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________________ गा० २२ j हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिद्विदिविहत्तियखे ....६६१८. जहण्णए पयदं । दुविहं-अोघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत्तसोलसक०-णवणोक० जह• केवडि खेत्ते ? लोग० असंखे भागे। अज० के० खेत्ते ? सव्वलोए । सम्मत्त०-सम्मामि० ज० अज० के० खेते? लोग० असंखेज्जदिभागे । एवं कायजोगि०-ओरालि०-णस०-चत्तारिक०-अचक्खु०-भवसि०-आहारए त्ति । ६१६. आदेसेण णेरइएस अहावीसण्हं पयडीणमुक्क० भंगो। एवं सत्तसु पुढवीसु सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-सव्वमणस-सव्वदेव-सव्ववियलिंदिय-सव्यपंचिंदिय-बादरपुढविपज्ज-बादरआउपज्ज०-बादरतेउ०पज्ज०-बादरवाउ०पज्ज०-बादरवणप्फदि०पत्तेयपज्ज०-सव्वतस-पंचमण-पंचवचि-वेउव्विय०-वेउ०मिस्स०-आहार०-आहारमिस्स०इत्थि०-पुरिस०-अवगद०-अकसा०-विहंग०-आभिणि-सुद०-ओहि०-मणपज्ज०-संजद. सामाइय-छेदो०-परिहार०-मुहुम०-जहाक्खाद०-संजदासंजद०-चक्खु०-ओहिदंस०तिण्णिलेस्सा-सम्मादि०-खइय०-वेदय०-उवसम०-सासण-सम्मामि०-सण्णि त्ति। णवरि बादरवाउपज्ज. छब्बीसपयडीणं जह० अजह० लोगस्स संखेज्जदिभागे । ६६२०. तिरिक्ख० मिच्छत्त-बारसक०-भय-दुगुंछ. ज. अज० के खेत्ते ? सव्वलोए । सेस० उक्कस्सभंगो । एवं सव्वएइंदिय० । गवरि अणंताणु०४-सत्तणोक० ६६१८. अब जघन्य क्षेत्रका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-आंघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं। तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सब लोकमें रहते हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं। इसी प्रकार काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदवाले, चारों कषायवाले, अचक्षुदर्शनवाले, भव्य और आहारक जीवोंके जानना चाहिये ।। ६६१६, आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंका भंग उत्कृष्टके समान है। इसी प्रकार सातों पृथिवियों में रहनेवाले नारकी, सब पंचेन्द्रियतियंच, सब मनुष्य, सब देव, सब विकलेन्द्रिय, सब पंचेन्द्रिय, बादर पृथिवीकायिकपर्याप्त, बादर जलकायिकपर्याप्त, बादर अग्निकायिकपर्याप्त, बादर वायुकायिकपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त, सब त्रस, पांचों मनोयोगी, पाचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाय. योगी, स्त्रीवेदवाले, पुरुषवेदवाले, अपगतवेदवाले, अकषायी, विभंगज्ञानवाले, आभिनियोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहार विशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसांपरायिकसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, चक्षुदर्शनवाले, अवधिदर्शनवाले, तीन लेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संज्ञी जीवोंके जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंमें छव्वीस प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव लोकके संख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं। ६६२०. तिथंचोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमें रहते हैं ? सब लोकमें रहते हैं। तथा शेष प्रकृतियोंका भंग उत्कृष्टके समान है। इसी प्रकार सब एकेन्द्रियोंके जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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