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गा० २२ ] हिदिविहत्तीए उत्तरपयडिविदिश्रद्धाच्छेदो
२२१ सत्तभागा पलिदो असंखे० भागेण ऊणा । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त० एइंदियभंगो। पंचिंदियअपज. पंचिंतिरि०अपज्जत्तभंगो। तसअपज० वेइंदियअपज्जत्तभंगो।
३३६५. वेउव्यि० सबभंगो । णवरि सम्म०-सम्मामि० जोदिसियभंगो। वेउव्वियमिस्स० मिच्छत्त-सोलसक-भय-दुगुंछ० जह० अंतोकोडाकोडीसागरोवमाणि । सम्मत्त-सम्मामि० सोहम्मभंगो । सत्तणोक० जह० सागरोवमसहस्सस्स चत्तारि सत्तभागा पलिदोवमस्स संखेजदिभागेण ऊणा । आहार-आहारमिस्स० सव्वपयडीणं जह० अंतोकोडाकोडीसागरोवमाणि । दो भागप्रमाण है। सात नोकषायोंका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल एक सागरके सात भागोंमेंसे पल्योपमके असंख्यातवें भागसे न्यून चार भागप्रमाण है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका एकेन्द्रियोंके समान भंग है। पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकोंमें पंचेन्द्रियतिथंच अपर्याप्तकोंके समान भंग है । बस अपर्याप्तकोंमें दो इन्द्रिय अपर्याप्तकोंके समान भंग है।
विशेषार्थ-जब कोई एक एकेन्द्रिय जीव विकलत्रयोंमें उत्पन्न होता है तो वह वहां उत्पन्न होनेके पहले समयमें ही कमसे कम विकलत्रयोंके योग्य जघन्य स्थितिका बन्ध करने लगता है, अतः विकलत्रयके मिथ्यात्व, सोलह कषाय तथा भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति मूलमें बतलाये अनुसार ही प्राप्त होगी। किन्तु सात नोकषाय प्रतिपक्षभूत प्रकृतियां हैं, अत: बिकलत्रयोंके इनकी जघन्य स्थिति एकेन्द्यिोंके समान भी बन जाती है । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति उद्वेलनाकी अपेक्षा एकेन्द्रियोंके समान दो समय जाननी चाहिये । पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके पंचेन्द्रिय तियेच अपर्याप्तकोंके समान तथा त्रस अपर्याप्तकोंके द्वीन्द्रिय अपर्याप्तकोंके समान जघन्य स्थिति जाननेकी जो मूलमें सूचना की सो उसका कारण स्पष्ट ही है ।
६३६५. वैक्रियिककाययोगियों में सर्वार्थसिद्धिके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि इनमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल ज्योतिषियोंके समान है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल सौधर्मके समान है । तथा सात नोकषायोंका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल एक हजार सागरके सात भागोंमें से पल्योपमके संख्यातवें भागसे न्यून चार भागप्रमाण है। आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंके सभी प्रकृतियोंका जघन्य स्थितिसत्त्वकाल अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर है ।
विशेषार्थ-देव वैक्रियिककाययोगी भी होते हैं अतः वैक्रियिककाययोगमें सर्वार्थसिद्धिके समान सब कर्मोंकी जघन्य स्थिति बन जाती है। किन्तु वैक्रियिक काययोगमें कृतकृत्यवेदक सम्यक्त्व नहीं पाया जाता, अतः इसमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य स्थिति ज्योतिषियोंके समान दो समय जानना । ऐसा नियम है कि शरीर ग्रहण करनेके पश्चात् संज्ञी जीव पंचेन्द्रियके योग्य स्थितिका ही बन्ध करता है अतः वैक्रियिकमिश्रकाययोगमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य स्थिति अन्तःकोड़ाकोड़ी सागर कही है। किन्तु सात नोकषाय सप्रतिपक्षभूत प्रकृतियां हैं । इनका बन्ध एक साथ नहीं होता, अतः वैक्रियिकमिश्रकाययोगके रहते हुए भी इनकी जघन्य स्थिति असंज्ञीके योग्य प्राप्त हो जाती है जो मूलमें बतलाई ही है। तथा वैक्रियिक मिश्रकाययोगमें कृतकृत्यवेदक सम्यक्त्व भी पाया जाता है, अतः इसमें सम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति
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