सम्मामि०भंगो । जोदिसि० विदियपुढविभंगो । सोहम्मादि जाव अवराइद० मिच्छत्त-०बारसक०असंख्यात हैं। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। सातवीं पृथिवा में उत्कृष्टके समान भंग है।
६६०६. तिथंचोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्क और सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? अनन्त है। इसी प्रकार कृष्ण. नील और कापोतलेश्यावाले जीवोंमें जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि कृष्ण और नीललेश्यावालोंमें सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है । पंचेन्द्रि तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तियेच योनिमती जीवोंमें पहली पृथिवीके समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि पंचेन्द्रिय तियेच योनिमती जीवोंमें सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तियेच अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिये । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तक, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, सभी चार स्थावरकाय, सभी वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर और त्रस अपर्याप्तक जीवोंमें जानना चाहिये ।
६६१०. मनुष्योंमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यात हैं।
६६११. देवोंमें नारकियोंके समान भंग है। भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें इसी प्रकार जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है। ज्योतिषियोंमें दूसरी पृथिवीके समान भंग है। सौधर्म कल्पसे लेकर अपराजित तकके देवोंमें
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जयघवलासहिदे कसायपाहुडे
[ द्विहिती ३
णवणोक ० ६० जह० के० १ संखेज्जा । अज० के० १ असंखेज्जा | सम्मत्त० एवं चेव । सम्मामि०-अणंताणु॰ चउक्क० ज० अज० के० ? असंखे० । णवरि अणुद्दिसादि जाव अवराइदत्ति सम्मामि० जह० संखेज्जा । सव्वद्द े • सव्वपयडि० ज० ज ० के ० १ संखेज्जा । एवमाहार- श्राहारमिस्स ० - अवगद्० - अकसा०-मणपज्ज ० -संजद ० - सामाइयछेदो०- परिहार० - सुहुम ० - जहाक्खादसंजदे ति ।
९ ६१२. एइंदिय० मिच्छत्त - सोलसक० - णवणोक० ज० ज० के० १ अनंता । सम्मत्त सम्मामि० ज० अज० के० १ असंखेज्जा । एवं वणष्फदि णिगोद० ।
९ ६१३. ओरालिय० मिस्स० तिरिक्खोघं । णवरि अणतारणु० चउक० ज० अज० के० १ अनंता । वेउव्वियमिस्स • सोहम्मभंगो । णवरि अनंता ०४ जह० संखेज्जा । कम्मइ० एइंदियभंगो | णवरि सम्मत्त० ज० के० ? संखेज्जा । अज० के० ९ संखेज्जा । $६१४. पंचिंदिय-पंचिं० पज्ज० तस-तसपज्ज० - पंचमण० - पंचवचि० - वेडव्चिय ० इत्थि० - पुरि० - आभिणि० - सुद० - ओहि ० विहंग० संजदासंजद ० - चक्खु ० हिंदंस ० तेउ०पम्म० सुक० - सम्मा ०- वेदय० मणुसगइभंगो। णवरि विहंग० वज्जेसु अणता० चउक्क ०
मिध्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । सम्यक्त्वकी अपेक्षा इसी प्रकार जानना चाहिये । सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । किन्तु इतनी विशेषता है कि अनुदिशसे लेकर अपराजित कल्प तकके देवों में सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यात हैं । सर्वार्थसिद्धि देवों में सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । इसी प्रकार आहारककाययोगी, आहारक मिश्रकाययोगी, अपगतवेदवाले, अकषायी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापना संयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिये ।
$ ६१२. एकेन्द्रियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायों की जघन्य और अजघन्य |स्थतिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । इसी प्रकार वनस्पतिकायिक और निगोद जीवोंके जानना चाहिये ।
$ ६१३. औदारिकमिश्रकाययोगियों में सामान्य तिर्यंचों के समान भंग है । किन्तु इतनी ' विशेषता है कि इनमें अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं । वैक्रियिकमिश्रकाययोगियों में सौधर्मके समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि अनुबन्धचतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यात हैं । कार्मण काययोगियों में एकेन्द्रियोंके समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । ९ ६१४. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्तक, त्रस, त्रसपर्याप्तक, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, वैक्रियककाययोगी' स्त्रीवेदवाले, पुरुषवेदवाले, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, विभंगज्ञानी, संयतासंयत, चतुदर्शनवाले, अवधिदर्शनवाले, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, शुक्लेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवों में मनुष्यगति के समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि विभंग
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गी. २२) हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिविहत्तियपरिमाणं
३६३ जह० असंखेज्जा। सम्म० जह० जम्मि खवणा पत्थि तम्मि असंखेजा। सम्मामि० सम्माइद्विपदेसु संखेजा। मदि-सुदअण्णा० सम्मत्त-अणंताणु०चउक्क० एइंदियभंगो । सेस० तिरिक्खोघं । एवं मिच्छादिहि-असण्णि त्ति । असंजद० तिरिक्खोघं । णवरि मिच्छत्त० ओघं । .
६६१५. अभव० छब्बीसपयडि० तिरिक्खोघं । णवरि अणंताणु० एइंदियभंगो। खइय० एकवीसपयडीणं ज० के० ? संखेजा। अज० के० १ असंखेजा। उवसम० चउवीसपयडी० ज० के १ संखेजा। अज० के० ? असंखेज्जा । अणंताणु०चउक्क. ज० अज० के० १ असंखेज्जा । एवं सम्मामिच्छादिहीणं । णवरि अणंताण. जह० संखेज्जा । सम्म-सम्मामि० जह० अज० असंखेजा। सासण. अहावीस० ज० के० ? संखेजा। अज० के० १ असंखेज्जा । सण्णि. पंचिंदियभंगो । अणाहारि० कम्मइयभंगो।
एवं परिमाणाणुगमो समत्तो । ज्ञानियोंको छोड़कर शेवमें अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। तथा जिस मार्गणास्थानमें दर्शनमोहनीयकी क्षपणा नहीं है उस मार्गणास्थानमें सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं और सम्यग्दृष्टि मार्गणाओंमें सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिवाले जीव संख्यात हैं। मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग एकेन्द्रियोंके समान है । शेष प्रकृतियोंका सामान्य तिर्यंचोंके समान है। इसी प्रकार मिथ्यादृष्टि
और असंज्ञी जीवोंमें जानना चाहिये । असंयतोंमें सामान्य तियंचोंके समान जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है।
६१५. अभव्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंका भंग सामान्य तियेचोंके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग एकेन्द्रियोंके समान है । क्षायिकसन्यग्दृष्टियोंमें इक्कीस प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें चौबीस प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये। किन्तु इतना विशेषता है कि इनमें अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यात हैं। तथा सम्यक्त्व
और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितितिभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं । सासादन सम्यग्दृष्टियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। संज्ञियोंमें पंचेन्द्रियोंके ममान भंग है। अनाहारकोंमें कार्मणकाययोगियोंके समान भंग है ।
विशेषार्थ-पोषसे मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थिति क्षपकश्रेणीमें और सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति कृतकृत्यवेदक सम्यक्त्वके अन्तिम समयमें प्राप्त होती है और ऐसे जीवोंका प्रमाण संख्यात है, अतः उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिवाले जीवोंका प्रमाण संख्यात कहा। मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अजघन्य स्थितिवाले जीव अनन्त हैं यह स्पष्ट ही है। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति उद्वेलनाके अन्तिम समयमें और कृतकृत्यवेदक सम्यक्त्वके उपान्त्य समयमें प्राप्त होती है और ऐसे जीवोंका प्रमाण असंख्यात है,
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जयधेवर्लासहि कसा पाहुडे
हिदिविहत्ती ३
९ ६१६. खेत्तं दुविहं – जहण्णमुकस्सं च । उक्कस्से पयद | दुविहो णिद्देसोओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मिच्छत्त- सोलसक० णवणोक० उक्क० केवडि खेत्ते १ लोग० असंखे० भागे । अणुक्क० के० खेत्ते १ सव्वलोए । सम्मत्त - सम्मामि० उक्क अणुक्क ० ६० के० १ लोग० असंखेज्जदिभागे । एवमांतरासीणं णेयव्वं जाव अरणाहारए ति । ६१७. पुढिवि० - बादर पुढवि० - बादर पुढवित्रपज्ज० आउ०- बादरचा उ०- बादरआउ अपज्ज० तेउ०- बादरतेउ०- बादरते उअपज्ज० वाउ० बादरवाउ०- बादरवाउअपज्ज०बादरवणप्फदिकाइयपत्त' य० - तेसिमपज्ज० - सव्वसुहुम-तेसिं पज्जत्ता पज्जत्ताणमेइंदियभंगो । सेस संखेज्ज-असंखेज्जरासीणमुक्क० अणुक्क० केवडि खेत्ते ? लोग० असंखे० भागे । वरि बादरवाउपज्ज० अणु० लोग ० संखे० भागे । एवमुकखेत्तागमो समत्तो ।
३६४
अतः सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिवाले जीवों का प्रमाण असंख्यात कहा । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थितिवाले जीवों का प्रमाण असंख्यात है यह स्पष्ट ही है । इसी प्रकार आगे भी जघन्य और अजघन्य स्थितिके स्वामीका विचार करके जहां जो संख्या सम्भव हो उसका कथन करना चाहिये |
इस प्रकार परिमाणानुगम समाप्त हुआ ।
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$ ६१६. क्षेत्र दो प्रकारका है— जघन्य क्षेत्र और उत्कृष्ट क्षेत्र । पहले यहाँ उत्कृष्टका प्रकरण है उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं । अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सब लोक में रहते हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक अनन्त राशियोंका क्षेत्र जानना चाहिये ।
९ ६१७. पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्तक, तथा सब सूक्ष्म और उनके पर्याप्तक तथा अपर्याप्त जीवोंका भंग एकेन्द्रियोंके समान है । शेष संख्यात और असंख्यात राशिवालोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्र में रहते हैं । किन्तु इतनी विशेषता है कि बादर वायुकायिकपर्याप्त जीवों में अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव लोकके संख्यातवें भाग क्षेत्र में रहते है ।
विशेषार्थ - ओघ और आदेश से जिसका जो क्षेत्र है, सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा यहां उसका वही क्षेत्र ले लिया गया है । किन्तु सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा तथा सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा क्षेत्र में विशेषता है । बात यह है कि ऐसे जीव कहीं असंख्यात और कहीं संख्यात होते हैं तथा जहां असंख्यात हैं भी वहां वे अतिस्वल्प हैं, अतः इनका क्षेत्र लोकका असंख्यातवां भाग ही सर्वत्र प्राप्त होता है यह उक्त कथनका सार है । इस प्रकार उत्कृष्ट क्षेत्रानुगम समाप्त हुआ ।
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गा० २२ j
हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिविहत्तियखे ....६६१८. जहण्णए पयदं । दुविहं-अोघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत्तसोलसक०-णवणोक० जह• केवडि खेत्ते ? लोग० असंखे भागे। अज० के० खेत्ते ? सव्वलोए । सम्मत्त०-सम्मामि० ज० अज० के० खेते? लोग० असंखेज्जदिभागे । एवं कायजोगि०-ओरालि०-णस०-चत्तारिक०-अचक्खु०-भवसि०-आहारए त्ति ।
६१६. आदेसेण णेरइएस अहावीसण्हं पयडीणमुक्क० भंगो। एवं सत्तसु पुढवीसु सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-सव्वमणस-सव्वदेव-सव्ववियलिंदिय-सव्यपंचिंदिय-बादरपुढविपज्ज-बादरआउपज्ज०-बादरतेउ०पज्ज०-बादरवाउ०पज्ज०-बादरवणप्फदि०पत्तेयपज्ज०-सव्वतस-पंचमण-पंचवचि-वेउव्विय०-वेउ०मिस्स०-आहार०-आहारमिस्स०इत्थि०-पुरिस०-अवगद०-अकसा०-विहंग०-आभिणि-सुद०-ओहि०-मणपज्ज०-संजद. सामाइय-छेदो०-परिहार०-मुहुम०-जहाक्खाद०-संजदासंजद०-चक्खु०-ओहिदंस०तिण्णिलेस्सा-सम्मादि०-खइय०-वेदय०-उवसम०-सासण-सम्मामि०-सण्णि त्ति। णवरि बादरवाउपज्ज. छब्बीसपयडीणं जह० अजह० लोगस्स संखेज्जदिभागे ।
६६२०. तिरिक्ख० मिच्छत्त-बारसक०-भय-दुगुंछ. ज. अज० के खेत्ते ? सव्वलोए । सेस० उक्कस्सभंगो । एवं सव्वएइंदिय० । गवरि अणंताणु०४-सत्तणोक०
६६१८. अब जघन्य क्षेत्रका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-आंघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सब लोकमें रहते हैं। सम्यक्त्व
और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं। इसी प्रकार काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदवाले, चारों कषायवाले, अचक्षुदर्शनवाले, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिये ।।
६६१६, आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंका भंग उत्कृष्टके समान है। इसी प्रकार सातों पृथिवियों में रहनेवाले नारकी, सब पंचेन्द्रियतियंच, सब मनुष्य, सब देव, सब विकलेन्द्रिय, सब पंचेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिकपर्याप्त, बादर जलकायिकपर्याप्त, बादर अग्निकायिकपर्याप्त, बादर वायुकायिकपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त, सब त्रस, पांचों मनोयोगी, पाचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाय. योगी, स्त्रीवेदवाले, पुरुषवेदवाले, अपगतवेदवाले, अकषायी, विभंगज्ञानवाले, आभिनियोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहार विशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, चक्षुदर्शनवाले, अवधिदर्शनवाले, तीन लेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंमें छव्वीस प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव लोकके संख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं।
६६२०. तिथंचोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सब लोकमें रहते हैं। तथा शेष प्रकृतियोंका भंग उत्कृष्टके समान है। इसी प्रकार सब एकेन्द्रियोंके जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि
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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ द्विदिविहत्ती ३. जह० अज० सव्वलोए । एवं पुढवि० - बादरपुढवि० - बादर पुढविपज्ज० - आउ०- बादर आउ०- बादरच्या उपज्ज० तेउ०- बाद रतेउ०- बादरतेउ अपज्ज० - वाउ०- बादरवाउ०- बादरवा उपज्ज० - सव्वेसिं सुहुम ० तेसिं पज्जत्तापज्जत - बादरवणप्फदिपत्त' य- बादरवणफदिपत्तं' यअपज्ज०-त्रणप्फदि- णिगोद-बादर सुहुमपज्जत्तापज्जत्त - ओरालियमिस्स - कम्मइय ० मदि- सुदण्णाण-मिच्छादि ० सण्णि० - अणाहारि ति । णवरि ओरालियमिस्स ०-मदिसुदअण्णा०-मिच्छादि० - असणि० सत्तणोकसाय० तिरिक्खोधं ।
$ ६२१. एत्थ मूलच्चारणाहिप्पाएण तिरिक्ख० मिच्छ० - बारसक० : • भय-दुगुंछ • जह० लोग ० संखे ० भागे, अज० सव्वलोए, सत्थाणविसुद्ध बादरे इंदियपज्जत्तएसु जहण्णसामित्तावलंबनादो । एवमोरालियमिस्स ० - मदि - सुदअण्णा०-मिच्छादि - असण्णिति । एइंदिय०- बादरेइंदियपज्जत्तापज्जत्त - वाउ०- बादरवाङ ० -तदपज्जत्तएसु छव्वीसपयडि ० एवं चैव । एदम्मि अहिप्पाए चत्तारिकाय - तेसिं बादर - तदपज्जत्ताणं छब्बीसपय० जह० लोग० असंखे० भागे । अज० सव्वलोगे । एतदनुसारेण च पोसणं णेदव्वमिदि । असंजद० तिण्णिलेस्सा० तिरिक्खोघं । णवरि असंजद० मिच्छ० ओघं । अभव०
इनमें अनन्तानुबन्धीचतुष्क और सात नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव सब लोकमें रहते हैं । इसी प्रकार पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिकअपर्याप्त, इन सबके सूक्ष्म, तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक, निगोद जीव तथा इनके बादर और सूक्ष्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्त, औदारिकमिश्र काययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, मिध्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि दारिकमिश्रकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, मिध्यादृष्टि, और असंज्ञी जीवोंमें सात नोकषायों का क्षेत्र सामान्य तिर्यंचोंके समान है ।
६२१. यहां पर मूलोच्चारण का ऐसा अभिप्राय है कि तिर्यंचों में मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जवन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव लोकके संख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं । तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले सब लोकमें रहते हैं । सो यह कथन स्वस्थान विशुद्ध बादरएकेन्द्रिय पर्याप्तकों में जघन्य स्थितिके स्वामित्वको स्वीकार करके किया गया है । इसी प्रकार औदारिकमिश्रकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, मिध्यादृष्टि और असंज्ञी जीवों के जानना चाहिये । एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रियपर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक और बाद वायुकायिक अपर्याप्त जीवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा इसी प्रकार क्षेत्र है । इसके अभिप्रायानुसार पृथिवीकायिक आदि चार स्थावर काय, इनके बादर तथा इनके अपर्याप्त जीवों में छब्बीस प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं । तथा अजघन्य स्थिति विभक्तिवाले जीव सब लोकमें रहते हैं । तथा इसीके अनुसार स्पर्शनका कथन करना चाहिये । असंयत और कृष्णादि तीन लेश्यावालोंमें सामान्यतिर्यचों के समान क्षेत्र है । किन्तु इतनी विशेषता है कि असंयतों में मिथ्यात्वका क्षेत्र ओघके समान
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गा० २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तियखेत्तं
३६७ छच्चीसपयहि तिरिक्खोघं । णवरि अणंताणु० चउक० एइंदियभंगो।
- एवं खेत्ताणुगमो समत्तो। है। अभव्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंका भंग सामान्य तिर्यंचोंके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग एकेन्द्रियोंके समान है।
विशेषार्थ-ओघसे मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिवाले जीव क्षपकश्रेणीमें ही होते हैं, अतः इनका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण कहा। तथा
ओघसे उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिवाले जीव अनन्त हैं, अतः इनका क्षेत्र सब लोक कहा । जब सामान्यसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तावाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है तब उनकी जघन्य और अजघन्य स्थितिवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होगा, इसमें कोई आश्चर्य नहीं। यह ओघ प्ररूपणा मूलमें गिनाई हुई काययोगी आदि कुछ मार्गणाओं में अविकल बन जाती है, इसलिये उनके कथनको ओघके समान कहा । सामान्य नारकियोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि नारकियोंकी संख्याको नारकियोंकी अवगाहनासे गुणित करने पर लोकका असंख्यातवां भाग ही प्राप्त होता है, अतः इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके समान जघन्य और अजघन्य स्थितिकी अपेक्षा बर्तमान क्षेत्र लोकका असंख्यातवां भाग ही कहा । इसी प्रकार मूलमें सातों पृथिवियोंके नारकियोंसे लेकर संज्ञीतक और जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें भी जानना चाहिए, क्यों कि सामान्यसे उनका वर्तमान
असंख्यातवें भागसे अधिक नहीं प्राप्त होता। हां केवल वायुकायिक पयाप्त जीव इसके अपबाद हैं सो इनके क्षेत्रका अनेक जगह खुलासा किया ही है। सामान्यसे तियचोंका वर्तमान क्षेत्र सब लोक है । तथा इनमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य और अजघन्य स्थितिवाले जीवोंका तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्क और सात नोकषायोंकी अजघन्य स्थितिवाले जीवोंका प्रमाण अनन्त बतला आये हैं, अतः तिर्यंचोंके उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिकी अपेक्षा सब लोक क्षेत्र बन जाता है। किन्तु शेष प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिकी अपेक्षा तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्क और सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिकी अपेक्षा क्षेत्र लोकका असंख्यातवां ही होता है। इसका कारण इनकी संख्याकी न्यूनता है । यद्यपि एकेन्द्रियोंमें सामान्य तिर्यंचोंके समान व्यवस्था बन जाती है किन्तु अनन्तानुबन्धी चतुष्क और सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिकी अपेक्षा कुछ विशेषता है। बात यह है कि सामान्य तिर्यंचोंसे एकेन्द्रियोंमें अनन्तानुबन्धी चतुष्क और सात नोकषायोंकी जघन्य स्थिति भिन्न बतलाई है। अतः इनमें उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिवाले जीवोंका प्रमाण अनन्त प्राप्त होता है और इसलिये इनका वर्तमान क्षेत्र सब लोक बन जाता है । पृथिवीकायिकसे लेकर अनाहारक तक मूलमें और जितनी मार्गणाएं गिनाई है उनमें भी एकेन्द्रियोंके समान व्यवस्था जानना चाहिए। किन्तु औदारिक मिश्रकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी मिथ्यादृष्टि और असंज्ञियोंमें सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिकी अपेक्षा अपवाद है। बात यह है कि इनमें सात नोकषायोंकी जघन्य स्थिति पंचेन्द्रियोंके अपर्याप्त काल में होती है ! अतः जघन्य स्थितिवाले जीवोंकी संख्या एकेन्द्रियोंके समान न प्राप्त होकर सामान्य तियचोंके समान प्राप्त होती है अतः इस कारण इनके सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिकी अपेक्षा क्षेत्र सामान्य तियचोंके समान होता है । यद्यपि पहले यह बतलाया है कि तियचोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिवाले जीवोंका जघन्य क्षेत्र सब लोक है फिर भी मूल उच्चारणाका यह अभिप्राय है कि ऐसे जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण है। सो इसका यह कारण है कि तियंचोंमें उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति बादर
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३६८ जयघवलासहिदे कसायपाहुडे
[हिदिपिहली ३ ६२२. पोसणं दुविहं-जहण्णमुक्कस्सं च । उक्कस्से पयदं । दुविहो णिदेसोओघेण आदेसेण । तत्थ ओघेण मिच्छत्त-सोलसक-णवणोक० उक्क० के० खे० पोसिदं ? लोग० असंखेभागो अह-तेरह चोदसभागा वा देसूणा । अथवा इत्थिपुरिसवेद० उक्क० अह चोद्दसभागा वा देसूणा । अण्णेणाहिप्पारण बारह चोदसभागा वा देसूणा । अणु० सव्वलोगो। सम्म०-सम्मामि० उक्क० लोग. असंखे भागो अह चोद्द० देसूणा । अणुक्क० [लोग असंखे०भागो अह चोद्द० देसूणा सव्वलोगो वा । एवं [कायजोगि-] चत्तारिकसाय-मदि-सुदअण्णा०-असंजद०-अचक्खु०-भवसि-मिच्छादि०
आहारि त्ति । अभव० एवं चेव । णवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तवज्ज । एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके ही प्राप्त होती है और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका स्वस्थान क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण ही है अतः इस अपेक्षासे तियचोंमें उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण भी बन जाता है। और पहले जो सब लोक क्षेत्र बतलाया है सो इसका कारण यह है कि मारणान्तिक समुद्धातकी अपेक्षा बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका क्षेत्र सब लोक है अतः उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिवाले तिर्यंचोंका क्षेत्र भी सब लोक बन जाता है। यही क्रम औदारिकमिश्रकायोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, मिथ्यादृष्टि
और असंज्ञी जीवोंके भी घटित कर लेना चाहिये, क्योंकि उनके इस प्रकार घटित करने में कोई बाधा नहीं आती है । तथा इसी प्रकार एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय और उनके पर्याप्त और अपर्याप्त तथा वायुकायिक, बादर वायुकायिक और उनके अपर्याप्त जीवोंमें भी घटित कर लेना चाहिये। किन्तु इस मूल उच्चारणाके अनुसार पृथिवी आदि चार स्थावरकाय, इनके बादर और बादर अपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है, क्योंकि इनमें उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिवाले जीवोंने वर्तमान कालमें लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रको ही स्पर्श किया है। शेष कथन सुगम है।
इस प्रकार क्षेत्रानुगम समाप्त हुआ। ६६२२. स्पर्शन दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । पहले यहां उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ निर्देश और आदेश निर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका तथा त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम
आठ और कुछ कम तेरह भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। अथवा स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । तथा अन्य अभिप्रायानुसार त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम बारह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। इन सबकी अनुत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले जीवोंने सब लोकका स्पर्श किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्तावें भाग क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका तथा त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग क्षेत्रका और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार काययोगी, चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनवाले, भव्य, मिथ्यादृष्टि
और आहारक जीवोंके जानना चाहिये। अभव्योंके इसी प्रकार जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको छोड़कर कहना चाहिये।
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गा० २२ ]
हिदिविहतीए उत्तरपयडिट्ठिदिविहत्तिय पोस
३६६
९६२३. आदेसेण णेरइसु छव्वीसपयडि ० क० अणुक० लोग० असंखे० भागों
विशेषार्थ — पहले मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका वर्तमान कालीन स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण बतला आये हैं । तदनुसार मोहनीय कर्मके अवान्तर भेदोंकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्शं भी लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है इससे अधिक नहीं । इसी बात को ध्यान में रखकर यहां सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका वर्तमान कालीन स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है। तथा त्र्सनाली के चौदह भागों में से कुछ कम आठ और कुछ कम तेरह भाग प्रमाण स्पर्श अतीत कालकी अपेक्षा बतलाया है, क्योंकि विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिक पदसे परिणत हुए उक्त जीवोंने त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग स्पर्श किया है और मारणान्तिक समुद्धातसे परिणत हुए उक्त जीवोंने त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम तेरह भागका स्पर्श किया है। यहां आठ भागसे नीचे दो और ऊपर छह राजु क्षेत्रका ग्रहण करना चाहिये । तथा तेरह भागमें नीचेका एक राजु छोड़ देना चाहिये । एक ऐसा नियम है कि जो जीव जिस वेदवालेमें उत्पन्न होता है मरणके समय अन्तर्मुहूर्त पहलेसे उसके उसी वेदका बन्ध होता है। अब जब इस नियम के अनुसार स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिवालों के स्पर्शका विचार किया जाता है तो वह कुछ कम तेरह बटे चौदह भाग नहीं प्राप्त होता, क्योंकि नपुंसक वेद की उत्कृष्ट स्थितिवाले जो जीव नपुंसकवेदियों में उत्पन्न होते हैं उन्हीं के यह स्पर्श सम्भव है, इसलिये विकल्पान्तर रूपसे स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श कुछ कम आठ बटे चौदह भाग प्रमाण बतलाया है । किन्तु कुछ आचार्योंका मत है कि यह स्पर्श कुछ कम बारह बटे चौदह भागप्रमाण प्राप्त होता है। उनके इस मतका यह कारण प्रतीत होता है कि नीचे सातवें नरक तक उत्कृष्ट स्थिति सम्भव है और ऊपर विहारादिककी अपेक्षा अच्युत कल्प तक उत्कृष्ट स्थिति सम्भव है । अब यदि इस क्षेत्रका संकलन किया जाता है तो वह कुछ कम बारह बटे चौदह भाग प्राप्त होता है । अनुत्कृष्ट स्थितिवाले जीव सब लोकमें पाये जाते हैं यह स्पष्ट ही है अतः यहां अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका वर्तमान और अतीत दोनों प्रकारका स्पर्श सब लोक बतलाया है । अब रहीं सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियां सो इनकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका वर्तमान कालीन स्पर्श लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण अन्य प्रकृतियोंके समान जान लेना चाहिये । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श जो कुछ कम आठवटे चौदह भागप्रमाण बतलाया है । उसका कारण यह है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति वेदकसम्यग्दृष्टियों के पहले समय में होती है और वेदक सम्यग्दृष्टियोंका अतीत कालीन स्पर्श कुछ कम आठ बटे चौदह भाग प्रमाण बतलाया है, अतः सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका भी स्पर्श उक्त प्रमाण प्राप्त होता है। तथा इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श जो तीन प्रकारका बतलाया है सो उसमें से लोकका असंख्यातवाँ भाग प्रमाण स्पर्श वर्तमान कालकी अपेक्षा प्राप्त होता है | कुछ कम आठ वटे चौदह भाग प्रमाण स्पर्श अतीत कालीन विहारादिककी अपेक्षा प्राप्त होता है और सब लोक प्रमाण स्पर्श मारणान्तिक तथा उपपाद पदकी अपेक्षा प्राप्त होता है । इस प्रकार यह सब प्रकृतियोंका सामान्यसे स्पर्श हुआ । कुछ मार्गेणाएं भी ऐसी हैं जिनमें यह घ प्ररूपणा बन जाती है, अतः उनके कथनको ओघके समान कहा है । जैसे चारों कषाय आदि । अभव्यों में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता नहीं होती। शेष सब स्पर्श ओघ के समान बन जाता है, अतः उनके भी सम्यक्त्व और सन्यग्मिथ्यात्वको छोड़कर शेषका स्पर्श ओघके समान बतलाया है ।
$ ६२३. देशकी अपेक्षा नारकियों में छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम
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३७०
जयधवलासहिदे कला पाहुडे
[ द्विदिहिती ३
छ चो६० देसूणा । अथवा इत्थि - पुरिस० उक्क० लोग० असंखे० भागो चेव । सम्मत्तसम्मामि० ० उक० खेत्तभंगो । अणुक्क छ चोद्दस० देसूणा । पढमाए खेत्तभंगो । विदियादि जाव सत्तमा सगपोसणं कायव्वं ।
९६२४. तिरिक्ख० मिच्छत्त- सोलसक० - पंचणोक० उक्क० लोग असंखे०भागो छ चोद० देसूणा, अणुक्क० सव्वलोगों । चत्तारिणोकसाय उक्क० लोग० असंखे० भागो । अथवा णवणोक० उक्क० तेरह चोदस० । अणुक्क० सव्वलोगो । सम्मत्त सम्मामि० ० उक्क० लोग० असंखे ० भागो, अणुक्क० लोग० असंखे० भागो सव्वलोगो वा ।
छह भाग प्रेमारण क्षेत्रका स्पर्श किया है । अथवा स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका ही स्पर्श किया है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंके स्पर्शनका भंग क्षेत्रके समान है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवनेत्रनालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। पहली पृथिवी में स्पर्श क्षेत्रके समान है । तथा दूसरीसे लेकर सातवीं पृथ्वी तक अपने अपने स्पर्शके समान स्पर्शन कहना चाहिये ।
बिशेषार्थ — नरकगतिमें सामान्यसे और प्रत्येक नरकका जो स्पर्श बतलाया है वही यहां सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिवाले नारकियोंके स्पर्श प्राप्त होता है, इसलिये तदनुसार उसका यहां विचार कर लेना चाहिये । किन्तु इसके दो अपवाद हैं। पहला तो यह कि विकल्प रूपसे स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिवालों का स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है । इसके कारणका निर्देश पहले कर ही आये हैं । और दूसरा यह कि सम्ययत्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श उनके क्षेत्रके समान ही है। कारण यह है कि इन दोनों प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति वेदक सम्यक्त्वके पहले समय में उन्हीं जीवोंके सम्भव है जिन्होंने मिध्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करके अति लघुकालमें वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त कर लिया है | यदि ऐसे नारकी जीवोंका वर्तमान और अतीत दोनों प्रकारका स्पर्श देखा जाता है तो वह लोकके असंख्यातवें भागसे अधिक नहीं होता, अतः यहां उक्त दोनों प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श उनके क्षेत्र के समान बतलाया है ।
§ ६२४. तिर्यंचोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और पांच नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने सब लोक प्रमाण क्षेत्रका प किया है। चार नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है । अथवा नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने सनालीके चौदह भागों में से कुछ कम तेरह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति, वाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है ।
विशेषार्थ — तिर्यंचों में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंचों का वर्तमानकालीन स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है और ये ही मिध्यात्व, सोलह कषाय और पांच नोकषायोंकी उत्कृष्ट
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गा०२२) हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तियपोसणं
३७१ ६२५. पंचिंदियतिरिक्ख०-पंचिं०तिरि०पज्ज-पंचिं०तिरि जोणिणी० मिच्छत्तसोलसक०-पंचणोक०-उक्क० लोग० असंखे०भागो छ चोद्दस० देसूणा । अणुक्क० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा। चत्तारिणोक० उक्क० लोग० असंखे भागो। अथवा णवणोक० उक्क० वारस चोइस० देसूणा । अणुक्क० लोग० असंखे० भागो [सव्वलोगो वा । सम्मत्त-सम्मामि० ] तिरिक्खोघं । स्थितिको प्राप्त होते हैं अतः तिर्यंचोंमें इनकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका वर्तमानकालीन स्पर्श उक्त प्रमाण बतलाया है । तथा इन कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिवाले तिथंच सातवें नरक तक मारणान्तिक समुद्धात करते हैं अतएव इनका अतीतकालीन स्पर्श कुछकम छह बटे चौदह राजुप्रमाण बतलाया है। तथा उक्त कर्मोकी अनुत्कृष्ट स्थितिवाले तिर्यंच सब लोकमें पाये जाते हैं यह स्पष्ट ही है, क्योंकि उक्त कर्मोंकी अनुत्कृष्ट स्थिति एकेन्द्रियादि सब तियचोंके सम्भव है, अतएव उक्त कर्मोंकी अनत्कृष्ट स्थितिवाले तिर्यंचोंका स्पर्श सब लोक बतलाया है। हास्य, रति, स्त्रीवेद और पुरुषवेद इन चार नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श जो लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण बतलाया है उसका खुलासा, जिस प्रकार मिथ्यात्व आदिके वर्तमान कालीन स्पर्शका कर आये हैं, उसी प्रकार कर लेना चाहिये। किन्तु उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके जो देव एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं उन तिथंचोंके भी नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति पाई जाती है और नारकियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करनेवाले तियचोंके भी नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति पाई जाती है। अब यदि इनके स्पर्शका विचार किया जाता है तो वह कुछ कम तेरह बटे चौदह भाग प्रमाण प्राप्त होता है। यही कारण है कि मूलमें अथवा कह कर नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श कुछ कम तेरह बटे चौदह भाग प्रमाण बतलाया है । तथा चार नोकषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिवाले तिर्यंचोंका स्पर्श सब लोक स्पष्ट ही है । कारणका उल्लेख पहले कर ही आये हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति उन तियचोंके सम्भव है जो उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके अतिशीघ्र वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त होते हैं पर ऐसे तिथंचोंका स्पर्श लोकका असंख्यातवां भाग प्रमाण ही है, अतः यहां उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण बतलाया है। तथा उक्त प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिवाले तिर्यंचोंका वर्तमान स्पर्श तो लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही है, क्योंकि इन प्रकृतियोंकी सत्तावालोंका वर्तमान स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागसे अधिक नहीं प्राप्त होता । परन्तु इनकी सब लोकमें गति और आगति सम्भव है, इसलिये इनका अतीत कालीन स्पर्श सब लोक बतलाया है।
६६२५. पंचेन्द्रिय तियेंच, पंचेन्द्रिय तिथंच पर्याप्त और पंचेन्द्रिय तियेच योनिमतियोंमें मिथ्यात्व, सोजह कषाय और पांच नाकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवालोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भाग प्रेमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। चार नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है । अथवा नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने बसनालोके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम बारह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और सब लोकका स्पर्श किया है। सम्यक्त्व व सम्यग्मिध्यात्वका स्पर्श सामान्य तियचोंके समान जानना चाहिये।
विशेषार्थ-उक्त तीन प्रकारके तिर्यंचोंमें मिथ्यात्व आदिकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श जो कुछ कम छह बटे चौदह भाग बतलाया है उसका खुलासा सामान्य तियचोंके समान कर लेना
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अयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ ६२६. पंचिंतिरि०अपज्ज० सव्वपयडि. उक्क० लोग० असंखे भागो, अणुक्क० लो० असं०भागो सबलोगो वा । एवं सब्यमणुस-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज्ज०-बादरपुढविपज्ज०-बादरआउपज्ज०-बादरतेउपज्ज०-बादरवाउपज्जत्त-बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयपज्ज०-तसअपज्जचे ति । णवरि बादरपुढवि०-आउ०-वणप्फदिपत्य०पज० उक्क० णव चोदसभागा वा देसूणा ।
६२७. देव० मिच्छत्त-सोलसक०-सत्तणोक० उक्क० अह-णव चो० देसूणा । चाहिये । तथा 'अथवा' कह कर नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श जो कुछ कम बारह बटे चौदह भाग प्रमाण बतलाया है वह नीचे छह राजु और ऊपर छह राजुकी अपेक्षा जानना चाहिये । नीचेके छह राजु तो स्पष्ट हैं परन्तु ऊपरके छह राजु उपपाद पदकी अपेक्षा जानना चाहिये । बात यह है बारहवें कल्पतकके देव मर कर तिर्यच होते हैं। अब नीचेके जो देव सोलहवें कल्पतक विहार करके गये और वहांसे मरकर तियचोंमें उत्पन्न हुए उनकी अपेक्षा ऊपर छह राजु प्राप्त हो जाते हैं। शेष कथन सुगम है।
६६२६. पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार सब मनुष्य, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिकपर्याप्त, बादर जलकायिक, बादर जलकायिकपर्याप्त, बादरअग्निकायिक, बादर अग्निकायिकपर्याप्त, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त, और त्रस अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि बादर पृथिवीकायिकपर्याप्त, बादर जलकायिकपर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवोंमें उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम नौ भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है।
विशेषार्थ—जो तियेच या मनुष्य मोहनीयकी २८ प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त हो कर और स्थितिघात किये बिना पंचेन्द्रिय तियेच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें उत्पन्न होते हैं उन्हीं पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंके सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति पाई जाती है । अब यदि इनके स्पर्शका विचार किया जाता है तो वह लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही प्राप्त होता है, इसलिये यहां उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण कहा। तथा इनमें अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका वर्तमान कालीन स्पर्श तो लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही प्राप्त होता है, क्योंकि इनका वर्तमान निवास लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रमें ही है। पर अतीतकालीन स्पर्श
कि बन जाता है, क्योंकि मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद पदके द्वारा इन्होंने सब लोकका स्पर्श किया है। कुछ मार्गणाएं और हैं जिनमें पूर्वोक्त प्रमाण स्पर्श प्राप्त होता है, अतः उनके कथनको इसी प्रकार कहा है। जैसे सब मनुष्य आदि । किन्तु इनमेंसे बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त और वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त इन तीन मार्गणाओं में कुछ अपवाद है । बात यह है कि इनमें देव मर कर भी उत्पन्न होते हैं, अतः इनकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श कुछकम नौ बटे चौदह भाग प्राप्त होता है। यहाँ नौ भागसे नीचेके दो राजु और ऊपरके सात राजु लेना चाहिये।
६६२७. देवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले
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गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिविदिविहत्तियपोसण इत्थि-पुरिसवेद०-सम्मत्त०-सम्मामि० उक्क० अह चोद्द० देसूणा । अणुक्क० अह-णव चो० देसूणा । एवं सोहम्मीसाणदेवाणं । भवण-वाण एवं चेव । णवरि अधुढअह-णव चोइस भागा देसूणा । सणक्कुमारादि जाव सहस्सारो त्ति सव्वपय० उक्क. अणुक्क० अह चोद्दस० देसूणा । आणद-पाणद-पारणच्चुद० सव्वपयणीणं उक्क लो. असंखे०भागो । अणुक्क० छ चोदस० देसूणा । उबरि खेत्तभंगो।
६६२८. एइंदिय० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० उक्क० णव चोद० देसूणा । अणुक्क० सव्वलोगो । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्क० णव चो० । अणुक्क० ओघ । एवं बादरेइंदिय-बादरेइंदियपज्ज०-वणप्फदि-बादरवणप्फदि-तप्पज्जत्त-कम्मइ-अणाहारए त्ति । जीवोंने त्रसनालीके चौदह भागों से कुछ कम आठ और कुछ कम नौ भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने त्रस नालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम आठ भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने बसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार सौधर्म और ऐशान कल्पके देवोंके जानना चाहिये। भवनवासी और व्यन्तर देवोंके इसी प्रकार जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें त्रसनालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम साढ़े तीन भाग, कुछ कम आठ भाग और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श जानना चाहिये । सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट
और अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवालोंने त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। आनत. प्राणत. प्रारण और अच्यत कल्पके देवों में सब प्रक्रतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । इसके आगेके देवोंमें क्षेत्रके समान भंग है।
विशेषार्थ—सामान्य देवोंका या पृथक् पृथक् देवोंका जो स्पर्श बतलाया है वही यहां प्राप्त होता है, अतः तदनुसार उसे यहां भी घटित कर लेना चाहिये। हां सामान्य देवों में स्त्रीवेद, पुरुषवेद, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंके स्पर्शमें कुछ विशेषता है। बात यह है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिवाले देव एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात नहीं करते अतः इनका स्पर्श कुछ कम आठ बटे चौदह भाग ही प्राप्त होता है । तथा वेदकसम्यग्दृष्टियों के पहले समयमें ही सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति होती है। अब देवोंमें इसका विचार करते हैं तो ऐसे देव नीचे तीसरे नरक तक और ऊपर सोलहवें कल्प तक पाये जा सकते हैं, अतः सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श भी कुछकम आठ बटे चौदह भाग प्राप्त होता है । यही कारण है कि यहां सामान्य देवोंमें उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श कुछ कम आठ बटे चौदह भाग प्रमाण बतलाया है। .
६२८. एकेन्द्रियोंमें मिथ्यात्त्र, सोलह कषाय और नौ नौकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने सब लोकका स्पर्श किया है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवालोंने त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पश किया है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श ओघके समान है। इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रियपर्याप्त, वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पति
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- जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[हिदिविहत्ती ३ णवरि कम्मइय०-अणाहार० उक्क० तेरह चो० भागा वा देसूणा।
६२६ बादरेइंदियअपज्ज०-मुहुमेइंदियपज्जत्तापज्जत्त-बादरपुढविअपज्ज-मुहुमपुढविपज्जत्तापज्जत्त-बादरआउअपज्ज-मुहुमआउपज्जत्तापज्जत्त-बादरतेउअपज०-सुहुमतेउपज्जत्तापज्जत्त-बादरवाउअपञ्जा-सुहुमवाउपज्जत्तापज्जत्त-बादरवणप्फदिपत्तेयअपज्ज०सुहुमवणप्फदि-णिगोद बादरसुहुमपज्जत्तापज्जत्त० उक० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । णवरि बादरपुढवि-तेउ-वणप्फदिअपज्ज० सव्वलोगो णत्थि । कुदो १ उक्कस्सहिदिसंतकम्मेण पडिणियदखेचे चेव एदेसिमुप्पत्तीदो। अणुक्क० सव्वलोगो। [ओरालियतिरिक्खोघं । ] ओरालियमिस्स० खेत्तभंगो । कायिकपर्याप्त, कार्मणकाययोगी और अनाहरक जीवोंके जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंमें उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम तेरह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है।
विशेषार्थ-एकेन्द्रियोंमें मिथ्यात्व आदि कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति उन्हींके पायी जाती है जो देव पर्यायसे च्युत होकर एकेन्द्रिय हुए हैं, अतः एकेन्द्रियोंमें 'मिथ्यात्व आदिकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श कुछ कम नौ बटे चौदह राजु बतलाया है जो उपपादपदकी प्रधानतासे प्राप्त होता है । तथा एकेन्द्रिय जीव सब लोकमें पाये जाते हैं, अतएव अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श सब लोक बतलाया है। आगे जो बादर एकेन्द्रिय आदि मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें भी यह व्यवस्था बन जाती है, अतः उनके कथनको एकेन्द्रियोंके समान कहा है। किन्तु कार्मणकायोग
और अनाहारकोंमें कुछ विशेषता है। बात यह है कि जो देव तद्योग्य उत्कृष्ट स्थितिके साथ एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं उनके भी कार्मणकाययोग और अनाहारक अवस्था सम्भव है तथा जो तियच और मनुष्य उत्कृष्ट स्थितिके साथ नारकियोंमें उत्पन्न होते हैं उनके भी कामणकाययोग
और अनाहारक अवस्था सम्भव है। अब यदि इन दोनोंके स्पर्शका संकलन किया जाता है तो वह कुछ कम तेरह बटे चौदह राजु प्राप्त होता है। यही कारण है कि कार्मणकाययोग और अनाहारक अवस्थामें उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श उक्तप्रमाण बतलाया है।
६६२६. बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रियपर्याप्त, सुक्ष्म एकेन्द्रि अपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिकअपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिकपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिकअपर्याप्त, बादरजलकायिकअपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिकपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिकअपर्याप्त, बादर अग्निकायिकअपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिकपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिकअपर्याप्त, बादर वायुकायिकअपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिकपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिकअपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक व निगोद तथा इनके बादर, वादर पर्याप्त, बादार अपर्याप्त, सूक्ष्म, सूक्ष्म पर्याप्त और सूक्ष्म अपर्याप्त जीवोंमें उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। किन्तु इतनी विशेषता है कि बादर पृथिवीकायिकअपर्याप्त, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिकअपर्याप्तकोंमें सब लोक स्पर्श नहीं है, क्योंकि उत्कृष्ट स्थिति सत्कर्म के साथ इन जीवोंकी प्रतिनियत क्षेत्रमें ही उत्पत्ति होती है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिवाले जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। औदारिककाययोगियोंका स्पर्श सामान्य तिर्यंचोंके समान है। औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें स्पर्श क्षेत्रके समान है।
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गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तियपोसणं
६६३०. पंचिंदिय-पंचिं०पज० तस-तसपज्ज० मिच्छत्त-सोलसक०-सत्तगोक० उक्क० ओघं । अणुक्क. अह चो० देसूणा सव्वलोगो वा । इत्थि०-पुरिस० उक्क० अह-बारह चोदसभागा वा देसणा । अणुक्क० अह चोद्दस० सबलोगो वा। सम्मत्तसम्मामि० उक्क० अह चोद्द० देसूणा । अणुक्क० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । एवं चक्खु०-सण्णि-पंचमण-पंचवचि० ।
विशेषार्थ-जो तिर्यंच या मनुष्य मिथ्यात्व आदि कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त करके और स्थितिघात किये बिना बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त आदि मार्गणाओंमें उत्पन्न होते हैं उन्हींके उक्त कर्मोकी उत्कृष्ट स्थिति पाई जाती है । अब यदि इनके वर्तमान क्षेत्रका विचार करते हैं तो वह लोकके असंख्यातवें भागसे अधिक नहीं प्राप्त होता। यही कारण है कि उन बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त आदि मार्गणाओंमें उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है। तथा ऐसे जीव सब लोकमें उत्पन्न होते हैं. अतः अतीतकालीन स्पर्श सब लोक बतलाया है। हां यहां इतनी विशेष बात है कि बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त और बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त इनमें उत्कृष्ट स्थितिवालोंका अतीत कालीन स्पर्श भी सबलोक नहीं प्राप्त होता, क्यों किऐसे जीवोंकी उत्पत्ति नियत क्षेत्र में ही होती है, अतः इन्होंने सब लोकको अतीत काल में भी स्पर्श नहीं किया है। विशेष खुलासाके लिये निम्न दो बातें ध्यानमें रखनी चाहिये । पहली यह कि उक्त मार्गणावाले जीव पृथिवियोंके आश्रयसे रहते है और दूसरी यह कि जो संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यंच या मनुष्य उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके और स्थितिघात किये बिना इनमें उत्पन्न होते हैं उन्हींके पहले समयमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है । अब ऐसे जीवोंके पृथिवियोंकी ओर गमन करने पर सब लोक नहीं प्राप्त होता, अतः यहां सब लोक स्पर्शका निषेध किया है। तथा उक्त सब मार्गणाओंमें अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका जो सब लोक स्पर्श बतलाया है वह स्पष्ट ही है। औदारिककाययोगवालोंका स्पर्श तियचोंके समान है, यह स्पष्ट ही है। औदारिकमिश्रकाययोगमें मिथ्यात्व आदिकी उत्कृष्ट स्थिति उन्हीं जीवोंके प्राप्त होती है जो देव और नरक पर्यायसे आकर औदारिकमिश्रकाययोगी होते हैं, अतः इनके स्पर्शमें क्षेत्रसे अन्तर नहीं पड़ता, इसीलिये इसमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श क्षेत्रके समान बतलाया है।
६६३०. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, त्रस और त्रस पर्याप्त जीवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायवालोंमें उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श ओघके समान है : तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम बारह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने त्रसनालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम आठ भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा अतुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार चक्षुदर्शनवाले, संज्ञी, पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगी जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ -मिथ्यात्व आदि २४ प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका जो ओघसे स्पर्श
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. ३७६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[द्विदिविहत्ती ३ .. ६३१, वेउव्विय० मिच्छ०-सोलसक०-पंचणोक० उक्क० अणुक्क० अहतेरह चोदस० देसणा । एवं हस्स-रदि०। इत्थि०-पुरिस० उक्क० अह-बारह देसूणा। अथवा बारह चोदस० पत्थि । अणक्क० अह-तेरह चो० देसणा । सम्मत्त-सम्मामि उक्क० अह चो०, अणुक्क० अह-तेरह चो० । वेउब्वियमिस्स० खेत्तभंगो। एवमाहार०आहारमिस्स०-अवगद०-अकसा०-मणपज्ज-संजद०-सामाइय-छेदो-परिहार०-मुहुम०जहाक्वादसंजदे त्ति । बतलाया है वह पंचेन्द्रिय आदि पूर्वोक्त चार मार्गणाओंकी प्रमुखतासे ही बतलाया है, इसलिये यहां उक्त मार्गणाओंमें मिथ्यात्व आदिकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श ओघके समान कहा । उक्त मार्गणाओंका विहारवत्स्वस्थान आदिकी अपेक्षा स्पर्श कुछ कम आठ बटे चौदह भाग तथा मारणान्तिक समुद्धात और उपपादकी अपेक्षा स्पर्श सब लोक है, अतः इनमें अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श उक्त प्रमाण कहा । स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका विहार आदिकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह भाग प्रमाण और मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा कुछ कम बारह बटे चौदह भाग प्रमाण स्पर्श प्राप्त होता है, इसलिये इनकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका उक्त प्रमाण स्पर्श बतलाया है। तथा इन दोनों प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका कुछ कम आठ बटे चौदह भाग प्रमाण स्पर्श विहारादिककी अपेक्षा बतलाया है और सब लोक स्पर्श मारणान्तिक तथा उपपाद पदकी अपेक्षा बतलाया है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्श विहार आदिकी अपेक्षा बतलाया है
और इन दोनों प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण स्पर्श वर्तमान काल आदिकी अपेक्षा तथा सब लोक स्पर्श मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद पदकी अपेक्षा बतलाया है । चक्षुदर्शन आदि कुछ और मार्गणाएं हैं जिनमें यह व्यवस्था बन जाती है, अतः उनके कथनको ओघके समान कहा है।
६३१: वैक्रियिककाययोगियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और पांच नोकषायोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम तेरह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार हास्य और रति नोकषायकी अपेक्षा जानना चाहिये । स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम बारह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। अथवा त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम बारह भागप्रमाण स्पर्श नहीं है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्ति वाले जीवोंने त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम तेरह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने त्रस नालीके चौदह भागोंमें से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम तेरह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें स्पर्श क्षेत्रके समान है। इसी प्रकार आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदवाले, अकषायी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहार विशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिये ।
विशेषार्थ-वैक्रियिककाययोगका स्पर्श कुछ कम आठ बटे चौदह भाग और कुछ कम तेरह बटे चौदह भाग है। वही यहां मिथ्यात्व आदि २६ प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंके प्राप्त
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गा० २२ ] - डिदिविहत्तीए उत्तरपयडिडिदिविहतियपोसणं
३७७ ६६३२. गवुस० ओघं । णवरि अह चोद्द० गथि । मिच्छत्त-सोलसक.. उक्क० छ चोद्द० । इत्थि०-पुरिस० पंचिंदियभंगो।
६६३३. आभिणि-सुद०-ओहि० सव्वपयडी० उक्क० अणुक्क० लोग० असंखे०भागो अह चो० देसूणा । एवमोहिदंस०-सम्मादि-वेदय०-उवसम-सम्मामिच्छादिहि त्ति । विहंग० मणजोगिभंगो । संजदासंजद० उक्क० खेत्तभंगो, अणुक्क० होता है, इसलिये इसे तत्प्रमाण कहा। किन्तु पुरुषवेद और स्त्रीवेदकी उत्कष्ट स्थितिवालोंका कुछकम तेरह बटे चौदह राजु स्पर्श न प्राप्त होकर कुछकम बारह बटे चौदह राजु प्राप्त होता है। कारणका स्पष्टीकरण ओघमें कर आये हैं। अब विकल्परूपसे जो बारह बटे चौदह राजुका निषेध किया है। उसका मुख्य कारण यह है कि नीचे सात नरकके नारको स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिके रहते हुए यद्यपि तियच और मनुष्योंमें मारणान्तिक समुद्घात करते हैं फिर भी उनका प्रमाण स्वल्प होता है अतः कुछकम बारह बटे चौदह भाग प्रमाण स्पर्श नहीं बनता है। अनुत्कृष्टका खुलासा उत्कृष्टके समान ही है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति वेदकसम्यग्दृष्टियोंके पहले समयमें होती है और वेदकसम्यग्दृष्टियोंका स्पर्श कुछ कम आठ बटे चौदह राजु होता है अतः सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श भी उक्त प्रमाण ही बतलाया है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंके स्पर्शका खुलासा मिथ्यात्व आदि की अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंके समान है। वैक्रियिकमिश्रकाययोग और आहारककाययोग आदि ऐसी मार्गणाएं हैं जिनके स्पर्शनमें क्षेत्रसे अन्तर नहीं पड़ता, अतः उनका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है।
६६३२. नपुंसकवेदवाले जीवोंमें ओघके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भगप्रमाण स्पर्श नहीं है। मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभतिवाले जीवोंने त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । स्त्रीवेदवाले और पुरुषवेदवालं जीवोंमें पंचेन्द्रियतिर्यचोंके समान भंग है।
विशेषार्थ-नपुंसकवेदमें जो ओघके समान स्पर्श बतलाया है वह अनुत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा बतलाया है । उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा तो विशेषता है । बात यह है कि ओघसे मिथ्यात्व आदिकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका विहार आदिकी अपेक्षा जो कुछ कम आठ बटे चौदह राजु स्पर्श बतलाया है वह नपुंसकवेदियोंके नहीं प्राप्त होता, क्योंकि वह देवोंकी मुख्यतासे बतलाया है
और देवोंमें नपुंसकवेदी जीव होते नहीं। हां मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिवाले नपुंसकवेदियोंने नीचेके छह राजु क्षेत्रका स्पर्श किया है, अतः इनमें उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका यह स्पर्श बन जाता है । तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श पंचेन्द्रियोंके समान है। इसका यह अभिप्राय है कि पंचेन्द्रियोंमें जिस प्रकार स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श घटित करके बतला आये हैं उसी प्रकार यहां भी घटित कर लेना चाहिये।
६६३३. श्राभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानियोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार अवधिदर्शनवाले, सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये। विभंगज्ञानियोंमें मनोयोगियोंके समान भंग है । संयतासंयतोंमें उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने सनालीके चौदह भागोंमेंसे
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३७८ .. जयपवलासहिदे कसायपाहुडे
[विदिविहत्ती ३ छ चोइस देसूणा । एवं सुक्क ।
६६३४. तिणि ले० मिच्छत्त-सोलसक०-सत्तणोक० उक्क० छ चोद्द० चत्तारि चोद्द० बे चोद्द० देसूणा । अणुक्क० सव्वलोगो । इत्थि०-पुरिस० खेत्तभंगो। अथवा णवणोक० उक्क० तेरह-एक्कारस-णव चोद्दसभागा वा देसूणा, उववादविवक्खाए तदुवलंभादो। सम्मत्त सम्मामि० तिरिक्खोघं । तेउ० सोहम्मभंगो । पम्म० सणक्कुमारभंगो। खइय० एक्कवीस० उक्क० खेत्तभंगो। अणुक्क० अह चो० देसूणा । सासण. उक० अणुक्क० अह-बारह चोद्द० देसूणा । असण्णि० एइंदियभंगो ।
एवमुक्कस्सपोसणाणुगमो समत्तो । कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार शुक्ललेश्यावाले जीवोंके स्पर्श जानना चाहिये।
विशेषार्थ--अन्यत्र श्राभिनिबोधिकज्ञानी आदि जीवोंका जो स्पर्श बतलाया है वही यहां उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका प्राप्त होता है। उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। मिथ्यात्वके रहते हुए जहां जहां मनोयोग सम्भव है वहां वहां विभंगज्ञान भी सम्भव है, अतः विभंगज्ञानियोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श मनोयोगियोंके समान बतलाया है । जो उत्कृष्ट स्थितिवाले वेदकसम्यग्दृष्टि जीव संयमासंयमको प्राप्त होते हैं उन्हींके पहले समयमें उत्कृष्ट स्थिति होती है, अत: संयतासंयतोंके सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श.क्षेत्रके समान ही प्राप्त होता है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श कुछ कम छह बटे चौदह राजु है, क्योंकि मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा संयतसंयतोंने इतने क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार शुक्ललेश्यामें भी घटित कर लेना चाहिये ।
६६.४. कृष्ण अादि तीन लेश्यावालोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले जीवोंने सनालीके चौदह भागोंमेंसे क्रमसे कुछ कम छह, कुछ कम चार और कुछ कम दो भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है । अथवा नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे क्रमसे कुछ कम तेरह, कुछ कम ग्यारह और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है, क्योंकि उपपादकी विवक्ष में इस प्रकारका स्पर्श पाया जाता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा स्पर्श सामान्य तिर्यंचोंके समान है। पीतलेश्यावालोंमें सौधर्म कल्पके समान भंग है। पद्मलेश्यावालोंमें सनत्कुमार कल्पके समान भंग है । क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में इक्कीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने बसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम बारह भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। असंज्ञियोंमें एकेन्द्रियोंके समान भंग है।
विशेषार्थ-कृष्ण, नील और कापोत लेश्यामें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और सात नोकषायवालोंके जो क्रमसे कुछ कम छह बटे चौदह राजु, कुछ कम चार बटे चौदह राजु और . कुछ कम दो बटे चौदह राजु प्रमाण स्पर्श है वह नारकियोंकी मुख्यतासे बतलाया है । तथा ये तीनों
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गा० २२) . हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिष्टिदिविहत्तियंपोसणं
३७६ ६३५. जहएणए पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० जह० अजह० खेत्तभंगो। सम्मत्त जह० खेतभंगो । अज० अणक्कभंगो। सम्मामि० जह० अज० अणक्कभंगो । अर्णताणु०चउक्क० ज०. लो० असंखे०भागो अह चो० देसूणा । अज० सबलोगो । एवं काययोगि-चत्तारिक०-अचक्खु०-भवसि०-आहारि त्ति । लेश्यावाले जीव सब लोकमें पाये जाते हैं अतः इनमें उक्त प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श सब लोक बतलाया है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिवाले जीव लोकके असंख्यातवें भागमें पाये जाते हैं, क्षेत्र भी इतना ही है अतः इनका स्पर्श क्षेत्रके समान बतलाया है। तथा विकल्परूपसे कृष्णादि तीन लेश्याओंमें उपपाद पदकी अपेक्षा नौ नोकषायोंका स्पर्श जो कुछ कम तेरह बटे चौदह राजु कुछ कम ग्यारह बटे चौदह राजु और कुछ कम नौ बटे चौदह राजु बतलाया है वह क्रमसे नीचे छह, चार और दो राजु तथा ऊपर सात राजुकी अपेक्षा जानना चाहिये । कृष्णादि तीन लेश्यावालोंमें तियचोंकी बहुलता है, अतः इनमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका स्पर्श तिर्यचोंके समान बतलाया है । शेष मार्गणाओंका स्पर्श सुगम है।
___ इस प्रकार उत्कृष्ट स्पर्शनानुगम समाप्त हुआ। ६ ६३५. अब जघन्य स्पर्शनका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पश क्षेत्रके समान है। सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है । तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श अनुत्कृष्टके समान है। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिवाले जीवोंका स्पर्श अनुत्कृष्टके समान है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम पाठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने सब लोकका स्पर्श किया है। इसी प्रकार काययोगी, चारों कषायवाले, अचक्षुदर्शनवाले, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिवालोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अजघन्य स्थितिवालोंका क्षेत्र सब लोक है। स्पश भी इतना ही है, अतः इनके स्पर्शको क्षेत्रके समान बतलाया है। सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति यद्यपि चारों गतिके जीवोंके पाई जाती है फिर भी ऐसे जीव संख्यात ही होते हैं अतः इनका स्पर्श भी क्षेत्रके समान ही प्राप्त होता है । यही कारण है कि सम्यक्त्वकी अजघन्य स्थितिवालोंका स्पश अनुत्कृष्टके समान है यह स्पष्ट ही है। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका स्पर्श क्षेत्रक समान बतलाया है । अजघन्य स्थितिवालोंका स्पर्श अनुत्कृष्टके समान सब लोक है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थिति विसंयोजनाके समय प्राप्त होती है। अब यदि ऐसे जीवोंके वर्तमान स्पशका विचार किया जाता है तो वह लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है। यही कारण है कि यहां जघन्य स्थितिवालोंका स्पर्श उक्त प्रमाण कहा है । तथा ऐसे जीवोंका विहार आदि कुछ कम आठ बटे चौदह राजु प्रमाण क्षेत्र में पाया जाता है अतः अतीत कालीन स्पर्श उक्त प्रमाण कहा है। तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अजघन्य स्थितिवाले जीव सब लोकमें हैं, इसलिये उनका सब लोक स्पर्श बतलाना स्पष्ट ही है। कुछ मार्गणाएं भी ऐसी हैं जिनमें यह ओघ प्ररूपणा अविकल घटित हो जाती है अतः उनके कथनको ओधके समान कहा है।
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जयघवत्लासहिदे कसायपाहुडे
[हिती ३
९ ६३६. आदेसेण णेरइएसु सत्तावीसपयडी० ज० खेत्तभंगो | अज० अणुक्क • भंगो । सम्मामि० ज० अज० अणुक्क० भंगो । पढमाए खेत्तभंगो । विदियादि जाव सत्तमि त्ति छव्वीसपयडी० जह० खेत्तभंगो । अज० अणुक्क० भगो । सम्पत्त० -सम्मामि० ज० ज ० अणुक्क० भंगो ।
९ ६३७. तिरिक्ख • मिच्छत्त- बारसक० भय - दुर्गुछ० ज० ज० सव्वलोगो । अण्णो पाढो जह० खेत्तं पोसणं च लोग० संखेज्जदिभागो ति । सत्तणोक० अनंताणु ०चउक्क०–सम्मत्त० ज० अ० खेत्तभंगो । सम्मामि० ज० अज० अणुक्क० भंगो | वरि सम्मत्त • अज० अणुक्क भंगो । एवं काउ ० असंजद० एवं चेव । णवरि
३८०
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९६३६. प्रदेशकी अपेक्षा नारकियों में सत्ताईस प्रकृतियों की जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवों का स्पर्श क्षेत्र के समान है । तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श अनुत्कृष्टके समान है | सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श अनुत्कृष्टके समान है । पहली पृथिवीमें स्पर्श क्षेत्र के समान है । तथा दूसरीसे लेकर सातवीं तकके नारकियों में छब्बीस प्रकृतियों की जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श अनुत्कृष्टके समान है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श अनुत्कृष्टके समान है ।
विशेषार्थ – नारकियों में मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थिति उन जीवों के प्राप्त होती है जो असंज्ञी जीव अपनी जघन्य स्थितिके साथ नरकमें उत्पन्न होते हैं । सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि नारकियोंके होती है और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघम्य स्थिति विसंयोजना करनेवाले नारकियोंके होती है । अब यदि इनके स्पर्शका विचार किया जाता है तो वह लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है । क्षेत्र भी इतना ही हैं, अतः इनके स्पर्शको क्षेत्रके समान बतलाया है। उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिवालों का स्पर्श अनुत्कृष्टके समान है यह स्पष्ट ही है। जिनके सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता है उन सब नारकियों के सम्यग्मिथ्यात्व की अजघन्य स्थिति होती है । इसमें भी जो नारकी सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलनाके अन्तिम समयमें हैं उनके उसकी जघन्य स्थिति होती है । अब यदि इनके वर्तमान तथा कुछ पदों की अपेक्षा अतीत स्पर्शका विचार किया जाता है तो वह लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण प्राप्त होता है तथा मारणान्तिक और उपपाद पदकी अपेक्षा अतीत कालीन स्पर्श कुछ कम छह बटे चौदह राजु प्राप्त होता है । अनुत्कृष्टकी अपेक्षा भी स्पर्श इतना ही है, अतः यहां सम्यग्मिथ्यात्व की जघन्य और अजघन्य स्थितिवालोंका स्पर्शं अनुत्कृष्टके समान बतलाया है । सर्वत्र पहली पृथिवीका स्पर्श क्षेत्रके समान ही प्राप्त होता है अतः यहां पहली पृथिवीमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिवालोंका स्पर्श क्षेत्रके समान बतलाया है । द्वितीयादि पृथिवियोंमें भी इसी प्रकार जघन्यादि स्थितियों के स्वामियोंका विचार करके स्पर्श समझ लेना चाहिये ।
९ ६३७. तिर्यंचोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने सब लोकका स्पर्श किया है। यहां एक दूसरा पाठ है जिसके अनुसार उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका क्षेत्र और स्पर्शन लोकके संख्यातवें भागप्रमाण है। सात नाकषाय, अनन्तानुबन्धी चतुष्क और सम्यक्त्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है । तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवों का स्पर्श अनुत्कृष्टके समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वकी
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मा० २२ ]
ट्ठिदिविहत्तीए उत्तरपयडिट्ठिदिविहन्तियपोस
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मिच्छत्त० जह० सम्मत्तभंगो । किण्ह णील० तिरिक्खभंगो | णवरि सम्मत्त० सम्मामिच्छत्तभंगो । एवमोरालिय मिस्स०-मदि-सुदअण्णाण अभव० मिच्छादि ० - असण्णिति । वरि अनंताणु ० चक्क • मिच्छत्तभंगो | अभव० सम्मत्त ० - सम्मामि० णत्थि । ओरालियमिस्स० सम्म० तिरिक्खोघं ।
अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्परों अनुत्कृष्टके समान है । इसी प्रकार कापोतलेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिये । तथा इसी प्रकार असंयतोंके भी जानना चाहिये । किन्तु इनके इतनी विशेषता है कि मिध्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंके स्पर्शका भंग सम्यक्त्वके समान
| कृष्ण और नीललेश्यावालोंमें तिर्यंचों के समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है । इसी प्रकार औदारिकमिश्रकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग मिथ्यात्व के समान है । अभव्योंमें सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्व ये दो प्रकृतियां नहीं हैं । तथा औदारिक मिश्रकाययोगियों में सम्यक्त्वका भंग सामान्य तिर्यंचों के समान है ।
I
विशेषार्थ — तियँचों में मिध्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति बादर एकेन्द्रियों के होता है | वैसे तो बादर एकेन्द्रियोंका निवास लोकके संख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रमें ही है किन्तु मरणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा इनका स्पर्श सब लोक में पाया जाता है, इसलिये इनका सब लोक स्पर्श बतलाया हैं । तथा इनकी अजघन्य स्थितिवालोंका स्पर्श सब लोक है यह स्पष्ट ही है । वीरसेन स्वामीने यहां एक ऐसे पाठका उल्लेख किया है जिसके अनुसार तियेचोंमें उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिवालोंका क्षेत्र और स्पर्श लोकके संख्यातवें भाग प्रमाण प्राप्त होता है । अब यदि इस पाठके अनुसार विचार करते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि मारणान्तिक समुद्घातके समय जघन्य स्थिति नहीं होती होगी । सात नोकषाय, अनन्तानुबन्धी चतुष्क और सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके होती है । यद्यपि पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंका मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद पदकी अपेक्षा स्पर्श सब लोक है तो भी उक्त प्रकृतियों की जघन्य स्थिति के समय ये पद सम्भव नहीं इसलिये इनका स्पर्श क्षेत्रके समान बन जाता है । यद्यपि सम्यक्त्व प्रकृतिकी जघन्य स्थिति के समय उपपाद पद सम्भव है तो भी इससे स्पर्शमें अन्तर नहीं पड़ता, क्योंकि ऐसे जीव संख्यातही होते हैं । तथा इनकी अजघन्य स्थितिवालों का स्पश क्षेत्रके समान है इसका यह अभिप्राय है कि जिस प्रकार इनका क्षेत्र सब लोक है उसी प्रकार स्पर्श भी सब लोक है । किन्तु सम्यक्त्वकी अजघन्य स्थितिवालोंका स्पर्श लोकके असंख्यातवें भाग और सब लाक दोनों प्रकारका प्राप्त होता है। इसकी अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श भी ऐसा ही है । अतः सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिवालों का स्पर्श अनुत्कृष्टके समान कहा है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व की जघन्य और अजघन्य स्थितिवालोंका स्पश भी अनुत्कृष्टके समान घटित कर लेना चाहिये । कापोतलेश्यावाले और असंयतसम्यग्दृष्टियों के यह व्यवस्था बन जाती है अतः इनके कथनको उक्त प्रमाण कहा है। किन्तु असंयतोंके क्षायिकसम्यग्दर्शनकी प्राप्तिके समय मिध्यात्वकी भी क्षपणा होती है और इसलिये यहां मिध्यात्वकी ओघरूप जघन्य स्थिति बन जाती है । अब यदि ऐसे जीवोंके स्पर्शका विचार किया जाता है तो वह सम्यक्त्वको जघन्य स्थितिवालोंके समान लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही प्राप्त होता है, इसलिये असंयतों में मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिवालों का स्पर्श सम्यक्त्वके समान बतलाया है । कृष्ण और नील लेश्या में भी सब प्रकृतियोंकी जघन्य और जघन्य स्थितिवालोंका स्पर्श तिर्यंचोंके समान बन जाता है । किन्तु इन दोनों लेश्याओं में कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टियों की उत्पत्ति न
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ ६३८. पंचिंदियतिरिक्वतिए सत्तावीसं पयडीणं जह० लोग० असंखे०भागो। अज० लोग० असंखे भागो, सव्वलोगो वा । सम्मामि० जह० अज० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । णवरि जोणिणीसु सम्म० सम्मामिभंगो। पंचिंतिरि०अपज्ज-मणुसअपज्ज. जोणिणीभंगो । मणुसतिए पंचिं०तिरिक्खभंगो।
६६३६ देवेसु मिच्छ०-सम्म०-बारसक०-णवणोक० जह० खेत्तं, अज. होनेसे सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति एक समय प्रमाण नहीं प्राप्त होती और इसलिये सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिवालोंका जो स्पर्श पूर्वमें बतलाया है वही यहां सम्यक्त्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिवालोंका प्राप्त होता है। यही कारण है कि उक्त दोनों लेश्यात्रोंमें सम्यक्त्वके भंगको सम्यग्मिथ्यात्वके समान बतलाया है । औदारिकमिश्र आदि कुछ और मार्गणाएं हैं जिनमें उक्त व्यवस्था बन जाती है इसलिये उनके कथनको उक्त प्रमाण कहा है। किन्तु इन मागणाओंमें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना नहीं होती, अतः इनमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य और अजघन्य स्थितिवालोंका स्पर्श मिथ्यात्वके समान बतलाया है। अभव्य मार्गणामें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति नहीं होती, अतः इनका निषेध किया है । औदारिकमिश्रमें कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टियोंकी उत्पत्ति सम्भव है अतः इसमें सम्यक्त्वका भंग सामान्य तिथंचोंके समान बतलाया है।
___६६३८. पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त और पंचेन्द्रिययोनिमती इन तीन प्रकारके तिर्यंचोंमें सत्ताईस प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है । तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है । सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थिति विभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोक क्षेत्रका स्पश किया है। किन्त इतनी विशेषता है कि योनिमती तिर्यंचोंमें सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान हैं। पंचेन्द्रियतिथंचअपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें तिथंच योनिमती जीवोंके समान भंग है। सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान भंग है।। . विशेषार्थ-पंचेन्द्रिय तिर्यंचत्रिकमें सत्ताईस प्रकृतियों की जघन्य स्थितिके जो स्वामी बतलाये हैं उन्हें देखते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि इनका स्पर्श लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण ही प्राप्त होता है । अन्यत्र पचेन्द्रिय तिर्यंचत्रिकका स्पर्श लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण व सब लोक बतलाया है । अब यदि इनमें उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिवालोंके स्पर्शका विचार करते हैं तो वह उतना बन जाता है, इसलिये यहां इनके स्पशको उक्त प्रमाण बतलाया है। किन्तु उक्त तिर्यंचोंमें सम्यग्मिथ्यात्वकी जयन्य और अजघन्य स्थिति सब अवस्थाओंमें सम्भव है और इसलिये उक्त तिर्यंचोंका जो स्पर्श बतलाया है वह सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिकी अपेक्षा भी बन जाता है यही कारण है कि इनमें सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिवालोंका स्पर्श लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण व सब लोक बतलाया है। किन्तु योनिमती तिर्यंचोंमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होते, अतः इनमें सम्यक्त्वा भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान बतलाया है। पंचेन्द्रिय तिथंच अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंकी जो जघन्य और अजघन्य स्थितिके स्वामी बतलाये हैं उसे देखते हुए इनका स्पर्श योनिमतियोंके समान बन जाता है, इसलिये इनके भंगको योनिमतियोंके समान कहा है। मनुष्यत्रिकमें पंचेन्द्रियतिर्यंचोंके समान कहनेका भी यही तात्पर्य है ।
१६६३६. देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जवन्य स्थिति.
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गा० २२ ]
द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिविहत्तियपोरां
३८३
लोग० असंखे० भागो अह णव चोद्द० । सम्मामि० जह० अज० लोग० असंखे०भागो अट्ठ- णव चोद्द० । अणतारणु० चउक्क० जह० लोग असंखे० भागो श्रह चो६० । ज० लोग • असंखे ० भागो अह णव चोद० । एवं सोहम्मीसाण० ।
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$ ६४० भवण ० - वाणवेंतर० - जोदिसि० मिच्छ० - बारसक० णवणोक० जह० लोग. असंखे ० भागो । सव्वेसिमज० सम्म० सम्मामि० ज० ज० लोगस्स असंखे ०भागो अह अह - णव चो६० । अनंताणु ० ४ जह० अधुह अट्ठ चोह ० | सक्कुमारादि जाव सहस्सार ति मिच्छ० सम्म० -वारसक० - ० -णवणोक० ० जह० लोग० संखे ० भागो | सव्वेसिमज० सम्मामि० - प्रणतारणु० जह० ज० लोग० असंखे० भागो चोस० । आणदादि अच्चुदा त्ति मिच्छ० सम्म० - बारसक० णवणोक० जह० लोग० असंखे०भागो । सव्वेसिमजह० सम्मामि० - अनंताणु ०४ जह० अज० लोग ० असंखे० भागो छ चोह ० । उवरि खेत्तभंगो । एवं वेउव्वियमिस्स ० - आहार - आहारमि०बिभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है। तथा अजवन्य स्थितिवभक्तिवाले जीवोंने लोकके श्रसंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ और कुछ कम नौ भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है । सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागों मेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम नौ भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । तथा अन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ और कुछ कम नौ भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार सौधर्म और ऐशान कल्पके देवोंमें जानना चाहिये ।
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६४०, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें मिथ्यात्व बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा सभी प्रकृतियों की अजघन्य तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग, त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम साढ़े तीन, कुछ कम आठ और कुछ कम नौ भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम साढ़े तीन और कुछ कम आठ भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । सानत्कुमारसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवों में मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, बारह कषाय और नौ नोकषायों की जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा सभी प्रकृतियोंकी अजघन्य और सम्यग्मिध्यात्व तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके
संख्यातवें भाग और सनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । आसे लेकर अच्युत कल्पतकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, बारह कषाय और नौ नोकषायों की जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । तथा उक्त सब प्रकृतियोंकी अजघन्य और सम्यग्मिथ्यात्व तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सनालीके चौदह भागों में से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसके आगे देवोंमें क्षेत्रके
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गयधवलासहिदेकसायपाहुडे . [डिदिविहत्ती ३ अवगद०-अकसाय०-मणपज्ज-संजद०-सामाइय-छेदो०-परिहार०- सुहुम०-जहाक्खादसंजदे त्ति ।
६४१. एइदिएमु मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० ज० अज० सव्वलोगो। सम्मत्त-सम्मामि० ज० अज० अणुक्कस्सभंगो । एवं पुढवि०-बादरपुढवि०-बादरपुढविअपज्ज०-मुहुमपुढवि०-सुहुमपुढविपज्जत्तापज्जत्त-आउ०-बादराउ०-बादराउअपज्ज०सुहुमाउ०-सुहुमाउपज्जत्तापज्जत्त-तेउ० - बादरतेउ०-बादरतेउअपज्ज०-सुहुमतेउ०सुहुमतेउपज्जत्तापज्जत्त-वाउ० - बादरवाउ०-बादरवाउअपज्ज-सुहुमवाउ०-मुहुमवाउपज्जत्तापज्जत्त-बादरवणप्फदिपत्तेयअपज्ज०-वणप्फदि-णिगोद० - बादरवणप्फदि०समान भंग है । इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदवाले, अकषायी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, नौ नोकषाय और सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति किसी खास अवस्थामें ही प्राप्त होती है और सबके सम्भव नहीं अतः इनकी जघन्य स्थितिवालोंका स्पर्श क्षेत्रके समान ही प्राप्त होता है और इसलिये इसे क्षेत्रके समान बतलाया है। परन्तु अजघन्य स्थितिके लिये ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं है अतः उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिवालोंका वही स्पर्श प्राप्त हो जाता है जो सामान्य देवोंका बतलाया है। यही बात सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिवालोंके लिये समझ लेना चाहिये । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थिति विसंयोजनाके समय होती है पर ऐसे समय एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात सम्भव नहीं अतः इनकी जघन्य स्थितिवालोंका स्पर्श लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और कुछ कम आठ बटे चौदह राजु बतलाया है। तथा अजघन्य स्थितिवालोंका स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, कुछ कम आठ बटे चौदह राजु और कुछ कम नौ बटे चौदह राजु बतलाया है। यह सामान्य देवोंमें स्पर्श हुआ। इसी प्रकार देवोंके प्रत्येक भेदमें अपनी अपनी विशेषताको जान कर स्पर्श जान लेना चाहिये । कहां कितना स्पर्श है इसका निर्देश मूलमें किया ही है। कोई विशेषता न होनेसे उसका खुलासा नहीं किया है। हां भवनत्रिकमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होते अतः उनमें सम्यक्त्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिवालोंका स्पर्श सम्यग्मिथ्यात्वके समान बतलाया है । यहां 'एवं' कह कर जो वैक्रियिकमिश्र आदिमें स्पर्शका निर्देश किया है सो उसका यह मतलब है कि जिस प्रकार नौ ग्रैवेयक आदिमें स्पर्श क्षेत्रके समान है उसी प्रकार इन वैक्रियिकमिश्र आदि मार्गेणाओंमें अपने अपने क्षेत्रके समान स्पर्श जानना चाहिये।
६४१. एकेन्द्रियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने सब लोकका स्पर्श किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य
और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंके स्पर्शका भंग अनुत्कृष्टके समान है। इसी प्रकार पृथिवीकायिक, बादरपृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्मपृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादरजलकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिकअपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्य वायुकायिक अपर्याप्त, बादर वनस्पति
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गा० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिविदिविहत्तियपोसण
३८५ बादरवणप्फदिपज्जत्तापज्जत्त-मुहुमवणप्फदि-मुहुमवणप्फदिपज्जत्तापज्जत्त-कम्मइयअणाहारि त्ति । णवरि कम्मइय०-अणाहारीसु सम्मत्तस्स तिरिक्खोघं । सबविगलिंदियपंचिंदियअपज्ज-०तसअपज्ज. पंचिंदियतिरिक्खअपजत्तभंगो । बादरपुढविपज्ज.. बादराउपज्ज०-यादरतेउपज --बादरवाउपज्ज --बादरवणप्फदिपत्तेयसरीरपज्ज०तसअपज्जत्तभंगो । णवरि बादरवाउपज. छव्वीसपय० ज० अज० लोग० संखे०भागो सव्वलोगो वा ।
६६४२. पंचिंदिय-पंचिं०पज्ज० तेवीसपयडी० ज० खेत्तं, अज० अणुक्क भंगो। सम्मामि० ओघं । अणंताणु० चउक्क० ज० देवोघं । अज० अणुक्क भंगो । एवं तसकायिक प्रत्येक शरीर, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक, सभीनिगोद, बादर वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि कार्मणकाययोगी
और अनाहारकोंमें सम्यक्त्वका भंग सामान्य तियचोंके समान है। सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और उस अपर्याप्त जीवोंमें पंचेन्द्रिय तिथंच अपर्याप्तकोंके समान भंग है । बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त
और बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर पर्याप्त जीवों में बस अपर्याप्त जीवोंके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके संख्यातवें भाग और सब लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है।
विशेषार्थ-एकेन्द्रियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिवाले जीव सर्वत्र पाये जाते हैं इसलिये इनका स्पर्श सब लोक बतलाया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिवालोंका स्पर्श अनुत्कृष्टके समान है सो इसका खुलासा जिस प्रकार पहले कर आये हैं उसी प्रकार यहां भी कर लेना चाहिये। पृथिवीकायिक आदि मागणाओंमें एकेन्द्रियोंके समान स्पर्श बन जाता है, इसलिये उनके कथनको एकेन्द्रियोंके समान कहा है। किन्तु कामणकायोगी और अनाहारकोंमें कृ कृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव भी उत्पन्न होते हैं अतः उनमें सम्यक्त्वका स्पर्श सामान्य तिथंचोंके समान बन जाता है। पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिवालोंके कारण स्पर्शमें जो विशेषता प्राप्त होती है वही विशेषता सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और त्रस अपर्याप्त जीवोंमें भी प्राप्त होती है इसलिये यहां इनके स्पर्शको पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंके समान बतलाया है । इसी प्रकार बादर पृथिवी पर्याप्त आदिमें सब प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य स्थितिवालोंके स्पर्शको त्रस अपर्याप्तकोंके समान बतलानेका कारण जान लेना चाहिये। किन्तु बादर वायुकायिक पर्याप्तकोंका स्पर्श लोकके संख्यातवें भागप्रमाण व सब लोक होनेसे इनमें छब्बीस प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिवालोंका स्पशे उक्त प्रमाण बतलाया है।
६६४२. पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रियपर्याप्त जीवोंमें तेईस प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है । तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिका भंग अनुत्कृष्टके समान है। सम्यग्मिथ्यात्वका भंग श्रोधके समान है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श सामान्य देवोंके समान है । तथा अजघन्य स्थितिका भंग अनुत्कृष्टके समान है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ तसपज०-पंचमण-पंचवचि०-इत्थि-पुरिस०-चक्खु०-सण्णि त्ति ।
६६४३. वेउब्विय० बावीसपयडी० ज० खेत्त, अज० अणुक्क भंगो । सम्मत्तसम्मामि० ज० अज० अणुक्क० भंगो । अणंताणु०चउक्क० ज० अह चो०, अज. अणुक्कभंगो। ओरालिय०-णवुस० ओघं । णवरि अणंताणु०चउक्क० ज० तिरिक्खोघं ।
६४४. विहंग० छब्बीसं पयडी० ज० खेत्तभंगो, अज० अणुक्क भंगो । सम्मत्त०-सम्मामि० अणुक्कभंगो। आभिणि-सुद०-ओहि०-अोहिदंस-सम्मादिवेदय० सव्वपय० जह• पंचिंदियभंगो । णवरि सम्मामि० सम्मत्तभंगो । अज० अणुक०भंगो । संजदासंजद० सव्वपयडी० जह० खेत्तभंगो। अजह० अणुक्कभंगो ।
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इसी प्रकार त्रस, सपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, स्त्रीवेदवाले, पुरुषवेदवाले, चक्षुदर्शनवाले और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें तेईस प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति क्षपणाके समय प्राप्त होती है, इसलिये इनका स्पर्श क्षेत्रके समान प्राप्त होता है। यही कारण है कि यहां स्पर्शको क्षेत्र के समान कहा है। अजघन्य स्थिति सर्वत्र सम्भव है अतः इनका स्पर्श अनुत्कृष्टके समान बतलाया है। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिवालोंका जो ओघ स्पर्श बतलाया है वह उक्त मार्गणाओंमें भी सम्भव है, अतः इनके स्पर्शको ओघके समान कहा है। उक्त मार्गणाओं में अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य स्थितिवालोंमें देवोंकी प्रमुखता है अतः इनके स्पर्शको सामान्य देवोके समान बतलाया है। तथा अजघन्य स्थितिवालोंका स्पर्श अनुत्कृष्टके समान बन जाता है, अतः इसे अनुत्कृष्टके समान बतलाया है । त्रसकायिक आदि मार्गणोंमें उक्त व्यवस्था बन जाती है, अतः उनके कथनको उक्त प्रमाण कहा है।
६६४३. वैक्रियिककाययोगियोंमें बाईस प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है। तथा अजघन्य स्थितिका भंग अनुत्कृष्टके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिका भंग अनुत्कृष्टके समान है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने बसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम
आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिका भंग अनुत्कृष्टके समान है औदारिककाययोगी और नपुसकवेदवालोंमें ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्तिवा जीवोंका स्पर्श सामान्य तियचोंके समान है।
६६४४. विभंगज्ञानियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिका भंग अनुत्कृष्टके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग अनुत्कृष्टके समान है। आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, अवधिदर्शनवाले, सम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श पंचेन्द्रियों के समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यात्वका भंग सम्यक्त्वके समान है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिका भंग अनुत्कृष्टके समान है। संयतासंयतोंमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिका भंग अनुत्कृष्टके समान है।
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गा०२२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तियकालो
३८७ १६४५. तेउ०-पम्म० तेवीसपयडि० जह० खेत्तभंगो, अज० अणुक्क भंगो। सम्मामि० ज० अज० अणुक्क भंगो। अणंताणु० चउक्क० ज० पंचिं०भंगो, अज० अणुक्क भंगो। सुक्क० तेवीसपयडी० ज० खेत्तभंगो । अज० अणुभंगो । सम्मामि०अणताण चउक्क० ज० अज० आणदभंगो ।
६४६. खइय० सव्वपयडी० ज० खेत्तभंगो । अज० अणुभंगो । उवसम० चउवीसपयडी० ज० खेत्तभंगो, अज० अणुक्क० भंगो । अणंताणु०चउक्क० ज० अज० अह चोइस० । सम्मामि०-सासणसम्मा० उवसमभंगो ।
एवं पोसणाणुगमो समत्तो । ॐ जधा उक्कस्सहिदिबंधे णाणाजीवेहि कालो तथा उक्कस्सहिदिसंतकम्मेण कायव्वो।
६४७. उक्कस्सहिदिबंधे जहा णाणाजीवेहि कालो परूविदो तहा उक्कस्सहिदिसंतकम्मस्स वि परूवेयन्यो । तं जहा–छव्वीसपयडीणमुक्कस्सद्विदिसंतकम्मिया केवचिरं कालादो होंति ? जह० एगसमो; एगसमयमुक्कस्सहिदि बंधिय विदिसमए
६६४५. पीत और पद्मलेश्यावाले जीवोंमें तेईस प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका भंग अनुत्कृष्टके समान है । सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका भंग अनुत्कृष्टके समान है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका भंग पंचेन्द्रियोंके समान है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका भंग अनुत्कृष्टके समान है। शक्ललश्यावालोंमें तेईस प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पश क्षेत्रके समान है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका भंग अनुत्कृष्टके समान है। सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका भंग आनतकल्पके समान है।
६६४६. क्षायिक सम्यग्दृष्टियोंमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श अनुत्कृष्टके समान है । उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें चौबीस प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श क्षेत्रके समान है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्श अनुत्कृष्टके समान है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने प्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। सम्यग्मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंमें उपशम सम्यग्दृष्टि जीवोंके समान भंग है।
इस प्रकार स्पर्शनानुगम समाप्त हुआ। * जिस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिबन्धमें नाना जीवोंकी अपेक्षा काल कहा है उसी प्रकार उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मकी अपेक्षा कालका कथन करना चाहिये।
६६४७. उत्कृष्ट स्थितिबन्धमें जिस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा कालका कथन किया है उसी प्रकार उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मका भी काल कहना चाहिये। जो इस प्रकार है-छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मवाले जीवोंका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है, क्योंकि एक समय तक उत्कृष्ट स्थितिका बांधकर दूसरे समयमें उन सब जीवोंके अनुत्कृष्ट स्थितिसत्त्वको
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३८५ गयधवलासहिदे कसायपाहुडै
[ हिदिविहत्ती ३ अणुक्कस्सहिदिसंतं सबजीवेसु उवगएमु तिहुवणासेसजीवाणमेगसमयं चेव उक्कस्सद्विदिदसणादो । उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। एकस्स जीवस्स जदि उक्कस्सहिदिकालो अंतोमहुत्तमेत्तो लब्भदि तो आवलियाए असंखे०भागमेत्तजीवाणं किं लभामो त्ति फलगुणिदिच्छाए पमाणेणोवट्टिदाए असंखेजावलियमेत्तुक्कस्सहिदिसंतकालुवलंभादो । अणुक्कस्सहिदिसंतकम्मिया केवचिरं कालादो होंति ? णाणाजीवे पडुच्च सव्वद्धा । कुदो ? तिसु वि कालेसु अणुक्कस्सहिदिसंतकम्मियजीवाणं संभवादो।
* णवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्सहिदी जहणणेण एगसमत्रो।
६४८. कुदो ? उक्कस्सहिदिसंतकम्पियमिच्छादिहिणा मोहटावीससंतकम्मिएण वेदगसम्म पडिवण्णपढमसमए चेव मिच्छत्तक्कस्सहिदीए सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तेसु संकामिदाए एगसमयं चेव उक्कस्सहिदिकालुवलंभादो । उक्कस्सहिदिसंतकम्मियमिच्छादिही सम्मामिच्छ किण्ण णीदो ? ण, तत्थ दंसणमोहणीयस्स संकमाभावेण सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्सहिदीए करणुवायाभावादो ।
* उकस्सेण आवलियाए असंखेजदिभागो । प्राप्त होने पर तीन लोकके सब जीवोंके एक समय तक ही उत्कृष्ट स्थिति देखी जाती है। तथा उत्कष्टकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि एक जीवके उत्कृष्ट स्थितिका काल यदि अन्तमुहूर्त है तो आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण जीवोंके कितना काल प्राप्त होगा इस प्रकार त्रैराशिक करके इच्छाराशिको फलराशिसे गुणित करके जो लब्ध आवे उसमें प्रमाणराशिका भाग देने पर असंख्यात श्रावलिप्रमाण काल तक उत्कृष्ट स्थितिका सत्त्व पाया जाता है । अनुत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मवाले जीवोंका कितना काल है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा सब काल है, क्योंकि तीनों ही कालों में अनुत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मवाले जीवोंका पाया जाना संभव है ।
* किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय है।
६६४८. शंका-इन दोनों प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्यकाल एक समय क्यों है ?
समाधान-जिसके मोहनीयकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता है ऐसा कोई एक उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मवाला मिथ्यादृष्टि जीव वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त होनेके पहले समयमें ही मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रमण कर देता है, अतः उसके एक समय काल तक उत्कृष्ट स्थिति पाई जाती है। अतः इन दोनों प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय है।
शंका-उत्कृष्ट स्थिति सत्कर्मवाला मिथ्यादृष्टि जीव सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानको क्यों नहीं प्राप्त कराया गया ?
समाधान-नहीं, क्योंकि सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें दर्शनमोहनीयका संक्रमण नहीं होनेसे वहाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति नहीं प्राप्त की जा सकती है।
* तथा उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है।
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गा० २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिडिदिविहत्तियकालो
३४ ___६४६. कुदो ? उक्कस्सहिदिसंतकम्मियमिच्छाइट्टीणं गिरंतरं वेदयसम्मत्तं पडिवजंताणमावलियाए असंखेजदिभागमेत्तुवक्कमणकालुवलंभदंसणादो। एवं जइवसहाइरियसुत्तपरूवणं करिय एदेण चेव सुशेण देसामासिएण सूचिदत्थाणमुच्चारणाइरियपरूविदवक्खाणं भणिस्सामो।
६५०. कालो दुविहो—जहण्णो उक्कस्सो चेदि । तत्थ उक्कस्सए पयदं। दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ अोघेण छव्वीसपयडी० उक्क० केव० ? ज० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । अणुक्क० सव्वद्धा। सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० के० ? जह० एगसमो, उक्क० श्रावलि० असंखे०भागो । अणुक्क० के० ? सव्वद्धा। एवं सव्वणिरय-तिरिक्ख-पंचिंतिरि०तिय-देव०-भवणादि जाव सहस्सार०पंचिंदिय-पंचिं०पज्ज०-तस-तसपज्ज०-पंचमण०-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालि०-वेउवि०-तिण्णिवेद-चत्तारिकसाय-मदि०-सुदअण्णाण-विहंग०-असंजद ०-चक्खु०-अचक्खु. पंचले०-भवसि०-अभवसि०-मिच्छादिहि-सण्णि-आहारि त्ति । णवरि अभव० सम्म-सम्मामि० णस्थि ।
६६४६. शंका-उक्त दोनों प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल आवलीका असंख्यातवां भाग क्यों है ?
समाधान-यदि उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मवाले मिथ्यादृष्टि जीव निरन्तर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हों तो वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त होनेका काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही देखा जाता है । अतः उक्त दोनों प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका काल भी आवलीका असंख्यातवां भाग प्राप्त होता है।
_इस प्रकार यतिवृषभ आचार्यके सूत्रका कथन करके अब देशामर्षक रूपसे इसी सूत्रके द्वारा सूचित हुए अर्थका उच्चारणाचार्यने जो व्याख्यान किया है उसे कहते हैं -
६५०. काल दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । प्रकृतमें उत्कृष्टसे प्रयोजन है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघकी अपेक्षा छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका काल कितना है ? जघन्य एक समय और उत्कृष्ट पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका काल सर्वदा है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका काल कितना है ? जघन्य एक समय और उत्कृष्ट आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका काल कितना है ? सर्वदा है । इसी प्रकार सब नारकी, सामान्य तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमती, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रस पर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी काययोगी, औदारिककाययोगी, वैक्रियककाययोगी, तीनों वेदवाले, चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, असंयत, चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, कृष्णादि पांच लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि अभव्योंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये दो प्रकृतियां नहीं है ।
विशेषार्थ-ओघसे नाना जीवोंकी अपेक्षा सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुस्कृष्ट
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जमधवल सहिदे कसायपाहुडे
[ हिदिविहत्ती
$६५१. पंचि०तिरिक्ख० अपज्ज० सव्वपयडीणमुक्क० के० ? जह० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे ० भागो । अणुक्क० सव्वद्धा । एवं सव्वेइंदिय सव्वविगलिंदियपंचि ० अपज्ज०- पंचकाय ० - बादर सुहुमपज्जत्तापज्जत्त-तस अपज्ज०० - ओरालिय मिस्सकायजोगि त्ति । णवरि जत्थ देवाणमुववादो तत्थ णवणोकसाय उक्क० श्रघमंगो ।
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स्थितियों के कालका खुलासा चूर्णिसूत्रों की टीका करते हुए स्वयं वीरसेन स्वामीने किया ही है। अतः यहां उसे पुनः नहीं दुहराया गया है । इसी प्रकार सब नारकी आदि असंख्यात और अनन्त संख्यावाली कुछ ऐसी मार्गणाएं हैं जिनमें ओघके समान उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति तथा उनका जघन्य और उत्कृष्ट काल बन जाता है, अतः उनके कथनको ओघ के समान कहा । किन्तु इतनी विशेषता है कि अभव्योंके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका सत्त्व नहीं पाया जाता, अतः उनके उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति तथा उनके जघन्य और उत्कृष्ट कालका कथन नहीं करना चाहिये ।
§ ६५१. पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकों में सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवों का कितना काल है ? जघन्य एक समय और उत्कृष्ट आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । तथा अनुत्कृष्टस्थितिविभक्तिवाले जीवोंका काल सवंदा है। इसी प्रकार सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, पांचों स्थावर काय तथा उनके बादर और सूक्ष्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्त, त्रस अपर्याप्त और औदारिक मिश्र काययोगी जीवोंके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि जहां देवोंका उपपाद है वहां नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका काल ओघके समान है ।
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विशेषार्थ — पहले ओघसे उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय बतला आये हैं अब यदि घसे उत्कृष्ट स्थितिवाले ये जीव पंचेन्द्रिय तिर्यच लब्ध्यपर्याप्तकों में उत्पन्न हों तो उनके भी आदेश उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय ही पाया जायगा, क्योंकि द्वितीयादि समयों में उत्कृष्ट स्थितिवाले जीवोंका अभाव हो जानेसे पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकों में भी आदेश उत्कृष्ट स्थितिवाले जीव सम्भव नहीं, अतः पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकों में उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय कहा । तथा इनमें उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है जो इस प्रकारसे प्राप्त होता है - घसे उत्कृष्ट स्थितिके उत्कृष्ट कालका कथन करते हुए बताया है कि नाना जीव निरन्तर यदि उत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त करते रहें तो आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक ही जीव उत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त होंगे तथा उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अब यदि जीवोंकी संख्यासे काल के प्रमाणको गुणित कर दिया जाता है तो उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रेमाण प्राप्त होता है । किन्तु ऐसे rtain यदि पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकों में क्रमसे उत्पन्न कराया जाय तो उनमें एक एक अन्तर्मुहूर्त के बाद ही उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होगी, क्योंकि अन्तर्मुहूर्तं तक उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर जो जीव पंचेन्द्रिय तिर्येच लब्ध्यपर्याप्तकों में उत्पन्न होते हैं उनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धकालके अन्तिम समय में बंधी हुई स्थिति ही उत्कृष्ट हो सकती है इसके अतिरिक्त और सब स्थितियां अनुत्कृष्ट हो जायंगी, क्योंकि उत्कृष्ट स्थितिबन्धके कालके अन्तिम समयमें बंधी हुई स्थिति कालसे उनका काल एक समय, दो समय आदि रूपसे और कम हो जाता है, अतः पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकों में निरन्तर ऐसे आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण जीवोंको उत्पन्न कराना चाहिये जिन्होंने क्रम से एक एक समय तक निरन्तर उत्कृष्ट स्थितिबन्ध किया हो । इस प्रकार
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गा० २२] हिदिविहन्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तियंकालो
३६१ ६६५२. मणुसतिय० छव्वीसपयडी० उक्क० ज० एगसमओ, उक्क० अंतोमु०। अणुक्क० सव्वद्धा । सम्म०-सम्मामि० उक्क० ज० [एगस०], उक्क० संखेज्जा समया । अणुक्क० सव्वद्धा । मणुसअपज्ज. सव्वपयडी० उक्क० ज० एगसमो, उक्क० आवलि० असंखे०भागो। अणुक्क० ज० खुद्दाभवग्गहणं समयूणं, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। णवरि समत्त-सम्मामि० अणुक्क० ज० एगस० । एवं वेउब्वियमिस्स। णवरि छन्चीसपयडी. अणक्क० ज० अंतोमु० । णवणोक० उक्क० ओघं । एवमवपंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें उत्कृष्ट स्थितिका काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है अतः इनके उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा। तथा इनमें अनुत्कृष्ट स्थितिका काल सर्वदा है यह स्पष्ट ही है, क्योंकि यह निरन्तर भार्गणा है, अत: इसमें सर्वदा अनुत्कृष्ट स्थितिवाले जीव पाये जाते हैं। सब एकेन्द्रिय आदि और जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें भी यह व्यवस्था बन जाती है अतः उनके सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके जघन्य और उत्कृष्ट कालको पंचेन्द्रिय तिथंच लब्ध्यपर्याप्तकोंके समान कहा । किन्तु जिन मार्गणाओंमें देव उत्पन्न हो सकते हैं उनमें नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिके उत्कृष्ट कालमें कुछ विशेषता है। बात यह है कि उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेके दूसरे समयमें ही मर कर देव एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हो सकते हैं और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति संक्रमणसे प्राप्त होती है जो बन्धावलीके बाद ही होता है। अब यदि एक एक आवलीके अन्तरालसे एक एकके क्रमसे श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण देव सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका एक एक आवलि तक निरन्तर बन्ध करें और उत्कृष्ट स्थिति बन्धके दूसरे समयमें वे मर कर उसी क्रमसे एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते जायं तो एकेन्द्रियोंमें नौ नोकषायोंका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है, क्योंकि ऐसे देवोंमें प्रत्येकके एक एक आवलितक नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति पाई जायगी। जिन मार्गणाओंमें नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका यह काल सम्भव है वे मार्गणाएं ये हैं-एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, जलकायिक बादर जलकायिक, बादर जलकायिक पर्याप्त, प्रत्येक वनस्पतिकायिक, प्रत्येक वनस्पतिकायिक पर्याप्त । किन्तु इतना विशेष जानना चाहिए कि अोघमें अन्तर्मुहूर्तको आवलीके असंख्यातवें भागसे गुणा करके पल्यका असंख्यातवां भाग काल प्राप्त किया गया था पर यहां आवलिको आवलिके असंख्यातवें भागसे गुणा करके पल्यका असंख्यातवां भाग काल प्राप्त करना चाहिये।
६६५२. सामान्य, पर्याप्त और मनुष्यनी इन तीन प्रकारके मनुष्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मह अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका काल सर्वदा है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्टस्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। तथा अनत्कृष्ट स्थि विभक्तिवाले जीवोंका काल सर्वदा है। मनष्य अपर्याप्तकोंमें सब प्रक्रतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवा जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय कम खुद्दाभवग्रहण प्रमाण और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है । इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी जीवोंके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि छब्बीस प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट
तथा
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे .. [द्विदिविहत्ती ३ सम०-सासण-सम्मामि । णवरि णवणोक० उक्क० अोघं णत्थि । सम्म०-सम्मामि० अणक्क० जह० अंतोमु० । सासण० सव्वपय० अणु० जह० एयस०, उक्क० तं चेव । स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । तथा नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तवाले जीवोंका काल ओघके समान है । इसी प्रकार उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि
और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका काल ओघके समान नहीं है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । तथा सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल वही पूर्वोक्त है।
विशेषार्थ—जब कि ओघसे छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय है तो मनुष्यत्रिकमें इससे अधिक कैसे हो सकता है। पर उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि ओघ उत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त होनेवाले सामान्य मनुष्योंका प्रमाण संख्यात है तथा मनष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंका प्रमाण तो संख्यात है ही। अब यदि एक समयमें प्राप्त होनेवाली मनुष्योंके उत्कृष्ट स्थितिका काल अन्तर्मुहूर्त मान लें और एक के बाद दूसरा इस प्रकार निरन्तररूपसे संख्यात मनुष्योंके उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त कराई जाय तो भी उस सब कालका जोड़ अन्तर्मुहूर्त ही होगा । यही कारण है कि मनुष्यत्रिकके उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा। तथा एक जीवकी अपेक्षा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय बतला आये हैं। अब यदि संख्यात जीव लगातार उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त हों तो उनके कालका जोड़ संख्यात समय ही होगा, अतः मनुष्यत्रिकके उक्त दो प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा । इन दो प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय स्पष्ट ही है। तथा इनके सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका काल सर्वदा है यह भी स्पष्ट है, क्योंकि ये निरन्तर मार्गणाएं हैं इसलिये इनमें सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिवाले जीव सर्वदा पाये जाते हैं। लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंका प्रमाण असंख्यात है और उनमें आदेश उत्कृष्ट स्थिति होती है, अतः उनके पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकोंके समान सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण बन जाता है । तथा यह मार्गणा सान्तर है अतः इनमें अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय कम खुद्दाभवग्रहण प्रमाण और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण भी बन जाता है। जघन्य कालमेंसे एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षासे किया है । तथा उद्वेलनाकी अपेक्षा इनके सम्यक्त्व
और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है। वैक्रियिकमिश्रकाययोग मार्गणा सान्तर है, अतः इसमें भी लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यों के समान सब कर्मोंकी जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिका काल जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इस मार्गणाका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है अतः इसमें छब्बीस प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होगा । तथा इसमें प्रत्येक जीवके नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल एक आवलिप्रमाण प्राप्त हा सकता है, अतः नाना जीवों की अपेक्षा यहां भी नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल ओघके समान पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण बन जाता है। इसका विशेष खुलासा इसी प्रकरणमें एकेन्द्रियोंकी प्ररूपणाके समय कर आये हैं अत: वहांसे जान लेना चाहिये। उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि ये तीन मार्गणाएँ भी सान्तर हैं, अतः इनमें भी सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका काल वैक्रियिकमिश्रकाययोगके समान कहा ।
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गा० २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तियकालो
३६३ ६५३. आणदादि जाव उवरिमगेवज्जो त्ति सव्वपयडी० उक्क० ज० एगस०, उक्क० संखेज्जा समया । अणुक्क० सव्वद्धा । एवमणुदिसादि जाव सव्वदृसिद्धि त्ति । एवं खइयसम्मादिहीणं । आहार० सव्वपय० उक्क० ज० एगसमओ, उक्क० संखेज्जा समया । अणुक्क० ज० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । एवमवगद०-अकसा-मुहुमसांपराय०-जहाक्खादसंजदे त्ति । एवमाहारमिस्स० । णवरि अणुक० ज० अंतोमु० । कम्मइय. एइंदियभंगो । णवरि सम्मत्त०सम्मामि० अणुक्क. सत्तणोक० उक्क० ज० एगसमओ, उक्क० आवलि० असंखे०भागो । एवमणाहारीणं । आभिणि-सुद०
ओहि० सव्वपयडी० उक्क० ज० एगसमओ, उक्क० आवलि० असंखे०भागो । अणुक्क० सव्वदा । एवं संजदासंजद-अोहिदंस-सुक्क०-सम्मादिहि-वेदय दिहि त्ति । मणपज्ज. सव्वपयडी० सव्वहभंगो। एवं संजद०-सामाइय-छेदो०-परिहारकिन्तु इसका कुछ अपवाद है। बात यह है कि इन तीनों मार्गणाओंमें एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है, अतः यहां इनके उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल ओघके समान न प्राप्त हाकर आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्ता होगा। और इन मार्गणाओं में सम्यक्त्व तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना नहीं होती है अतः यहां इन दोनों प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय न प्राप्त होकर अन्तर्मुहूर्त प्रात होगा। किन्तु सासादन गुणस्थानका जघन्य काल एक समय है, अतः इसमें सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय ही प्राप्त होगा।
६६५३. आनत कल्पसे लेकर उपरिमौवेयक तकके देवोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका काल सर्वदा है। इसी प्रकार अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंके जानना चाहिये। तथा इसी प्रकार क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । श्राहारककाययोगियों में सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार अपगतवेदवाले, अकषायी, सूक्ष्मसांपरायिक संयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिये। तथा इसी प्रकार आहारकमिश्रकाययोगियोंके जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । कार्मणकाययोगियों में एकेन्द्रियोंके समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थिातविभक्तिवाले जीवोंका
और सात नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार अनाहारक जीवोंके जानना चाहिए। आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका काल सर्वदा है। इसी प्रकार संयतासंयत, अवधिदर्शनवाले, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । मनःपर्ययज्ञानियोंमें सब प्रकृतियोंकी अपेक्षा सर्वार्थसिद्धिके समान भंग है। इसी प्रकार संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत और परिहारविशुद्धिसंयत जीवोंके जानना चाहिये । असंज्ञियोंमें एकेन्द्रियोंके समान
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३६४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[हिदिविहत्ती ३ संजदे ति । [ असण्णि० एइंदियभंगो।]
एवमुक्कस्सओ कालाणुगमो समत्तो । ॐ जहण्णए पयदं । मिच्छत्त-सम्मत्त-बारसकसाय-तिवेदाणं जहणणहिदिविहत्तिएहि णाणाजीवेहि कालो केवडिअो ?
६६५४. णाणाजीवेहि जहण्णहिदिविहत्तिएहि छट्ठीए अत्थे तइया दहव्वा । अहवा कत्तारम्मि तइया घेत्तव्वा ; जहण्णहिदिविहत्तिएहि केवडिओ कालो लद्धो त्ति पदसंबंधादो । सेसं सुगमं ।
ॐ जहरणेण एगसमभो। जानना चाहिये।
विशेषार्थ आनतादि चार कल्पोंमें यद्यपि तिथंच भी मर कर उत्पन्न होते हैं किन्तु उनके उत्कृष्ट स्थिति नहीं पाई जाती, अतः जो द्रब्यलिंगी मनुष्य मर कर आनतादिकमें उत्पन्न होते हैं उन्हींके पहले समयमें उत्कृष्ट स्थिति पाई जाती है, पर लगातार उत्पन्न होनेवाले इन जीवोंका प्रमाण संख्यात ही होगा, क्योंकि ऐसे मनुष्य ही संख्यात हैं, अतः इनके सब प्रकृतियोंकी उत्कष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा। तथा अनुदिशादिकमें
और क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय होता है यह स्पष्ट ही है। यदि एक साथ अनेक जीवोंने आहारककाययोग किया और उनके उत्कृष्ट स्थिति हुई तो आहारक काययोगमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य काल एक समय पाया जाता है और यदि नाना मनुष्य प्रत्येक समयमें उत्कृष्ट स्थितिके साथ आहारक काययोगको प्राप्त होते रहे तो आहारककाययोगमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल संख्यात समय पाया जाता है। तथा आहारककाययोगके जघन्य और उत्कृष्ट कालकी अपेक्षा इसमें अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्यकाल एक समय और उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त पाया जाता है । अपगतवेदी, अकषायी, सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत, यथाख्यातसंयत और आहारक मिश्रकाययोगी इनकी कथनीमें आहारककाययोगकी कथनीसे कोई विशेषता नहीं है अतः इनमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका काल आहारककाययोगके समान घटित कर लेना चाहिये। किन्तु आहारकमिश्रकायोगका जघन्य काल भी अन्तर्मुहूर्त है अतः इसमें सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त ही प्राप्त होगा। इसी प्रकार शेष मार्गणाओंमें भी कालका विचार कर सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति विभक्तिका काल ले आना चाहिए।
इस प्रकार उत्कृष्ट कालानुगम समाप्त हुआ। * अव जघन्य कालानुगमका प्रकरण है । मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, बारह कषाय और तीनों वेदोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले नाना जीवोंका काल कितना है।
६६५४. 'णाणाजोवेहि जहण्णहिदिविहत्तिएहि इन दोनों पदोंमें जो तृतीया विभक्ति है वह षष्ठी विभक्तिके अर्थमें जानना चाहिये। अथवा कर्ता अर्थमें ततीया विभक्ति ग्रहण क चाहिये, क्योंकि 'जघन्य स्थितिविभक्तिवाले नाना जीवोंने कितना काल प्राप्त किया है। इस प्रकारका पदसम्बन्ध यहां विवक्षित है। शेष कथन सुगम है।
* जघन्य काल एक समय है ।
महण करनी
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गा० २२ ]
हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिविहत्तियकालो
९६५५. कुदो ? एदेसिं जहण्णणिसेयद्विदीए दुसमयकालाए एगसमयकालाए वा पयदा विदियसमए चेव णिम्मूलविणासुवलंभादो ।
* उकस्सेण संखेज्जा समया ।
९ ६५६. कुदो ? णाणाजीवाणमणुसमयं जहण्णहिदि पडिवज्जंताणं संखेन्नमसपज्जएहिं तो श्रागमुवलंभादो ।
०
* सम्मामिच्छत्त · अणंताणुबंधीणं चउक्कस्स जहणडिदिविहत्तिएहि ururजीवेहि कालो केवडिओ ?
१६५७. सुगममेदं पुच्छासुत्तं ।
* जहणणेण एगसमओ ।
६५८. कुदो ? एग़णिसेगहिदीए दुसमयकालाए विदिसमए परसरूवेण गमणुभादो । अगमणेण सा जहण्णहिदी; दुवादिणिसेयाणं जहण्णत्तविरोहादो । * उक्कस्सेण आवलिया असंखेज्जदिभागो ।
६५६. कुदो ? सम्मामिच्छत्तमुव्वेल्लंताणमणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोएंताणं च
३६५
९ ६५५. शंका- उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिवालोंका जघन्य काल एक समय क्यों है ? समाधान - क्योकि इन प्रकृतियोंके जघन्य निषेककी स्थिति चाहे दो समय कालवाली हो या चाहे एक समय कालवाली हो तथापि दूसरे समयमें ही उसका निर्मूल विनाश पाया जाता है, अतः इनका जघन्य क ल एक समय कहा है ।
* उत्कृष्ट काल संख्यात समय है ।
९ ६५६. शंका - उत्कृष्ट कालसंख्यात समय क्यों हैं ?
समाधान- क्योंकि प्रत्येक समयमें जघन्य स्थितिको प्राप्त होनेवाले नानाजीवोंका पर्याप्त मनुष्यों से आगमन पाया जाता है, जिनकी संख्या संख्यात है ।
* सम्यग्मिथ्मात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले नाना जीवका काल कितना है ?
६ ६५७. यह पृच्छ| सूत्र सरल है ।
* जघन्य काल एक समय है ।
६५८ शंका - जघन्य काल एक समय क्यों है ?
समाधान- क्योंकि इनकी दो समय काल प्रमाण एक निषेकस्थितिका दूसरे समय में पररूपसे संक्रमण पाया जाता है । जब तक पररूपसे संक्रमण नहीं होता है तब तक वह जघन्य स्थिति नहीं है, क्योंकि दो आदि निषेकोंको जघन्य माननेमें विरोध आता है I
* उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है ।
९ ६५६. शंका - उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण क्यों है ?
समाधान - क्योंकि सम्यग्मिध्यात्वकी उद्वेलना करनेवाले और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी
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३६६
अयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ पलिदो० असंखे भागमेत्तजीवाणमावलियाए असंखे भागमेत्तुवकमणकंडएसु तत्थ एगुक्कस्सकंडयकालग्गहणादो । ___® छण्णोकसायाणं जहणणहिदिविहत्तिएहि णाणाजीवेहि कालो केवडिओ?
६६०. सुगममेदं । * जहण्णुकस्सेण अंतोमुहुत्तं ।
$ ६६१. कुदो ? चरिमट्टिदिकंडयउक्कीरणकालग्गहणादो । एत्थ णिसेया चेय पहाणा कया ण कालो, एगसमयं मोत्तण अंतोमुहेत्तकालपरूवणण्णहाणुववत्तीदो।
६६२. एवं जइवसहाइरियमुत्ताणं देसामासियाणं परूवणं काऊण संपहि एदेहि सूचिदत्थाणं लिहिदुच्चारणमणुवत्तइस्सामो । जहण्णए पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण । तत्थ ओघेण मिच्छत्त-सम्मत्त-बारसक०-तिण्णिवेद० जहण्णहिदिवि०कालोज० एगस०, उक्क० संखेज्जासमया । अज० सव्वद्धा । सम्मामि०-अणताणु० चउक्क० ज० ज० ज० एगसमओ, उक्क० आवलि० असंखे०भागो । अज० सव्वद्धा । छण्णोक० जहण्णुक्क० अंतोमु० । अज० सव्वद्धा । एवं सोहम्मीसाणादिजाव उवरिमगेवज्ज०-पंचिंविसंयोजना करनेवाले पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण जीवोंके आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण उपक्रमण काण्डक होते हैं। उनमेंसे यहां एक उत्कृष्ट काण्डकका काल लिया गया है।
* छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले नाना जीवोंका कितना काल है। ६६६०. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। ६६६१. शंका-जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त क्यों है ?
समाधान-क्योंकि यहां अन्तिम स्थितिकाण्डकके उत्कीरण कालका ग्रहण किया है। यहां पर निषेकोंकी प्रधानता है कालकी नहीं, अन्यथा एक समयको छोड़कर अन्तर्मुहूर्त कालका कथन नहीं बन सकता था।
६६६२, इस प्रकार यतिवृषभ आचार्यके देशामर्षक सूत्रोंका कथन करके अब इनसे सूचित होनेवाले अर्थों पर जो उच्चारणा लिखी गई है उसका अनुसरण करते हैं-जघन्य कालका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघ की अपेक्षा मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, बारह कषाय और तीनों वेदोंकी जघन्य स्थिति विभक्तिवाले जीवों का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्ति वाले जीवोंका काल सर्वदा है। सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण • है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका काल सर्वदा है। छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाल जीवोंका काल सर्वदा है। इसी प्रकार सौधर्म कल्पसे लेकर उपरिमोवेयक तकके
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गा० २२ j द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिविहत्तियकालो
३६७ दिय-पंचिं०पज्ज०-तस-तसपज्ज०-पंचमण०-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालि -तिण्णिवेद०-चत्तारिकसा०-चक्खु०-अचक्खु० तिण्णिले०-भवसि०-सण्णि०-आहार त्ति । गवरि सोहम्मीसाणादिदेवेसु इत्थि-णवुस० तेउपम्मलेस्सासु च छण्णोकसाय० जहण्णहिदिकालो जह० एगसमो, उक्क० संखेजा समया । इत्थि० णवुस० ओघ छण्णोक भंगो । पुरिस० इथि०-णवुस० छण्णोक०भंगो। णवुस० इत्थिवेद० ओघं छण्णोक भंगो ।
६६३. आदेसेण णेरइएमु सत्तावीसपयडी० ज० जह० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे भागो । अज० सव्वद्धा । सम्मत्तं ओघं । एवं पढमपुढवि०-पंचिं०तिरिक्ख-पंचिंतिरि०पज्ज० । पंचिंतिरिक्खजोणिणीसु एवं चेव । णवरि सम्मत्तस्स
देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त, :स, सपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, तीनों वेदवाले, चारों कषायवाले, चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले तीन लेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि सौधर्म और ऐशान आदि कल्पके देवोंमें स्त्रीवेद और नपुंसकवेदमें तथा पीत और पालेश्यावालोंमें छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । स्त्रीवेदवालोंमें नपुंसकवेदकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका काल ओघके समान है किन्तु इतनी विशेषता है कि जघन्य स्थितिका काल ओघसे छह नोकषायोंके समान है। पुरुषवेदवालोंमें स्त्र वेद और नपुसकवेदका भंग छह नोकषायोंके समान है । नपुसकदवालोंमें स्त्रीवेदकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि जघन्य स्थितिका काल ओघसे छह नोकषायोंके समान है।
विशेषार्थ—यहां जिन मार्गणाओंमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका काल ओके समान बतलाया है उनमें सौधर्मसे लेकर उपरिम ग्रैवेयक तकके देव, पीत और पद्मलेश्यावाले तथा तीनों वेदवाले जीव भी सम्मिलित हैं परन्तु इन मार्गणाओंमें कुछ प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके कालमें कुछ विशेषता बतलाई है जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-बात यह है कि पुरुषवेदको छोड़ कर इन पूर्वोक्त मार्गणाओंमें एक जीवकी अपेक्षा छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त न होकर एक समय है अतः यहां नाना जीवोंकी अपेक्षा छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय ही प्राप्त होगा। तथा स्त्रीवेदियोंके नपुंसकवेदकी जघन्य स्थिति, पुरुषवेदियोंके स्त्री और नपुंसकवेदकी जघन्य स्थिति तथा नपुंसकवेदियोंके स्त्री वेदकी जघन्य स्थिति अन्तिम स्थिति काण्डकके पतनके समय होती है अतः इन तीनों वेदवाले जीवोंके उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल ओघसे छह नोकषायोंके समान कहा है। तथा अजधन्य स्थितिका काल सर्वदा है यह स्पष्ट ही है।
६६६३. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें सत्ताईस प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका काल सर्वदा है। सम्यक्त्वकी अपेक्षा ओघके समान काल है । इसी प्रकार पहली पृथिवी, पंचेन्द्रियतिथंच और पंचेन्द्रियतिथंच पर्याप्तकोंमें जानना चाहिए। पंचेन्द्रियतियेच योनिमतियोंमें भी इसी प्रकार जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[द्विदिविहत्ती ३ सम्मामिच्छत्तभंगो।
६६४. विदियादि जाव छहि त्ति मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० ओघ । (ओघम्मि छण्णोकसायाणं जहण्णहिदिकालो जहण्णुक्कस्सेण चुण्णिसुत्तम्मि वप्पदेवाहरियलिहिदुच्चारणाए च अंतोमुहुत्तमिदि भणिदो) अम्हेहि लिहिदुच्चारणाए पुण जह. एमसमो उक्क संखेज्जा समया त्ति परूविदो, कालपहाणचे विवक्खिए तहोवलंभादो । तेण छण्णोकसायाणमोघ ण विरुज्झदे। सम्मत्त-सम्मामि०-अर्णताणु०चउक्क० ज० ज० एगस०, उक्क० श्रावलि० असंखे०भागो। अज० सव्वद्धा । एवं जोइसि०-वेउवि०-विहंगणाणि त्ति । णवरि विहग अणंताण चउक्क० मिच्छत्तभंगो।
सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है।
विशेषार्थ-नरकमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव मरकर उत्पन्न होते हैं, अतः यहां सम्यक्त्व प्रकृतिकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल ओघके समान बन जाता है। शेष कथन सुगम है । पहली पृथिवीके नारकी आदि मूलमें और जितनी मार्गणाएं गिनाई है उनमें सामान्य नारकियोंके समान काल सम्बन्धी ब्यवस्था बन जाती है अतः उनके कथनको सामान्य नारकियोंके समान कहा । किन्तु योनिमती तिर्यंचोंमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होते, अतः वहां सम्यक्त्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल सम्यग्मिथ्यात्वके समान जानना चाहिये, क्योंकि योनिमती तिथंचोंके सम्यक्त्वकी ओघ जघन्य स्थिति न प्राप्त होकर आदेश जघन्य स्थिति ही प्राप्त होगी जो कि सम्यग्मिथ्यात्वके समान होती है।
६६४. दूसरी पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तकके नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा ओघके समान काल है। चूर्णिसूत्रमें और वपदेव आचार्यके द्वारा लिखी गई उच्चारणामें ओघका कथन करते समय छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । परन्तु हमारे द्वारा लिखी गई उच्चारणामें जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है, क्योंकि प्रधानरूपसे कालकी विवक्षा होने पर जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय बन जाता है, अतः छह नोकषायोंके कालको ओघके समान कहनेमें कोई विरोध नहीं आता है। तथा सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका काल सर्वदा है। इसी प्रकार ज्योतिषीदेव, वैक्रियिककाययोगी और विभंगज्ञानियोंके जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि विभंगज्ञानियों में अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग मिथ्यात्वके समान है।
विशेषार्थ-ओघसे मिथ्यात्व, बारह कषाय और तीन वेदोंकी जघन्य स्थितिका जो जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है वह दूसरी पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तकके नारकियोंके भी बन जाता है, क्योंकि जो सम्यग्दृष्टि जीव इन नरकोंसे निकलकर मनुष्य पर्यायमें आते हैं उन्हींके उक्त कर्मोंकी जघन्य स्थिति सम्भव है किन्तु इन नरकोंमें छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्टकाल ओघके समान अन्तर्मुहूर्त प्रमाण नहीं बनता। फिर इन नरकोंमें छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिके कालको भी ओघके समान क्यों कहा? यह शंका है जिसे मनमें रखकर वीरसेन स्वामीने 'ओघम्मि छण्णोकसायाणं' इत्यादि वाक्यों द्वारा उसका समाधान किया है । उनके इस समाधानका भाव यह है कि
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गा. २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिविहत्तियकालो
३६६ ....६६६५. सत्तमाए पुढवीए मिच्छत्त०-बारसक०-भय-दुगुंछ, उक्कभंगो । सम्मत्त०-सम्मामि०-अणंता० चउक्क०-सत्तणोक० ज० ज० एगस०, उक्क० आवलि. असंखे०भागो । अजह० सव्वद्धा ।
६६६६. तिरिक्ख० मिच्छत्त०-बारसक०-भय-दुगुंछ ज० अज़. सव्वद्धा । चूर्णिसूत्र, वप्पदेवकी लिखी हुई उच्चारणा और वीरसेन स्वामीके द्वारा लिखी गई उच्चारणा इनमेंसे प्रारम्भकी दो पोथियोंमें ओघसे छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त निबद्ध है किन्तु वीरसेन स्वामीके द्वारा लिखी गई उच्चारणामें ओघसे छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय निबद्ध है और यहां ओघके अनुसार कथन किया जा रहा है, अतएव द्वितीयादि नरकोंमें छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिके कालको श्रोधके समान कहने में कोई बाधा नहीं आती है। अब प्रश्न यह होता है कि आखिर इस मतभेदका कारण क्या है ? इसका यह समाधान है कि चूर्णिसूत्र और वापदेवके द्वारा लिखी गई उच्चारणामें छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका काल निषेकोंकी प्रधानतासे कहा है
और वीरसेन स्वामीके द्वारा लिखी गई उच्चारणामें छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका काल कालकी प्रधानतासे कहा है, अतः इस कथनमें मतभेद न जानकर विवक्षाभेद जानना चाहिये जिसका विस्तृत खुलासा पहले कर आये हैं । विभंगज्ञानमें अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग जो मिथ्यात्वके समान कहा है सो इसका कारण यह है कि विभंगज्ञानमें अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना नहीं होती अतः जो उपरिम प्रैवेयकका देव मिथ्यात्वको प्राप्त होकर वहांसे च्युत होता है उसके अन्तिम समयमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थिति होती है। पर ऐसे जीव संख्यात ही होंगे और यदि लगातार हों तो संख्यात समय तक ही होंगे, क्योंकि पर्याप्त मनुष्य संख्यात हैं। अतः विभंगज्ञानमें मिथ्यात्वके समान अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय जानना चाहिये । शेष कथन सुगम है।
६६६५. सातवीं पृथिवीमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साका भंग उत्कृष्टके समान है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चतुष्क और सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है । तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका काल सर्वदा है।
विशेषार्थ-सातवें नरकमें । क जीवकी अपेक्षा मिथ्यात्व, बारह कषाय भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अब यदि आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण नाना जीव क्रमशः इन प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिको प्राप्त हो तो उस सब कालका जाड असंख्या श्रावलिप्रमाण होता है जो असंख्यात आवलियां पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होती हैं। सातवें नरकमें उक्त प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट काल भी इतना ही है अतः यहां उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके कालको इनकी उत्कृष्ट स्थितिके कालके समान कहा । किन्तु सम्यक्त्व सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अब यदि आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण नाना जीव क्रमशः इनकी जघन्य स्थितिको प्राप्त हों तो उस सब कालका जोड़ आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होगा, अतः यहां उक्त छह प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा। शेष कथन सुगम है।
६.६६६. तिथंचोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य और अजघन्य
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४०० .. जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[द्विदिविहत्ती ३ सेसपयडीणं ज० अज० पंचिंतिरिक्खभंगो। एवं काउ० । किण्ह-णीललेस्साणमेवं चेव । णवरि सम्मत्तस्स सम्मामिच्छत्तभंगो । असंजद० तिरिक्खभंगो। णवरि मिच्छतस्स सम्मत्तभंगो। ओरालियमिस्स० तिरिक्खोघं । णवरि अणंताणु०चउक्क० ज० अज. सव्वद्धा। पंचिं०तिरि०अपज्ज. मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० ज० ज० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो । अज० सव्वद्धा। सम्मत्त-सम्मामि० ज० एगस, उक्क० आवलि. असंखे०भागो। अज० सव्वद्धा । एवं सव्वविगलिंदियपंचिंदियअपज्ज-बादरपुढविपज्ज-बादराउपज्जा-बादरतेउपज्ज०-बादरवाउपज्ज०बादरवणप्फदिपत्रेयपज्ज०-तसअपज्जते त्ति । णवरि पंचकाय-बादरपज्ज० मिच्छ० सोलसक०-भय-दुगुंछ० जह० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका काल सर्वदा है । तथा शेष प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका भंग पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान है। इसी प्रकार कापोतलेश्यावाले जीवोंके । जानना चाहिए। कृष्ण और नीललेश्यावाले जीवोंके भी इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है। असंयतोंमें तिर्यंचोंके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें मिथ्यात्वका भंग सम्यक्त्वके समान है । औदारिकमिश्रकाययोगियों में सामान्य तिर्यंचोंके समान जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका काल सर्वदा है। पंचेन्द्रियतिथंच अपर्याप्सकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है । तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका काल सर्वदा है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल श्रावलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका काल सवंदा है । इसी प्रकार सब विकलेन्द्रिय पंचेन्द्रियअपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिकपर्याप्त, बादर जलकायिकपर्याप्त, बादर अग्निकायिकपर्याप्त, बादर वायुकायिकपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीरपर्याप्त और बस अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि पांचों स्थावरकाय बादर पर्याप्त जीवोंमें मिथ्यात्व, सोलहकषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है।
विशेषार्थ-तियचोंका प्रमाण अनन्त है, अतः उनमें कोई न कोई जीव निरन्तर मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य और अजघन्य स्थितिको प्राप्त होते रहते हैं, अतः इनके उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल सर्वदा कहा। अब शेष रहीं सात नोकषाय, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्क ये तेरह प्रकृतियां, सो सामान्य तियेचोंकी अपेक्षा सम्यग्मिथ्यात्व को छोड़कर इनकी जघन्य स्थिति पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके ही प्राप्त होती है और इन सबकी अजघन्य स्थिति पंचेन्द्रिय तिथंचोंके सर्वदा पाई जाती है, अतः इनकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके कथनको पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान कहा। किन्तु सम्यग्मिमथ्तात्वकी जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल सामान्यकी अपेक्षा भी आवलिके असंख्यातवें भागप्रेमाण है और पंचे।न्द्र तिर्यंचोंके भी इतना ही है अतः सामान्य तिर्यंचोंके इससे अधिक नहीं प्राप्त हो सकता है, क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्वकी ओघ जघन्य स्थति सर्वत्र बनजाती है, अतः सामान्य
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गा० २२ ]
हिदिविहती उत्तरपयचिद्विदिविहन्तिय का लो
४०१
९ ६६७. मणुस० मिच्छ० सम्म० सोलसक० तिण्णिवेद० जह० ज० एस० । उक्क० संखेज्जा समया अज० सव्वद्धा । सम्मामि० छण्णोक० ओघं । मणुसपज्ज० एवं चैव, णवरि सम्मामि० सम्मत्तभंगो | इत्थिवेद० छण्णोक० भंगो । मणुसिणी ०
तिर्यंचोंके सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका काल पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान कहा । कापोतश्यामें उक्त सब व्यवस्था बन जाती है अतः कापोतलेश्याके कथनको सामान्य तियँचोंके समान कहा। यही बात कृष्ण और नीललेश्याकी है । किन्तु कृष्ण और नील लेश्यावालों में कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होते हैं अत: इनमें सम्यक्त्वकी ओघ जघन्य स्थिति न प्राप्त होकर आदेश जघन्य स्थिति प्राप्त होती है और इसलिये इन दोनों लेश्याओं में सम्यक्त्वकी जघन्य और अजघन्य स्थिति के कालको सम्यग्मिथ्यात्वके समाने कहा। असंयतोंके भी सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अन्य स्थितिका काल सामान्य तिर्यचोंके समान बन जाता है, क्योंकि इनका प्रमाण भी अनन्त है । किन्तु मिध्यात्वकी जघन्य स्थिति के कालमें विशेषता है । बात यह है कि असंयत मनुष्य भी होते हैं और इस प्रकार असंयतोंके मिध्यात्वकी ओघ जघन्य स्थिति भी बन जाती है, अतः असंयतों के मिध्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा जो कि सम्यक्त्वकी ओघ जघन्य स्थितिके जघन्य और उत्कृष्ट कालके समान है । श्रदारिकमिश्र काययोगियों के भी सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल सामान्य तिर्यचों के समान बन जाता है, क्योंकि इनका प्रमाण अनन्त है । परन्तु श्रदारिकमिश्रकाययोगी जीव अनन्तानुबन्ध चतुष्ककी विसंयोजना नहीं करते अतः इनके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी ओघ aar स्थिति न प्राप्त होकर आदेश जघन्य स्थिति ही प्राप्त होती है और इसलिये इनमें इसका काल सर्वदा बन जाता है यही सबब है कि औदारिकमिश्रकाययोग में अन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य और जघन्य स्थितिका काल सर्वदा कहा। पंचेन्द्रिय तिर्यंच लब्ध्यपर्याप्तकों में जो एक rtant अपेक्षा मिध्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल दो समय तथा शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल एक समय बतलाया है, नाना जीवों की अपेक्षा निरन्तर होनेवाले उस कालको यदि जोड़ा जाय तो वह आवलिके असंख्यातवें भागसे अधिक नहीं होता है, अतः यहाँ सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण कहा । शेष कथन सुगम है । इसी प्रकार जो सब विकलत्रय आदि मार्गणाएं बतलाई है उनमें घटित कर लेना चाहिये । किन्तु पांचों स्थावर काय बादर पर्याप्त जीवोंमें एक जीवकी अपेक्षा मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अब यदि इसे आवलिके असंख्यातवें भागसे गुणित कर दिया जाय तो पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल प्राप्त होता है अतः पांचों स्थावर काय बादर पर्याप्त जीवोंके उक्त प्रकृतियों की जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण कहा । शेष कथन सुगम है ।
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$ ६६७. मनुष्यों में मिथ्यात्व सम्यक्त्व, सोलह कषाय और तीन वेदकी जघन्य स्थिति - विभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका काल सर्वदा है । सम्यग्मिथ्यात्व और छह नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका काल ओघके समान है । मनुष्य पर्याप्तकोंमें इसी प्रकार जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यात्वका भंग सम्यक्त्वके समान है । तथा स्त्रीवेदका भंग छह नोकषायोंके समान है । मनुष्यनियोंमें सामान्य मनुष्यों के समान भंग है । किन्तु ५१
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [विदिविहत्ती ३ मणुसभंगो । णवरि सम्मामि० सम्मत्तभंगो। पुरिस० गवुस० छण्णोकसायभंगो । मणुसअपज्ज० मिच्छ० सम्म० सम्मामि० सोलसक० भयदुगुंछ० जह० ज० एगस०। उक्क० श्रावलि. असंखे भागो। अज० जह० एगस० । उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। सत्तणोक० जह० ज० एगस० । उक० श्रावलि० असंखे०भागो। अज० , जह० अंतो० । उक० पलिदो० असंखे०भागो।। इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यात्वका भंग सम्यक्त्वके समान है। तथा पुरुषवेद और नपुंसक वेदका भंग छह नोकषायोंके समान है। मनुष्य अपयतकों में मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय
और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है । तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है ।
विशेषार्थ—सामान्य मनुष्योंके मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सोलह कषाय और तीन वेदोंकी जघन्य स्थिति कहते समय पर्याप्त मनुष्योंकी मुख्यता है अतः इनके उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा। छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिके जघन्य और उत्कृष्ट कालमें भी यही बात है, अतः इनके कालको ओघके समान कहा क्योंकि ओघमें जो छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिके जघन्य और उत्कृष्ट कालको बतलाया है वह पर्याप्त मनुष्योंके ही सम्भव है। किन्तु सामान्य मनुष्योंके सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंकी प्रधानतासे कहा है, क्योंकि उद्वेलनाकी अपेक्षा लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यों के भी सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति सम्भव है और इसलिये सामान्य मनुष्योके सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल ओघके समान
आवलिके असंख्यातवें भाग प्रमाण बन जाता है। शेष कथन सुगम है । उपर्युक्त सब कथन मनुष्य पर्याप्त जीवोंके भी बन जाता है किन्तु सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिके उत्कृष्ट कालके कथनमें कुछ विशेषता है। बात यह है कि मनुष्यपर्याप्त जीवोंका प्रमाण संख्यात ही है अतः इनके सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल सम्यक्त्वके समान संख्यात समय ही होगा। तथा इनके स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिके जघन्य और उत्कृष्ट कालमें भी कुछ विशेषता है, क्योंकि इनके स्त्रीवेदका स्वोदयसे क्षय नहीं होता अतः जिस प्रकार यहाँ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है उसी प्रकार यहां स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिका जघन्य और उत्कृष्ट काल भी अन्तर्मुहूत जानना चाहिये । सामान्य मनुष्योंके समान ही मनुष्यनियोंके सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल है किन्तु सम्यग्मिथ्यात्व, पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी जघन्य स्थितिके उत्कृष्ट कालमें कुछ विशेषता है। बात यह है कि मनुष्यनियोंकी संख्या भी संख्यात है, अतः इनके सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिके उत्कृष्ट कालके समान संख्यात समय ही होगा। तथा पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिके उत्कृष्ट कालके समान होगा, क्योंकि मनुष्यनियोंके इन दोनों वेदोंका स्वोदयसे तय नहीं होता है । मनुष्य अपर्याप्तकोंमें एक जीवकी अपेक्षा मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिका
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गा० २२]
हिदिविह
हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिडिदिविहत्तियंकालो
४०३ ६६६८. देवाणं णारगभंगो । एवं भवण-वाण०, णवरि सम्म० सम्मामिच्छत्तभंगो । अणदिसादि जाव अबराइद त्ति चउवीस-पयडीणं ज० ज० एगसमयो। उक्क संखेज्जा समया । अज० सव्वद्धा । अणंताणु० ओघं । सबढ० सव्वपय० जह० हिदि० जह० एगस० उक्क संखेज्जा समया। अज. सव्वद्धा एवं परिहार। एवं संजद-सामाइयछेदो०-खइयसम्मादिहि त्ति । णवरि छण्णोकसाय० ओघ । उत्कृष्ट काल भी एक समय ही प्राप्त होता है अतः इनके नाना जीवोंकी अपेक्षा उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा। तथा इनके उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और सान्तर मार्गणा होनेके कारण उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण बन जाता है। तथा इनके एक जीवकी अपेक्षा सात नोकषायोंकी अजघन्य स्थिति कमसे कम अंतर्मुहूर्त काल तक पाई जाती है इसलिये सात नोकषायोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा। तथा शेष कथन पूर्वोक्त प्रकृतियोंके समान ही है।
६६६८. देवोंके नारकियोंके समान भंग है। इसी प्रकार भवनवासी और ब्यन्तर देवोंके जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है। अनुदिशसे लेकर अपराजित तकके देवोंमें चौबीस प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका काल सर्वदा है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी स्थितिबिभक्तिवाले जीवोंका काल ओघके समान है। सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्टकाल संख्यात समय है । तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका काल सर्वदा है। इसी प्रकार परिहार विशुद्धिसंयतोंके जानना । तथा इसी प्रकार संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापना संयत, और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें छह नोकषायों की अपेक्षा काल ओघके समान।।
विशेषार्थ-देवोंमें सत्ताईस प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय, उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण, अजघन्य स्थितिका काल सर्वदा तथा सम्यक्त्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल ओधके समान बन जाता है इसलिये इनके कथनको नारकियोके समान कहा । भवनवासी और व्यन्तरोंमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न नहीं होते इसलिये इनमें सम्यक्त्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका कुल काल सम्यग्मिथ्यात्वके समान है। उक्त दोनों प्रकारके देवोंमें इस विशेषताको छोड़कर शेष सब कथन सामान्य देवोंके समान है। अनुदिश आदिमें प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति भवके अन्तिम समयमें होती है और ये जीव मरकर मनुष्य पर्याप्तकोंमें ही उत्पन्न होते हैं अतः इनके उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा । तथा यहां सम्यक्त्व प्रकृतिको जघन्य स्थिति कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टियोंके प्राप्त होती है अतः इसकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय ही प्राप्त होता है, क्योंकि कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि संख्यात ही होते हैं। पर यहां अनन्तानुबन्धीकी क्रमशः विसंयोजना करनेवाले जीव असंख्यात हैं अतः इसकी जघन्य
और अजघन्य स्थितिका काल ओघके समान बन जाता है। सर्वार्थसिद्धिमें देवोंका प्रमाण संख्यात ही है अतः वहां सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय ही प्राप्त होगा। शेष कथन सुगम है। सर्वार्थसिद्धिके समान परिहार विशुद्धि संयतोंके सब प्रेकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल प्राप्त होता है क्योंकि उनका
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४.४ जयथवलासहिदे कसायपाहुडे
[हिदिविहती ६६६६ एइंदिएम मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० ज. अज. सव्वद्धा। सम्मत्त-सम्मामि० पंचिंदिय-अपज्जत्तभंगो । एवं पुढवि०-बादरपुढवि०-बादरपुढवि०. अपज-सुहुमपुढवि०-सुहुमपुढविपज्जत्तापज्जत्त-आउ०-बादरआउ०-बादराउअपज्ज.. सुहुमआउ०-सुहुमाउपज्जत्तापज्जत्त-तेउ०-बादरतेउ०-बादरतेउ०अपज्ज०-मुहमतेउ०. सुहुमतेउपज्जत्तापज्जत्त-चाउ०वादरवाउ०-बादरवाउअपज्ज०-मुहुमवाउ०-सुहुमवाउपजत्तापज्जत्त-बादरवणप्फदिपत्रेय अपज्ज०-वणफदि-णिगोद०-बादरसुहुमपज्जत्तापज्जत्तात्ति । मदिसुदअण्णा०-अभव०-मिच्छादि० -असण्णीसु एवं चेव, णवरि सत्तणोक० जह० तिरिक्खोघं। प्रमाण भी संख्यात है । तथा संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत और क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवोंके भी सर्वार्थसिद्धिके देवोंके समान सम्भव सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल प्राप्त होता है, क्योंकि इनके सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति दर्शनमोहनीयकी क्षपणआदिके समय होती है और ये जीव संख्यात ही होते हैं। किन्तु इन संयत आदिके छह नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल ओघके समान है क्योंकि इनके क्षपकश्रेणीमें छह नोकषायोंकी जघन्य स्थिति प्राप्त होती है।
६६६६. एकेन्द्रियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोको जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका काल सर्वदा है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके समान है। इसी प्रकार पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त, बादर बनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर, बादर बनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, बनस्पतिकायिक, निगोद, बादर बनस्पतिकायिक, बादर बनस्पतिकायिक पर्याप्त, बादर बनस्पतिकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म बनस्पतिकायिक, सूक्ष्म बनस्पतिकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म बनस्पतिकायिक अपर्याप्त, बादर निगोद, बादर निगोद पर्याप्त, बादर निगोद अपर्याप्त, सूक्ष्म निगोद, सूक्ष्म निगोद पर्याप्त, और सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त, जीवोंके जानना चाहिये । मत्यज्ञानी श्रुताज्ञानी, अभव्य, मिथ्याहृष्टि और असंज्ञी जीवोंमें इसी प्रकार जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवालेका काल सामान्य तियेचोंके समान है।
विशेषार्थ-एकेन्द्रियोंका प्रमाण अनन्त है इसलिये इनमें मिथ्यात्व आदि छब्बीस प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल सर्वदा बन जाता है। तथा सर्वत्र सम्यक्त्व
और सम्यकग्मिथ्यात्वकी सत्तावाले जीव स्वल्प हैं अतः एकेन्द्रियोंमें भी इनकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके कालको पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकों के समान कहा। आगे जो पृथिवी आदिक मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें कईका प्रमाण तो अनन्त है और कईका प्रमाण असंख्यात होते हुए भी बहुत अधिक है अतः इनमें भी एकेन्द्रियोंके समान सब प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका काल बन जाता है। यही बात मत्यज्ञानी आदि मार्गणाओंकी है किन्तु इनके सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिके कालमें विशेषता है। बात यह है कि एक जीवकी अपेक्षा इनकी जघन्य स्थितिका काल
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गा० २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिडिदिविहत्तियकालो
४०५ ___६७०. वेउन्चियमिस्स० मिच्छत्त-सम्मत्त-सोलसक०-भयदुगु'छ० ज० ज० एगस० । उक्क० संखेज्जा समया । अज० ज० अंतोमु० । उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । णवरि सम्म० अज० ज० एयस० । सम्मामि० सत्तणोक० जह० पढमपुढविभंगो । अज० अणुक्कस्सभंगो।।
६७१. आहार०-आहारमिस्स०-अवगद०-सुहुम०-जहाक्खादसंजदेत्ति उकस्सभंगो। णवरि अवगद० छण्णोक० जह० ओघ । कम्मइय० एइंदियभंगो, णवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त० ज० ओघं । अज० अणुक्कभंगो । एवमणाहारीणं ।। एक समय है अब यदि इसे आवलिके असंख्यातवें भागसे गुणा किया जाय तो आवलि के असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है अतः इन मार्गणाओंमें सात नोकषायोंकी जयन्य स्थितिके कालको सामान्य तियेचोंके समान कहा, क्योंकि तियेचोंके भी इतना ही काल प्राप्त होता है।
६६७२. वैक्रियिक मिश्रकाययोगियोंमें, मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वकी अजघन्य स्थितिवालोंका जघन्य काल एक समय है। सम्यग्मिथ्यात्व और सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका भंग पहली पृथिवीके समान है तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका भंग अनुत्कृष्टके समान है।
विशेषार्थ-जब यथायोग्य मनुष्य संयत जीव मरकर वैक्रियिकमिश्रकाययोगी होते हैं तब उनके मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति पाई जाती है पर ऐसे जीवोंका प्रमाण संख्यातसे अधिक नहीं हो सकता अतः वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा। पर यह जघन्य स्थिति अन्तिम समयमें होती है अतः इसमें उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा, क्योंकि वैक्रियिकमिश्रकाययोगका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है । तथा नाना जीवोंकी अपेक्षा वैक्रियिकमिश्रकाययोगका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है इसलिये इनमें उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा। यही बात सम्यक्त्व प्रकृतिकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके संबन्धमें भी जानना चाहिये । किन्तु जिस कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीवोंके सम्यक्त्वकी दो समय कालप्रमाण स्थिति शेष रहनपर वैक्रियिकमिश्रकाययोगकी प्राप्ति हुई है उसके सम्यक्त्वकी अजघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय भी बन जाता है। पहली पृथिवीमें सम्यग्मिथ्यात्व और सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है जो वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें भी घटित हो जाता है अतः इसके उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके कालको पहली पृथिवीके समान कहा । तथा इन आठ प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका काल अनुत्कृष्ट स्थितिके समान है वह स्पष्ट ही है।
६६७१. आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अफ्गत वेदी, सूक्ष्म सांपरायिकसंयत । और यथाख्यात संयतोंमें उत्कृष्टके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अपगत वेदमें छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका काल ओघके समान है । कार्मणकाययोगियोंमें एकेन्द्रियोंके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका काल ओघके समान है। तथा अजघन्यस्थितिविभक्तिवालोंका भंग अनुत्कृष्ट
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- जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [विदिविहत्ती ३ ६६७२. आभिणि सुद॰ोहि० ओघ, णवरि सम्मामि० सम्मत्तभंगो। एवमोहिदंसण-सम्माइहि त्ति । मणपज्ज. संजदभंगो । णवरि इत्थि० णवुस० छण्णोकसायभंगो। संजदासंजद-वेदय० अणुदिसभंगो । उवसम० चउवीसपयडी० ज० ज० एगसमयो । उक्क० संखेजा समया। अज० अणुक्कभंगो। अणंताणु०चउक्क० उक्क०भंगो । सम्मामि० सव्वपय० जह० ज० एगस० । उक० संखेज्जा समया । अज० अणुक्क भंगो। णवरि सम्म०-सम्मामि० ज० ज० एगस० । उक्क० आवलि० असंखे०भागो । सासण. सबपयडी० ज० ज० एगसमयो । उक्क० संखेज्जा समया । अज० ज० एगस० । उक्क० पलिदो० असंखे० भागो ।
एवं कालाणुगमो समत्तो। ®णाणाजीवेहि अंतरं । सव्वपयडीणमुक्कस्सहिदिविहत्तियाणमंतर केवचिरं कालादो होदि ।
६६७३. सुगममेदं ।
के जहणणेण एगसमो। के समान है । इसी प्रकार अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये।
६६७२. आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधि ज्ञानियोंमें ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यग्मिथ्यात्वका भंग सम्यक्त्वके समान है। इसी प्रकार अवधि दर्शनवाले और सम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये। मनःपर्ययज्ञानियोंमें संयतोंके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका भंग छह नोकषायोंके समान है। संयतासंयत और वेदकसम्यग्दृष्टियों में अनुदिशके समान भंग है। उपशम सम्यग्दृष्टियोंमें चौबीस प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका भंग अनुत्कृष्टके समान है । अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग उत्कृष्टके समान है । सम्यग्मिध्यादृष्टियोंमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका भंग अनुत्कृष्टके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सासादन सम्यग्दृष्टियोंमें सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रेमाण है।
इस प्रकार कालानुगम समाप्त हुआ। * अब नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरानुगमका अधिकार है। सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवालोंका अन्तरकाल कितना है ?
६६७३, यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तर काल एक समय है ।
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गा० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तियअंतरं .
६७४. कुदो ? उक्कस्सहिदिसंतकम्मेणच्छिदसव्वजीवेसु अणुक्कस्सहिदिसंतकम्मेण एगसमयमच्छिय तदियसमयम्हि उक्कस्सहिदिबंधेण परिणदेसु उक्कस्सहिदीए एगसमयंतरुवलंभादो।
* उकस्सेण अंगुलस्स असंखेञ्जदि भागो।। ... ६७५ कदो? एक्किस्से हिदीए उक्कस्सहिदिबंधकालो जदि अंतोमहत्तमेत्तो लब्भदि तो संखेजसागरोवमकोडाकोडीमेत्तहिदीणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए प्रोवहिदाए अंगुलस्स असंखेजदिभागमेन्तरकालुवलंभादो । एवं जइवसहपरूविदचुण्णिसुत्त देसामासियं परुविय संपहि तेण सूचिदत्थस्सुच्चारणाइरियपरूविदवक्खाणं भणिस्सामो । . ६७६, अंतरं दुविहं जहण्णमुक्कस्सं च । तत्थ उक्कस्सए पयदं । दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सव्वपयडीणमुक्कस्संतरं के० १ जह० एगस। उक्क० अंगुलस्स असंखेजदिभागो । अणुक्क० णत्थि अंतरं । एवं सत्तसु पुढवीसु, सव्वतिरिक्ख-मणसतिय-सव्वदेव-सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-सव्वपंचिंदिय-छकाय०-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालियमिस्स०-वेउविय-तिण्णिवेद-चत्तारि-क०-म
६६७४. शंका-जघन्य अन्तरकाल एक समय क्यों है ?
समाधान-क्योंकि उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मरूपसे स्थित सब जीवोंके अनुत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म रूपसे एक समय तक रह कर तीसरे समयमें उत्कृष्ट स्थितिबन्धरूपसे परिणत होने पर उत्कृष्ट स्थितिका एक समय प्रमाण अन्तरकाल पाया जाता है।
* उत्कृष्ट अन्तरकाल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। - ६ ६७५ शंका-उत्कृष्ट अन्तरकाल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण क्यों है ?
समाधान-एक स्थितिका उत्कृष्ट स्थितिबन्धकाल यदि अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है तो संख्यात कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थितियोंका कितना प्राप्त होगा, इस प्रकार फल राशिसे इच्छा राशिको गुणित करके जो लब्ध आवे उसमें प्रमाणराशिका भाग देनेपर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण अन्तरकाल प्राप्त हो जाता है । इस प्रकार यतिवृषभ आचार्यके द्वारा कहे गये देशामर्षक चूर्णिसूत्रका कथन करके अब उसके द्वारा सूचित होने वाले अर्थका जो उच्चारणाचायने ब्याख्यान किया है.उसे कहते हैं
६६७६. अन्तर दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उनमेंसे पहले उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । उनमें से ओघकी अपेक्षा सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवालोंका अन्तर कितना है ? जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अंगलके असंख्यातवें भागप्रमाण है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवालोंका अन्तरकाल नहीं है । इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, सब तियेच, सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य, मनुष्यनी, सब देव, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, सब पंचेन्द्रिय, छहों स्थावरकाय, पांचों मनोयोगी, पांचों बचनयोगी. काययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, तीनों वेदवाले, चारों कषायवाले,
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४०८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ डिदिवि हत्ती ३ दिसुदअण्णाण०-विहंग०-आभिणि-सुद०-ओहि०-मणपज०-संजद-सामाइय-छेदो०परिहार-संजदासंजद०-असंजद०-चक्खु०-अचक्खु०-ओहिदंस०-छलेस्स०-भवसि०अभवसि०-सम्मादि०-वेदय०-खइय-मिच्छा०-सण्णि-असण्णि०-आहारए ति ।
६७७. मणुसअपज्ज० सव्वपयडि० उक० ज० एगस० । उक० अंगुलस्स असंखेजदि० भागो । अणुक्क० ज० एगस० । उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । एवं सासण० सम्मामि०दिहि त्ति । वेउव्वियमिस्स० सव्वपयडी० उक्क० ओघं । अणुक्क ज० एगस । उक्क० बारस० मुहुत्ता। आहार-आहारमिस्स० उक्क० ओघं । अणुक्क० ज० एगस०, उक्क वासपुधत्त । कम्मइय० सम्म०.सम्मामि० उक्क० ओघ । मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, विभंगज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनापर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, असंयत, चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, अवधिदर्शनवाले, छहों लेश्यावाले, भब्य, अभव्य, सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, क्षायिकप्सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, संज्ञो, असंज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-यहां पर सब प्रकृतियोंको उत्कृष्ठ स्थितिका जो जघन्य अन्तरकाल एक समय बतलाया है सो स्पष्ट ही है, किन्तु उत्कृष्ट अन्तरकाल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाते हुए उसका वीरसेन स्वामीने जो खुलासा किया है उसका भाव यह है कि प्रत्येक स्थितिका उत्कृष्ट बन्धकाल अन्तर्मुहूर्त है अतः इस हिसाबसे संख्यात कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण सब स्थितियोंका बन्धकाल जोड़ा जाय तो कुल कालका जोड़ अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है, क्योंकि अन्तर्मुहूर्तसे संख्यात कोड़ाकोड़ी सागरोंके समयोंको गुणित करनेपर जो प्रमाण प्राप्त होता है वह एक अंगुलप्रमाण या अंगुलके संख्यातवें भागप्रमाण न होकर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होता है । अब यदि कुछ जीवोंने मोहनीयकी सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त किया, अनन्तर वे अन्यस्थितिविकल्पके साथ अन्तर्मुहूर्तकाल तक रहें और इतने कालके भीतर अन्य कोई भी जीव उत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त न हो तो सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर काल उक्त प्रमाण प्राप्त हो जाता है । परन्तु मोहनीयकी सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तरकाल नहीं पाया जाता, क्योंकि अनुत्कृष्ट स्थितिवाले जीवोंका सर्वदा सद्भाव पाया जाता है। ऊपर सातों पृथिवियोंके नारकी आदि और जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें भी यह व्यवस्था बन जाती है, अतः उनके कथनको ओघके समान कहा।
६७७. मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवालोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अंगुलके असंख्यातवे भागप्रमाण है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवालोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये। वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवालोंका अन्तरकाल ओघके समान है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवालोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल बारहमुहूर्त है । आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगियोंमें उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवालोंका अन्तरकाल ओघके समान है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवालों का जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है। कार्मणकाययोगियोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवालोंका अन्तरकाल ओघके समान है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवालोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर काल
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गा० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहतियअंतर ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । सेसं श्रोधं । एवमणाहारीणं ।
६६७८. अवगद० चवीसपयडी० उक्क० ओघं । अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० छम्मासा । णवरि दसणतिय०-अढकसा०-अहणोक. वासपुधत्तं ।
अन्तर्मुहूर्त है । शेष कथन ओघके समान है । इसी प्रकार अनाहारकोंके जानना चाहिये ।
विशेषार्थ लब्ध्यपर्याप्त मनुष्य सान्तर मार्गणा है, अत: इसमें सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा, क्योंकि समागणाका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर फ्ल्यके असंख्यात मागप्रमाण है। तथा सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका अन्तरकाल जिस प्रकार ओघमें घटित कर आये है उसी प्रकार यहां भी घटित कर लेना चाहिये। सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तरकाल लब्ध्यपर्याप्त मनुष्योंके समान है, अतः इनमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तरकाल लब्ध्यपर्याप्त मनुष्योंके समान कहा । वैक्रियिकमिश्रकाययोगका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर बारह मुहूर्त है अतः इसमें सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर बारह मुहूर्त कहा । आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोगका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है अतः इनमें सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व कहा । शेष सब कथन सुगम है। कार्मणकाययोगमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरमें कुछ विशेषता है। शेष कथन आपके समान है। बात यह है कि कार्मणकाययोगमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त होता है, अतः इसमें इन दोनों प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तर भी उक्त प्रमाण ही प्राप्त होता है । यही बात अनाहारक मार्गणामें जानना चाहिये, क्योंकि मोहनीयकी सत्ता रहते हुए कार्मणकाययोगी जीव ही अनाहारक होता है।
. ६७८. अपगतवेदवालोंमें चौबीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवालोंका अन्तर काल ओघके समान है। तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवालोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर काल छह महीना है । किन्तु इतनी विशेषता है कि तीनों दर्शनमोहनीय, आठ कषाय और आठ नोकषायोंकी अपेक्षा अन्तरकाल वर्षपृथक्त्व है।
विशेषार्थ—मोहनीयकी सत्ता रहते हुए अपगतवेदका जघन्य अन्तर एक समय और डत्कृष्ट अन्तर छह महीना प्रमाण है, अतः इसमें अनन्तानुबन्धी चतुष्कके बिना शेष चौबीस प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना प्रमाण कहा । किन्तु उपशमश्रेणीका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है अतः अपगतवेदीके तीन दर्शनमोहनीय
और पाठ कषायोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व प्रमाण प्राप्त होगा। तथा जो नपुंसकवेद और स्त्रीवेदके उदयसे उपशमश्रेणी या क्षपकश्रेणी पर चढ़ता है उसीके अपगतवेद अवस्थामें आठ नोकषायोंका सत्त्व पाया जाता है पर इनका भी उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है अतः अपगतवेदमें आठ नाकषायोंका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व प्रमाण प्राप्त होगा। तात्पर्य यह है कि अपगतवेदमें पुरुषवेद और चार संज्वलनोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर छह महीनाप्रमाण और शेष उन्नीस प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व प्रमाण प्राप्त होता है । शेष कथन सुगम है।
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'अयधवलासहिदे कसायपाहुढे [द्विदिविहत्ती ३ ६६७९. अकसा० आहारभंगो । एवं जहाक्खादसंजदाणं । सुहुम० एवं चेक । णवरि लोसंजल० अणक्क० उक्क० छम्मासा। उवसम० सव्वपयडी० उक० ओघ । अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० चउबीस अहोरत्ताणि ।
एवमुक्कस्सओ अंतराणुगमो समत्तो । * एत्तो जहएणयंतरं । ६८०. सुगममेदं ।
* मिच्छत्त-सम्मत्त-अहकसाय छण्णोकसायाणं जहएणहिदिविहत्तिअंतरं जहणणेण एगसमओ।
६८१. कुदो ? पुन्विल्लसमए जहण्णहिदि कादूण तदणंतरविदियसमए अंतरिय पुणो तदियसमए अण्णेसु जीवेसु जहण्णहिदिमवगएसु एगसमयंतरुवलंभादो ।
६६७६. अकषायियोंमें आहारककाययोगियोंके समान भंग है। इसी प्रकार यथाख्यात संयतोंके जानना । सूक्ष्मसांपरायिकसंयतोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है किलोभसंज्वलनकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवालोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है। उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ठ स्थितिविभक्तिवालोंका अन्तरकाल अोधके समान है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवालोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल चौबीस दिन रात है।
विशेषार्थ-अकषाय अवस्थाके रहते हुए मोहनीयकी चौबीस प्रकृतियों की सत्ता उपशान्त मोह गुणस्थानमें पाई जाती है और इसका जघन्य अन्तर एक समय तथा उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व प्रमाण है तथा आहारककाययोगका अन्तरकाल भी इतना ही है, अतः अकषायी जीवोंके कथनको आहारककाययोगियोंके समान कहा। यही बात यथाख्यातसंयतोंके जानना चाहिये । सूक्ष्मसाम्परायिक संयतोंके भी यही बात घटित हो जाती है, पर क्षपक सूक्ष्मसाम्परायिक संयतका उत्कृष्ट अन्तर छह महीना प्रमाण है अतः इसमें लाभकी अनुत्कृष्ट स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर छह महीना प्रमाण जानना चाहिये । उपशमसम्यक्त्वका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर चौबीस दिनरात है अतः इसमें सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर चौबीस दिनरात कहा। शेष कथन सुगम है।
__ इस प्रकार उत्कृष्ट अन्तरानुगम समाप्त हुआ। * अब इसके आगे जघन्य अन्तरानुगमका अधिकार है। ६६८०. यह सूत्र सुगम है।
* मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, आठ कषाय और छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है।
६६८१. शंका-जघन्य अन्तरकाल एक समय क्यों है ?
समाधान-क्योंकि कुछ जीवोंने पहले समयमें जघन्य स्थिति की । तदनन्तर दूसरे समयमें अन्तराल देकर पुनः तीसरे समयमें अन्य जीव जघन्य स्थितिको प्राप्त हुए इस प्रकार जघन्य अन्तरकाल एक समय प्राप्त होता है।
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+०२२] डिदिविहत्तीए उत्तरपयडिधिदिविहत्तिनंतर
8 उकस्सेण छम्मासा । ६८२. कुदो ? खवगाणं छम्मासं मोत्तूण उवरि उकस्संतराणुवलंभादो। ..
® सम्मामिच्छत्त-अयंताणुबंधीएं जहण्यतिदिविहत्तिअंतरं जहरणेण एगसममो ।
६६८३. सुगममेदं ।
8 उक्कस्सेण चउवीसमहोरो सादिरेगे।
६६८४. कुदो ? कारणाणुरूवकज्जुवलंभादो । तं जहा-सम्म पडिवज्जंताणमुकस्संतरं सादिरेगचउवीसमहोरत्ताणि जहा जादाणि तहा एदेसि मिच्छत् गच्छमाणाणं पि उक्कस्संतरं सादिरेगचवीसअहोरत्तमेत्त । मिच्छत्त' गंतूण सम्मत्त-सम्मामिच्छचाणि उव्वेल्लणंताणं पि एवं चेव उक्कस्संतरं; अण्णहाभावस्स कारणाभावादो । एवमणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोएंताणं संजुज्जमाणाणं च सादिरेयचउवीसअहोरत्तंतरस्स उक्कस्सस्स कारणं वत्तव्वं । सम्म पडिवज्जंताणं चउबीसअहोरत्तमेत्तु कस्संतरणियमो कुदो १ साभावियादो।
* तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है। ६६८२.शंका-उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना क्यों है ?
समाधान-क्योंकि क्षपकोंके छह महीना अन्तर कालको छोड़कर आगे उत्कृष्ट अन्तरकाल नहीं पाया जाता है।
* सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है।
६६८३. यह सूत्र सुगम है। * तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक चौबीस दिन रात है। ६६८४. शंका-उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक चौबीस दिन रात क्यों है ?
समाधान-क्योंकि कारणके अनुरूप कार्य होता है । इसका खुलासा इस प्रकार है-जिस प्रकार सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक चौबीस दिनरात है उसी प्रकार मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले जीवोंका भी उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक चौबीस दिनरात है। मिथ्यात्वको प्राप्त होकर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करनेवाले जीवोंका भी इसी प्रकार . उत्कृष्ट अन्तरकाल होता है, क्योंकि इससे अन्य प्रकार होनेका और कोई कारण नहीं पाया
जाता । इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करनेवाले और अनन्तानुबन्धीचतुष्कसे • संयुक्त होने वाले जीवोंके साधिक चौबीस दिनरात प्रमाण उत्कृष्ट अन्तरकाल के कारणका कथन करना चाहिये।
शंका-सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल चौबीस दिन-रात प्रमाण • होता है यह नियम किस कारणसे है ?
समाधान-स्वभावसे ही ऐसा नियम है।
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अयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ द्विदिवसी
* तिरहं संजलप पुरिसवेदाय जहणहिदिवित्तियंतरं जहरणेष
एगसमओ ।
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९ ६८५, सुगममेदं ।
* उक्कस्सेण वस्सं सादिरेयं ।
६८६. कोधजहणहिदीए उक्कस्संतरकालो चत्तारि छम्मासा २४ माणस्स तिण्ण छम्मासा १८ मायाए दो छम्मासा १२ जेण होदि तेण तिण्हं संजलणाणमुक्कस्तरकालो वासं सादिरेयमिदि ण घडदे, किंतु पुरिसवेद - माणसं जलणाणमेदमंतरं जुज्जदे; तत्थद्वारसमासमेत्तुक संतरुवलंभादो त्ति ? होदि एसो दोसो जदि सव्वकालमुकस्संतराणं चैव संभवो होदि, ण पुण एवं संभवो उकस्संतराणमणुबद्धाणं जदि संभवो होदि तो दोन्हं चेय ण तिन्हं चदुण्हं वा । एवं कुदो णव्वदे ? तिन्ह संजल - पुरिसवेदाणं वासं सादिरेयमुक्कस्संतरं भण्णमाणसुत्तादो । तेणेदेसिं चदुण्हं कम्माणं दोन्हं छम्मासाणमुवरि को वि जिणदि भावो कालो हिओ त्ति वत्तव्वं । मायासंजलणाए संपुण्णवेळमासा चेव उक्कस्संतरं, तत्थ कथं वासं सादिरेयमेनंतरं जुज्जदे ? ण, तत्थ विलोभोदएण दो - तिष्णिश्रदिवारं खवगसेटिं चडाविदे सादिरेयवेछम्मासमेत्तुकस्संतरुवलं भादो । जदि एवं तो माण- माया लोभाणमेग-दो-तिसंयोगाणं
* तीन संज्वलन और पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका जघन्य अन्तर काल एक समय है ।
§ ६८५. यह सूत्र सुगम है ।
* तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक एक वर्ष है ।
९६८६. शंका- चूंकि क्रोधकी जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर काल चौबीस महीना, मानका अठारह महीना और मायाका बारह महीना होता है इसलिये तीन संज्वलनोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल साधिक एक वर्ष नहीं बनता, किन्तु पुरुषवेद और मान संज्वलनका साधिक एक वर्ष अन्तरकाल बन जाता है, क्योकि इन दोनों प्रकृतियोंका अठारह महीना प्रमाण उत्कृष्ट अन्तरकाल पाया जाता है ?
समाधान- यदि सर्वदा उत्कृष्ट अन्तरकालोंका ही संभव होता तो यह दोष होता परन्तु ऐसा संभव नहीं है। क्योंकि अनुबद्ध रूपसे उत्कृष्ट अन्तरकालों की यदि संभावना है तो दोकी ही है, तीन और चार की नहीं ।
शंका- ऐसा किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान- तीन संज्वलन और पुरुषवेदके साधिक एक वर्ष प्रमाण उत्कृष्ट अन्तर कालको कहनेवाले उक्त सूत्र से ही यह जाना जाता है । अतः इन चार कर्मोंका एक वर्ष और इसके ऊपर जितना अधिक जिन भगवान्ने देखा हो उतना उत्कृष्ट अन्तरकाल होता है, ऐसा कहना चाहिये । शंका- मायासंज्वलनका पूरा एक वर्ष उत्कृष्ट अन्तर काल है, अतः उसका साधिक एक वर्ष उत्कृष्ट अन्तरकाल कैसे बन सकता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि लोभके उदयसे दो, तीन आदि बार जीवोंको क्षपकश्रेणीपर चढ़ाने पर मायाका भी साधिक एक वर्ष प्रमाण उत्कृष्ट अन्तरकाल प्राप्त हो जाता है ।
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गा० २२ हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तियअंतरं खवगसेढिचडणवारसहस्सेहि कोधसंजलणस्स संखेजसहस्सछमासंतरकालो किण्ण लब्भदे ? ण, संखेजसहस्संतरकालेसु मेलिदेसु वि सादिरेयवेलमासमेत्तपमाणसादो । तं कुदो णव्वदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो।
* लोभसंजलणस्स जहएणहिदिविहत्तिअंतरं जहणणेण एगसमयो।
६८७. सुगममेदं । __* उकस्सेण छम्मासा । .. ६८८. कुदो ? जस्स कस्स वि कसायस्स उदएण खवगसेढिं चडिदजीवाणं लोभस्स जहण्णहिदिसंतकम्मुप्पत्तीदो। ण सेसाणमेसो कमा, सोदएणेव खवगसेढिं चडिदाणं जहण्णहिदिसंतकम्मप्पत्तीदो।
* इत्थि-णवंसयवेदाणं जहरण हिदि [ विहत्ति ] अंतरं जहरणेण एगसमभो ।
६८६. सुगममेदं । * उकस्सेण संखेजाणि वस्साणि ।
शंका-यदि ऐसा है तो कभी मान, कभी मान माया और कभी मान, माया लोभके उदयसे जीवोंको हजारों बार क्षपकश्रेणीपर चढ़ाते रहनेसे क्रोधसंज्वलनका संख्यात हजार छह महीनाप्रमाण अन्तरकाल क्यों नहीं प्राप्त होता है ?
समाधान-नहीं, संख्यात हजार अन्तरकालोंके मिला देने पर भी क्रोधसंज्वलनके उत्कृष्ट अन्तरकालका प्रमाण साधिक एक वर्ष ही होता है।
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-इसी सूत्रसे जाना जाता है
* लोभसंज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है।
६६८७. यह सूत्र सुगम है। * तथा उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है। ६६८८. शंका-उत्कृष्ट अन्तर छह महीना क्यों है ?
समाधान-क्योंकि जिस किसी भी कषायके उदयसे क्षपकश्रेणी पर चढ़े हुए जीवोंके लोभके जघन्य स्थिति सत्कर्मकी उत्पत्ति हो जाती है। परन्तु शेष कषायोंका यह क्रम नहीं है, क्योंकि,शेष कषायोंकी अपेक्षा स्वोदयसे ही क्षपकश्रेणीपर चढ़े हुए जीवोंके जघन्य स्थिति सत्कर्मकी उत्पत्ति होती है।
* स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है।
६६८६. यह सूत्र सुगम है। ॐ तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल संख्यात वर्ष है ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे. [ द्विदिविहत्ती . ६९०. कुदो, अप्पसत्थवेदाणमुदएण खवगसेटिं चडमाणजीवाणं पाएण संभवाभावादो।
$ ६६०. शंका-उत्कुष्ट अन्तरकाल संख्यात वर्ष क्यों है ?
समाधान-क्योंकि अप्रशस्त वेदोंके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़नेवाले जीव प्रायः नहीं पाये जाते हैं।
विशेषार्थ-दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके समय मिथ्यात्व और सम्यक्त्वकी, तथा चारित्र मोहनीयकी क्षपणाके समय आठ कषाय और छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति नियमसे होती है और दर्शनमोहनीय तथा चारित्रमोहनीयकी क्षपणाका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीनाप्रमाण है अतः उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीनाप्रमाण कहा। यद्यपि दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके समय सम्यग्मिथ्यात्वकी भी जघन्य स्थिति होती है पर यह उद्वेलना प्रकृति है, अतः उद्वेलनाके समय भी इसकी जघन्य स्थिति प्राप्त होती है अतः इसका अन्तरकाल अलगसे कहा है । ऐसा नियम है कि कोई भी जीव यदि सम्यक्त्वको प्राप्त न हो तो साधिक चौबीस दिनरात तक सम्यक्त्वको नहीं प्राप्त होगा। तत्पश्चात् कोई न कोई जीव सम्यक्त्वको अवश्य ही प्राप्त होगा। इस परसे निम्न चार बातें फलित होती हैं (१) सम्यग्दृष्टि जीव यदि मिथ्यात्वको न प्राप्त हों तो साधिक चौबीस दिन तक नहीं प्राप्त होंगे। इसके बाद कोई न कोई सम्यग्दृष्टि जीव अवश्य ही मिथ्यादृष्टि हो जायगा। (२) यदि कोई भी जीव सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलनाका प्रारम्भ न करें तो साधिक चौबीस दिनरात तक नहीं करेंगे इसके बाद कोई न कोई जीव अवश्य ही सम्यक्त्व और सभ्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलनाका प्रारम्भ करेंगे। (३) यदि कोई भी जीव अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना न करें तो साधिक चौबीस दिनरात तक नहीं करेंगे इसके बाद कोई न कोई जीव अवश्य ही अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करेगा। (४) जिन जीवोंने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की है वे यदि मिथ्यात्वमें जाकर पुनः उससे संयुक्त न हों तो अधिकसे अधिक साधिक चौबीस दिनरात तक नहीं होंगे इसके बाद कोई न कोई जीव अवश्य ही मिथ्यात्वमें जाकर पुनः उसका सत्त्व प्राप्त करेगा। इस कथनसे यह निष्कर्ष निकला कि सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात होता है तथा इनकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय है यह तो स्पष्ट ही है। तथा संज्वलन क्रोध, संज्वलन मान, संज्वलन माया और पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिका जो जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक वर्षे
या है सो उसका खलासा इस प्रकार है-जो भी जीव क्षपकश्रेणी पर चढता है उसके लोभका उदय तो अवश्य ही होता है, शेष तीनका उदय हो और न भी हो । जो मायाके उदयसे क्षपकश्रेणी पर चढ़ता है उसके माया और लोभका उदय अवश्य होता है किन्तु शेष दोका उदय नहीं होता। जो जीव मानके उदयसे क्षपकश्रेणीपर चढ़ता है उसके मान, माया और लोभका उदय अवश्य होता है किन्तु क्रोधका उदय नहीं होता। तथा जो जीव क्रोधके उदयसे पकश्रेणीपर चढता है उसके क्रोधादि चारोंका उदय अवश्य होता है। अब यदि पहले छह महीनामें केवल लोभके उदय वाले जीवोंको, दूसरे छह महीनामें माया और लोभके उदयवाले जीवोंको, तीसरे छह महीनामें मान, माया और लोभके उदयवाले जीवोंको और चौथे छह महीनामें चारों कषायोंके उदयवाले जीवों को क्षपकश्रेणी पर चढ़ाया जाय तो क्रमसे लोभकी जघन्य स्थितिका छह महीना उत्कृष्ट अन्तर मायाकी जघन्य स्थितिका एक वर्षप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर, मानकी जघन्य स्थितिका डेढ़ वर्षप्रेमाण उत्कृष्ट अन्तर और क्रोधकी जघन्य स्थितिका दो वर्षप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त होता है। अतएव
बतल
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गा०२२] हिदिविहसीए उत्तरपयडिहिदिविहसिअंतर
४१५ * णिरयगईए सम्मामिच्छत्त-अणंताणुबंधीणं जहणहिदि [ विहत्ति ] अंतरं जहएणेण एगसमभो।
६६१. सुगममेदं । * उकस्सं चउवीसमहोरचे सादिरेगे।
६६६२. एदं पि सुगमं; ओघम्मि परूविदत्तादो । णवरि ओघम्मि उत्तरादो एदेणंतरेण सविसेसेण होदव्वं एगगइमस्सिदूण हिदस्स चउग्गइमल्लीणंतरेण सह समाणत्तविरोहादो।
* सेसाणि जहा उदीरणा तहाणेदव्वाणि ।
६९३. सेसाणि पयडिअंतराणि जहा उदीरणाए एदासिं पयडीणं परूविदाणि तहा परूवेदव्वं । संपहि जइवसहमुहविणिग्गयचुण्णिसुत्तस्स देसामासियस्स अत्थपरूवणं काऊण तेण सूचिदत्थस्स परूवणहं लिहिदुच्चारणं भणिस्सामो ।
६९४. जहण्णंतराणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ क्रोध, मान और माया संज्वलनकी जघन्य स्थितिका जो उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक वर्ष कहा है वह नहीं बन सकता है यह एक शंका है जिसका वीरसेन स्वामीने प्रारम्भमें उल्लेख करके उसका इस प्रकारसे समाधान किया है। वीरसेन स्वामीका कहना है कि इस प्रकार छह छह महीनाके अन्तरकाल लगातार नहीं प्राप्त होते हैं। कदाचित् यदि प्राप्त भी हुए तो दो ही अन्तरकाल प्राप्त हो सकते हैं। दो अन्तरकालोंके बाद तीसरे और चौथे अन्तरकालका प्राप्त होना तो किसी भी हालतमें सम्भव नहीं है। यदि ऐसा न माना जाय तो चूणिसूत्रकारने जो तीन संज्वलनोंका साधिक एक वर्षप्रमाण उत्कृष्ट अन्तरकाल कहा है वह नहीं बन सकता है।
ॐ नरकगतिमें सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका जघन्य अन्तर एक समय है।
६६६१. यह सूत्र सुगम है। * तथा उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौवीस दिनरात है।
६६६२. यह सूत्र भी सुगम है, क्योंकि इसका ओघ प्ररूपणाके समय कथन कर आये हैं। किन्तु इतना विशेष है कि जो अन्तर ओघमें कहा है उससे यह अन्तर कुछ अधिक होना चाहिये, क्योंकि एक गतिके आश्रयसे जो अन्तर स्थित है उसकी चार गतिसे संबन्ध रखनेवाले अन्तरके साथ समानता माननेमें विरोध आता है।
ॐ शेष प्रकृतियोंका अन्तरकाल, जिस प्रकार उदीरणामें अन्तर कहा है उस प्रकार जानना चाहिये।
६६६३. पहले जो पाँच प्रकृतियाँ गिना आये हैं उन्हें छोड़कर शेष प्रकृतियोंका जिस प्रकार उदीरणामें अन्तरकाल कहा है उस प्रकार उनका अन्तरकाल जानना चाहिये । इस प्रकार यतिवृषभ आचार्यके मुखसे निकले हुए देशामर्षक चूणिसूत्रके अर्थका कथन करके अब उससे सूचित होनेवाले अर्थका कथन करनेके लिये उसके ऊपर लिखी गई उच्चारणाको कहते हैं।
६ ६६४. जघन्य अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-प्रोघनिर्देश और
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४१६ बयधवलासहिदे कसायपाहुई
[हिदिविहत्ती ३ अोघेण मिच्छत्त-सम्मत्त-अडकसायर-छण्णोक०६-लोमसंज० ज० अंतरं ज० एगसमओ. उक्क० छम्मासा। अज. पत्थि अंतरं । सम्मामि०-अणताणु०चउक० ज. ज. एगसमो, उक्क० चउबीस अहोरत्ताणि सादिरेयाणि । अज० पत्थि अंतरं । इत्थि०णवुस० ज० ज० एगस०, उक्क० वासपुधत्तं । अज० जत्थि अंतरं । तिण्णिसंज०पुरिस० जह० ज० एगस०, उक्क० वासं सादिरेयं । अज० णत्थि अंतरं । एवं मणुसमणुसपज्ज०-पंचिं०-पंचिं०-पज्ज०-तस-तसपज्ज०-पंचमण०-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालि०-चक्खु०-अचक्खु० मुक्क०-भवसि०-सण्णि-आहारि त्ति । णवरि मणुसपज्ज० इत्थिवेद० जह० उक्क. छम्मासा।।
६९५. आदे० रइएसु मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० उक्कभंगो । सम्मत्त. ज० जह० एगस०, उक. वासपुधत्तं । अज० णत्थि अंतरं । सम्मामि०-अणंताणु०चउक्क० ज० जह० एगस० । उक्क० चउबीस अहोरत्ताणि सादिरेयाणि । अज० णत्थि अंतरं । एवं पढमाए पंचिंदियतिरिक्ख-पचिं०तिरि०पज्ज० । विदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । णवरि सम्मत्तस्स सम्मामिच्छत्तभंगो। एवं पंचिंतिरि० आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, आठ कषाय, छह नोकषाय और लोभसंज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल छह महीना है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं है। सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका अन्तर नहीं है । स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका अन्तर नहीं है। तीन संज्वलन और पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक वर्ष है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, स, त्रसपर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, चक्षुदर्शनवाले, अचक्षदर्शनवाले. शुक्ललेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि मनुष्य पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है।
६६६५ आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंका भंग उत्कृष्टके समान है। सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय
और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका अन्तर नहीं है। सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार पहली पृथिवीके नारकी, पंचेन्द्रिय तिथंच और पंचेन्द्रिय तिथंच पर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये । दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंके इसी प्रकार जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान
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गा. २२ ]
हिदिविहतीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तिअंतरं ४१७ जोणिणी-भवण-वाण जोदिसि०-वेउव्विय० जोगे ति ।
६६६. तिरिक्ख० मिच्छत्त-बारसक०-भय-दुगुंछज. अज० णत्थि अंतरं । सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु० पढमपुढवीभंगो । सत्तणोक. एवं चेव । पंचिंतिरि०अपज्ज. पंचितिरिक्वजोणिणीभंगो । णवरि अर्णताणु०चउक्क० अपज्जत्तकस्सभंगो। एवं सव्वबिगलिंदिय-पंचिं०अपज्ज-तसअपज्जते त्ति । है। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तियेच योनिमती, भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैक्रियिककाययोगी जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-नारकियोंके सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण बतला आये हैं तथा यह भी बतला आये हैं कि इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिका अन्तरकाल नहीं होता । इसी प्रकार यहां भी मिथ्यात्व, बारह कषाय
और नौ नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके अन्तरकालके विषयमें जानना चाहिये । कारण जो उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके अन्तरके समय बतला आये हैं वे ही यहां जानना चाहिये । किन्तु शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिके अन्तरकालके विषयमें कुछ विशेषता है। बात । यह है कि नरकमें कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है, अत: वहां सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व प्राप्त होता है, क्योंकि सम्यक्त्वकी ओघ जघन्य स्थिति कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टिके ही प्राप्त होती है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिन रात जानना चाहिये । इसका कारण ओघ. प्ररूपणाके समय बतला ही आये हैं। तथा इन छहों प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिका अन्तरकाल नहीं पाया जाता यह स्पष्ट ही है। मूलमें पहली पृथिवीके नारकी आदिक जो और तीन मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें यह सब व्यवस्था बन जाती है, अतः उनके कथनको सामान्य नारकियोंके समान कहा है। द्वितीयादि पृथिवियोंमें कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होते हैं अतः वहां सम्यक्त्वकी ओघ जघन्य स्थिति सम्भव न होकर आदेश जघन्य स्थिति पाई जाती है जो उद्वेलनाके समय सम्भव है और उद्वेलनाका उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात होता है अतः यहां सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिका अन्तर सम्यग्मिथ्यात्वके समान कहा। यहां इतनी ही विशेषता है शेष सब कथन सामान्य नारकियोंके समान है। मूलमें जो पंचेन्द्रियतिर्यंचयोनिमती आदि मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें दूसरी पृथिवीके समान व्यवस्था बन जाती है, इसलिये उनके कथनको दूसरी पृथिवीके समान कहा।
६६६६ तियचोंमें मिथ्यात्व बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका अन्तर नहीं है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग पहली पृथिवीके समान है। सात नोकषायोंका भंग भी इसी प्रकार जानना चाहिये। पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंमें पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमतियोंके समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा भंग पंचेन्द्रिय तिथंच अपर्याप्तकोंके उत्कृष्टके समान है। इसी प्रकार सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और त्रस अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-तिचंचोंका प्रमाण अनन्त है। उनमें मिथ्यात्व, बाहर कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य और अजघन्य स्थितिवाले जीव सर्वदा पाये जाते हैं अतः इनका अन्तर काल नहीं है। तिर्यंचोंमें सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति कृतकृत्यवेदकसम्यक्त्वके समय, सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य
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४१८ - जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[हिदिविहत्ती ३ १६६७. मणुसिणीसु सम्मामि०-अणंताणु०चउक० ओघं । सेस० ज० ज० एगस०, उक्क वासपुधत्त । अज० णत्थि अंतरं । मणुसअपज्ज० छव्वीसपयडीणं उक्कस्सभंगो। सम्म०-सम्मामि० जह० अज० जह० एयसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो ।
६६९८. देवाणं णारगभंगो । एवं सोहम्मादि जाव उवरिमगेवज्जा त्ति । अणुद्दिसादि जाव सव्वद्या त्ति एवं चेव । णवरि सम्म०-अणंताणु० चउक्क० जह० ज० स्थिति उद्वेलनाके समय और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थिति विसंयोजनाके समय पाई जाती है जिनका अन्तरकाल पहले नरकके समान यहां भी बन जाता है, अतः इनके भंगको पहली पृथिवीके समान कहा तथा सात नोकषायोंकी जघन्य स्थिति, जो एकेन्द्रिय स्थितिसत्त्वके समान स्थितिको बांधकर पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुए हैं उनके, प्रतिपक्ष प्रकृति के बन्धकालके अन्तिम समयमें होती है । अब यदि नानाजीवोंकी अपेक्षा इसका अन्तरकाल देखा जाय तो पहली पृथिवीके नारकियोंके समान यहां भी जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है इसलिये तियचोंमें सात नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका भंग पहले नरकके समान कहा । पंचेन्द्रियतियच योनिमती जीवोंके पहले सब प्रकृतियोंकी जघन्य
और अजवन्य स्थितिका अन्तर दूसरी पृथिवीके समान कर आये हैं उसी प्रकार यहां पंचेन्द्रिय तियेच अपर्याप्तकोंके कर लेना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इनके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना नहीं होती, इसलिये यहां अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी ओघ जघन्य स्थिति न प्राप्त होकर आदेश जघन्य स्थिति प्राप्त होती है और इसलिये यहां इनकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है जो कि इनके अनन्तानुबन्धीकी उत्कृष्ट स्थितिके अन्तरके समान है। यही कारण है कि इनके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिके अन्तरको अपने ही अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी उत्कृष्ट स्थितिके अन्तरके समान कहा । मूलमें जो सब विकलेन्द्रिय आदि मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें भी यही व्यवस्था बन जाती है अतः उनके कथनको पंचेन्द्रियतिथंच अपर्याप्तकोंके समान कहा।
६६६७. मनुष्यनियोंमें सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा अन्तरकाल ओघके समान है । तथा शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। तथा अजघन्य स्थिति विभक्तिवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा भंग उत्कृष्टके समान है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है।
विशेषार्थ—मनुष्यनियोंके दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयकी क्षपणाका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व प्रमाण पाया जाता है, अतः इनमें सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीको छोड़कर शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण कहा। शेष कथन सुगम है। मनुष्यअपर्याप्तकोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, अत: इनमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा । शेष कथन सुगम है ।
६६६८ देवोंमें नारकियोंके समान भंग है। इसी प्रकार सौधर्म कल्पसे लेकर उपरिम प्रेवेयक तकके देवोंके जानना चाहिये । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंके भी इसी प्रकार
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गा० २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिविहत्तियअंतर
४१६ एगस०, उक्क. वासपुधत्तं पलिदो० संखे०भागो।
६६६४ एइंदिएसु मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० ज० अज. पत्थि अंतरं । सम्मत्त०-सम्मामि० पंचिंतिरि०अपज्जत्तभंगो। एवं पुढवि०-बादरपुढवि०-बादरपुढविअपज्ज-सुहुमपुढवि०-मुहुमपुढवि०पज्जत्तापज्जत्त-आउ०-बादरआउ०-बादराउ अपज्ज-सुहुमआउ०-सुहुमाउ०पज्जत्तापज्जत्त-तेउ०-बादरतेउ०-बादरतेउअपज०-सुहुमतेउ०-मुहुमतेउ०पज्जत्तापज्जत्त-वाउ०--बादरवाउ०-बादरवाउअपज्ज०-सुहुमवाउ०-सुहुमवाउ०पज्जत्तापज्जत्त-बादरवणप्फदिपत्रेयअपज्ज०-वणप्फदि-णिगोदबादरमुहुमपज्जत्तापज्जत्त-कम्मइय० अणाहारित्ति । णवरिपच्छिमदोपदेसु सम्मत्त० जह० तिरिक्खोघं । सम्म सम्मामि० अज० अणुक्कस्सभंगो। पंचकाय०वादरपज्ज. पंचिंतिरि०अपज्जत्तभंगो। जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका जघन्य अन्तर काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर काल क्रमशः वर्षपृथक्त्व और पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण है।
विशेषार्थ-अनुदिश आदिमें अधिकसे अधिक वर्षपृथक्त्व काल तक कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न नहीं होता है और अनन्तानुवन्धीकी विसंयोजना नहीं होती है अतः इनमें सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण कहा । इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि में अधिकसे अधिक पल्यके संख्यातवें भागप्रमाण काल तक कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होता है और अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना नहीं होती है इसलिये इनमें उक प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यक संख्यातवें भागप्रमाण कहा। शेष कथन सुगम है।।
६६६६. एकेन्द्रियोंमें मिथ्यात्व, सालह कषाय और नौ नोकषायोंकी जवन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका अन्तर काल नहीं है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्ष पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंके समान भंग हे । इसी प्रकार पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म ज
जलकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्त. अग्निकायिक. बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सुक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक, निगोद, बादर वनस्पतिकायिक, बादर बनस्पतिकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म बनस्पतिकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, बादर निगाद, बादर निगोद पर्याप्त, बादर निगोद अपर्याप्त, सूक्ष्म निगोद, सूक्ष्म निगोद पर्याप्त, सूक्ष्म निगाद अपर्याप्त, कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये। किन्तु अन्तिम दो पदोंमें इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका अन्तर काल सामान्य तियंचोंके समान है और सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अजवन्य स्थितिविभक्तिवालोंका भंग अनुत्कृष्टके समान है । पांचों स्थावरकाय बादर पर्याप्त जावोंमें पंचेन्द्रिय तियेच अपर्याप्तकोंके समान भंग है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ ६७००. ओरालियमिस्स तिरिक्खोघ । णवरि अणंताणु० चउक्क० एइंदियभंगो। वेउव्वियमिस्स० सम्मत्त-सम्मामि० ज० देवोघं । सेस० उक्क भंगो ।
७०१ आहार-आहारमिस्स० उक्क०भंगो०। एवमकसा०-जहाक्खादसंजदे त्ति । इत्थि० सम्मामि०-अणंताणु०चउक्क० ओघं। मिच्छत्त-सम्मत्त
विशेषार्थ-पंचेन्द्रिय तिथंच अपर्याप्तकोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है तथा अजघन्य स्थितिका अन्तरकाल नहीं है यह पहले बतला आये हैं उसी प्रकार एकेन्द्रियोंके जानना चाहिये, इसलिये एकेन्द्रियोंके उक्त दो प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिके अन्तरका कथन पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंके समान कहा । शेष कथन सुगम है । मूलमें सामान्य पृथिवी आदि जो और मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें यह व्यवस्था बन जाती है, इसलिये इनके कथनको एकेन्द्रियोंके समान कहा । किन्तु कार्मणकाययोग और अनाहारकोंमें कुछ विशेषता है। बात यह है कि इनमें कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि जीव भी उत्पन्न होते हैं अतः यहाँ सम्यक्त्वकी ओघ जघन्य स्थिति बन जाती है। तदनुसार यहाँ इसका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण होता है जो सामान्य तिर्यंचोंके इस प्रकृतिकी जघन्य स्थितिके अन्तरके समान है। अतः यहाँ सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिके अन्तरको सामान्य तिर्यंचोंके समान कहा। तथा इन दोनों मार्गणाओंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त पाया जाता है और यही यहाँ इनकी अनुत्कृष्ट या अजघन्य स्थितिका अन्तरकाल है, इसलिये यहाँ इन दो प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिके अन्तरको अनुत्कृष्ट स्थितिके अन्तरके समान कहा । पाँचों स्थावरकाय बादर पर्याप्त जीवोंमें सब प्रकृतियोंकी जघन्ये और अजघन्य स्थितिका अन्तरकाल पंचेन्द्रियतिथंच अपर्याप्तकोंके समान प्राप्त होता है, अतः इनके कथनको पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंके समान कहा ।।
६७००. औदारिकमिश्रकाययोगियों में सामान्य तिर्यंचोंके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा एकेन्द्रियोंके समान भंग है। वैक्रियिक मिश्रकाययोगियोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका अन्तर सामान्य देवोंके समान है । तथा शेष प्रकृतियों का अन्तरकाल उत्कृष्टके समान है।
विशेषार्थ—औदारिकमिश्रकाययोगमें अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना नहीं होती है इसलिये इनके उक्त प्रकृतियोंकी ओघ जघन्य स्थिति न प्राप्त होकर आदेश जघन्य स्थिति प्राप्त होती है जिसका यहाँ अन्तर नहीं पाया जाता। यही बात एकेन्द्रियोंके है। अतः औदारिकमिश्रकाययोगमें अनन्तानुबन्धी चतुष्कके भंगको एकेन्द्रियोंके समान क्रहा। सामान्य देवों में सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वषपृथक्त्व है । तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिनरात है जो वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें भी सम्भव है अतः वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके भंगको सामान्य देवोंके समान कहा। शेष कथन सुगम है।
६७०१. आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगियोंमें उत्कृष्टके समान भंग है । इसी प्रकार अकषायी और यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिये। स्त्रीवेदवालोंमें सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग ओघके समान है। मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, बारह कषाय और ना
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गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिविदिविहत्तियअंतरं ४२१ बारसक०-णवणोक. ज. ज. एगस०, उक्क. वासपुधत्त । अज० णत्थि अंतरं । एवं णव॑सयवेदाणं । पुरिस० मिच्छत्त०-सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु० चउक० ओघं । बारसक--णवणोक० ज० ज० एगस०, उक्क. वासं सादिरेयं । अज० णत्थि अंतरं । अवगद० मिच्छत्त०-सम्मत्त-सम्मामि०-अहक-अहणोक० ज० ज० एगस०, उक्क० वासपुधत्त । अज० एवं चेव, विसेसाभावादो । सेसाणं जह० ओघं। अज० अणुक्कभंगो।
७०२.कोध० ओघं। णवरि णवक०-छण्णोक० ज० ज० एगस०, उक्क. वासं सादिरेयं । अज० णस्थि अंतरं। एवं माण-माय० । एवं लोभ । णवरि लोभसंजल ओघं । नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्व प्रमाण है । तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार नपुंसकवेदवालोंके जानना चाहिये । पुरुषवेदवालोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा अन्तर काल ओघके समान है। तथा बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक वर्ष है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका अन्तर नहीं है। अपगतवेदवालोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, आठ कषाय और आठ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका अन्तर भी इसी प्रकार जानना चाहिये, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। तथा शेप प्रकृतियों की जघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका अन्तर ओघके समान है और अजघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका भंग अनुत्कृष्टके समान है।
विशेषार्थ-दर्शनमोहनीयकी क्षपणा और चारित्रमोहनीयकी क्षपणामें स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके उदयका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व बतलाया है, अतः स्त्रीवेदी और नपुंसकवेदी जीवोंके मिथ्यात्व, सम्यक्त्व. बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व प्रमाण कहा । पुरुषवेदमें क्षरकश्रेणीका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक वर्ष है, इसलि
सलिये इसमें बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक वर्ष कहा । अवगतवेदमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और आठ कषायोंकी जघन्य और अजघन्य स्थिति उपशमश्रेणीकी अपेक्षा पाई जाती है। तथा जो जीव स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके उदयके साथ क्षपकश्रेणीपर चढ़ते हैं उनके आठ नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य स्थिति पाई जाती है। आठ नोकषायोंकी अजघन्य स्थिति अपगतवेदी उपशमश्रेणीवाले जीवोंके भी सम्भव है पर इनका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है, अतः अपगतवेदमें उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व कहा । शेष कथन सुगम है। .
६७०२. क्रोधकषायवालोंमें अन्तर ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि नौ कषाय और छः नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक वर्ष है। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार मान और मायाकषायवाले जीवोंके जानना चाहिए। लोभकषायवाले जीवोंके भी इसी प्रकार
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४२२ जयधवलासहिदे कसायपाहुरे
[द्विदिषिहत्ती ३ ७०३. मदि-सुदअण्णा० तिरिक्खोघं । णवरि सम्मत्त-अणंताणु० एइंदियभंगो । एवं मिच्छादि०-असण्णि त्ति । विहंग० सम्मामिच्छत्तमोघ । सेसपयडीणमुक्कभंगो । णवरि सम्म० सम्मामि० भंगो।
७०४. आभिणि-सुद० ओघ । णवरि सम्मामि० सम्मत्तभंगो । एवं संजद०सामाइय-छेदो०-सम्मादिहि ति । ओहिणाणि०-ओहिदंसणी. एवं चेव । णवरि ज. ज० एगस०, उक्क वासपुधत्त । एवं मणपज्ज० ।
जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि लोभसंज्वलनको अपेक्षा अन्तर ओघके समान है।
विशेषार्थ - यद्यपि क्रोध कषायमें सब प्रकृतियोंका कथन ओघके समान कहा है पर ओघमें अप्रत्याख्यानावरण चतुष्क, प्रत्याख्यानावरण चतुष्क, लोभसंज्यलन और छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका उत्कृष्ट अन्तर छह महीना बतलाया है जो क्रोधमें किसी भी हालतमें सम्भव नहीं है, क्योंकि क्षपकश्रेणीमें क्रोधका उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक वर्ष पाया जाता है अतः यहां उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक वर्षे कहा । मान, माया और लोभमें भी यह व्यवस्था बन जाती है। किन्तु क्षपकश्रेणीमें लोभका उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है, अतः लोभमें लोभसंज्वलनका अन्तर ओघके समान ही जानना चाहिये। शेष कथन सुगम है ।
.६७०३. मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानियों में सामान्य तिर्यंचोंके समान अन्तर है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा भंग एकेन्द्रियोंके समान है इसी प्रकार मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके जानना चाहिए। विभंगज्ञानियोंमें सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है। शेष प्रकृतियों की अपेक्षा उत्कृष्टके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है।
विशेषार्थ-मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें न तो कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न होता है और न अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना ही होती है अतः इनमें इन प्रकृतियों के भंगको एकेन्द्रियोंके समान कहा । विभंगज्ञानमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना होती है अतः इसमें सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान और सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान बन जाता है । शेष कथन सुगम है।
६७०४. आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानियोंमें ओघके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यग्मिथ्यात्वका भंग सम्यक्त्वके समान है। इसी प्रकार संयत, सामायिकसंय
यत. छेदोपस्थापनासंयत और सम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिए। अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी जीवोंके भी इसी प्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें जघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानियोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-आभिनिबोधिकज्ञानी और श्रुतज्ञानी जीवोंके सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना नहीं होती, अतः यहां सम्यग्मिथ्यात्वका भंग सम्यक्त्वके समान कहा। मूलमें संयत आदि और जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें उक्तप्रमाण व्यवस्था बन जाती है इसलिये उनके कथनको आभिनिबोधिकज्ञानी आदिके समान कहा। अवधिज्ञानी और अवधिदर्शनी जीवोंमें यह व्यवस्था बन तो जाती
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गा० २२ ]
द्विदिवत्तीए उत्तरपयडिद्विदिविहत्तिय अंतरं
उक्क •
1
९७०५. परिहार० मिच्छत्त० सम्मत्त० - सम्मामि० ज० ज० एगस ० वासपुधत्त । अज० णत्थि अंतरं । अताणु० चउक्क० ओघं । सेसपयडि० उक्क०भंगो | सुहुम० तेवीसपयडी० ज० अ० ज० एगसमओ, उक्क० वासपुधत्त ं । लोभसंजल ० 50 अवगद० भंगो । संजदासंजद० मिच्छत्त-सम्मत्त अनंताणु ० चउक्क० ओधं । सम्मामि० सम्मत्तभंगो । सेसपयडि० उक्क० भंगो । असंजद० तिरिक्खोघ । णवरि मिच्छत्त ० सम्मत्त० ओघभंगो ।
९ ७०६, काउ० तिरिक्खोघ । किण्ह० -णील० एवं चेव । णवरि सम्मत्त० सम्मामिच्छत्तभंगो | तेज ० - पम्म० सम्मामिच्छत्तमोघ । सेसपयडि० संजदासंजदभंगो | अभवसि • छब्बीसपयडी० ओरालियमिस्सभंगो । खइय० एक्कवीसपयडी० श्रघं ।
४२३
है पर क्षपक श्रेणीमें इनका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है अतः ओघ में जिनकी जघन्य स्थितिका क्षपकश्रेणी में वर्पपृथक्त्वसे कम अन्तर सम्भव है उनकी जघन्य स्थितिका यहां जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण जानना चाहिये । मन:पर्ययज्ञानमें भी इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिये । शेष कथन सुगम है ।
७०५. परिहारविशुद्धिसंयतों में मिध्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्व है । तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका अन्तर नहीं है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा अन्तर ओघके समान है । तथा शेष प्रकृतियोंका भंग उत्कृष्टके समान है। सूक्ष्मसां परायिकसंयतों में तेईस प्रकृतियोंकी जघन्य और जघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्व है । तथा लोभसंज्वलनका भंग अवगतवेदवालोंके समान है । संयतासंयतों में मिध्यात्व, सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी स्थितिविभक्तिवालोंका अन्तर ओघके समान है । सम्यग्मिथ्यात्वका भंग सम्यक्त्वके समान है। तथा शेष प्रकृतियोंका भंग उत्कृष्टके समान है । असंयतों में सामान्य तिर्यंचों के समान भंग जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें मिथ्यात्व और सम्यक्त्वका भंग ओघके समान है ।
विशेषार्थ — परिहारविशुद्धिसंयममें क्षायिकसम्यग्दर्शनकी प्राप्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्णपृथक्त्व है, अतः यहां मिध्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक तमय और उत्कृष्ट अन्तर वर्णपृथक्त्व कहा । सूक्ष्म सांपरायमें मिथ्यात्व आदि तेईस प्रकृतियोंकी सम्भावना उपशमश्रेणीकी अपेक्षा है और उपशमश्रेणीका जघन्य अन्तर एक समय तथा उत्कृष्ट अन्तर वर्णपृथक्त्व है, अतः यहां उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्णपृथक्त्व कहा । संयतासंयतों के सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना नहीं होती, अतः यहां सम्यग्मिथ्यात्वका भंग सम्यक्त्वके समान कहा । असंयत के दर्शनमोहनीयकी क्षपणा होती है, अतः यहां मिथ्यात्व और सम्यक्त्वका भंग ओघके समान कहा ।
६ ७०६. कापोतलेश्यावालों में सामान्य तिर्यचों के समान भंग जानना चाहिये । कृष्ण और नील श्यावालों में भी इसीप्रकार जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्व के समान है । पीत और पद्मलेश्यावालों में सम्यग्मिथ्यात्वका अन्तर ओघ समान है तथा शेष प्रकृतियोंका भंग संयतासंयतों के समान है । अभव्योंम छब्बीस प्रकृतियोंका भंग
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ घेदय० मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-अणताणु०चउक्क० आभिणिभंगो। सेसपयडी० उक्कभंगो । उवसम० अणंताण चउक्क० ज० अज० ज० एगस०, उक्क० चउवीसमहोरत्ताणि सादिरेयाणि । सेसपयडी० उक्कभंगो। सासाण०-सम्मामि० उक्क भंगो।
एवमंतराणुगमो समत्तो । ७०७. भावाणुगमो दुविहो--जहण्णो उक्कस्सो चेदि । उक्कस्सए पयदं । दुविहो णिसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण उक्कस्साणुक्कस्सपदाणं सव्वेसिं को भावो ? ओदइओ; मोहोदएण विणा तेसिमसंभवादो। ण उवसंतकसाएण वियहिचारो, तत्थ संतस्स मोहणीयस्स उदओ गत्थि चेवे त्ति णियमाभावादो। भाविम्मि भूदोवयारेण तत्थ वि ओदइयभावुवलंभादो । एवं णेदव्वं जाव अणाहारए त्ति ।
७०८. जहण्णए पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सव्वपयडि० ज० अज० को भावो ? ओदइओ । कुदो ? सरीरणामकम्मोदएण कम्मइयवग्गणक्खंधाणं कम्मभावेण परिणामुवलंभादो । एसो अत्थो एत्थ पहाणो त्ति औदारिकमिश्रकाययोगियोंके समान है। क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में इक्कीस प्रकृतियोंका अन्तर ओघके समान है। वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग आभिनिबोधिकज्ञानियोंके समान है। तथा शेष प्रकृतियोंका भंग उत्कृष्टके समान है। उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवालोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक चौबीस दिन रात है। तथा शेष प्रकृतियोंका भंग उत्कृष्टके समान है । सासादन और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंमें उत्कृष्टके समान भंग है ।
विशेषार्थ-कृष्ण और नीललेश्यामें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होता है अतः इनमें सम्यक्त्वके भंगको सम्यग्मिथ्यात्वके समान कहा। पीत और पद्य लेश्यामें सम्यग्मिथ्यात्वको उद्वेलना होती है अतः इनमें सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान कहा। शेष कथन सुगम है।
इस प्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ। ६७०७. भावानुगम दो प्रकार है-जघन्य और उत्कृष्ट । उनमेंसे पहले उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा सभी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट पदोंका कौनसा भाव है ? औदायिक भाव है। क्योंकि मोहनीय कर्मके उदयके बिना कोई पद नहीं होता है इसलिये सब पदोंमें औदायिक भाव है। यदि कहा जाय कि ऐसा मानने पर उपशान्तकषायके साथ व्यभिचार प्राप्त होता है सो भी बात नहीं है, क्योंकि वहा पर विद्यमान मोहनीयका उदय नहीं ही होता है ऐसा नियम नहीं है क्योंकि भाविकार्यमें भूत कार्यका उपचार कर देनेसे वहां भी औदायिक भाव पाया जाता है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये।
६७०८. अब जघन्य भावानुगमका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देष दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा सब प्रेकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंका कौनसा भाव है ? औदायिक भाव है। औदायिक भाव क्यों है ? क्योंकि शरीर नामकर्मके उदयसे कार्मण वर्गणास्कन्धोंका कर्मरूपसे परिणमन पाया जाता है।
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गा० २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिडिदिविहत्यिसरिणयासो ४२५ घेत्तव्वो ण पुव्विल्लत्थो, उवयारमवलंबिय अवहिदत्तादो। एवं णेदव्वं जाव अणाहारए त्ति ।
एवं भावाणुगमो समत्तो । * सरिणयासो।
७०९. उच्चदि त्ति एत्थ पदज्झाहारो कायव्वो, अण्णहा मुत्तद्वावगमाणुववत्तीदो । कः सन्निकर्षः ? सन्निकृष्यन्ते प्रकृतयो यस्मिन् स सन्निकर्षो नामाधिकारः । एदमहियारसंभालणसुत्त।
___ * मिच्छत्तस्स उक्कस्सियाए हिदीए जो विहत्तिओ सो सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणं सिया कम्मसिनो सिया अकम्मसिनो।
७१०. कुदो ? जदि अणादियमिच्छाइटी सादियमिच्छाइट्टी वा उव्वेल्लिदसम्मत्त-सम्मामिच्छत्तसंतकम्मिओ मिच्छत्तस्स उक्कस्सियं हिदि बंधदि तो सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणमकम्मंसिओ होदि । जदि पुण सादियमिच्छाइट्टी अणुव्वेल्लिदसम्मतसम्मामिच्छत्तसंतकम्मो उक्कस्सियं हिदिं बंधदि तो संतकम्मंसिओ ति दहव्यो । संपहि असंतकम्मियम्मि णत्थि सण्णिकासो; भावस्स अभावेण सह संबंधविरोहादो। यह अर्थ यहां पर प्रधान है ऐसा ग्रहण करना चाहिये, पहलेका अर्थ नहीं, क्योंकि वह उपचारका पाश्रय लेकर अवस्थित है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये।
. इस प्रकार भावानुगम समाप्त हुआ। * अब सन्निकषको कहते हैं।
६७०६. 'सण्णियासो' इद सूत्रमें 'उच्चदि' इस क्रियापदका अध्याहार करना चाहिये, अन्यथा सूत्रके अर्थका ज्ञान नहीं होसकता है।
शंका-सन्निकर्ष किसे कहते हैं ?
समाधान-जिसमें प्रकृतियाँ सन्निकृष्ट की जाती हैं अर्थात् जिसमें प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थिति आदिकी अपेक्षा संयोग बतलाया जाता है वह सन्निकर्ष नामका अधिकार है ।
यह सूत्र अधिकारके सम्हालनेके लिये आया है।
* जो मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाला है वह कदाचित् सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके सत्कर्मवाला होता है और कदाचित सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके सत्कर्मवाला नहीं होता है।
७१०.शंका-ऐसा क्यों है ?
समाधान-यदि अनादि मिथ्याष्टि जीव या जिसने सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वसत्कर्म की उद्वेलना कर दी है ऐसा सादि मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधता है तो वह सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके सत्कर्मवाला नहीं होता है। और जिसने सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्व सत्कर्मकी उद्वेलना नहीं की है ऐसा सादि मिथ्यादृष्टि जीव यदि मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधता है तो वह सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके सत्कर्मवाला होता है ऐसा जानना चाहिये। जिस जीवके कर्मकी सत्ता नहीं होती उसके सन्निकर्ष नहीं होता है, क्योंकि भावका अभावके
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जयधवलासहिदे कसायपाहुरे . [हिदिविहती है तत्थ संतकम्मियस्स सण्णियासपरूवणहमुत्रमुत्तं भणदि--
ॐ जदि कम्मसियो णियमा अणुकस्सा ।
६७११. कुदो ? मिच्छत्तस्स उक्कस्सहिदीए बद्धाए सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्सहिदीए वेदयसम्मादिहिपढमसमए चेव समुप्पज्जमाणाए उप्पत्तिविरोहादो। ण च पढमसमए वेदगसम्माइहिपडिबद्ध कज मिच्छत्त क्कस्सहिदिसंतकम्मियमिच्छाइहिपडिबद्ध होदि; कज-कारणणियमाभावप्पसंगादो । तदो णियमा अणुक्कस्सा ति सद्दहेयव्वं । .
उक्कस्सादोअणुक्कस्सा अंतोमुहुत्त णमादि कादूण जाव एगा हिदित्ति।
$ ७१२. एदस्स मुत्तस्स अत्थो वुच्चदे। तं जहा–मिच्छत्तुक्कस्सहिदिपंधकाले सम्मत्तहिदी सगुकस्सं पेक्खिदण समयणा दुसमयूणा तिसमयूणा वा ण होदि; सम्मत्तुकस्सहिदिधारयवेदगसम्मादिहिविदियसमए तदियसमए वा मिच्छत्तकम्मस्स बंधाभावादो । ण च मिच्छत्तपञ्च एण बज्झमाणाणं पयडीणं तेण विणा बंधो अस्थि; अतकजत्तप्पसंगादो। तम्हा मिच्छत्त क्कस्सहिदिबंधकाले सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तहिदीए सगसगुक्कस्सहिदि पेक्खिदूण अंतोमुहुत्तू णियाए होदव्वं । केत्तिएणूणा ? समयूणसाथ सम्बन्धका विरोध है, अतः सत्कर्मवालोंके सन्निकर्षका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* यदि वह जीव सत्कर्मवाला होता है तो नियमसे उसके इन दोनोंकी अनुत्कृष्ट स्थिति होती है।
६७११. क्योंकि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति वेदकसम्यग्दृष्टिके प्रथम समयमें ही होती है, अतः मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धके समय उसकी उत्पत्ति माननेमें विरोध आता है। और वेदकसम्यग्दृष्टिके पहले समयसे सम्बन्ध रखनेवाला कार्य मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मवाले मिथ्याष्टिके साथ सम्बद्ध नहीं होसकता, अन्यथा कार्यकारण नियमके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है। इसलिये मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति सत्कर्मवालेके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थिति नियमसे अनुत्कृष्ट होती है ऐसा श्रद्धान करना चाहिये ।।
___ * वह अनुत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर दो समयवाली एक स्थिति पर्यन्त होती है।
६७१२. अब इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है-मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धके समय सम्यक्त्वकी स्थिति अपनी उत्कृष्ट स्थितिको देखते हुए एक समय कम, दो समय कम या तीन समय कम नहीं होती है, क्योंकि सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिके धारक वेदकसम्यग्दृष्टिके दूसरे या तीसरे समयमें मिथ्यात्व कर्मका बन्ध नहीं होता है। यदि कहा जाय कि मिथ्यात्वके निमित्तसे बंधनेवाली प्रकृतियोंका मिथ्यात्वके बिना भी बन्ध होता है सो भी बात नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर वह मिथ्यात्वका कार्य नहीं होगा। अतः मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धके समय सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थिति अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिको देखते हुए अन्तर्मुहूर्त कम अवश्य होनी चाहिये।
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गा० २२.] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तियसरिणयासो वेदगसम्मत्त जहण्णकालेण मिच्छत्त गंतूणुक्कस्ससंकिलेसावूरणजहण्णकालेण च । एक्केण सम्मत्तसंतकम्मिएण मिच्छाइटिणा उक्कस्ससंकिलेसमावूरिय बद्धमिच्छत्तु - क्कस्सहिदिणा सव्वजहण्णपडिभग्गद्धमच्छिय वेदगसम्म घेत्तूण कयसम्मत्तुक्कस्सहिदिणा अंतोमुहुत्तूणसत्तरिसागरोवमकोडाकोडिमेत्तसम्मत्तुक्कस्सहिदि कमेण अघहिदिगलणाए जहण्णवेदगसम्मत्तद्धमेशेण ऊणियं करिय मिच्छत्तं गंतूण सव्वजहण्णकालेणावूरिदुक्कस्ससंकिलेसेण मिच्छत्तु कस्सहिदीए पबद्धाए एत्तियमेतेणेव कालेणूणत्तु वलंभादो। ___७१३. पुणो मिच्छत्तस्स समयूणुकस्सहिदि बंधिय अवहिदपडिहग्गकालेण अघहिदिगलणाए ऊणं करिय वेदगसम्म घेत्त ण सम्मत्तु कस्सहिदि समयूणमुप्पाइय अवहिदसम्मत्तमिच्छत्तद्धाओ कमेण गमिय मिच्छत्तु क्कस्सहिदीए पबद्धाए सम्मनहिदी सगुक्कस्सहिदिं पेक्खिदूण समयाहियअंतोमुहुत्तेण ऊणा होदि । एवं दुसमयूणमिच्छतुक्कस्सहिदि बंधिय अवहिदपडिहग्गसम्मत्तमिच्छत्तद्धाओ जहणियाओ कमेण गमिय मिच्छत्तु क्कस्सहिदीए पबद्धाए सम्मत्तहिदीए सगुक्कस्सहिदि पेक्खिदूण दुसमयाहिय
शंका-कमका प्रमाण कितना है ?
समाधान-एक समय कम वेदक सम्यक्त्वका जघन्य काल और मिथ्यात्वको प्राप्त होकर उत्कृष्ट संक्लेशको पूर्ण करनेवाला जघन्य काल ये दोनों काल यहां कम का प्रमाण है। जिसने उत्कृष्ट संक्लेशको करके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधा है ऐसे किसी एक सम्यक्त्व सत्कर्मवाले मिथ्यादृष्टि जीवने मिथ्यात्वसे च्युत होनेमें लगनेवाले सबसे जघन्य काल तक मिथ्यात्वमें रह कर वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त किया और वहां सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिको किया। अनन्तर वह जीव सम्यक्त्वकी अन्तर्मुहूर्त कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण उत्कृष्ट स्थिातको क्रमसे अधःस्थितिगलनाके द्वारा वेदक सम्यक्त्वके जघन्य काल प्रमाण कम करके मिथ्यात्वमें गया और वहां उसने सबसे जघन्य कालके द्वारा उत्कृष्ट संक्लेशको पूरा करके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधा इस प्रकार वेदक सम्यक्त्वके पहले समयसे लेकर यहां तकका काल ही यहां कम का प्रमाण जानना चाहिये। अर्थात इतने कालको सम्यक्त्वकी उत्कष्ट स्थतिमेंसे घटा देने पर जो स्थिति शेष रहे अधिकसे अधिक उतनी अनुत्कृष्ट स्थिति मिथ्यात्वकी उत्कृष्टि स्थितिके समय संभव है, इससे और अधिक नहीं।
६७१३. पुन: मिथ्यात्वकी एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर और अवस्थित प्रतिभग्न कालको अधःस्थितिगलनाके द्वारा कम करके अनन्तर वेदक सम्यक्त्वको ग्रहण करके
और वेदक सम्यक्त्वके पहले समयमें सम्यक्त्वकी एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिको उत्पन्न करके तथा सम्यक्त्व और मिथ्यात्वके अवस्थित कालोंको क्रमसे ब्यतीत करके जो मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधता है उसके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके समय सम्यक्त्वकी स्थिति अपनी उत्कृष्ट स्थितिको देखते हुए एक समय अधिक अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण कम होती है । इसी प्रकार मिथ्यात्व
की दो समय कम उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर तदनन्तर प्रतिभग्नकाल, सम्यक्त्वकाल और .. मिथ्यात्वकाल इन तीनों अवस्थित जघन्य कालोंको क्रमसे बिता कर जो मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधता है उसके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके समय सम्यक्त्वकी स्थिति अपनी उत्कृष्ट
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صمیمی جیمی جیمی جیمی میعی می بے حرم -
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४२८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे.
[हिदिविहाची अंतोमुहुत्त णा होदि । एवं ति-चदुसमयादि जावावलियमुहुत्त-दिवस-पक्ख-मास-उडु. अयण-संवच्छरादिमूणं करिय णेदव्वं ।
६७१४. संपहि आवाधाकंडएणूणसम्मत्तहिदीए इच्छिज्जमाणाए सव्वजहण्णसम्मत्तद्धाए सव्वजहण्णमिच्छत्तद्धाए च उणेण आबाहाकंडएण ऊणियं मिच्छतहिदि बंधाविय पुणो पडिहग्गो होदण सम्म पडिवज्जिय मिच्छत्त क्कस्सहिदीए पबद्धाए सम्मत्तु क्कस्सहिदिमंतोमहुत्त णसत्तरिमेचं पेक्खिदूण वट्टमाणसम्मत्तहिदी एगावाहाकंडएणूणा होदि । ___ ७१५. संपहि आबाहाकंडयस्स हेहा इच्छिज्जमाणे दोहि अवहिदअंतोमुहुत्तेहि ऊणाबाहाकंडएण समयाहिएण ऊणियं मिच्छत्तु क्कस्सहिदि बंधिय अवहिदजहण्णद्धाओ तिण्णि वि अधहिदिगलणाए कमेण गालिय मिच्छत्त क्कस्सहिदीए पबद्धाए सम्मत्तहिदी सगुकस्सहिदि पेक्खिदण समयाहियाबाहाकंडएण ऊणा होदि । एवमेदमत्थपदं चित्रोणावहारिय अोदारेदव्वं जाव णिवियप्पा अंतोकोडाकोडिमेत्ता सम्मत्तहिदी जादा ति । णवरि जत्तिय-जत्तियआबाहाकंडएहि ऊणं सम्मत्तहिदिमिच्छदि तत्तिय-तत्तियमेत्ताबाहाकंडयाणि दोहि अवहिदजहण्णाद्धाहि परिहीणाणि स्थितिको देखते हुए दो समय अधिक अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण कम होती है। इसी प्रकार तीन
और चार समयसे लेकर एक आवली. एक महत, एक दिन, एक पक्ष, एक महीना, एक ऋत, एक अयन, एक वर्ष आदिको कम करके सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थिति ले आना चाहिये।
६७१४. अब मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धके समय सम्यक्त्वकी एक आबाधा काण्डकस कम उत्कृष्ट स्थिति इच्छित है, अतः सबसे कम सम्यक्त्वके कालको और सबसे कम मिथ्यात्वके कालको आबाधाकाण्डकमेंसे कम करके जो शेष रहे उतने आबाधाकाण्डकसे कम मिथ्यात्वकी स्थितिको बंधा कर पुनः मिथ्यात्वसे निवृत्त होकर और सम्यक्त्वको प्राप्त होकर अनन्तर जो मिथ्यात्वमें जा कर मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधता है उसके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके बंधके समय सम्यक्त्वकी अन्तर्मुहूर्त कम सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण उत्कृष्ट स्थितिको देखते हुए वर्तमान सम्यक्त्वकी स्थिति एक आबाधाकाण्डक कम होती है।
६७१५. अब मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धके समय एक आबाधाकाण्डकसे नीचे सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थिति इच्छित है, अतः समयाधिक आबाधाकाण्डकमेंसे दो अवस्थित अन्तर्मुहूर्तं प्रमाण कालको कम करने पर समयाधिक आबाधाकाण्डकका जितना काल शेष रहे उतना कम मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको बंधा कर तदनन्तर तीनों ही अवस्थित जघन्य कालोंको अधःस्थितिगलनाके द्वारा क्रमसे गला कर जो मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधता है उसके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धके समय सम्यक्त्वकी स्थिति अपनी उत्कृष्ट स्थितिको देखते हुए एक समय अधिक एक आबाधाकाण्डक काल प्रमाण कम होती है। इस प्रकार इस अर्थपदको अपने चित्तमें धारण करके सम्यक्त्वकी स्थितिको तब तक कम करते जाना चाहिये जब तक निर्विकल्प अन्तः कोडाकोड़ी प्रमाण सम्यक्त्वकी स्थिति प्राप्त हो । किन्तु इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धके समय जहां जितने जितने आवाधाकाण्डकोंसे कम सन्यक्त्वकी स्थिति इच्छित हो वहां दो अवस्थित जघन्य कालोंको उतने उतने आबाधाकाण्डकोंमेंसे कम करने पर जो काल
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गा० २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तियसरिणयासो उक्कस्सहिदिम्मि ऊणाणि करिय बंधिदूण श्रोदारेदव्वं । संपहि मिच्छत्तमस्सिदण हेढा ओदारेहुँ सक्कदे सव्वविसुद्धेण मिच्छाइहिणा घादिदसवजहण्णहिदिसंतं तिहि अवहिदजहण्णद्धाहि यूणं सम्मत्तहिदी पत्ता त्ति ।
$ ७१६. संपहि सम्मत्तसंतकम्मियमिच्छाइडिजीवे घेत्त णुव्वेल्लणाए मिच्छत्तु - कस्सहिदीए सह सम्मत्तहेहिमहिदीणं सण्णियासो वुच्चदे । तं जहा–तत्थ समयाहियउव्वेल्लणकंडयमेत्तजीवे अस्सिदूण सण्णियासपरूवणं कस्सामो। एत्थ ताव समयाहियकंडयमेतजीवाणं सम्मत्तहिदीए दीहलं वुच्चदे-पढमजीवो मिच्छनधुवहिदीदो समुप्पण्णसम्मत्तधुवहिदीए उवरि समयूणुक्कीरणद्धाहियसयलेगुव्वेल्लणकंडयधारो विदियजीवो समयूणुकीरदाहियसमयूणुव्वेल्लणकंडएण अहियसम्मत्तधुवहिदिधारो तदियजीवो समयूणुकीरणद्धाहियदुसमऊणुव्वेल्लणकंडएणब्भहियसम्मत्तधुवहिदिधारओ चउत्थजीवो समयूणुकीरणद्धाहियतिसमयूणुव्वेल्लणकंडयभहियसम्मत्तधुवहिदिधारओ पंचमजीबो समयूणुकीरणद्धाहियचदुसमयूणुव्वेल्लणकडयन्भहियसम्मत्तधुवहिदिधारओ एवंणेदवंजाव समयाहियउज्वेल्लणकंडयमेत्तजीवा त्ति । तत्थ एदेसु जीवेसु जो पढमजीवो तेणुव्वेल्लणएगकंडए
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शेष रहे उतना कम मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कराके सम्यक्त्वकी स्थितिको घटाते जाना चाहिये । इसके आगे मिथ्यात्वको उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा सम्यक्त्वकी स्थितिको अन्तःकोडाकोड़ी सागरसे और नीचे उतारना शक्य नहीं है क्योंकि घात करने पर जिसके ( संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तके योग्य )मिथ्यात्वकी सबसे जघन्य स्थितिका सत्त्व है ऐसे सर्वविशुद्ध मिथ्यादृष्टिने मिथ्यात्वके जघन्य स्थितिसत्त्वकी अपेक्षा तीन अवस्थित जघन्य कालोंसे न्यून सम्यक्त्वकी स्थिति प्राप्त कर ली है।
६७१६. अब सम्यक्त्व सत्कर्मवाले मिथ्यादृष्टि जीवका आश्रय लेकर उद्वेलनामें मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके साथ सम्यक्त्वकी ध्र वस्थितिसे नीचेकी स्थितियोंका सन्निकर्ष कहते हैं। जो इस प्रकार है-इस कथनमें पहले एक समय अधिक उद्वेलनाकाण्डकप्रमाण जीवोंका आश्रय लेकर सन्निकर्षका प्ररूपण करेंगे । अतः यहां पर पहले एक समय अधिक आबाधाकाण्डकप्रमाण जीवोंके सम्यक्त्वकी स्थितिका दीर्घत्व कहते हैं-मिथ्यात्वकी ध्र वस्थितिसे जो सम्यक्त्वको ध्रु वस्थिति उत्पन्न होती है उसके ऊपर एक समय कम उत्कीरणाकालसे अधिक पूरे उद्वलनाकाण्डकका धारक प्रथम जीव है। एक समय कम उत्कीरणाकालको एक समय कम उद्वेलनाकाण्डकमें मिला देने पर जो प्रमाण हो उतने प्रमाणसे अधिक सम्यक्त्वकी ध्रुवस्थितिका धारक दूसरा जीव है। एक समय कम उत्कीरणाकालको दो समय कम उद्वेलनाकाण्डकमें मिला देनेपर जो प्रमाण हो उतने प्रमाणसे अधिक सम्यक्त्वको ध्रु वस्थितिका धारक तीसरा जीव है। एक समय कम उत्कीरणाकालको तीन समय कम उद्वेलनाकाण्डकमें मिला देनेपर जो प्रमाण हो उतने प्रमाणसे अधिक सम्यक्त्वकी ध्र वस्थितिका धारक चौथा जीव है। एक समय कम उत्कीरणा कालको चार समय कम उद्वेलनाकाण्डकमें मिला देने पर जो प्रमाण हो उतने प्रमाणसे अधिक सम्यक्त्वकी ध्रुवस्थितिका धारक पांचवां जीव है। इस प्रकार समयाधिक उद्वेलनाकाण्डकप्रमाण जीव प्राप्त होने तक इसीप्रकार कथन करते जाना चाहिये। अब इन जीवोंमें जो पहला जीव है उसके द्वारा एक उद्वेलनाकाण्डकके घात करने पर सम्यक्त्वकी ध्रु वस्थितिसे एक समय कम सम्यक्त्वकी स्थिति
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [द्विदिविहत्ती ३ पादिदे सम्मत्तधुवहिदीदो समयूणा सम्मत्तहिदी होदि । ताधे चेव मिच्छत्तु कस्सहिदीए बद्धाए अवरो सण्णियासवियप्पो होदि । पुणोतदणंतरविदियजीवेण उव्वेल्लणकंडए पादिदे सेससम्मत्तहिदी सम्मत्तधुवहिदीदो दुसमयूणा होदि । ताधे तेण मिच्छत्तु कस्सहिदीए पबद्धाए अण्णो सण्णियासवियप्पो होदि । पुणो तदियजीवेण उव्वेल्लणकंडए खंडिदे सेससम्मत्तहिदी सम्मत्तधुवहिदीदो तिसमयूणा । तत्थ तेण मिच्छत्त कस्सहिदीए पबद्धाए अण्णो सण्णियासवियप्पो होदि । पुणो चउत्थजीवेण उव्वेल्लणकंडए खंडिदे सेससम्मत्तहिदी सम्मत्तधुवहिदीदो चदुसमयूणा । ताधे तेण मिच्छत्तु कस्स हिदीए पबद्धाए अण्णो सण्णियास वियप्पो होदि। पंचमजीवेण उव्वेल्लणकंडए खंडिदे तत्थ सेससम्मत्तहिदी सम्मत्तधुवहिदीदो पंचहि समएहि ऊणा। एदेण कमेण चरिमजीवेणुव्वेल्लकंडए खंडिदे तत्थ सेससम्मत्तष्ठिदी सम्मत्तधुवहिदीदो समयाहियउव्वेल्लणकंडएणूणा । ताधे तेण मिच्छत्त कस्सहिदीए पबद्धाए अण्णो सण्णियासवियप्पो लब्भदि । एवं पढमवारपरूवणा गदा ।
७१७ एदं परूवणमवहारिय विदिय-तदिय-चउत्थादि जाव पलिदोवमस्स असंखे०भागमेत्तवारेसु उव्वेल्लणकंडए पादिय मिच्छत्त कस्सहिदि बंधावि यसण्णियासवियप्पा उप्पाएदव्या । तत्थ चरिमुव्वेल्लणकंडयचरिमफालीए पादिदाए सम्मत्तहिदी सेसा समय॒णुदयावलियमेत्ता होदि । ताधे मिच्छत्त कस्सहिदीए पवद्धाए प्राप्त होती है। और उसी समय मिथ्यात्वकी उत्कष्ट स्थितिका बन्ध होने पर एक अन्य सन्निकर्षविकल्प प्राप्त होता है । पुनः तदनन्तर दूसरे जीवके द्वारा उद्वेलनाकाण्डकके घात करने पर सम्यक्त्व की शेष स्थिति सम्यक्त्वकी ध्र वस्थितिसे दो समय. कम होती है। तथा उसी समय उसके
की उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध होने पर एक अन्य सन्निकर्षविकल्प प्राप्त होता है। पुनः तीसरे जीवके द्वारा उद्वेलनाकाण्डकके खण्डित करने पर सम्यक्त्वकी शेष स्थिति सम्यक्त्वकी ध्रुव स्थितिसे तीन समय कम होती है । तथा उसी समय उसके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध होने पर एक अन्य सन्निकर्ष विकल्प प्राप्त होता है। पुनः चौथे जीवके द्वारा उद्वेलनाकाण्डकके खण्डित करने पर सम्यक्त्वकी शेष स्थिति सम्यक्त्वकी ध्रुवस्थितिसे चार समय कम होती है । तथा उसी समय उसके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध होने पर एक अन्य सन्निकर्ष विकल्प प्राप्त होता है। पुनः पांचवें जीवके द्वारा उद्वेलनाकाण्डकके खण्डित करने पर सम्यक्त्वकी शेष स्थिति सम्यक्त्वकी ध्रुवस्थितिसे पांच समय कम होती है। इसी क्रमसे अन्तिम जीवके द्वारा उद्वेलना काण्डकके खण्डित करने पर वहां सम्यक्त्वकी शेष स्थिति सम्यक्त्वकी ध्रुवस्थितिसे समयाधिक उद्वेलनाकाण्डकप्रमाण कम होती है । तथा उसी समय उसके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध होने पर एक अन्य सन्निकर्षविकल्प प्राप्त होता है । इस प्रकार प्रथमबार प्ररूणा समाप्त हुई।
६७१७. इस प्रकार इस प्ररूपणाको समझ कर आगे दूसरी, तीसरी और चौथी बारसे लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भागबार उद्वेलनाकाण्डकोंका घात कराके और मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कराके सन्निकर्षविकल्प उत्पन्न कर लेने चाहिये । उसमें भी अन्तिम उद्वेलनाकाण्डककी अन्तिम फालिके घात करनेपर सम्यक्त्वकी शेष स्थिति एक समय कम उदयावलिप्रमाण प्राप्त होती है। तथा उसी समय मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्ध होने पर एक अन्य सन्निकर्ष.
मिथ्यात्वकी
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गा० २२
द्विदिवही उत्तरपयडिद्विदिविहत्तियसरिण्यासो
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अण्णो सण्णियासवियप्पो होदि । दुसमयृणुदयावलियमेत्तसम्मत्तद्विदिधारएण मिच्छत्तुक्कस्सद्विदीए पबद्धाए अण्णो सण्णियासवियप्पो होदि । एवं गंतूण दुसमयकालेगसम्मणि से यहि दिधारएण मिच्छत्त कस्सहिंदीए पबद्धाए चरिमो सण्णियासवियप्पो होदि । एदस्स सुत्तस्स एसा संदिही ।
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०००२०००२०००२०००२०००२०००२०००२०००
००००२०००२०००२०००२०००२०००२०००२०००
०००००२०००२०००२०००२०००२०००२०००२०००
* णवरि चरिमुव्वेल्लणकंडयचरिमफालीए ऊणा ।
१७१८. जहा से सुव्वेल्लणकंडएसु णाणाजीवे अस्सिदूण निरंतरद्वाणाणि लद्धाणि तथा चरिमुव्वेल्लणकंडयम्मि निरंतरद्वाणाणि किण्ण लब्धंति ? ण, चरिमजहणु॰ वेल्लणकंडयादो कम्हि वि जीवे समयूणादिकमेणूणचरिमुव्वेल्लणकंडयाणुवलंभादो । उब्वेल्लणकण्डयफालीओ सव्वजीवेसु सरिसाओ किष्ण होंति ? ण, तासिं सरिस संते बीए हा सांतर हाणुप्पत्तिप्पसंगादो । ण च एवं; चरिमकंडयचरिमफालिं मोत्तण अण्णस्थ निरंतर कमेण सण्णियासपरूवयसुत्रेणेदेण सह विरोहादो । एवं पढमपरूवणा
समत्ता ।
विकल्प प्राप्त होता है । तथा सम्यक्त्वकी दो समय कम उदयावलिप्रमाण स्थितिको धारण करनेवाले जीवके द्वारा मिध्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्ध करने पर एक अन्य सन्निकर्षविकल्प प्राप्त होता है । इसी प्रकार आगे जाकर सम्यक्त्वके एक निषेककी दो समय कालप्रमाण स्थितिको धारण करनेवाले जीवके द्वारा मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति के बन्ध करने पर अन्तिम सन्निकर्षविकल्प प्राप्त होता है । इस सूत्रकी यह संदृष्टि है । ( संदृष्टि मूल में देखिये । )
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किन्तु इतनी विशेषता है कि ये सन्निकर्षविकल्प अन्तिम उद्वेलनाकाण्डककी अन्तिम फालिसे रहित हैं ।
९७१८. शंका - जिस प्रकार शेष उद्वेलना काण्डकों में नाना जीवोंकी अपेक्षा सन्निकर्षके निरन्तर स्थान प्राप्त होते हैं उसी प्रकार अन्तिम उद्वेलनाकाण्डकमें निरन्तर स्थान क्यों नहीं प्राप्त होते हैं ? समाधान- नहीं, क्यों कि किसी भी जीवके अन्तिम जघन्य उद्वेलनाकाण्डकसे एक समय कम आदि क्रमसे न्यून अन्य अन्तिम उद्वेलना काण्डक नहीं उपलब्ध होता है ।
शंका-उद्वेलना काण्डककी फालियां सब जीवीं में समान क्यों नहीं होती है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि यदि उनको समान माना जाता है तो ध्रुवस्थितिके नीचे सान्तर स्थानों की उत्पत्तिका प्रसंग प्राप्त होता है । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर अन्तिम arsaat अन्तिम फालिको छोड़ कर अन्य सब स्थानों में निरन्तर क्रमसे सन्निकर्षका कथन करने - वाले इस सूत्र के साथ विरोध आता है। इस प्रकार प्रथम प्ररूपणा समाप्त हुई ।
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बयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[हिदिवित्ती।
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विशेषार्थ-सन्निकर्ष दो या दो से अधिक वस्तुओंके सम्बन्धको कहते हैं। प्रकृतमें मोहनीयकी उत्तर प्रकृतियोंकी स्थितियोंका प्रकरण है, जिनके उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य ये चार भेद हैं। तदनुसार यहाँ मोहनीयकी किस प्रकृतिकी कौन-सी स्थितिके रहते हुए उससे अन्य किस प्रकृतिके कितने स्थितिविकल्प सम्भव हैं इसका विचार किया गया है। उसमें भी पहले मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके रहते हुए सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके कितने स्थितिविकल्प किस प्रकार प्राप्त होते हैं यह बतलाया है। यद्यपि यह सम्भव है कि मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति के समय सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता न हो, क्योंकि जो अनादि मिथ्या. दृष्टि है उसके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध हो सकता है पर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता नहीं पाई जाती। इसी प्रकार जिसने सम्यक्त्वसे च्युत होनेके बाद सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना कर दी है उसके भी मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके होने पर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता नहीं पाई जाती। पर यहां सन्निकर्षका प्रकरण है इसलिये ऐसे जीवका ही ग्रहण करना चाहिये जिसके उक्त दोनों प्रकृतियोंकी सत्ता हो। अब देखना यह है कि मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके समय सम्यक्त्वके कितने स्थितिविकल्प सम्भव हैं। बात यह है कि मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति अपने बन्धके समय मिथ्यादृष्टिके होती है और सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थिति वेदकसम्यग्दृष्टिके पहले समयमें प्राप्त होती है जो मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिसे अन्तर्मुहूर्त कम होती है, क्योंकि जिस मिथ्यादृष्टि जीवने वेदकसम्यक्त्वके योग्य कालमें मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया है वह यदि अतिलघु अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त हो जाय तो उसके पहले समयमें मिथ्यात्वकी अन्तर्मुहूर्त कम उत्कृष्ट स्थिति सम्यक्त्व प्रकृतिरूपसे संक्रमित हो जाती है जो सम्यक्त्वप्रकृतिकी अपेक्षा उसकी उत्कृष्ट स्थिति होती है। पर इस समय मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति नहीं रहती, क्योंकि मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिमें अन्तर्मुहूर्त कम हो गया है। और हमें सर्वप्रथम मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके समय सम्यक्त्वकी अधिकसे अधिक कौनसा स्थितिविकल्प सम्भव है यह लाना है, अतः पूर्वोक्त सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिवाले जीवको अतिलघु अन्तर्मुहूर्त काल तक वेदकसम्यक्त्वमें रख कर मिथ्यात्वमें ले जाय और वहां अतिलघु अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त कराके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करावे। इस प्रकार मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके समय सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थिति नहीं हो सकती है किन्तु अनुत्कृष्ट स्थिति होती है जो अपनी उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा नियमसे पूर्वोक्त दो अन्तर्मुहूर्त कम है। इससे सिद्ध हुआ कि मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके समय सम्यक्त्वकी नियमसे अनुत्कृष्ट स्थिति होती है। फिर भी मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके समय सम्यक्त्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिका केवल यही विकल्प सम्भव नहीं है किन्तु इसके नीचे सम्यक्त्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिके दो समयवाली अनुत्कृष्ट स्थिति तक जितने भी विकल्प हो सकते हैं वे सब सम्भव हैं किन्तु कुछ अपवाद है जिसका उल्लेख हम यथास्थान करेंगे। इन सब स्थितिविकल्पोंको लानेके लिये आगे कही जानेवाली चार बातें ध्यानमें रखनी चाहिये । (१) मिथ्यात्वका स्थितिबन्ध (२) प्रतिभग्नकाल अर्थात् उत्कृष्ट संक्लेशसे निवृत्त होकर सम्यक्त्वके योग्य विशुद्धिको प्राप्त होनेका काल (३) वेदकसम्यक्त्वका काल और (४) मिथ्यात्वमें जाकर उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होनेका काल । अब पहले मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति एक समय कम, दो समय कम आदि उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करावे अनन्तर नम्बर २ के प्रतिभग्नकालके भीतर उसे वेदकसम्यक्त्वके योग्य विशुद्धि प्राप्त करावे । इसके बाद नम्बर ३ के वेदकसम्यक्त्वके कालके प्रथम समयमें मिथ्यात्वकी अन्तर्मुहूर्त कम पूर्वबद्ध स्थितिका सम्यक्त्वमें संक्रमण करावे । पश्चात् वेदक सम्यक्त्वमें अन्तर्मुहूर्तकाल तक उस जीवको रखकर मिथ्यात्वमें
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गा० २२ ]
हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिविदिविहत्तियसरिणयासो
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लेजाय और वहां नम्बर चारके काल द्वारा उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त कराके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करावे और इस प्रकार मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके साथ सम्यक्त्वकी उत्तरोत्तर एक एक समय कम स्थितिका सन्निकर्ष प्राप्त करता जाय । यहां नम्बर २, ३ और ४ के काल तो अवस्थित रहते हैं उनमें घटा-बढ़ी नहीं होती किन्तु नम्बर एकमें जो मिथ्यात्वकी स्थिति कही है उसमें एक एक समय घटता जाता है और इसीलिये सन्निकर्षके समय सम्यक्त्वकी स्थितिमें भी एक एक समय घटता जाता है। इस प्रकार यह क्रम सम्यक्त्वकी नन्बर २, ३ और ४ के कालसे कम अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितिके प्राप्त होने तक चलता रहता है, क्योंकि संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तके मिथ्यात्वकी अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरसे कम स्थितिका बन्ध नहीं होता। अब सम्ममें से जो नम्बर २,३ और ४ के कालको कम किया है सो सन्निकर्षके समय तक इतना काल और कम हो जाता है अर्थात् उस समय सम्यक्त्वकी स्थिति इन तीन कालोंसे कम अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण रहती है। मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धके समय सम्यक्त्वकी स्थितिके इतने सन्निकर्ष विकल्प तो पूर्वोक्त क्रमसे प्राप्त होते हैं किन्तु आगेके सन्निकर्ष विकल्प उद्वेलनाकी अपेक्षासे प्राप्त करना चाहिये, क्योंकि संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त जीवके मिथ्यात्वका स्थितिबन्ध अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरसे कम न होनेके कारण संक्रमणकी अपेक्षा सम्यक्त्वकी पूर्वोक्त स्थितिसे कम स्थिति नहीं प्राप्त की जा सकती है। फिर भी सम्यक्त्वके आगेके स्थितिविकल्प नाना जीवोंकी अपेक्षासे प्राप्त करना चाहिये, क्योंकि एक-एक स्थितिकाण्डकका उत्कीरणाकाल यद्यपि अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होता है फिर भी स्थितिकाण्डकका घात अन्तिम फालिके पतनके समय ही होता है इससे पहलेके उत्कीरणा कालके समयोंमें तो स्थितिकाण्डकके पूरे निषेकोंका पतन न होकर उनके नियमित संख्यावाले परमाणुओंका ही पतन होता है, अतः एक जीवकी अपेक्षा उद्वेलनामें सम्यक्त्वकी स्थितिके सब सन्निकर्ष विकल्प नहीं प्राप्त हो सकते हैं और इसीलिये वीरसेन स्वामीने आगेके सन्निकर्ष विकल्पोंको प्राप्त करनेके लिये नाना जीवोंकी अपेक्षा कथन किया है। उसमें भी यहाँ सर्व प्रथम सम्यक्त्वकी ध्रु वस्थितिसे एक समय कम, दो समय कम आदि स्थितिविकल्प प्राप्त करना है, क्योंकि तभी तो सम्यक्त्वके उन स्थितिविकल्पोंके साथ मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके सन्निकर्ष विकल्प प्राप्त किये जा सकेंगे, अतः उद्वेलनाके लिये ऐसी स्थितियों का ग्रहण करना चाहिये जिससे उद्वेलनाके होनेपर सम्यक्त्वकी ध्रु वस्थितिसे एक समय कम, दो समय कम आदि स्थितिविकल्प प्राप्त किये जा सकें। इसी प्रकार अन्तिम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके पतन तक उत्तरोत्तर एकएक समय कमके क्रमसे स्थितियोंको घटाते जाना चाहिये पर इतनी विशेषता है अन्तिम स्थितिकाण्डकका प्रमाण सर्वत्र एक समान है, अतः सम्यक्त्वके अन्तिम स्थितिकाण्डक प्रमाण स्थितिविकल्प सन्निकर्षमें नहीं प्राप्त हो सकते हैं, क्योंकि नाना जीवोंकी अपेक्षा भी वह सबके एकसी ही होगी। तत्पश्चात् सम्यक्त्वकी स्थितिके एक समय कम एक आवलिप्रमाण स्थिति विकल्पोंके शेष रहने पर उनकी अपेक्षा भी तत्प्रमाण सन्निकर्ष विकल्प प्राप्त कर लेना चाहिये। आगे अंकसंदृष्टिसे पूर्वोक्त कथनके खुलासा करनेका प्रयत्न किया जाता है-यहाँ जितने भी अंक दिये जा रहे हैं वे सब काल्पनिक हैं। उनसे केवल पूर्वोक्त कथनके समझने में सहायता मिलती हैं, अतः उनकी योजना की गई है। मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति मिथ्यात्वकी ध्रु वस्थिति प्रतिभग्नकाल १०००
३०० वेदकसम्यक्त्व जघन्य काल उत्कृष्ट संक्लेश पूरण काल
१६
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४३४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[द्विदिविहत्ती ३
| मिथ्यात्वकी बन्ध- |प्र० भ०] संक्रमणसे प्राप्त | वे० स० [सं० पू० मि० की उ०स्थि०० के
स्थिति काल | | सम्यक्त्वकी स्थिति | काल काल स० सम्यक्त्वकी स्थि
६
१००० ६६६
६८ ६६७
१८४ १८३
६५१
ह८२
१८१
६५० ६४६ ६४८
६८० ६७६ ६७८
६४७ ६४६
६६४
३०२
२८६
२५४
२८५ २८४
२५३ २५२
३००
स० की ध्रु वस्थिति
इतने सन्निकर्ष विकल्प संक्रमणसे प्राप्त हुए हैं। ये कुल सन्निकर्ष विकल्प ७०१ हुए। अब आगे अंकसंदृष्टिसे उद्वेलनाकी अपेक्षा सन्निकर्ष विकल्पोंके खुलासा करनेका प्रयत्न किया जाता है
नाना जीव ८. स्थितिकाण्डक १६, उत्कीरणकाल ४ १ समय | उत्तरोत्तर एक
| उत्कीरणाकाल | सम्यक्त्वकी सम्यक्त्वकी
सम्यक्त्वकी एक समय कम
और उद्वेलना | उद्वेलनासे
सत्त्वस्थिति उ० का० उ० काण्डक
काण्डकका योग प्राप्त स्थिति
नाना जीव
ध्रु वस्थिति
ઉપર
२७१
२५१ २५०
२४६
~r rdsur 9॥
२५२ ૨૫૨ ૨૨ ૨૨ २५२ ૨૫૨ ૨૫૨
mmmmmmmmm
२६६ २६८ २६७ २६६
२०
२४८ २४७ २४६ २४५
२६५
८ वाँ
२०
यहाँ जो उत्कीरणाकालमें एक समय कम करके और उद्वेलनाकाण्डकमें उत्तरोत्तर एक एक समय कम करके अनन्तर इनके योगको सम्यक्त्वकी ध्र वस्थिति में जोड़ा है सो नाना जीवोंकी अपेक्षा सम्यक्त्वकी सत्त्वस्थिति उत्तरोत्तर एक-एक समय कम बतलानेके लिये किया गया है। यहाँ उत्कीरणाकालप्रमाण स्थिति तो अधःस्थिति गलनासे गल जाती है और उद्वेलना काण्डकप्रमाण स्थितिका उद्वेलनाकाण्डककी अन्तिम फालिके पतनके समय घात हो जाता है। यही कारण है कि सम्यक्त्वकी सत्त्वस्थिति मेंसे सर्वत्र उत्कीरणाकाल और उद्वेलनाकाण्डक प्रमाण स्थितियाँ घटाकर बतलाई गई हैं। इसी प्रकार आगे भी उद्वेलनाकी अपेक्षा सन्निकर्ष विकल्प ले
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गा० २२) हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिविहत्तियसरिणयासो ४३५
७१६. संपहि विदियपयारेण सण्णियासपरूवणा कीरदे । तं जहा–वेदगपाओग्गमिच्छादिहिणा बद्धमिच्छत्त क्कस्सहिदिणा सव्वजहण्णपडिहग्गकालमच्छिय सम्मत्त घेतण मिच्छत्तहिदिसंकमे सम्मत्तस्सुक्कस्सहिदि कादूण सबजहण्णसम्मत्तकालमच्छिदेण मिच्छ गंतूण सव्वजहण्णमिच्छत्तकालेणुक्कस्ससंकिलेसं पूरेदृण मिच्छत्तु कस्सहिदीए पबद्धाए सम्मत्तुक्कस्सहिदी अंतोमुहुत्त णा होदि । तदो अण्णेण
आने चाहिये । किन्तु अन्तिम उद्वेलनाकाण्डकके घात होनेपर अनेक स्थितिविकल्प नहीं प्राप्त होते, क्योंकि जघन्य उद्वेलनाकाण्डकका प्रमाण सब जीवोंके समान है, अत: उसका घात होनेपर सबके एक ही स्थिति प्राप्त होती है। यथा
नाना जीव
सम्यक्त्वकी सत्त्व स्थिति
उत्कीरणाकाल
उद्वेलनाकाण्डक
उद्वेलनासे प्राप्त सम्यक्त्वकी स्थिति
१ ला
cl
२७
५
c ccx
1 GMS oc
66666666
oc ac cccc
एक समय कम उदयावलिप्रमाण नि०
यहाँ उत्कीरणा कालप्रमाण स्थितियाँ तो अधःस्थिति गलनाके द्वारा गलती गई हैं, अतः उनकी अपेक्षा सन्निकर्ष विकल्प बन जाते हैं पर उद्वेलनाकाण्डक प्रमाण स्थितियोंका घात एक साथ हुआ है और सम्यक्त्वकी सत्त्व स्थितियोंमें विभिन्नता न होनेसे उद्वेलनाकाण्डकघातसे नाना जीवोंके स्थितियाँ भी एकसी ही प्राप्त हुई, अतः उद्वेलनाकाण्डक १६ प्रमाण स्थितियाँ सन्निकर्षसे परे हैं। तथा अन्तमें प्रत्येक जीवके जो एक कम उदयावलिप्रमाण निषेक बचे हैं वे अधःस्थितिगलनाके द्वारा गलते जाते हैं और इस प्रकार उतने सन्निकर्षविकल्प और प्राप्त हो जाते हैं। इस प्रकार उद्वेलनासे कुल सन्निकर्षविकल्प २५१ - १६%२३५ प्राप्त हुए ।
६७१६. अब दूसरे प्रकारसे सन्निकर्षकी प्ररूपणा करते हैं, जो इस प्रकार है-जिसने मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया है ऐसा कोई एक वेदकसम्यक्त्वके योग्य मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्वसे च्युत होनेके सबसे जघन्य काल तक मिथ्यात्वमें रहा पुनः वेदकसम्यक्त्वको ग्रहण करके पहले समयमें उसने मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका संक्रम करके सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थिति की और वहां सम्यक्त्वके सबसे जघन्य काल तक रह कर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। तदनन्तर मिथ्यात्वके सबसे जघन्य कालके द्वारा उत्कृष्ट संक्लेशकी पूर्ति करके उसके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्ध होने पर उस समय सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त कम होती है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ द्विदिनिहत्ती ३ जीवेण वेदगसम्मत्तपाओग्गेण बद्धमिच्छत्तुक्कस्सहिदिणा समयाहियसव्वजहण्णपडिहग्गद्धमच्छिय सम्मत्त घेत्तण सव्वजहण्णसम्मत्त-मिच्छत्तद्धाओ गमिय उक्स्ससंकिलेसं पूरेदूण मिच्छत्तु कस्सहिदीए पबद्धाए सम्मत्तोघुक्कस्सहिदि पेक्खिदू ण संपहियसम्मत्त हिदी समयाहियअंतोमुहुत्तेणूणा होदि । पुणो अण्णेण जीवेण बद्धमिच्छत्तु क्कस्सहिदिणा दुसमयाहियपडिहग्गद्धमच्छिय वेदगसम्म पडिवण्णेण सव्वजहण्णसम्मत्त-मिच्छत्तद्धाओ गमिय मिच्छत्त कस्सहिदीए पबद्धाए सम्मत्तोघुक्कस्सहिदीदो संपहियसम्मचहिदी दुसमयाहियअंतोमुहुत्तेणूणा होदि । एवं पडिहग्गकालं तिसमयाहिय-चदुसमया हियादिकमेण वडाविय सेससम्मत्त-मिच्छत्तजहण्णकाले अवहिदे कादण मिच्छत्त क्कस्सहिदि बंधाविय णेदव्वं जाव जहण्णपडिहग्गकालादो उक्कस्सेण संखेजगुणं पावेदि त्ति। तं पचे मिच्छत्तु क्कस्सहिदि बंधाविय गेण्हिदव्वं । पुणो उक्कस्सपडिहग्गकालम्मि जहण्हपडिहग्गकालं सोहिय सुद्धसेसमेत्तकालेणूणमिच्छत्त कस्सहिदि बंधिय पडिहग्गो होद्ण सम्म पडिवज्जिय मिच्छ गंतूणवहिदतिण्णिकाले अच्छिय मिच्छत्तुक्कस्सहिदीए पबद्धाए सम्मत्तोघुक्कस्सहिदि पेक्खिदूण संपहियसम्मत्तहिदी अंतोमुहुत्तेण पडिहग्गतदनन्तर जिसके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध हुआ है ऐसा वेदकसम्यक्त्वके योग्य एक अन्य मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्वसे च्युत होनेके समयाधिक सबसे जघन्य प्रतिभग्न कालतक मिथ्यात्वमें रह कर सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ और सम्यक्त्व तथा मिथ्यात्वके सबसे जघन्य कालोंको व्यतीत करके उसने उत्कृष्ट संक्लेशकी पूर्ति की तब उसके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्ध होने पर सम्यक्त्वकी सामान्य उत्कृष्ट स्थितिको देखते हुए इस समयकी सम्यक्त्वकी स्थिति एक समय अधिक अन्तर्मुहूर्त प्रमाण कम होती है। तदनन्तर जिसने मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया है ऐसा कोई एक अन्य मिथ्या दृष्टि जीव मिथ्यात्वसे च्युत होनेके दो समय अधिक जघन्य प्रतिभग्न काल तक मिथ्यात्वमें रहकर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ और सम्यक्त्व तथा मिथ्यात्वके सबसे जघन्य कालोंको व्यतीत किया और इस प्रकार उसके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्ध होने पर सम्यक्त्वकी ओघ उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा इस समयकी सम्यक्त्वकी स्थिति दो समय अधिक अन्तर्मुहूर्तप्रमाण कम होती है। इसी प्रकार मिथ्यात्वसे च्युत होनेके कालको तीन समय अधिक, चार समय अधिक आदि क्रमसे बढ़ाते हुए तथा सम्यक्त्व और मिथ्यात्वके शेष दो जघन्य कालोंको अवस्थित करके और मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कराते हुए तब तक कथन करते जाना चाहिये जब जाकर मिथ्यात्वसे च्युत होनेके जघन्य कालसे उत्कृष्ट काल संख्यात गुणा प्राप्त होवे । इस प्रकार इसके प्राप्त होने पर मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बम्ध कराके सम्यक्त्वकी स्थिति ग्रहण करना चाहिये । पुनः मिथ्यात्वसे च्युत होनेके उत्कृष्ट प्रतिभग्न कालमेंसे मिथ्यात्वसे च्युत होनेके जघन्य प्रतिभग्न कालको घटाकर जो शेष रहे उतने कालसे कम मिथ्यात्वकी उत्कृष्टस्थितिका बन्ध करके तथा प्रतिभग्नहोकर और वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करके अनन्तर जो मिथ्यात्वमें गया है और इस प्रकार तीन अवस्थित कालों तक तीनों स्थानोंमें रहा है उसके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धके समय सम्यक्त्वकी ओघ उत्कृष्ट स्थितिको देखते हुए इस समय संबंधी सम्यक्त्वकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त और प्रतिभग्नकाल विशेष प्रमाण कम होती है। यह सन्निकर्षविकल्प पुनरुक्त है। तदनन्तर वेदकसम्यक्त्वके योग्य एक अन्य मिथ्यादृष्टि
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गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तियसरिणयासो ४३७ कालविसेसेण च ऊणा होदि। एस वियप्पो पुणरुत्तो । तदो अण्णो जीवो वेदगपाओग्गमिच्छाहिदी पडिहग्गकालविसेसेणूणुक्कस्सहिदि बंधिय समयाहियसव्वजहण्णपडिहग्गकालमिच्छय सम्मत्त पडिवज्जिय मिच्छत्त' गंतूण मिच्छत्तु क्कस्सहिदीए पबद्धाए पुव्वुत्तसम्मत्तहिदी समयूणा होदि । एसो वियप्पो अपुणरुत्तो। एवं पुव्वं व दुसमयाहिय-तिसमयाहियादिकमेण पडिहग्गकालो वडावेयव्यो जाव जहण्णादो उक्कस्सओ संखेजगुणो त्ति । एवं वड्डाविय पुणो पुव्वविहाणेण जहण्णपडिहग्गद्धमुक्कस्सपडिहग्गद्धादो सोहिय सुद्धसेसेण दुगुणेणूणमिच्छत्तु क्कस्सहिदि बंधाविय अवहिदद्धाओ जहण्णाओ तिण्णि वि गमिय मिच्छत्तु कस्सहिदीए पबद्धाए पुणरुत्तो सण्णियासवियप्पो होदि । एदेण कमेण ओदारेदण णेदव्वं जाव णिब्धियप्पधुवहिदी पत्ता त्ति । पुणो पुव्वं व उव्वेन्लणमस्सिदूण णेदव्वं जाव सम्मत्तस्स एगा हिदी दुसमयकालपमाणा चेटिदा ति । एवमोदारिदे विदियपरूवणा समचा। ___७२०. संपहि तदियपरूवणा वुच्चदे । तं जहा-वेदगपाश्रोग्गमिच्छादिहिणा बंधुक्कस्सहिदिणा सव्वजहण्णपडिहग्ग-सम्मत्त-मिच्छत्तद्धणुक्कस्सहिदीए पबद्धाए पुणरुत्तवियप्पो होदि, तिण्हं पि अद्धाणं जहण्णभावुवलंभादो । अपुणरुत्तवियप्पे इच्छिज्ज
जीव प्रतिभग्नकाल विशेषसे कम मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बांधकर और मिथ्यात्वसेच्युत हानके एक समय अधिक सबसे जघन्य प्रतिभग्न काल तक मिथ्यात्वमें रह कर सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। तथा पुनः मिथ्यात्वको प्राप्त करके उस जीवके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति के बन्ध होने पर पूर्वोक्त सम्यक्त्वकी स्थिति एक समय कम होती है। यह सन्निकर्षविकल्प अपुनरुक्त है। इसी प्रकार पहलेके समान दो समय अधिक और तीन समय अधिक इत्यादि क्रमसे मिथ्यात्वसे निवृत्त होनेका काल तब तक बढ़ाते जाना चाहिये जब तक जघन्य कालसे उत्कृष्ट काल संख्यातगुणा प्राप्त होवे । इस प्रकार पुनः मिथ्यात्वसे निवृत्त होनेके कालको बढ़ाकर पुनः पूर्वविधानानुसार मिथ्यात्वसे निवृत्त होनेके जघन्य कालको मिथ्यात्वसे निवृत्त होनेके उत्कृष्ट कालमेंसे घटाकर जो काल शेष रहे उसके दूने कालसे कम मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कराके और तीनों ही जघन्य अवस्थित कालोंको बिता कर मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्ध होने पर सन्निकर्षका पुनरुक्त विकल्प प्राप्त होता है। आगे इसी क्रमसे निर्विकल्प ध्रुवस्थितिके प्राप्त होने तक सम्यक्त्वकी स्थितिको घटाते हुए ले जाना चाहिए। तदनन्तर पहले के समान उद्वेलनाका आश्रय लेकर सम्यक्त्वकी दो समय कालप्रमाण एक स्थितिके प्राप्त होने तक उसकी स्थिति घटाते जाना चाहिए। इस प्रकार सम्यक्त्वकी स्थिति घटाने पर दूसरी प्ररूपणा समाप्त हुई।
७२०. अब तीसरी प्ररूपणाको कहते हैं जो इस प्रकार है-जिसने मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधा है ऐसा वेदकसम्यक्त्तके योग्य मिथ्यादृष्टि जीव पुनः मिथ्यात्वसे च्युत होनेके सबसे जघन्य प्रतिभग्न कालके साथ तथा सम्यक्त्व और मिथ्यात्वके सबसे जघन्य कालोंके साथ जब मिथ्यात्वको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है तब उसके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धके समय सन्निकर्षका पुनरुक्त विकल्प होता है, क्योंकि यहां पर तीनों ही काल जघन्य पाये जाते हैं। अब अपुनरुक्त विकल्प इच्छित होने पर उसे इस विधिसे लाना चाहिये जो इस प्रकार है
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४३८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहत्ती ३ माणे एदाए किरियाए आणेयव्यो । तं जहा–मिच्छत्तु कस्सहिदि बंधाविय पडिहग्गकालमवहिदमच्छिय सम्मत्तकालं समयाहियं मिच्छत्तकालमवहिदमच्छिय सकिलेसं पूरेदणुक्कस्सहिदीए पबद्धाए अपुणरुनवियप्पो होदि । पुणो जहा पडिहग्गकालं वडाविय सम्मत्तहिदी अोदारिदा तहा सम्मत्तकालं वडाविय ओदारेदव्या जाव णिव्वियप्पधुवहिदि त्ति । पुणो उव्वेल्लणमस्सिदूण ओदारेदव्वं जाव सम्मत्तस्स एया हिदी दुसमयकालपमाणा चेहिदा ति । एवं णीदे तदियपरूवणा समचा होदि ३।।
७२१. चउत्थपरूवणा संपहि वुच्चदे । तं जहा-पुणरुत्तवियप्पं पुव्वविहाणेण भणिदण मिच्छत्त कस्सहिदि बंधाविय पडिहग्ग-सम्मत्तद्धाओ अवहिदाओ अच्छिय समयाहियमिच्छत्तद्धमच्छिदेण आऊरिदुक्कस्ससंकिलेसेण मिच्छत्तु कस्सहिदीए पवद्धाए अपुणरुत्तवियप्पो होदि । एवं मिच्छत्तद्धाए दुसमउत्तरादिकमेण वड्डाविय ओदारिदे चउत्थपरूवणा समप्पदि ४ । एवमेगसंजोगपरूवणा गदा ।
मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके मिथ्यात्वसे च्युत होनेके अवस्थित कालतक मिथ्यात्वमें रह कर फिर सम्यक्त्वके एक समय अधिक अवस्थित कालतक सम्यक्त्वके साथ रह कर फिर मिथ्यात्वके अवस्थित कालतक मिथ्यात्वमें रह कर और उसी समय उत्कृष्ट संक्लेशकी पूर्ति करके जो मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है उसके मिथ्यात्वकी उत्कष्ट स्थितिके बन्धके समय सन्निकर्षका अपुनरुक्त विकल्प होता है । तदनन्तर पहले जिस प्रकार मिथ्यात्वसे पुनः च्युत होनेके कालको बढ़ाकर सम्यक्त्वकी स्थितिको घटाया था उसी प्रकार यहां पर वेदकसम्यक्त्वके कालको बढ़ाकर निर्विकल्प ध्र वस्थितिके प्राप्त होने तक सम्यक्त्वको स्थितिको घटाना चाहिये । पुनः उद्वेलनाका आश्रय लेकर सम्यक्त्वकी दो समय काल प्रमाण एक स्थितिके प्राप्त होनेतक उसकी स्थितिको घटाते जाना चाहिये । इस प्रकार सम्यक्त्वकी स्थिति घटाते हुए ले जाने पर तीसरी प्ररूपणा समाप्त होती है।
६७२१. अब चौथी प्ररूपणाको कहते हैं जो इस प्रकार है-पहले पूर्वोक्त विधिसे पुनरुक्त विकल्पको कह ले। फिर मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कराके फिर मिथ्यात्वसे पुनः च्युत होनेके अवस्थित कालतक और सम्यक्त्व के अवस्थित काल तह मिथ्यात्व और सम्यक्त्वमें रहकर फिर जो मिथ्यात्वके एक समय अधिक अवस्थित काल तक मिथ्यात्वमें रह कर और उत्कृष्ट संक्लेशकी पूति करके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है उसके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक समय सन्निकर्षका अपुनरुक्त विकल्प होता है। इस प्रकार मिथ्यात्वके कालको दो समय अधिक आदि क्रमसे बढ़ाकर सम्यक्त्वकी स्थितिके घटाने पर चौथी प्ररूपणा समाप्त होती है।
विशेषार्थ-दूसरी प्ररूपणामें मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कराके और प्रतिभग्नकालमें एक-एक समय बढ़ाकर संक्रमणसे प्राप्त सम्यक्त्वकी स्थितिमें एक-एक समय कम किया गया है। तथा वेदक सम्यक्त्व काल और संक्लेश पूरण कालको अवस्थित रखा है। पर जब प्रतिभग्नकालमें एक-एक समय बढ़ाते हुए उत्कृष्ट प्रतिभन्नकाल प्रात हो गया तब उत्कृष्ट प्रतिभग्नकालमेंसे जघन्य प्रतिभन्न कालको घटाकर जो शेष बचा उससे न्यून मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कराया गया और पुनः जघन्य प्रतिभन्न काल में एक-एक समय बढ़ाते हुए संक्रमणसे प्राप्त
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गा० २२) द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तियसरिणयासो
४३६ $ ७२२. संपहि दुसंजोगेण पंचमपरूवणं वत्तइस्सामो ।तं जहा—एक्केण पुव्वुप्पाइदसम्मत्तण अविणद्ववेदगपाओग्गेण समयूर्ण मिच्छत्तु कस्सहिदि बंधिय पडिहग्गद्ध समयाहियमच्छिय सम्मत्त-मिच्छत्तद्धाओ अवहिदाओ अच्छिय मिच्च्छत्तु कस्सहिदीए पबद्धाए अपुणरुत्तवियप्पो होदि । पुव्वुत्तसम्मत्तहिदि पेक्खिदूण एसा तहिदी दसमयणा होदि, दोण्हं णिसेगाणमेगवारेण गालिदत्तादो। पुणो अण्णेण जीवेण दुसमऊणमिच्छत्त कस्सहिदि बंधिय समयाहियपडिहग्गद्धमवहिदसम्मत्त-मिच्छत्तद्धाओ अच्छिय मिच्छत्तु कस्सहिदीए पबद्धाए सम्मत्तहिदी तिसमयूणा होदि । पुणो अवरेण जीवेण बद्धतिसमऊणमिच्छत्तु कस्सहिदिणा समयाहियजहण्णपडिहग्गद्धमच्छिदेण सम्मत्तमिच्छत्तद्धाओ अवहिदाओ अच्छिय मिच्छत्तु कस्सहिदीए पबद्धाए सम्मत्तहिदी चदुसमयूणा होदि । एवं मिच्छत्तहिदी चदुसमयूणादिकमेण ओदारेयव्वा जाव मिच्छत्तसम्यक्त्वकी स्थितिमें एक-एक समय कम किया गया है। और इस प्रकार सम्यक्त्वकी ध्रुवस्थिति प्राप्त होनेतक सन्निकर्षके विकल्प प्राप्त किये गये हैं। आगे जिस प्रकार उद्वेलनासे प्रथम प्ररूपणामें सन्निकर्ष विकल्प प्राप्त किये गये हैं उसी प्रकार यहाँ भी प्राप्त कर लेना चाहिये। इस प्रकार दूसरी प्ररूपणा समाप्त हुई। तीसरी प्ररूपणामें प्रतिभन्न कालके समान सम्यक्त्वके काल में एक-एक समय बढ़ाकर सम्यक्त्व प्रकृतिकी एक एक समय कम स्थिति प्राप्त की गई है। विशेष विधि दूसरी प्ररूपणाके समान जानना चाहिये । चौथी प्ररूपणामें मिथ्यात्वके कालमें एक एक समय बढ़ाकर सम्यक्त्व प्रकृतिकी एक एक समय कम स्थिति प्राप्त की गई है। यहाँ भी विशेष विधि दूसरी प्ररूपणाके समान जानना चाहिये । इस प्रकार एक संयोगी प्ररूपणा समाप्त हुई, क्योंकि इससे और अधिक बार एकसंयोगीप्ररूपणा संभव नहीं है।
इस प्रकार एकसंयोगी प्ररूपणा समाप्त हुई। ६७२२. अब दो संयोगसे पांचवीं प्ररूपणाको बतलाते हैं जो इस प्रकार है-जिसने पहले सम्यक्त्व उत्पन्न किया था और जिसका वेदक सम्यक्त्वके योग्य मिथ्यात्वका काल नष्ट नहीं हुआ है ऐसा कोई एक जीव एक समय कम मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर और मिथ्यात्वसे निवृत्त होनेके एक समय अधिक अवस्थित कालको ब्यतीत करके तदनन्तर सम्यक्त्व और मिथ्यात्वके अवस्थित कालोंको व्यतीत करके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है तो उसके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धके समय सन्निकर्षका अपुनरुक्त विकल्प होता है । पूर्वोक्त सम्यक्त्वकी स्थितिको देखते हुए यह स्थिति दो समय कम है, क्योंकि यहां उसके दो निषेक एक ही बारमें गला दिये गये हैं । पुनः अन्य कोई जीव दो समय कम मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको बांध कर और मिथ्यात्वसे निवृत्त हानेके एक समय अधिक अवस्थित काल तक तथा सम्यक्त्व और मिथ्यात्वके अवस्थित कालों तक क्रमसे मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और मिथ्यात्वमें रह कर यदि मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है तो उसके उस समय सम्यक्त्वकी स्थिति पूर्वोक्त स्थितिको देखते हुए तीन समय कम होती है । पुनः जिसने तीन समय कम मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया है ऐसा कोई एक जीव मिथ्यात्वसे निवृत्त होनेके एक समय अधिक जघन्य काल तक मिथ्यात्वमें रहा । पुनः सम्यक्त्व और मिथ्यास्वके अवस्थित कालोंको व्यतीत करके यदि उसने मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया है तो उसके उस समय सम्यक्त्वकी स्थिति पूर्वोक्त स्थितिको देखते हुए चार समय कम होती है। इस प्रकार वेदकसम्यक्त्वके ग्रहण करनेके
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४४० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[हिदिविहत्ती ३ धुवहिदि सम्मत्तग्गहणपाओग्गं पत्ता ति । पुणो अण्णेण जीवेण बद्धमिच्छत्तधुवहिदिणा दुसमउत्तरपडिहग्गद्धमच्छिदेण सम्मत्त-मिच्छत्तद्धाओ अवहिदाओ अच्छिय मिच्छत्तु कस्सहिदीए पबद्धाए अण्णो अपुणरुतवियप्पो होदि । एवं सण्णियासपाओग्गधुवहिदिमवहिदेण कमेण बंधाविय पडिहग्गद्धा तिसमयुत्तरादिकमेण वड्डावेयव्वा जाव सगजहण्णद्धादो संखेज्जगुणत्वं पत्ता त्ति । एवं वडाविदे पंचमवियप्पो समत्तो होदि।
७२३. अधवा पंचमवियप्पो एवमुप्पाएयव्यो। तं जहा- समयूणमिच्छत्तकस्सद्विदि बधाविय पडिहग्गद्ध चेव समयुत्तरादिकमेण जहण्णद्धादो संखेजगुणं ति वडाविय पुणो पडिहग्गद्धाविससमेतमेगवारेण मिच्छत्तहिदिमोदारिय पणो तमवहिदं कादूण समयुत्तरादिकमेण पडिहग्गधं चेव संखेज्जगुणं चि वडाविय पुणो मिच्छत्तहिदी अप्पिदहिदीदो पडिहग्गद्धाविसेसमेत्तमोदारेदव्या । एवं णेयव्वं जाव तप्पाओग्गमिच्छत्तधुवहिदि त्ति । एवं णीदे विदियपयारेण पंचमवियप्पो परूविदो होदि ।
७२४. संपहि तदियपयारेण पंचमवियप्पस्स परूवणा कीरदे । तं जहासमयूणुक्कस्सहिदिपबद्धमिच्छादिद्विणा समयाहियपडिहग्गद्धमच्छिदेण सव्वजहण्णयोग्य मिथ्यात्वकी ध्रुव स्थितिके प्राप्त होने तक चार समय कम आदिके क्रमसे मिथ्यात्वकी स्थितिको घटाते जाना चाहिये । पुनः जिसने मिथ्यात्वकी ध्रु वस्थितिका बन्ध किया है ऐसा कोई एक अन्य जीव मिथ्यात्वसे निवृत्त होनेके दो समय अधिक अवस्थित मिथ्यात्वमें रहा । पुनः सम्य क्त्व और मिथ्यात्वके अवस्थित कालोंतक सम्यक्त्व औरमिथ्यात्वमें रह कर यदि उसने मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया है तो उसके उस समय सन्निकर्षका एक अन्य अपुनरुक्त विकल्प प्राप्त होता है। इसी प्रकार आगेके विकल्प लानेके लिये जो सन्निकर्ष के योग्य ध्र वस्थितिको अवस्थित करके उसका बन्ध करता है और जब तक अपने जघन्यसे उत्कृष्ट विकल्प संख्यातगुणा नहीं प्राप्त होता है तब तक मिथ्यात्वसे निवृत्त होनेके अवस्थित कालको तीन समय अधिक आदिके क्रमसे बढ़ाता जाता है उसके इस प्रकार उक्त कालके बढ़ाने पर पांचवां विकल्प समाप्त होता है।
६७२३. अथवा पांचवां विकल्प इस प्रकार उत्पन्न करना चाहिये, जो इस प्रकार है-पहले एक समय कम मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करावे । तथा मिथ्यात्वसे निवृत्त होनेका जो जघन्य काल है उसे पहली बार एक समय और दूसरी बार दो समय इस प्रकार उत्तरोत्तर जघन्यसे संख्यातगुणा उत्कृष्ट काल प्राप्त होने तक बढ़ाता जावे । तदनन्तर मिथ्यात्वसे निवृत्त होनेके उत्कृष्ट कालमेंसे जघन्य कालको घटा कर जो शेष रहे तत्प्रमाण मिथ्यात्वकी स्थितिको एक साथ घटा कर उसे अवस्थित करदे और मिथ्यात्वसे निवृत्त होनेका जो जघन्य काल है उसे पहली बारमें एक समय, दूसरी बारमें दो समय इस प्रकार उत्तरोत्तर जघन्यसे संख्यातगुणा उत्कृष्ट काल प्राप्त होने तक बढ़ाता जावे । तदनन्तर मिथ्यात्वसे निवृत्त होनेके उत्कृष्ट कालमेंसे जघन्य कालको घटा कर जो शेष रहे तत्प्रमाण मिथ्यात्वको स्थितिको दूसरी बार घटाना चाहिये । इस प्रकार सम्यक्त्वके योग्य मिथ्यात्वकी ध्रु वस्थितिके प्राप्त होने तक यह विधि करते जाना चाहिये। इस प्रकार इस विधिके करने पर दूसरे प्रकारसे पांचवें विकल्पकी प्ररूपणा होती है। .
६७२४. अब तीसरे प्रकारसे पांचवें विकल्पकी प्ररूपणा करते हैं, जो इस प्रकार है-एक समय कम मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला एक मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यात्वसे
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गा० २२ ]
वित्त उत्तरपयडिद्विदिवित्तियसविण्यासो
सम्मत्त-मिच्छत्तद्धाओ अच्छिय मिच्छत्तुकस्सद्विदीए पबद्धाए अण्णो सण्णियासवियन्पो होदि । पुणो मिच्छत्तुकस्सहिदिं दुसमपूणं बंधिय पहिग्गद्ध समयाहियमच्छिय सम्मत्त-मिच्छत्तद्धाओ अवद्विदाओ अच्छिय मिच्छत्तुक्कस्सद्विदीए पबद्धाए णो सण्णियासवियप्पो होदि । पुणो अण्णेण जीवेण दुसमऊणमिच्छत्तु क्कस्सहिदि बंधिय दुसमयुत्तरं जहण्णप डिहग्गद्धमच्छिय सम्पत्त-मिच्छत्तद्धाओ अवहिदाओ अच्छिय मिच्छतुक्कस्सहिदीए पबद्धाए अण्णो सण्णियासवियप्पो । एवमेगवारं डिदि समयूर्ण वडाविय विदियवारं पडिहग्गकालसमए एक्केण वडाविय ओदारेदव्वं जाव जहण्णपहिग्गद्धा संखेज्जगुणा जादा त्ति । पुणो एदेण सरूवेण जाणिदूण ओदारेदव्वं जाव सम्मत्तस्स एगा हिंदी दुसमयकाला चेद्विदा त्ति । एवमण्णत्थ वि एदमत्थपरूवणमवहारिय परूवेदव्वं । एवं पंचमवियप्पो गदो ५ ।
$ ७२५. संपहि छडवियप्पपरूवणा कीरदे । तं जहा – मिच्छत् कस्सद्विदिं समऊण-दुसमऊणादिकमेण बंधाविय पडिहग्गद्धमवहिदं करिय सम्मत्तद्ध समयाहियदुसमयाहियादिकमेण वड्डाविय मिच्छत्तकालमवहिदं करिय मिच्छत्तु कस्सहिदीए पबद्धाए छवियप्पो होदि । एत्थ पंचवियप्पस्सेव तीहि पयारेहि परूवणा कायव्वा । निवृत्त होनेके एक समय अधिक जघन्य काल तक मिथ्यात्वमें रहा । पुनः उसके सम्यक्त्व और मिथ्यात्वके सबसे जघन्य काल तक क्रमसे सम्यक्त्व और मिथ्यात्वमें रह कर मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करने पर एक अन्य सन्निकर्ष विकल्प प्राप्त होता है । पुनः दो समय कम मिध्यात्व की उत्कृष्ट स्थितिको बोध कर कोई एक जीव मिथ्यात्वसे निवृत्त होनेके एक समय अधिक जघन्य काल तक मिध्यात्वमें रहा । तदनन्तर उसके सम्यक्त्व और मिथ्यात्वके अवस्थित कालों तक क्रमसे सम्यक्त्व और मिध्यात्वमें रहकर मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्ध करने पर एक अन्य विकल्प प्राप्त होता है । पुनः एक अन्य जीव दो समय कम मिध्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर मिथ्यात्व से निवृत्त होनेके दो समय अधिक जघन्य काल तक मिध्यात्वमें रहा । तदनन्तर उसके सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के अवस्थित कालोंतक क्रमसे सम्यक्त्व और मिथ्यात्वमें रहकर Farrant उत्कृष्ट स्थितिके बन्ध होने पर एक अन्य सन्निकर्षविकल्प प्राप्त होता है। इस प्रकार एक बार मिथ्यात्वकी स्थितिको एक समय कम करके और दूसरी बार मिध्यात्वसे निवृत्त होनेके कालको एक समय बढ़ाकर सम्ययत्वकी स्थितिको तब तक घटाते जाना चाहिये जब जाकर मिध्यात्व से निवृत्त होने का जघन्य काल संख्यातगुणा हो जावे । पुनः इसी क्रम से आगे भी सम्यक्त्वकी दो समय कालप्रमाण स्थितिके प्राप्त होने तक सम्यक्त्वकी स्थितिको घटाते जाना चाहिये। इसी प्रकार अन्यत्र भी इस अर्थपदका निश्चय करके कथन करना चाहिये । इस प्रकार पाचवाँ विकल्प समाप्त हुआ ।
९ ७२५. अब छठे विकल्पकी प्ररूपणा करते हैं । वह इस प्रकार है- मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका एक समय कम, दो समय कम इत्यादि क्रमसे बन्ध कराके और मिथ्यात्वसे निवृत्त होनेके कालको अवस्थित करके तथा सम्यक्त्वके कालको एक समय अधिक, दो समय अधिक आदि क्रमसे बढ़ाकर और मिथ्यात्वके कालको अवस्थित करके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कराने पर छा विकल्प होता है। यहां पर जिस प्रकार पांचवें विकल्पकी तीन प्रकार से • प्ररूपणा की है उसी प्रकार छठे विकल्पकी तीन प्रकारसे प्ररूपणा करनी चाहिये। इस प्रकार ५६
४४१
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४४२ जयपक्लासहिदे कसायपाहुरे
[विविषिही ३ एवं छहपरूवणा गदा।
७२६. संपहि सत्तमभंगे भण्णमाणे मिच्छत्तु कस्सहिदि समयूणादिकमेणो. दारिय पडिहग्ग-सम्मत्तद्धाओ अवहिदाओ. करिय मिच्छत्तद्धं समयादिकमेण वडाविय मिच्छत्तुक्कस्सहिदि बंधाविय पुच्वं व जाणिदूण अोदारेदव्यं जाव सम्मत्तचरिमवियप्पो त्ति । एवमोदारिदे सत्तमपरूवणा समत्ता होदि ।।
७२७. संपहि अहमवियप्पे भण्णमाणे मिच्छत्तुक्कस्सहिदि बंधाविय पडिहग्गकालं सम्मत्तकालं च समयाहिय-दुसमयाहियादिकमेण वड्डाविय मिच्छत्तद्धमवहिदं कादूण ओदारेदव्वं जाव सम्मत्तस्स एगा हिदी दुसमयकाला चेहिदा त्ति । एवमोदारिदे अहमभंगपरूवणा गदा ८ ।
७२८. संपहि णवमभंगपरूवणे भण्णमाणे मिच्छत्तु क्कस्सहिदि बंधाविय पडिहग्ग-मिच्छत्तद्धाओ समयाहिय-दुसमयाहियादिकमेण परिवाडीए वडाविय सम्मत्तद्धमवहिदं करिय मिच्छत्तु क्कस्सहिदि बंधाविय ओदारेदव्वं जाव सम्मत्तस्स एया हिदी दुसमयकाला हिदा त्ति । एवं णीदे णवमभंगपरूवणा समत्ता है।
७२९. संपहि दसमपरूवणे भण्णमाणे सम्मत्त-मिच्छत्तद्धाश्रो समउत्तरादिकमेण परिवाडीए वडाविय पडिहग्गकालमवहिदं करिय उभयत्यमिच्छत्तु क्कस्सहिदि छठी प्ररूपणा समाप्त हुई।
६७२६ अब सातवें भंगके कथन करने पर मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको एक समय कम इत्यादि क्रमसे घटाकर और मिथ्यात्वसे निवृत्त होनेके कालको तथा सम्यक्त्वके कालको अवस्थित करके और मिथ्यात्वके कालको एक समय आदिके क्रमसे बढ़ाकर मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करावे । इस प्रकार सम्यक्त्वकी स्थितिका अन्तिम विकल्प प्राप्त होने तक पहलेके समान जानकर उसकी स्थितिको घटाते जाना चाहिये । इस प्रकार सम्यक्त्वकी स्थितिके घटाने पर सातवीं प्ररूपणा समाप्त होती है।
६७२७. अब आठवें विकल्पके कथन करने पर मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कराके तथा मिथ्यात्वसे निवृत्त होनेके कालको और सम्यक्त्वके कालको एक समय अधिक और दो समय अधिक इत्यादि क्रमसे बढ़ाकर तथा मिथ्यात्वके कालको अवस्थित करके सम्यक्त्वकी दो समय कालप्रमाण एक स्थिति प्राप्त होने तक उसकी स्थिति घटाते जाना चाहिये । इस प्रकार सम्यक्त्वकी स्थितिके घटाने पर आठवीं प्ररूपणा समाप्त होती है। ___७२८. जब नौवें भंगकी प्ररूपणा करने पर मिथ्यात्वको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कराके और मिथ्यात्वसे निवृत्त होने के कालको तथा मिथ्यात्वके कालको एक समय अधिक और दो समय अधिक इत्यादि क्रमसे बढ़ाकर तथा सम्यक्त्वके कालको अवस्थित करके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कराके सम्यक्त्वकी दो समय कालप्रमाण एक स्थितिके प्राप्त होने तक उसकी स्थिति घटाते जाना चाहिये । इस प्रकार विधिके करने पर नौवें भंगकी प्ररूपणा समाप्त होती है।
६७२६. अब दसवीं प्ररूपणाके कथन करने पर सम्यक्त्व और मिथ्यात्वके कालको उत्तरोत्तर एक समय आदिके क्रमसे बढ़ाकर और मिथ्यात्वसे निवृत्त होनेके कालको अवस्थित करके तथा
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हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तियसरिणयासो ४४३ . बंधाविय श्रोदारेदव्वं जाव सम्मत्तस्स एगा हिदी दुसमयकालपमाणा चेहिदा ति । एवमोदारिदे दसमभंगपरूवणा गदा होदि १० ।
___६७३०. संपहि चत्तारि एगसंजोगे भंगे च दुसंजोगभंगे च परूविय तिसंजोगभेगपरूवणा कीरदे । ताए कीरमाणाए मिच्छत्तु क्कस्सहिदि समयूणादिकमेण बंधाविय पडिहग्ग-सम्मत्तद्धाओ परिवाडीए समयुत्तर-दुसमयुत्तरादिकमेण वड्डाविय मिच्छत्तद्धमवहिदं करिय मिच्छत्त क्कस्सहिदि बंधाविय णेदव्वं जाव सम्मत्तस्स एगा हिदी दुसमयकाला सेसा ति । एवं णीदे एक्कारसमपरूवणा तिसंजोगभंगम्मि पढमा परूविदा होदि ११।
दोनों जगह मिथ्यात्वको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कराके सम्यक्त्वकी दो समय कालप्रमाण एक स्थितिके प्राप्त होने तक उसकी स्थितिको घटाते जाना चाहिये। इस प्रकार सम्यक्त्वकी स्थितिके घटाने पर दसवें भंगकी प्ररूपणा समाप्त होती है।
विशेषार्थ—यहाँ दो संयोगकी अपेक्षा पाँचवीं प्ररूपणा तीन प्रकारसे की है। पहले प्रकारमें बतलाया है कि मिथ्यात्वकी एक एक समय स्थिति कम करता जाय और प्रतिभग्न कालमें सर्वत्र एक समय बढ़ावे तथा शेष दो कालोंको अवस्थित रखे। दूसरे प्रकार में यह बतलाया है कि सर्वत्र एक समय कम मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करावे और प्रतिभन्न कालमें एकसंयोगी दूसरी प्ररूपणामें बतलाई विधिके अनुसार एक एक समय बढ़ाता जाय-तथा शेष दो कालोंको अवस्थित रखे। तीसरे प्रकारमें यह बतलाया है कि एक बार मिथ्यात्वकी स्थिति घटावे और दूसरी बार प्रतिभग्न कालमें एक समय बढ़ावे तथा शेष कालोंको अवस्थित रखे । इस प्रकार इन तीनों प्रकारोंसे सम्यक्त्वकी उत्तरोत्तर कम स्थिति प्राप्त की जा सकती है। द्विसंयोगी छठी प्ररूपणामें प्रतिभग्न कालके स्थानमें सम्यक्त्वके काल में एक एक समय बढ़ाना चाहिये । शेष सब कथन पाँचवीं प्ररूपणाके समान है । सातवीं प्ररूपणामें प्रतिभन्न कालके स्थानमें मिथ्यात्वके कालमें एकएक समय बढ़ावे । शेष सब कथन पाँचवीं प्ररूपणाके समान है। द्विसंयोगी आठवीं प्ररूपणामें सर्वत्र मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करावे किन्तु प्रतिभग्नकाल और सम्यक्त्वकालमें एक-एक समय बढ़ाता जाय । नौवीं प्ररूपणामें प्रतिभग्नकाल और मिथ्यात्वकालको एक समय बढ़ाना चाहिये । तथा दसवीं प्ररूपणामें सम्यक्त्व और मिथ्यात्वके कालको एक-एक समय बढ़ावे । इस प्रकार करनेसे सर्वत्र सम्यक्त्वकी उत्तरोत्तर कम स्थिति प्राप्त हो जाती है। चारके द्विसंयोगी भंग कुल छह ही होते हैं, अतः यहाँ द्विसंयोगी प्ररूपणा छह प्रकारसे की गई है।
६७३०. इससे पहले चार एकसंयोगी भंग और द्विसंयोगी भंगोंकी प्ररूपणा करके अब तीनसंयोगी भंगोंकी प्ररूपणा करते हैं। उस तीन संयोगी भंगोंकी प्ररूपणाके करने पर मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका एक समय कम, दो समय कम इत्यादि क्रमसे बन्ध करावे और मिथ्यात्वसे निवृत्त होनेके अवस्थित कालको तथा सम्यक्त्वके अवस्थित कालको उत्तरोत्तर एक समय अधिक, दो समय अधिक इत्यादि कमसे बढ़ाता जावे और मिथ्यात्वके कालको अवस्थित करके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कराके सम्यक्त्वकी दो समय प्रमाण एक स्थितिके शेष रहने तक सम्यक्त्वकी स्थितिको घटाते हुए लेजाना चाहिये । इस प्रकार लेजाने पर ग्यारहवीं प्ररूपणा और तीन संयोगी भंगमें पहली प्ररूपणाका कथन समाप्त होता है।
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جی ام سی جی تی ای جی تی ای وی جک جی جی رحیمی
- जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[द्विदिषिहत्ती ३ ७३१. बारसमभंगे तिसंजोगम्मि विदिए भण्णमाणे मिच्छत्तु क्कस्सहिदि समयणादिकमेण बंधाविय पडिहग्ग-मिच्छत्तद्धामो समयुत्तर-दुसमयुत्तरादिकमेण वड्डाविय सम्मत्तकालमवहिदं करिय मिच्छत्त क्कस्सहिदिं पुव्वं व जाणिदण ओदारेदव्वं जाव सम्मत्तचरिमवियप्पो त्ति । एवमोदारिदे बारसमपरूवणा समत्ता होदि १२ ।
६ ७३२. संपहि तेरसमपरूवणे भण्णमाणे एक्को वेदगसम्मादिही मिच्छत्तहिदि समयूण-दुसमयूणादिकमेण बंधाविय सम्मत्त-मिच्छत्तद्धाओ परिवाडीए समयुत्तरादिकमेण वडाविय पडिहग्गद्धमवहिदं करिय मिच्छत्त क्कस्सहिदिं बंधाविय ओदारेदव्वं जाव सम्मत्तस्स एगा हिदी दुसमयकाला चेहिदा त्ति । एवमोदारिदे तेरसमवियप्पो समत्तो होदि १३।।
७३३, संपहि चोदसमवियप्पे भण्णमाणे मिच्छत्तु कस्सहिदि बंधाविय पडिहग्ग-सम्मत्त मिच्छत्तद्धाश्रो समयुत्तरादिकमेण परिवाडीए वडाविय मिच्छत्तकस्सहिदि बंधाविय ओदारेदव्वं जाव सम्मत्तस्स एगा द्विदी दुसमयकाला चेहिदा ति । एवमोदारिदे चोदसवियप्पो समत्तो होदि १४ ।
६७३१ अब बारहवें भंगके और तीन संयोगीमें दूसरे भंगके कथन करने पर मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका एक समय कम, दो समय कम इत्यादि क्रमसे बन्ध करावे, और मिथ्यात्वसे निवृत्त होनेके कालको तथा मिथ्यात्वके कालको एक समय अधिक, दो समय अधिक इत्यादि क्रमसे बढ़ावे तथा सम्यक्त्वके कालको अवस्थित करके और मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कराके सम्यक्त्वकी स्थितिके अन्तिम विकल्पके उत्पन्न होने तक पहलेके समान जानकर उसकी स्थितिको घटाना चाहिये । इस प्रकार सम्यक्त्वकी स्थितिके घटाने पर बारहवीं प्ररूपणा समाप्त होती है।
६७३२. अब तेरहवीं प्ररूपणाके कथन करने पर एक वेदकसम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्वमें जाकर मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका एक समय कम, दो समय कम इत्यादि क्रमसे बन्ध करे और सम्यक्त्व तथा मिथ्यात्वके कालको उत्तरोत्तर एक समय, दो समय इत्यादि क्रमसे बढ़ावे और मथ्यात्वसे निवृत्त होनेके कालको अवस्थित करके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करे। इस प्रकार पूर्वोक्त विधिसे सम्यक्त्वकी दो समय कालप्रमाण स्थितिके प्राप्त होने तक सन्यक्त्वकी स्थितिको घटावे । इस प्रकार सम्यक्त्वकी स्थितिके घटाने पर तेरहवां विकल्प समाप्त होता है।
६७३३. अब चौदहवें विकल्पके कथन करने पर मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करावे और मिथ्यात्वसे निवृत्त होनेके कालको तथा सम्यक्त्व और मिथ्यात्वके कालको उत्तरोत्तर एक समय, दो समय इत्यादि क्रमसे बढ़ता जावे तथा मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कराके सम्यक्त्वकी दो समय काल प्रमाण जघन्य स्थितिके प्राप्त होने तक उसकी स्थितिको घटाता जावे । इस प्रकार सम्यक्त्वकी स्थितिके घटाने पर चौदहवाँ विकल्प समाप्त होता है।
विशेषार्थ—चारके तीन संयोगी भंग कुल चार होते हैं। ग्यारहवीं, बारहवीं, तेरहवीं और चौदवीं प्ररूपणामें ये ही चार भंग बतला कर सम्यक्त्वकी स्थिति उत्तरोत्तर न्यून प्राप्त की गई है। कहाँ किनके संयोगसे स्थिति कम प्राप्त की गई है इसका खुलासा मूलमें किया ही है, अतः यहाँ उसे पुनः नहीं दुहराया गया है ।
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गा० २२
हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिविहत्तियसरिणयासो ६७३४. संपहि पण्णारसमवियप्पे भण्णमाणे मिच्छत्तु क्कस्सहिदि समयूणादिकमेण बंधाविय पडिहग्ग-सम्मत्त-मिच्छत्तद्धाओ समयुत्तरादिकमेण वड्डाविय पुणो मिच्छत्त क्कस्सहिदि बंधाविय ओदारेदव्वं जाव सम्मत्तदुसमयकालेगा हिदि त्ति । एवमोदारिदे पण्णारसमपरूवणा समत्ता होदि १५ ।
-७३५ अहवा पण्णारसमपरूवणा एवं वत्तव्वा । तं जहा-धुवहिदीए समयूणाए ऊणुक्कस्सहिदिसमयरयणं काऊण पुणो पडिहग्ग-सम्मत्त-मिच्छत्ताणं जहण्णदाओ सगसगुक्कस्सद्धासु जहण्णद्धाहिंतो संखेज्जगुणासु सोहिय रूवाहियं कादण पुध पुध एदेसि पि समयाणं पंतियागारेण रयणं काऊण पुणो चत्वारि अक्खे चदस पंतीसु दृविय तत्थ अंतिमअक्खो ताव संचारेयव्वो जावप्पणो समयपंतीए अंतं पत्तो त्ति । पुणो तमक्खं तत्थेव हविय तदियक्खो कमेण संचारेयव्वो जावप्पणो समयपंतिपज्जवसाणं पत्तो त्ति । पुणो तं पि तत्थेव हविय विदियक्खं कमेण संचारिय अप्पणो समयपंतिरयणाए अंतम्मि जोजये। तदो तिहमद्धाणं समयपंतिरयणसंकलणाए जतिया समया तत्तियमेचसमए एगवारेण पढमक्खो ओयारेयव्वो। पुणो सेसतिण्णि वि अक्खे तिण्णं पंतीणं पढमसयएमु ठविय पुव्वं व अक्खसंचार काऊण तदो तचियमेवं चेवद्धाणं पुणो वि पढमक्खो पढमसमयपंतीए ओयारेयव्यो । एवं पणो पुणो ताव कायव्वं जाव पढमक्रवो पढमपंतीए अंतं पत्तो चि। पुणो सेसतिण्णि
६७३४. अब पन्द्रह विकल्पके कथन करने पर मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका एक समय कम, दो समय कम इत्यादि क्रमसे बन्ध करावे तथा मिथ्यात्वसे निवृत्त होनेके कालको तथा सम्यक्त्व और मिथ्यात्वके कालको एक समय, दो समय इत्यादि क्रमसे उत्तरोत्तर बढ़ाता जावे । धुनः मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कराके सम्यक्त्वकी दो समय कालप्रमाण एक
। दो समय कालप्रमाण एक स्थितिके शेष रहने तक उसकी स्थितिको घटाता जावे । इस प्रकार सम्यक्त्वकी स्थितिके घटाने परपन्द्रहवीं प्ररूपणा समाप्त होती है।
६७३५. अथवा पन्द्रहवीं प्ररूपणाका इस प्रकार कथन करना चाहिये। आगे उसीको .ताते हैं-उत्कृष्ट स्थितिमें एक समय कम ध्रुवस्थितिको कम करके जो शेष रहे उसके समयोंकी रचना करे । पुनः मिथ्यात्वसे निवृत्त होनेके जघन्य कालको तथा सम्यक्त्व और मिथ्यात्वके जघन्य कालोंको जघन्य कालोंसे संख्यातगुणे अपने अपने उत्कृष्ट कालों में से घटाकर और एक अधिक करके अलग अलग इनके भी समयोंकी पंक्तिरूपसे रचना करे । पुनः चारों पंक्तियोंमें चार अक्षोंकी स्थापना करके उनमेंसे अन्तिम अक्षका अपनी समयपंक्तिके अन्तको प्राप्त होने तक संचार करते रहना चाहिये । पुनः उस अक्षको वहीं पर स्थापित करके तृतीय अक्षका अपनी समयपंक्तिके अन्तको प्राप्त होने तक क्रमसे संचार करते रहना चाहिये । पुनः इस अक्षको भी वहीं पर स्थापित करके दूसरे अक्षको क्रमसे संचार कराके अपनी समयपंक्तिरचनाके अन्तको प्राप्त करावे । तदनन्तर तीनों कालोंकी समयपंक्तिरचनाके जोड करने पर जितने समय हों प्रेथमाक्षको उतने समयप्रमाण एक वारमें उतारे । पुनः शेष तीनों ही अक्षोंको तीनों पंक्तियों के पहले समयोंमें स्थापित करके और पहलेके समान अक्षसंचार करके तदनन्तर प्रथम अक्षको उतने समय प्रमाण प्रथम पंक्तिमें उतारे। इस प्रकार जब तक पहला अक्ष पहली पंक्तिमें अन्तको प्राप्त होवे तब तक पुनः पुनः इसी प्रकार
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___जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[हिदिविहती ३ वि अक्खा पुव्वं व संचारिय सगसगपंतीए अंतम्मि कायव्वा । एवं कदे हिदिबंधोसरणेणुप्पणसव्वसण्णियासवियप्पा लद्धा होति । पुणो सेसवियप्पे णाणाजीवाणमुब्वेल्लणमस्सिदण उप्पाएजो । एवमुप्पाइदे पण्णारसमपरूवणा समत्त होदि १५ ।
७३६. सोलसमपरूवणे भण्णमाणे दुममयकालेगहि दिसंतकम्मिएण मिच्छत्तु - क्कस्सहिदीए पबद्धाए एगो सण्णियासवियप्पो। दोहिदितिसमयसंतकम्मिएण मिच्छत्त - कस्सहिदीए पबद्धाए विदियो सण्णियासवियप्पो। तिण्णिहिदिचदुसमयसम्मसंतकम्मिएण मिच्छत्तुक्कस्सहिदीए पबद्धाए तदियो सण्णियासवियप्पो । एवं गंतूण समयणावलियमेतहिदिसंतकम्मिएण मिच्छत्तु कस्सहिदीए पबद्धाए समयूणावलियमेत्ता सण्णियासवियप्पा लब्भंति । पुणो आवलियब्भहियचरिमुव्वेल्लणकंडयचरिमफालिमत्तद्विदिसंतकम्मिएण मिच्छत्त कस्सहिदीए पबद्धाए आवलियमेत्ता सण्णियासवियप्पा होति । कुदो, पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमंतरिद्ण संपहियसण्णियासवियप्पुप्पत्तीदो । एत्तो उपरिमसण्णियासवियप्पडाणाणि पडिलोमेण णिरंतरमुप्पाइय घेत्तव्याणि जाव मिच्छत्त कस्सहिदि बंधिय सव्वजहण्णपडिहग्ग-सम्मत्त-मिच्छत्तद्धाओगमिय मिच्छतु कस्सहिदि वंधिय हिदो त्ति । एवं णीदे सोलसमपरूपणा समत्ता होदि । एदे सण्णियासवियप्पा सव्वे वि पुणरुत्ता पढमपरूवणाए उप्पण्णाणं चेवुप्पत्तीदो। तदो पढमरूवणा करना चाहिये । पुनः शेष तीनों ही अक्षोंका पहलेके समान संचार करके उन्हें अपनी अपनी पंक्तिमें अन्तको प्राप्त कराना चाहिये। इस प्रकार करने पर स्थितिबन्धापसरणासे उत्पन्न हुए सभी सन्निकर्षके विकल्प प्राप्त हो जाते हैं। पुनः शेष विकल्प नाना जीवोंके उद्वेलनाका आश्रय लेकर उत्पन्न करना चाहिये । इस प्रकार उत्पन्न करने पर पन्द्रहवीं प्ररूपणा समाप्त होती है।
६७३६. अब सोलहवीं प्ररूपणाके कथन करने पर सम्यक्त्वकी दो समय कालप्रमाण एक स्थितिनिषेकसत्कर्मवाले जीवके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्ध होने पर एक सन्निकर्षविकल्प होता है । सम्यक्त्वकी तीन समय कालप्रमाण दो निषेकस्थितिसत्कर्मवाले जीवके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्ध होने पर दूसरा सन्निकर्षविकल्प होता है। सम्यक्त्वकी चार समयप्रमाण तीन निषेकस्थितिसत्कर्मवाले जीवके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्ध होने पर तीसरा सन्निकर्षविकल्प होता है । इसी प्रकार आगे जाकर एक समय कम आवलीप्रमाण स्थितिसत्कर्मवाले जीवके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्ध होने पर एक समय कम आवलीप्रमाण सन्निकर्ष वकल्प प्राप्त होते हैं। पुनः एक आवली अधिक अन्तिम उद्वेलनाकाण्डककी अन्तिम फालिप्रमाण स्थितिसत्कर्मवाले जीवके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्ध हाने पर आवलीप्रमाण सन्निकर्षविकल्प प्राप्त होते हैं, क्योंकि पल्योपमके असंख्यातवें भागको अन्तरित करके वर्तमानकालीन सन्निकर्षविकल्प उत्पन्न हुए हैं। इसी प्रकार आगे भी उपरिम सन्निकर्ष विकल्पस्थानों को प्रतिलोमपद्धतिसे निरन्तर उत्पन्न करके तब तक ग्रहण करना चाहिये जब तक मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके तदनन्तर मिथ्यात्वसे निवृत्त होनेके सबसे जघन्य कालको तथा सम्यक्त्व और मिथ्यात्वके सबसे जघन्य कालोंको व्यतीत करके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको बन्ध करनेवाला प्राप्त होवे। इस प्रकार सन्निकषविकल्पोंके ले जाने पर सोलहवीं प्ररूपणा समाप्त होती है। ... शंका-ये सभी सन्निकर्षविकल्प पुनरुक्त हैं, क्योंकि पहली प्ररूपणामें उत्पन्न करके बतलाये
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गा० २२ ]
द्विदिवही उत्तरपयडिद्विदिविहचियसविण्यासो
va stroat, r विदियादिपरूवणाओ त्ति ? ण एस दोसी, सण्णियासवियप्पाणमुत्पत्तिवियप्पपरूवणडौं तप्परूवणादो । एवं सम्मामिच्छत्तस्स वि वतव्वं, विसेसाभावादो । * सोलसकसायाणं किमुक्कस्सा अणुकस्सा ? ९ ७३७. सुगममेदं ?
* उकस्सा वा अणुक्कस्सा वा ।
९ ७३८. जदि मिच्छत्तु कस्सहिदीए बज्झमाणाए सोलसकसायाणमुक्कस्सहिदिबंधो होज्ज तो उकस्सा । यह ण होज्ज तो अणुक्कस्सा | उक्कस्ससंकिलेसे संते किमहं a. food fareपको ही आगेकी प्ररूपणाओं में उत्पन्न करके बताया गया है, अतः पहली प्ररूपणा ही करनी चाहिये, द्वितीयादि प्ररूपणाएँ नहीं ?
समाधान - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि सन्निकर्षविकल्प कितने प्रकार से उत्पन्न किये जा सकते हैं इसका कथन करनेके लिये उन द्वितीयादि प्ररूपणाओंका कथन किया है ।
इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा भी सन्निकर्ष विकल्प कहना चाहिये क्योंकि सम्यक्त्वकी प्ररूपणा से सम्यग्मिथ्यात्वकी प्ररूपणा में कोई विशेषता नहीं है ।
विशेषार्थ —— पन्द्रहवीं प्ररूपणा चार संयोगी है जो दो प्रकार से बतलाई है। पहला प्रकार तो स्पष्ट है किन्तु दूसरे प्रकार में कुछ विशेषता है जिसका यहाँ खुलासा किया जाता है । एक समय कम ध्रुवस्थिति से न्यून मिध्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके जितने समय हों उनकी एक एक करके पंक्तिरूप से स्थापना करे । अनन्तर अपने-अपने उत्कृष्ट कालोंमें से जघन्य कालोंके घटाने पर जो प्रतिभग्नकाल, सम्यक्त्वकाल और मिथ्यात्वकाल के समयोंका प्रमाण आवे उनकी भी पृथक्-पृथक् तीन पंक्तियाँ करे । तदनन्तर अन्तिम पंक्तिके समयोंकी गिनती कर ले। तदनन्तर तृतीय पंक्तिके समयोंकी गिनती करे । तदनन्तर दूसरी पंक्तिके समयोंकी गिनती करे । इस प्रकार गिनती करने से इन तीनों पंक्तियोंके समयोंकी जितनी संख्या हो उतना प्रथम पंक्तिके समयोंमेंसे घटा दे । तद्'नन्तर दूसरी और तीसरी आदि बार भी यही क्रम चालू रखे। इस प्रकार इस क्रमके करने से ध्रुवस्थिति पर्यन्त कितने सन्निकर्ष विकल्प होते है उनका प्रमाण आ जाता है। तथा इसके आगे शेष विकल्प नाना जीवोंकी उद्वेलनाकी अपेक्षा प्राप्त होते हैं । इस प्रकार इस प्ररूपणा के द्वारा कुल सन्निकर्ष विकल्प प्राप्त हो जाते हैं। सोलहवीं प्ररूपण । में सम्यक्त्वकी दो समय कालप्रमाण जघन्य स्थिति से लेकर उत्कृष्ट स्थितिपर्यन्त प्रतिलोम क्रमसे सन्निकर्ष विकल्प उत्पन्न करके बतलाये गये हैं । इस प्रकार यद्यपि पूर्व में सोलह प्ररूणाएं बतलाई हैं पर उनसे सन्निकर्ष विकल्पों में न्यूनाधिकता नहीं आती। ये प्ररूपणाएँ तो केवल सन्निकर्षविकल्प कितने प्रकार से उत्पन्न किये सकते हैं इसमें चरितार्थ हैं । इनके कथन करनेका अन्य कोई प्रयोजन नहीं हैं । इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थितिकी अपेक्षासे भी सन्निकर्ष विकल्प जानने चाहिये ।
?
* मिध्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके समय सोलह कषायोंकी क्या उत्कृष्ट स्थिति होती है या अनुत्कृष्ट स्थिति होती है ?
६ ७३७. यह सूत्र सुगम
है 1
* उत्कृष्ट स्थिति भी होती है और अनुत्कृष्ट स्थिति भी होती है।
1
४४७
६७३८. यदि मिध्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध होते समय सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध होता है तो उत्कृष्ट स्थिति होती है । और यदि नहीं होता है तो अनुत्कृष्ट
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- जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[द्विदिविहत्ती ३ सव्वकम्माणमक्कमेणुकस्सहिदिबंधो ण होदि ? ण, सगसगविसेसपच्चएहि विणा उकस्ससंकिलेसमेण चेव सव्वपयडीणमुक्कस्सद्विदिबंधाभावादो। सव्वकम्माणं जे विसेसपच्चया तेसिमक्कमेण संभवो किण्ण होदि ? को एवं भणदि ण होदि त्ति, किं तु कयाइ होदि, सव्वकम्माणमक्कमेण कम्हि वि काले उक्कस्सहिदिबंधुवलंभादो । कयाइ ण होदि, कम्हि वि काले तदणुवलंभादो (के विसेसपच्चया ? जिणपडिमालयसंघाइरियपवयणपडिऊलदादरओ असंखेज्जलोगमेत्ता ।
७३९. अणुक्कस्सवियप्पपदुप्पायणहमुत्तरसु भणदि ।
* उकस्सादो अणुक्कस्सा समयूणमादि कादूण पलिदोषमस्स असंखे जदिभागेपूणा त्ति ।
६७४०. तं जहा–मिच्छत्तु क्कस्सहिदि बंधतो सोलसकसायाणं समयूणुक्कस्सहिदि बंधदि । एवं नूण समयणाबाहाकंडएणूणुक्कस्सहिदि पि बंधदि । किमाबाहाकंडयं णाम ? उकस्साबाहं विरलेऊण उक्कस्सहिदि समखंडं करिय विरलणरूवं स्थिति होती है।
शंका-उत्कृष्ट संक्लेशके रहते हुए एक साथ सब कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध क्यों नहीं होता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि अपने अपने स्थितिबन्धके विशेष कारणोंको छोड़कर केवल उत्कृष्ट संक्लेशमात्रसे सभी प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध नहीं होता है।
शंका-सब कर्मों के जो विशेष प्रत्यय हैं उनका एक साथ पाया जाना क्यों संभव नहीं है ?
समाधान-ऐसा कौन कहता है कि उनका एक साथ पाया जाना संभव नहीं है। किन्तु यदि सब प्रत्यय एक साथ होते हैं तो कदाचित् होते हैं, क्योंकि सब कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध किसी कालमें पाया भी जाता है । और कदाचित् सब प्रत्यय नहीं भी होते हैं, क्योंकि सब कर्मोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध किसी कालमें नहीं भी पाया जाता है ।
शंका-वे विशेष प्रत्यय कौन हैं ?
समाधान-जिन प्रतिमा, जिनायल, संघ, प्राचार्य और प्रवचनके प्रतिकूल चलना आदि असंख्यात लोकप्रमाण विशेष प्रत्यय हैं।
६ ७३६. अब अनुत्कृष्ट विकल्पोंका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* अनुत्कृष्ट स्थिति अपनी उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा एक समय कमसे लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भाग कम उत्कृष्ट स्थिति तक होती है।।
६७४०. उसका खुलासा इस प्रकार है-मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधनेवाला जीव सोलह कषायोंकी एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिको बाँधता है। इस प्रकार आगे जाकर वह जीव एक समय कम आबाधाकाण्डकसे न्यून उत्कृष्ट स्थितिको भी बाँधता है।
शंका-आबाधाकाण्डक किसे कहते हैं ?
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४४६
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गा० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तियसरिणयासो पडि दिण्णे तत्थेगख्वधरिदमाबाहाकंडओ णाम । तत्थ एगसमयमादि कादूण जाव समयूणाबाहाकंडो त्ति ताव कसायाणमणुक्कस्सहिदिसंतवियप्पा होति । संपुण्णाबाहाकंडयमचा किण्ण होंति ? ण, एक्कस्स कम्मस्स उक्कस्सहिदीए बज्झमाणाए सव्वकम्माणं बज्झमाणाणमुक्कस्साबाहाए चेव तत्थ संभवादो । तं कुदो णव्वदे ? गुरुवएसादो हिदिबंधटाणसुत्तादो य।
* इत्थि-पुरिसवेद-हस्स-रदीणं णियमा अणुक्कस्सा ।
७४१. कुदो ? सोलसकसायाणमुक्कस्सहिदिबंधे संते एदासिं चदुण्हं पयडीणं बंधाभावादो। ण च बंधेण विणा अवहिदकम्मसु कसायाणमुक्कस्सहिदी बंधावलियाए
समाधान-उत्कृष्ट आबाधाका विरलन करके और विरलित राशिके प्रत्येक एक पर उत्कृष्ट स्थितिको समान खण्ड करके देयरूपसे दे देने पर एक विरलनके प्रति जो राशि प्राप्त होती है उतनेको एक आबाधाकाण्डक कहते हैं।
उनमें कषायोंके अनुत्कृष्ट स्थितिसत्त्वके विकल्प एक समयसे लेकर एक समय कम आबाधाकाण्डक प्रमाण होते हैं।
शंका-कषायोंके अनुत्कृष्ट स्थितिसत्त्वके विकल्प संपूर्ण आबाधाकाण्डकप्रमाण क्यों नहीं होते हैं ?
समाधान-नहीं, क्योंकि एक कर्मकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्ध होने पर बंधनेवाले सभी कोंकी उत्कृष्ट आबाधा ही वहाँ पर संभव है।
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-गुरूपदेशसे जाना जाता है और स्थितिबन्धस्थानके प्रतिपादक सूत्रसे जाना जाता है।
विशेषार्थ_ऐसा नियम है कि किसी एक कर्मके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके समय बंधनेवाले सब कर्मोंकी आबाधा उत्कृष्ट ही होती है किन्तु स्थितिमें फरक भी रहता है। बात यह है कि श्राबाधाके एक एक विकल्पके प्रति पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिविकल्प प्राप्त होते हैं, अतः उस समय बंधनेवाले सब कर्मोंकी स्थिति उत्कृष्ट ही होनी चाहिये ऐसा कोई नियम नहीं है। जिनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके कारण पाये जाते हैं उनकी उत्कृष्ट स्थिति होती है और जिनके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके कारण नहीं पाये जाते हैं उनकी स्थिति अनुत्कृष्ट होती है । वह अनुत्कृष्ट स्थिति एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर पल्यके असंख्यातवें भाग कम तक हो सकती है। यही कारण है कि यहां मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिबन्ध के समय सोलह कषायोंकी स्थिति उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट दोनों प्रकारकी बतलाई है। तथा अनुत्कृष्ट स्थिति विकल्प एक समय कम आबाधाकाण्डक प्रमाण बतलाये हैं। यहाँ आबाधाकाण्डक प्रमाण विकल्पोंमें से उत्कृष्ट स्थितिका एक विकल्प कम कर दिया है।
__* मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति के समय स्त्रीवेद, पुरुषवेद, हास्य और रतिकी नियमसे अनुत्कृष्ट स्थिति होती है ।
६७४१. क्योंकि सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध होते समय इन चार प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता है। यदि कहा जाय कि जिन कर्मोंका बन्ध नहीं हो रहा है किन्तु सत्तामें स्थित हैं
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अयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[द्विदिविहत्ती ३ ऊणा संकमदि 'बंधे संकमदि' ति सुत्रेण सह विरोहादो। ण च कसायहिदि सगुवरि संकंतं मोत्तण सगबंधेणेदासिं चदुण्हं पयडीणमुक्कस्सहिदिसतं होदि; दस-पण्णारससागरोवमकोडाकोडिमेत्तहिदीणमावलियूणचालीससागरोवमकोडाकोडिमेत्तविरोहादो ।
ॐ उकस्सादो अणुक्कस्सा अंतोमुहुत्त णमादि कादूण जाव अंतोकोडा
कोडि त्ति।
___ ७४२. तं जहा-सोलसकसायाणमुक्कस्सहिदि बंधिय पडिहग्गसमए चेव इथिवेदं बंधाविय बंधावलियादिक्कतं कसायहिदि उक्कस्समित्थिवेदम्मि संकामिदे इत्थिवेदस्स उकस्सहिदिविहत्ती होदि । तस्समए मिच्छत् णियमा अणुक्कस्सं, तत्थ तस्मुक्कस्सहिदिबंधाभावादो । तदो अंतोमुहुत्तमच्छिय संकिलेसं पूरेदूण मिच्छत्तु कस्सहिदीए पबद्धाए तत्काले इत्थिवेदहिदी अप्पणो उक्कस्सहिदि पेक्खिदूण अंतोमुहूत्त णा उनमें बन्धावलिसे कम कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका संक्रमण हो जायगा, सो भी बात नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर "बंधे संकामदि। इस सत्रके साथ विरोध आता है। यदि कहा जाय कि कषायकी स्थितिका इनमें संक्रमण होकर जो इनकी उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है उसे छोड़कर अपने बन्धसे इन चारों प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व हो जायगा सो भी बात नहीं है, क्योंकि दस
और पन्द्रह कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितियोंके एक आवलीकम चालीस कोडाकोड़ी सागरप्रमाण होनेमें विरोध आता है।
विशेषार्थ-संक्रमणके पाँच भेद हैं। इनमेंसे अधःप्रवृत्त संक्रम जिस प्रकृतिका बन्ध होता है उसमें ही अन्य सजातीय प्रकृतिका होता है। किन्तु मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध होते समय स्त्रीवेद आदि चार प्रकृतियोंका बन्ध नहीं होता, अतः सोलह कषायोंका पहले उत्कृष्टस्थिति बन्ध करावे और एक आवलि बाद स्त्रीवेद आदिका बन्ध कराते हुए उनमें एक आवलि कम कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका संक्रमण करावे । पुनः अन्तर्मुहूर्तमें उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त कराके मिथ्यात्वकी उत्कष्ट स्थितिका बन्ध करावे। इस प्रकार यह सब व्यवस्था देखनेसे विदित होता है कि जिस समय मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति होती है उस समय स्त्रीवेद आदिकी स्थिति अपनी उत्कृष्ट स्थितिको देखते हुए अन्तर्मुहूर्त कम होती है। यहाँ बन्धकी अपेक्षा इन चारों प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होनेका प्रश्न इसलिए नहीं उठता है, क्योंकि बन्धसे इनका उत्कृष्ट स्थिति सत्त्व न प्राप्त होकर संक्रमणसे ही उत्कृष्ट स्थिति सत्त्व प्राप्त होता है। इनका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध कितना होता है और उत्कृष्ट स्थितिसत्त्व कितना होता है यह स्पष्ट ही है ।
* वह अनुत्कृष्ट स्थिति अन्तमुहूर्तकम उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर अन्तःकोड़ाकोड़ी तक होती है।
६७४२. उसका खुलासा इस प्रकार है-सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर मिथ्यात्वसे निवृत्त होनेके समयमें ही जो स्त्रीवेदका बन्ध करके बन्धावलिसे रहित कषायकी उत्कृष्ट स्थितिका स्त्रीवेदमें संक्रमण करता है उसके उस समय स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है । और उस समय मिथ्यात्व नियमसे अनुत्कृष्ट होता है, क्योंकि वहां पर मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध नहीं होता है। तदनन्तर अन्तर्मुहूर्त ठहर कर और संक्लेशकी पूर्ति करके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्ध होने पर उस समय स्त्रीवेदकी स्थिति अपनी उत्कृष्ट स्थितिको
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गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयाडहिदिविहत्तियसरिणयासो ४५१ होदि । एस वियप्पो सोलसकसायाणमुक्कस्सहिदि बंधिदूणित्थिवेदम्मि संकामिदे लद्धो । पुणो अण्णेगेण जीवेण सोलसकसायाणं बद्धसमयूणुक्कस्सहिदिणा पडिहग्गसमए चेव इत्थिवेदं बंधमाणेण तस्सुवरि संकामिदबंधावलियादिक्कंतकसायहिदिणा तेण इत्थिवेदस्स समयूणुक्कस्सहिदिधारएण तत्तो उवरि अवहिदमंतोमुहुत्तमच्छिय उक्कस्ससंकिलेसं पूरेदण मिच्छत्तु क्कस्सहिदीए पबद्धाए एसो इत्थिवेदस्स विदियवियप्पो होदि, पुव्वुत्तहिदि पेक्खिदूण समयूणत्तादो। पुणो अण्णेण जीवेण सोलसकसायाणं बद्धदुसमयूणुक्कस्सहिदिणा पडिहग्गसमए इथिवेदं बंधमाणेण तदुवरि संकामिदबंधावलियादिक्कंतकसायहिदिणा अवहिदमतोमहुत्तमच्छिय उक्कस्ससंकिलेसं गंतूण मिच्छत्तु क्कस्सहिदीए पबद्धाए इत्थिवेदस्स अण्णो वियप्पो होदि; पुव्वुत्तहिदि पेक्खिदूण दुसमयूणत्तादो । पुणो अण्णेण जीवेण बद्धतिसमयूणसोलसकसायुक्कस्सहिदिणा पडिहग्गसमए इत्थिवेदं बंधतेण तदुवरि संकामिदबंधावलियादिक्कतकसायहिदिणा अवहिदमंतोमहुत्तमच्छिय उक्कस्ससंकिलेसं पूरेदण मिच्छत्त क्कस्सहिदीए पबद्धाए इत्थिवेदस्स अण्णो वियप्पो होदि; पुव्वुत्तहिदि पेक्खिद्ण तिसमयूणत्तादो । एवं चदुसमयूण-पंचसमयूणादिकमेण सोलसकसायाणमुक्कस्सहिदि बंधाविय पडिहग्गसमए इत्थिवेदं बंधाविय बंधावलियादिक्कतकसायद्विदिमित्थिवेदसरूवेण संकामिय मिच्छत्तु क्कस्सहिदि देखते हुए अन्तर्मुहूर्त कम होती है। यह विकल्प सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर उसका स्त्रीवेदमें संक्रमण कराने पर प्राप्त होता है। पुनः जिसने सोलह कषायोंकी एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया है ऐसा कोई एक जीव जब प्रतिभग्न होनेके समयमें ही स्त्रीवेदका बन्ध करके उसमें बन्धावलिसे रहित कषायकी स्थितिका संक्रमण करता है तब वह स्त्रीवेदकी एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिका धारक होता हुआ इसके आगे अवस्थित अन्तर्मुहूर्त तक ठहर कर
और उत्कृष्ट संक्लेशकी पूर्ति करके मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है। उस समय उसके स्त्रीवेदका यह दूसरा विकल्प होता है, क्योंकि पहलेकी स्थितिको देखते हुए यह स्थिति एक समय कम है । पुनः जिसने सोलह कषायोंकी दो समय कम उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया है और प्रतिभग्न होनेके समयमें स्त्रीवेदका बन्ध करते हुए उसमें बन्धावलिसे रहित कषायकी स्थितिका संक्रमण किया है ऐसा कोई एक अन्य जोव अवस्थित अन्तर्मुहूर्त तक ठहर कर और उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर यदि मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है तो उस समय उसके स्त्रीवेदका अन्य विकल्प प्राप्त होता है, क्योंकि पहलेकी स्थितिको देखते हुए यह स्थिति दो समय कम है। पुनः जिसने सोलह कषायोंकी तीन समय कम उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध किया है और प्रतिभम होनेके समयमें स्त्रीवेदका बन्ध करते हुए उसमें बन्धावलिसे रहित कषायकी स्थितिका संक्रमण किया है ऐसा कोई एक अन्य जीव अवस्थित अन्तर्मुहूर्त ठहर कर और उत्कृष्ट संक्लेशकी पूर्ति करके यदि मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है तो उस समय उसके स्त्रीवेदका एक अन्य विकल्प प्राप्त होता है, क्योंकि पहलेकी स्थितिको देखते हुए यह स्थिति तीन समय कम है। इसी प्रकार चार समय कम, पांच समय कम इत्यादि क्रमसे पहले सोलह कषायोंको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कराके तदनन्दर प्रतिभन्न समयमें स्त्रीवेदका बन्ध कराके और बन्धावलिसे रहित कषायकी स्थितिका स्त्रीवेदरूपसे संक्रमण कराके तदनन्तर अवस्थित अन्तर्मुहूर्त
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४५२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[हिदिविहत्ती ३ बंधाविय ओदारेदव्वं जाव आवाधाकंडएणूणं ति ।
७४३. संपहि आबाहाकंडएणूणित्थिवेदहिदीए इच्छिज्जमाणाए सोलसकसायाणमंतोमुहुत्तेणूणेण आबाहाकंडएणूणुक्कस्सहिदि बंधिय पडिहज्जिदूणित्थिवेदे बज्झमाणे बंधावलियादीदकसायहिदिमित्थिवेदसरूवेण संकामिय अवहिदमंतोमहुत्तद्धमच्छिय उक्कस्ससंकिलेसं पूरेदूण मिच्छत्तु क्कस्सहिदीए पबद्धाए तक्काले इत्थिवेदमप्पणो ओघुक्कस्सहिदि पेक्खिदूण एगाबाहाकंडएणूणं होदि। संपहि एदस्साबाहाकंडयस्स हेडा नं हिदिमिच्छदि तिस्से हिदीए उवरि सोलसकसायद्विदिमंतोमुहुत्तब्भहियं बंधाविय पुव्विल्लविहाणं जाणिदण ओदारेदव्वं जाव इत्थिवेदपाओग्गसव्वजहण्णमंतोकोडाकोडि त्ति । एवं पुरिसवेद-हस्स-रदीणं पि परूवेदव्वं, विसेसाभावादो।।
* एवंसयवेद-अरदि-सोग-भय-दुगुछाणं हिदिविहत्ती किमुक्कस्सा किमणुक्कस्सा ?
$ ७४४. सुगममेदं। * उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा।
७४५. मिच्छत्तु क्कस्सहिदीए बज्झमाणाए जदि सोलसकसायाणमुक्कस्सहिदिबंधो पत्थि तो णवुसयवेद-अरदि-सोग-भय-दुगुंछाणं पि णत्थि उक्कस्सहिदिसंतकम्म, कसाएहिंतो एदासिं पयडीणमक्कस्सहिदिसंतुप्पत्तीदो । मिच्छत्त-सोलसकसायाणकालके बाद उत्कृष्ट संक्लेशके द्वारा मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कराके एक अबाधाकाण्डकसे न्यून स्थितिके प्राप्त होने तक घटाते जाना चाहिये।
६७४३ अब आबाधाकाण्डकसे कम स्त्रीवेदकी स्थितिके इच्छित होनेपर सोलह कषायोंकी अन्तर्मुहूर्त कम आबाधाकाण्डकसे न्यून उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके और प्रतिभग्न होकर स्त्रीवेदका बन्ध करते समय बम्धावलिसे रहित कषायकी स्थितिका स्त्रीवेदरूपसे संक्रमण करके तदनन्तर अवस्थित अन्तर्मुहूर्त काल तक ठहर कर और उत्कृष्ट संलशकी पूर्ति करके जो जीव मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है उसके उस समय स्त्रीवेदकी स्थिति अपनी ओघ उत्कृष्ट स्थितिको देखते हुए एक आबाधाकाण्डक कम होती है। अब इस आबाधाकाण्डकके नीचे स्त्रीवेदकी जो स्थिति इच्छित हो उस स्थितिसे सोलह कषायोंकी स्थितिका अन्तर्मुहूर्त अधिक बन्ध कराके पूर्वोक्त विधिको जानकर उसके योग्य स्त्रीवेदकी सबसे जघन्य अन्तःकोड़ाकोड़ी स्थितिके प्राप्त होने तक स्थिति घटाता जावे। इसी प्रकार पुरुषवेद, हास्य और रतिका भी कथन करना चाहिये, क्योंकि उससे इनमें कोई विशेषता नहीं है।
8 मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके समय नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साकी स्थितिविभक्ति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ?
६७४४. यह सूत्र सुगम है।
* उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी।
$ ७४५ मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धके समय यदि सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध नहीं होता है तो नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका भी उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म नहीं होता है, क्योंकि कषायोंसे इन प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति उत्पन्न होती है। मिथ्यात्व और
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गा० २२ ) द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिविहत्तियसरिणयासो मुक्कस्सहिदिबंधे संते वि एदासि पयडीणमुक्कस्सहिदिसंतकम्भ भयणिज्ज; बंधावलियभंतरे बद्धकसायउक्कस्सहिदीए संकमाभावादो। बंधावलियादिक्कतकसायसमयपबद्धक्कस्सहिदीए एदासिं पयडीणमुवरि संकंतावत्थाए जदि मिच्छत्त क्कस्स हिदिबंधो होदि तो मिच्छत्त ककस्सहिदिविहत्तीए सह एदासिं पयडीणमक्कस्सहिदिविहत्ती होदि। एवं होदि त्ति काऊण जइवसहभडारएण उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा होदि त्ति भणिदं ?)
उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समऊणमादि कादूण जाव वीससागरोवमकोडाकोडीमो पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेण ऊणामो त्ति ।
७५६. एत्थ ताव णवुसयवेदमस्सिदण सुत्तत्थविवरणं कस्सामो । तं जहामिच्छत्तु क्कस्सद्विदि बंधिय सोलसकसायाणं समयणुक्कस्सहिदि बंधिय पुणो बंधावलियादिक्कतकसायद्विदीए णवुसयवेदसरूवेण संकामिज्जमाणावत्थाए जदि मिच्छत्तस्स उक्कस्सहिदिबंधो होदि तो णवुसयवेदस्स अणुक्कस्सहिदिविहत्ती; सगोघुक्कस्सहिदि पेक्खिदूण समयणत्तादो । पुणो अण्णण जीवेण कसायाणं दुसमऊणक्कस्सहिदि बंधिय बंधावलियादिक्कंतकसायहिदीए णवुसयवेदसरूवेण संकामिदार तत्थ मिच्छत्त क्कस्सहिदिबंधे संते णवुसयवेदस्स अणुक्कस्सहिदिविहत्ती, सगोघुक्कस्सं पेक्खिदण दुसमयूणत्तादो। एवमेदेण कमेण सोलसकसायहिदि तिसमयूणादिसरूवेण बंधाविय बंधावलियादिक्कतकसायहिदी णवुसयवेदसरूवेण संकाभिय संकंतसमए मिच्छत्त कस्सहिदि सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध होने पर भी इन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्म भजनीय है, क्योंकि बंधी हुई कषायकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धावलीके भीतर संक्रमण नहीं होता है। तथा बन्धावलिसे रहित कषायके समयप्रबद्धोंकी उत्कृष्ट स्थितिका इन प्रकृतियोंमें संक्रमण होते समय यदि मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है तो मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके साथ इन प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है। इस प्रकार मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके समय इन प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है ऐसा समझ कर यतिवृषभ भट्टारकने 'उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट' यह कहा है।
__* अनुत्कृष्ट स्थिति एक समय कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर पल्योपमका असंख्यातवां भाग कम बीस कोड़ाकोड़ी सागर तक होती है।
...६ ७४६. यहां पहले नपुंसकवेदका आश्रय लेकर सूत्रके अर्थका खुलासा करते हैं। वह इस प्रकार है-मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके और सोलह कषायोंकी एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके तदनन्तर बन्धावलिसे रहित कषायकी स्थितिका नपुंसकवेदरूपसे संक्रमण होनेके.समय यदि मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध होता है तो नपुंसकवेदकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है, क्योंकि उस समय अपनी उत्कृष्ट स्थितिको देखते हुए वह एक समय कम होती है। पुनः अन्य जीवके कषायकी दो समय कम उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर बंधावलिसे रहित कषायकी स्थितिका नपुंसकवेदरूपसे संक्रमण होते समय यदि मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है तो उस समय उसके नपुंसकवेदकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है, क्योंकि अपनी ओघ उत्कृष्ट स्थितिको देखते हुए वह दो समय कम होती है। इस प्रकार इसी क्रमसे सोलह कषायोंकी स्थितिका तीन समय कम आदिरूपसे बन्ध कराके और बन्धावलीसे रहित कषायकी स्थितिका
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अथधवलासहिदे कसायपाहुडे . [ हिदिविहती ३ बंधाविय ओदारेदव्वं जाव गवुसयवेदस्स ओघुक्कस्सहिदी एगेणाबाधाकंडएणूणा जादा त्ति।
६७४७. एदिस्से हिदीए उप्पत्तिविहाणं वुच्चदे । तंजहा–मिच्छत्त-सोलसकसायाणमाबाहाकंडएणूणउक्कस्सहिदिमावलियमेत्तकालं बंधाविय पुणो उकस्ससंकिलेसं पूरेदूण मिच्छत्तु कस्सहिदीए पबद्धाए तक्काले आवाधाकंडएणूणावलियादीदकसायहिदि णव॑सयवेदस्सुवरि संकामिय मिच्छत्तक्कस्सहिदीए पबद्धाए णवुसयवेदस्स अणुक्कस्सहिदिविहत्ती होदि । कुदा ? आवलियम्भहियआबाहाकंडएणूणचत्तालीससागरोवमकोडाकोडिमेत्तहिदित्तादो । एवं जाणिदण अोदारेदव्वं जाव बीसं सागरोवमकोडाकोडिमेत्तहिदि त्ति ।
६७४८. संपहि वीसंसागरोवमकोडाकोडिपमाणे इच्छिज्जमाणे सोलसकसायाणमावलियब्भहियवीससागरोवमकोडाकोडिमेत्तहिदिमावलियमेत्तकालंबंधाविय पुणो उक्कस्ससंकिलेसं पूरेदूण मिच्छत्तु कस्सहिदिवज्झमाणसमए पुव्वुत्तावलियादीदकसायहिदीए णवं सयवेदसरूवेण संकंताए णव'सयवेदहिदी अणुक्कस्सा होदि; वीससागरोवमकोडाकोडिपमाणत्तादो । पुणो समयूणाबाहाकंडयमेतहिदिमप्पणो बंधमस्सिदणोदारिय गेण्हिदव्वं । एवमरदि-सोग-भय-दुगुंछाणं पि वत्तव्यं, वीससागरोवमकोडाकोडिहिदिबंधादीहि तत्तो विसेसाभावादो । एवं मिच्छत्रेण सह सव्वपयडीणं सण्णियासो गदो।। नपुंसकवेदरूपसे संक्रमण कराके तथा संक्रमणके समय मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध कराके नपुंसकवेदकी ओघ उत्कृष्ट स्थिति एक आबाधाकाण्डक कम होने तक घटाते जाना चाहिये ।
६७४७. अब इस स्थितिके उत्पन्न होनेकी विधि कहते हैं। वह इस प्रकार है-मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी एक श्राबाधाकाण्डक न्यून उत्कृष्ट स्थितिका एक आवलि कालतक बन्ध कराके पुनः उत्कृष्ट संक्लेशकी पूर्ति करके मिथ्यात्वको उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके उसी समय एक
आबाधाकाण्डक कम और एक आवलि रहित कषायकी स्थितिका नपुंसकवेदमें संक्रमण कराने पर मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध होने पर नपुंसकवेदकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है, क्योंकि यह स्थिति एक श्रावलि अधिक आबाधाकाण्डक कम चालीस कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण है। इसी प्रकार जानकर बीस कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितिके प्राप्त होने तक नपुंसकवेदकी स्थिति घटाते जाना चाहिये।
६७४८. अब बीस कोड़ाकोड़ी सागर स्थितिके इच्छित होने पर सोलह कषायोंकी एक श्रावलि अधिक बीस कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितिका एक आवलि कालतक बन्ध कराके पुनः उत्कृष्ट संक्लेशकी पूर्ति करके जो मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करता है उसके उस समय पूर्वोक्त एक आवलिसे रहित कषायकी स्थितिका नपुंसकवेदरूपसे संक्रमण होने पर नपुंसकवेदकी अनुत्कृष्ट स्थिति होती है, क्योंकि यह स्थिति बीस कोड़ाकोड़ी सागर है। पुन: अपने बन्धकी अपेक्षा एक समय कम आबाधाकाण्डक प्रमाण स्थितिको घटाकर ग्रहण करना चाहिये। इसी प्रकार अरति, शोक, भय और जुगुप्साका भी कथन करना चाहिये, क्योंकि बीस कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितिबन्ध आदिकी अपेक्षा नपुंसकवेदसे इनमें कोई विशेषता नहीं है। इस प्रकार मिथ्यात्वके साथ सब प्रकृतियोंका सन्निकर्ष समाप्त हुआ।
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गा. २२) हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तियसरिणयासो
® सम्मत्तस्स उक्कस्सहिदिविहत्तियस्स मिच्छत्तस्स हिदिविहत्ती किमुक्कस्सा किमणुकस्सा ?
६७४९. सुगममेदं । * णियमा अणुकसा।
७५०. कुदो १ सम्मादिहिम्मि मिच्छत्तस्स बंधाभावेण तत्थ तदुक्कस्सहिदीए असंभवादो। ण च पढमसमयवेदयसम्मादिहिं मोत्तूणण्णत्थ सम्मत्तस्सुक्कस्सहिदिविहत्ती होदि, मिच्छादिडिम्हि अपडिग्गहसम्मत्तकम्मे सम्मत्तस्सुवरि मिच्छत्तहिदीए संकमाभावादो।
* उक्कस्सादो अणुक्कस्सा अंतोमुहुत्त णा।
७५१. कुदो ? मिच्छत्तु क्कस्सहिदि बंधिय पडिहज्जिदूण अंतोमुहुत्तमच्छिय वेदगसम्मत्त पडिवण्णपढमसमए मिच्छत्तहिदीए सम्मत्तस्सुवरि संकंताए सम्मत्तस्सुकस्सहिदिविहत्ती होदि, तत्थ मिच्छत्तहिदीए सगोघुक्कस्सहिदि पेक्खदूण अंतोमुहुतणत्तु वलभादो।
* पत्थि अण्णो वियप्पो।
$ ७५२. सम्मत्तहिदीए उक्कस्सियाए संतीए जहा अण्णेसि कम्माणमणुक्कस्सहिदी अणेयवियप्पा तधा मिच्छत्ताणुक्कस्सहिदी गाणेमवियप्पा सम्मत्तु क्कस्सहिदीए एयवियप्पत्तण्णहाणुबवत्तीदो।
* सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवके मिथ्यात्वकी स्थिति या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? ६७४६. यह सूत्र सुगम है। * नियमसे अनुत्कृष्ट होती है।
६७५०. क्योंकि सम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्वका बन्ध नहीं होता, अतएव वहां उसकी उत्कृष्ट स्थिति नहीं हो सकती और प्रथम समयवर्ती वेदकसम्यग्दृष्टिको छोड़कर सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति अन्यत्र होती नहीं, क्योंकि मिथ्यादृष्टि जीवके सम्यक्त्व प्रकृति पतद्ग्रहपनेके अयोग्य है, अतः उसके सम्यक्त्वमें मिथ्यात्वकी स्थितिका संकमण नहीं होता है। ___ * वह अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्ति आनी उत्कृष्ट स्थितिसे अन्तर्मुहूर्त कम होती है।
६७५१. क्योंकि मिथ्यात्वकी उत्कृष्टस्थितिका बन्ध करके और मिथ्यात्वसे निवृत्त होकर तथा वहां अन्तमुहूर्तकाल तक ठहरकर जो वेदकसम्यक्त्वके प्राप्त होनेके पहले समयमें मिथ्यात्वकी स्थितिका सम्यक्त्वमें संक्रमण करता है उसके सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है। पर वहां मिथ्यात्वकी स्थिति अपनी ओघ उत्कृष्ट स्थितिको देखते हुए अन्तर्मुहूर्त कम पाई जाती है ।
___ * यहां मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिका इससे अतिरिक्त अन्य विकल्प नहीं होता।
७५२. सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिके रहते हुए जिस प्रकार अन्य कर्मोको अनुत्कृष्ट स्थिति अनेक प्रकारकी होती है उस प्रकार मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थिति अनेक प्रकारकी नहीं होती है,
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जयघवलासहिदे कसायपाहुडे [द्विदिविहस्ती ३ 8 सम्मामिच्छुत्तहिदिविहत्ती किमुक्कस्सा किमणुक्कस्सा ? $ ७५३. सुगममेदं ।
ॐ णियमा उकस्सा।
३७५४. कुदो ? अंतोमुहुत्त णसत्तरिसागरोवमकोडाकोडिमेत्तमिच्छत्तहिदीए पढमसमयवेदगसम्मादिहिम्मि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तसरूवेण जुगवं संकंतिदसणादो । सम्मामिच्छत्तस्सुदयणिसेगो सगसरूवेण पत्थि; थिवुक्कसंकमेण सम्मत्तुदयणिसेगसरूवेण परिणदत्तादो । तम्हा सम्मत्त क्कस्सहिदिं पेक्विदण सम्मामिच्छत्तु क्कस्सहिदीए एगणिसेगेणूणाए होदव्वं । ण च उदयणिसेगस्स सगसरूवेण धरणहमहावीससंतकम्मियमिच्छाइट्टी तप्पाओग्गुक्कस्समिच्छत्तहिदिसंतकम्मिश्रो सम्मामिच्छत्तं पडिवज्जावे, सक्किज्जइ, सम्मामिच्छाइडिम्मि दंसणतियस्स संकमाभावेण दोण्हं पि अणुक्कस्सहिदिप्पसंगादो त्ति ? ण, उक्कस्सहिदीए पक्कंताए कालं मोत्तूण णिसेयाणं पहाणत्ताभावादो । कत्थ पुण णिसेयाणं पहाणत्त ? जहण्णहिदीए । तं कुदो णव्वदे ? छण्णोकसायजहण्णहिदीए अंतोमुहुत्तावहाणपरूवणसुत्तादो। ण कोहसंजलणेण वियहिचारो. अन्यथा सम्यक्त्वको उत्कृष्टस्थिति एक प्रकारकी नहीं बन सकती है।
* सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिके समय सभ्यग्मिथ्यात्वकी स्थितिविभक्ति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ?
६७५३. यह सूत्र सुगम है। * नियमसे उत्कृष्ट होती है।
६७५४. क्योंकि अन्तमुहूर्त कम सत्तर कोडाकोड़ी सागरप्रमाण मिथ्यात्वकी स्थितिका वेदकसम्यग्दृष्टिके पहले समयमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वरूपसे एक साथ संक्रमण देखा जाता है।
शंका-सम्यग्दृष्टि जीवके सम्यग्मिथ्यात्वका उदयनिषेक अपने रूपसे उदयमें नहीं आता है, क्योंकि स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा उसका सम्यक्त्वके उदयनिषेकरूपसे परिमणन हो जाता है। अतः सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिके समय सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति एक निषेक कम होनी चाहिये। यदि कहा जाय कि जिससे सम्यग्मिथ्यात्वका उदयनिषेक अपने रूपसे प्राप्त हो जाय इसलिये अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाले मिथ्यादृष्टि जीवको तत्प्रायोग्य मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिसत्कर्मके साथ सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान प्राप्त करा दिया जाय सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोंका संक्रमण नहीं होता, अतः वहां दोनोंकी ही अनुत्कृष्ट स्थितिका प्रसंग प्राप्त होता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि उत्कृष्ट स्थिति में कालको छोड़कर निषेकोंकी प्रधानता नहीं है। शंका-तो फिर निषेकोंकी प्रधानता कहाँ पर है ? समाधान-जघन्य स्थितिमें। शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिका काल अन्तर्मुहूर्त है इस बातका कथन करने
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गा० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तियसरिणयासो ४५७ एगसमयपबद्धस्स णिसेगग्गहणडं समयूणदोआवलियमेत्तद्धाणमुवरि गंतूण जहण्णसामित्तप्पधाणादो। तदो सम्मामिच्छ णियमा उक्कस्सं ति सिद्धं ।
सोलसकसाय-णवणोकसायाणं हिदि विहत्ती किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ?
७५५. सुगममेदं । णियमा अणुक्कस्सा।
७५६. कुदो ? सम्मत्तु क्कस्सद्विदिविहत्तियजीवे पढमसमयवेदयसम्मादिहिम्मि सोलसकसाय-णवणोकसायाणमुक्कस्सहिदिबंधाभावादो । सो वि कुदो ? सगविसेसकारणुक्कस्ससंकिलेसाणुविद्धमिच्छत्त दयाभावादो । ण च कारणेण विणा कज्ज संभवइ, अइप्पसंगादो। __ उकस्सादो अणुक्कस्सा अंतोमुहुत्त णमादि कादूण जाव पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेपूणा त्ति ।
७५७. तं जहा—अट्ठावीससंतकम्मिएण बद्धमिच्छत्त-सोलसकसायुक्कस्सवाले सूत्रसे जाना जाता है।
यदि कहा जाय कि उक्त कथनका क्रोधसंज्वलनसे व्यभिचार हो जायगा सो भी बात नहीं है, क्योंकि वहाँ एक समयप्रबद्ध के निषेकोंके ग्रहण करनेके लिये एक समय कम दो आवलिप्रमाण काल ऊपर जाकर जघन्य स्वामित्वकी प्रधानता है।
अतः सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके समय सम्यग्मिथ्यात्व नियमसे उत्कृष्ट स्थितिवाला होता है यह बात सिद्ध हुई।
• सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिके समय सोलह कषायोंकी और नौ नोकषायोंकी स्थितिविभक्ति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कुष्ट ?
६७५५. यह सूत्र सुगम है। ®नियमसे अनुत्कृष्ट होती है ।
६७५६. क्योंकि सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले प्रथम समयवर्ती वेदकसम्यग्दृष्टि जीवके सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध नहीं होता है।
शंका-इस जीवके सोलह कषाय और नौ नोकषायोंका उत्कृष्ट स्थितिबन्ध क्यों नहीं होता है ?
समाधान-क्योंकि सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धका जो विशेष कारण उत्कृष्ट संक्लेशसे सम्बन्ध रखनेवाला मिथ्यात्वका उदय है वह वहाँ पर नहीं पाया जाता है । यदि कहा जाय कि कारणके बिना भी कार्य हो जायगा सोभी बात नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर अतिप्रसंग दोष आता है।
* वह अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्ति अपनी उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त कमसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग कम तक होती है।
६.७५७ खुलासा इस प्रकार है-जिसने मिथ्यात्व और सोलह कषायों की उत्कृष्ट स्थिति
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मधवलासहिदे कसा पाहुडे
[ द्विदिविहसी ३
हिदिणा बंधावलियाइक्कंतकसायद्विदिसं कमेणुक्कस्सीकयणवणोकसाएण जहणपडिहम्मद्धमच्छिय सम्मत्ते पडिवण्णे सम्मत्त क्कस्सद्विदिविहत्ती होदि । तक्काले सोलसकसाय - णवणोकसायाणुक्कस्सद्विदी अंतोमुडुत्तूणा; जहण्णपडिहग्गद्धाए अधडिदिगलणाए गलिदचादो । मिच्छत्तु क्कस्स द्विदिबंधकाले सोलसकसायाणं समयृणुक्कस्सहिदीए पबद्धा अण्णा सोलसकसाय - णवणोकसायाणमणुक्कसहिदी होदिः पुण्वहिदिं पेक्खिदूण समयुणत्तादो | एवं दुसमयूण - तिसमयूणादिकमेण श्रोदारेदव्वं जाव समयूणा बाहा - कंडएरणरणुक्कस्सहिदि ति । तत्थ सव्वपच्छिमवियप्पो वुञ्चदे । तं जहा - 1 -मिच्छत्तु क्कस्सहिदिबंधेण सह कसायाणं समयूणाबाहाकंड एरणूणुक्कस्सहिदिं बंधिय अवदिपहिग्गद्धमधडिदिगलणाए गालिय सम्मत्त पडिवण्णे सोलसकसाय-रावणोकसायाणं हिदी सक्सहिदि पेक्खिदूण समयूणाबाहाकंडएण जहण्णपडिहग्गद्धाए च ऊणा । एत्तो हेट्ठा णोदारेढुं सक्किज्जइ, ओदारिदे सम्मत्त कस्स द्विदिविणासादो ।
* एवं सम्मामिच्छत्तस्स वि ।
$ ७५८. जहा सम्मत्तु क्कस्सद्विदिणिरोहं काऊण अवसेसंकम्मद्विदीर्णं सण्णियासो कदो तहा सम्मामिच्छत् क्कस्सद्विदिणिरोहं काऊण सेसकम्मद्विदीर्ण सण्णियासो कायच्चो,
बांधी है और बन्धावलिके बाद जिसने कषायकी स्थितिका संक्रमण करके नौ नोकषायोंकी उत्कष्ट स्थिति की है ऐसा अट्ठाईस प्रकृतियोंका सत्कर्मवाला जीव यदि जघन्य प्रतिभग्नकाल तक मिध्यात्वमें रहकर सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ तो उस समय उसके सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है और उसी समय उसके सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त कम होती है, क्योंकि इसके जघन्य प्रतिभग्न काल अधः स्थितिगलनाके द्वारा गल चुका है । तथा मिध्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धके समय सोलह कषायों की एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिके बन्ध होने पर सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिके समय सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी अन्य अनुत्कृष्ट स्थिति होती है, क्योंकि पहलेकी स्थितिको देखते हुए यह स्थिति एक समय कम है । इसी प्रकार दो समय कम, तीन समय कम आदि क्रमसे एक समय कम आबाधा काण्डकसे न्यून उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होने तक सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थितिको घटाते जाना चाहिये । वहाँ अब सबसे अन्तिम विकल्प कहते हैं । वह इस प्रकार है - मिथ्यात्व के उत्कृष्ट स्थिति बन्धके साथ कषायों की एक समय कम आबाधाकाण्डकसे न्यून उत्कृष्ट स्थितिको बाँध कर तदनन्तर अवस्थित प्रतिभग्नकालको अधः स्थितिगलनाके द्वारा गलाकर इस जीवके सम्यक्त्वके प्राप्त होने पर सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति अपनी उत्कृष्ट स्थितिको देखते हुए एक समय कम आबाधाकाण्डक और जघन्य प्रतिभग्न काल प्रमाण कम होती है। यहां सोलह कषाय और नौ नोकषायों की स्थितिको इससे और कम नहीं किया जा सकता है, क्योंकि इनकी स्थितिको इससे और कम करने पर सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिका विनाश हो जाता है ।
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इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको विवक्षित कर शेष प्रकृतियों की स्थितियोंका सन्निकर्ष करना चाहिये ।
५८. जिस प्रकार सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिको विवक्षित कर अर्थात् सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थिति रहते हुए शेष कर्मों की स्थितियोंका सन्निकर्ष कहा उसी प्रकार सम्यमिध्यात्वकी
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गी० २२ हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तियसरिणयासो विसेसाभावादो ।
* जहा मिच्छत्तस्स तहा सोलसकसायाणं ।
७५६. जहा मिच्छत्तु क्कस्सहिदिणिरु भणं काऊण सेसासेसमोहपयडिहिदीणं सण्णियासो कदो तहा सोलसकसाएसु एगेगकसायस्स उक्कस्सहिदिणिरु भणं काऊण सेसकम्महिदीणं सण्णियासो कायव्वो; अविसेसादो ।
* इत्थिवेदस्स उकस्सहिदिविहत्तियस्स मिच्छत्तस्स हिदिविहत्ती किमुकस्सा भणुकस्सा?
६७६० सुगममेदं ।
ॐ णियमा अणुकस्सा ।
६७६१. कुदो ? इत्थिवेदबंधकाले मिच्छत्तु कस्सहिदिबंधाभावादो। ण च इत्थिवेदस्स बंधेण विणा हिंदीए उक्कस्सत्तं संभवइ, अपडिग्गहस्सित्थिवेदस्सुवरि बंधावलियाइक्कतकसायुक्कस्सहिदीए संकमाभावादो। तम्हा णियमा अणुक्कस्सा ति मुर्ग सुभासिदं।
* उकस्सादो अणुकस्सा समयूणमादि कादूण जाव पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेषूणा त्ति । उत्कृष्ट स्थितिको विवक्षित कर शेष कर्मोंकी स्थितियोंका सन्निकर्ष कहना चाहिये ; क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है।
जिस प्रकार मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको विवक्षित कर शेष प्रकृतियों की स्थितियोंका सनिकर्ष कहा उसी प्रकार सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिको विवक्षित कर शेष प्रकृतियोंकी स्थितियोंका भी सन्निकर्षे कहना चाहिये।
६७५६. जिस प्रकार मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको रोक कर शेष सब मोह प्रकृतियोंकी स्थितियोंका सन्निकर्ष किया है उसी प्रकार सोलह कषायोंमेंसे एक एक कषायकी उत्कृष्ट स्थितिको रोककर शेष कर्मोंकी स्थितियोंका सन्निकर्ष करना चाहिये, क्योंकि इनके कथनमें कोई विशेषता नहीं है।
स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति के समय मिथ्यात्वकी स्थितिविभक्ति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ?
६७६०. यह सूत्र सुगम है। * नियमसे अनुत्कृष्ट होती है ।
६७६१.क्योंकि स्त्रीवेदके बन्धके समय मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका बन्ध नहीं होता है। और स्त्रीवेदका बन्ध हुए बिना उसकी स्थिति उत्कृष्ट हो नहीं सकती, क्योंकि अपतद्ग्रहरूप स्त्रीवेदमें बन्धावलिके बाद कषायकी उत्कृष्ट स्थितिका संक्रमण नहीं होता है । इसलिये स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिके समय मिथ्यात्वकी स्थिति नियमसे अनुत्कृष्ट होती है यह सूत्र उचित ही कहा है।
वह अनुत्कृष्ट स्थिति अपनी उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा एक समय कमसे लेकर पन्योपमके असंख्यातवें भाग कम. स्थिति तक होती है ।
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४६० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[द्विदिविहत्ती ३ ७६२. तं जहा-मिच्छत्त-सोलसकसायाणमुक्कस्सहिदि बंधिय पडिहग्गसमए चेव इत्थिवेदबंधावलियादिक्कतकसायहिदीए इत्थिवेदसरूवेण संकामिदाए इस्थिवेदस्सुकस्सहिदिविहत्ती होदि । तत्काले मिच्छत् समय॒णं होदि; उक्कस्सहिदीदो अधहिदिगलणाए गलिदेगसमयत्तादो । संपहि सोलसकसायाणमुक्कस्सहिदिबंधकाले मिच्छत्तस्ससमयूणुकस्सहिदि बंधिय पडिहग्गसमए इत्थिवेदं बंधतेण कसायहिदीए तस्सरूवेण संकामिदाए इत्थिवेदस्स उकस्सहिदिविहत्ती होदि । तस्समए मिच्छत्तस्स अणुक्कस्सहिदिविहत्ती; सगुक्कस्सहिदिं पेक्खिदण दुसमयूणत्तादो। एवं तिसमयणादिकमेण मिच्छत्तमोदारेयव्वं जाव आबाहाकंडएणूणहिदि पचं ति । पुणो वि आवाहाकंडयस्स हेहा मिच्छत् समऊणावलियमेत्तमोदरदि । तं जहा-सोलसकसायाणमुक्कस्सहिदिमंतोमुहुत्तमेत्तमावलियमे वा कालं बंधतेण मिच्छत्तु कस्सहिदी वि समयूणाबाहाकंडएणूणा बद्धा। पुणो पडिहग्गसमए इत्थिवेदं बंधतेण बंधावलियादीदकसायहिदी तस्सरूवेण संकामिदा ताधे इत्थिवेदस्स उकस्सहिदिविहत्ती होदि । एवं पडिहग्गावलियमेत्तकालमित्थिवेदस्स उकस्सहिदिविहत्ती चेव; बंधगद्धाए चरिमावलियमेत्तक्कस्सहिदीणं तत्थ संकंतिदसणादो । मिच्छत् पुण पडिहग्गपढमसमए आबाहाकंडएणूणं विदिसमए तेण समयाहिएण तदियसमए तेण दुसमयाहिएण एवं णेदव्वं जाव पडिहग्गावलियचरिम
६७६२. उसका खुलासा इस प्रकार है-जो मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके प्रतिभग्नकालके भीतर ही स्त्रीवेदका बन्ध करता हुआ बन्धाकलिसे रहित कषायकी स्थितिका स्त्रीवेदरूपसे संक्रमण करता है उसके स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थिति विभक्ति होती है । तथा उस समय मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति एक समय कम होती है, क्योंकि इसकी उत्कृष्ट स्थितिमेंसे अधःस्थितिगलनाके द्वारा एक समय गल गया है। अब सोलह कषायों की उत्कृष्ट स्थितिके बन्धके समय मिथ्यात्वकी एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर प्रतिभग्न कालके भीतर स्त्रीवेदको बांधते हुए किसी जीवके कषायकी स्थितिके स्त्रीवेदरूपसे संक्रामित होने पर जिससमय स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है उस समय मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है, क्योंकि अपनी उत्कृष्ट स्थितिको देखते हुए यह दो समय कम होती है। इसी प्रकार तीन समय कम इत्यादि क्रम से आबाधाकाण्डक प्रमाण कम स्थितिके प्राप्त होने तक मिथ्यात्वकी स्थितिको घटाते जाना चाहिये । तथा इसके बाद भी आबाधाकाण्डकके नीचे मिथ्यात्वकी स्थितिको एक समय कम आवलिप्रमाण और कम करना चाहिये । खुलासा इस प्रकार है-सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिको एक अन्तर्मुहूर्तकाल तक या एक आवलि कालतक बांधते हुए किसी जीवने मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति भी एक समयकम आबाधाकाण्डकप्रमाण न्यून बांधी। पुनः प्रतिभग्नकालके भीतर स्त्रीवेदका बंध करत हुए उस जीवने बन्धावलिसे रहित कषायकी उत्कृष्ट स्थितिका स्त्रीवेदरूपसे संक्रमण किया तब उस जीवके स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है। इस प्रकार प्रतिभग्नकालके एक आवलि काल तक स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति ही होती है, क्योंकि स्त्रीवेदके बन्धककालमें अन्तिम आवलिप्रमाण कषायकी उत्कृष्ट स्थितियोंका स्त्रीवेदमें संक्रमण देखा जाता है। तथा मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति प्रतिभग्नकालके पहले समयमें तो एक आबाधाकाण्डकप्रमाण कम होती है, दूसरे समयमें एक समय अधिक एक आबाधाकाण्डकप्रमाण
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गी० २२ ]
द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिविहत्तियस पिण्यासो
४६१
समओ ति । वरि तत्थ मिच्छत्तु कस्सहिदी समयूरणावलियन्भहिया वाहाकंड एण ऊणा होदि । कुदो ? बंधेण समयुणावाहाकंड एणूणमिच्छत्तस्स हिदीए पुणो व अधहिदिगलणाए आवलियमेत्तद्विदीर्ण परिहाणिदंसणादो ।
* सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं हिदिविहत्ती किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ? ९ ७६३. सुगममेदं ।
* यिमा अकस्सा |
९ ७६४. मिच्छादिद्विम्मि सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्सद्विदीए श्रभावादो | रण च इत्थवेदस्स मिच्छादिहिं मोत्तण सम्माइट्ठिम्मि उक्कस्सद्विदिविहत्ती होदि; तत्थ बंधाभावेणित्थि वेदस्स पडिहग्गत्ताभावादो कसायहिदीए वि तत्थ उक्कसत्ताभावादो । * उक्कस्सादो अणुक्कस्सा अंतोमुहुत्त एमादिं काढूण जाव एगा हिदिति ।
§ ७६५, तं जहा--मिच्छत्तु क्कस्सहिदिं बंधिय पडिहग्गो होदून सम्मतं घेत्तण तत्थ सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्सडिदिविहत्ति होतॄण सम्मत्तेणंतोमुहुत्तमच्छिय मिच्छतं गंतूण सव्वजहण्णेण कालेण संकिलेसं गंतूण सोलसकसायाणमेगसमयमावलियमेत्तकालं कम होती है और तीसरे समय में दो समय अधिक एक आबाधाकाण्डकप्रमाण कम होती है । इस प्रकार प्रतिभग्न कालकी एक आवलिके अन्तिम समय तक मिध्यात्वकी स्थिति घटाते जाना चाहिये | इतनी विशेषता है कि वहाँ पर मिथ्यात्त्रकी उत्कृष्ट स्थिति एक समय कम आवालप्रमाण कालसे अधिक एक आबाधाकाण्डक कालप्रमाण कम होती है, क्योंकि बन्धकी अपेक्षा एक समय कम आबाधाकाण्डक कालप्रमाण कम मिध्यात्वको उत्कृष्ट स्थितिमें से अधः स्थितिगलनाके द्वारा आवलिप्रमाण स्थितियोंकी हानि और देखी जाती है ।
* स्त्रीवेद की उत्कृष्ट स्थिति के समय सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थिति विभक्ति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ?
९ ७६३. यह सूत्र सुगम है ।
* नियमसे अनुत्कृष्ट होती है ।
९ ७६४. क्योंकि मिध्यादृष्टि के सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति नहीं पाई जाती है । यदि कहा जाय कि मिध्यादृष्टिको छोड़कर सम्यग्दृष्टिके स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति रही आवे सो भी बात नहीं है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि के स्त्रीवेदका बन्ध नहीं होता है, अतः वहाँ पर स्त्रीवेदका पद्मपना नहीं पाया जाता है । तथा वहाँ पर कषायकी स्थिति भी उत्कृष्ट नहीं होती है ।
* वह अनुत्कृष्ट स्थिति अपनी उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त कम से लेकर एक स्थिति तक होती है ।
९७६५. उसका खुलासा इस प्रकार है - जो जीव मिध्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधकर, और प्रतिभग्न होकर, तदनन्तर सम्यक्त्वको ग्रहण करके, उसके प्रथम समय में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट विभक्तिका धारक होकर तथा सम्यक्त्वके साथ अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर तदनन्तर मिध्यात्वमें जाकर और सबसे जघन्य कालके द्वारा संक्लेशकी पूर्ति करके सोलह कषायों
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४६२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[द्विदिनिहत्ती ३ वा उक्कस्सहिदि बंधिय पडिहग्गपढमसमए इत्थिवेदस्स उक्कस्सहिदिविहत्ती होदि । तक्काले सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमणुक्कस्सहिदी; सगुक्कस्सहिदि पेक्खिदूण अंतोमुहुत्तणत्तादो। सेसं जहा मिच्छत्तु कस्सहिदीए णिरुद्धाए सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं सण्णियासो कदो तहा इत्थिवेदुक्कस्सहिदीए णिरुद्धाए वि तासिं पयडीणं हिदीए सण्णियासो कायव्यो; विसेसाभावादो ।
ॐ णवरि चरिमुव्वेल्लणकंडयचरिमफालीए ऊणा त्ति ।
७६६. अंतोमुहुत्तूणुक्कस्सद्विदिप्पहुडि जावेगा हिदि त्ति सव्वहिदीहि सह सण्णियासे पुव्वमुत्तण संपत्ते तस्सापवादहमेदं मुत्तमागदं । चरिमुव्वेल्लणकंडयम्मि उक्कीरणद्धामेत्ताओ फालीओ होंति । एत्तियमेत्ताओ फालीओ होति त्ति कुदो णव्वदे ? चरिमुव्वेल्लणकंड यचरिमफालीए ऊणा त्ति ए दम्हादो सुत्तादो । ण च एगसमएण हिदिखंडए पदंते संते 'चरिमफालीए ऊणा' ति णिद्देसो जुज्जदे; एक्कम्मि चारिमाचरिमववहाराभावादो । होदु णाम फालीणं बहुत्तसिद्धी, ताओ उकीरणद्धामेत्ताओ त्ति कथं णव्वदे ! हिदिकंडयणिवदणकालस्स उक्कीरणद्धाववएसण्णहाणुववत्तीदो । ण च की एक समय तक या एक आवलि काल तक उत्कृष्ट स्थितिको बाँधता है उसके प्रतिभग्न होनेके प्रथम समयमें स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है। तथा उस समय सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थिति होती है। क्योंकि वह अपनी उत्कृष्ट स्थितिको देखते हुए अन्तर्मुहूत कम होती है। आगे जिस प्रकार मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिको रोक कर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी शेष स्थितियोंका सन्निकर्ष किया है उसी प्रकार स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिको रोक कर भी उन प्रकृतियोंकी स्थितियोंका सन्निकर्ष करना चाहिये, क्योंकि दानोंमें कोई विशेषता नहीं है ।
8 किन्तु इतनी विशेषता है कि वह अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्ति अन्तिम उवलना काण्डककी अन्तिम फालिसे न्यून होती है।
६ ७६६. अन्तर्मुहूर्त कम उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर एक स्थितितक अनुत्कृष्ट स्थिति विभक्ति होती है । इस प्रकार पूर्व सूत्र वचनसे सब स्थितियों के साथ सन्निकर्षके प्राप्त होने पर उसके अपवादके लिये यह सूत्र आया है । अन्तिम उद्वेलनाकाण्डकमें उत्कीरणा काल प्रमाण फालियां होती हैं।
शंका-इतनी फालियां होती हैं यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-'चरिमुव्वेल्लणकंडयचरिमफालीए ऊणा' इस सूत्र वचनसे जाना जाता है। यदि एक समयके द्वारा स्थितिकाण्डकका पतन स्वीकार किया जाय तो 'चरिमफालीए ऊणा' यह निर्देश नहीं बन सकता है, क्योंकि एकमें अन्तिम और अनन्तिम इस प्रकारका व्यवहार नहीं बन सकता है।
शंका-फालियां बहुत होती हैं यह भले ही सिद्ध हो जाओ परन्तु वे उत्कीरणकाल प्रमाण होती हैं यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-यदि फालियां उत्कीरण काल प्रमाण न मानी जायं तो स्थितिकाण्डकके पतन होनेके कालकी उत्कीरण काल यह संज्ञा नहीं बन सकती है। इससे जाना जाता है कि फालियां
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गा० २२ ] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिविहत्तियसरिणयासो ४६३ हिदिपदेसाणमुक्कीरणमकुणमाणाए अद्धाए उक्कीरणद्धा त्ति ववएसो घडदे । णाणत्थिया एसा सण्णा, आगमसबसण्णाणमत्थाणुगयाणमवलंभादो । एदं सुत्त देसामासियं ति काऊण सव्वहिदिकंडयाणि अंतोमुहुत्तण णिवदंति त्ति घेत्तव्वं । ण समुग्घादगदकेवलिद्विदिकंडएहि वियहिचारो; केवलीणमकेवलीहि साहम्माभावादो।
____ ६७६७ चरिममुव्वेलणकंडयस्स चरिमफालीए जत्तिया णिसेया तत्तियमेतद्विदीयो मोत्त ण जत्तियाओ सेसहिदीओ तत्तियमेत्ता चेव सण्णियासवियप्पा होति । चरिमफालिमत्ता किण्ण लद्धा ? ण, तत्तियमेत्तहिदीसु एगवारेण णिवदिदासु मिच्छत्तु कस्सहिदीए सह पादेवकं तहिदीणं सण्णियासाणुवलंभादो। ण तदुवरिमादिमुव्वेल्लणकंडएहि वियहिचारो, तेसि कंडयाणमवहिदायामाभावेण सव्वणिसेगाणं मिक्छत्तु कस्सहिदीए सह सण्णियासुवलंभादो। ण चरिमुव्वेल्लणकंडयम्मि जहण्णम्मि आयाम पडि अणियमो; तिकालविसयासेसजीवेसु चरिमुव्वेल्लणजहण्णकंडयायामस्स एगसरूवत्तादो। एदं कुदो णव्वदे ? एदस्स मुत्तणिद्देसस्स अण्णहाणुववत्तीदो । उत्कीरण कालप्रमाण होती हैं। तथा स्थितिगत प्रदेशोंकी उत्कीरणा नहीं करने पर कालको स्कीरणकाल यह संज्ञा दी नहीं जा सकती। यदि कहा जाय कि यह संज्ञा निष्फल है, सो भी बात नहीं है, क्योंकि आगमिक सभी संज्ञाएं अर्थका अनुसरण करनेवाली होती हैं। - यह सूत्र देशामर्षक है ऐसा समझकर सब स्थितिकाण्डकोंका पतन अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा होता है ऐसा ग्रहण करना चाहिये। यदि कहा जाय कि ऐसा मानने पर समुद्घातगत केवलीके स्थितिकाण्डकोंके साथ व्यभिचार आता है सो भी बात नहीं है, क्योंकि केवलियोंकी इतर छद्यस्थोंके साथ समानता नहीं पाई जाती है।
६७६७ अन्तिम उद्वेलनाकाण्डककी अन्तिम फालिके जितने निषेक होते हैं उतनी स्थितियोंको छोड़कर शेष जितनी स्थितियां हों उतने ही सन्निकर्ष विकल्प होते हैं ।
शंका-अन्तिम फालिप्रमाण सन्निकर्षविकल्प क्यों नहीं प्राप्त होते हैं।
समाधान-नहीं, क्योंकि उतनी स्थितियोंका एक बार में पतन हो जाता है, इसलिये मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके साथ उनमें से प्रत्येक स्थितिका सन्निकर्ष नहीं पाया है।
यदि कहा जाय कि इसप्रकार तो इसके ऊपरके उद्वेलनकाण्डकसे लेकर प्रथम उदलनकाण्डक तक सभी उद्वेलनकाण्डकोंके साथ व्यभिचार हो जायगा, सो भी बात नहीं है, क्योंकि उन काण्डकोंका अवस्थित आयाम नहीं पाया जाता, इसलिये उनके सब निषेकोंका मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके साथ सन्निकर्ष बन जाता है। यदि कहा जाय कि जघन्य अन्तिम उद्वेलनाकाण्डकमें आयामका कोई नियम नहीं है, सो भी बात नहीं है, क्योंकि त्रिकालवर्ती सब जीवोंमें जघन्य अन्तिम उद्वेलनाकाण्डकका आयाम एकसा ही होता है ।
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है १
समाधान-इस सूत्रका निर्देश अन्यथा बन नहीं सकता था, इससे जाना जाता है कि जघन्य अन्तिम उद्वेलना काण्डकका आयाम एकसा होता है।
विशेषार्थ—यहाँ प्रकरण यह है कि मिथ्यात्व आदिकी उत्कृष्ट स्थितिवाले जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? इसका जो उत्तर दिया है उसका
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४६४
जयघवलासहिदे कसायपाहुडे
[हिदिविहत्ती ३
भाव यह है कि नियमसे अनुत्कृष्ट होती है, क्योंकि मिथ्यात्व आदिकी उत्कृष्ट स्थिति मिथ्यात्व गुणस्थानमें प्राप्त होती है और उक्त दोनों कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति वेदकसम्यग्दृष्टिके पहले समयमें सम्भव है, अतः मिथ्यात्व आदिकी उत्कृष्ट स्थितिके समय सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति तो हो नहीं सकती। हाँ अनुत्कृष्ट स्थिति अवश्य सम्भव है सो भी वह अन्तर्मुहूर्त कम उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर एक स्थिति तक जानना चाहिये । किन्तु इसका एक अपवाद है। बात यह है कि सब प्रकृतियोंके प्रथमादि स्थितिकाण्डक सम और विषम दोनों प्रकारके होते हैं। इसलिये उन स्थितिकाण्डकोंमें प्राप्त स्थितिविकल्पोंके साथ नाना जीवोंकी अपेक्षा सन्निकर्ष बन जाता है। किन्त अन्तिम जघन्य स्थितिकाण्डक एक समान होता है। अतः सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व सम्बन्धी अन्तिम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिमें जितने निषेक सम्भव हैं उतने स्थितिविकल्प सन्निकर्षमें नहीं प्राप्त होते, क्योंकि उनका पतन क्रमसे न होकर एक समयमें हो जाता है । इस पर एक स्थितिकाण्डकमें प्राप्त होनेवाली फालियाँ उत्कीरणकालकी सार्थकता और समुद्घातको प्राप्त हए केवलीके स्थितिकाण्डके साथ आनेवाला व्यभिचारका निराकरण इनका विचार किया गया है। पहली और दूसरी बातका विचार करते हुए बतलाया है कि एक स्थितिकाण्डकमें एक फालि न होकर अनेक फालियाँ होती हैं। प्रमाण रूपमें 'णवरि चरिमुव्वेल्लणकंडयचरिमफालीए ऊणा' गडी सत्र उपस्थित किया गया है। इस सूत्र में फालिके साथ चरम विशेषण आया है इससे प्रतीत होता है कि एक स्थितिकाण्डकमें अनेक फालियाँ होती हैं। अन्यथा फालिको चरम विशेषण देनेकी आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि एकमें चरम और अचरम यह व्यवहार नहीं बन सकता है । तो फिर वे कितनी होती हैं। इस शंकाके होने पर बतलाया है कि स्थितिकाण्डकका जितना उत्कीरण काल होता है उतनी फालियाँ होती हैं। इसका यह तात्पर्य है कि उत्कीरण कालके एकएक समयमै एक-एक फालिकः पतन होता है। यहाँ फालि शब्द फाँक इस अर्थमें आया है। जैसे लडकीके चीरने पर उसमें अनेक फलक या स्तर निकलते हैं उसी प्रकार स्थितिकाण्डकका पतन होते समय विवक्षित स्थितिकाण्डकके अनेक स्तर या फलक हो जाते हैं। उनमेंसे एक-एक फलकका एक-एक समयमें पतन होता है। इस प्रकार इन फालियों के पतनमें कितना समय लगता है उस सब कालको उत्कीरणकाल कहते हैं । उत्कीरणका अर्थ उकीरना है और इसमें जो काल लगता है उसे उत्कीरणकाल कहते हैं। भावार्थ यह है कि एक स्थितिकाण्डकके पतनका काल अन्तमुहूर्त बतलाया है। इसलिये उत्कीरण कालका प्रमाण भी इतना ही होता है। और एक स्थितिकाण्डकमें मालियाँ भी उक्तप्रमाण ही होती हैं । परन्तु प्रत्येक फालि स्थितिकाण्डकके आयामप्रमाण होती है । और तभी उसकी फालि यह संज्ञा सार्थक है। तीसरी बातका विचार करते हुए बतलाया है कि अकेवलियोंके साथ केवलियोंकी समानता करना ठीक नहीं। मतलब यह है कि संसारी जनोंको एक-एक स्थितिकाण्डकके पतनमें अन्तर्मुहूर्त काल लगता है और समुद्घातगत केवलीको एक-एक समय ही लगता है। अब जब कि सब स्थितिकाण्डकोंका काल अन्तर्मुहूर्त मान लिया जाय तो यह बात केवलियोंके स्थितिकाण्डकमें घटित नहीं होती, इसलिये व्यभिचार दोष आता है । बस इसी शंकाका समाधान करते हुए यह बतलाया है कि केवलियोंकी छद्मस्थ जनोंके साथ समानता नहीं है। अर्थात् एक-एक स्थितिकाण्डकका काल जो अन्तर्मुहूर्त बतलाया है वह छद्मस्थ जनोंकी अपेक्षा बतलाया है समुद्घातगत केवलियोंकी अपेक्षा नहीं, इसलिये कोई दोष नहीं प्राप्त होता। समुद्घातगत केवलियोंके तो परिणामोंकी विशुद्धिके कारण एक-एक समयमें एक-एक स्थिति काण्डकका पतन हो जाता है। इस प्रकार इतने कथनका यह तात्पर्य है कि सम्यक्त्व. और सम्यग्मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिके निषकोंका एक साथ पतन होता है इसलिये उतने निषेक सन्निकर्षको नहीं प्राप्त होते।
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गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तियसरिणयासो ४६५
* सोलसकसायाणं हिदिविहत्ती किमुक्कस्सा अणुक्कसा ? $ ७६८. सुगममेदं । * णियमा अणुकस्सा।
$ ७६६. कुदो ? कसायाणमुक्कस्सहिदिबंधकाले इत्थिवेदस्स बंधाभावादो । बंधभावेण अपडिहग्गस्सित्थिवेदस्स सोलसकसायाणमुक्कस्सहिदिबंधकाले उक्कस्सहिदीए संभवाभागदो।
* उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समऊणमादिं कादूण जाव आवलियूणा त्ति ।
७७० तं जहा-पडिहग्गपढमसमए बंधावलियादिक्कंतकसायद्विदीए इत्थिवेदम्मि संकंताए इत्थिवेदस्स उक्कस्सहिदिविहत्ती होदि । तक्काले कसायहिदी सगुक्कस्सं पेक्खिदूण समयूणा; चरिमसमयम्मि बंधुक्कस्सहिदीए गलिदेगसमयत्तादो । एवं विदियसमए दुसमयूणा तदियसमए तिसमयूणा एवमावलियमेत्तसमएसु कसायुक्कस्सहिदी प्रावलियूणा होदि । इथिवेदहिदी पुण उक्कस्सा चेव, चरिमसमयम्मि बद्धकसायुक्कस्सहिदीए बंधावलियादिक्कताए इत्थिवेदस्सुवरि संकंतिदसणादो । आवलियादो उवरि कसायुक्कस्सहिदी ऊणा किण्ण कीरइ ? ण, उवरि इत्थिवेदुक्कस्स
ॐ स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिके समय सोलह कषायोंकी स्थितिविभक्ति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ?
६ ७६८. यह सूत्र सुगम है। * नियमसे अनुत्कृष्ट होती है।
७६६. क्योंकि कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिबन्धके समय स्त्रीवेदका बन्ध नहीं होता है । तथा बन्धरूपसे पतद्ग्रहपनेको नहीं प्राप्त हुए स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थिति सोलह व.पायोंकी उत्कृष्ट स्थितिके बन्धके समय संभव नहीं है।
___ * वह अनुत्कृष्ट स्थिति अपनी उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा एक समय कम से लेकर एक आवलिकम उत्कृष्ट स्थिति तक होती है ।
६७७०. इसका खुलासा इस प्रकार है-प्रतिभग्नकालके प्रथम समयमें बन्धावलिसे रहित कषायकी स्थितिके स्त्रीवेदमें संक्रान्त होने पर स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है। उस समय कषायकी स्थिति अपनी उत्कृष्ट स्थितिको देखते हुए एक समय कम होती है, क्योंकि यहां पर अन्तिम समयमें बंधी हुई कषायकी उत्कृष्ट स्थितिका एक समय गल गया है। इसी प्रकार दूसरे समयमें दो समय कम तीसरे समयमें तीन समय कम तथा इसी प्रकार आवलिप्रमाण समयोंके ब्यतीत होने पर कषायकी उत्कृष्ट स्थिति एक श्रावलिकम होती है परन्तु यहांतक स्त्रीवेदकी स्थिति उत्कृष्ट ही रहती है, क्योंकि अन्तिम समयमें बँधी हुई कषायकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धावलिके ब्यतीत होने पर स्त्रीवेदमें संक्रमण देखा जाता है।
शंका-कषायकी उत्कृष्ट स्थिति एक प्रावलि काल तक ही कम क्यों होती है इससे और
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४६६
sate असंभवादो |
गयधवलासहिदे कसायपाहुडे
* पुरिसवेदस्स द्विदिविहत्ती किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ?
६ ७७१ सुगममेदं ।
* पियमा अणुक्कस्सा |
१ ७७२. कुंदो ? इत्थवेदबंधकाले सेसवेदाणं बंधाभावादो । किमिद णत्थि बंध ! साहावियादो | ण च सहावो पडियबायणाजोग्गो, अव्ववत्थावत्तदो । ण च बंधे विणा पुरिसवेदो कसायद्विदिं पडिच्छदि, अपडिग्गहत्तादो ।
[ हिदिविही
* उक्कस्सादो अणुक्कस्सा अंतोमुहुत्त समादिं काढूण जाव अंतोकोडाकोडिति ।
$ ७७३. तं जहा —कसायाणमुक्कस्सडिदिं पडिबंधिय पडिहग्गसमए बज्झमाण पुरिसवेदस्सुवरि बंधावलियादीदकसायद्विदीए संकंताए पुरिसवेदस्सु कस्सडिदिविहत्ती होदि । पुणो सव्वज हण्णेणं तो मुहूचे गुक्कस्ससंकिलेस गंतूण कसायुक्कस्सद्विदि
अधिक कम क्यों नहीं की जाती है ।
समाधान- नहीं, क्योंकि आवलिसे अधिक कषायकी स्थिति के कम होने पर स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिका पाया जाना संभव नहीं है ।
* स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थिति के समय पुरुषवेदकी स्थितिविभक्ति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ?
९ ७७१. यह सूत्र सुगम है ।
* नियमसे अनुत्कृष्ट होती है ।
९ ७७२ क्योंकि स्त्रीवेदके बन्धके समय शेष वेदोंका बन्ध नहीं होता है ।
शंका- स्त्रीवेदके बन्धके समय शेष वेदोंका बन्ध क्यों नहीं होता है ?
समाधान - ऐसा स्वभाव ही है कि स्त्रीवेदके बन्धके समय शेष वेदोंका बन्ध नहीं होता
है और स्वभाव में शंका नहीं की जा सकती, अन्यथा अव्यवस्थाकी आपत्ति प्राप्त होती है । और बन्धके बिना पुरुषवेद कषायकी स्थितिको प्राप्त नहीं होता, क्योंकि उस समय वह अपतद्ग्रहरूप है । तात्पर्य यह है कि जब तक पुरुषवेदक । बन्ध न हो तब तक उसमें कषायकी स्थितिका संक्रमण नहीं होता |
* वह अनुत्कृष्ट स्थिति अपनी उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त कसे कर अन्तः कोड़ाकोड़ी तक होती है ।
६ ७७३. इसका खुलासा इस प्रकार है- कषायकी उत्कृष्ट स्थितिको बांध कर प्रतिभग्नकाल के पहले समय में बंधनेवाले पुरुषवेद में बन्धावलिसे रहित कषायकी स्थिति के संक्रमण होने पर पुरुषवेदक उत्कृष्ट स्थितिबिभक्ति होती है । पुनः सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर और कषायकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके प्रतिभम कालके प्रथम समय में
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गा० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिविहत्तियसरिणयासो
४६७ बंधिय पडिहग्गसमए बज्झमाणित्थिवेदम्मि बंधावलियादिक्कतकसायहिदीए संकंताए इथिवेदहिदी उक्कस्सा होदि । तक्काले पुरिसवेदहिदी सगुक्कस्सं पेक्खिदूण अंतोइत्त णाः पुरिस-णवुसयवेदजहण्णबंधगद्धाणं समूहस्स अंतोमुहुत्तत्तु वलंभादो । पुणो कसायाणं समयणक्कस्सहिदि बंधिय पडिहग्गसमए बज्झमाणपुरिसवेदम्मि बंधावलियादीदकसायुक्कस्सहिदीए संकंताए पुम्विन्लहिदि पेखिदूण पुरिसवेदहिदी संपहि समयणा होदि । पुणो अवहिदमतोमुहुत्तमच्छिय उक्कस्ससंकिलेसं गंतूण कसायाणमुक्कस्सहिदि बंधिय पडिहग्गसमए बज्झमाणित्थिवेदम्मि बंधावलियादीदकसायहिदीए संकताए इत्थिवेदस्स उक्कस्सहिदी होदि । तत्काले पुरिसवेदहिदी सगुक्कस्सहिदि पेक्खिदूण समयाहियअंतोमुहुच णा । एवं जाणिदूण श्रोदारेयव्वं जाव णिव्वियपअंतोकोडाकोडि ति ।
* हस्स-रदीणं हिदिविहत्ती किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ? ६ ७७४. सुगममेदं । * उक्कसा वा अणुक्कस्सा वा ।
$ ७७५. जदि इस्थिवेदे बज्झमाणे हस्स-रदीणं बंधो अस्थि तो इत्थिवेदुक्कस्सहिदीए वित्तिओ एदासि पि उक्कस्सहिदीए; तिण्हं पयडीणमवरि अक्कमेण संकंतीए । बँधनेवाले स्त्रीवेदमें बन्धावलिसे रहित कषायकी स्थितिके संक्रमण करने पर स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थिति होती है । इस समय पुरुषवेदकी स्थिति अपनी उत्कृष्ट स्थितिको देखते हुए अन्तर्मुहूर्तकम होती है, क्योंकि पुरुषवेद और नपुंसकवेदके जघन्य बन्धककालोंका समूह अन्तर्मुहूर्त पाया जाता है। पुनः कषायोंकी एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिको बांधकर प्रतिभन्नकालके पहले समयमें बंधनेवाले पुरुषवदमें बन्धावलिसे रहित कषायकी एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिके संक्रान्त होने पर पुरुषवेदकी पहलेकी स्थितिको देखते हुए इस समयकी स्थिति एक समय कम होती है। पुनः अवस्थित अन्तर्मुहूर्त कालतक ठहर कर और उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर तथा कषायकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके प्रतिभन्न कालके प्रथम समयमें बँधनेवाले स्त्रीवेदमें बन्धावलिसे रहित कषायकी स्थितिके संक्रान्त होने पर स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थिति होती है। तथा उस समय पुरुषवेदकी स्थिति अपनी उत्कृष्ट स्थितिको देखते हुए एक समय अधिक अन्तर्मुहूर्त कम होती है। इसी प्रकार जान कर निर्विकल्प अन्तःकोड़ाकोड़ी स्थितिके प्राप्त होनेतक पुरुषवेदकी स्थितिको घटाते जाना चाहिये।
• स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिके समय हास्य और रतिको स्थितिविभक्ति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ?
६७७४. यह सूत्र सुगम है । • उत्कृष्ट होती है और अनुत्कृष्ट होती है ।
६७७५. यदि स्त्रीवेदके बन्धके समय हास्य और रतिका बन्ध होता है तो स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाला होता हुआ इन दोनोंकी भी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाला होता है; क्योंकि बन्धावलिसे रहित कषायकी उत्कृष्ट स्थिति तीनों प्रकृतियोंमें एकसाथ संक्रान्त हुई है।
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मयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[द्विदिविहची ३ अण्णहा अणुक्कस्सा; बंधाभावेण अपडिग्गहाणं हस्स-रदीणमुवरि कसायुक्कस्सहिदीए संकमाभावादो।
* उकस्सादो अणुकस्सा समयूणमादि कादूण जाव अंतोकोडाकोडि त्ति ?
७७६. तं जहा-अंतोमुहुत्तकालमावलियमेत्तकालं वा कसायुक्कस्सहिदि बंधिय पडिहग्गसमए बज्झमाणित्थिवेद-हस्स-रदीसु बंधावलियादिक्कतकसायहिदीए संकेताए तिण्हं पि उक्कस्सहिदिविहत्ती होदि। पुणो तदणंतरउवरिमसमए हस्स-रदिबंधवोच्छेदवारण अरदि-सोगेसु बंधमागदेसु इथिवेदस्सुक्कस्सहिदीए सह हस्सरदीणमणुक्कस्सहिदी होदि; अप्पणो उक्कस्सहिदीदो अधहिदिगलणेण गलिदेगसमयत्तादो। एवं हस्स-रदिहिदीए जाव समयूणावलियमेत्तकालो गलदि तावित्थिवेदस्मुक्कस्सहिदिविहत्ती चेव । उवरि अणुक्कस्सा होदि; तत्थ बंधावलियादीदकसायुकस्सहिदिसंकंतीए अभावादो।
8 ७७७. तदो अण्णेण जीवेण एगसमयं समयूणावलियूणकसायउक्कस्सहिदि बंधिय समयूणावलियमेत्तकालमुक्कस्सहिदि बंधिय पडिहग्गसमए इत्थिवेदेण सह बज्झमाणहस्स-रदीसु आवलियादिक्कंतकसायहिदीए संकामिदाए इत्थिवेद-हस्स-रदीणं
अन्यथा अनुत्कृष्ट होती है, क्योंकि बन्ध नहीं होनेसे अपतद्ग्रहको प्राप्त हुई हास्य और रतिमें कषायकी उत्कृष्ट स्थितिका संक्रमण नहीं होता है ।
* वह अनुत्कृष्ट स्थिति अपनी उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा एक समय कमसे लेकर अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर तक होती है ।
६७७६, खुलासा इस प्रकार है-अन्तर्मुहूर्त काल तक या एक आवलि कालतक कषायकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके प्रतिभन्न कालके पहले समयमैं बंधनेवाले स्त्रीवेद. हास्य और रतिमें बन्धावलिसे रहित कषायकी स्थितिके संक्रान्त होने पर तीनों ही प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थिति होती है । पुनः तदनन्तर अगले समयमें हास्य और रतिकी बन्धव्युच्छिति होकर अरति और शोकके बन्धको प्राप्त होने पर स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिके साथ हास्य और रतिकी अनत्कृष्ट स्थिति होती है. क्योंकि तब इन प्रकृतियोंकी अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिमेंसे अधःस्थितिंगल समय गल गया है। इस प्रकार जब तक हास्य और रतिकी स्थितिमेंसे एक समय कम एक आवलि प्रमाण काल जीर्ण होता है तब तक स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति ही रहती है तथा इसके बाद स्त्रीवेदकी अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है, क्योंकि एक समय कम एक आवलिके बाद स्त्रीवेदमें बन्धावलिसे रहित कषायकी उत्कृष्ट स्थितिका संक्रमण नहीं पाया जाता है। अर्थात् तब स्त्रीवेदमें बन्धावलिसे रहित कषायकी उत्कृष्ट स्थितिसे उत्तरोत्तर कम स्थितिका संक्रमण होता है ।
६७७७. तदनन्तर किसी एक जीवने एक समय तक एक समयसे न्यून एक आवलि कम कषायकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके तदनन्तर एक समय एक आवलि प्रमाण काल तक कषाय की उत्कृष्ट स्थितिको बाँध कर प्रतिभग्नकालके पहले समयमें स्त्रीवेदके साथ बंधनेवाली हास्य और रितमें बन्धावलिसे रहित कषायकी स्थितिका संक्रमण किया तब उसके स्त्रीवेद, हास्य और रति
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गा० २२ ]
हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिविहत्तिय सरिणयासो
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हिदी सक्ससहिदि पेक्खिदूग समयूणावलियाए ऊणा होदि । विदियसमए हस्सरदिबंधवोच्छेददुवारेण अरदि-सोगेसु बंधमागदेषु इत्थिवेदस्सुक्कस्सद्विदिविद्दत्ती होदि; बंधावलियादिक्कतकसायुक्कस्सद्विदीए तत्थित्थिवेदम्मि संकंतिदंसणादो । हस्स-रदिहिदी पुण सगुक्कस्सडिदिं पेक्खिदूण आवलियूर्ण; बंधाभावादो | एवं जाव दुसम - यूणावलियमेत्तमद्धाणमुवरि गच्छदि तावित्थिवेदद्विदी उक्कस्सा चेव । हस्स - रदीर्णं पुण जाव तत्तियमाणं गच्छदि ताव संगुक्कस्स हिदी दुसमपूणा दोश्रावलियूणी होदि । बंधावलियादीदकसायुक्कसहिदीए आवलियाहि ऊणा होदि ।
$ ७७८, तदो अण्णो जीवो दुसमयूणदोआवलियाहि ऊणियं कसायुकस - हिदिं बंधिय पुरणो समयूणावलियमेत्तकालमुकस्सडिदिं वंधिय पडिहग्गसमए इत्थिवेदहस्स-रदीसु बज्झमाणियासु बंधावलियादीदकसायहिदिं संकामिय तिन्हं पि अणुकरसद्विदिविहत्ति जादो । तदो उवरिमसमय पहुडि हस्स-रदिबंधवोच्छेददुवारेण इत्थवेदेण सह अरदि-सोगे बंधाविय पुव्वं व ओदारेदव्वं । एवं पुणो पुणो एदेा विहाणेण श्रदारेण दव्वं जाव अंतोकोडाकोडि त्ति । णवरि जं जं हिदिं णिरु भिदुमिच्छदि तत्तो आवलियन्भहियमेगसमयं बंधाविय पुणो समयूणावलियमेत्तकालं कसायाणमुक्कस्सद्विदं बंधि पहिग्गसमए बज्झमाणित्थिवेद-हस्स - रदीसु पुव्वणिरुद्धहिदीए आवलि - की स्थिति अपनी उत्कृष्ट स्थितिको देखते हुए एक समयसे न्यून एक आवलिकाल प्रमाण कम होती है। तथा दूसरे समय में हास्य और रतिकी बन्ध व्युच्छित्तिके द्वारा अरति और शोकके बन्धको प्राप्त होने पर स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थिति विभक्ति है; क्योंकि बन्धावलिसे रहित कषाय की उत्कृष्ट स्थितिका बहाँ स्त्रीवेदमें संक्रमण देखा जाता है । पर हास्य और रति की स्थिति अपनी उत्कृष्ट स्थितिको देखते हुए एक आबलि कम होती है, क्योंकि उस समय उनका बंध नहीं है । इस प्रकार जब तक दो समय कम आवलिप्रमाण काल आगे जाते हैं तब तक स्त्रीवेदकी स्थिति उत्कृष्ष्ट ही होती है । पर हास्य और रतिका उतना काल आगे जाने तक उनकी उत्कृष्ट स्थिति दो समय से न्यून दो श्रावलि कम होती है ।
§ ७७८. पुनः अन्य जीवने एक समय तक दो समय कम दो आवलियोंसे न्यून कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके पुनः एक समय कम एक आवलि काल तक उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके प्रतिभग्न कालके पहले समय में बंधनेवाले स्त्रीवेद, हास्य और रतिमें बन्धावलिसे रहित कषायकी स्थितिका संक्रमण किया तब वह तीनों ही प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्टस्थितिविभक्तिका धारक हुआ। तदनन्तर इसके आगे समयसे लेकर हास्य और रतिकी बन्धव्युच्छित्तिद्वारा स्त्रीवेदके साथ रति और शोकका बन्ध कराके पहले के समान हास्य और रतिकी स्थितिको घटाते जाना चाहिये । इस प्रकार पुनः पुनः इस विधिसे अन्तः कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थितिके प्राप्त होने तक हास्य और रतिकी स्थितिको घटाते हुए लेजाना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि जिस जिस स्थितिको रोकना चाहो उससे एक आवलि अधिक कषायकी स्थितिका एक समय तक बन्ध कराके पुनः एक समय कम एक आवलि काल तक कषायकी उत्कृष्ट स्थितिका बंन्ध कराके प्रतिभग्न काल के पहले समय में बंधनेवाले स्त्रीवेद, हास्य और रतिमें पहले रुकी हुई स्थितिके एक आवलिके १. श्री. प्रतौ -'श्रावलियूणा' इति स्थाने 'विहत्तिश्रो' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ द्विदिहिती ३
यादीदा संकंताए तिन्हं अणुक्कस्सहिदिविहत्ती होदि । तदो उवरिमसमए हस्स - रदिबंधे फिट्ट अरदि-सोग्गित्थवेदाणमुक्कस्स द्विदिविहत्ती होदि । तत्काले हस्स - रदीणं पुन्नरुिद्धहिदी समयूणा होदि ।
* अरदि-सोगाणं द्विदिविहत्ती किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ? १७७६ सुगममेदं ।
* उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा ।
९ ७८०. इत्थवेदे बज्झमाणे जदि अरदि-सोगा बंज्झति तो इत्थिवेदुक्कस्सहिदी सह अरदि - सोगाणं पि उक्कस्सट्ठिदिविहत्ती होदि; बंधावलियादीदकसायु कस्सहिदी कमेण तिन्हमुवरि संकंतीए । अण्णा अणुक्कस्सा; पडिहग्गावलियाए अरदिसोगाणं बंधाभावेण ण पहिग्गभावाणं कसायुक्कसहिदीए श्रागमाभावादो ।
* उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समयूणमादिं काढूण जाव वीससागरो - वमकोडाकोडीओ पलिदोवमस्स असंखेज्ज दिभागेणूणाओ त्ति ।
$ ७८१, एदासि पयडीणं समयूणुक्कस्सडिदियादिविदीर्ण सण्णासो बुच्चदे | तं जहा - श्रावलियमेत्तकालं कसायाणमुकस्सद्विदिं बंधिय पडिहग्गसमए बज्झमा - णित्थिवेद-अरदि-सोगेसु बंधावलियादिक्कत कसायद्विदीए संकंताए तिन्हं पि उक्कस्स
बाद संक्रान्त होने पर तीनोंकी अनुत्कृष्ट स्थिति विभक्ति होती है तदनन्तर इसके आगे के समयमें हास्य और रतिकी बन्धव्युच्छिन्ति हो जानेपर अरति, शोक और स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है । तथा उस समय हास्य और रतिकी पहले रुकी हुई स्थिति एक समय कम होती है !
* स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थिति के समय अरति और शोककी स्थितिविभक्ति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ?
$ ७७६. यह सूत्र सुगम है ।
* उत्कृष्ट होती है और अनुत्कष्ट होती है ।
$ ७८०. स्त्रीवेदके बन्धके समय यदि अरति और शोकका बन्ध होता है तो स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थिति के साथ अरति और शोककी भी उत्कृष्ट स्थिति विभक्ति होती है, क्योंकि बन्धावलि सेहत का उत्कृष्ट स्थितिका एक साथ तीनों में संक्रमण हुआ है । अन्यथा अरति और शोक की स्थिति अनुत्कृष्ट होती है, क्योंकि प्रतिभग्न कालकी एक आवलिके भीतर बन्ध नहीं होने से पतद्ग्रहपने से रहित अरति और शोक में कषायकी उत्कृष्ट स्थितिका संक्रमण नहीं होता ।
वह अनुत्कृष्ट स्थिति अपनी उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा एक समय कमसे लेकर पल्य का असंख्यातवाँ भाग कम बीस कोड़ाकोड़ी सागर तक होती है ।
९ ७८१. अब इन प्रकृतियोंकी एक समय कम उत्कृष्ट स्थिति से लेकर शेष स्थितियोंका सन्निकर्ष कहते हैं । जो इस प्रकार है- एक आवलिकाल तक कषायकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके प्रतिभग्न काल के प्रथम समय में बंधनेवाली स्त्रीवेद, अरति और शोक प्रकृतियों में बंधावलि से रहित कषायकी स्थिति के संक्रान्त होनेपर तीनोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है । तदनन्तर
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गा० २२ ]
हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिट्ठिदिविहत्तियस पिण्यासो
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वित्ती होदि । तदो उवरिमसमए अरदि- सोगबंध वोच्छेददुवारेण हस्स - रदीसु बंधमागयासु अरदि-सोगुक्कसहिदी समयूणा होदि; पडिग्गहत्ताभावेण तत्थ कसायहिदी संकमाभावाद । एवमुवरि वि वत्तव्वं जाव समयूणावलियाए ऊणमुक्कस्सहिदी जादा ति । सुवरिमपरूवणा जहा हस्स~रदीणमित्थिवेदुक्कस्सट्ठिदिसंबंधाणं कदा तहा कायव्वा वरि एत्थ समयूणा बाहा कंड एणूणवीस सागरोवमकोडाकोडीओ कसायुंक्कस्सडिदिबंधेण सह अरदि-सोगे बंधाविय पडिहग्गसमए अरदि-सोगबंधवोच्छेदं काढूण श्रावलियमेतद्विदीओ गालिय अंतिमवियप्पो वत्तव्वो । कुदो ? कसायुक्कसहिदीए बज्झमाणाए णवु सयवेद- अरदि-सोग-भय-दुगु छाणं णियमेण तत्थ बंधे संते सगुक्कसहिदीदो समयूणाबाहाकंडएणूणस्सेव द्विदिबंधस्वभादो ।
* एवं एवं सयवेदस्स ।
१७८२. जहा अरदि-सोगाणं इत्थवेदुक्कस्स द्विदिपडिबद्धाणं परूवणा कदा तहा 'सयवेदस्स व परूवणा कायव्वाः समयूणमादिं काढूण जाव वीसंसागरोवमकोडाकोडी पलिदो ० असंखे० भागेण ऊणाओ त्ति एदेहि सष्णियासवियहि अवसादो | एत्थतणविसेसपदुष्पायणद्वमुत्तरमुत्तं भणदि
* वरि पियमा अणुक्कस्सा |
आगे के समय में अरति और शोककी बन्धुच्छिति होकर हास्य और रतिके बन्धको प्राप्त होनेपर अरति और शोककी उत्कृष्ट स्थिति एक समय कम होती है, क्योंकि उस समय पतद्ग्रहपना नहीं रहने से उनमें कषायकी स्थितिका संक्रमण नहीं होता है । इसी प्रकार आगे भी एक समय कम एक वलिसे न्यून उत्कृष्ट स्थितिके प्राप्त होने तक इसी प्रकार कथन करना चाहिये । शेष मागेकी प्ररूपणा, जिस प्रकार स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थिति से सम्बन्ध रखनेवाली हास्य और रतिकी की है उस प्रकार करनी चाहिये । किन्तु यहां पर कषायकी उत्कृष्ट स्थिति के बन्धके साथ रति और शोकका एक समय कम आबाधाकाण्डकसे न्यून बीस कोड़ाकोड़ी सागर स्थितिप्रमाण बन्ध कराके तथा प्रतिभग्न कालके प्रथम समय में अरति और शोककी बन्धव्युच्छित्ति कराके और एक आवलि प्रमाण स्थितियों को गलाकर अन्तिम विकल्प कहना चाहिये, क्योंकि कषायकी उत्कृष्ट स्थितिके बम्ध के समय नपुंसक वेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका नियम से बन्ध होता है पर वह स्थितिबन्ध अपनी उत्कृष्ट स्थिति से एक समय कम आबाधाकाण्डकसे न्यून तक ही होता है ।
* इसी प्रकार नपुंसकवेदकी प्ररूपणा करनी चाहिए ।
६७८२. जिस प्रकार स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिके साथ अरति और शोककी प्ररूपणा की है उसी प्रकार नपुंसक वेदकी भी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि एक समय कम उत्कृष्ट स्थिति से लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भाग कम बीस कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण स्थिति तक होने वाले सन्निकर्ष के भेदोंकी अपेक्षा रति और शोकके कथनसे नपुंसकवेदके कथनमें कोई भेद नहीं है । अब इस विषय में विशेषता बतलाने के लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थिति के समय नपुंसक वेदकी स्थिति नियमसे अनुत्कृष्ट होती है ।
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४७२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[द्विदिविहत्ती ३ ७८३. कुदो ? इत्थिवेदेण सह णवुसयवेदस्स बंधाभावादो। तेण पडिहग्गपढमसमए बज्झमाणित्थिवेदम्मि बंधावलियादीदकसायुक्कस्सहिदीए संकंताए इत्थिवेदस्स उकस्सहिदी होदि णवु सयवेदस्स पुण णियमेण समयणुक्कस्सहिदी । एत्तो उवरि जाव प्रावलियमेत्तद्धाणं गच्छदि तावित्थिवेदो उक्कस्सो चेव । णवरि णवुसयवेदुकस्सहिदी आवलियूणा होदि । एवमुवरि अरदि-सोगोयरणविहाणं बुद्धीए काऊण ओदारेयव्वं ।
9 भय दुगुछाणं हिदिविहत्ती किमुक्कस्सा अणुकस्सा ? ६७८४. सुगमं ।
णियमा उक्कस्सा।
$ ७८५. जम्मि काले इथिवेदो बज्झदि तम्मि काले भय-दुगुछाणं बंधो णियमा अत्थि; धुवबंधित्तादो । तेणित्थिवेदस्स उक्कस्सहिदीए संतीए भय-दुगुंठाओ हिदि पडुच्च णियमा उक्कस्साओ त्ति भणिदं ।
® जहा इत्थिवेदेण तहा सेसेहि कम्मेहि।
$ ७८६. जहा इत्थिवेदुक्कस्सहिदीए णिरुद्धाए सेसकम्मेहि सण्णियासो कदो तहा हस्स-रदि-पुरिसवेदाणमुक्कस्सहिदिणिरु'भणं कादण सण्णियासो वत्तव्यो
६७८३. क्योंकि स्त्रीवेदके साथ नपुंसकवेदका वन्ध नहीं होता है । अतः प्रतिभग्न कालके प्रथम समयमें बंधनेवाले स्त्रीवेदमें बन्धावलिसे रहित कयायकी उत्कृष्ट स्थितिके संक्रान्त होने पर स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थिति होती है परन्तु उस समय नपुंसकवेदकी नियमसे एक समय कम उत्कृष्ट स्थिति होती है । इसके आगे एक श्रावलिकाल व्यतीत होने तक स्त्रीवेद उत्कृष्ट ही रहता है परन्तु नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट स्थिति उस समय एक वलि कम होती है। इसी प्रकार आगे अरति और शोककी स्थितिके घटानेकी विधिको बुद्धिसे विचार कर उसी प्रकार नपुंसकवेदकी स्थितिको घटाना चाहिये।
___* स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिके समय भय और जुगुप्साकी स्थितिविभक्ति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ?
६७८४. यह सूत्र सुगम है । * नियमसे उत्कृष्ट होती है।
६७८५. जिस काल में स्त्रीवेदका बन्ध होता है उस कालमें भय और जुगुप्साका बन्ध नियमसे होता है, क्योंकि ये दोनों प्रकृतियां ध्रुवबन्धिनी हैं। अतः स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थिति के होने पर भय और जुगुप्साकी स्थिति नियमसे उत्कृष्ट होती है । यह इस सूत्रका तात्पर्य है।
* जिस प्रकार स्त्रीवेदके साथ सन्निकर्षके विकल्प कहे हैं उसी प्रकार शेष कर्मोंके साथ जानने चाहिये ।
६७८६. जिस प्रकार स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिके सद्भावमें शेष कर्मों के साथ सन्निकर्ष कहा है उसी प्रकार हास्य, रति और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिका सद्भाव करके सन्निकर्ष कहना
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४७३
wwwINirnwwwvirwww.
wwwwwwwwwwww
गा० २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिडिदिविहत्तियसरिणयासो विसेसाभावादो।
ॐ गवरि विसेसो जाणिदव्यो ।
६ ७८७. तत्थ पुरिसवेदणिरु भणं काऊण भण्णमाणे णत्थि विसेसो; सव्वकम्मेहि सह सण्णिकासिज्जमाणे इथिवेदसण्णिकासेण समाणत्तादो। हस्स-रदिणिरु भणं काऊण भण्णमाणे मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-सोलसकसाय-भय-दुगुंडाणं सण्णियासेसु णत्थि विसेसोः इथिवेदकस्सहिदिसण्णियासेण समाणत्तादो। इत्थि-पुरिसाणं सण्णियासे अस्थि विसेसो, तं वत्तइस्सासो । तं जहा-हस्स-रदीणमुक्कस्सहिदीए संतीए इत्थि-पुरिसवेदाणं हिंदी सिया उक्कस्सा; कसायाणमुक्कस्सहिदीए पडिच्छिदाए चदुहं पि कम्माणमुक्कस्सहिदिदसणादो। सिया अणुक्कस्सा; पडिहग्गसमए हस्स-रदीसु बज्झमाणियासु इत्थि-पुरिसवेदाणं बंधाभावे संते उक्कस्सहिदीए अभावादो। जदि अणुक्कस्सा तो अंतोमुहुतूणमादि कादण जाव अंतोकोडाकोडि त्ति । कुदो समअणुक्कस्सद्विदिआदिवियप्पो ण लब्भदे ? हस्स-रदीणं व इत्थि-पुरिसवेदाणमेगसमएण पयडिबंधस्स वोच्छेदाभावादो।
६७८८. एदस्स णयणिरुद्धाए कमो वुच्चदे । तं जहा–कसायाणमुक्कस्सहिदि चाहिये, क्योंकि इनके कथनमें कोई विशेषता नहीं है।
* किन्तु कुछ विशेष जानना चाहिये ।
६७८७. उनमें से पुरुषवेदको रोककर कथन करने पर कोई विशेषता नहीं है, क्योंकि सब कर्मों के साथ पुरुषवेदका सन्निकर्प करने पर स्त्रीवेदके सन्निकर्षके समान है। हास्य और रतिको रोक कर कथन करने पर मिथ्यात्व. सम्यक्त्व. सम्यग्मिथ्यात्व. सोलह कषाय, भय और जुगुप्साके सन्निकषों में कोई विशेषता नहीं है, क्योंकि हास्य और रतिकी उत्कृष्ट स्थितिके साथ उक्त प्रकृतियोंकी स्थितिका होनेवाला सन्निकर्ष स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिके साथ होनेवाले सन्निकर्षके समान है । पर स्त्रीवेद और पुरुषवेदके सन्निकर्षमें कुछ विशेषता है । आगे उसीको बताते हैं। जो इस प्रकार है-हास्य और रतिकी उत्कृष्ट स्थितिके रहते हए स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थिति कदाचित् उत्कृष्ट होती है, क्योंकि कषायकी उत्कृष्ट स्थितिके इनमें संक्रमित हो जाने पर चारों ही कोंकी उत्कृष्ट स्थिति देखी जाती है। कदाचित् अनुत्कृष्ट होती है, क्योंकि प्रतिभा कालके प्रथम समयमें हास्य और रतिके बन्धके समय स्त्रीवेद और पुरुषवेदका बन्ध नहीं होने पर उनकी उत्कृष्ट स्थिति नहीं होती है । यदि हास्य और रतिकी उत्कृष्ट स्थितिके समय स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी अनुत्कृष्ट स्थिति होती है तो वह अन्तर्मुहूर्त कम उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर अन्तः कोड़ाकोड़ी तक होती है।
शंका-एक समय कम उत्कृष्ट स्थिति आदि विकल्प क्यों नहीं प्राप्त होता है ?
समाधान-क्योंकि जिस प्रकार हास्य और रतिका एक समयतक बन्ध होकर अनन्तर उसकी ब्युच्छित्ति हो जाती है, उस प्रकार स्त्रीवेद और पुरुषवेदका एक समयतक बन्ध होकर उसकी ब्युच्छित्ति नहीं होती।
६७८८. अब नयकी अपेक्षा इसके क्रमका कथन करते हैं, जो इस प्रकार है-कषायोंकी
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४७४ -- जयघवलासहिदे कसायपाहुडे
[द्विदिविहत्ती ३ बंधिय पडिहग्गसमए बज्झमाणित्थि-पुरिसवेदेसु बंधावलियादिक्कतकसायुक्कस्सहिदीए संकताए इत्थि-पुरिसवेदाणमुक्कस्सहिदि कादूण पुणो अंतोमुहुत्तं णवुसयवेद-अरदिसोगेहि सह कसायुक्कस्सहिदि बंधिय पडिहग्गसमए अरदि-सोगपयडिबंधवोच्छेददुवारेण बज्झमाणहस्स-रदीसु बंधावलियादिक्कतकसायहिदीए संकंताए हस्स-रदीणमुक्कस्सहिदिविहत्ती होदि । तत्काले इत्थि-पुरिसवेदहिदी सगुक्कस्सहिदि पेक्खिदूण अंतोमुहुत्तूणा । संपहि एदमंतोमुहुत्तूणमादि कादूण णेदव्वं जाव धुवहिदि त्ति एसो विसेसो त्ति ।
___७८६. के वि आइरिया भणंति-एदासु वि पयडीसु णत्थि विसेसो; हस्सरदीणं व एगसमएण पयडिबंधबोच्छेदसंभवादो । इथि पुरिसवेदाणमेगसमएण बंधवोच्छेदो होदि त्ति कुदो णव्वदो ? महाबंधसुत्तादो हस्स-रदीणमुक्कस्सहिदिणिरु भणं काऊणित्थि-पुरिसवेदाणं समयूणादिसण्णियासवियप्पपरूवयउच्चारणादो च णव्वदे । 'णवरि विसेसो जाणियव्वो' ति चुण्णिसुत्तणिद्देसण्णहाणुववत्तीदो इत्थिपरिसवेदाणमेगसमएण बंधवोच्छेदो ण होदि ति ण वोतं जुत्त; एदस्स णिद्देसस्स णवुसयवेद-अरदि-सोगाणं सण्णियासेसु उववत्तिदंसणादो । तं जहा-इत्थिवेदे उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके प्रतिभन्न कालके प्रथम समयमें बँधनेवाले स्त्रीवेद और पुरुषवेदमें बन्धावलिसे रहित कषायकी उत्कृष्ट स्थिति के संक्रान्त होने पर स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है । पुनः अन्तर्मुहूर्त काल तक नपुंसकवेद, अरंति और शोकके साथ कषायकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके प्रतिभग्नकालके प्रथम समयमें अरति और शोक इन दो प्रकृतियोंका बन्ध ब्युच्छित्तिद्वारा बंधनेवाली हास्य और रतिमें बन्धावलिसे रहित कषायकी स्थितिके संक्रान्त होने पर हास्य और रतिकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है। तथा उस समय स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी स्थिति अपनी उत्कृष्ट स्थितिको देखते हुए अन्तर्मुहूर्त कम होती है। अब इस अन्तमुहूत कम उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर ध्रुवस्थिति प्राप्त होने तक स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी स्थिति घटाते जाना चाहिये। यही यहाँ विशेषता है।
७८६. कुछ आचार्य कहते हैं कि इन प्रकृतियोंमें भी कोई विशेषता नहीं है, क्योंकि हास्य और रतिके समान इन प्रकृतियोंका भी एक समय तक बन्ध होकर अनन्तर उनकी व्युच्छित्ति संभव है।
शंका-स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी एक समयके द्वारा बन्धव्युच्छित्ति होती है यह किस प्रेमाण से जाना जाता है ? . समाधान-महाबन्धसूत्र से। तथा हास्य और रति की उत्कृष्ट स्थितिको रोककर स्त्रीवेद और पुरुषवेद की एक समय कम उत्कृष्ट स्थिति आदि सन्निकर्ष विकल्पों का कथन करनेवाली उच्चारणासे जाना जाता है। __ शंका-'णवरि विसेसो जाणियव्वो' इस प्रकार चूर्णिसूत्रका निर्देश अन्यथा बन नहीं सकता, इसलिये स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी एक समयके द्वारा बन्धव्युच्छित्ति नहीं होती।
समाधान-ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि इस निर्देशकी सार्थकता नपुंसकवेदन, रति
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गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तियसरिणयासो ४७५ णिरुद्ध णवुसयवेदो णियमा अणुक्कस्सा; इत्थिवेदबंधकाले णवुसयवेदस्स बंधाभावादो। हस्स-रदीणं पुण उक्कस्सहिदीए णिरुद्धाए णवुसंयवेदहिदी सिया उक्कस्सा; हस्सरदिबंधकाले वि णqसयवेदस्स बंधुवलंभादो। सिया अणुक्कस्सा; कयाइ तत्थबंधाभावेण तस्स समयणादिवियप्पवलद्धीदो। इत्थिवेद उक्कस्सहिदीएण अरदि-सोगाणं सिया उक्कस्सा; इत्थिवेदेण सह एदेसिं बंधं पडि विरोहाभावादो। सिया अणुक्कस्सा; पडिहग्गसमए हस्स-रदीसु बंधमागदामु अरदि-सोगाणं समयणमादिं कादण जाव पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागब्भहियबीसंसागरोवमकोडाकोडिमेत्तवियप्पवलंभादो है। हस्स-रदीणमुक्कस्सहिदीए णिरुद्धाए पुण अरदि-सोगहिदी णियमा अणुक्कस्सा; पडिहग्गसमए हस्स-रदीसु बज्झमाणियासु तप्पडिवश्वाणमरदि-सोगाणं बंधाभावादो । तदो इत्थि-पुरिसवेदेसु णत्थि विसेसो त्ति सिद्धं । ___ ७६०. सुत्ताहिप्पारण पुण इत्थि-पुरिसवेदेसु वि विसेसो अत्थि चेव, हस्सरदीणं व इत्थि-पुरिसवेदाणमेगसमएण बंधुवरमाणभुवगमादो । तदो इत्थिवेदे णिरुद्ध हस्स-रदीणं समयणादिवियप्पा होति । हस्स-रदीसु पुण णिरुद्धासु इत्थि-पुरिसवेदाणमंतोमुहुत्त णादिवियप्पा त्ति ।
और शोक प्रकृतियोंक सन्निकर्षों में बतलाई गई है। खुलासा इस प्रकार है-स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिके रहन पर नपुंसकवेदकी स्थिति नियमसे अनुत्कृष्ट होती है, क्योंकि स्त्रीवेदके बन्धके समय नपुंसकवेदका बन्ध नहीं हाता। परन्तु हास्य और रतिकी उत्कृष्ट स्थितिके रहने पर नपुंसकवदको स्थिति कदाचित् उत्कृष्ट होती है, क्योंकि हास्य और रतिके बन्धके समय भो नपुसकवदका बन्ध पाया जाता है। कदाचित् अनुत्कृष्ट होती हैं, क्योकि कदाचित् हास्य और रातका वहा बन्ध नहीं होनसे नपुसकवदकी उत्कृष्ट स्थितिम एक समय कम आदि विकल्प पाये जात ह। स्त्रावदका उत्कृष्ट स्थातक साथ अरात और शाककी स्थिति कदाचित् उत्कृष्ट हाती है, क्याक स्त्रावदक बन्धक साथ इनका बन्ध हानमें काइ विराध नहीं आता है। कदाचित् अनुत्कृष्ट हाता ह, क्याक प्रातभग्नकालक प्रथम समयम हास्य और रतिक बन्धका प्राप्त हान पर अरात आर शाकका एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिस लकर पल्यका असंख्यातवां भाग धिक बास काड़ाकाड़ा सागर तक स्थितिविकल्प देख जात है। परन्तु हास्य और रातकी उत्कृष्ट स्थितिके रहन पर अरात और शाकको [स्थात नियमस अनुत्कृष्ट हाता ह, क्योंकि प्रतिभग्न कालक प्रथम समयम हास्य और रातक बन्धका प्राप्त हान पर उनका प्रातपक्षभूत अरति ओर शाक प्रकृतियाका बन्ध नह। दाता ह, इसालय स्त्रावद आर पुरुषवदक विषयम काइ विशषता नहा ह यह । सिद्ध हुआ।
६७६०. परन्तु उक्त सूत्रके अभिप्रायानुसार स्त्रीवेद और पुरुषवेदके विषयमें भी विशेषता है ही, क्योंकि उक्त सूत्रमें हास्य और रतिके समान स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी एक समयक द्वारा बन्ध व्युच्छित्ति नहीं स्वीकार की है, अतः स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थिति के रहने पर हास्य और रतिके एक समय कम उत्कृष्ट स्थिति आदि विकल्प होते हैं। परन्तु हास्य और रातकी उत्कृष्ट स्थितिक रहने पर स्त्रीवेद और पुरुषवेदके अन्तर्मुहूर्त कम उत्कृष्ट स्थिति आदि विफल होते हैं।
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४७६
गयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ हिदिविहत्ती ३ ® णवुसयवेदस्स उक्कस्सहिदिविहत्तियस्स मिच्छत्तस्स हिदिविहत्ती किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ?
$ ७९१. सुगमं । * उकस्सा वा अणुकस्सा वा ।
$ ७६२ णवंसयवेदहिदीए उकस्साए संतीए जदि मिच्छत्तस्स उक्कस्सहिदी पबद्धा होज तो मिच्छत्तस्स उक्कस्सहिदिविहत्ती होदि अण्णहा अणुक्कस्सा; उक्कस्सादो हेडिमहिदीदो बंधतस्स उक्कस्सत्ताभावादो ।
8 उकस्सादों अणुक्कस्सा समयूणमादि कादूण जाव पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेण ऊणा त्ति ।
$ ७६३. पलिदो० असंखे० भागो किंपमाणो ? एगावलियब्भहियसमयूणाबाहाकंडयमेत्तो। अहिो किण्ण होदि ? ण, कसाएसु उक्कस्सहिदिबंधे संते मिच्छत्तस्स समऊणाबाहाकंडएणूणउकस्सहिदिमेत्तजहण्णहिदिबंधस्स तत्थुवलंभादो। एगावलियाए अहियत्तं कथमुवलब्भदे ? ण, पडिहग्गकाले वि णवुसयवेदस्स आवलियमेत्तकालमुक्कस्सहिदिसंभवादो । सेसं सुगमं; बहुसो परूविदत्तादो।
* नपुसकवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके धारक जीवके मिथ्यात्वकी स्थितिविभक्ति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ?
७६१. यह सूत्र सुगम है। * उत्कृष्ट होती है और अनत्कृष्ट भी ।
६ ७६२. नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट स्थितिक रहते हुए यदि मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध होता है तो मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है, अन्यथा अनुत्कृष्ट स्थिति होती है, क्योंकि उत्कृष्टसे कमकी स्थितिका बन्ध करनेवालेके उत्कृष्ट स्थिति नहीं हो सकती।
* वह अनुत्कृष्ट स्थिति अपनी उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा एक समय कमसे लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भाग कम तक होती है।
६७६३ शंका-यहांपर पल्योपमके असंख्यातवें भागका कितना प्रमाण लिया है ?
समाधान-एक समय कम आबाधाकाण्डको एक आवलि कालके जोड़ देने पर जितना प्रमाण हो तत्प्रमाण यहां पल्यका असंख्यातवाँ भाग काल लिया है।
शंका-इससे अधिक क्यों नहीं होता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि कषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति के बन्ध होते समय मिथ्यात्वका कमसे कम स्थितिबन्ध एक समय न्यून आबाधाकाण्डकसे कम उत्कृष्ट स्थिति मात्र ही होता है, इससे कम नहीं।
शंका-पल्यके असंख्यातवें भागको जो एक श्रावलि अधिक और एक समय कम आवाधा काण्डक प्रेमाण बतलाया है तो यहां एक आवलि काल अधिक कैसे सम्भव है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि प्रतिभन्न कालके भीतर भी नपुंसकवेदकी एक आवलि काल तक उत्कृष्ट स्थिति संभव है।
सूत्रका शेष व्याख्यान सुगम है, क्योंकि उसका अनेकबार कथन कर आये हैं।
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गा० २२ ] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिविदिविहत्तियसरिणयासो
® सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं हिदिविहत्ती किमुक्कस्सा अणुकस्सा ? ६७६४. सुगम० ।
णियमा अणुकस्सा।
७६५. णवुसयवेदुक्कस्सहिदिविहत्तियम्मि मिच्छाइडिम्मि सम्मत्त-सम्मामिच्छताणमुक्कस्सहिदीए अभावादो । ण च सम्माइटिपढमसमए पडिबद्धाए सम्मत्त-सम्मामिच्छत्नुकस्सहिदीए अण्णत्यत्थि संभवो; विरोहादो।
* उकस्सादो अणुकस्सा अंतोमुहुत्त णमादि कादूण जाव एगा हिदि त्ति । पवरि चरिमुव्वेल्लणकंडयचरिमफालीए ऊणा । . ७६६. एदेसि दोण्हं सुत्ताणमत्थे भण्णमाणे जहा मिच्छत्तुक्कस्सद्विदिणिरु भणं काऊण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तदोसुत्ताणं परूवणा कदा तहा एत्थ वि कायव्वा; विसेसाभावादो।
सोलसकसायाणं हिदिविहत्ती किमुक्कस्सा अणुकस्सा ? $ ७६७. सुगमं । * उकस्सा वा अणुकस्सा वा ।
* नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट स्थितिके समय सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थितिविभक्ति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ?
६७६४. यह सूत्र सुगम है।
* नियमसे अनुत्कृष्ट होती है। . ७६५. नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके धारक मिथ्यादृष्टि जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति नहीं पाई जाती है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति सम्यग्दृष्टिके प्रथम समयमें होती है, अतः उसका अन्यत्र पाया जाना संभव नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर विरोध आता है।
* वह अनुत्कृष्ट स्थिति अन्तम हूते कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर एक । स्थिति तक होती है । किन्तु इतनी विशेषता है कि इसमें से अन्तिम उद्वेलनाकाण्डककी अन्तिम फालिप्रमाण स्थितिको कम कर देना चाहिए ।
७६६. इन दोनों सूत्रोंका अर्थ कहनेपर जिस प्रकार मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिके रहते हुये सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वसम्बन्धी दो सूत्रोंका कथन किया है उसी प्रकार यहां भी करना चाहिये, क्योंकि दोनोंके कथनोंमें कोई विशेषता नहीं है।
नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट स्थितिके समय सोलह कषायोंकी स्थितिविभक्ति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ?
६७६७. यह सूत्र सुगम है। • उत्कृष्ट होती है और अनुत्कृष्ट भी ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[द्विदिविहत्ती ३ ७६८. जदि णqसयवेदस्स उक्कस्सहिदीए संतीए अप्पिदकसायाणमुक्कस्सहिदिबंधो होज तो उक्कसा, अण्णहा अणुक्कस्सा; समयूणादिहिदीसु बद्धासु उक्कस्सत्तविरोहादो।
* उकस्सादो अणुकस्सा समयूणमादिकादूण जाव आवलिऊणा त्ति ।
७६६. तं जहा–कसायाणमुक्कस्सहिदिमावलियमेत्तकालं बंधिय पडिहग्गसमए बज्झमाणणqसयवेदम्मि बंधावलियादिक्कतकसायहिदीए संकंताए णवंसयवेदहिदी उक्कस्सा होदि तस्समए कसायहिदी समयूणा होदि; उक्कस्सहिदीदो अघहिदिगलणाए गलिदेगसमयत्तादो। एवं दुसमयणादिकमेण णेदव्वं जाव आवलियमेत्तकालो कसायहिदीए गलिदो त्ति । अहिओ किण्ण गालिज्जदे ? ण, उवरि णवंसयवेदुक्कस्सहिदीए असंभवादो।
ॐ इत्थि-पुरिसवेदाणं हिदिविहत्ती किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ? $ ८००. मुगमं ।
8 णियमा अणुक्कस्सा । $८०१. णवंसयवेदबंधकाले णियमेणित्थि-पुरिसवेदाणं बंधाभावादो। किं
७६८. यदि नपुसकवेदकी उत्कृष्ट स्थितिके रहते हुए विवक्षित कषायका उत्कृष्ट स्थिति बन्ध होवे तो उत्कृष्ट स्थिति होती है, अन्यथा अनुत्कृष्ट स्थिति होती है, क्योंकि एक समय कम आदि स्थितियोंके बँधने पर उन्हें उत्कृष्ट माननेमें विरोध आता है।
* वह अनुत्कृष्ट स्थिति एक समय कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर आवली कम उत्कृष्ट स्थिति तक होती है।
७६६. जो इस प्रकार है-कषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति एक प्रावलि कालतक बांधकर प्रतिभग्न कालके प्रथम समयमें बंधनेवाले नपुंसकवेदमें बन्धावलिसे रहित कषायकी स्थिति के संकान्त होन पर नपुंसकवेदकी स्थिति उत्कृष्ट होती है और उस समय कषायकी स्थिति एक समय कम होती है, क्योंकि उस समय कषायकी उत्कृष्ट स्थितिमेंसे अधःस्थिति गलनाके द्वारा एक समय गल गया है ! इसी प्रकार कषायकी उत्कृष्ट स्थितिमेंसे दो समय कम आदि क्रमसे आवलि प्रमाण कालके गलने तक कथन करते जाना चाहिये।
शंका-कषायकी उत्कृष्ट स्थितिमें से एक आवलिसे अधिक काल क्यों नहीं गलाया जाता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि इसके आगे नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट स्थितिका प्राप्त होना असंभव है।
* नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट स्थितिके समय स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी स्थितिविभक्ति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ?
१८००. यह सूत्र सुगम हे। * नियमसे अनुत्कृष्ट होती है।
१८०१. क्योंकि नपुंसकवेदके बन्धके समय स्त्रीवेद और पुरुषवेदका बन्ध नियमसे नहीं होता है।
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गा० २२] हिदिविहत्तीएउत्तरपयडिहिदिविहत्तियसरिणयासो ४७६ कारणं ? तदभावे अचंताभावो ?
* उक्कस्सादो अणुक्कस्सा अंतोमुहुत्त णमादि कादूण जाव अंतो. कोडाकोडि त्ति।
८०२. तं जहा–सोलसकसायाणमुक्कस्सहिदिं बंधिय पडिहग्गसमए समयाविरोहेण बज्झमाणिस्थि-पुरिसवेदेसु बंधावलियादिक्कतकसायहिदीए संकेताए इत्थिपुरिसवेदाणमुक्कस्सद्विदिविहत्ती होदि । तदो अंतोमुहुत्तण संकिलेसं गंतूण कसायुकस्सहिदि बंधिय बंधावलियादिक्कंतकसायद्विदिम्मि णवुसयवेदे संकामिदम्मि णव॒सयवेदस्स उक्कस्सहिदिविहत्ती। तत्थुद्देसे गं इत्थि-पुरिसवेदहिदी पुण णियमा अंतोमुहुत्तूणा; सगुक्कस्सहिदीदो अधहिदिगलणाए गलिदंतोमुहुत्तत्तादो। एवं समयूणादिकमेण कसायहिदि बंधिय ओदारेदूण णेदव्वं जाव अंतोकोडाकोडि त्ति ।
८०३. इथिवेदणिरु'भणे कदे णव॒सयवेदुक्कस्सहिदी समयूणा जादा । णवुसयवेदम्मि णिरु भणे कदे पुण इत्थिवेदहिदी सगुक्कस्सादो अंतोमुहुत्तूणा जादा । किमेदस्स कारणं ? वुच्चदे-कसायाणमुक्कस्सहिदीए बज्झमाणाए णवुसयवेदस्स जेण तत्थ णियमेण बंधो तेण पडिहग्गसमए इत्थिवेदे उक्कस्सहिदिमुवगदे णवंसय
शंका-इसका क्या कारण है ?
समाधान-नपुंसकवेदके बन्धके समय स्त्रीवेद और पुरुषवेदका बन्ध नहीं होनेमें अत्यन्ताभाव कारण है। अर्थात् नपुंसकवेदके बन्धके समय स्त्रीवेद और पुरुषवेदके बन्धका सर्वथा अभाव है।
* वह अनुत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर अन्त:कोडाकोड़ी सागर तक होती है ।
८०२. जो इस प्रकार है-सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधकर प्रतिभग्नकालके प्रथम समयमें आगमानुकूल बँधनेवाले स्त्रीवेद और पुरुषवेदमें बन्धावलिसे रहित कषायकी स्थितिके संक्रान्त होने पर स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है। तदनन्तर एक अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा संक्लेशको प्राप्त होकर और कषायकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके बन्धावलीसे रहित कषायकी स्थितिके नपुसकवेदमें संक्रान्त होने पर नपुसकवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है। तब वहाँ पर स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थिति नियमसे अन्तर्मुहूर्त कम होती है, क्योंकि स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी अपनी उत्कृष्ट स्थितिमेंसे अधास्थितिगलनाके द्वारा एक अन्तमुहूर्त गल गया है। इस प्रकार एक समय कम आदिके क्रमसे कषायकी स्थितिका बन्ध कराके अन्तःकोड़ी सागर प्रमाण स्थितिके प्राप्त होनेतक स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी स्थितिको घटाते जाना चाहिये।
६८०३. शंका-स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिके रहते हुए नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट स्थिति एक समय कम होती है और नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट स्थितिके रहने पर स्त्रीवेदकी स्थिति अपनी उत्कृष्ट स्थितिसे अमुहूते कम होती है, इसका क्या कारण है ? .
समाधान-कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिके बँधते समय नपुंसकवेदका चूँ कि नियमसे बन्ध होता है इसलिये प्रतिभग्न कालके प्रथम समयमें स्त्रीवेदके उत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त होने पर नपुसक
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४८० . जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[द्विदिषिहत्ती ३ वेदो सगुक्कस्सहिदि पेक्खिय समयूणो होदिः तत्थ तदो गलिदेगसमयत्तादो । णqसयवेदे पुण उकस्सहिदिमुवगदे इत्थिवेदो णियमेण अंतोमुहुत्त णो इस्थिवेदबंधपडिसेहदुवारेण कसायाणमुक्कस्सहिदीए सह णवुसयवेदे बंधमागदे तब्बंधपढमसमय पहुडि जाव अंतीमुहुत्त ण गदं ताव कसायाणमुकस्सहिदिबंधसंभवाभावादो। तं कुदो णव्वदे ? उकस्सहिदिबंधंतरस्स जहण्णस्स वि अंतोमुहुत्तपमाणपरूवयबंधसुत्तादो। इत्थि-पुरिसवेदाणमेगसमएण बंधुवरमाणब्भुवगमादो च अंतोमुहुत्त णत्तमविरूद्धं सिद्धं ।
® हस्स-रदीणं हिदिविहत्ती किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ? ८०४. सुगम
* उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा । ___८०५. पडिहग्गपढमसमए णवंसयवेदुक्कस्सहिदीए संतीए जदि हस्स-रदीणं बंधो होज्ज तो उक्कस्सा, अण्णहा अणुक्कस्सा; बंधाभावेण हस्स-रदीसु कसायहिदिसंकंतीए अभावादो।
8 उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समऊणमादि कादूण जाव अंतोकोडाकोडि ति। वेदकी उत्कृष्ट स्थिति अपनी उत्कृष्ट स्थितिको देखते हुए एक समय कम होती है, क्योंकि वहां पर उसमेंसे एक समय गल गया है। परन्तु नपुंसकवेदके उत्कृष्ट स्थितिको प्राप्त होने पर स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थिति नियमसे अन्तर्मुहूर्त कम होती है, क्योंकि कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिके साथ नपुंसकवेदके बन्धको प्राप्त होने पर स्त्रीवेदका बन्ध नहीं होता और स्त्रीवेदके बन्धके प्रथम समयसे लेकर जब तक अन्तर्मुहूर्त काल नहीं व्यतीत होता है तब तक कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध संभव नहीं है । अतः नपुलकवेदकी उत्कृष्ट स्थितिके समय स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिमेंसे अन्तर्मुहूर्त कम हो जाता है।
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-उत्कृष्ट स्थितिका जघन्य बन्धान्तर भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है इस प्रकार कथन करनेवाले बन्धसूत्रसे जाना जाता है। तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी एक समयके द्वारा बन्धव्युच्छित्ति नहीं स्वीकार की गई है अतः इससे भी नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट स्थितिके समय पुरुषवेद और स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थिति ठीक अन्तर्मुहूर्त कम सिद्ध होती है।
नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट स्थितिके समय हास्य और रतिकी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट १ -
६८०४ यह सूत्र सुगम है। * उत्कृष्ट होती है और अनुत्कृष्ट भी।
६८०५. प्रतिभग्न कालके प्रथम समयमें नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट स्थितिके रहते हुए यदि हास्य और रतिका बन्ध होवे तो उनकी स्थिति उत्कृष्ट होती है अन्यथा अनुत्कृष्ट होती है, क्योंकि बन्धके विना हास्य और रतिमें कषायकी स्थितिका संक्रमण नहीं पाया जाता है। .
वह अनुत्कृष्ट स्थिति एक समय कम अपनी उत्कष्ट स्थितिसे लेकर अन्त:कोड़ाकोड़ी सागर तक होती है ।
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गा० २२ ]
द्विदिविहतीए उत्तरपयडिट्ठिदिविहत्तिय सरिणयासो
४८१
९८०६. पडिहग्गपढमसमयम्मि णव सयवेद-हस्स- रदीणं बंधे संते तिन्हं पि उक्क सहिदिविहत्ती होदि । तदणंतरविदियसमए हस्स-रदिबंधे वोच्छिष्णे हस्स- रदीर्ण समयूरपुक्कसहिदी होदि । एवं दुसमयूणादिकमेण णेदव्वं जाव समऊणावलियाए ऊणुक्कसहिदिति । उवरि इत्थवेदे णिरुद्धे हस्स-रदीणं वत्तकमं बुद्धीए अवहारिय वत्तव्वं ।
* अरदि-सोगाणं हिदिविहत्ती किमुक्कस्सा अणक्कस्सा ?
$ ८०७. सुगमं १
* उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा ।
९८०८. वसय वेदबंधकाले अरदि- सोगाणं बंधे संते तिन्हं पि उक्कस्सहिदिविहत्ती होदि, अण्णा अणुक्कस्सा; अवज्झमाणबंधपयडीणं पडिग्गहत्ताभावादो ?
* उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समऊणमादिं काढूण जाव वीसं सागरोवमकोडाकोडीओ पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण ऊणाओ ।
६८०६ तं जहा - सोलसकसायाणमुक्कस्सडिदिमंतोमुहुत्तमेत्तकालं बंधिय पंडिहग्गसमए अरदि-सोगबंधवोच्छेददुवारेण हस्स रदीस बंधमागयासु णव सयवेद हिंदी तत्थं उक्कस्सा; बज्झमाणत्तादो । अरदि-सोगहिदी पुण समयूयुक्कस्सा; बंधाभावादो ।
९८०६. प्रतिभग्न कालके प्रथम समय में नपुंसकवेद, हास्य और रतिके बन्ध होते हुए तीनों की ही उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है । तदनन्तर दूसरे समय में हास्य और रतिके बन्धके व्युच्छिन्न हो जाने पर हास्य और रतिकी उत्कृष्ट स्थिति एक समय कम होती है। इस प्रकार दो समय कम आदि क्रमसे लेकर एक समय कम आवलिसे न्यून उत्कृष्ट स्थिति तक जानना चाहिये । तथा इसके आगे स्त्रीवेदको उत्कृष्ट स्थितिके रहते हुए हास्य और रतिका जो क्रम कहा है उसका बुद्धिसे निश्चय करके यहाँ भी कथन करना चाहिये ।
नपुंसकवेदी उत्कृष्ट स्थिति के समय अरति और शोककी स्थितिविभक्ति
क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कुष्ट ?
है ।
६ ८०७. यह सूत्र सुगम
* उत्कृष्ट होती है और अनुत्कृष्ट भी ।
§ ८०८. नपुंसकवेदके बन्धके समय अरति और शोकके बन्ध होने पर तीनों की ही उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है, अन्यथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्ति होती है; क्योंकि नहीं बँधनेवाली प्रकृतियों में पतग्रहपना नहीं पाया जाता है ।
* वह अनुत्कृष्ट स्थिति एक समय कम अपनी उत्कृष्ट स्थिति से लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भाग न्यून बीस कोड़ाकोड़ी सागर तक होती है ।
९८०६. जो इस प्रकार है— सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिको अन्तर्मुहूर्त काल तक बाँधकर प्रतिभग्नकाल के प्रथम समय में अरति और शोककी बन्ध व्युच्छित्ति होकर हास्य और रतिबन्धको प्राप्त होने पर वहाँ पर नपुंसकवेदकी स्थिति उत्कृष्ट होती है, हो रहा है परन्तु अति और शोककी उत्कृष्ट स्थिति एक समय कम होती है,
६१
क्योंकि उसका बन्ध क्योंकि उनका बन्ध
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[द्विदिविहत्ती ३ एवं जाव पडिहग्गावलियमेत्तकालो उवरि गच्छदि ताव अरदि-सोगुक्कस्सहिदी प्रावलियुणा होदि । पुणो समयाहियावलियपढमममए कसायाणमावलिऊणुक्कस्सहिदि बंधिय पुणो आवलियमेत्तकालं उक्कस्सहिदिं बंधिय पडिहग्गपढमसमए हस्स-रदीसु वंधमागदास अरदि-सोगुक्कस्सहिदी समयाहियावलियाए ऊणा होदि । पुणो जाव आवलियमेत्तकालो गच्छदि ताव अरदि-सोगुक्कर हिदी दोहि श्रावलियाहि ऊणा होदि । एवं जाणिदण अोदारेयव्यं जाव आवलियम्भहियसमऊणाबाहाकंडएणूणवीसं सागरोवमकोडाकोडिमेत्तकम्महिदी चेहिदा त्ति ।
* भय दुगु'छाणं हिदीविहत्ती किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ? $ ८१०. सुगमं ?
यिमा उक्कस्सा। ८११. धुवबंधित्तादो। * एवमरदि सोग-भय दुगुछाणं पि ।
६८१२. जहा णवसयवदस्स सनकम्मेहि सह सण्णियासो कदो तहा अरदिसोग-भय-दुगुलाणं पि कायव्वं ।
नहीं हो रहा है। इस प्रकार एक आवलिप्रमाण प्रतिभग्नकालके आगे जाने तक अरति और शोककी उत्कृष्ट स्थिति एक श्रावलिप्रमाण कम हो जाती है। पुनः एक समय अधिक आवलिके प्रथम समयमें कपायोंकी एक वलि कम उत्कृष्ट स्थितिको बाँधकर पुनः एक प्रावलि काल तक कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधकर प्रतिभग्न कालके प्रथम समयमें हास्य और रतिके बन्धको प्राप्त होनेपर अरति और शोककी उत्कृष्ट स्थिति एक समय अधिक एक आवलि कम होती है। पुनः एक प्रावलि प्रेमाण कालके जाने तक अरति और शोककी उत्कृष्ट स्थिति दो आवलि काल प्रमाण कम होती है। इस प्रकार एक समय कम आबाधाकाण्डकमें एक आवलि कालके जोड़ने पर जितना प्रमाण हो उतने कालसे न्यून बीस कोड़ाकोड़ा सागर प्रमाण कमस्थितिके प्राप्त होने तक अरति और शोककी स्थितिको घटाते जाना चाहिये ।
नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट स्थितिके समय भय और जुगुप्साकी स्थितिविभक्ति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ?
८१०. यह सूत्र सुगम है।
नियमसे उत्कृष्ट होती है। ९८५१. क्योंकि ये दोनों प्रकृतियाँ ध्रुवबन्धिनी हैं।
@ इसी प्रकार अरति, शोक, भय और जुगुप्साका भी सब कर्मों के साथ सन्निकर्ष कहना चाहिये।
८१२. जिस प्रकार नपुंसकवेदका सब कर्मों के साथ सन्निकर्ष किया उसी प्रकार अरति, शोक, भय और जुगुप्साका भी करना चाहिये ।
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गा० २२ ]
वित्तीय उत्तरपयडिद्विदिविहत्तिय सयिण्यासो
* एवरि विसेसो जाणियव्वो ।
९८१३. एत्थ विसेसपरूवणह वुच्चदे - अरदि-सोगाणमक्कस्स डिदिणिरु भणं कादूण भण्णमाणे मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त- सोलसकसायाणं णव सयवेदभंगो । अरदि-मोगाणमक्कस्महिदीए संतीए इन्थिवेदस्स सिया उक्कस्सद्विदी; पडिहग्गपढमसमए अरदि-सोगेहि सह इत्थिवेदे बज्झमाणे तिन्हं पि उक्कस्सडिदिविहत्तिदंसणादो । अण्णा अणुक्कस्सा; बंधाभावे कसाय हिदिपडिच्छणसत्तीए अभावादो । अथ अणुकस्सा समऊणमादि काढूण जाव अंतोकोडाकोडि त्ति । कुदो ? इत्थवेदबंध कालस्स एसमए संते समयूणउक्कस्सडिदिसंतुवलंभादो ।
*
८१४. जेसिमाइरियाणमित्थिवेदबंधकालो जहण्णओ अंतोमुहुत्तमेतो तेसिमहिप्पारण अंतमुत्तूणमादिं काढूण जाव अंतोकोडाकोडि त्ति । तं जहा — कसायुक्रसहिदिं बंधिय पहिग्गसमए इत्थवंद - अरदि-सोगाणमावलियमेत्तकालमुक्कसहिदी होदि । संपति इत्थवेदबंधो जाव अतोमहुत्तं ण गदं ताव ण फिट्टदि । एदम्मि आवलियवज्र्ज्जतोमुहुत्तमेत्तइत्थिवेद बंधकालम्मि इत्थिवेद - अरदि-सोगाणं द्विदीओ अधडिदिगलणाए गलमाणाओ चे 'ति । कुदा ? जाव अतोमुहुत्तं ण गदं ताव संकिलेसं पूरेदु णो सक्कदि त्ति काढूण लहुमुक्कस्सद्विदिं बंधाविदो । पुणो तप्पा ओग्गेण जहण्णकालेणुक्कस्स
* परन्तु कुछ विशेष जानना चाहिये ।
९८१३. अब यहाँ पर विशेषका कथन करते हैं - अरति और शोककी उत्कृष्ट स्थितिको रोककर कथन करने पर मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मध्यात्व और सोलह कषायों का भंग नपुंसकवेदके समान है । अरति और शोककी उत्कृष्ट स्थिति के रहते हुए स्त्रावेदका कदाचित् उत्कृष्ट स्थिति होती है, क्योंकि प्रतिभग्नकालकं प्रथम समयम अरात और शाकक साथ स्त्रावेदके बन्ध होने पर तीनों ही उत्कृष्टस्थितिविभक्ति देखा जाती हैं । अन्यथा अरति और शाककी उत्कृष्ट स्थिति के समय स्त्रावेदकी (स्थात अनुत्कृष्ट होता है, क्योंकि स्त्रीवेदका बन्ध नहीं होन पर उसमें कषायकी स्थितका संक्रमित करनेका शक्ति नहीं पाई जाती है । अब यदि अनुत्कृष्ट स्थिति होती है तो वह एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिस लेकर अन्तः काडाकाड़ा सागर तक होता है, क्योंकि स्त्रावेदके बन्धकालके एक समय होनेपर एक समय कम उत्कृष्ट स्थिति पाई जाता है ।
८१४. किन्तु जिन आचार्योंक मतसे स्त्रावेदका जघन्य बन्धकाल भी अन्तर्मुहूर्त है उनके अभिप्रायानुसार अन्तमुहूत कम उत्कृष्ट स्थिति से लेकर अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर तक अनुत्कृष्ट (स्थति पाई जाती है । उसका खुलासा इस प्रकार हैं- कषायकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधकर प्रतिभग्नकाल में स्त्रावेद, अति और शोककी एक आवलिकाल तक उत्कृष्ट स्थिति होती है । यहाँ पर स्त्रीवेदका बन्ध जब तक अन्तर्मुहूर्त काल व्यतीत नहीं हुआ है तब तक नहीं छूटता है। इस एक आवलिसे रहित अन्तर्मुहूतं प्रमाण स्त्रीवेद के बन्धकाल में स्त्रीवेद, अरति और शोककी स्थितियाँ अधःस्थिति गलनाके द्वारा गलती रहती हैं, क्योंकि जब तक एक अन्तर्मुहूर्त काल व्यतीत नहीं हुआ है। तब तक उत्कृष्ट संक्लेशको पूरा करना शक्य नहीं है, ऐसा समझकर छोटे अन्तर्मुहूते काल तक कृष्ट स्थितिका बन्ध कराया है। पुनः उसके योग्य जघन्य कालके द्वारा उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त
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बयधवलासहिदे कसायपाहुंडे
हिदिविहत्ती ३ संकिलेसं गंतूणुक्कस्सहिदि वंधिय बंधावलियादीदकसायहिदीए संकामिदाए अंतोमुहुत्तकालं सव्वमरदि-सोगाणमुक्कस्सहिदी होदि । कुदो ? कसायाणमुक्कस्सहिदीए उक्कस्ससंकिलेसेण बज्झमाणाए हस्स-रदीहि विणा अरदि-सोगाणं चेव बंधसंभवादो। कसायुक्कस्सहिदिविहत्तिकालेण अरदि-सोगाणमुक्कस्सहिदिविहत्तिकालो सरिसो कसायाणमक्कस्सहिदिबंधे थक्के वि आवलियमेत्तकालमरदि-सोगाणमुक्कस्सद्विदिविहत्तिदंसणादो। संपहि इथिवेदहिदी सगुक्कस्सं पेक्खिदूण अंतोमुहुत्त णा । पुणो अण्णेणं जीवेण कसायाणं समऊणुक्कस्सद्विदिमंतोमुहुत्तकालं बंधिय पडिहग्गसमए बज्झमाणइत्थिवेदम्मि बंधावलियादीदकसायहिदी संकामिदा । ताधे इत्थिवेदहिदी सगुक्कस्सं पेक्खिदूण समऊणा। तदो अंतोमहुत्तकालमित्थिवेदं बंधिय अवरेगमंतोमुहुत्तकालं णसयवेदं बंधिय पणो अंतोमहत्तणुक्कस्ससंकिलेसं पूरेदृणुक्कस्सकसायदिदि बंधिय बंधावलियादीदकसायहिदीए संकामिदाए अरदि-सोगाणमक्कस्सहिदी होदि । तम्मि समए इत्थिवेदो अप्पणो उक्कस्सहिदि पेक्खिण समयाहियअंतोमुहुत्त णो होदि । एवं दुसमयाहिय-तिसमयाहिय-अतोमहुत्तमूर्ण कादण णेदव्वं जाव अंतोकोडाकोडि त्ति । एवं परिसवेदस्स । णqसयवेदस्स एवं चेव । णवरि समऊणमादि कादूण [ जाव ] वोसंसागरोवमकोडाकोडीअो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेण ऊणाओ त्ति णेदव्वं । होकर और कपायकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करके बन्धावलिसे रहित कषायकी स्थितिके संक्रमित होनेपर अन्तर्मुहूर्त कालतक अरति और शोककी उत्कृष्ट स्थिति होती है, क्योंकि कपायकी उत्कृष्ट स्थितिके उत्कृष्ट संक्लेशसे बँधने पर हास्य और रतिको छोड़कर अरति और शोकका ही बन्ध संभव है। यद्यपि अरति और शोककी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिका काल कषायकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके कालके समान है तो भी कषायोंके उत्कृष्ट स्थितिबन्धके रुक जाने पर भी एक आवलि काल तक अरति और शोककी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति देखी जाती है। यहाँ पर स्त्रीवेदकी स्थिति अपनी उत्कृष्ट स्थितिको देखते हुए अन्तर्मुहूर्त कम है। पुनः अन्य जीवने कषायोंकी एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिको अन्तर्महूर्त काल तक बाँधा और प्रतिभग्न कालके प्रथम समयमें बँधनेवाले स्त्रीवेदमें बन्धावलिसे रहित कषायकी स्थितिका संक्रमण किया तो उस समय स्त्रीवेदकी स्थिति अपनी उत्कृष्ट स्थितिको देखते हुए एक समय कम होती है। तदनन्तर अन्तर्मुहूर्त काल तक स्त्रीवेदका बन्ध करके तथा दूसरे एक अन्तमुहूर्त काल तक नपुंसकवेदका बन्ध करके पुनः एक अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा उत्कृष्ट संक्लेशकी पूर्ति करके और कषायकी उत्कृष्ट स्थितिको बाँधकर बन्धावलिसे रहित उस कषायकी स्थितिका अरति और शोकमें संक्रमण होनेपर अरति और शोककी उत्कृष्ट स्थिति होती है। तथा उस समय स्त्रीवेद अपनी उत्कृष्ट स्थितिको देखते हुए एक समय अधिक अन्तर्मुहूर्त कम उत्कृष्ट स्थितिवाला होता है। इसी प्रकार दो समय अधिक और तीन समय अधिक अन्तर्मुहूर्त कम उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर तक स्त्र वेद की स्थिति घटाते जाना चाहिये। इसी प्रकार पुरुषवेदकी स्थिति होती है। तथा नपुंसकवेदकी स्थिति भी इसी प्रकार होती है। किन्तु इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेदकी स्थिति एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर पल्योपमका असंख्यातवां भाग कम बीस कोड़ाकोड़ी सागर तक घटाते हुए ले जाना चाहिये ।
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गां० २२ ) द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिविदिविहत्तियसरिणयासो
४५ १८१५. हस्स-रदीण णियमा अणुक्कस्सा समऊणमादि कादूण जाव अंतोकोडाकोडि त्ति । भय-दुगुंछाणं णियमा उक्कस्सा; धुवबंधित्तादो । भय-दुगुंछाणं णिरु भणं कादूण भण्णमाणे मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-सोलसकसाय-तिण्णिवेदाणमरदिसोगभंगो । हस्स-रदि-अरदि-सोगाणं णवंसयवेदभंगो ।
६.८१६. एवं चुण्णिसुत्तमस्सिदण सण्णियासपरूवणं करिय संपहि उच्चारणमस्सिदृणुक्कस्ससण्णियासं कस्सामो । पुणरुत्तमिदि एत्थ अण्णयरो ण कायव्यो आइरियाणमुवदेसंतरजाणावण परूविदाए पुणरुत्तदोसाभावादो।
८१७. सण्णियासो दुविहो-जहण्णओ उक्कस्सो चेदि । तत्थ उक्कस्सए पयदं । दुविहो णिद्देसो-अोघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत्तउक्कस्सहिदिविहत्तियस्स सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त० सिया अत्थि सिया णत्थि । जदि अत्थि, किमुक्कस्सा अणुक्कस्सा ? णियमा अणुक्कस्सा । अंतोमुहुत्तणमादिं कादूण जाव एगा हिदि त्ति । णवरि चरिमु
व्वेल्लणकंडएणूणा । सोलसक० किमुक्क० अणुक्क० ? उक्कस्सा वा अणुक्कस्सा वा । · उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समऊणमादि कादूण जाव पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेण ऊणा । चत्तारिणोक० किमुक० अणुक्क० ? णियमा अणुक्क० अंतोमुहुत्तूणमादि कादूण
-- १८१५. हास्य और रतिकी स्थिति एक समय कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर अन्तः. कोड़ाकोड़ी सागर तक नियमसे अनुत्कृष्ट होती है। तथा भय और जुगुप्साकी स्थिति नियमसे उत्कृष्ट होती है, क्योंकि ये दोनों प्रकृतियाँ ध्रुवबन्धिनी हैं। भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट स्थितिके रहते हुए सन्निकर्षका कथन करनेपर मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और तीनों वेदोंका भंग अरति और शोकके समान है। तथा हास्य, रति, अरति और शोकका भंग नपुंसकवेदके समान है।
१८१६. इस प्रकार चूर्णिसूत्रका आश्रय लेकर सन्निकर्षका कथन करके अब उच्चारणाका आश्रय लेकर उत्कृष्ट सन्निकर्षको बताते हैं। यदि कोई कहे कि जिसका चूर्णिसूत्र द्वारा कथन किया है उसका उच्चारणा द्वारा कथन करने पर पुनरुक्त दोष आता है, अतः किसी एकका कथन नहीं करना चाहिये सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि आचार्यों के उपदेशोंमें अन्तरका ज्ञान करानेके लिए चूर्णिसूत्रके कथनके बाद भी उच्चारणाका कथन करने पर पुनरुक्त दोष नहीं आता है।
१८१७. सन्निकर्ष हो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उनमें से पहले उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थितिविभक्ति कदाचित् है और कदाचित् नहीं है । यदि है तो क्या उत्कृष्ट होती या अनुत्कृष्ट ? नियमसे अनुत्कृष्ट होती है । जो एक अन्तर्मुहूर्त कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर एक स्थिति तक होती है । किन्तु इतनी विशेषता है कि वह अनुत्कृष्ट स्थिति अन्तिम उद्वेलनाकाण्डकके सन्निकर्ष विकल्पों से न्यून होती है । सोलह कषायोंकी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? उत्कृष्ट अथवा अनुत्कृष्ट होती है। उनमें अनुत्कृष्ट स्थिति एक समय कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम उत्कृष्ट स्थिति तक होती है। चार नोकषायोंकी स्थिति क्या उत्कृष्ट
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जथघवलासहिदे कसायपाहुडे
[ द्विदिविहती ३
जाव अंतोकोडा कोडिति । पंचणोक० किमुक्क० अणुक्क० ? उक्कस्सा अणुक्कस्सा वा । उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समयूणमादि काढूण जाव वीसंसागरोत्रम कोडाकोडीओ पलिदो ० असंखे० भागेणूणाओ त्ति ।
$ ८१८. सम्मत्तुकस्सडिदिविहत्तियस्स मिच्छत्त० किमुक्क० अणुक्क० १ नियमा अणुक्कस्सा तोमुहुत्तणा । णत्थि अण्णो वियप्पो । सम्मामि० किमुक्क० अणुक्क० ? णियमा उक्कस्सा | सोलसक० णवणोक० किमुक्क० अणक्क० ? णियमा अणुक्क० अंतोमुहुत्तणमादि काढूण जाव पलिदो ० असंखे० भागेणूणा त्ति । एवं सम्मामि० ।
८१९. ताणु०कोध० मिच्छत्त- पण्णारसक० किमुक्क० अणुक्क० ? उकस्सा अणुकस्सा वा । उकस्सादो अकस्सा समयूगमादि काढूण जाव पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेणूणा त्ति । सम्मत्त सम्मामि मिच्छत्तभंगो । चत्तारिणोक० किमुक्क० अणुक्क ० १ णियमा अणुक्कस्सा अंतोमुहुत्तूणमादि काढूण जाव अंतोकोडाकोडित्ति । पंचणाक० किमुक्क० अणुक्क० ? उक्कस्सा अणुक्कस्सा वा । जदि अणुक्कस्सा समऊणमादि काढूण जाव वीसंसागरोवमकोडाकोडीओ पलिदो० असंखेज्जदिभागेण ऊणाओ त्ति । एवं पण्णारसकसायाणं ।
होती है या अनुत्कृष्ट ? नियमसे अनुत्कृष्ट होती है । जो अन्तमुहूर्त कम अपनी उत्कृष्ट स्थिति से लेकर अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर तक होती है। पांच नोकषायों की स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? उत्कृष्ट अथवा अनुत्कृष्ट होती है । उनमें अनुत्कृष्ट स्थिति एक समय कम अपनी उत्कृष्ट स्थिति से लेकर पल्योपमका असंख्यावां भाग कम बीस कोड़ा कोड़ी सागर तक होती है ।
$ १८. सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवके मिथ्यात्वकी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अत्कृष्ट ? नियमसे अनुत्कृष्ट होती है । जो अपनी उत्कृष्टसे अन्तर्मुहूर्त कम होती है । यहां मिथ्यात्वको स्थितिका अन्य विकल्प नहीं होता । सम्यग्मिथ्यात्वका स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? नियमसे उत्कृष्ट होती है । सोलह कषाय और नौ नोकपायों की स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? नियमसे अनुत्कृष्ट होती है । जो अपनी उत्कृष्टकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त कम से लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भाग कम तक होती हैं । इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवके सन्निकर्षका कथन करना चाहिये ।
६ ८१६. अनन्तानुबन्धी क्रोधकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवके मिथ्यात्व और पन्द्रह कषायों की स्थिति क्या उत्कृष्ट होती हैं या अनुत्कृष्ट ? उत्कृष्ट अथवा अनुत्कुष्ट होती हैं । वह अनुत्कृष्ट स्थिति एक समय कम अपनी उत्कृष्ट स्थिति से लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भाग कम तक होती है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग मिध्यात्वके समान है । चारों नोकपायोंका स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? नियमसे अनुत्कृष्ट होती है जो अन्तर्मुहूर्त कम अपनी उत्कृष्ट स्थिति से लेकर अन्तःकोड़ाकाड़ी सागर तक होती है। पांच नोकषायों की स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी । यदि अनुत्कृष्ट होती है तो एक समय कम अपनी उत्कष्ट स्थिति से लेकर पल्योपमका असंख्यातवां भाग कम बीस कोड़ाकोड़ी सागर तक होती है । इसी प्रकार शेष पन्द्रह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये ।
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गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिडिदिविहत्तियसरिणयासो
२०. इस्थिवेदुक्कस्सहिदिविहत्तियस्स मिच्छत्त० किमुक्क० अणुक्क ? णियमा अणुक्कस्सा, एगसमयमादि कादृण जाव पलिदो० असंखे०भागेणूणा । सम्मत्तसम्मामि० मिच्छत्तभंगो । पुरिस० किमक्क० अणुक्क ? णियमा अणुक्कासा समयूणमादि कादूण जाव अंतोकोडाकोडि त्ति । अथवा अतोमुहुत्तणमादि कादणे त्ति वत्तव्वं । णवंस० किमुक्क० अणक्क० ? णियमा अणुक्कस्सा, समयूणमादि कादूण जाव वीसं सागरोवमकोडाकोडायो पलिदो० असंखेजदिमागेण ऊणाभो । हस्स-रदि० किमुक्क० अणुक्क० ? उकसा अणुक्कस्सा वा । उक्कसादो अणुक्कस्सा समयूगमादि कादण जाव अंतोकोडाकोडाओ । अरदि-सोग० किमक्क० अणुक्क. १ उक्कसा अणुक्कस्सा वा। उक्कस्सादो अणुकस्सा समयणमादि कादण जाव वीसंसागरोवमकोडाकोडीओ पलिदो० असंखेजदिभागेण ऊणाओ । भय-दुगुंछ . किमुक्क० अणुक्क० ? णियमा उक्कस्सा । सोलसक किमुक्क० अणुक्क ० १ णियमा अणुक्क । समयूणमादि कादूण जाव आवलिऊणा एवं पुरसवेदस्स ।
६८२१. णव॒सयवेदउ कस्सहिदिविहत्तियस्स मिच्छत्त० किमुक्क० अणुक्क ? उक्कस्सा अणुक्कस्सा वा । उक्कस्सादो अणक्कस्सा समऊणमादि कादण जाव पलिदो० असंखे भागेण ऊणा। सम्मत्त-सम्मामि मिच्छत्तभंगो। सोलसक० किमुक्क० अणुक्क० ?
२०. स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवक मिथ्यात्वकी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? नियमसे अनुत्कृष्ट होती है । जो एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भाग कम तक होती है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग मिथ्यात्वके समान है। पुरुषवेदकी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? नियमसे अनुत्कृष्ट होती है। जो एक समय कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिस लेकर अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर तक होती है। अथवा एक समय कमके स्थानमें अन्तर्मुहूते कमसे लेकर ऐसा कहना चाहिये। नपुंसकवेदकी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? नियमसे अनुत्कृष्ट होती है। जो एक समय कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर पल्योपमका असंख्यातवां भाग कम बोस कोड़ाकोड़ी सागर तक होती है । हास्य और रतिकी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी। उसमेंसे अनुत्कृष्ट स्थिति एक समय कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर तक होती है। अरति और शोककी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती हे या अनुत्कृष्ट ? उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी। उनमें से अनुत्कृष्ट स्थिति एक समय कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर पल्योपमका असंख्यातवां भाग कम बीस कोड़ाकोड़ी सागर तक होती है । भय और जुगुप्साकी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? नियमसे उत्कृष्ट होती है। सोलह कषायोंकी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? नियमसे अनुत्कृष्ट होती है । जो एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर एक श्रावलि कम तक होती है। इसी प्रकार पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवके सन्निकर्ष कहना चाहिये।
९८२१. नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवके मिथ्यात्वकी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी । उनमेंसे अनुत्कृष्ट स्थिति एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भाग कम तक होती है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग मिथ्यात्वके समान है। सोलह कषायोंकी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[द्विदिविहती ३ उक्कस्सा अणुक्कस्सा वा । उक्कस्सादो अणक्कस्सा समयूणमादि कादूण जाव आवलिऊणा । इन्थि-पुरिस० किमुक्क० अणुक्क० ? णियमा अणुक्कस्सा । समयणमादि कादृण जाव अंतोकोडाकोडि ति । अथवा अंतोमुहृत्त णमादि कादूण | हस्स-रदि० किमुक्क० अणुक्क० ? उक्कस्सा अणुक्कस्सा वा। उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समयूणमादि कादण जाव अंतोकोडाकोडि ति। अरदि-सोग० किमक्क. अणक्क० ? उक्कस्सा अणुक्कस्सा वा । उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समयणमादि कादण जाव वीसंसागरोवमकोडाकोडीओ पलिदो० असंखेजदिभागेण ऊणाओ । भय-दुगुंछा० इस्थिवेदभंगो। ___८२२. हस्सउक्कस्सद्विदिविहत्तियस्स मिच्छत्त० किमुक्क० अणुक्क० ? णियमा अणुक्कस्सा । समयूणमादि कादूण जाव पलिदोवमस्स असंखेजदिमागेणूणा। सम्मत्त-सम्मामि० मिच्छत्तभंगो । सोलसक० किमक्क० अणक्क० ? णियमा अण्क्क०। एगसमयमादि कादूण जाव आवलिऊणा। इथि०-पुरिस० किमुक्क० अणुक्क० ? उक्कस्सा अणुक्कस्सा वा । उक्कस्सादो अणकस्सा समयणमादि कादूण जाव अंतोकोडाकोडि त्ति । अधवा अंतोमहुत्त णमादि कादण । णवुसय० किमुक्क० अणुक्क० ? उक्कस्सा अणुक्कस्सा वा । उक्कस्सादो अणक्कस्सा समय॒णमादि कादूण जाव वीसं
अनुत्कृष्ट ? उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी। उनमें से अनुत्कृष्ट स्थिति एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर एक आवलि कम तक होती है । स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? नियमसे अनुत्कृष्ट होती है। जो एक समय कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर तक होती है। अथवा 'एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर के' स्थानमें 'अन्तर्मुहूर्त कम उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर' कहना चाहिय । हास्य और रतिकी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी। उसमें अनुत्कृष्ट स्थिति एक समय कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर तक होती है। अरति और शोककी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी। उसमें अनुत्कृष्ट स्थिति एक समय कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर पल्योपमका असंख्यातवां भाग कम बीस कोडाकोड़ी सागर तक होती है । भय और जुगुप्साका भंग स्त्रीवेदके समान है।
८२२. हास्य प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके धारक जीवके मिथ्यात्वकी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? नियमसे अनुत्कृष्ट होती है। जो एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर पल्योपमके असंख्या भाग कम तक होती है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग मिथ्यात्वके समान है । सोलह कषायोंकी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? नियमसे अनुत्कृष्ट होती है । जो एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर एक श्रावलि कम तक होती है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी। उनमें से अनुत्कृष्ट स्थिति एक समय कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर तक होती है। अथवा 'एक समय कम उत्कृष्ट स्थिति से लेकर' के स्थानमें 'अन्तर्मुहूर्त कम उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर' जानना चाहिये । नपुंसकवेदकी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुस्कृष्ट ? उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी। उनमेंसे अनुत्कृष्ट स्थिति एक समय कम अपनी उत्कृष्द
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गा० २२ ] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिविदिविहत्तियसरिणयासो
४८६ सागरोवमकोडाकोडीओ पलिदो० असंखे भागेणूणाओ। अरदि-सोग० किमुक्क० अणुक्क० १ णियमा अणुक्कस्सा । समयूणमादि कादृण जाव वीसंसागरोवमकोडाकोडीओ पलिदो० असंखे०भागेणूणाश्रो । रदि-भय-दुगुंछाओ किमुक्क० अणुक्क० १ णियमा उक्कस्सा । एवं रदि०।
___८२३. अरदि० उक्कस्सहिदिविहत्तियस्स मिच्छत्त० किमुक्क० अणुक्क० ? उक्कस्सा अणुक्कस्सा वा । उक्कस्सादो अणक्कस्सा समयणमादिं कादण जाव पलिदो० असंखे०भागेणूणा । सम्मत्त-सम्मामि० मिच्छत्तभंगो। सोलसक० णqसगभंगो । इत्थिपुरिस-णqसयवेदाणं रदिभंगो । हस्स-रदि० किमुक्क० १ णियमा अणुक्क० । समयूणमादि कादण जाव अंतोकोडाकोडि ति । सोग-भय-दुगुकाणं णियमा उक्कस्सा । एवं सोग।
. ८२४. भय० उक्क० हिदिवि० मिच्छत्त०-सम्म० - सम्मामि० - सोलसक०तिण्णिवेद० अरदिभंगो । हस्स-रदि-अरदि-सोग० णवंसयभंगो । दुगुछ० किमुक्क० अणुक्क ? उक्क० । एवं दुगंछ० । एवं सव्वणेरइय-तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खपंचिंदियतिरि० पज्ज.पंचिंतिरि०जोणिणी०-मणुसतिय०-देव-भवणादि जाव सहस्सार०पंचिं०-पंचि०पज्ज०-तस-तसपज्ज-पंचमण-पंचवचि० -कायजोगि० -ओरालि०स्थितिसे लेकर पल्योपमका असंख्यातवां भाग कम बीस कोडाकोड़ी सागर तक होती है । अरति और शोककी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? नियमसे अनुत्कृष्ट होती है । जो एक समय कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर पल्योपमका असंख्यातवां भाग कम बीस कोड़ाकोड़ी सागर तक होती है। रति, भय और जुगुप्साकी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? नियमसे उत्कृष्ट होती है । इसी प्रकार रति प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये।
८२३. अरति प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके धारक जीवके मिथ्यात्वकी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी। उनमेंसे अनुत्कृष्ट स्थिति एक समय कमसे लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भाग कम उत्कृष्ट स्थितितक होती है । सम्यक्त्व
और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग मिथ्यात्वके समान है। सोलह कषायोंका भंग नपुंसकवेदके समान है। स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदका भंग रतिके समान है। हास्य और रतिकी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? नियमसे अनुत्कृष्ट होती है। जो एक समय कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर तक होती है। तथा शोक, भय और जुगुप्साकी स्थिति नियमसे उत्कृष्ट होती है। इसी प्रकार शोकप्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये।
१८२४. भयप्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके धारक जीवके मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिध्यात्व, सोलह कषाय और तीन वेदोंका भंग अरतिके समान है। हास्य, रति, अरति
और शोकका भंग नपुंसकवेदके समान है। जुगुप्साकी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? उत्कृष्ट होती है । इसी प्रकार जुगुप्सा प्रकृतिकी स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये। इसी प्रकार सब नारकी, तिथंच, पंचेन्द्रिय तिर्यंच, पचेन्द्रिय तियच पर्याप्त, पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमती, सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रस पर्याप्त, पांचों मनोयोगी पांचों
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जयघवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ वेउब्विय-तिण्णिवेद०-चत्तारिक०-असंजद०-चक्खु०-अचक्खु०-पंचले०-भवसिद्धि०सण्णि-आहारि त्ति ।
१८२५. पंचिंदियतिरि०अपज्ज० मिच्छत्त उक्कस्सहिदिविहत्तियस्स सम्मत्त०सम्मामि० सिया अत्थि सिया णत्थि । जदि अस्थि किमुक्क. अणुक्क० १ णियमा अणुक्कस्सा । अंतोमुहुत्त णमादि कादण जाव एया हिदी। गवरि चरिमुव्वेन्लणकंडएणूणा । सोलसक०-णवणोक० किमुक्क० अणुक्क० १ उक्कस्सा अणुक्कस्सा वा । उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समयणमादि कादूण जाव पलिदो० असंखे०भागेणूणा । सम्मत्त० उक्कस्सहिदिविहत्तियस्स मिच्छत्त० किमुक्क० अणुक्क० १ णियमा अणुक्क० अंतोमुहुत्तूणा । सम्मामि० किमक्क० अणुक्क. १ णियमा उक्कस्सा । सोलसक०णवणोक० किमक्क० अणक. १णियमा अणक । अंतोमहुत्त णमादि कादण जाव पलिदोवमस्स असंखे भागेणूणा । एवं सम्मामि० । अणंताणुबंधिकोध० उक्कस्सहिदिविहत्तियस्स मिच्छत्त० किमुक्क. अणुक्क० ? उक्कस्सा अणुक्कस्सा वा । उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समयूणमादि कादूण जाव पलिदो० असंखे०भागेणूणा। सम्मत्त० सम्मामिच्छत्तभंगो । पण्णारसक०-णवणोक. किमक्क. अणक ? णियमा उक्कस्सा । वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, तीनों वेदवाले, चारों कषायवाले, असंयत, चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, कृष्णादि पांच लेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिये।
८२५. पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये दो प्रकृत्तियाँ कदाचित् हैं और कदाचित् नहीं हैं। यदि हैं तो उनकी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? नियमसे अनुत्कृष्ट होती है । जो अन्तर्मुहूर्त कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर एक स्थिति पर्यंत होती है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इसमें अन्तिम उद्वेलना काण्डक प्रमाण स्थितिको घटा देना चाहिये । सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी । उनमेंसे अनुत्कृष्ट स्थिति एक समय कमसे लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भाग कम उत्कृष्ट स्थिति तक होती है । सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके धारक जीवके मिथ्यात्वकी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? नियमसे अनुत्कृष्ट होती है। जो अपनी उत्कृष्टसे अन्तर्मुहूर्त कम होती है । सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? नियमसे उत्कृष्ट होती है। सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? नियमसे अनुत्कृष्ट होती है । जो अन्तर्मुहूर्त कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भाग कम उत्कृष्ट स्थिति तक होती है । इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये । अनन्तानुबन्धी क्रोधकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके धारक जीवके मिथ्यात्वकी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी। उनमेंसे अनुत्कृष्ट स्थिति एक समय कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भाग कम उत्कृष्ट स्थिति तक होती है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग मिथ्यात्वके समान है। पन्द्रह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? नियमसे उत्कृष्ट होती है। इसी प्रकार पन्द्रह कषाय
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गा० २२ ] . हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तियसरिणयासो
४६१ एवं पण्णारसक०-णवणोकसायाणं । एवं मणुसअपज्जा-बादरेइंदियअपज -मुहुमेइंदियपज्जत्तापज्जत्त-सव्वविगलिंदिय-पंचिं०अपज्ज०-बादरपुढविअपज्ज०-मुहुमपुढवि-पज्जतापज्जत्त-चादराउअपज०-मुहुमाउ-पज्जत्तापज्जत्त-तेउ-बादरमुहुमपज्जत्तापज्जत्तवाउ०-वादरमुहुमपज्जत्तापज्जत्त-बादरवणप्फदिपत्तेय०अपज्ज०-णिगोद-बादरमुहुमपज्जत्तापज्जत्त-तसअपज्जत्ता त्ति ।।
८२६. आणदादि जाव उवरिमगेवजं ति मिच्छत्तुक्कस्सहिदिविहत्तियस्स सम्मत्त-सम्मामि० सिया अत्थि, सिया णत्थि । जदि अस्थि किमक्क० अणक ? उक्क० अणुक्कस्सा वा । उक्कस्सादो अणुक्कस्सा पलिदो० असंखेभागुणमादि कादूण जाव एगा हिदि त्ति । णवरि चरिमुव्वेल्लणकंडयचरिमफालीयाए ऊणा । सोलसक०णवणोक० किमुक्क० अणुक्क० ! णियमा उक्क० । एवं सोलसक०-णवणोक० । सम्मत्त० उक्कस्सहिदिविहत्तियस्स मिच्छत्त-सम्मामि०-सोलसक०-णवणोक० किमुक्का अणुक्क० १ णियमा उक्क । एवं सम्मामि० ।
८२७. अणुदिसादि जाव सव्वदृसिद्धि ति मिच्छत्तुक्कस्सहिदिविहत्तियस्स और नौ नोकषायोंकी स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सब विकलान्द्रय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त, बादर जलकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादरअग्निकायिक पर्याप्त, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक, सूक्ष्म अग्निकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकाायक प्रत्येक शरार अपर्याप्त, निगोद, बादर निगोद, बादर निगोद पयोप्त, बादर निगोद अपर्याप्त, सूक्ष्म निगोद, सूक्ष्म निगोद पर्याप्त, सूक्ष्म निगाद अपर्याप्त और त्रस अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये।
६८२६. आनत कल्पसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देवोमें मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिक धारक जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये दो प्रकृतियाँ कदाचित् है और कदाचित् नहीं हैं। यदि हैं ता इनको स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी । उनमेंस अनुत्कृष्ट स्थिति पल्यापमके असंख्यातवें भाग कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर एक स्थिति तक होती है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इसमेंसे अन्तिम उद्वेलनाकाण्डककी अन्तिम फालिप्रमाण स्थितियोंको घटा देना चाहिये। सालह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या उत्कृष्ट हाती हे या अनुत्कृष्ट ? नियमसे उत्कृष्ट हाती है। इसी प्रकार सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिके धारक जीवके सन्निकर्षे जानना चाहिय । सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके धारक जीवक मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या उत्कृष्ट होता हे या अनुत्कृष्ट ? नियमसे उत्कृष्ट होता है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थितिविभाक्तके धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये ।।
८२७. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मिथ्यात्वको उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके
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४६२ अयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[विदिविहत्ती ३. सम्मत्त-सम्मामि०-सोलसक०-णवणोक. किमक्क० अणक्क० १ णियमा उक्क० । एवमेक्केक्कस्स। एवमाहार०-आहारमिस्स-अवगद०-अकसा०-मणपज्ज०-संजद०सामाइयछेदो०-परिहार-मुहुम०-जहाक्खाद०-संजदासंजद०-खइय-उवसम०-सासण०दिहि त्ति ।
८२८. एइंदिय-बादरेइंदिय-तप्पज्ज०-पुढवि०-बादरपुढवि०-बादरपुढविपज्ज०आउ०-बादर आउ०-चादरभाउपज्ज०-वणप्फदि-बादरवणप्फदिपत्तेयसरीर-तप्पज्ज०ओरालियमिस्स-वेउव्वियमिस्स-कम्मइय०-असण्णि-अणाहारि० -मदि०-सुद० -विहंग०मिच्छादिहि ति ओघं । णवरि एइंदियादि अणाहारिपजत्तेसु धुवबंधीणमुक्कस्सहिदिविहत्तियस्स चदुणोक० उक्क० अणुक्क० वा । समऊणमादि कादूण जाव अंतोकोडाकोडि त्ति । चदुणोक० उक्कस्सहिदिवि० धुवबंधीणमुक्क० अणुक्क० वा । समयूणमादि कादृण जाव पलिदो० असंखे० भागेणूणा । समऊणावलिऊणा त्ति एसो विसेसो जाणियव्यो।
____८२६. आभिणि-सुद०-ओहि० मिच्छत्तु कस्सहिदिविहत्तियस्स सम्मत्तसम्मामि० किमुक्क० अणुक्क० ? णियमा उक्क० । सोलसक०-णवणोक० किमुक्क० धारक जीवके सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नो नाकषायोंका स्थिात क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? नियमसे उत्कृष्ट होती है। इसी प्रकार प्रत्येक प्रकृतिकी स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ष कहना चाहिये। इसी प्रकार आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायवाले, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदापस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, उपशम. सम्यग्दृष्टि और सासादनसम्यग्दृिष्टि जीवोंके जानना चाहिये।।
८२८. एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, जल कायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक पर्याप्त, वनस्पति कायिक, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर, बादर वनस्पति काायक प्रत्येक शरीर पर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कामणकाययोगी, असंज्ञा, अनाहारक, मत्यज्ञानी, ताज्ञानी, विभंगज्ञानी और मिथ्यादृष्टि जीवोंके अोधके समान सन्निकर्ष जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि एकेन्द्रियोंसे लेकर अनाहारकोंतक जावोंमें ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके धारक जीवके चार नोकषायोंकी स्थिति उत्कृष्ट भा होती है और अनुत्कृष्ट भी। उनमेसे अनुत्कृष्ट स्थिति एक समय कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर अन्तःकोड़ाकोड़ा सागर तक होती है। चार नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके धारक जीवके ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियोंकी स्थिति उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी। उनमेंसे अनुत्कृष्ट स्थिति एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भाग कम उत्कृष्ट स्थिति तक होती है। यहां पर एक समय कम या एक आवली कम उत्कृष्ट स्थिति होती है इतना विशेष जानना चाहिए।
२६. आभिनियोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंमें मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? नियमसे उत्कृष्ट होती है। सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या उत्कृष्ट
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गा० २२ ] . हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिविहत्तियसरिणयासो
४४३ अणुक्क० ? उकस्सा अणुक्कस्सा वा । उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समयणमादि कादण जाव पलिदो० असंखे०भागेणणा । एवं सम्मत्त-सम्मामि० । अणंताणु०कोधुक्कस्स०विहत्तियस्स सम्मत्त-सम्मामि० किमुक्क० अणुक्क ? उक्कस्सा अणुक्कस्सा वा । उक्कस्सादो अणुक्कस्सा समयूणमादि कादूण जाव पलिदो० असंखे० भागेणूणा । पण्णारसक०णवणोक० किमुक्क० अणक ? णियमा उक्क० । एवं पण्णारसक०-णवणोकसायाणं । एवोमहिदंस०-सम्मा०-वेदय० त्तिः ।
८३० मुक्कलेस्सिय० पंचिं-तिरि०अपज्जत्तभंगो । अभव० सम्मत्त-सम्मामि० वज० ओघं । सम्मामि० मिच्छत्तु ककस्सहिदिविहत्तियस्स सम्मत्त-सम्मामि० किमुक्क० अणुक्क० १ गियमा अणुक्क० । अंतोमुहुत्तणादि कादण जाव सागरोवमपुधनं । सोलसक०णवणोक० किमुक्क० अणुक्क० ? आभिणि भगो। एवं सोलसक०-णवणोक० । सम्मत्तुक्कस्सहिदिविहत्तियस्स मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० किमुक्क० अणुक्क० ? णियमा अणुक० अंतोमुहुत्तूणा । णवरि पणुवीसकसायाण अंतोमुहुत्तूणमादि कादूण जाव होती है या अनुत्कृष्ट ? उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी। उनमेंसे अनुत्कृष्ट स्थिति एक समय कम उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भाग कम तक होती है। इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये। अनन्तानुबन्धी क्रोधकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सम्यक्त्व ओर सम्यग्मिथ्यात्वका स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी। उनमेंसे अनुत्कृष्ट स्थिति अपनी उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा एक समय कमसे लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भाग कम उत्कृष्ट स्थिति तक होती है । पन्द्रह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ? नियमसे उत्कृष्ट होती है । इसी प्रकार पन्द्रह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये । इसी प्रकार अवधिदर्शनवाले, सम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये ।
८३०. शुक्ललेश्यावालोंके पंचन्द्रिय तियेच अपर्याप्तकोंके समान भंग है। अभव्यों के सम्यक्त्व और सभ्यग्मिथ्यात्वको छोड़ कर शेष कथन ओघके समान है। तात्पर्य यह है कि अभव्योंक सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये दो प्रकृतियाँ नहीं होती, अतः इनके साथ अन्य प्रकृतियों का और अन्य प्रकृतियों के साथ इनका सन्निकर्षे नहीं प्राप्त होता । शेष प्रकृतियोंका सन्निकर्ष ओषके समान है। सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंमें मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट । नियमसे अनुत्कृष्ट होती है। जो अन्तर्मुहूर्त कम अपनी उत्कृष्ट स्थितिसे लेकर सागर पृथक्त्व तक होती है। सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट । यहाँ आभिनिबोधिक ज्ञानियोंके समानभंग है। इसी प्रकार सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके धारक जीवोंके सन्निकर्ष जानना चाहिये । सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिके धारक जीवके मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या उत्कृष्ठ होती है या अनुत्कृष्ट ? नियमसे अनुत्कृष्ट होती है । जो उत्कृष्ट स्थितसे अन्तमुहूर्त कम होती है। किन्तु इतनी विशेषता है कि पच्चीस कषायों की अनुत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूत कमसे लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भाग कम उत्कृष्ट स्थिति तक होती है। सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थिति क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट १ नियमसे उत्कृष्ट होती
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४८४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ द्विदिविहत्ती ३ पलिदो० असंखे भागेणूणा त्ति । सम्मामि० किमुक्क० अणुक्क० ? णियमा उक्क० । एवं सम्मामि० ।
एवमुक्कस्सहिदिसण्णियासो समत्तो । * जहएणहिदिसएिणयासो । ८३१. सुगममेदं । * मिच्छत्तजहणणहिदिसंतकम्मियस्स अणंताणुबंधीणं णत्थि ।
$ ८३२. अणंताणुबंधीणं णत्थि सण्णियासो त्ति संबंधो कायव्यो । कुदो ? पुर्व चेव विसंजोइदाणं तत्थ हिदिसंताभावादो ।
* सेसाणं कम्मणं हिदिविहत्ती किं जहएणा अजहाणा ? ६८३३. सुगममेदं ।
* णियमा अजहण्णा। $८३४. कुदो, उवरि जहण्णहिदि पडिवज्जमाणाणमेत्थ जहण्णत्तविरोहादो । * जहरणादो अजहरणा असंखेज्जगुणब्भहिया।
६८३५ कुदो ? मिच्छत्तस्स दुसमयकालेगहिदीए सेसाए सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्ताणं बारसकसाय-णवणोकसायाणमंतोकोडाकोडिसागरोवममेत्ताणं हिदीणमवसिहाणमवलंभादो । है। इसी प्रकार सन्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति विभक्तिके धारक जीवके सन्निकष जानना चाहिये।
इस प्रकार उत्कृष्ट स्थितिसन्निकर्षे समाप्त हुआ। .... * अब जघन्य स्थितिके सन्निकर्षका अधिकार है ।
६८३१. यह सूत्र सुगम है ।
* मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति सत्कर्मवाले जीवके अनन्तानुबन्धी चतुष्कका सनिकर्ष नहीं है।
F८३२. यहां पर अनन्तानुबन्धी चतुष्कका सन्निकर्ष नहीं है, इस प्रकार संबन्ध करना चाहिये. क्योंकि मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति प्राप्त होनेके पहले ही इसकी विसंयोजना हो जाती है. अतः इसका मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिके समय स्थिति सत्त्व नहीं पाया जाता है।
* मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति सत्कर्मवाले जीवके शेष कर्मोंकी स्थितिविभक्ति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ?
६८३३. यह सूत्र सुगम है। * नियमसे अजघन्य होती है।
$ ८३४. क्योंकि शेष कर्मोंकी जघन्य स्थिति आगे जाकर प्राप्त होनेवाली है, अतः उनकी यहां जघन्य स्थिति मानने में विरोध आता है ।
* वह अजघन्य स्थिति अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी अधिक होती है ।
६८३५ क्योंकि जब मिथ्यात्वकी दो समय काल प्रमाण एक स्थिति शेष रहती है तब सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण तथा बारह कवाय और नौ नोकषायोंकी अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थिति शेष पाई जाती है।
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गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिडिदिविहत्तियसरिणयासो
* मिच्छत्रोण णीदो सेसेहि वि अणुमग्गियव्वो ।
६८३६ मिच्छत्तजहण्णहिदीए सह सण्णियासो णीदो कहिदो परुविदो त्ति उ होदि । सेसेहि वि कम्मेहि एसो जहण्णसण्णियासो अणुमग्गियव्वो गवेसियव्वो त्ति उत्तं होदि।
८३७. एवं जइवसहाइरियमुहविणिग्गय चुण्णिमुत्ताणं देसामासिएण सूचिदस्स उच्चारणपरूवणं कस्सामो । जहण्णए पयदं । दुविहो णिदेसो-प्रोघेण आदेसेण ।
ओघेण मिच्छत जहण्णहिदिविहत्तियस्स सम्मत-सम्मामि० किं जह• अजह ? णियमा अजह० असंखे० गुणब्भहिया । बारस०-णवणोक० किं जह० अजह ? णियमा अज०. असंखे० गुणब्भहिया । अणंताणुबंधी णिस्संता ।
८३८. सम्मत्तस्स जह० बारसक०-णवणोक० किं जह० अज० ? णियमा अज० असंखे०गुणब्भहिया । सेसस्स असंतं ।
८३६, सम्मामि० जह०विहत्तियस्स मिच्छत्त-सम्मत्त-अणंताणु० सिया अत्थि सिया णत्थि । यदि अत्थि किं जह० अजह० १ णियमा अज० असंखे०गुणब्भहिया । बारसक०-णवणोक० किं ज. अज० ? णियमा अज० असंखेजगुणा ।
* जिस प्रकार मिथ्यात्वके साथ सब प्रकृतियोंका सन्निकर्ष कहा है उसी प्रकार शेष कर्मों के साथ भी उसका विचार करना चाहिये ।
१८३६. जिस प्रकार मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिके साथ सन्निकषं कहा है उसी प्रकार शेष कर्मोके साथ भी यह जघन्य सन्निकर्ष कहना चाहिये । सूत्रमें जो ‘णीदो' पद है उसका अर्थ 'कहना चाहिये, प्ररूपण करना चाहिये' यह होता है तथा 'अणुमग्गियव्वो' पदका अर्थ खोजना चाहिये' होता है।
६८३७. इस प्रकार यतिवृषभ आचार्यके मुखसे निकले हुए चूणिसूत्रोंके देशामर्षक होनेसे सूचित हुए अर्थकी उच्चारणाका कथन करते हैं-अब जघन्य सन्निकर्षका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है। जो अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यात गुणी अधिक होती है। बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी अधिक होती है । तथा अनन्तानुबन्धीका यहाँ अभाव है।
८३८ सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है। जो अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी अधिक होती है । इसके शेष प्रकृतियोंका सत्त्व नहीं है।
६८३६. सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिके धारक जीवके मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्क ये छह प्रकृतियाँ कदाचित् हैं और कदाचित् नहीं है। यदि हैं तो इनकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है। जो अपनी जघन्य स्थितिसे
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४६६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[हिदिविहत्ती ३ ८४०. अणंताणुकोध० जह० मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-बारसक०-णवणोक० किं ज. अज० ? णियमा अज. असंखेज्जगणा । तिण्णिक० किं ज० [ अजह० ] ? णियमा जह० । एवं तिण्हं कसायाणं ।
८४१. अपञ्चक्खाणकोध० जह०विहत्तियस्स चत्तारिसंज०-णवणोक० किं ज. अज० ? णियमा अज० असंखे गुणा । सत्तकसाय० किं जह• अज• ? णियमा जह० । एवं सत्तकसायाणं ।
६८४२. इथि० ज०विहतियस्स सत्तणोक०-तिण्णिसंजल० किं जह० अज० ? णियमा अज० संखेगुणा । लोभसंज० किं जह• अज० ? णियमा अज० असंखे०. गुणा । एवं णवुस ।
८४३. पुरिसजविहत्तियस्स तिहं संजल० किं ज. अज० ? णियमा अज० संखेज्जगणा । लोभसंज० किं जह० अज० ? णियमा अज० असंखेगणा।
६८४४. हस्सज० तिण्णिसंज०-पुरिस० किं जह० अज० ? णियमा अज०
असंख्यातगुणी अधिक होती है। बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है । जो अपनी जघन्यस्थितिसे असंख्यातगुणी होती है ।
८४०. अनन्तानुबन्धी क्रोधकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व. बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है। जो जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी होती है। अनन्तानुबन्धी मान
आदि तीन कषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य होती है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन कषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये।
९८४१. अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके चार संज्वलन और नौ नोकषायोंको स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है। जो अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी होती है। शेष अप्रत्याख्यानावरण मान आदि सात कषायों की स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य होती है। इसी प्रकार अप्रत्याख्यावरण भान आदि सात कषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये।
९८४२. स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सात नोकषाय और तीन संज्वलनकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है। जो अपनी जधन्य स्थितिसे संख्यातगुणी होती है। लोभसंज्वलनकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजधन्य ? नियमसे अजघन्य होती है ? जो अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी होती है। इसी प्रकार नपुंसकवेदकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके सन्निकर्ण जानना चाहिये।
८४३. पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके तीनों संज्वलनोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है जो अपनी जघन्य स्थितिसे संख्यातगुणी होती है। लोभ संज्वलनकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है। जो अपनी जवन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी होती है।
९८४४. हास्यकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके तीन संज्वलन और पुरुषवेदकी
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गा० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तियसरिणयासो
४६७
४६७ संखे०गणा । लोभसजल. किं जह• अजह ? णियमा अज० असंखेगणा । पंच-. णोक० किं जह० अज• ? णियमा जहण्णा । एवं पंचणोक ।। ___ ८४५. कोधसंजल० जह० विहत्तियस्स दोसंजल० किं जह० अजह० १ णियमा अज० सज्जगुणा । लोभ० किंज. अज० १ णियमा अज०, असंखे गुणा । माणसंज० जह० विहत्तियस्स मायासंज० किं .ज. अज० ? णियमा अज० संखे गुणा । लोभ किं ज० ज० १ णियमा अज०, असंखे० गुणा । मायासंजल० जह० विहत्ति० लोभ. किं ज० अज० ? णियमा अज० असंखे०गुणा ।
. ८४६. लोभसंज. जह० हिदि० सेसंणत्थि । एवं मणुस-मणुसपज्ज०मणसिणी-पंचिंदिय-पंचिं०पज्ज०-तस-तसपज्ज०-पंचमण०-पंचवचि०-कायजोगि०ओरालि०-लोभक०-चक्खु०-अचक्खु०-सुक्क०-भवसि०-सण्णि०-आहारि त्ति । णवरि मणुसपज्जत्तएसु इत्थि, जहण्णहिदिविहत्तियस्स चदुसंजल०-सत्तणोक० णियमा अज० असंखेगुणा । णवंस० सिया अस्थि सिया णत्थि । जदि अत्थि, णियमा अज० असंखेगुणा । मणुस्सिणीसु णवुस० ज० हिदिवि० चदुसंज-अहणोक० णियमा स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है। जो जघन्य स्थितिसे संख्यातगुणी होती है। लोभ संज्वलनकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है। जो जघन्य स्थितिसे असंख्यातगणी होती है। पाँच नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य होती है। इसी प्रकार पाँच नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ण जानना चाहिये।
९८४५ क्रोध संज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके दो संज्वलनकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है । जो जघन्य स्थितिसे संख्यातगुणी होती है। लोभ संज्वलनकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है जो जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी होती है। मानसंज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके मायासंज्वलनकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो जघन्य स्थितिसे संख्यातगुणी होती है। लोभसंज्वलनकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी होती है। मायासंज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके लोभसंज्वलनकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी होती है।
९८४६. लोभसंज्वलनकी जघन्य स्थिति विभक्तिके धारक जीवके शेष प्रकृतियाँ नहीं पाई जाती हैं। इसी प्रकार अर्थात् ओघके समान मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी, पंचेन्द्रिय. पंचेन्द्रियपर्याप्त, प्रस, त्रस पर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, लोभ कषायवाले, चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि मनुष्य पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेदकी जघन्य स्थिति विभक्तिके धारक जीवके चार संज्वलन और सात नोकषायोंकी नियमसे अजघन्य स्थिति होती है
और वह जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी होती है। तथा नपुंसकवेद कदाचित् है और कदाचित् नहीं है। यदि है तो उसकी स्थिति नियमसे अजघन्य होती है, जो जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी होती है। मनुष्यनियोंमें नपुंसकवेदकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके चार संज्वलन
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४८ बयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[हिदिविहत्ती ३ अज०, असंखे०गुणा । पुरिस० छण्णोकसायभंगो ।
८४७. आदेसेण णेरइय० मिच्छत्त० जह० विहत्ति० बारसक०-भय-दुगुंछ० किं ज० अज० १ जहण्णा अजहण्णा वा । जहण्णादो अजहण्णा सम-उत्तरादि जाव पलिदो० असंखे. भाब्भहिया । सम्मत्त० सिया अत्थि, सिया पत्थि । जदि अत्थि, किं जह० अज० १ णियमा अज० विहाणपदिदा संखेज्जगुणभहिया असंखेगुणब्भहिया वा। सम्मामि० सिया अस्थि सिया पत्थि १ जदि अत्थि, किं ज० अजजहण्णा अजहण्णा वा । जहण्णादो अजहण्णा विहाणपदिदा संखे०गुणा असंखे गुणा वा णिसेयप्पहाणतणेण, अण्णहा तिहाणपदिदा । अणंताणु० चउक्क० किं जह• अज०१ णियमा अज०, असंखे०गणा । सत्तणोक० किं जह० अज० ? णि. अज०, असंखे०भागब्भहिया। सम्मत्त० जहण्णहिदिविहत्ति० बारसक०-णवणोक० किं ज० अज० १ णि अज०, संखेगणा । सम्मामि० ज० विहत्तियस्स मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० किं ज. अज० ? जहण्णा अजहण्णा वा । जदि अजहण्णा तिहाणपदिदा असंखे०भागभहिया संखे०भागब्भहिया संखेगुणब्भहिया वा । अणंताणु० णियमा अजहण्णा
और आठ नोकषायोंकी स्थिति नियमसे अजघन्य होती है, जो जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी होती है । तथा पुरुषवेदका भंग छह नोकषायोंके समान है।
E४७. श्रादेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति विभक्तिके धारक जीवके बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य १ जघन्य भी होती है और अजघन्य भी । उनमें से अजघन्य स्थिति एक समय अधिकसे लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भाग अधिक जघन्य स्थिति तक होती है । सम्यक्त्व प्रकृति कदाचित् है और कदाचित् नहीं है। यदि है तो उसकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है। जो जघन्य स्थितिसे द्विस्थान पतित होती हुई संख्यातगुणी अधिक होती है या असंख्यातगुणी अधिक होती है। सम्यग्मिथ्यात्व कदाचित् है और कदाचित् नहीं है। यदि है तो उसकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? जघन्य भी होती है और अजघन्य भी। उनमें से अजघन्य स्थिति जघन्य स्थितिसे द्विस्थान पतित होती हुई संख्यातगुणी या असंख्यातगुणी होती है। यह स्थिति निषेकोंकी प्रधानतासे कही है। अन्यथा जघन्य स्थितिसे अजघन्य स्थिति तीन स्थान पतित होती है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी होती है । सात नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो जघन्य स्थितिसे असंख्यातवें भाग अधिक होती है ? सम्यक्त्वकी जवन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो जघन्यसे संख्यातगुणी होती है। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके मिथ्यात्व, बारह कषाय, और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? जघन्य भी होती है और अजघन्य भी। यदि अजघन्य होती है तो वह जघन्यसे असंख्यातवें भाग अधिक, संख्यातवें भाग अधिक या संख्यातगुणी अधिक इस प्रकार तीन स्थान पतित होती है। तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी स्थिति नियमसे अजघन्य होती है। जो जघन्यसे असंख्यातगुणी होती है। अनन्तानुबन्धी
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गा० २२ हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिविहत्तियसरिणयासो
४६ असंखे०गुणा । अणताणु०कोध० ज० विहति० मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० किं ज० अज० १ णि. अज० संखे गुणा । सम्मामि० किं ज० अजह० ? णियमा अजा, असंखे गुणब्भहिया । तिहमणंताणुबंधीणं किं० ज० अज० ? णि. जहण्णा । एवं तिहं कसायाणं । अपञ्चक्खा० कोधज० विहत्ति० मिच्छ०-एक्कारसक० किं ज० अज० ? [अज० ] तं तु समउत्तरमादि कादूण जाव पलि. असंखे०भागभहिया । भयदुगुंछ० कि० ज० अज० ? णिय० जहण्णा | सम्मत-सम्मामि०-अणंताणु०चउक्कासत्तणोक० मिच्छत्तभंगो । एवमेक्कारसकः । इथि० ज० विहत्ति० मिच्छत्त-बारसक०अहणोक० किं ज. अज० ? णि० अज० संख०गणा | सम्मत-सम्मामि०-अणंता०चउक्क० मिच्छत्तभंगो । एवं पुरिस० । णवूस० जहण्ण हिदिविहतियस्स मिच्छत्तबारसक०-इत्थि०-पुरिस० अरदि-सोग-भय-दुगुंछ० किं ज० अज० १ णियमा अज०, संखे०गणा । हस्सरदि० किं ज. अज० १ णियमा अज० वेढाणपदिदा असंखेभागब्भहिया संखे गणब्भहिया वा । सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु०चउक्क मिच्छत्तभंगो। क्रोधकी जघन्य स्थितिके धारक जीवके मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो जघन्यसे संख्यातगुणी होती है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है । जो जघन्यसे असंख्यातगुणी अधिक होती है। शेष तीन अनन्तानुबन्धियोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य होती है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन कषायोंकी जघन्य स्थिति विभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये । अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके अप्रत्याख्यानावरण मान आदि ग्यारह कषायों की स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य होती है । मिथ्यात्व की स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? जघन्य भी होती है और अजघन्य भी। उनमेंसे अजघन्य स्थिति जघन्य स्थितिकी अपेक्षा एक समय अधिकसे लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भाग तक अधिक होती है। भय और जुगुप्साकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य होती है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी चतुष्क और सात नोकषायोंका भंग मिथ्यात्वके समान है। इसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरण मान आदि ग्यारह कषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये । स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके मिथ्यात्व, बारह कषाय और आठ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य १ नियमसे अजघन्य होती है, जो जघन्यसे संख्यातगुणी अधिक होती है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग मिथ्यात्वके समान है। इसी प्रकार पुरुषवेदको जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके जानना चाहिये। नपंसकवेदकी जघन्य स्थिति विभक्तिके धारक जीवके मिथ्यात्व, बारह कषाय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है जो जघन्यसे संख्यातगुणी अधिक होती है। हास्य और रतिकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजवन्य होती है, जो जघन्यसे असंख्यातगुणी अधिक या संख्यातगुणी अधिक इस प्रकार दो स्थान पतित होती है। तथा सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग मिथ्यात्वके समान है। किसी उच्चारणामें अरति और शोककी स्थिति हास्य और रतिके
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દૂ૦૦ भयघवलासहिदे कसायपाहुडे
[द्विदिविहत्ती ३ कम्हि वि उच्चारणाए अरदि-सोगहिदी हस्सरदीणं व वेहाणपदिदा ति भणदि, तं जाणिय वत्तव्वं । हस्स० जह० विहत्ति० मिच्छत्त०-बारसक०-णवंस०-अरदि-सोगभय-दुगंछ० किं ज. अज. ? णियमा अज० संखे०गणा। सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु० चउक्क० मिच्छत्तभंगो । इत्थि०-पुरिस०वे० किं ज० अज० १ णि० अज० विद्वाणपदिदा असंखे भाग० संखे गुणब्भहिया वा । रदि० किं ज० अज० ? णिय० जहण्णा । एवं रदि० । अरदि० जह० मिच्छत्त-बारसफ०-हस्स-रदि० किं ज. अज० ? णियमा अज० संखे० गुणा । सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु०चउक्क० मिच्छत्तभंगो । इत्थि-पुरिसणवंस० किं ज० अज० १ णियमा अज० विद्वाणपदिदा असंखे०भागब्भहिया संखे०गुणब्भहिया वा। सोग० किं ज० अज० ? णि० जहण्णा । एवं सोग० । भयस्स ज० विहत्ति० मिच्छत्तबारसक० किं ज० [अज०] ? अज०, तं तु विद्वाणपदिदा असंखे०भाग
भहिया संखे०भागभहिया वा । दुगुछ० किं ज० अज०१ णियमा जहण्णा । सेसं मिच्छत्तभंगो । एवं दुगुकाए । एवं पढमाए पुढवीए ।
३८४८. विदियादि जाव छहि त्ति मिच्छत्त ज. विहत्तियस्स सम्मत्त-सम्मामि० समान दो स्थान पतित कही है सो जानकर उसका कथन करना चाहिये। हास्यकी जघन्य स्थिति विभक्तिवाले जीवके मिथ्यात्व, बारह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो जघन्य स्थितिसे संख्यातगुणी होती है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग मिथ्यात्वके समान है । स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो जघन्यसे असंख्यातवें भाग अधिक या संख्यातगुणी अधिक इस प्रकार दो स्थान पतित होती है । रतिकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य होती है । इसी प्रकार रतिकी स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये । अरतिकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके मिथ्यात्व बारह कषाय, भय, जुगुप्सा, हास्य और रतिकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो जघन्य स्थितिसे संख्यातगुणी होती है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग मिथ्यात्वके समान है । स्त्रीवेद पुरुषवेद और नपुंसकवेदकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो जघन्य स्थितिसे असंख्यातवें भाग अधिक या संख्यातगुणी अधिक इस प्रकार दो स्थान पतित होती है। शोककी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य होती है। इसी प्रकार शोककी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये। भयकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके मिथ्यात्व और बारह कषायकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है। जो जघन्यसे असंख्यातवें भाग अधिक या संख्यातवें भाग अधिक इस प्रकार दो स्थान पतित होती है। जुगुप्साकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य होती है। शेष कथन मिथ्यात्वके समान है। इसी प्रकार जुगुप्साकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये । इसी प्रकार पहली पृथिवीमें जानना चाहिये।
६८४८. दूसरीसे लेकर छठी पृथिवीतकके नारकियोंमें मिथ्यात्वको जघन्य स्थितिविभक्तिके
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९पा अजघन्य ? नियमसे जघन्य होत
गा० २२) हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्यिसरिणयासो किं ज० अज० १ णियमा अज० असंखे०गुणा । बारसक० किं ज० अज० ? णियमा जहण्णा । एवं बारसक०-णवणोकसायाणं । सम्म० ज० विहतियस्स मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० किं ज० अज० ? णि० अज० संखे० गणा । सम्मामि०-अणंताणु० चउक्क० किं ज० अज ? णिय. अज० असंखेगुणा । सम्मामिच्छ • जह• विहनियस्स मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० किं जह० अजह• ? णिय. अज० संखजगुणा । अणताण चउक्क० किं जह० अजह ? णिय० अज० असं०गुणा । सम्म पत्थि । अणंताणु० कोह० ज० विहत्ति० मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० किं ज० अज० ? णिय० अज० वेहाणपदिदा असंखे० भागमहिया संखे०भागब्भहिया वा । सम्मत्त-सम्मामि० किं ज० अज० ? णियमा अज० असंखे०गणा। तिण्णि कसाय० किं ज़० अज० ? णियमा जह० । एवं तिण्हं कसायाणं । .८४६, सत्तमाए पुढवीए मिच्छत्त० ज० विहत्ति० बारसक०-भय-
दुका० कि ज० अज० १ जहण्णा अजहण्णा वा । जहण्णादो अज० समयुत्तरमादि कादूण जाव धारक जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी होती है। बारह कषायों और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अलपन्य नियमसे जघन्य होती है। इसी प्रकार बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थिति विभक्तिके धारक जीवके सन्निकण जानना चाहिये । सम्यक्त्वकी जयन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो जवन्य स्थितिसे संख्यातगुणी होती है। सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजवन्य ? नियमसे अजघन्य होती है। जो जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी होती है । सम्यग्मिथ्यात्वकी जवन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है। जो अपनी जघन्य स्थितिसे संख्यातगुणी होती है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी होती है। इसके सम्यक्त्व प्रकृति नहीं है इसलिये उसका सन्निकर्ष नहीं कहा। अनन्तानुबन्धी क्रोधकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके मिथ्यात्व बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यातवें भाग अधिक या संख्यातवें भाग अधिक इस प्रकार दो स्थान पतित होती है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जा अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी होती है। अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन कषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य होती है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये।
९८४६. सातवीं पृथिवीमें मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य १ जघन्य भी होती है और
१ श्रा० प्रतौ संखे० गुणा इति पाठः ।
कार बारह कषाय और नौ
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५०३
जयघवत्तासहिदे कसायपाहुडे
[ द्विदिविहत्ती ३ पलिदो ० असंखे ० भागन्भहिया । सम्मत्त - सम्मामि० अणतारणु० चउक्क० किं ज० अज० १ णि० अज० असंखे० गुणा । सत्तणोक० किं ज० अज० १ णियमा अज० असंखे ० भागव्भहिया । एवं बारसकसायाणं, णवरि भय-दुगु छा० तं तु समयुत्तरमादिं० जाव आवलियम्भहिया । सम्मत्त० जह० विहत्ति० मिच्छत्त- बारसक० णवणोक० किं ज० अज० १ णि० अज० संखे० गुणा । सम्मामि० किं ज० अ० १ णियमा अज० असंखे० गुणा । अनंताणु० चउक्क० विदियपुढविभंगो । सम्मामि० एवं चेत्र, णवरि सम्मत्तं णत्थि । अणंताणु० कोध० ज० विहत्ति० मिच्छत्त- बारसक० णवणोक० किं० ज० अज० ! णि० अज० विद्वाणपदिदा असंखेज्जभागन्भहिया संखे ० भागब्भहिया वा । सम्मत्त सम्मामि मिच्छत्तभंगो । तिण्णि क० किं ज० अज० १ णि० ज० । एवं हिं कसायाणं । इत्थि० ज० विहत्ति० मिच्छत्त - बारसक० - ग्रहणोक० किं ज० णियमा ० संखे० गुणा । सम्मत्त० सम्मामि० श्रताणु ० चउक्क० किं ज० णियमा ज० असंखे० गुणा । एवं पुरिस० । ण स० ज० विहत्ति० मिच्छत्त
ज० १
ज० १
I
अजघन्य भी । उनमें से अजघन्य स्थिति अपनी जघन्य स्थितिकी अपेक्षा एक समय अधिक से लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भाग तक अधिक होती है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है । जो अपनी जघन्य स्थिति से असंख्यातगुणी अधिक होती है । सात नोकषायों की स्थिति क्या जघन्य होती है या जघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थिति से असंख्यातवें भाग अधिक होती है । इसी प्रकार बारह कषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके भय और जुगुप्साकी स्थिति जघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थिति से एक समय अधिकसे लेकर एक अवलितक अधिक होती है । सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके मिथ्यात्व बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थिति संख्यातगुणी होती है । सम्यग्मथ्यात्वकी स्थिति क्या जघन्य हाती है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य होती है । जो अपनी जघन्य स्थिति से असंख्यातगुणी होती है । अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग दूसरी पृथिवी के समान है । सम्यग्मिथ्यात्यकी जवन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके इसी प्रकार सन्निकर्ष जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके सम्यक्त्व प्रकृति नहीं है । अनन्तानुबन्धी क्रोधकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके मिध्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायों की स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थिति से असंख्यातवें भाग अधिक या संख्यातवें भाग अधिक इस प्रकार दो स्थान पतितहोती है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग मिथ्यात्व के समान है । अनन्तानुबन्धीमान आदि तीन कषायों की स्थिति क्या जघन्य होती हैं या अजघन्य ? नियमसे जघन्य होती है । इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीमान आदि तीन कषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये । स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके मिथ्यात्व, बारह कषाय, और आठ ataurant स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थिति से संख्यातगुणी होती है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है जो अपनी जघन्य
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गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिविहात्तयसरिणयासो
५०३ बारसक०-इत्थि-पुरिस०-अरदि-सोग-भय-दुगुंछ० किं ज० अज० ? णियमा अज० संखे०गणा । सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु०चउक्क० किं ज० अज० ? णियमा अज० असंखे गुणा । हस्स-रदि० किं ज० अज० १ णि० अज० वेहाणपदिदा असंखे० भागभहिया संखेज्जगुणा वा ? हस्स जह० विहत्ति० मिच्छत्त०-बारसक०-णबुंस०अरदि-सोग-भय-दुगुंछ० किं ज० अज० ? णि० अज० संखेजगुणा। सम्मत्तसम्मामि०-अणंताणु०चउक्क० णवंस० भंगो। इत्थि-पुरिस० किं ज. अज० ? णिय० अज० वेहाणपदिदा असंखे०भागब्भहिया संखे०गुणा वा । रदि० किं ज. अज० ? णियमा जहण्णा । एवं रदि० । अरदि० जह० विहत्ति० मिच्छत्त-बारसक०-हस्स-रदिभय-दुगुंछ० किं ज० अज• ? णियमा अज० संखेगुणा । सम्मत्त०-सम्मामि०अणंताणु०चउक्क० रदिभंगो। तिण्णि वेद० किं ज. अज० ? णिय अन० वेहाणपदिदा असंखे० भागब्भहिया संखे० गुणा वा । सोग० किं ज० अज० ? णियमा जहण्णा । एवं सोग० । भय ज. विहत्ति० मिच्छत्त०-बारसक० किं ज०१ अज। तंतु स्थितिसे असंख्यातगुणी होती है । इसी प्रकार पुरुषवेदकी जघन्य स्थिति विभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ण जानना चाहिये । नपुसकवेदकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके मिथ्यात्व, बारह कषाय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थितिसे संख्यातगुणी होती है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी होती है। हास्य और रतिकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है। जो अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यातवें भाग अधिक या संख्यातगुणी अधिक इस प्रकार दो स्थान पतित होती है। हास्यकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके मिथ्यात्व, बारह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है । जो अपनी जघन्य स्थितिसे संख्यातगुणी होती है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग नपुंसकवेदके समान है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यातवें भाग अधिक या संख्यातगुणी अधिक इस प्रकार दो स्थान पतित होती है। रतिकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य होती है। इसी प्रकार रतिकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके सन्निकर्ण जानना चाहिये । अरतिकी जघन्य स्थितिविभक्तिके . धारक जीवके मिथ्यात्व, बारह कषाय, हास्य, रति, भय और जुगुप्साकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थितिसे संख्यातगुणी होतीहै । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग रतिके समान है। तीनों वेदोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है। जो अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यातवें भाग अधिक या संख्यातगुणी अधिक इस प्रकार दो स्थान पतित होती है । शोककी स्थिति क्या जघन्य होती है या अनघन्य ? नियमसे जघन्य होती है। इसी प्रकार शोककी जघन्यस्थितिविभक्तवाजे जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये। भयकी जघन्य स्थिति विभक्तिवाले जीव के मिथ्यात्व और बारह कषायकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ?
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५०४
जयघवलासहिदे कसायपाहुडे . [द्विदिविहत्ती ३ तिहाणपदिदा असंखे० भागब्भहिया संखे०भागभहिया संखे०गुणा वा । दुगुंछ० किं ज० अज० ? णि. जहण्णा । सेसं मिच्छत्तभंगो । एवं दुगुका।।
८५० तिरिक्खगईए तिरिक्खसु मिच्छत्त० ज. विहत्ति बारसक०-भयदुगंछ० किं ज० अज० ? जहण्णा अजहण्णा वा । जहण्णादो अजहण्णा समयुत्तरमादिं कादण जाव पलिदो० असंखे० भागब्भहिया । सम्मत्त० सिया अत्थि सिया णत्थि । जदि अत्थि, किं ज० अज० ? णि अज० वेहाणपदिदा संखे०गुणा असंखे०गणा वा । सम्मामि० सिया अत्थि सिया णत्थि । जदि अत्थि किं ज० अज० १ जहण्णा अजहण्णा वा । जहण्णादो अजहण्णा वेढाणपदिदा संखेगुणा असंखे०गुणा वा । अणंताणु०चउक्क० किं ज० अज ? णि. अज०-असंख० गुणा । सत्तणोक. किं ज० अज० ? णि. अज० असंखे भागब्भहिया। एवं बारसक० । णवरि बारसकसाएसु एक्कदरस्स जहण्णहिदीए णिरुद्धाए भय-दुगुंछाओ किं ज० [अज० ] ? अज०, तंतु समयुत्तरमादिं कादूण जाव आवलियब्भहियारो । सम्मत्त० ज० विहत्ति० बारसक०णवणोक० किं ज० अज० ? णियमा अज० संखे०गुणा। सम्मामि० जह• विहत्ति.
नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जयन्य स्थितिसे असंख्यातवें भाग अधिक, संख्यातवें भाग अधिक या संख्यातगुणी अधिक इस प्रकार तीन स्थान पतित होती है। जुगुत्साकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य होती है। शेष प्रकृतियोंका भंग मिथ्यात्वके समान है । इसी प्रकार जुगुप्साकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये।
५० तिर्यंचगतिमें तिर्यंचोंमें मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? जघन्य भी होती है और अजघन्य भी । उनमेंसे अजघन्य स्थिति अपनी जघन्य स्थितिकी अपेक्षा एक समय अधिकसे लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भाग अधिक तक होती है। सम्यक्त्वप्रकृति कदाचित् है और कदाचित् नहीं है । यदि है तो उसकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थितिसे संख्यातगुणी अधिक या असंख्यात गुणी इस प्रकार दो स्थानपतित होती है । सम्यग्मिथ्यात्व कदाचित् है और कदाचित् नहीं है। यदि है तो उसकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? जघन्य भी होती है और अजघन्य भी । उनमें से अजघन्य स्थिति अपनी जघन्य स्थितिसे संख्यातगुणी या असंख्यातगुणी इस प्रकार दो स्थानपतित होती है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है जो अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी होती है । सात नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यातवेंभाग अधिक होती है। इसी प्रकार बारह कषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ष कहना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि बारह कषायोंमेंसे किसी एक कषायकी जघन्य स्थितिके रुके रहने पर भय और जुगुप्साकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थितिसे एक समय अधिकसे लेकर एक आवलितक अधिक होती है। सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जोवके बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है। जो अपनी
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गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तियसरिणयासो मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० किं ज. अज० १ जहण्णा अजहण्णा वा। जहण्णादो अजहण्णा तिहाणपदिदा असंखे० भागभहिया संखे०भागभहिया संखेगणभहिया वा । अणताणु० चउक्क० किं ज० अज०१णि अज० संख० गुणब्भहिया । अणंताणु० कोध० जह० विहत्ति० मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० किं ज० अज० ? णि अज. असंखे गुणा। सम्मत्त-सम्मामि० किं ज० अज० ? णियमा अज० असंखे गुणा । तिण्णिक० किं ज० अजह० १ णि. जहण्णा । एवं तिण्हं कसायाणं । भय ज. विहत्ति० मिच्छत्त-बारसक० किं ज० अज० १ जहण्णा अजहण्णा वा। जहण्णादो अजहण्णा असंखे०भागमहिया । सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु०चउक्क० मिच्छत्तभंगो । सत्तणोक० किं ज० अज० १ णि० अज० असंखे भागब्भहिया। दुगुंछ. किं ज० अज० १ णि० जहण्णा । एवं दुगुंछाए। इत्थि० जह० विहत्ति० मिच्छत्तबारसक०-अहणोक० किं ज० अज०? णि० अज० संखे० गुणा । सम्मत्त-सम्मामि०अणंताणु०चउक्क० मिच्छत्तभंगो । एवं पुरिस० । णवंस० जह० विहत्ति० मिच्छत्त०जघन्य स्थितिसे संख्यातगुणी होती है। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति विभक्तिके धारक जीवके मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? जघन्य भी होती है और अजघन्य भी। उनमेंसे अजघन्य स्थिति अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यातवेंभाग अधिक, संख्यातवेंभाग अधिक या संख्यातगुणी अधिक इस प्रकार तीन स्थान पतित होती है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थितिसे संख्यातगुणी अधिक होती है। अनन्तानुबन्धी क्रोधकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके मिथ्यात्व बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य १ नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी होती है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थिति क्या जघन्ये होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है जो अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी होती है। अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन कषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य होती है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन कषायोंकी जघन्य स्थितिके धारक जीवके सन्नि. कर्ष जानना चाहिये। भयकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके मिथ्यात्व और बारह कषायकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? जघन्य भी होती है और अजघन्य भी। उनमेंसे अजघन्य स्थिति अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यातवें भाग अधिक होती है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग मिथ्यात्वके समान है। सात नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है। या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यातवें भाग अधिक होती है। जुगुप्साकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य होती है। इसी प्रकार जुगुप्साकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये । स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके मिथ्यात्व, बारह कषाय और आठ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थितिसे संख्यातगुणी होती है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग मिथ्यात्वके समान है। इसी प्रकार
१ श्रा० प्रतौ 'संखेज्जगुणा' इति पाठः । ६४
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ हिदिविहती ३ बारसक० - इत्थि - पुरिस० - अरदि - सोग - भय - दुगुंछ० किं ज० अज० १ णि० ज० संखे० गुणा । सम्मत्त- सम्मामि ० - अनंताणु ० चडवक० इत्थि० भंगो | हस्स-रदि० किं ज० अज० [ नियमा अज० ] वेद्वाणपदिदा असंखे ० भागन्भहिया संखे० गुणा वा । हस्स ज० विहत्ति० मिच्छत्त- बारसक० णवुंस० - अरदि-सोग-भय-दुगुंछ० किं ज० अज० १ णि० अज० संखे० गुणा । सम्मत्त सम्मामि० अणंता ० चउक्क० णव सभंगो | इस्थि - पुरिस० किं ज० अज ० १ णि० अज० वेद्वाणपदिदा असंखे० भागव्भहिया संखे ० गुणा वा । रदि० किं ज० अज० १ णि० जहण्णा । एवं रदीए । अरदि० जह० विहत्ति० मिच्छत्त- बारसक० - हस्स- रदि-भय-दुगु छा० किं ज० अज० १ णि० अज० संखे ०२ ० गुणा । सम्मत्त - सम्मामि० श्रणंताणु ० चउक्क० हस्सभंगो । तिष्णि वेद० किं ज० अज० १ णि० ज० वेडाणपदिदा असंखे० भागन्भहिया संखे० गुणा वा । सोग० किं ज० अज • ? णि० जहण्णा । एवं सोग० ।
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१८५१. पंचिंदियतिरिक्ख ० - पंचिं० तिरि० पज्ज० - पंचिं० तिरि० जोणिणी • मिच्छत्त० जह० विहत्ति० वारसक० -भय-दुगु छा० किं ज० ज० १ जहण्णा अजहण्णा वा ।
पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये । नपुंसकवेदकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके मिथ्यात्व, बारह कषाय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थिति से संख्यातगुणी होती है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग स्त्रीवेदके समान है । हास्य और रतिकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यातवें भाग अधिक या संख्यातगुणी अधिक इस प्रकार दो स्थान पतित होती है । हास्यकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके मिथ्यात्व, बारह कषाय, नपुंसकवेद अरति, शोक, भय और जुगुप्साकी स्थिति क्या जघन्य होती है या जघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है जो अपनी जघन्य स्थिति से संख्यातगुणी होती है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग नपुंसकवेदके समान है । स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है जो असंख्यातवें भाग अधिक या संख्यातगुणी अधिक इस प्रकार दो स्थान पतित होती है । रतिकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य होती है। इसी प्रकार रतिकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये । अरतिकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके मिध्यात्व, बारहकषाय, हास्य, रति, भय और जुगुप्साकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थिति से संख्यातगुणी होती है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग हास्यके समान है। तीनों वेदोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है जो अपनी जघन्य स्थिति से असंख्यातवें भाग अधिक या संख्यातगुणी अधिक इस प्रकार दो स्थान पतित है । शोककी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य होती है । इसी प्रकार शोककी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये ।
१८५१. पंचेन्द्रियतिर्यंच, पंचेन्द्रियतिर्यंच पर्याप्त और पंचेन्द्रियतिर्यंच योनिमती जीवों में मिथ्यात्व की जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके बारह कषाय भय और जुगुप्साकी स्थिति क्या
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गां० २२ ) हिदिविहत्तीए उत्तरपडिडिदिविहत्तियसरिणयासो जहण्णादो अजहण्णा समयुत्तरमादि कादृण जाव पलिदो० असंखे०भागब्भहिया । णवरि भयदुगुंछ० तिहाणपदिदा । सम्म सिया अत्थि सिया णत्थि । जदि अस्थि किं ज० अज० १ णि. अज० वेढाणपदिदा संखे०गुणा असंखेगुणा वा। सम्मामि० सिया अस्थि सिया णत्थि । जदि अस्थि, किं ज० अज. ? जहण्णा अजहण्णा वा, जहण्णादो अजहण्णा विहाणपदिदा संखे०गुणा असंखे० गुणा वा । अणंताणु०चउक्क० किं ज० अज० १ णि. अज० असंखे० गुणा । सत्तणोक० किं ज० अज ? णि. अज़० तिहाणपदिदा-असंखे०भागब्भहिया संखे भागभहिया संखे० गुणब्भहिया वा । एवं बारसकसाय० । भय० जह० मिच्छत्त-बारसक०-दुगुंछ० किं ज. [ अज० ] ? अज० तं तु समयुत्तरमादि कादूण जाव पलिदो० असंखे०भागब्भहिया । सेसं मिच्छत्तभंगो। एवं दुगुंछ । सम्मत्त ज० विहत्ति० बारसक०-णवणोक० किं ज० अज० १ णि० अज० संखे गुणा । सम्मामि० ज० विहत्ति मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० किं० ज० अज? जहण्णा अजहण्णा वा। जहण्णादो अजहण्णा तिहाणपदिदा असंखे०भागन्भहिया संखे भागभ० खे० गुणा वा। अणंताणु०चउक्क० किं ज० अज० १ णि. अज०
जघन्य होती है या अजघन्य ? जघन्य भी होती है और अजघन्य भी । उनमेंसे अजघन्य स्थिति एक समय अधिक जघन्य स्थितिसे लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भाग अधिक तक होती हे। किन्तु इतनी विशेषता है कि भय और जुगुप्साकी स्थिति तीन स्थानपतित होती है। सम्यक्त्व कदाचित् है और कदाचित् नहीं है । यदि है तो उसकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है जो संख्यातगुणी अधिक या असंख्यात गुणी अधिक इन प्रकार दो स्थान पतित होती है । सम्यग्मिथ्यात्व कदाचित् है और कदाचित् नहीं है । यदि है तो उसकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? जघन्य भी होती है और अजघन्य भी। उनमेंसे अजघन्य स्थिति अपनी जघन्य स्थितिकी अपेक्षा-संख्यात गुणी अधिक या असंख्यातगुणी अधिक इस प्रकार दो स्थानपतित होती है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी स्थिति क्या जघन्य होता है या अजवन्य नियमसे अजघन्य होती है जो अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी होती है । सात नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य हाती है जो असंख्यातवें भाग अधिक संख्यातवें भाग अधिक या संख्यातगुणी अधिक इस प्रकार तीन स्थान पतित होती है । इस प्रकार बारह कषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जावोंके सन्निकर्ष जानना चाहिये । भयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके मिथ्यात्व, बारह कषाय, और जुगुप्साकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य १ नियमसे अजघन्य होती है। फिरभी वह अपनी जघन्य स्थितिको अपेक्षा एक समय अधिकसे लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भाग अधिकतक होती है। शेष भंग मिथ्यात्वके समान है । इसी प्रकार जुगुप्साकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये। सन्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है जो अपनी जघन्य स्थितिसे संख्यातगुणी होती है। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? जघन्य भी होती है और अजघन्य भी। उनमेंसे अजघन्य स्थिति अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यातवें भाग अधिक, संख्यातवें भाग
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ विदिविहत्ती ३ असंखे०गुणा । इत्थि० जह• विहत्ति० मिच्छत्त-बारसक०-अट्ठणोक० किं ज० अज० १ . णियमा अज० संखे० गुणा। सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु०चउक्क० मिच्छत्तभंगो । एवं पुरिस० । णवंस० ज० विहत्ति० मिच्छत्त-बारसक-इत्थि-पुरिस०-अरदि-सोगभय-दुगुछ० किं ज़० अज०? णि. अज० संख० गुणा । सम्मत्त-सम्मामि० अणंताणु०चउक्क० मिच्छत्तभंगो । हस्स-रदि० किं ज० अज• ? णियमा अज० वेढाणपदिदा असंख०भागब्भहिया संखे० गुणा । हस्स० जह० विहत्ति० मिच्छत्त-बारसक०अरदि-सोग-भय-दुगुछ० किं ज० अज० १ णियमा अज० संवे०गुणा । एवं णवुस० । सम्मत्त-सम्मामि०-अर्णताणु० चउक० मिच्छत्तभंगो । इत्थि-पुरिस० किं ज० अज? णियमा अज• वेडाणपदिदा असंखे०भागब्भ० संखे गुणा वा । रदि किं ज० अज० ? णि० जहण्णा । एवं रदीए । अरदि० ज० विहत्ति० मिच्छत्त-बारसक०-हस्स-रदि०भय-दुगुंछ० किं ज० अज० १ णि. अज संखे०गुणा । सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु०. चउक्क. हस्सभंगो । तिण्णिवेद० किंज अज० १ णि० अज० वेहाणपदिदा असंखे० अधिक या संख्यातगुणी अधिक इस प्रकार तीन स्थान पतित होती है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियम से अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी होती है। स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके मिथ्यात्व, बारह कषाय और आठ नोकषायों की स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थितिसे संख्यातगुणी होती है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग मिथ्यात्वके समान है। इसी प्रकार पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये । नपुंसकवेदकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके मिथ्यात्व, बारह कषाय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है जो अपनी जघन्य स्थितिसे संख्यात. गुणी होती है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग मिथ्यात्वके समान है। हास्य और रतिकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो असंख्यातवें भाग अधिक और संख्यातगुणी अधिक इस प्रकार दो स्थान पतित होती है। हास्यकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके मिथ्यात्व, बारह कषाय, अरति, शोक, भय और जुगुप्साकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थितिसे संख्यातगुणी होती है। इसी प्रकार नपुंसकवेदका भंग जानना चाहिये । सम्यक्त्व, सम्यांग्मथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग मिथ्यात्वके समान है । स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यातवें भाग अधिक या संख्यातगुणी अधिक इस प्रकार दो स्थान पतित होती है । रतिकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य होती है । इसी प्रकार रतिकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके सन्निकर्ण जानना चाहिये। अरतिकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीके मिथ्यात्व, बारह कषाय, हास्य, रति, भय और जुगुप्साकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थितिसे संख्यातगुणी होती है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग हास्यके समान है। तीनों वेदोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है,
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गा ०२२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिविहत्तियसरिणयासो .. ५०६ भागब्भ० संखे०गुणा वा । सोग० किं ज० अज० ? णि० जहण्णा । एवं सो० । शवरि पंचिं० तिरि जोणिणीसु सम्मत्त० सम्मामिच्छत्तभंगो ।
९८५२. पंचिं तिरि० अपज्ज. मिच्छत्त ज. विहत्ति० सम्मत्त-सम्मामि०बारसक०-णवणोक० जोणिणीभंगो। अणंताणु० चउक्क० किं ज०. अज० १ जहण्णा अजहण्णा वा । जहण्णादो अजहण्णा समयुत्तरमादि कादण जाव पलिदो० असंखे०भागमहिया । सम्मत्त० ज० विहत्ति० मिच्छत्त सोलसक०-णवणोक० किं ज० अज० ? जहण्णा अजहण्णा वा। जहण्णादो अज० तिहाणपदिदा असंखे भागब्भ० संखे० भागब्भ० संखे०गुणा वा। सम्मामि० णि अज० असंखे गुणा । एवं सम्मामि०, णवरि सम्म णस्थि । सोलसक० मिच्छत्तभंगो । भय० जह० मिच्छत्त-सोलसक०-दुगुंछ० किं ज० [अज.] ? अज०, तं तु समयुत्तरमादि कादूण जाव पलिदो० असंखे० . भागब्भ० । सेसं मिच्छत्तभंगो। एवं दुगुकाए। सत्तणोक० जोणिणिभंगो । णवरि अणंताणु० चउक्क० णि० संखे० गुणा । एवं मणुसअपज्ज-पंचि०अपज्ज०-तसअपजो अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यातवें भाग अधिक या संख्यातगुणी अधिक इस प्रकार दो स्थान पतित होती है । शोककी स्थिति क्या जयन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य होती है । इसी प्रकार शाककी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये। किन्तु इतना विशेषता है कि पंचेन्द्रिय तिर्यंच योनिमति जावोंम सम्यक्त्वका भंग सम्य ग्मिथ्यात्वके समान है।
८५२ पंचेन्द्रिय तियेच लब्ध्यपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके सम्यक्त्व, सम्याग्मथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंका भंग योनिमति तिर्यंचोंके समान है। अनन्तानुबन्धा चतुष्कको स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? जघन्य भी होती है और अजघन्य भी। उनमंसे अजघन्य स्थिति अपनी जघन्य स्थितिकी अपेक्षा एक समय अधिकसे लेकर पल्योपमके असख्यातवें भाग अधिक तक होती है । सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नो नाकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? जघन्य भी होती है और अजघन्य भी। उनमेंसे अजघन्य स्थिति अपनी जघन्य स्थितिकी अपेक्षा असंख्यातवें भाग अधिक, संख्यातवें भाग अधिक या संख्यातगुणी अधिक इस प्रकार तीन स्थान पतित होती है। सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थिति नियमसे अजघन्य हाती है जो अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी हाती है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इसक सम्यक्त्व प्रकृति नहीं है । सोलह कषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके सब प्रकृतियोंका सन्निकर्ष मिथ्यात्वके समान है। भयकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके मिथ्यात्व, सोलह कषाय और जुगुप्साकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है फिर भा वह अपनी जघन्य स्थितिकी अपेक्षा एक समय अधिकसे लेकर पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग अधिक तक होती है। शेष प्रकृतियोंका भंग मिथ्यात्वके समान है। इसी प्रकार जुगुप्साकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये। सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके भंग योनिमती तियचोंके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इसके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी स्थिति नियमसे संख्यातगणी होती है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तक, पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक और बस अपर्याप्तक
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जयधवलासेहिदे कसायपाहुडे [ हिदिविहती है ज्जत्ताणं ।
६८५३. देवाणं णारयभंगो। भवण-वाणवेंतराणमेवं चेव । णवरि सम्मत्तः सम्मामि० भंगो : जोदिसि० विदियपुढविभंगो । सोहम्मीसाणादि जाव उवरिमगेवज्जोत्ति मिच्छत्तजह विहत्ति० बारसक०-णवणोक० किं ज. अज० १ णियमा अज० संखे० गुणा। सम्मत्त० किं ज. अज० ? णि. अज. असंखे गुणा । एवं सम्मामि० । सम्मत्त० जह० विह० बारसक०-णवणोक० किं ज० अज० ? णियमा अज० वेढाणपदिदा संखे० भागब्भहिया । कुदो ? उवसमसेटिं चढिय ओदरिदूण दंसणमोहणीयं खविय कदकरणिज्जो होदूण ५ देवेमुप्पण्णस्स संखेन्जभागब्भहियत्तुवलंभादो। संखेनगुणा वा, उवसमसेटिं चढिय दंसणमोहणीयं खत्रिय कदकरणिजो होदण देवेमुप्पण्णस्स संखे० गुणत्तुवलंभादो । किरियाविरहिदसम्मादिहीणं हिदिखंडयघादो णत्थि त्ति भणंताणमाइरियाणमहिप्पारण एवं भणिदं । किरियाए विणा तिव्यविसोहिवसेण हिदिखंडयघादो देवेसु अस्थि त्ति भणताणामहिप्पारण संखेजगुणा चेव । गेरइयभवण-वाण-जोदिसियसम्माइट्ठीणं किरियाए विणा पत्थि हिदिखंडयघादो । कुदो ? साभावियादो। सम्मामि० जह• बिहत्ति० मिच्छत्त०-बारसक-णवणोक० किं ज० जीवोंके जानना चाहिये ।
__६८५३. देवोंके नारकियोंके समान भंग है। भवनवासी और व्यन्तर देवोंके इसी प्रकार जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है। ज्योतिषा देवोंके भंग दूसरी पृथिवीके समान है ।सौधर्म और ऐशान कल्पसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देवोंमें मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थितिसे संख्यातगुणी होती है । सम्यक्त्वकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी होती है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वका भंग जानना चाहिये। सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है जो दो स्थान पतित होती है। उनमेंसे पहली संख्यातवें भाग अधिक होती है क्योंकि जो जीव उपशमश्रेणीपर चढकर और उतरकर अनन्तर दर्शनमोहनीयका क्षय करता हुआ कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि होकर देवोंमें उत्पन्न हुआ है उसके उक्त प्रकृतियों की स्थिति संख्यातवें भाग अधिक देखी जाती है। या संख्यातगुणी अधिक होती है क्योंकि उपशमश्रेणीपर चढ़कर और वहांसे उतरकर दर्शनमोहनीयका क्षय करता हुआ कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि होकर जो देवोंमें उत्पन्न हुआ है उसके उक्त प्रकृतियोंकी स्थिति संख्यातगुणी अधिक देखी जाती है । क्रिया रहित सम्यग्दृष्टियोंके स्थितिकाण्डकघात नहीं होता है ऐसा माननेवाले आचार्यों के अभिप्रायानुसार उक्त कथन किया है। परन्तु जो आचार्य क्रियाके बिना तीव्र बिशुद्ध परिणामोंसे देवोंमें स्थितिकाण्डकघात होता है ऐसा मानते हैं उनके अभिप्रायानुसार उक्त प्रकृतियोंकी स्थिति संख्यातगुणी ही होती है। तो भी नारकी, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी सन्यग्दृष्टि जीवोंके क्रियाके बिना स्थितिकाण्डकघात नहीं होता है क्योंकि ऐसा स्वभाव है । सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके
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गा० २२ ] , हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिविहत्तियसरिणयासो .
५११ अन ? णि अज० संखे०गुणा । अणंताणु चउक्क किं ज० अज० १ णि० अज० असं गुणा । अणंताणु० कोधज० मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० किं ज. अज.? णि अज० संखे०गुणा । सम्मत्तसम्मामि० किं ज० अज़० ? णि अज० असंखे० गुणा । तिण्णिक. किं ज. अज० १ णि० जहण्णा । एवं तिण्हं कसायाणं । अपच्चखाणकोधज विहत्ति० एक्कारसक-णवणोक० किं ज. अज० १ णि० जहण्णा । एवमेकारसक०-णवणोकसायाणं ।।
६.८५४. अणुद्दिसादि जाव सव्वदृसिद्धि त्ति मिच्छत्त जह० विहत्ति० बारसक० णवणोक. किं० ज० अज०१ णि० अज० संखे०गुणा। सम्मत्त किं ज० अज. ? णि. अज. असंखे गुणा। सम्मामि० किं ज. अज० ? णि० जहण्णा । एवं सम्मामि० । सम्मत्त० जह० विहत्ती. बारसक०-णवणोक० किं ज० अज० ? णि० अज. संखेगुणा । अथवा संखे भागब्भ० संखे गणा त्ति वेहाणपदिदा । एत्थ कारणं पुव्वं व वत्तव्यं । अणंताणु०कोध० ज०विह० मिच्छत्त-सम्मामि०-बारसक०-णवणोक० मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थितिसे संख्यातगुणी होती है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी होती है। अनन्तानुबन्धी क्रोधकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थितिसे संख्यातगुणी होती है। सम्यक्त्व और सम्यरिमथ्यात्वकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी होती है। अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन कषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य होती है । इसी प्रकार अनन्तानुवन्धी मान आदि तीन कषायोंकी जघन्य स्थितिवभिक्तिवाले जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये । अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके अप्रत्याख्यानावरण मान आदि ग्यारह कषाय,
और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जयन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य होती है। इसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरण मान आदि ग्यारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके सन्निकर्ण जानना चाहिये।
१८५४. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है जो अपनी जघन्य स्थितिसे संख्यातगुणी होती है। सम्यक्त्वकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी होती है । सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य होती है। इसी प्रकार सम्यग्मिध्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये । सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य है जो अपनी जघन्य स्थितिसे संख्यातगुणी है। अथवा संख्यातवेंभाग अधिक या संख्यातगुणी अधिक इस प्रकार दा स्थान पतित है। यहाँ पर कारण पहलेके समान कहना चाहिये । अनन्तानुबन्धी क्रोधकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके
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[ हिदिविहत्ती ३
जयधवलास हिदे कसायपाहुडें किं ज० अज० ? णि० अज० खे० गुणा । सम्मत्त० किं ज० अज ? णि० अज० संखे० गुणा । तिष्णिक० किं ज० ज० ? णि० जहण्णा । एवं तिन्हं कसाया। अपच्चक्खाण-कोधज० एक्कारसक० - णवणोक० [ कि० जह० ज० १] णि० जहण्णा । एबमेक्कारसक० णवणोकसायाणं ।
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६८५५, इंदियाणुवादेण एईदिएसु मिच्छत्तजह० विहत्ति० सोलसक० -भय- दुर्गुळ किं० ज० अज० ? जहण्णा अजहण्णा वा । जहण्णादो अजहण्णा समयुत्तरमादिं काढूण जाव पलिदो ० असंखे० भागेणव्भहिया । सम्मत्त सम्मामि० सिया अस्थि सिया णत्थि । जदि अस्थि किं ज० अज० ? जहण्णा अजहण्णा वा । जहण्णादो अज० तिद्वाणपदिदा संखे० भागन्भहिया संखे० गुणा वा असंखे० गुणा वा । सत्तणोक० किं ज० अज० ? णि० अज० असंखे • भागन्भहिया । एवं सोलसकसाय-भय-दुगुंछाणं । णवरि भय जह० दुर्गुछ० णियमा जहण्णा । एवं दुगुंछ० । भय-दुगुंछाणं जहणहिदीए संतीए कथं सोलसकसायाणमसंखे० भागन्भहियत्तं ? ण, सोलसकसायाणं जहणहिदीदो अब्भहिर्याइदिमिथ्यात्व, सम्यग्मध्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायों की स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थिति से संख्यातगुणी होती है । सम्यक्त्वकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी होती है । अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन कषायों की स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य होती है । इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन कषायों की जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये । श्रप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके अप्रत्याख्यानावरणमान आदि ग्यारह कषाय और नौ नोकषायों की स्थिति नियमसे जघन्य होती है । इसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरण मान आदि ग्यारह 'कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थिति विभक्ति के धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये । ८५. इन्द्रिय मार्गणा के अनुवादसे एकेन्द्रियों में मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? जघन्य भी होती है और अजवन्य भी । उनमें से अजघन्य स्थिति अपनी जघन्य स्थितिकी अपेक्षा एक समय अधिक से लेकर पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक तक होती है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व कदाचित् है और कदाचित् नहीं । यदि है तो उसकी स्थिति क्या जघन्य होती ह या अजघन्य ? जघन्य भी होती है और अजघन्य भी । उनमें से अजघन्य स्थिति अपनी जघन्य स्थिति से संख्यातवें भाग अधिक संख्यातगुणी अधिक या असंख्यातगुणी अधिक इस प्रकार तीन स्थानपतित होती । सात नोकषायों की स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे
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जघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थिति से असंख्यातवें भाग अधिक होती है । इसी प्रकार सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये | किन्तु इतनी विशेषता है कि भयकी जवन्य स्थितिवाले जीवके जुगुप्साकी स्थिति नियमसे जघन्य होती हैं । इसी प्रकार जुगुप्साकी जवन्य स्थितिवाले जीवके भयकी स्थिति नियमसे जन्य होती है।
शंका- भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिके रहते हुए सोलह कषायों की स्थिति असंख्यातवें भाग अधिक कैसे होती है ?
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गा० २२ ) हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहात्तयसरिणयासो बंधे जादे वि भय-दुर्गुकाणमावलियमेत्तकालं जहण्णहिदिविहत्तिदंसणादो। कसायाणं पुण जहण्णहिदिविहत्तीए संतीए भय-दुगुंछाओ समयुत्तरमादिं कादण जाव आवलियमेत्तेण अब्भहियाओ; एक्कस्स वि कसायस्स अजहण्णहिदीए भय-दुगुंडामु संकंताए अप्पिदकसायस्स वि जहण्णहिदिभावविणासादो। पढम-सत्तमपुढवि०-पंचिंतिरिक्खभवण०-वाण-तरादिसु वि एसो अत्यो परूवेयव्यो । सम्मत्त० जह• विहत्ति० मिच्छत्त०सोलसक--णवणोक० किं ज० [अन.] ? जहण्णा अजहण्णा वा । जहण्णादो अज. तिहाणपदिदा असंखे०भाग-भहि० संखे०भागब्भहिया संखे० गुणा वा । सम्मामि० किं ज. अज० १ णि अन. असंखे०गणा । एवं सम्मामि० । णवरि सम्मत्तं पत्थि । इत्थि० ज०विहत्ति० मिच्छत्त-सोलसक-अहणोक० किं ज. अज. ? णि. अज० असंखे०भागभ० । सम्मत्त-सम्मामि० मिच्छत्तभंगो । एवं छण्णोकसायाणं । एवं सव्वएइंदिय-पंचकायाणं ।
१८५६. विगलिदिएसु मिच्छत्त० जह० विहत्ति. सोलसक०-भय-दुगुछ० किं ज० अज० १ जहण्णा अजहण्णा वा। जहण्णादो अज० समयुत्तरमादि कादूण जाव
समाधान-नहीं, क्योंकि सोलह कषायोंके जघन्य स्थितिसे अधिक स्थितिबन्धके होने पर भी भय और जुगुप्साकी एक श्रावलि कालतक जघन्य स्थितिविभक्ति देखी जाती है।
परन्तु कषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिके रहते हुए भय और जुगुप्साकी स्थिति अपनी जघन्य स्थितिकी अपेक्षा एक समयसे लेकर एक आवलि कालतक अधिक होती है क्योंकि एक भी कषायकी अजघन्य स्थितिके भय और जुगुप्सामें संक्रान्त होने पर विवक्षित कषायकी जघन्य स्थितिका भी विनाश हो जाता है। पहली और सातवीं पृथिवीमें तथा पंचेन्द्रिय तियेच, भवनवासी, और व्यन्तरादिक देवोंमें भी इस अर्थका कथन करना चाहिये । सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? जघन्य भी होती है और अजघन्य भी। उनमेंसे अजघन्य स्थिति अपनी जघन्य स्थितिकी अपेक्षा असंख्यातवें भाग अधिक, संख्यातवें भाग अधिक या संख्यातगुणी अधिक इस प्रकार तीन स्थान पतित होती है । सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है। जो कि जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी होती है । इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति के धारक जीवके सन्निकर्ष कहना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इसके सम्यक्त्व प्रकृति नहीं होती है। स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके मिथ्यात्व, सोलह कषाय और आठ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो जघन्य स्थितिसे असंख्यातवें भाग अधिक होती है। सम्यक्त्व
और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग मिथ्यात्वके समान है। इसी प्रकार छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये। इसी प्रकार सब एकेन्द्रिय और पाँच स्थावरकाय जीवोंके जानना चाहिये।
६८५६ विकलेन्द्रियोंमें मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सोलह कषाय भय और जुगुप्साकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? जघन्य भी होती है और अजघन्य भी। उनमेंसे अजघन्य स्थिति अपनी जघन्य स्थितिकी अपेक्षा एक समय अधिकसे
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बयधवस्तासहिदे कसायपाहुडे
[डिदिविहत्ती ३ पलिदो. असंखे०भागभहिया। णवरि भय-दुगछाओ तिहाणपदिदा। सम्मत्तसम्मामि० एइंदियभंगो। सत्तणोक० किं. ज. अज० १ णि. अज० तिहाणपदिदा असंखे०भागब्भहिया संखे भागब्भ० संखेन्गुणब्भहिया वा । एवं सोलसकसाय-भयदुगुंडाणं । णवरि भयजह० दुगु० किं ज० [अजह०] ? अजह० तं तु समयुत्तरमादि कादण जाव पलिदो० असंखे० भागभ० । एवं दुगु । सम्मत्त-सम्मामि० एइंदियभंगो। इत्थि० ज विहत्ति० मिच्छत्त-सोलसक० किं जह० अजहण्णा १ णि. अज० संखे० भागब्भहिया । अहणोक० किं ज० अज० १ णियमा अज० संखेगुणब्भहिया । सम्मत्त-सम्मामि० मिच्छत्तभंगो। एवं पुरिस० । णवुस० ज० विहत्ति० मिच्छत्तसोलसक०-इत्थि-पुरिस०-अरदि-सोग-भय-दुगछ० इत्थिवेदभंगो। सम्मत्त-सम्मामि० एइंदियभंगो । हस्सरदि० किं ज. अजह. ? णि० अज० वेहाणपदिदा असंखे भागब्भहिया संखे० गुणब्भहिया वा। हस्सज० विहत्ति० मिच्छत्त०-सोलसक०-णवुसअरदि-सोग-भय-दुगुछ०-सम्मत्त०-सम्मामि० इत्थिवेदभंगो। इत्थि-पुरिस० किं ज० अज० १ णि. अज वेढाणपदिदा असंखे०भागब्भहिया संखे गुणब्भहिया वा । रदि. लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भाग अधिक तक हाती है। किन्तु इतनी विशेषता है कि भय और जुगुप्साकी स्थिति तीन स्थानपतित होती है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग एकेन्द्रियों के समान है । सात नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है. जो अपनी जघन्य स्थितिकी अपेक्षा असंख्यातवें भाग अधिक, संख्यातवें भाग अधिक या संख्यातगुणी अधिक इस प्रकार तीन स्थान पतित होती है। इसी प्रकार सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि भयकी जघन्य स्थितिवालेके जुगुप्साकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है। जो अपनी जघन्य स्थितिकी अपेक्षा एक समय अधिकसे लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भाग अधिक तक होती है। इसी प्रकार जुगुप्साके विषयमें जानना चाहिये। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्य त्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके एकेन्द्रियोंके समान भंग है। स्त्रीवेदकी जघन्य स्थिति विभक्तिके धारक जीवके मिथ्यात्व और सोलह कषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो जयन्य स्थितिसे संख्यातवें भाग अधिक होती है। आठ नोंकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो जघन्य स्थितिसे संख्यातगुणी अधिक होती है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग मिथ्यात्वके समान है। इसी प्रकार पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये । नपुंसकवेदकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके मिथ्यात्व, सोलह कषाय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका भंग स्त्रीवेदके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग एकेन्द्रियोंके समान है। हास्य और रतिकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो असंख्यातवें भाग अधिक या संख्यातगुणी अधिक इस प्रकार दो स्थान पतित होती है। हास्यकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग स्त्रीवेदके समान है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो
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गी० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिविहत्तियसरिणयासो किं ज. अज० १ णि० जहण्णा । एवं रदीए । अरदि० ज० विहत्ति० मिच्छत्तसोलसक-हस्स-रदि-भय-दुगुछा०-सम्मत्त-सम्मामि० इस्थिवेदभंगो। तिण्णिवेद० किं ज० अज० १ णि. अज० वेढाणपदिदा संखे भागभहिया संखेजगणब्भहिया वा । सोग० किं ज. अज ? णि० जहण्णा । एवं सोग० ।।
८५७. ओरालियमिम्स तिरिक्खोघं । णवरि अणंताणु०चउक्क० मिच्छत्तभंगो। वेउव्वियकायजोगीसु मिच्छत्तज विहत्ति सम्मत्त-सम्मामि० किं ज० अज. ? णि• अजहण्णा असंखेगुणा । बारसक०-णवणोक० किं ज० अज० १ णि० अज० संखे०गुणा । सम्मत्त० ज० विहत्ति० मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० किं ज० अज० ? णि अज० संखेगणा । सम्मामि०-अणंताणु०चउक्क० किं ज० अज० ? णि. अज० असंखेगुणा । एवं सम्मामि० । णवरि सम्मत्तं णत्थि । अणंताणु०-कोधज विहत्ति० सम्मत्त०-सम्मामि० किं ज० अज० ? णि. अज० असंखे० गुणा । मिच्छत्त०-बारसक०णवणोक० किं ज. अज० ? णि. अज० संखे०गणा । तिण्णिक० किं ज. [ अज.] असंख्यातवें भाग अधिक या संख्यातगुणी अधिक इस प्रकार दा स्थान पतित होती है। रतिकी स्थिति क्या जवन्य होती है या अजयन्य ? नियमसे जघन्य हाती है। इसी प्रकार रतिकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये । अरतिकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके मिथ्यात्व, सोलह कषाय, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग स्त्रीवेदके समान है। तीनों वेदोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है। जो संख्यातवें भाग अधिक या संख्यातगुणी अधिक इस प्रकार दो स्थान पतित होती है । शोककी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य होती है। इसी प्रकार शोककी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके जानना चाहिर
७. औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके सामान्य तियचोंके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके अनन्तानुबन्धी चतुष्क का भंग मिथ्यात्वके समान हे । वैक्रियिककाययोगियोंमें मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थिति क्या जघन्य है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य है, जो जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी है। बारह कषाय और नो नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो जघन्य स्थितिसे संख्यातगुणी होती है। सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवक मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो जघन्य स्थितिसे संख्यातगुणी होती है। सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो जघन्य स्थितिसे असख्यातगुणी होती है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इसके सम्यक्त्व प्रकृति नहीं होती है। अनन्तानुबन्धी क्रोधकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी होती है। मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायों की स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो जघन्य स्थितिसे संख्यातगुणी होती है। अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन कषायोंकी स्थिति क्या
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येधवलासहिदे कसायपाहुडे
[द्विदिविहत्ती ३ णि० जह० । एवं तिण्हं कसायाणं । अपच्चक्खाणकोधज० विहत्ति० एक्कारसक०णवणोक• कि ज० अज० १ णि. जहण्णा । एवमेक्कारसक०-णवणोकसायाणं ।
८५८ वेउव्वियमिस्स० मिच्छत्त० ज०विह० बारसक०-णवणोक० किं ज. अज० ? णि. अज० सं०गुणा । सम्मत्त-सम्मामि० किं ज० अज० १ णि० अज. असंखे० गुणा । सम्मत्तज विह. बारसक०-णवणोक० किं ज. अज० ? णि. अज. विहाणपदिदा असंखे०भागब्भहिया संखे गुणा वा। सम्मामि० ज० वि० मिच्छत्त-सोलसक०-भय-दुगुंछ० किं० ज० अज० ? णि० अज० संखे०गुणा । सत्तणोक० किं ज. अज० ? जहण्णा अजहण्णा वा जहण्णादो अजहण्णा तिहाणपदिदा असंखे०भागब्भहिया संखे० भागब्भ० संखे गुणा वा। अपच्चक्खाणकोध० ज० वि० एकारसक०-भय-दुगुछ० किं ज० अज० १ णि जहण्णा । सत्तणोक० किं ज० अज० १ णि० अज० संखेगुणा। एवमेकारसकसाय-भय-दुगुंछाणं । अणंताणु० कोध०
जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य होती है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन कषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये। अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके अप्रत्याख्यानावरण मान आदि ग्यारह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य होती हैं। इसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरण मान आदि ग्यारह कवाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये ।
६८५८वैक्रियिकमिश्रकाययोगियों में मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो जघन्य स्थितिसे संख्यातगुणी है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य हाती है। जो जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी होती है। सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके बारह कषाय और नौ नोकषायांकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो असंख्यातवें भाग अधिक या संख्यातगुणी इस प्रकार दो स्थान पतित होती है । सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके मिथ्यात्व. सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो जघन्य स्थितिसे संख्यातगुणी होती है । सात नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य । जघन्य भी होती है और अजघन्य भी । उनमेंसे अजघन्य स्थिति अपनी जघन्य स्थितिकी अपेक्षा असंख्यातवें भाग अधिक, संख्यातवें भाग अधिक या संख्यातगुणी अधिक इस प्रकार तीन स्थान पतित होती है । अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके अप्रत्याख्यानावरण मान आदि ग्यारह कपाय, भय
और जुगुप्साकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य होती है। सात नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजधन्य होती है, जो जघन्य स्थितिसे संख्यातगुणी होती है। इसी प्रकार ग्यारह कषाय भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये । अनन्तानुबन्धी क्रोधकी जघन्य स्थितिविभक्तिके
१ आ. प्रतौ 'अज.' इति पाठः ।
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गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिडिदिविहत्तियसरिणयासो
५१७ । जह हिदिवि० मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० किं ज० अज० १ णि० अज. संखे०गुणा । तिणि कसाय० णियमा जहण्णा । एवं तिहं कसायाणं । इत्थि० ज० विह०मिच्छत्त-सोलसक०-अहणोक० किं ज. अज० ? णि• अज० संखे०गुणा । सम्मत्तसम्मामि० सिया अत्थि सिया णत्थि । जइ अस्थि किं ज. अज० ? जहण्णा अजहएणा वा । जहण्णादो अजहण्णा वेहाणपदिदा संखे०गुणा असंखे०गुणा वा । वरि सम्म० ज० णत्थि । एवं पुरिस० । णवुस० ज० वि० मिच्छत्त०-सोलसक०-छण्णोक० किं ज० अज० १णि अज० संखे०गणा। सम्मत्त-सम्मामि० इत्थिभंगो। हस्स-रदि० किं ज० अज० १ णि अज० विहाणपदिदा असंखे०भागब्भहिया संखे० गुणा वा । हस्स० जह० विह. मिच्छत्त-सोलसक०-पंचणोक० किं ज० अज० ? णि० अज० संखे गुणा। सम्मत्त-सम्मामि० इत्थिभंगो। इत्थि-पुरिस० किं ज० अज. ? णि० अज० विहाणपदिदा असंखे भाग०भहिया संखे०गुणा वा। रदि० किं ज. अज. ? णि० ज० । एवं रदीए । एवं चेव अरदि-सोगाणं । णवरि णवूस० वेढाणपदिदा । धारक जावक मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नाकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होता ह या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है । जो अपनी जघन्य स्थितिसे संख्यातगुणी होती है। (सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग मिथ्यात्वके समान जानना)। तथा अनन्तानुबन्धीमान आदि तीन कषायोंकी स्थिति नियमसे जघन्य होती है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धा मान आदि तान कषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये । स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके मिथ्यात्व, सोलह कषाय और आठ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो जघन्य स्थितिसे संख्यातगुणी होती है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व कदाचित् हैं और कदाचित् नहीं हैं। यदि हैं तो उनकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? जघन्य भी होती है और अजघन्य भा । उनमेंसे अजघन्य स्थिति अपनी जघन्य स्थितिकी अपेक्षा संख्यातगुणी अधिक या असंख्यातगुणी अधिक इस प्रकार दो स्थान पतित होती है। किन्तु विशेषता इतनी है कि इसके सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति नहीं होती है। इसी प्रकार पुरुषवेदा जावके सन्निकष जानना चाहिये । नपुंसकवेदकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवक मिथ्यात्व, सालह कषाय और छह नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होता है। जो अपनी जघन्य स्थितिसे संख्यातगुणी होती है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग स्त्रीवेद के समान है। हास्य और रतिको स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यातवें भाग अधिक या संख्यातगुणी अधिक इस प्रकार दो स्थान पतित होती है । हास्यकी जघन्य स्थितिविभक्तिक धारक जीवके मिथ्यात्व, सोलह कषाय और पांच नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होता हे या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थितिसे संख्यातगुणा होती है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग स्त्रीवेदीके समान है । स्त्रीवेद और पुरुषवेदका स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यातवें भाग अधिक या संख्यातगुणी अधिक इस प्रकार दो स्थान पतित होती है। रतिकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य होती है। इसी प्रकार रतिकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये। तथा इसी प्रकार
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जयघवलासहिदे कसायपाहुदे .. द्विदिविहत्ती ३ ९८५६. श्राहार० मिच्छत्तज०वि० सम्मत्त-सम्मामि० किं ज० अज० १ णि. जहण्णा । बारसक०-णवणोक० किं ज० अज० १.णि अज० संखे गुणा । एवं सम्मत्तसम्मामि० । अणंताणु०कोधज० मिच्छत्त-सम्मत्त सम्मामि०-बारसक०-णवणोक० किं ज० अज० १ णि. अज० संखे० गुणा । तिण्णिक० किं ज० अज० १ णि. जहण्णा । एवं तिण्हं कसायाणं । अपच्चक्खाणकोधज० वि० एकारसक०-णवणोक. किं ज. अज० १ णि जहण्णा । एकमेक्कारसकसाय-णवणोकसायाणं । एवमाहारमि० । कम्मइय. ओरालिय मिस्सभंगो। णवरि सत्तणोक. अण्णदरज० मिच्छ० सोलसक० सेसणोक० णिय० अज० विहाणपदिदा असंखे भागब्भहिया संखेगुणब्भहिया ।
____८६०. वेदाणुवादेण इत्थि० पंचिंदियभंगो । णवरि इत्थि ज०वि० सत्तणोक०चत्तारि संज० किं ज० अज० १ णि. जहण्णा । एवं सत्तणोकसाय-चत्तारिसंजलणाणं । णवंस. जह० विह० अहणोक०-चदुसंज० णि० अज० असंखे० गुणा । एवं णवंस, अरति और शोककी जघन्य स्थितिविभक्तिक धारक जीवक सन्निकष जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेदकी स्थिति दो स्थान पतित होती है।
८५६. आहारक काययोगियोंमें मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवों में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य हाती है। बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थितिसे संख्यातगुणी होती है । इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवक सन्निकष जानना चाहिये । अनन्तानुबन्धी क्रोधकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नाकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती हे या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जयन्य स्थितिसे संख्यातगुणी होती है । अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन कषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य हाती है । इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन कषायोंकी जयन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये । अप्रत्याख्यानावरण काधकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जावक ग्यारह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य होती है। इसी प्रकार ग्यारह कषाय और नो नोकषायोंका जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जावके सनिकर्ष जानना चाहिये । इसी प्रकार आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके जानना चाहिये । कामणकाययोगियोक .
औदारिकमिश्रकाययागियाक समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सात नोकषायोमेसे किसी भा प्रकृतिका जघन्य स्थितिबालके मिथ्यात्व, सोलह कषाय और शेष नोकषायोंकी स्थिति नियमसे अजघन्य हाती है, जो असंख्यातवें भाग अधिक या संख्यातगुणी अधिक इस प्रकार दो स्थान पतित हाती है।
८५०. वद मागणाके अनुवादसे स्त्रीवेदियोंका भंग पंचेन्द्रियोंके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जोवक सात नाफपाय और चार संज्वलनों की स्थिति क्या जघन्य होती है या अजवन्य ? नियमसे जघन्य होती है। इसी प्रकार सात नोकपाय और चार संज्वलनों की जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये ।
१ श्रा० प्रतौ 'सेसे पोक' इति पाठः।
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गा• २२] हिदिविहसीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तियसरिणयासो
५१६ पुरिस० एवं चेव । णवरि पुरिस० ज० वि० चत्तारिक० किं ज. अज० १ णि. जहण्णा । एवं चदुण्हं. संजलणाणं । छण्णोक. पुरिस-चदुसंज. णि. अज० संखे गुणा।
८६१, अवगदमिच्छत्तज० वि० सम्मत्त-सम्मामि० किं ज० अज.? णि. जहण्णा । अहकसाय० इत्थि-णस० किं ज० अज.? णि. अज० संखेगुणा । चदुसंज०-सत्तणोक किं० ज० अज० ? णि अज० असंखे०गुणा । एवं सम्म०सम्मामि० । अपच्चक्रवाणकोधज वि० मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्माभिः पत्थि ? सत्तक०इत्थि-णवुस किं० अज० १ णि० जहण्णा । चत्तारिसंजल०-सत्तणोक० किं ज० अज० ? णि. अज० असंखे गुणा । एवं सत्तकसायाणं । इत्थि ज. वि. चत्तारिसंज-सत्तणोक० किं. ज. अज० १ णि. अज० असंखेगुणा । अहक०-णवुस० णि० जहण्णा । एवं णवुस । सत्तणोक०-चत्तारिसंजलणाणमोघं । नपुंसकवेदकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके आठ नोकषाय और चार संज्वलनोंकी स्थिति नियमसे अजघन्य होती है जो अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी होती है। इसी प्रकार नपुंसकवेदी जीवके जानना चाहिये । पुरुषवेदी जीवके भी इसी प्रकार जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके चार संज्वलन कषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य होती है। इसी प्रकार चार संज्वलनोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये। छह नोकषायोंकी जघन्य स्थिति विभक्तिके धारक जीवके पुरुषवेद और चार संज्वलनोंकी स्थिति नियमसे अजघन्य होती है जो जघन्य स्थितिसे संख्यातगुणी होती है।
६८६१. अपगतवेदियोंमें मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सम्यक्त्व सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य होती है । आठ कषाय, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजवन्य होती है जो जवन्य स्थितिसे संख्यातगुणी होती है । चार संज्वलन और सात नोकषायों की स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य १ नियमसे अजघन्य होती है । जो जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी होती है। इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये । अप्रत्याख्यान क्रोधकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये तीन प्रकृतियाँ नहीं हैं। सात कषाय, स्त्रीवंद और नपुंसकवेदकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य होता है । चार संज्वलन और सात नोकपायोंकी स्थिति क्या जघन्य हाती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होता है जो जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी होती है। इसी प्रकार सात कषायोंकी जयन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये । स्त्रीवेदकी जघन्य स्थिति विभक्तिके धारक जीवके चार संज्वलन और सात नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी होती है। आठ कषाय और नपुंसकवेदकी स्थिति नियमसे जघन्य होती है । इसी प्रकार नपुंसकवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति के धारक जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये । सात नोकषाय और चार सज्वलनोंकी जयन्य स्थिति विभक्तिके धारक जीवोंके ओघके समान जानना चाहिये।
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जयघवलासहिदे कसायपाहुडे
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९८६२. कसायाणुवादेण कोध० पंचिदियभंगो । णवरि कोध० ज०वि० तिण्णिसंज० किं ज० ज० १ णि० जहण्णा । एवं तिन्हं संजलणाणं । एवं माण० । णवरि दोण्णि० संजल० णि० जहण्णा १ एवं माय० । णवरि एगसंज० णियमा जहण्णा ।
९ ८६३ अकसा० मिच्छत्तज० वि० सम्मत्त सम्मामि० किं ज० अ० १ णि० जहण्णा । बारसक० णवणोक ० किं ज० अज० १ णि० ज० संखे० गुणा । एवं सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणं । अपच्चक्खाणकोधन० वि० एक्कारसक० णवणोक० किं ज० ज० १ णि० जहण्णा । एवमेक्कारसक० णवणोकसायाणं । एवं सुहुमसांपराय-जहाक्वादाणं । णवरि सुहृम० लोभसंज० जह० वि० सेसं णत्थि । सेस० जह० लोभसंज० णिय० ज० संखे ० गुणा |
०
१८६४. णाणाणुवादेण मदिसुअण्णा तिरिक्खोघं । णवरि अणंतागु० चउक० मिच्छत्तभंगो । सम्मत्त • सम्मामिच्छत्तभंगो । एवमभवसि० मिच्छायिहि० असण्णी० । वरि अभवसिद्धिएसु सम्मत्त ० सम्मामि० णत्थि । विहंग० मिच्छत्त ज० वि० सोलसक०
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९ ८६२. कषाय मार्गणा के अनुवाद से क्रोधी जीवका पंचेन्द्रियोंके समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि क्रोध की जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके तीन संज्वलनोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य होती है । इसी प्रकार मान आदि तीन संज्वलनोंकी जघन्य स्थिति विभक्तिवाले जीवोंके सन्निकर्षं जानना चाहिये। इसी प्रकार मानी जीवके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इसके माया आदि दो संज्वलनों की स्थिति नियमसे जघन्य होती है । इसी प्रकार मायी जीवके जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इसके लोभ संज्वलन की स्थिति नियमसे जघन्य होती है ।
I
§ ९ ८६३. कषायरहित जीवोंमें मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य होती है । बारह कषाय और नौ नोकषायों की स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो जघन्य स्थिति से संख्यातगुणी होती है । इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवोंके जानना चाहिये । अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके शेष ग्यारह कषाय और नौ नोकषायों की स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य होती है । इसी प्रकार शेष ग्यारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवोंके सन्निकर्ष जानना चाहिये। इसी प्रकार सूक्ष्म सांपरायिक संयत और यथाख्यातसंयत जीवों के जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि सूक्ष्म सांपराय • गुणस्थान में लोभ संज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके शेष प्रकृतियाँ नहीं हैं। तथा शेष प्रकृतियों की जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके लोभसंज्वलनकी स्थिति नियमसे अजघन्य होती है जो जघन्य स्थिति से असंख्यातगुणी होती है ।
९८६४. ज्ञान मार्ग के अनुवाद से मत्यज्ञानी जीवोंमें सामान्य तिर्यंचों के समान कथन जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग मिथ्यात्वके समान है तथा सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्व के समान है । इसी प्रकार अभव्य, मिध्यादृष्टि और असंज्ञी जीवों के जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि अभव्य जीवोंके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये दो प्रकृतियां नहीं हैं । विभंग ज्ञानियोंमें मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिके
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गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तियसरिणयासो णवणोक० किं ज० अज० १ णि० जहण्णा । सम्मत्त०-सम्मामि० मदिअण्णाणिभंगो। एवं सोलसक० णवणोकसायाणं । सम्मत्त० जह० विह० मिच्छत्त०-सोलसक०-णवणोक० किं ज० [अज०] ? अज० । तं तु तिहाणपदिदा । सम्मामि किं ज० अज०१ णि. अज० असंखे गुणा । एवं सम्मामि० ? णवरि सम्मत्तं गत्थि ।
६८६५. आभिणि-सुद०-श्रोहि० ओघभंगो। णवरि सम्मामिच्छत्तस्स क्खवणाए जहण्णहिदी कायव्वा । एवं संजद०-मणपज्ज०-सामाइय-छेदो०-ओहिदस०सम्मादिहीणं । णवरि मणपज्ज० इत्थि-णवूस सामिणो जाणिदव्वा । सामाइय-छेदो. तिण्णिसंज०-णवणोक०ज० वि० लोभसंज० कि ज. अज० ?णि० अजह० संखेगुणा ।
८६६ परिहार० मिच्छत्त००वि० सम्मत्तसम्मामि० किं ज० अज० १ णि. अज० असंखे०गुणा । बारसक-णवणोक० किं ज. अज० १ णि अज० संखेगुणा। सम्मत्त०ज०वि० बारसक-णवणोक० किं ज. अज० १ णि० अज० वेढाणपदिदा । सम्मामि०ज०वि० सम्मत्त० किं ज० अज० ? णि० अज० असंखेगुणा । सेस. धारक जीवके सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य होती है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग मत्यज्ञानियोंके समान है। इसी प्रकार सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवोंके सन्निकर्ष जानना चाहिये । सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीवके मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? अजघन्य होती है जो तीन स्थानपतित होती है। सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है जो जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी होती है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इसके सम्यक्त्वप्रकृति नहीं है।
८६५ आभिनिबोधक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंका भंग ओघके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति क्षपणाके समय ही कहनी चाहिये। इसी प्रकार संयत, मनःपर्ययज्ञानी, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, अवधिदर्शनी और सम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि मनःपर्ययज्ञानियोंमें स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके स्वामीको जानकर कहना चाहिये । सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयतोंमें तीन संज्वलन और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंके लोभसंज्वलनकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है जो अपनी जघन्य स्थितिसे संख्यातगुणी होती है।
१८६६. परिहार विशुद्धिसंयतोंमें मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है जो जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणो होती है। बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है जो जघन्य स्थितिसे संख्यातगुणी होती है । सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य १ नियमसे अजघन्य होती है जो दो स्थानपतित होती है। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके सम्यक्त्वकी स्थिति क्या जघन्य होती है या
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પ૨૨
जषधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ सम्मत्तभंगो । अणताणु०कोध० जह० दंसणतिय-तिण्णिकसा० ओघं । सेसं मिच्छत्तभंगो । एवं तिहं कसायाणं । अपच्चक्खाणकोध० ज० वि० एक्कारसक०-णवणोक० किं ज. अज० १ णि० जहण्णा । एवमेक्कारसक० णवणोकसायाणं । एवं संजदासंजदाणं ।
६.८६७. असंजद० मिच्छत्त० ज० वि० सम्मत्त०-सम्मामि० किं ज० अज०। णि. अज० असंखे गुणा । बारसक०-णवणोक० किं ज० अज० १ णि० अज० संखे०गुणा । सम्मत्त० ज० वि० बारसक०-णवणोक० कि० ज० अज.? णियमा अज० संखेज्जगुणा। सम्मामि० ज० वि० सम्मत्त-अणंताणु०चउक्क० सिया अस्थि सिया पत्थि । जदि अत्थि णि असंखे०गुणा । बारसक० णवणोक० किं ज० अज० १ जहण्णा अजहण्णा वा । जहण्णादो अज० तिहाणपदिदा । सेसं तिरिक्खोघं । णवरि मिच्छत्त० अर्णताणु० चउक्कभंगो।
६८६८. किण्ह-णील-काउ० तिरिक्खोघं । गवरि किण्ह-णीललेस्सासु सम्मत्त०सम्मामिच्छत्तभंगो । तेउ०-पम्मपरिहार भंगो । णवरि सम्मामि० ओघं ।
अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है जो जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी होती है। शेष प्रकृतियोंका भंग सम्यक्त्वके समान है। अनन्तानुबन्धी क्रोधकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके तीन दर्शन मोहनीय और अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन कषायोंका कथन ओघके समान है । तथा शेष प्रकृतियोंका भंग मिथ्यात्वके समान है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन कषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंके सन्निकर्ष जानना चाहिये। अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके शेष ग्यारह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य होती है। इसी प्रकार शेष ग्यारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंके सन्निकर्ण जानना चाहिये । इसी प्रकार संयतासंयतोंके जानना चाहिये ।
१८६७. असंयतोंमें मिथ्याश्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है जो जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी होती है। सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थितिसे संख्यातगुणी होती है। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्क कदाचित् हैं और कदाचित् नहीं हैं। यदि हैं तो उनकी स्थिति नियमसे अजघन्य होती है, जो अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी होती है। बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? जघन्य भी होती है और अजघन्य भी। उनमेंसे अजघन्य स्थिति जघन्य स्थितिसे तीन स्थान पतित होती है। शेष कथन सामान्य तियंचोंके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्वका भंग अनन्तानुबन्धी चतुष्कके समान है।
८६८. कुष्ण नील और कापोत लेश्यावालोंके सामान्य तिर्यंचोंके समान जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि कृष्ण और नील लेश्याओंमें सम्यक्त्वका भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है। पीत और पद्मलेश्यावालोंमें परिहार विशुद्धिसंयतोंके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है।
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गा० २२ ] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिविहत्तियसरिणयासो ५२३
८६६. खइयसम्मा० एकवीसपयडीणमोघं । वेदय० मिच्छत्त-सम्मामि०अणंताणु०चउकाणं परिहारभंगो। सम्मत्त०ज०वि० बारसक० णवणोक० किं ज० अज० १ जहण्णा अजहण्णा वा । जहण्णादो अजहण्णा वेढाणपदिदा। अपच्चक्खा० कोधज० वि० सम्मत्त० किं ज० अज० १ णि. जहण्णा। एवमेक्कारसक०-णवणोकसायाणं जहण्णचं वत्तव्वं । एवमेकारसक०-णवणोकसायाणं । उवसमसम्मा० मिच्छत्त० ज० वि० सम्मत्त-सम्मामि०-बारसक०-णवणोक० किं ज० अज• ? णि• जहण्णा । एवं सम्मत्त-सम्मामि०-बारसक०-णवणोक० । अणंताणु०कोध०ज.वि. मिच्छत्तसम्मत्त-सम्मामि०-बारसक०-णवणोक० किं ज. अज०? णि० अज० संखे०गुणा । तिण्णिक० किं ज. अज० १ णि. जहण्णा । एवं तिण्हं कसायाणं । एवं सासणसम्मादिहीणं । णवरि अणंताणु०चउक्क० मिच्छत्तभंगो ।
६८७०. सम्मामिच्छाइटी० मिच्छत्तजह० सम्म-सम्मामि० णि. अज० संखे गुणा । सेसं णियमा जह० । णवरि अणंताणु०चउक्कं त्थि । एवं बारसक०
wearrrrrrrrrrrrrrr ६-६६. क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें इक्कीस प्रकृतियोंका भंग ओघके समान है । वेदक सम्यग्दृष्टियोंमें मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग परिहारविशुद्धिसंयतोंके समान है। सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवक बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? जघन्य भी हाती है और अजघन्य भी। उनमेंसे अजघन्य स्थिति जघन्य स्थितिसे दो स्थानपतित होती है। अप्रत्याख्यानावरण क्रोधकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके सम्यक्त्वकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य होती है। इसी प्रकार ग्यारह कषाय और ना नाकषायोंका स्थिति जघन्य कहना चाहिये । इसी प्रकार अप्रत्याख्यानावरण मान आदि ग्यारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंके सन्निकषं जानना चाहिय । उपशम सम्यग्दृष्टियोंमें मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य होती है। इसी प्रकार सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंके सन्निकष जानना चाहिये । अनन्तानुबन्धी क्राधको जघन्य स्थातविभक्तिवाल जीवक मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय ओर ना नाकषायाकी स्थिति क्या जघन्य होती है या अजघन्य ? नियमसे अजघन्य होती है जो जघन्य स्थिातसे संख्यातगुणी होती है। अनन्तानुबन्धी मान
आदि तीन कषायोंको स्थिति क्या जघन्य हाती ह या अजघन्य ? नियमसे जघन्य हाती है । इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन कपायाका जघन्य स्थितिवाले जीवोंके सन्निकर्षे जानना चाहिये । इसी प्रकार सासादनसम्यग्दृष्टि जावांके जानना चाहिय । किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग मिथ्यात्वक समान है।
६८७०. सम्यग्मिथ्याष्टियोंमें मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्वकी स्थिति नियमसे अजघन्य होती है जो जघन्य स्थितिसे संख्यातगुणी होती है। तथा शेष प्रकृतियोंकी स्थिति नियमसे जघन्य होती है किन्तु इतनी विशेषता है कि इसके अनन्तानुबन्धी चतुष्क नहीं है। इसी प्रकार बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य
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जयघवलास हिदे कसायपाहुडे
[ द्विदिविहत्ती ३
O'
णवणोक० | ताणु० कोध० ज० मिच्छत्त-सम्मत्त - सम्मामि० - बारसक०- -णवणोक णिय० ज० संखेज्जगुणा' । तिण्णि कसा० णिय० जहण्णा । एवं तिष्णं कसायाणं । सम्म० जह० द्विदिविह० सम्मामि० णिय० जह० । सेससव्व० निय० अज० संखे०गुणा । एवं सम्मामि० । अणाहाराणं कम्मइयभंगो |
एवं सणियासी समत्तो ।
* [ अप्पाबहु । ]
$ ८७१. अप्पा बहुअं दुविहं द्विदिप्पा बहुअं जीवअप्पाबहुअं चेदि । तत्थ हिदिअप्पाबहुयं वत्तइस्लामो ।
* सव्वत्थोवा णवणोकसायाणमुक्कस्सद्विदिविहत्ती ।
१८७२ कुदो? बंधावलियूणचचालीस-सागरोवमकोडाकोर्डिपमाणत्तादो। किमडधावलिया ऊणा ? ण, बद्धसमए चेव कसायुक्कस्सहिदीए णोकसायाणमुवरि संकमणसत्तिविरोहादो । तं पि कुदो १ साहावियादो | ण च सहावो परपडि जोयणारुहो, स्थितिविभक्तिवाले जीवों के जानना चाहिये । अनन्तानुबन्धी क्रोध की जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायों की स्थिति नियमसे
जघन्य होती है जो अपनी जघन्य स्थितिसे असंख्यातगुणी होती है। तथा तीन कषायोंकी स्थिति नियमसे जघन्य होती है । इसी प्रकार तीन कषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवोंके सन्निकर्ष जानना चाहिये । सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके सम्यग्मिध्यात्वकी स्थिति नियमसे जघन्य होती है । तथा शेष सब प्रकृतियोंकी स्थिति नियम से अजघन्य होती है । जो जघन्य स्थिति से संख्यातगुणी होती है । इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीवके सन्निकर्ष जानना चाहिये । अनाहारकों के कार्मण काययोगियोंके समान भंग हैं ।
इस प्रकार सन्निकर्ष समाप्त हुआ ।
* अल्पबहुत्वका अधिकार है ।
९ ८७१. अल्पबहुत्व दो प्रकारका है -स्थिति अल्पबहुत्व और जीव अल्पबहुत्व | उनमें से स्थिति पबहुत्वको बतलाते हैं
* नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ी है ।
१८७२ क्योंकि नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिका प्रमाण बन्धावलि कम चालीस कोड़ाकोड़ी सागर हैं ।
शंका- इसे एक बन्धावलिप्रमाण कम किसलिये किया है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि बन्ध होनेके पहले समय में ही कषायों की उत्कृष्ट स्थितिमें नौ नोकषायरूपसे संक्रमण होनेकी शक्ति माननेमें विरोध आता है ।
शंका- ऐसा क्यों है ?
समाधान - क्योंकि ऐसा स्वभाव है और स्वभाव दूसरेकी प्रकृतिके अनुरूप होता नहीं,
१. ता॰ प्रतौ ‘संखे०गुणा' इति पाठः । २. ता० प्रतौं 'कोडीओ' इति पाठः । ३. श्र०प्रतौ 'परपयाड' इति पाठः ।
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गा ०२२ ] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिविहत्तियसरिययासो अइप्पसंगादो।
* सोलसकसायाणमुक्कस्सहिदिविहत्ती विसेसाहिया।
८७३. बंधावलियमेत्तेण । * सम्मामिच्छत्तस्स उकस्सहिदिविहत्ती विसेसाहिया । ६८७४. केत्तियमेत्तेण ? अंतोमुहुत्तणतोससागरोवमकोडाकोडोमेशेण । * सम्मत्तस्स उक्कस्सहिदिविहत्ती विसे ।
८७५. के. मेत्तेण १ एगदयणिसेगहिदिमेत्तेण । चुण्णमुत्ते जइवसहाइरियो कम्हि वि कालपहाणं कादण हिदिवण्णणं कुणदि मिच्छत्तस्स संपुण्णसत्तरिसागरोवमकोडाकोडिहिदिपरूवणादो । कम्हि वि णिसेगपहाणं कादूग वण्णणं कुणदि; सम्मतुक्कस्सहिदि पेक्खिदूग सम्मामिच्छत्तुक्कस्सहिदीए देसूणत्तपरूवणादो, छण्णोकसायजहण्णहिदीए अंतोमुहुत्तमेत्तावहाणपरूवणादो च । उच्चारणाइरियो वि कम्हि वि कालपहाणं कादण हिदिवण्णणं कुणदि; सम्मत्तजहण्णहिदि पेक्खिदण मिच्छत्तजहण्णहिदीए संखेजगुणत्तपरूवणादो । कम्हि वि णिसेगपहाणं कादूण वण्णणं कुणदि; अणुअन्यथा अतिप्रसंग दोष आता है।
* ना नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिसे सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है।
६८७३. नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिसे सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थिति एक बन्धावलिकाल प्रमाण अधिक है।
* सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिसे सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है।
१८७४. शंका-कितनी अधिक है ? समाधान-अन्तमुहूर्त कम तोस कोड़ाकोड़ी सागर अधिक है ।
* सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिसे सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है।
१८७५. शंका-कितनी अधिक है ? समाधान-एक उदय निषेकको स्थितिप्रमाण अधिक है।
शंका-चूर्णिसूत्र में यतिवृषभ आचार्य कहीं कालकी प्रधानता करके स्थितिका वणन करते है, जैसे मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्थिति जो सत्तर कोडाकाड़ी सागरप्रमाण कही है वह कालकी प्रधानतासे कही है। कहीं निषेकोंका प्रधान करके स्थितिका वर्णन करते हैं, जैसे, सम्यक्त्वको उत्कृष्ट स्थितिको देखते हुए सम्यग्मिथ्यात्वको उत्कृष्ट स्थिति जो देशोन कही है और छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिकी जो अन्तमुहूतंप्रमाण अवस्थिति कही है वह निषेकोंकी प्रधानतासे ही कही है। इसी प्रकार उच्चारणाचार्य भी कहीं कालको प्रधान करके स्थितिका वर्णन करते हैं, जैसे सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिको देखते हुए जो मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति संख्यातगुणी कहीं
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जमधवलासहिदे कसायपाहुडे [ हिदिविहत्ती ३ दिसामु मिच्छत्तहिदि पेखिदूण सम्मत्तुक्कस्सहिदीए विसेसाहियत्तपरूवणादो। तदो एदेसिं दोण्हमाइरियाणमहिप्पाओ दुरवगमो त्ति ? ण णिसेगेहिंतो कालस्स अभेदप्पहाणा परूवणा भेदप्पणाए कालपहाणा त्ति दोसाभावादो। किमहं गुणपहाणभावेण परूवणा कीरदे ? कारणंतगवेक्खाए दुविहणयमस्सिद्विदसिस्साणुग्गहरुं वा ।
* मिच्छत्तस्स उक्कासहिदिविहत्ती विसेसाहिया । $ ८७६. के. मेण ? अंतोमुहुत्तेण । * णिरयगदीए सव्वत्थोवा इत्थिवेदपुरिसवेदाणमुक्कस्सहिदिविहत्ती ।
5 ८७७. कुदो ? तत्थेदेसिमुदयाभावेणुदयणिसेगस्स णqसयवेदसरूवेण त्थिउक्कसंकमेण गमणादो ।
8 सेसाणं णोकसायाणमुक्कस्सहिदिविहत्ती विससाहिया ।
$ ८७८. केत्तिएण ? एगुदयणिसेगेण । है वह कालकी प्रधानतासे ही कही है। कहीं निषेकोंको प्रधान करके स्थितिका वर्णन करते हैं, जैसे अनुदिश आदिमें मिथ्यात्वकी स्थितिको देखते हुए जो सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थिति विशेष अधिक कही है वह निषेकोंकी प्रधानतासे ही कही है इससे मालूम होता है कि इन दोनों आचार्योंका अभिप्राय दुरवगम है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि जहां निषेकोंकी अपेक्षा प्ररूपणा की है वहां निषेकोंसे कालके अभेदकी प्रधानता करके प्ररूपणा की है और जहां भेदकी विवक्षासे प्ररूपणा की है वहां कालकी प्रधानतासे प्ररूपणा की है, इसलिये कोई दोष नहीं है।
शंका-इस प्रकार गौण मुख्यभावसे प्ररूपणा किसलिये की जाती है ?
समाधान-भिन्न भिन्न कारणोंकी अपेक्षासे अथवा द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयोंका आश्रय लेनेवाले शिष्योंके अनुग्रहके लिये गौण मुख्यभावसे प्ररूपणा की जाती है।
* सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिसे मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है ?
६८७६. शंका-कितनी अधिक है ? समाधान-अन्तर्मुहूर्त अधिक है। * नरकगतिमें स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ी है । ६८७७. शंका-नरकगतिमें स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थिति सबसे थोड़ी क्यों है ?
समाधान-क्योंकि वहां पर इन दो प्रकृतियोंका उदय नहीं होता है अतः इनका उदय• निषेक स्तवुकसक्रमणके द्वारा नपुंसकवेदरूपसे परिणत हो जाता है।
__* स्त्रीवेद और पुदुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिसे शेष नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है ।।
S८७८.शंका-कितनी अधिक है ? समाधान-एक उदय निषेकप्रमाण अधिक है।
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ર૭
गा० २२ ] डिदिविहत्तीए उत्तरपयडिडिदिविहत्तियसरिणयासो
५२७ सोलसण्हं कसायाणमुक्कस्सहिदिविहत्ती विसेसाहिया । १८७६. केत्तिएण, बंधावलियाए । * सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सहिदिविहत्ती विसेसाहिया ।।
८८०. केत्तियमेत्तो विसेसो त्ति ? तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ अंतोमुहुत्तूणाओ।
* सम्मत्तस्स उकस्सहिदिविहत्ती विसेसाहिया ।
८८१. केत्तिएण; एगदयणिसेगेण । * मिच्छत्तस्स उकस्सहिदिविहत्ती विसेसाहिया । ६८८२ के० १ अंतोमुहुनेण ।
ॐ सेसासु गदीसु णेदव्यो।
१८८३. एदेणेदेसि मुत्ताणं देसामासियचं जाणाविद, तेण चुण्णिसुत्तसूचिदाणमत्थाणमुच्चारणमस्सिदूण परूवणं कस्सामो ।
* शेष नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिसे सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है।
६८७६.शंका-कितनी अधिक है ? समाधान-एक बन्धावलि कालप्रमाण अधिक है ।
* सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिसे सम्यग्मिध्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है।
६८८०.शंका-विशेषका प्रमाण कितना है। समाधान-विशेषका प्रमाण अन्तर्मुहूर्त कम तीस कोडाकोड़ी सागर है ।
* सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिसे सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है।
१८८१. शंका-कितनी अधिक है ? समाधान-एक उदयनिषेकप्रमाण अधिक है।
* सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिसे मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है।
६८८२.शंका-कितनी अधिक है ? . समाधान-अन्तर्मुहूर्त अधिक है। * इसी प्रकार शेष गतियों में जानना चाहिये ।
१८८३. पूर्वोक्त सभी सूत्र देशामर्षक हैं यह इस सूत्रसे जता दिया है, अत: चूर्णिसूत्रसे सूचित होनेवाले अोंका उच्चारणाका आश्रय लेकर कथन करते हैं
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ हिदिविहत्ती ३ १८८४. हिदिअप्पाबहुअं दुविहं-जहण्णमुक्कस्मं च । उक्कस्सए पयदं । दुविहो णि देसो-ओघेण आदेसेण य ? तत्थ ओघेण सव्वत्थोवा णवणोक० उक्क- . स्साहिदिविहत्ती'। सोलसक० उक्क विहत्ती विसे० । सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० विसेसा० । मिच्छत्त० उक्क० विसेसा० । एवं सत्तसु पुढवीसु । तिरिक्खगइच उक्क०-मणुसतिय०देवगई०-भवणादि जाच सहस्सार०-पंचिंदिय-पंचिं०पज्ज०-तस-तसपज्ज०-पंचमण०पंचवचि०- कायजोगि०-ओरालि०-वेउवि०-तिण्णिवेद-चत्तारिक०-असंजद०-चक्खु०अचक्खु०-पंचले०-भवसिद्धि०-सण्णि आहारए ति ।
१८८५ पंचि० तिरि० अपज्ज. सव्वयोवा सोलसक०-णवणोक० उक्क० हिदि विहत्ती। सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० हिदिविहत्ती विस०। मिच्छत्तक० हिदिविहत्ती विसे० । एवं मणुसअपज्ज०-बादरेइंदिय अपज्ज-सुहुमेइंदियपज्जत्तापज्जत्त-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदिय अपज्ज० बादरपुढवि०अपज्ज०-सुहुमपुढवि०-पज्जत्तापज्जत्त-बादरआउ० अपज्ज०-सुहुमआउ०पज्जत्तापज्जत्त - तेउ० बादरमुहुमपज्जत्तापज्जत्त - वाउ० बादरमुहुम
८८४. स्थिति अल्पबहुत्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । पहले यहां उत्कृष्टका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे अोघनिर्देशकी अपेक्षा नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ी है। सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। इसी प्रकार सातों पृथिवियोंके नारकी, तिर्यंचगतिमें सामान्य, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्त और योनिमती तिथंच, सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य, मनुष्यनी, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्त्रार स्वर्गतकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रस पर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी,
औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, तीनों वेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, असंयत, चक्षुदर्शनवाले, अचक्षदर्शनवाले, कृष्ण आदि पांच लेश्यावाले, भव्य, संज्ञी, और आहारक जीवोंके जानना चाहिये ।
८८५ पंचेन्द्रिय तियेच अपर्याप्तकोंमें सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ी है। इससे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। इससे मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तक, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तक, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तक, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्तक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्तक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्तक, बादर जलकायिक अपर्याप्तक, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्तक, सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्तक, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक और उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म अग्निकायिक और उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक और उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक और उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, निगोदवनस्पति, बादर
१. ता० प्रतौ 'विहत्ती [ विसेसाहिया ] । सोलसक०' इति पाठः ।
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गा० २२] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिविदिविहत्तिय अप्पाबहुअं
પરક पज्जत्तापज्जत्त- बादरवणप्फदिपज्ज. - सुहुमवणप्फदिपज्जत्तापज्जत्त - णिगोदवणप्फदिबादरमुहुमपज्जत्तापज्जत्त-बादरवणप्फदिपत्तेयसरीरअपज.-तस अपज्जत्तेत्ति ।
८८६. प्राणदादि जाव उवरिमगेवज्जो ति सव्वत्थोवा सोलसक०-णवणोक० उक्कस्सहिदिविहत्ती। सम्मामि० उक्कस्सहिदिविहत्ती विसे० । मिच्छत्त-सम्मत्त उक्क० हिदिवि० विसे । एवं सुक्कलेस्साए । णवरि सम्मत्तस्सुवरि मिच्छ० उक्क० विसे० । अणुदिसादि जाव० सव्वदृसिद्धि त्ति सव्वत्थोवा सोलसक०-णवणोक० उक्क०हिदिविहत्ती। मिच्छत्त-सम्मामि० उक्क० वि० विसे । सम्मत्तुक्क० विह. विसे० । एवमाहारआहारमि०-आभिणि-सुद०-ओहि०-मणपज्ज०-संजद०-सामाइयच्छेदो०-परिहार०संजदासंजद०-ओहिदंस०-सम्मादि०-वेदयसम्मादिहित्ति ।।
१८८७ इंदियाणु० एइंदियेसु सव्वत्थोवा णवणोक० उक्क०हिदिविहत्ती । सोलसक० उक्क० वि० विसे । सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० विहत्ती विसे । मिच्छत्तक्क० वि. विसे । एवं बादरेइंदिय-बादरेइंदियपज्जत्त-पुढवि०-बादरपुढवि०-तप्पज्ज०-आउ०बादराउ०-तप्पज्ज०-बादरवणप्फदिपत्तेय-तप्पज्ज०-ओरालियमिस्स०-वेउ मिस्स-कम्मइय-तिण्णिअण्णाण-मिच्छादिहि-असण्णि०-अणाहारए त्ति । एवमभवसि० । णवरि सम्मत्त०-सम्मामि० णत्थि ।
निगोद और उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, सूक्ष्म निगोद और उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर वनस्पति प्रत्येकशरीर अपर्याप्त और त्रस अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये।
६८८६. आनत कल्पसे लेकर उपरिम अवेयक तक देवोंमें सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ी है। इससे सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है । इससे मिथ्यात्व और सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। इसी प्रकार शुक्ललेश्यामें जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि यहां सम्यक्त्वके अनन्तर मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति विशेष अधिक होती है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ी है। इससे मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। इससे सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति] विशेष अधिक है। इसी प्रकार आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापना संयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनवाले, सम्यग्दृष्टि, और वेदकसम्यग्दृष्टि जीवोंके जानना चाहिये।
८८७. इन्द्रिय मार्गणाके अनुवादसे एकेन्द्रियोंमें नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ी है। इससे सोलह कषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। इससे सम्यक्त्व
और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। इससे मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर बनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर, बादर बनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीरपर्याप्त, औदारिक मिश्रकाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, तीनों अज्ञानी, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारकोंके जानना चाहिये। तथा अभब्योंके इसी प्रकार जानना। किन्तु इनके
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बयधवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिविहत्ती ३ १८८८. अवगद० सव्वत्थोवा बारसक०-णवणोक० उक्क० द्विदिविहत्ती। मिच्छत्तसम्मत्त-सम्मामि० उक्क हिदिवि० विसे । एवं सुहुम-जहाक्खाद० अकसायित्ति ।
८८६. खइए णत्थि अप्पाबहुगं; बारसक०-णवणोक हिदीणं सरिसत्तादो। उवसमे सव्वत्थोवा सोलसक०-णवणोक०-उक्क. हिदिविहत्ती। मिच्छत्त-सम्मत्तसम्मामि० उक्क० हिदिविहत्ती विसे । एवं सासण० । सम्मामि० सव्वत्थोवा सोलसक०णवणोक० उक्क ठिदिविहत्ती । सम्मत्त० उक्कहिदिविहत्ती विसे । सम्मामि० उक्क० हिदिवि० विसे० । मिच्छत्तउक्क० विसे० ।
एवमुक्कस्सप्पाबहुप्राणुगमो समत्तो। १८६०. जहण्णए पयदं । दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसे० । ओघेण सव्वत्थोवा सम्मत्त-इत्थि०-णवंस०-लोभसंज. जहण्णहिदिविहत्ती। मिच्छत्त-सम्मामि०-बारसक० जहण्णहिदिविहत्ती संखे०गुणा। मायासंज० जह० हिदिवि० असंखे गुणा । माणसंजल० जह० हिदिविह० संखेगुणा । कोधजह हिदिवि० संखे० गुणा। पुरिसजह० हिदि० विह० संखेज्जगुणा । छण्णोक० जह० हिदिवि० संखे गुणा । एवं मणुस०मणुसपज्ज०-मणुसिणी-पंचिंदिय-पंचिंपज्ज०-तस-तसपज्ज-पंचमण-पंचवचि०-कायसम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियां नहीं हैं।
___८८८. अपगत वेदियोंमें बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ी है। इससे मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है । इसी प्रकार सूक्ष्मसांपरायिक संयत, यथाख्यातसंयत और अकषायी जीवोंमें जानना चाहिये ।
८८६. क्षायिक सम्यग्दृष्टियोंमें अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि इनके बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी स्थितियां समान है। उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ी है। इससे मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है । इसी प्रकार सासादन सम्यग्दृष्टियोंके जानना चाहिये । सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंमें सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ी हैं। इससे सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट स्थिति विभक्ति विशेष अधिक है। इससे सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट । स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। इससे मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है।
__ इस प्रकार उत्कृष्ट अल्पबहुत्व समाप्त हुआ। ६८६०.अब जघन्य स्थिति अल्पबहत्वका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा सम्यक्त्व, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और लोभसंज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ी है। इससे मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और बारह कषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी है। इससे मायासंज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्ति असंख्यातगुणी है। इससे मानसंज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी है । इससे क्रोधसंज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी है । इससे पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी है । इससे छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी है। इसी प्रकार सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, मनुप्यनी, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, प्रस, स, पर्याप्त,
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गां• २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तियअप्पाबहुवे
५३१ जोगि०-ओरालिय०-लोभक०-आभिणि-मुद०-ओहि०-संजद०-चक्खु०-अचक्खुओहिदंस-मुक्कले०-भवसि०-सम्मादि०-सण्णि-आहारए त्ति । णवरि मणुसपज्ज. छणोकसायाणमुवरि इत्थिवेद० जह० असंखेगुणा । मणुसिणी० कोधसंजलणस्सुवरि पुरिस०-छण्णोक० जह० हिदिवि० संखे०गुणा । णqस० जह० हिदिवि० असंखे०गुणा ।
६८९१. ओदेसेण णेरइएसु सव्वत्थोवा सम्मत्त० जह० हिदिवि० । सम्मामि०अणंताणु०चउक्क० जह० हिदिवि० संखेगुणा । पुरिस० जह० हिदिवि० असंखे गुणा। इत्थिज. हि. विसेसा० । के. मेण ? पुरिसवेदबंधगद्धूणित्थिवेदबंधगद्धामेत्रेण । हस्स-रदि० जह• हि. वि. विसे । के० मेोण ? अरदि-सोगवंधगद्धृण पुरिसणवू सयवेदबंधगद्धागेचेण । अरदि-सोग० जहण्ण हिदिवि० विसे० । के० मेचेण ? हस्सरइबंधगद्धापरिहीणसगवंधगद्धामशेण । णवंस० जह० डिदिवि० विसे । के० मेण ? इत्थि-पुरिसबंधगद्धृणहस्स-रदिबंधगद्धामण। बारसक०-भय-दुगुंठाणं जह० हिदिवि० विसे० । मिच्छत्तज. हिदिवि० विसे० ।
८६२. एत्थुवउज्जंतमद्धप्पाबहुअं वत्तइस्सामो । तं जहा-सव्वत्थोवा पुरिसबंधगदा २ । इत्थिवेदबंधयद्धा संखेगुणा ४ । हस्स-रदि-बंधगद्धा संखे० गुणा १६ । पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिक काययोगी, लोभ कषायवाले, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, संयत, चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, अवधिदर्शनवाले, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि मनुष्य पर्याप्तकोंमें छह नोकषायोंके ऊपर स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति असंख्यातगुणी होती है। मनुष्यनियों में क्रोधसंज्वलनके ऊपर पुरुषवेद और छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी होती है । इससे नपुंसकवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति असंख्यातगुणी होती है।
8८६१. आदेशनिर्देशकी अपेक्षा नारकियोंमें सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ी है ? इससे सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यात. गुणी है। इससे पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी है। इससे स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। कितनी अधिक है ? पुरुषवेदके बन्धककालसे कम स्त्रीवेदके बन्धक कालप्रमाण अधिक है। इससे हास्य और रतिकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। कितनी अधिक है ? अरति और शोकके बन्धक कालसे कम पुरुषवेद और नपुंसकवेदके बन्धक कालप्रमाण अधिक है । इससे अरति और शोककी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। कितनी अधिक है ? हास्य और रतिके बन्धक कालसे कम अपने बन्धक कालप्रमाण अधिक है। इससे नपुंसकवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। कितनी अधिक है ? स्त्रीवेद
और पुरुषवेदके बन्धकालसे कम हास्य और रतिके बन्धकाल प्रमाण अधिक है। इससे बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। इससे मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है।
६८९२. अब यहाँ प्रकृतमें उपयोगी अल्पबहुत्वको बतलाते हैं। जो इस प्रकार है
पुरुषवेदका बन्धकाल सबसे थोड़ा है जिसकी सहनानी २ है। इससे स्त्रीवेदका बन्धकाल संख्यातगुणा है जिसकी सहनानी ४ है। इससे हास्य और रतिका बन्धकाल संख्यात
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. भयधवलासहिदे कसायपाहुडे [विदिविहती ३ अरदि-सोगबंधगद्धा संखे गुणा ३२ । णQसयवेदबंधगद्धा विसे० ४२ । सगसगपडिवक्खबंधगद्धाओ कसायजहण्णहिदीदो २०० सोहिदे सत्तणोकसायाणं जहण्णहिदीओ होति । तासिं पमाणमेदं पुरिस० जहण्णहिदी एसा १५४ । इथि० जहण्ण हिदी १५६ । हस्स-रदिज० हिदी १६८ । अरदि-सोगजहण्णहिदी १८४ । णवूस जह• हिदी १६४ (एसा उच्चारणप्पावहुअस्स संदिदी ।)
८६३. संपहि चिरंतणवक्खाणाइरियाणमप्पाबहु अं वत्तइस्सामो । सव्वत्थोवा सम्मत्त० जह० द्विदिविहत्ती । सम्मामि०-अणंताणु० चउक्क० ज० विहत्ति० संखे० गुणा । पुरिस० ज. विहत्ती असंखेगुणा । इत्थि० जह० विहत्ती विसे० । हस्सरदि० ज० हि० विह. विसे । णवंस० जह० वि० विसे० । अरदि-सोग० ज० वि० विसे । भय-दुगुंछाणं ज० हिदि० विसे । बारसहं कसायाणं ज. हि. वि. विसे । मिच्छत्त ज. हि० वि० विसे । एदस्स अप्पाबहुअस्स साहणहमद्धप्पाबहुअं वत्तइस्सामो । तं जहा-सव्वत्थोवा पुरिस. बंधगद्धा ३। इतिथ० बंधगद्धा संखे० गुणा ६ । हस्स-रदिबंधगद्धा विसे० ११ । णवंस० बंधगद्धा संखे०गुणा २२ । अरदि-सोग बंधगद्धा विसेसा० २३ । अप्पप्पणो पडिवश्वबंधगद्धाओ कसायजहण्णहिदीए २०० गुणा है जिसकी सहनानी १६ है। इससे अरति और शोकका बन्धकाल संख्यातगुणा है जिसकी सहनानी ३२ है। इससे नपुंसकवेदका बन्धकाल विशेष अधिक है इसकी सहनानी ४२ है। ऊपर जो अंक संदृष्टि दी है उसके अनुसार अपने-अपने प्रतिपक्ष बन्धकालोंको कषायकी जघन्य स्थिति २०० मेंसे घटा देनेपर सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितियाँ होती हैं। उनका प्रमाण निम्न प्रकार है-पुरुषवेदकी जघन्य स्थिति १५४ होती है। स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति १५६ होती है । हास्य और रतिकी जघन्य स्थिति १६८ होती है। अरति और शोककी जघन्य स्थिति १८४ होती है । नपुंसकवेदकी जघन्य स्थिति १६४ होती है। यह उच्चारणाचार्य के द्वारा कहे गये अल्पबहुत्वकी संदृष्टि है।
६८६३. अब चिरन्तन व्याख्यानाचार्यके अल्पबहत्वको बतलाते हैं। सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ी है। इससे सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी है। पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति असंख्यातगुणी है। इससे स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। इससे हास्य और रतिकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। इससे नपुंसकवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है । इससे अरति और शोककी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। इससे भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। इससे बारह कषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। इससे मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। अब इस अल्पबहुत्वकी सिद्धि करनेके लिये अल्पबहुत्वको बतलाते हैं, जो इस प्रकार है-पुरुषवेदका बन्धकाल सबसे थोड़ा है जिसकी सहनानी ३ है। इससे स्त्रीवेदका बन्धकाल संख्यातगुणा है जिसकी सहनानी ६ है। इससे हास्य रतिका बम्धकाल विशेष अधिक है जिसकी सहनानी ११ है। इससे नपुंसकवेदका बन्धकाल संख्यातगुणा है जिसकी सहनानी २२ है। इससे अरति और शोकका बन्धकाल विशेष अधिक है जिसकी सहनानी २३ है। इस प्रेकार ऊपर जो अंकसंदृष्टि दी है उसके अनुसार अपन
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मा० २२ |
हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिडिदिविहत्तिय अप्पा बहु
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8.
सोहिय सत्तणोकसायजहण्णद्विदीओ उप्पपादेदव्वाओ । पुरिस० जहण्णडिदी १६९ । इत्थि० जह० द्विदी १७५ । हस्स - रदिजहण्णहिदी १७७ । णवुंस० जह० द्विदी १८८ । अरदि-सोग जहण्णहिदी १८६ | $ ८९४. एत्थ दो वि वक्खाणेसु एक्केणेव सच्चेण होदव्वं, ण दोन्हं, विरोहादो । किंतु भय-दुगु वाणमुवरि कसायाणं जह० द्विदिविसेसाहिया त्ति जं भणिदं तण्ण घडदे ; णेरइयविदियसमए जादकसायद्विदिं भयदुगुछासु संकामिय संकामणावलियमेतद्विदीर्ण गालोवायाभावादो । कुदो १ गहिदसरीरणेरइयस्स पढमसमए कसाएहि सह भय-दुगु वाणमंतो कोडा कोडिमेत्तद्विदिबंधुबलं भादो | णेरइयविदियसमयादो हेट्ठा ण भयदुगु छाणं जहणहिदी होदि तत्थ भय- दुगुंलाहि पडिबिजमाणकसायजहणहिदीए अभावादो । तं पि कुदो णच्वदे १ णेरइयविदियसमए चेव जहणसामित्तदाणादो । तम्हा बारसकसाय दुर्गुळाणं जहण्णविदीओ सरिसाओ त्ति जमुच्चारणाए भणिदं तं चैव घेत्तव्वं णिरवज्जत्तादो । जइ पुण असण्णिचरिमसमए कसायजहण्णद्विदीदो भयदुगुंछ जहण्णट्ठिदिविहत्तीए आवलियूणतं लब्भइ तो कसायाणं विसेहियतं घडदे । णवरि एदं जाणिय वत्तव्यं । उच्चारणाहिपाओ पुरा तहा ग लब्भइति
अपने प्रतिपक्ष बन्धकालोंको कषायकी जघन्य स्थिति २०० मेंसे घटानेपर सात नोकषायों की जघन्य स्थितियां उत्पन्न करना चाहिये। उनमें से पुरुषवेदकी जघन्य स्थिति १६६ होती है । स्त्रीवेदकी जघन्य स्थिति १७५ होती है । हास्य और रतिकी जघन्य स्थिति १७७ होती है । नपुंसकवेदकी जघन्य स्थिति १८ होती है। अरति और शोककी जघन्य स्थिति १८६ होती है ।
१८६४. यहां इन दोनों व्याख्यानोंमें से कोई एक व्याख्यान ही सत्य होना चाहिये, दोनों नहीं, क्योंकि दोनोंको सत्य माननेमें विरोध आता है । किन्तु भय और जुगुप्सा के ऊपर कषायों की जवन्य स्थितिको जो विशेष अधिक कहा है वह नहीं बनता है, क्योंकि नारकियों के उत्पन्न होने के दूसरे समय में प्राप्त हुई कषायकी स्थितिके भय और जुगुप्सामें संक्रमित कर देने पर संक्रमणाप्रमाण स्थितियों के गलानेका कोई उपाय नहीं पाया जाता है । इसका कारण यह है कि नारी शरीर ग्रहण करने के पहले समय में कषायोंके साथ भय और जुगुप्साका अन्तःकोड़ाकोड़ी प्रमाण स्थितिबन्ध पाया जाता है । और नारकियोंके दूसरे समयसे नीचे भय और जुगुप्सा प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति नहीं होती है, क्योंकि वहां भय और जुगुप्सारूपसे छीजनेवाली कषायोंकी जघन्य स्थिति नहीं पायी जाती है ।
शंका - यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
-
समाधान क्योंकि नारकियोंके उत्पन्न होनेके दूसरे समयमें ही कषायों का जघन्य स्वामित्व दिया है ।
अतः बारह कषाय और जुगुप्सा इनकी जघन्य स्थितियां समान होती हैं ऐसा जो उच्चारण में कहा है वही ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि वह कथन निर्दोष है। और यदि असंज्ञियोंके अन्तिम समय में रहने वाली कषायोंकी जधन्य स्थिति से भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति में एक
वली का कम प्राप्त होता है। तो कषायों की जघन्य स्थिति भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति से विशेष अधिक बन जाती है। किन्तु जानकर इसका कथन करना चाहिये । परन्तु उच्चारणाचार्यका
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जयधवलासहिंदे कसायपाहुढे . [द्विदिविहती ३ ६ ८६५. एवं पढमाए पुढवीए । विदियादि जाव छह ति सव्वत्थोवा सम्मत्तसम्मामि०-अणंताणु०-चउक्काणं जह० विहत्ती । बारसक०-णवणोकसायाणं ज० विह० असंखेजगुणा । मिच्छत्तज. वि. विसेसा० ।
८६६ सत्तमाए पुढवीए सव्वत्थोवा सम्मत्त-सम्मामि०-अणंताणु०चउकाणं ज. हिदिविहत्ती । पुरिस० ज० हिदी असंखे०गुणा । इथि० ज० हिदिविहत्ती , विसेसा० । हस्स-रदिज० वि० विसेसा० । अरदि-सोग० ज० हिदिवि० विसे० । णस० ज० हि० वि० विसेसा० । भय-दुगुंछ, जह• हिदिवि० विसे० । बारसक० ज० वि० विसेसा० । केत्तियमेत्तेण ? एगावलियामेत्तेण । कुदो ? कसायाणं जहण्ण. हिदीए जादाए पुणो आवलियमेत्तमद्धाणमुवरि गंतूण भय-दुगुछाणं जहण्णहिदिसमुप्पत्तीदो। कसायाणमेत्थ जहण्णहिदिसंतसमबंधस्स अंतोमुहुत्तमेत्तकालसंभवादो। जहण्णहिदिसंतादो कसायहिदिबंधे अहिए जादे वि भयदुगुकाणं सगजहण्णहिदिसंतादो हेहा बंधसंभवादो। मिच्छत्तज. वि. विसे । एत्थ अद्धप्पाबहुअं णवणोकसायाणं जहण्णविदिउप्पायणविहाणं , पढमपुढविभंगो; भेदाभावादो(चिरंतणाइरियवक्खाणं पि एत्य अभिप्राय वैसा नहीं है।
८६५. इसी प्रकार पहली पृथिवीमें जानना चाहिये। दूसरी पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी तकके नारकियोंमें सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ी है। इससे बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति असंख्यातगुणी है। इससे मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति-विभक्ति विशेष अधिक है ।
६८६६. सातवीं पृथिवीमें सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ी है। इससे पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति असंख्यातगुणी है। इससे स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। इससे हास्य और रतिकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। इससे अरति और शोककी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है । इससे नपुंसकवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। इससे भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। इससे बारह कषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। कितनी अधिक है ? एक आवली अधिक है।
शंका-भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिसे बारह कषायोंकी जघन्य स्थिति एक श्रावलि अधिक क्यों है ?
समाधान-क्योंकि कषायोंकी जघन्य स्थिति हो जानेपर तदनन्तर एक प्रावलिप्रमाण काल आगे जाकर भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थित उत्पन्न होती है। इसका कारण यह है कि यहां पर अन्तर्मुहूर्त कालतक कषायोंकी सत्तामें स्थित जघन्य स्थितिके समान कषायोंका बन्ध संभव है। और जघन्य स्थिति सत्त्वसे कषायका स्थितिबन्ध अधिक होनेपर भी भय और जुगुप्साका अपने जघन्य स्थितिसत्त्वसे नीचे बन्ध संभव है। बारह कषायोंकी जघन्य स्थितिसे मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। यहां पर काल सम्बन्धी अल्पबहुत्वको और नौ नाकषायोंकी जघन्य स्थितिके उत्पन्न करनेकी विधिको पहली पृथिवीके समान जानना चाहिये,
१. ता प्रती 'च [ समाणं ] पदम' इति पाठः । २ ता० श्रा० प्रत्योः '-मंगभेदा-' इति पार।
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गा० २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिनिदिविहत्तियअप्पाबहुओं अप्पणो पढयपुढविवक्खाणसमाणं ।।
8 ८६७. तिरिक्खगईए सव्वत्थोवा सम्मत्त०जह• हिदिविहत्ती । जत्तिया हिदिविहत्ती तत्तिया चेव सम्मामि । अणंताणु० चउक्क० ज० हिदि० तत्तिया चेव । जाहिदिविह० संखे०गुणा णिसेगसमयग्गहणादो । पुरिस० ज० हिदिवि० असंखेजगुणा । इस्थिजह• हिदिवि० विसे० । हस्सरदि० ज० विह० विसेसा० । अरदिसोगज. वि. विसे। णवंस० ज० हिदिविह० विसे । भय-दुगुछ० ज०वि०विसे । बारसक० जह० विहत्ती विसेसा० । कारणमेत्थ जहा सत्तमपुढवीए उत्तं तहा वत्तव्वं । मिच्छत्तजह० हिदिवि. विसे । एत्थ उच्चारणाइरियस्स सत्तणोकसायबंधगद्धाओ पुव्वं व वत्तव्वाश्रो; चदुगदीसु तासि विसेसाभावादो। वक्खाणाइरियाणमेत्थ सत्तणोकसायद्धप्पाबहुअमुच्चारणद्धप्पाबहुएण सरिसंतेण तिरिक्खगईए णत्थि दोण्हमप्पाबहुआणं भेदो । एवं पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिं० तिरि०पज्जत्ताणं । णवरि णस० जहण्णहिदीए उवरि भय-दुगुछाजहण्णहिदी संखेगणा। कुदो ? णवुसयवेदजहण्णहिदी णाम सागरोवमचत्तारि सत्तभागा पलिदो० असंखे०भागेण पडिवक्खबंधगद्धाए च ऊणा; पंचिदिएमु उप्पन्जिय बंधाभावेण एइंदियहिदिसंतस्सव तत्थंतोमुहुत्तकालुवलंभादो । भय
क्योंकि उससे इसमें कोई भेद नहीं है । चिरन्तनाचार्यका व्याख्यान भी यहां अपने पहली पृथिवीके व्याख्यानके समान है।
१८६७.तियंचगतिमें सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ी है। सम्यक्त्वकी जितनी स्थितिविभक्ति है उतनी ही सम्यग्मिथ्यात्वकी और उतनी ही अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थिति है। पर यह स्थिति विभक्ति संख्यातगुणी है, क्योंकि इसमें निषेकों के समयोंका ग्रहण किया है। इससे पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति असंख्यातगुणी है। इससे स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। इससे हास्य और रतिकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है । इससे अरति और शोककी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। इससे नपुंसकवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। इससे भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। इससे बारह कषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। इसका कारण जिस प्रकार सातवीं पृथिवीमें कह आये हैं उस प्रकार यहां कहना चाहिये। बारह कषायोंकी जघन्य स्थितिसे मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। यहां उच्चारणाचार्यके द्वारा कहे गये सात नोकषायोंके बन्धकालोंका पहलेके समान व्याख्यान करना चाहिये, क्योंकि चारों गतियोंमें उनके कथनमें कोई विशेषता नहीं है। परन्तु यहां तिर्यंचगतिमें व्याख्यानाचार्यके द्वारा कहा गया सात नोकषायों सम्बन्धी अल्पबहुत्व उच्चारणाचायके अल्पबहुत्वके समान है, अतः तिर्यंचगतिमें दोनों अल्पबहुत्वोंमें कोई भेद नहीं है। इसी प्रकार पंचेन्द्रिय तियेच और पंचेन्द्रिय तिथेच पर्याप्तकोंके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेदकी जघन्य स्थितिके ऊपर भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति संख्यातगुणी है; क्योंकि पंचेन्द्रिय तिर्यंच और पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्तकोंमें नपुसकवेदकी जघन्य स्थिति एक सागरके सात भागोंमेंसे पल्योपमका असंख्यातवां भाग और प्रतिपक्ष प्रकृतिके बन्धकालसे कम चार भागप्रमाण होती है, क्योंकि कोई एक एकेन्द्रिय पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ और उसने नपुसकवेदका बन्ध नहीं किया तो उसके
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५३६ जयपवलासहिदे कसायपाहुडे
[द्विदिविहत्ती ३ दुगुंछाणं पुण सागरोवमसहस्सस्स वे सत्तभागा पलिदोवमस्स संखे० भागेणूणा, भयदुगुकाणं धुवबंधित्तणेण पंचिंदिएसुप्पण्णपढमसमए वि बंधसंभवादो । तेण णवुस० जहण्णहिदीदो भयदुगुछजहण्ण हिदी संखेजगुणा ति सिद्ध । बारसक० जहण्णहिदी संखे गुणा । कुदो ? पलिदो० संखे०भागेणूणं सागरोवमसहस्सचत्तारिसत्तभागत्तादो। मिच्छत्तजहण्णहिदी विसे, पलिदो० संखे०भागेगुणसागरोवमसहस्सस्स सत्त सत्त भागत्तादो। जोगिणीसु एवं चेव, णवरिं सबथोवा सम्मत्त-सम्मामि०-अणताणु० चउक० ज० हिदिविहत्ती।
८६८. पंचिंदियतिरिक्ख अपजत्तएसु सव्वत्थोवा सम्मच-सम्मामि० ज० हिं दिवि० । पुरिस० ज० हिदिवि० असंखेन्गुणा। सेस. पंचिंतिरिक्खभंगो । णवरि अणंताणु० चउकारणं बारसक०भंगो। एवं मणुसअपज्ज०-पंचिं० अपज्जा-तसअपज्जताणं।
८६६. एइंदिय-बादरेइंदियपज्जतापजन-सुहुमेइंदियपज्जतापज्जताणं तिरिक्खोघभंगो । णवरि सम्म सम्मामिच्छतेण सह वत्तव्वं, अणंताणु०चउक्क च बारसअन्तर्मुहूर्त कालतक एकेन्द्रियोंका स्थितिसत्त्व ही पाया जाता है। परन्तु भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति हजार सागरके सात भागोंमेंसे पल्योपमका संख्यातवां भाग कम दो भागप्रमाण पाई जाती है; क्योंकि भय और जुगुप्सा ध्रुवबन्धिनी प्रकृतियां होनेसे पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न होनेके पहले समयमें भी उनका बन्ध संभव है, इसलिये नपुसकवेदकी जघन्य स्थितिसे भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति संख्यातगुणी होती है यह सिद्ध हुआ। भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिसे बारह कषायोंकी जघन्य स्थिति संख्यातगुणी है, क्योंकि बारह कषायोंकी जघन्य स्थिति हजार सागरके सात भागोंमेंसे पल्योपमके संख्यातवें भाग कम चार भागप्रमाण है। इससे मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति विशेष अधिक है, क्योंकि इसका प्रमाण हजार सागरके सात भागोंमेंसे पल्योपमका संख्यातवां भाग कम सात भागप्रमाण है। पंचेन्द्रिय तिथंच योनिमतियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ी है।
८. पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ी है। इससे पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति असंख्यातगुणी है। शेष प्रकृतियोंका भंग पंचेन्द्रिय तिर्यंचोंके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग बारह कषायोंके समान है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त और बस अपर्याप्त जीवोंके जानना चाहिये।
८६६. एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवोंके सामान्य तिर्यंचोंके समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वका कथन सम्यग्मिथ्यात्वके साथ करना चाहिये।
१ श्रा प्रतौ -भागेणणा' इति पाठः । २ श्रा ता. प्रत्योः 'हिदिवि० संखे गुणा । पुरिस० इति पाठः।
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गा० २२ ] द्विदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिविहत्तियश्रप्पाबहुलं कसाएहिं सह भाणिदव्वं । सव्वविगलिंदियाणं पंचिंदियअपज्जत्तभंगो ।
___६०० कायाणुवादेण सव्वपुढवि०-सव्वाउ०-सव्वतेउ०-सव्ववाउ०-सव्ववणफदि०-सव्वणिगोद०-बादरवणप्फदिपत्तेय-पज्जत्तापजत्ताणं एइंदियभंगो। वे अण्णाण-अभव०-मिच्छादि०-असण्णीणं च एइदियभंगो । णवरि अभव्वेसु सम्मत्तसम्मामि० णस्थि ।
९०१. देवगईए देवाणं णारगभंगो। एवं भवण ०-वाणवेंतर० । णवरि सम्म सम्मामिच्छत्रेण सह भाणिदव्वं । जोइसियेसु सव्वत्थोवा सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त०अणंताणु० चउक्काणं ज० विहत्ती। बारसक० रणवणोक० ज० विह० असंखे०गणा । ज. हिदि० संखे गुणा । मिच्छत्त. ज. विहत्ती विसेसा० ।
६०२. सोहम्मादि जाव णवगेवज्जाति सव्वत्थोवा सम्मत्तज. विहत्ती । सम्मामि० अणंताण० चउक्क० ज० विहत्ती तत्तिया चेव । ज० हिदी० संखेज्जगणा। बारसक०-णवणोक० जहण्णविहत्ती असंखे गणा; कालपहाणचावलंबणादो। णिसेयपहाणचे पुण बारसक०-अहणोकसायाणमुवरि पुरिसवेदज. हिदिवि० विसे । एसो अत्थो अएणत्थ वि वत्तव्यो । मिच्छत्तज० विह० संखे०गणा। अणुदिसादि जाव सव्वसिद्धि त्ति सव्वत्थोवा सम्मत्तज. विहत्ती । अणंता० चउक्क० जहिदिविहत्ती
और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका कथन बारह कषायोंके साथ करना चाहिये। सब विकलेन्द्रियोंका भंग पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकों के समान है।
६६००. कायमार्गणाके अनुवादसे सब पृथिवीकायिक, सब जलकायिक, सब अग्निकायिक, सब वायुकायिक, सब वनस्पतिकायिक, सब निगोद, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर और उनके पर्याप्त तथा अपर्याप्त जीवोंके एकेन्द्रियों के समान भंग है। मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञियोंके एकेन्द्रियों के समान भंग है। किन्तु इतनी विशेषता है कि अभव्योंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये दो प्रकृतियां नहीं हैं।
६६०१. देवगतिमें देवोंका भंग नारकियों के समान है। इसी प्रकार भवनवासी और व्यन्तर देवोंके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्वका सम्यग्मिथ्यात्वके साथ अल्पबहुत्व कहना चाहिये। ज्योतिषियोंमें सम्यक्त्व सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ी है इससे बारह कषाय, नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति असंख्यातगुणी है। इससे यत्स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी है । इससे मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है।
६६०२. सौधर्म स्वर्गसे लेकर नौ ग्रैवेयक तकके देवोंमें सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ी है। सम्यग्मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्ति उतनी ही है। पर यस्थिति संख्यातगुणी है। इससे बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति असंख्यातगुणी है क्योंकि यहां पर कालकी प्रधानता स्वीकार की गई है। निषेकोंकी प्रधानता रहनेपर तो बारह कषाय और आठ नोकषायोंके ऊपर पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। यह अर्थ अन्यत्र भी कहना चाहिये। इससे मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति
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सहिदे कसा पाहुडे
[ द्विदिविहती. ३
तत्तिया चेव । ज० द्वि०वि संखे० गुणा । बारसक० वणोक० जह० विहत्ती असंखे ० गुणा । मिच्छत्त- सम्मामि० ज० हिदि वि० संखे० गुणा ।
९६०३. ओरालियमिस्स ०तिरिक्खोघभंगो | णवरि अनंताणु० चउक्क० बारसकसायभंगो । एवं वेउव्वियमिस्स० । णवरि णवुंसय वेदस्सुवरि बारसक० -भय- दुगुंछ ० जह० संखे० गुणा | मिच्छ० संखे० गुणा । अनंतापु० चउक्क० संखे० गुणा । वेउच्चि - यकाय० सोहम्मभंगो । णवरि सम्पत्तं सम्मामिच्छत्तेण सह वत्तव्यं । कम्मइय० सव्वत्थोवा सम्मत्त० ज० ट्ठिदिवि० । सम्मामि० ज० वि० संखे० गुणा । पुरिस० ज० हिदिवि० असंखे० गुणा । इत्थिज० वि० विसे ० । इस्स - रदि० ज० वि० विसे० । दि-सोग० ज० वि० विसे० । णवुस० ज० वि० विसे० । भय-दुर्गुछ० ज० वि विसे० | सोलसक० ज० वि० विसे० । मिच्छ० ज० वि० विसेसाहिया । एवमणाहारीणं । आहार० आहारमिस्स० सव्वत्थोवा बारसक० - णवणोक० ज० द्विदिवि० । मिच्छ० सम्म० सम्मामि० ज० द्विदिवि० संखेज्जगुणा । अनंतागु० चउक्क० ज० द्वि० वि० संखे० गुणा |
$ ९०४. वेदावादेण इत्थवेदे सन्वत्थोवा सम्मत्त - इत्थि० जह० द्वि० विहत्ती ।
सबसे थोड़ी है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्ति उतनी ही है । पर यत्स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी है। इससे बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति असंख्यातगुणी है । इससे मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी है । ९६०३. औदारिकमिश्रकाययोगियोंका भंग सामान्य तिर्यंचोंके समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग बारह कषायोंके समान है। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें नपुंसक वेदके ऊपर बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी है । इससे मिध्यात्व की जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी है। इससे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी है। वैकिकाययोगियों का भंग सौधर्म कल्पके समान है । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्वको सम्यग्मिथ्यात्व के साथ कहना चाहिये । कार्मणकाययोगियों में सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ी है। इससे सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी है । इससे पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति असंख्यातगुणी है । इससे स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। इससे हास्य और रतिकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है । इससे रति और शोकको जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है । इससे नपुंसकवेद्की जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। इससे भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। इससे सोलह कषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। इससे मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है। इसी प्रकार अनाहारकों के जानना चाहिये । आहारककाययोगी और आहारक मिश्र काययोगियों में बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ी है इससे मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी है। . इससे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी है ।
$६०४ वेद मार्गणा के अनुवादसे स्त्रीवेदमें सम्यक्त्व और स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति
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गा ०२२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिविदिविहत्तियअप्पाबहुवे मिच्छत्त-सम्मामि०-बारसक० ज० हि० वि० संखेगुणा । सत्तणोक-चदुसंज० ज० हि० वि० असंखे गुणा । णवंसयवेद० ज० हि० वि० असंखे० गुणा । एवं णस० । णवरि जम्हि इत्थिवेदो सम्मत्तेण सह वुत्तो तम्हि गर्बुसयवेदो वत्तव्यो । जम्हि गQसयवेदो तम्हि इत्थिवेदो वत्तव्यो । पुरिसवेदे सव्वत्थोवा सम्मत्त० ज० विहत्ती । मिच्छत्त-सम्मामि०-बारसक० जह० हिदि० विहत्ती संखे०गणा। पुरिसवेदजह० असंखे. गुणा । चदुसंजल० जह० संखे० गुणा। छण्णोक० जह• संखे गुणा । इत्थिवेदज. विहत्ती असंखे गुणा । णस० ज० वि० असंखे०गुणा । अवगदवेदे सव्वत्थोवा लोभसंजलणज० हि० विह० । मायासंज० ज० विहत्ती असंखेगुणा । माणसंज. ज० संखे०गुणा । कोधसंज० ज० वि० संखे गुणा । पुरिस० ज० वि० संखे गुणा । छण्णोक० ज० वि० संखे०गुणा । अढकसा०-इत्थि०-णवंस० ज० वि० असंखे०गुणा । मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि० ज० वि० संखे गुणा।
६०५. कसायाणुवादेण कोधकसाईसु सव्वत्थोवा सम्मत्त०-इत्थि०-णस० ज० हि० वि०। मिच्छ०-सम्मामि.'-बारसक० ज० हि० वि० संखे०गणा। चदुसंज. ज. हि० वि० असंखे० गुणा । परिस० ज० हि० वि० संखे०गणा । छण्णोक० ज० सबसे थोड़ी है। इससे मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और बारह कषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी है। इससे सात नोकषाय और चार सज्वलनोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति असंख्यातगुणी है। इससे नपुंसकवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति असंख्यातगुणी है। इसी प्रकार नपुंमकवेद् वाले जीवोंके जानना चाहिये। किन्तु जहां पर सम्यक्त्वके साथ स्त्रीवेद कहा है वहां नपुंसकवेद कहना चाहिये और जहां नपुंसकवेद कहा है वहां स्त्रीवेद कहना चाहिये। पुरुषवेदमें सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ी है। इससे मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और बारह कषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी है । इससे पुरुषवेदको जघन्य स्थितिविभक्ति असंख्यातगुणी है। इससे चार संज्वलनोंकी जघन्य स्थितिविभाक्त संख्यातगुणी है। इससे छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी है । इससे स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति असंख्यातगुणी है। इससे नपुंसकवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति असंख्यातगुणी है। अपगतवेदमें लोभसज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ी है। इससे माया संज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्ति असंख्यातगुणी है। इससे मानसंज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी है। इससे क्राधसंज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी है। इससे पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी है। इससे छह नाकषायोंकी जघन्य स्थितिविभाक्त संख्यातगुणी है। इससे आठ कषाय, स्त्रीवद और नपुंसकवदकी जघन्य स्थितिविभक्ति असंख्यातगुणा है। इससे मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणा है। .
६६०५. कषाय मार्गणाके अनुवादसे क्रोध कषायवाले जीवोंमें सम्यक्त्व, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ा है। इससे मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और बारह कषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणो है। इससे चार संज्वलनोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति असंख्यातगुणी है। इससे पुरुषवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी है। इससे छह
१. आ० प्रतौ 'मिच्छ० सम्म० सम्मामि०' इति पाठः ।
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जयघवलासहिदे कसायपाहुडे
[ द्विदिविहती ३ वि० संखे० ० गुणा । एवं माणकसाईसु, णवरि बारसक० ज० हिदीदो तिण्णिसंज० ज० द्विदी असंखे० गुणा । कोधसंज० ज० द्वि० संखे० गुणा । पुरिस० ज० द्विदी संखे ० गुणा । छण्णोक० ज० हि० संखे ० गुणा । एवं मायक०, णवरि बारसक० जह० द्विदीदो उवरि माया - लोभसंजलणाणं ज० द्विदीओ असंखे० गुणा माणसंज० ज० संखे० गुणा । कोधसंज० ज० वि० संखे० गुणा । पुरिसज० वि० संखे० गुणा । छण्णोक० ज० वि० संखे० गुणा |
।
1
$ ६०६. अकसाईसु सव्वत्थोवा बारसक० - नवणोक० ज० हि० विहत्ती । सम्मत्त-मिच्छत्त-सम्मामि० ज० वि० संखे० गुणा । एवं जहाक्खाद० | सुहुमसांपरा ० एवं चेव । णवरि सव्वत्थोवा लोभसंजल० ज० द्वि० विह० । एक्कारसक ००-णवणोक० ज० हि० वि० असंखे० गुणा ।
$ ६०७ विहंगणाणीणं जोदिसियभंगो। णवरि श्रणंतार० चउक्कस्स बारसकसायभंगो | मणपज्ज० आभिणि० भंगो। णवरि छण्णोकसायाणमुवरि इत्थिवेद० जह० असंखे० गुणा । णवंस० जह० असंखे० गुणा । सामाइयछेदो० मायकसायभंगो । वरि बारसकसायाणमुवरि लोभसंज० ज० वि० असंखे० गुणा | माय० ज० वि०
नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी है । इसी प्रकार मान कषायवाले जावों में जानना चाहिये | किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें बारह कषायोंकी जघन्य स्थितिसे तीन संज्वलनोंकी जघन्य स्थिति असंख्यातगुणी है। इससे क्रोधसंज्ञलनकी जघन्य स्थिति संख्यातगुणी है। इससे पुरुषवेदकी जघन्य स्थिति संख्यातगुणी है । इससे छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी है । इसी प्रकार मायाकषायवाले जीवोंके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें बारह कषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिसे ऊपर माया और लोभसंज्वलनोंकी जघन्य स्थितियां असंख्यातगुणी हैं। इससे मानसंज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी है । इससे क्रोधसंज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी है । इससे पुरुषवेदकी जघन्य स्थिति - विभक्ति संख्यातगुणी है । इससे छह नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी है ।
६०६. कषाय रहित जीवोंमें बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ी है। इससे सम्यक्त्व मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी है । इसी प्रकार यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिये । सूक्ष्म सांपरायिकसंयत rain इसी प्रकार जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें लोभसंज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ी है इससे ग्यारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति असंख्यातगुणी है ।
1
६ ६०७. विभंगज्ञानियोंके ज्योतिषियों के समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें अनन्तानुबन्ध चतुष्कका भंग बारह कषायों के समान है । मन:पर्ययज्ञानियोंके मतिज्ञानियोंके समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके छह नोकषायों के ऊपर स्त्रीवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी है। इससे नपुंसकवेदकी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी है । सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयत जीवोंके मायाकषायवाले जीवोंके समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि बारह कषायों के ऊपर लोभसंज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्ति असंख्यातगुणी है ।
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गा० २२ ]
संखे० गुणा । उवरि णत्थि विसेसो ।
१९०८. परिहारसुद्ध० सव्वत्थोवा सम्मत्तज० द्वि० वि० । मिच्छत्त० - सम्मामि० - अनंतापु० चउक्क० ज० वि० संखे० गुणा । बारसक० णवणोक० ज० हि० वि० श्रसंखे० गुणा । एवं संजदासंजद - ते उ-पम्मलेस्साणं । श्रसंजद० सव्त्रत्थोवा सम्मत्त० ज० द्वि० वि० | मिच्छत्त० सम्मामि० श्रणंतागु० चउक्क० ज० द्वि० वि० संखे ० सेस० तिरिक्खोधं ।
० गुणा ।
हिदिविहती उत्तरपयडिट्ठिदिवि हत्तिय अप्पाबहु
•
६०६. किण्ह णील लेस्साणं तिरिक्खभंगो । णवरि सम्मत्त ०० - सम्मामिच्छत्तेण सह बत्तव्वं । काउ० तिरिक्खोघं ।
$ ६१०. खइय० सव्वत्थोवा लोभसंज० इत्थि - णव स० ज० विह० । अकसाय ज० हि० वि० संखे० गुणा । मायासंज० ज० द्वि० वि० असंखे० गुणा । सेसमोधं । वेदगसम्मादिडी० परिहारभंगो । उवसम० सव्वत्थोवा अनंताणु० चउक० ज० हि० वि० । बारसक० - णवणोक० ज० हि० वि० संखे० गुणा । मिच्छत्तसम्मामि० ज० द्विदि० वि० विसेसा० । सासण० सव्वत्थोवा सोलसक० - णवणोक० ज० द्वि० वि० । मिच्छत्त-सम्मत्त सम्मामि० ज० द्वि० वि० विसे० । सम्मामि० सव्वत्योवा सम्मत्त० ज० द्वि० वि० । सम्मामि० ज० द्वि० वि० विसे० । बारसक०इससे मायासंज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी है । ऊपर और कोई विशेषता नहीं है । ६०८ परिहारविशुद्धिसंयतों में सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ी है । इससे मिध्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी है । इससे बारह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्ति असंख्यातगुणी है । इस प्रकार संयतासंयत, पीतलेश्यावाले और पद्मलेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिये । असंयतों में सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ी है। इससे मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी agrrat जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी है । शेष कथन सामान्य तिर्यंचों के समान है ।
६६०६. कृष्ण और नीललेश्यावाले जीवोंके तियँचों के समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके सम्यक्त्वका कथन सम्यग्मिथ्यात्वके साथ करना चाहिये । कापोतलेश्यावाले जीवोंके सामान्य तिर्यंचोंके समान जानना चाहिये ।
५४१
१०. क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में लोभसंज्वलन, स्त्रीवेद और नपुंसकवेद की जघन्य स्थितिविभक्ति से थोड़ी है। इससे आठ कषायोंकी जवन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी है । इससे मायासंज्वलनकी जघन्य स्थितिविभक्ति असंख्यातगुणी है। शेष कथन ओघ के समान है । वेदकसम्यग्दृष्टियों के परिहारविशुद्धिसंयतों के समान भंग है । उपशमसम्यग्दृष्टियों में अनन्तानुबन्धी agrrat जघन्य स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ी है । इससे बारह कषाय और नौ नोकषायों की जघन्य स्थितिविभक्ति असंख्यातगुणी है। इससे मिध्यात्व सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है । सासादन सम्यग्दृष्टियों में सोलह कषाय और नौ नोकषायों की 'जघन्य स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ा है। इससे मिध्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक हैं । सम्यग्मिध्यादृष्टियों में सम्यक्त्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति सबसे थोड़ी है। इससे सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है । इससे बारह कषाय
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પૂર્
अवासहिदे कसा पाहुडे
[ द्विदिविहती ३
णवणोक० ज० द्वि० वि० संखेज्जगुणा । मिच्छ० जह० विसे० । श्रताणु० चटक ० ज० हि० वि० संखे० गुणा ।
एवं हिदिअप्पा बहुगागमो समत्तो ।
०
$ ९११. संपहि जीव अप्पा बहुगागमं वत्तइस्लामो । सो दुविहो - जहण्णश्रो उकस्सओ चेदि । तत्थ उकस्सए पयदं । दुविहो णिदेसो- ओघेण आदेसेण य । तत्थ घेणी पडणं सव्वत्थोवा उक्कस्सहिदिविहत्तिया जीवा । अणुक्क • हिदिविहत्तिया जीवा अनंतगुणा । सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवा उक्क० हिदि० जीवा । अणुक्क० द्विदि० जीवा असंखे० गुणा । एवं तिरिक्ख० एइंदिय-वणफदि०णिगोद० - बादरसुहुमपज्जत्तापज्जत्त काय जोगि-ओरालिय० ओरा लिय मिस्स ० -कम्मइय०णवंस ० - चत्तारिक ० - मदिसुदअण्णाण - संजद ० - चक्खुदंस० - तिण्णिले० - भवसि०अभव०-मिच्छादि० असण्णी० आहारि० - अणाहारिति । णवरि अभव० सम्म० सम्मामि० णत्थि ।
0
3
१९१२, देसेण णेरइएस सव्वत्थोवा अट्ठावीस उक्क० हिदि० जीवा । श्रक० द्विदि० जीवा असंखे० गुणा । एवं सव्व णेरइय- सव्वपंचिदियतिरिक्ख० - मरणुस मणुस अपज्ज० -देव-भवणादि जाव अवराइद त्ति सव्वविगलिंदिय- सव्व पंचिदिय- सव्वचत्तारिकाय - सव्वतस-पंचमण० - पंचवचि० - वेडव्विय० - वेड० मिस्स - इत्थि - पुरिस०-विहं
और नौ नोकषायोंकी जवन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी है। इससे मिध्यात्वकी जघन्य स्थितिविभक्ति विशेष अधिक है । इससे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थितिविभक्ति संख्यातगुणी है । इस प्रकार स्थिति अल्पबहुत्वानुगम समाप्त हुआ ।
$ ६१९. अब जीव विषयक अल्पबहुत्वानुगमको बतलाते हैं । वह दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । उनमें से पहले उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ - निर्देश और आदेश निर्देश । उनमेंसे ओधकी अपेक्षा छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार तिर्यंचों, तथा एकेन्द्रिय, वनस्पति और निगोद जीव तथा इन तीनों के बादर और सूक्ष्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्त जीव तथा काययोगी,
दारिकाययोगी, औदारिक मिश्रकाययोगी कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदवाले, चारों कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचतुदर्शनवाले, कृष्णादि तीन लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञा, आहारक और अनाहारक जीवोंके जानना । किन्तु इतनी विशेषता है कि अभब्यों के सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियां नहीं हैं ।
$ ६१२. आदेशको अपेक्षा नारकियों में अट्ठाईस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार सब नारकी, सब पंचेन्द्रिय तिर्यंच, मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर अपराजित तक देव, सब विकलेन्द्रिय, सब पंचेन्द्रिय, सब पृथिवीकायिक आदि चार कायवाले,
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गा० २२ ]
हिदिविहतीए उत्तरपय डिडिदिविहत्तिय अप्पा बहुअं
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ग०-आभिणि० - सुद०-ओहि ० -संजदासंजद० - चक्खु ० - ओहिदस० - तिण्णिले ० - सम्मादि ० खइयसम्मा० - वेदयसम्मादि ० - उवसम० - सासण० सम्मामि० सण्णिति ।
९ ९१३. मणुसज्ज ० - मणुसिणीसु सव्वपयडीणं सञ्वत्थोवा उक्क० द्विदि० जीवा । अणुक० हिदि जीवा संखे० गुणा । एवं सव्वड ० - आहार०-३ आहारमिस्स - अवगद ०अकसा० - मणपज्ज० णाणी - संजद ० - सामाइय - छेदो० - परिहार० - सुहुमसांप ० - जहाक्खाद ० संजदेति ।
एवमुकस्सओ जीव अप्पाबहुगाणुगमो समत्तो ।
१४. पदं । दुविहो लिसो — श्रघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण सव्वत्थोवा सव्वपयडीणं ज० हिदि० जीवा । अज० उक्कस्सभंगो । एवं सव्वणेरइयसव्वपंचिंदियतिरिक्ख- सव्वमरणुस - सव्वदेव- सव्व विगलिंदिय- सव्वपंचिंदिय- चत्तारि कायसव्वतस - पंचमरण- पंचवचि ० कायजोगि० ओरालि० - वेउब्वि० - वेडब्बियमिस्स ० श्राहार०आहार • मिस्स ० - तिणिवेद० अवगद ० - चत्तारिक० अकसा०-विहंग०- आभिणि० - सुद०श्रोहि ०-मणपज्ज० - संजद० सामाइयछेदो ० - परिहार०- सुहुम० - जहाक्खाद ० संजदासंजद०चक्खु०- हिदंस० - तिण्णिले० - भवसि ० - सम्मादि० खइय० - वेदय ० - उवसम० सासण०
सब त्रस, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, वैकियिककाययोगी वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, स्त्री वेदवाले, पुरुषवेदवाले, विभंगज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रनज्ञानी अवधिज्ञानी, संयतासंयत, चतुदर्शनवाले, अवधिदर्शनवाले, पीतादि तीन लेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संज्ञी जीवों के जानना ।
६६१३. मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि देव आहारककाययोगी, आहारकमिश्र काययोगी, अपगतवेदवाले, अकषायवाले, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंगत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिए ।
इस प्रकार उत्कृष्ट जीव अल्पबहुत्वानुगम समाप्त हुआ ।
१९१४. अब जीव विषयक जघन्य अल्पबहुत्वका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— प्रोघ निर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओधकी अपेक्षा सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिके धारक जीव सबसे थोड़े हैं । अजघन्यका भंग उत्कृष्टके समान है । इसी प्रकार सब नारकी, सब पंचेन्द्रिय तिर्यंच, सब मनुष्य, सब देव, सब विकलेन्द्रिय, सब पंचेन्द्रिय, पृथिवी आदि चार स्थावर काय, सब त्रस, पांचों मनोयोगी, पाच वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारक मिश्रकाययोगी, तीनों वेदवाले, अपगतवेदवाले, क्रोधादि चारों कषायवाले, अकषायी, विभंगज्ञानी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्म सांपरायिक संयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, चतुदर्शनवाले, अवधिदर्शनवाले, पीतादि तीन लेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशम१. ता० प्रतौ 'सव्वविगलिंदिय चत्तारि' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ हिदिविहत्ती ३ सम्मामि०-सण्णि-आहारि त्ति ।
६१५. तिरिक्खेसु मिच्छत्त-बारसक०-भय-दुगुंछ० णारगभंगो । सेसमोघं । एवमसंजद० तिण्णिलेस्साणं । णवरि असंज-मिच्छ० ओघ ।
९१६, एइंदिएसु मिच्छ०-सोलसक०-णवणोक०-सम्मत्त०-सम्मामि० णारयभंगो । एवं वणप्फदि-णिगोद०-बादरमुहुमपज्जत्तापज्जत्त-कम्मइय-अण्णाहारि त्ति । ओरालियमिस्स० तिरिक्खोघं । णवरि अणंताणु०चउक्क० अपज्जत्तभंगो। एवं मदि-सुदअण्णा०-मिच्छादि०-असण्णि ति। अभव० छब्बीसपयडी० ओरालियमिस्सभंगो।
एवं चउवीस अणियोगद्दाराणि समत्ताणि ।
सम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, संज्ञी और आहारक जीवोंके जानना ।
६६१५. तियचोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साका भंग नारकियोंके समान है। शेष कथन ओघके समान है। इसी प्रकार असंयत और कृष्णादि तीन लेश्यावाले जीवोंके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि असंयतोंके मिथ्यात्वका कथन ओघके समान है।
६१६. एकेन्द्रियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नोकषाय, सम्यक्त्व, और सम्यग्मिथ्या. त्वका भंग नारकियोंके समान है। इसी प्रकार वनस्पतिकायिक और निगोद तथा इनके बादर और सूक्ष्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्त, तथा कार्मणकाययोगी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये। औदारिकमिश्रकाययोगियोंके सामान्य तियचोंके समान जानना। किन्तु इतनी विशेषता है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग अपर्याप्तकोंके समान है। इसी प्रकार मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके जानना। अभव्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंका भंग औदारिकमिश्रकाय. योगियोंके समान है।
इस प्रकार चौबीस अनुयोगद्वार समाप्त हुए।
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