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________________ गा० २२ ] वित्तीए उत्तरपयडिडिदि श्रद्धाच्छेदो २२३ ९ ३९७. कोध० चत्तारिक० जह० चत्तारि वस्साणि । सेसं मूलोघं । एवं माण० । वरि तिष्णि० संज० जह० वे वस्सारिण । सेसमोघं । एवं माया० । वरि दो संज० जह० वस्सं । सेसमोघं । श्रकसा० सव्वपयडीणं ज० अंतोकोडाकोडी | एवं जहाक्खाद ० । arrant न्तिम फालिका सर्वसंक्रमण द्वारा पुरुषवेदरूपसे संक्रमण होता है उस समय अन्तिम फालियोंकी जघन्य निषेकस्थिति पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण पाई जाती है, अतः पुरुषवेदीके स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी जघन्य स्थिति उक्तप्रमाण कही है । पुरुषवेदके अन्तिम समयमें चार संज्वलनोंकी स्थिति संख्यात वर्षप्रमाण पाई जाती है, अतः पुरुषवेदीके चार संज्वलनोंकी जघन्य स्थिति उक्त प्रमाण कही है । तथा पुरुषवेदीके शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति के समान प्राप्त होती है, अतः उनकी जघन्य स्थिति ओघके समान कही है। तथा जो द्वितीयोपशम सम्यक्त्व से उपशमश्रेणी पर चढ़ा है उसीके अपगतवेदके रहते हुए मिध्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, मध्यकी आठ कषाय स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका सत्त्व पाया जाता है । उपशमश्रेणी में सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति अतः कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण होती है, अतः अपगतवेदीके उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ीसागर प्रमाण कही है । तथा सात नोकषाय और चार संज्वलनका सत्त्व क्षपक अपगतवेदी के भी होता है. अतः अपगतवेदीके इनकी जघन्य स्थिति ओघ के समान कही है । अपगतवेदीके श्रनन्तानुबन्धी चतुष्कका सत्त्व तो हाता ही नहीं, अतः इसके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थिति नहीं कहीं । हां जिन आचार्यों के तसे अनन्तानुबन्धीकी बिना विसंयोजना किये भी जीव उपशमश्रेणी पर चढ़ सकता है उनके मतानुसार अपगतवेदीके अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी जघन्य स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण होगी जिसका यहां उल्लेख न करनेका कारण यह है कि कषायप्राभृतके मतानुसार ऐसी जीव उपशमश्रेणिपर आरोहण नहीं करता । ९ ३६७. क्रोधमें चार कषायोंका जघन्य स्थिति सत्त्वकाल चार वर्ष है । शेष मूलोधके समान है । इसी प्रकार मानमें जानना चाहिये । इतनी विशेषता है कि इसके तीन संज्वलनका जघन्य स्थिति सत्त्वकाल दो वर्ष है । तथा शेष ओघ के समान है । इसी प्रकार मायामें जानना चाहिये । पर इतनी विशेषता है कि इसके दो संज्वलनोंका जघन्य स्थिति सत्त्वकाल एक वर्ष है । तथा शेष ओघके समान है । अकषायी जीवों में सब प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल अन्त:कोड़ाकोड़ी सागर है । इसी प्रकार यथाख्यातसंयत जीवोंके जानना चाहिये । विशेषार्थ — क्रोधकषायीके क्रोध कषायके वेदन करनेके अन्तिम समय में चार संज्वलनों की जघन्य स्थिति चार वर्षं प्रमारण होती है। मानकषायीके मान कषायके वेदन करनेके अन्तिम समय में मानादि तीन संज्वलनोंकी जघन्य स्थिति दो वर्षप्रमाण होती है । तथा मायाकषायीके माया कषायके वेदन करनेके अन्तिम समय में माया आदि दो संज्वलनोंकी जघन्य स्थिति एक वर्ष प्रमाण होती है, अतः इन क्रोधादि कषायवाले जीवोंके उक्त कषायोंकी जघन्य स्थिति उक्त प्रमाण कही है। इनके शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति के समान जानना, क्योंकि इनमें से किसी भी कषायके उदयके रहते हुए दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीयकी क्षपरणा सम्भव है, अतः इन कषायवालोंके शेष प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति ओघके समान बन जाती है । उपशान्तकषाय गुणस्थान में अकषायी जीवोंके अनन्तानुबन्धी चतुष्कको छोड़ कर शेष सब प्रकृतियोंका सत्त्व सम्भव है और उपशमश्रेणी में सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति अन्तः कोड़ाकोड़ी सागरसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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