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________________ ३६६ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ द्विदिविहत्ती ३. जह० अज० सव्वलोए । एवं पुढवि० - बादरपुढवि० - बादर पुढविपज्ज० - आउ०- बादर आउ०- बादरच्या उपज्ज० तेउ०- बाद रतेउ०- बादरतेउ अपज्ज० - वाउ०- बादरवाउ०- बादरवा उपज्ज० - सव्वेसिं सुहुम ० तेसिं पज्जत्तापज्जत - बादरवणप्फदिपत्त' य- बादरवणफदिपत्तं' यअपज्ज०-त्रणप्फदि- णिगोद-बादर सुहुमपज्जत्तापज्जत्त - ओरालियमिस्स - कम्मइय ० मदि- सुदण्णाण-मिच्छादि ० सण्णि० - अणाहारि ति । णवरि ओरालियमिस्स ०-मदिसुदअण्णा०-मिच्छादि० - असणि० सत्तणोकसाय० तिरिक्खोधं । $ ६२१. एत्थ मूलच्चारणाहिप्पाएण तिरिक्ख० मिच्छ० - बारसक० : • भय-दुगुंछ • जह० लोग ० संखे ० भागे, अज० सव्वलोए, सत्थाणविसुद्ध बादरे इंदियपज्जत्तएसु जहण्णसामित्तावलंबनादो । एवमोरालियमिस्स ० - मदि - सुदअण्णा०-मिच्छादि - असण्णिति । एइंदिय०- बादरेइंदियपज्जत्तापज्जत्त - वाउ०- बादरवाङ ० -तदपज्जत्तएसु छव्वीसपयडि ० एवं चैव । एदम्मि अहिप्पाए चत्तारिकाय - तेसिं बादर - तदपज्जत्ताणं छब्बीसपय० जह० लोग० असंखे० भागे । अज० सव्वलोगे । एतदनुसारेण च पोसणं णेदव्वमिदि । असंजद० तिण्णिलेस्सा० तिरिक्खोघं । णवरि असंजद० मिच्छ० ओघं । अभव० इनमें अनन्तानुबन्धीचतुष्क और सात नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव सब लोकमें रहते हैं । इसी प्रकार पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक अपर्याप्त, अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक, बादर अग्निकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिकअपर्याप्त, इन सबके सूक्ष्म, तथा इनके पर्याप्त और अपर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर अपर्याप्त, वनस्पतिकायिक, निगोद जीव तथा इनके बादर और सूक्ष्म तथा पर्याप्त और अपर्याप्त, औदारिकमिश्र काययोगी, कार्मणकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, मिध्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारक जीवोंके जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि दारिकमिश्रकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, मिध्यादृष्टि, और असंज्ञी जीवोंमें सात नोकषायों का क्षेत्र सामान्य तिर्यंचोंके समान है । ६२१. यहां पर मूलोच्चारण का ऐसा अभिप्राय है कि तिर्यंचों में मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जवन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव लोकके संख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं । तथा अजघन्य स्थितिविभक्तिवाले सब लोकमें रहते हैं । सो यह कथन स्वस्थान विशुद्ध बादरएकेन्द्रिय पर्याप्तकों में जघन्य स्थितिके स्वामित्वको स्वीकार करके किया गया है । इसी प्रकार औदारिकमिश्रकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, मिध्यादृष्टि और असंज्ञी जीवों के जानना चाहिये । एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रियपर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक और बाद वायुकायिक अपर्याप्त जीवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा इसी प्रकार क्षेत्र है । इसके अभिप्रायानुसार पृथिवीकायिक आदि चार स्थावर काय, इनके बादर तथा इनके अपर्याप्त जीवों में छब्बीस प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिविभक्तिवाले जीव लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं । तथा अजघन्य स्थिति विभक्तिवाले जीव सब लोकमें रहते हैं । तथा इसीके अनुसार स्पर्शनका कथन करना चाहिये । असंयत और कृष्णादि तीन लेश्यावालोंमें सामान्यतिर्यचों के समान क्षेत्र है । किन्तु इतनी विशेषता है कि असंयतों में मिथ्यात्वका क्षेत्र ओघके समान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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