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________________ जयधेवर्लासहि कसा पाहुडे हिदिविहत्ती ३ ९ ६१६. खेत्तं दुविहं – जहण्णमुकस्सं च । उक्कस्से पयद | दुविहो णिद्देसोओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मिच्छत्त- सोलसक० णवणोक० उक्क० केवडि खेत्ते १ लोग० असंखे० भागे । अणुक्क० के० खेत्ते १ सव्वलोए । सम्मत्त - सम्मामि० उक्क अणुक्क ० ६० के० १ लोग० असंखेज्जदिभागे । एवमांतरासीणं णेयव्वं जाव अरणाहारए ति । ६१७. पुढिवि० - बादर पुढवि० - बादर पुढवित्रपज्ज० आउ०- बादरचा उ०- बादरआउ अपज्ज० तेउ०- बादरतेउ०- बादरते उअपज्ज० वाउ० बादरवाउ०- बादरवाउअपज्ज०बादरवणप्फदिकाइयपत्त' य० - तेसिमपज्ज० - सव्वसुहुम-तेसिं पज्जत्ता पज्जत्ताणमेइंदियभंगो । सेस संखेज्ज-असंखेज्जरासीणमुक्क० अणुक्क० केवडि खेत्ते ? लोग० असंखे० भागे । वरि बादरवाउपज्ज० अणु० लोग ० संखे० भागे । एवमुकखेत्तागमो समत्तो । ३६४ अतः सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थितिवाले जीवों का प्रमाण असंख्यात कहा । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य स्थितिवाले जीवों का प्रमाण असंख्यात है यह स्पष्ट ही है । इसी प्रकार आगे भी जघन्य और अजघन्य स्थितिके स्वामीका विचार करके जहां जो संख्या सम्भव हो उसका कथन करना चाहिये | इस प्रकार परिमाणानुगम समाप्त हुआ । 1 $ ६१६. क्षेत्र दो प्रकारका है— जघन्य क्षेत्र और उत्कृष्ट क्षेत्र । पहले यहाँ उत्कृष्टका प्रकरण है उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं । अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सब लोक में रहते हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक अनन्त राशियोंका क्षेत्र जानना चाहिये । ९ ६१७. पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर अपर्याप्तक, तथा सब सूक्ष्म और उनके पर्याप्तक तथा अपर्याप्त जीवोंका भंग एकेन्द्रियोंके समान है । शेष संख्यात और असंख्यात राशिवालोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्र में रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्र में रहते हैं । किन्तु इतनी विशेषता है कि बादर वायुकायिकपर्याप्त जीवों में अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीव लोकके संख्यातवें भाग क्षेत्र में रहते है । विशेषार्थ - ओघ और आदेश से जिसका जो क्षेत्र है, सब प्रकृतियोंकी अनुत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा यहां उसका वही क्षेत्र ले लिया गया है । किन्तु सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा तथा सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिकी अपेक्षा क्षेत्र में विशेषता है । बात यह है कि ऐसे जीव कहीं असंख्यात और कहीं संख्यात होते हैं तथा जहां असंख्यात हैं भी वहां वे अतिस्वल्प हैं, अतः इनका क्षेत्र लोकका असंख्यातवां भाग ही सर्वत्र प्राप्त होता है यह उक्त कथनका सार है । इस प्रकार उत्कृष्ट क्षेत्रानुगम समाप्त हुआ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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