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________________ २२२ जयपवलासहिदे कसायपाहुढे [द्विदिविहत्ती ३ ____ ३६६. इत्थिवेदे मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-बारसक०-इत्थिवेदाणमोघं । णवंस० ज. पलिदो० असंखे०भागो। सत्तणोक०-चत्तारिजल० संखेज्जाणि वाससहस्साणि । एवं णस० । णवरि इत्थि० जह० पलिदो० असंखे०भागो । पुरिस० इत्थि-णव॑सयवेद० ज० पलिदो० असंखे०भागो। परिस-चत्तारिक. जह० संखेज्जाणि वस्साणि ।सेसं मूलोघं । अवगद० मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-अहक०-इत्थि-णवूस० जह० अंतोकोडाकोडीसागरोवमाणि । सत्तणोक०-चत्तारिसंज० ओघं । एक समय और उद्वेलनाकी अपेक्षा सम्यग्मिथ्यात्व की जघन्य स्थिति दो समय बन जाती है जो सौधर्म स्वर्गमें भी सम्भव है ।छठे गुणस्थानमें सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी जघन्य स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण होती है, अतः आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोगमें इनकी जघन्य स्थिति उक्त प्रमाण कही है। तथा आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोगके रहते हुए दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ नहीं होता है और जिसने दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ किया है उसकेउक्त दोनों योग नहीं होते, अतः उक्त दोनों योगोंमें तीन दर्शन मोहनीयकी जघन्य स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण ही होती है। ६३६६. स्त्रीवेदमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और स्त्रीवेदका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल ओघके समान है। नपुंसकवेदका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है । तथा सात नोकषाय और चार संज्वलनोंका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल संख्यात हजार वर्ष है। इसी प्रकार नपुंसकवेदमें जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इसमें स्त्रीवेदका जघन्यं स्थितिसत्त्वकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। पुरुषवेदमें स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण है। पुरुषवेद और चार कषायों का जघन्य स्थितिसत्त्वकाल संख्यात वर्ष है। तथा शेष मूलोष के समान है । अपगतवेदमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, आठ कषाय, स्त्रीवेद और नपुसकवेदका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर है । तथा सात नोकषाय और चार संज्वलनोंका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल ओघके समान है। विशेषार्थ-स्त्रीवेदके उदयके रहते हुए मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और स्त्रीवेदकी क्षपणा सम्भव है, अतः स्त्रीवेदीके इनकी जघन्य स्थिति ओघके समान कही है । तथा स्त्रीवेदके उदयके रहते हुए नपुंसकवेदकी क्षपणा भी हो जाती है पर जिस समय ऐसे जीवके नपुंसकवेदके अन्तिम काण्डककी अन्तिम फालिका पुरुषवेद रूपसे संक्रमण होता है उस समय उसकी जघन्य निषेक स्थिति पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण पाई जाती है, अतः स्त्रीवेदीके नपुंसकवेदकी जघन्य स्थिति उक्तप्रमाण कही है। तथा जिस समय स्त्रीवेदका प्रथम स्थितिमें विद्यमान अन्तिम निषेक स्वोदयसे, क्षयको प्राप्त होता है उस समय सात नोकषाय और चार संज्वलनका जघन्य स्थितिसत्त्व संख्यात हजार वर्ष प्रमाण पाया जाता है, अतः स्त्रीवेदीके उक्त प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति उक्तप्रमाण कही है। नपुंसकवेदीके भी इसी प्रकार सब प्रकृतियोंकी जघन्य स्थिति जानना। किन्तु क्षक नपुंसकवेदी जीव अपने उपान्त्य समयमें स्त्रीवेदके अन्तिम काण्डककी अन्तिम फालिका पुरुषवेदरूपसे संक्रमण करता है और उस समय अन्तिम फालिकी जघन्य स्थिति पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण पाई जाती है, अतः नपुंसकवेदीके स्त्रीवेदकी जघन्य स्थिति उक्त प्रमाण कही है । तथा पुरुषवेदीके जब स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.001409
Book TitleKasaypahudam Part 03
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year
Total Pages564
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size15 MB
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