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________________ गा० २२ ] हिदिविहतीए उत्तरपयडिट्ठिदिविहत्तिय पोस ३६६ ९६२३. आदेसेण णेरइसु छव्वीसपयडि ० क० अणुक० लोग० असंखे० भागों विशेषार्थ — पहले मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका वर्तमान कालीन स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण बतला आये हैं । तदनुसार मोहनीय कर्मके अवान्तर भेदोंकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्शं भी लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है इससे अधिक नहीं । इसी बात को ध्यान में रखकर यहां सब प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका वर्तमान कालीन स्पर्श लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है। तथा त्र्सनाली के चौदह भागों में से कुछ कम आठ और कुछ कम तेरह भाग प्रमाण स्पर्श अतीत कालकी अपेक्षा बतलाया है, क्योंकि विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और वैक्रियिक पदसे परिणत हुए उक्त जीवोंने त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग स्पर्श किया है और मारणान्तिक समुद्धातसे परिणत हुए उक्त जीवोंने त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम तेरह भागका स्पर्श किया है। यहां आठ भागसे नीचे दो और ऊपर छह राजु क्षेत्रका ग्रहण करना चाहिये । तथा तेरह भागमें नीचेका एक राजु छोड़ देना चाहिये । एक ऐसा नियम है कि जो जीव जिस वेदवालेमें उत्पन्न होता है मरणके समय अन्तर्मुहूर्त पहलेसे उसके उसी वेदका बन्ध होता है। अब जब इस नियम के अनुसार स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिवालों के स्पर्शका विचार किया जाता है तो वह कुछ कम तेरह बटे चौदह भाग नहीं प्राप्त होता, क्योंकि नपुंसक वेद की उत्कृष्ट स्थितिवाले जो जीव नपुंसकवेदियों में उत्पन्न होते हैं उन्हीं के यह स्पर्श सम्भव है, इसलिये विकल्पान्तर रूपसे स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श कुछ कम आठ बटे चौदह भाग प्रमाण बतलाया है । किन्तु कुछ आचार्योंका मत है कि यह स्पर्श कुछ कम बारह बटे चौदह भागप्रमाण प्राप्त होता है। उनके इस मतका यह कारण प्रतीत होता है कि नीचे सातवें नरक तक उत्कृष्ट स्थिति सम्भव है और ऊपर विहारादिककी अपेक्षा अच्युत कल्प तक उत्कृष्ट स्थिति सम्भव है । अब यदि इस क्षेत्रका संकलन किया जाता है तो वह कुछ कम बारह बटे चौदह भाग प्राप्त होता है । अनुत्कृष्ट स्थितिवाले जीव सब लोकमें पाये जाते हैं यह स्पष्ट ही है अतः यहां अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका वर्तमान और अतीत दोनों प्रकारका स्पर्श सब लोक बतलाया है । अब रहीं सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियां सो इनकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका वर्तमान कालीन स्पर्श लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण अन्य प्रकृतियोंके समान जान लेना चाहिये । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श जो कुछ कम आठवटे चौदह भागप्रमाण बतलाया है । उसका कारण यह है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति वेदकसम्यग्दृष्टियों के पहले समय में होती है और वेदक सम्यग्दृष्टियोंका अतीत कालीन स्पर्श कुछ कम आठ बटे चौदह भाग प्रमाण बतलाया है, अतः सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिवालोंका भी स्पर्श उक्त प्रमाण प्राप्त होता है। तथा इनकी अनुत्कृष्ट स्थितिवालोंका स्पर्श जो तीन प्रकारका बतलाया है सो उसमें से लोकका असंख्यातवाँ भाग प्रमाण स्पर्श वर्तमान कालकी अपेक्षा प्राप्त होता है | कुछ कम आठ वटे चौदह भाग प्रमाण स्पर्श अतीत कालीन विहारादिककी अपेक्षा प्राप्त होता है और सब लोक प्रमाण स्पर्श मारणान्तिक तथा उपपाद पदकी अपेक्षा प्राप्त होता है । इस प्रकार यह सब प्रकृतियोंका सामान्यसे स्पर्श हुआ । कुछ मार्गेणाएं भी ऐसी हैं जिनमें यह घ प्ररूपणा बन जाती है, अतः उनके कथनको ओघके समान कहा है । जैसे चारों कषाय आदि । अभव्यों में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता नहीं होती। शेष सब स्पर्श ओघ के समान बन जाता है, अतः उनके भी सम्यक्त्व और सन्यग्मिथ्यात्वको छोड़कर शेषका स्पर्श ओघके समान बतलाया है । $ ६२३. देशकी अपेक्षा नारकियों में छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट स्थितिभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और त्रसनालीके चौदह भागों में से कुछ कम ४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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