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________________ ३६८ जयघवलासहिदे कसायपाहुडे [हिदिपिहली ३ ६२२. पोसणं दुविहं-जहण्णमुक्कस्सं च । उक्कस्से पयदं । दुविहो णिदेसोओघेण आदेसेण । तत्थ ओघेण मिच्छत्त-सोलसक-णवणोक० उक्क० के० खे० पोसिदं ? लोग० असंखेभागो अह-तेरह चोदसभागा वा देसूणा । अथवा इत्थिपुरिसवेद० उक्क० अह चोद्दसभागा वा देसूणा । अण्णेणाहिप्पारण बारह चोदसभागा वा देसूणा । अणु० सव्वलोगो। सम्म०-सम्मामि० उक्क० लोग. असंखे भागो अह चोद्द० देसूणा । अणुक्क० [लोग असंखे०भागो अह चोद्द० देसूणा सव्वलोगो वा । एवं [कायजोगि-] चत्तारिकसाय-मदि-सुदअण्णा०-असंजद०-अचक्खु०-भवसि-मिच्छादि० आहारि त्ति । अभव० एवं चेव । णवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तवज्ज । एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंके ही प्राप्त होती है और बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका स्वस्थान क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण ही है अतः इस अपेक्षासे तियचोंमें उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भागप्रमाण भी बन जाता है। और पहले जो सब लोक क्षेत्र बतलाया है सो इसका कारण यह है कि मारणान्तिक समुद्धातकी अपेक्षा बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवोंका क्षेत्र सब लोक है अतः उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिवाले तिर्यंचोंका क्षेत्र भी सब लोक बन जाता है। यही क्रम औदारिकमिश्रकायोगी, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंके भी घटित कर लेना चाहिये, क्योंकि उनके इस प्रकार घटित करने में कोई बाधा नहीं आती है । तथा इसी प्रकार एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय और उनके पर्याप्त और अपर्याप्त तथा वायुकायिक, बादर वायुकायिक और उनके अपर्याप्त जीवोंमें भी घटित कर लेना चाहिये। किन्तु इस मूल उच्चारणाके अनुसार पृथिवी आदि चार स्थावरकाय, इनके बादर और बादर अपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है, क्योंकि इनमें उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थितिवाले जीवोंने वर्तमान कालमें लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रको ही स्पर्श किया है। शेष कथन सुगम है। इस प्रकार क्षेत्रानुगम समाप्त हुआ। ६६२२. स्पर्शन दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । पहले यहां उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ निर्देश और आदेश निर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्श किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका तथा त्रस नालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम तेरह भाग क्षेत्रका स्पर्श किया है। अथवा स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी अपेक्षा उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । तथा अन्य अभिप्रायानुसार त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम बारह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है। इन सबकी अनुत्कृष्ट स्थिति विभक्तिवाले जीवोंने सब लोकका स्पर्श किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्तावें भाग क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्श किया है । तथा अनुत्कृष्ट स्थितिविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका तथा त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग क्षेत्रका और सब लोक क्षेत्रका स्पर्श किया है। इसी प्रकार काययोगी, चार कषायवाले, मत्यज्ञानी, श्रुताज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनवाले, भव्य, मिथ्यादृष्टि और आहारक जीवोंके जानना चाहिये। अभव्योंके इसी प्रकार जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको छोड़कर कहना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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