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________________ गा० २२] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिहिदिविहत्तियखेत्तं ३६७ छच्चीसपयहि तिरिक्खोघं । णवरि अणंताणु० चउक० एइंदियभंगो। - एवं खेत्ताणुगमो समत्तो। है। अभव्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंका भंग सामान्य तिर्यंचोंके समान है। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग एकेन्द्रियोंके समान है। विशेषार्थ-ओघसे मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थितिवाले जीव क्षपकश्रेणीमें ही होते हैं, अतः इनका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण कहा। तथा ओघसे उक्त प्रकृतियोंकी अजघन्य स्थितिवाले जीव अनन्त हैं, अतः इनका क्षेत्र सब लोक कहा । जब सामान्यसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तावाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है तब उनकी जघन्य और अजघन्य स्थितिवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होगा, इसमें कोई आश्चर्य नहीं। यह ओघ प्ररूपणा मूलमें गिनाई हुई काययोगी आदि कुछ मार्गणाओं में अविकल बन जाती है, इसलिये उनके कथनको ओघके समान कहा । सामान्य नारकियोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि नारकियोंकी संख्याको नारकियोंकी अवगाहनासे गुणित करने पर लोकका असंख्यातवां भाग ही प्राप्त होता है, अतः इनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिके समान जघन्य और अजघन्य स्थितिकी अपेक्षा बर्तमान क्षेत्र लोकका असंख्यातवां भाग ही कहा । इसी प्रकार मूलमें सातों पृथिवियोंके नारकियोंसे लेकर संज्ञीतक और जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें भी जानना चाहिए, क्यों कि सामान्यसे उनका वर्तमान असंख्यातवें भागसे अधिक नहीं प्राप्त होता। हां केवल वायुकायिक पयाप्त जीव इसके अपबाद हैं सो इनके क्षेत्रका अनेक जगह खुलासा किया ही है। सामान्यसे तियचोंका वर्तमान क्षेत्र सब लोक है । तथा इनमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य और अजघन्य स्थितिवाले जीवोंका तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्क और सात नोकषायोंकी अजघन्य स्थितिवाले जीवोंका प्रमाण अनन्त बतला आये हैं, अतः तिर्यंचोंके उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिकी अपेक्षा सब लोक क्षेत्र बन जाता है। किन्तु शेष प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य स्थितिकी अपेक्षा तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्क और सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिकी अपेक्षा क्षेत्र लोकका असंख्यातवां ही होता है। इसका कारण इनकी संख्याकी न्यूनता है । यद्यपि एकेन्द्रियोंमें सामान्य तिर्यंचोंके समान व्यवस्था बन जाती है किन्तु अनन्तानुबन्धी चतुष्क और सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिकी अपेक्षा कुछ विशेषता है। बात यह है कि सामान्य तिर्यंचोंसे एकेन्द्रियोंमें अनन्तानुबन्धी चतुष्क और सात नोकषायोंकी जघन्य स्थिति भिन्न बतलाई है। अतः इनमें उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिवाले जीवोंका प्रमाण अनन्त प्राप्त होता है और इसलिये इनका वर्तमान क्षेत्र सब लोक बन जाता है । पृथिवीकायिकसे लेकर अनाहारक तक मूलमें और जितनी मार्गणाएं गिनाई है उनमें भी एकेन्द्रियोंके समान व्यवस्था जानना चाहिए। किन्तु औदारिक मिश्रकाययोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी मिथ्यादृष्टि और असंज्ञियोंमें सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिकी अपेक्षा अपवाद है। बात यह है कि इनमें सात नोकषायोंकी जघन्य स्थिति पंचेन्द्रियोंके अपर्याप्त काल में होती है ! अतः जघन्य स्थितिवाले जीवोंकी संख्या एकेन्द्रियोंके समान न प्राप्त होकर सामान्य तियचोंके समान प्राप्त होती है अतः इस कारण इनके सात नोकषायोंकी जघन्य स्थितिकी अपेक्षा क्षेत्र सामान्य तियचोंके समान होता है । यद्यपि पहले यह बतलाया है कि तियचोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थितिवाले जीवोंका जघन्य क्षेत्र सब लोक है फिर भी मूल उच्चारणाका यह अभिप्राय है कि ऐसे जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण है। सो इसका यह कारण है कि तियंचोंमें उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति बादर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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